27-11-2018 (Important News Clippings)

Afeias
27 Nov 2018
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Date:27-11-18

Let Them Be

Sentinelese have good reason to shun contact with us, don’t intrude

TOI Editorials

Demands by a far right US Christian group to punish Sentinel Islanders, for killing American national John Allen Chau who sought to commune with them despite warnings against it, are misplaced. For decades, the Indian state has largely left these reclusive people to their own devices. We need to forego our patronising views of aborigines like those living on North Sentinel Island: if they have shown every indication they want to shun contact with us, they have good reasons.

Many millennia of living in isolation and in far smaller numbers have denied them exposure and immunity to most infectious diseases that other human societies encountered. The civilising process we want to subject them to has derisively been labelled syphillisation, for this reason. It could be the collective memory of exploitation or epidemics after contact with outsiders that makes the Sentinelese hostile.

Our assumptions about nomadic hunter gatherers and their lifestyles are being overturned by modern thinkers who note that agriculture and settlements may not really have made us a happier race, or better off in lower economic strata. Their rich and diversified diet, for example, has been compared to that of affluent people in industrial societies (minus the junk food), which keeps them healthier. Their survival after the 2004 tsunami points to intelligence of a high order. And on one parameter at least – living in harmony with nature – they score far higher than modern civilisation. Anthropologists, poachers, fishermen, tourists and soul harvesters may have selfish reasons to approach these people or encroach on their territory, but government must continue its “eyes on, hands off” approach. The home ministry’s recent decision to include North Sentinel Island among 29 islands that will not require a restricted area permit, purportedly to boost tourism, was uncalled for. Let the Sentinelese be.


Date:27-11-18

Pakistan Bashing as Divide and Rule

ET Editorials

Divide and rule was a mainstay of politics for British colonialists. Unifying a disparate populace riven by religion, region, language, caste and ethnicity was essential, to fight colonial rule. That momentum ran for some time after Independence. Thereafter, the politics of mobilising the support of one group for oneself by projecting some other group as an enemy has gained currency. Hindu vs Muslim, Hindi vs regional language, outsider vs local residents, upper caste vs lower caste, western culture vs Indian roots — only the ability to innovate limits the list of binary identities politicians use to elevate themselves to leadership. Most are transparently facile and expedient. But one, Pakistan vs India, is insidious and, therefore, challenging.

The Pakistani deep State’s hostility to India is real and has material, lethal consequences. This makes constructive engagement with Pakistan and the very idea of constructive engagement difficult. But geography is, indeed, destiny in Indo-Pak relations. We have to live with them and they have to live with us. It is imperative to work towards peaceful coexistence, if not warm neighbourliness, while swatting back the many cross-border assaults on the very idea of peaceful coexistence. The civilian government of Pakistan’s willingness to give easy access to Sikh pilgrims to the Kartarpur Sahib shrine in 2019, when Guru Nanak’s 550th birth anniversary would be celebrated, is to be welcomed, just as continuing efforts from within Pakistan to revive Khalistani terror in India, as well as cross-border firing at Indian soldiers, are condemnable.

Those who show appreciation of the Pak government’s Kartarpur gesture are no less patriotic than those who focus on condemning cross-border violence against India. To pretend otherwise, to score political points, is to create needless division within Indian society. Attacking Pakistan to demonstrate patriotic virility, while simultaneously painting Muslims as Pak proxies and those who seek peace with Pakistan as a fifth column, makes India less cohesive as a polity.


Date:27-11-18

सस्ते तेल की तैयारी

संपादकीय

वैश्विक बाजारों में कच्चे तेल की कीमतों में अचानक और तेज गिरावट आने के बाद देश के नीति निर्माताओं के समक्ष कई प्रकार के विकल्प उत्पन्न हो गए हैं। दरअसल भारत अपने कच्चे तेल का 80 फीसदी आयात करता है, ऐसे में तेल कीमतों में आने वाली किसी भी प्रकार की गिरावट उसके लिए हमेशा लाभदायक रहती है। कच्चे तेल के भारतीय बास्केट की औसत कीमत इस वित्त वर्ष में अब तक करीब 74 डॉलर प्रति बैरल रही है। अब माना जा रहा है कि आने वाले कुछ समय तक यह 55 से 60 डॉलर प्रति बैरल के दायरे में रहेगी। जाहिर सी बात है कि इससे अर्थव्यवस्था को काफी मदद मिलेगी और बहुत हद तक यह भी संभव है कि भारतीय रिजर्व बैंक इसके चलते ब्याज दरों में कटौती करे क्योंकि ऐसा करने से निवेश तथा वृद्धि को बल मिलेगा। पूरे वर्ष का आयात बिल पेट्रोलियम मंत्रालय द्वारा महीने भर पहले अनुमानित 12,500 करोड़ डॉलर के अनुमानित बिल से काफी कम हो सकता है।

बहरहाल, वैश्विक तेल कीमतों में यह गिरावट एक ऐसा परिणाम भी ला सकती है जिसकी तैयारी हमें पहले से ही रखनी होगी। बहुत संभव है कि इस गिरावट के बाद एक बार फिर विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश करना आरंभ करें। यह शेयर बाजार के लिए अच्छी खबर हो सकती है लेकिन व्यापक अर्थव्यवस्था की दृष्टि से इसका असर मिलाजुला रहेगा। नवंबर महीने में करीब 40,000 करोड़ डॉलर की पूंजी बाहर जाने के बाद अब शुद्ध आवक सकारात्मक हुई है। आशंका यह है कि रुपये में एक बार पुन: अस्थिरता देखने को मिलेगी। विदेशी विनिमय बाजार को ध्यान में रखकर बात करें तो एफपीआई की आवक में इजाफा रुपये और डॉलर की विनिमय दर पर नकारात्मक असर डालेगा और बहुत संभव है कि यह भारतीय निर्यात में सुधार को भी प्रभावित करे। आरबीआई को इस संभावना को ध्यान में रखते हुए ही काम करना होगा।

यह बात सच है कि अब मुद्रा प्रबंधन केंद्रीय बैंक का लक्ष्य नहीं रहा लेकिन उसके लिए यह एक अच्छा अवसर है कि वह भविष्य के लिए भंडार तैयार करे। अगर रुपया भारतीय निर्यात में वृद्धि के लिहाज से अत्यधिक अधिमूल्यित है तो इसमें गिरावट आनी ही है। एफपीआई आवक में तात्कालिक उछाल के बावजूद ऐसा होगा और आरबीआई को भी लंबी अवधि के दौरान रुपये में आने वाली गिरावट को थामने के लिए डॉलर में भंडार जुटाने की अपनी क्षमता का भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए। सरकार को इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि तेल कीमतों में इस गिरावट का उसके राजकोष पर क्या असर होगा। जरूरी नहीं कि आगामी आम चुनाव से पहले तेल कीमतों में गिरावट का इस्तेमाल उसे आम जनमानस को संतुष्ट करने में करना पड़े। यह सही है कि अगर उसे राजकोषीय घाटे का लक्ष्य हासिल करने में परेशानी हो रही हो तो वह तेल से आने वाले कर राजस्व में कमी को उलटने में भी सक्षम होगी।

बहरहाल, तेल कीमतों में गिरावट को स्थायी मानने की कोई वजह नहीं है। कीमतों में यह गिरावट मध्यम अवधि में जारी रह सकती है क्योंकि जमाल खशोगी की हत्या के बाद सऊदी अरब की सरकार अमेरिका को तसल्ली देने का प्रयास कर रही है। इसके अलावा अमेरिका ने भारत समेत ईरानी तेल के प्रमुख ग्राहकों को नए प्रतिबंधों से रियायत देने का निर्णय किया है। ऐसे भूराजनैतिक हालात हमेशा जारी नहीं रहने वाले हैं। ऐसे में भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक कीमतों पर इसकी लंबी निर्भरता से मुक्त कराने पर नए सिरे से विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है।


Date:26-11-18

प्रेरणादायी मेरीकॉम

संपादकीय

ओलंपिक पदक विजेता भारतीय महिला मुक्केबाज एमसी मेरीकॉम विश्व मुक्केबाजी चैंपियनशिप का खिताब जीतने के साथ ही ऐसी पहली मुक्केबाज बन गई हैं, जिनने यह खिताब छह बार जीता है। उनकी इस रिकॉर्डतोड़ जीत को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय खेलों के लिए गर्व का पल बताया। नई दिल्ली में संपन्न आईबा विश्व मुक्केबाजी चैंपियनशिप के 48 किग्रा. भार वर्ग के फाइनल में उन्होंने अपने से तेरह साल छोटी यूक्रेन की हना आखोता को 5-0 से पराजित किया। मुकाबले के बाद उनके आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। आखिर, आठ साल बाद उन्होंने स्वर्ण पदक जीता था। यह उनकी और उनके परिवार की मेहनत, संघर्ष और त्याग का ही तो प्रतिफल है। चैंपियनशिप की वह सर्वश्रेष्ठ मुक्केबाज भी चुनी गई। छह स्वर्ण और एक रजत पदक जीतने का कारनामा विश्व मुक्केबाजी में मेरीकॉम से पहले कोई मुक्केबाज नहीं कर सकी है। उनसे पहले सर्वाधिक स्वर्ण पदक जीतने का रिकॉर्ड आयरलैंड की केटी टेलर (पांच स्वर्ण और एक कांस्य पदक) के नाम था। इस जीत के साथ मेरीकॉम विश्व चैंपियनशिप में सर्वाधिक पदक (महिला एवं पुरुष मुक्केबाजी) जीतने वाली पहली मुक्केबाज भी बन गई हैं। उनकी जीत इसलिए भी प्रेरणादायी है कि छठा स्वर्ण पदक जीतने की उनकी राह आसान नहीं थी।

खिताबी मुकाबले से ऐन पहले उनकी तबीयत एकाएक बिगड़ गई थी। संसद सदस्य और तीन बच्चों की मां पैतीस वर्षीया मेरीकॉम तेज पेट दर्द से हलकान थीं। टीम प्रबंधन असमंजस में पड़ गया कि उन्हें मुकाबले में उतारा जाए या नहीं। लेकिन दवाएं लेकर फिट मुक्केबाज की तरह रिंग में उतर कर उन्होंने दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाते हुए हना ही नहीं बल्कि दर्द को भी परास्त कर दिया। मुकाबले के दौरान जाहिर तक नहीं होने दिया कि दर्द उन्हें परेशान किए हुए है। स्वर्ण पदक अपने नाम करने के तत्काल बाद उनकी तबीयत इस कदर खराब हो गई कि दो घंटे तक उपचार कराना पड़ा। मेरीकॉम की जीत का मायना यह भी है कि ‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की डगर पर अग्रसर अपने देश की बच्चियों के लिए मणिपुर और भारत की आइकन और अजुर्न अवार्ड, पदश्री और राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार और पद्म भूषण से नवाजी जा चुकीं मेरीकॉम प्रेरणा स्त्रोत बन चुकी हैं, महिला सशक्तिकरण की मशाल बन गई हैं।


Date:26-11-18

छोटे उद्योग कारोबार की मुश्किलों में एक उम्मीद

जयंतीलाल भंडारी , अर्थशास्त्री

देश के सूक्ष्म, लघु और मंझोले (एमएसएमई) क्षेत्र की करीब 6.5 करोड़ इकाइयों में से ज्यादातर ने नोटबंदी और जीएसटी के बाद जिन समस्याओं का सामना किया है, उनमें पूंजी की कमी और कर्ज संकट सबसे चिंताजनक हैं। ऐसी इकाइयों को इस मुश्किल से राहत देने के लिए हाल ही में 19 नवंबर को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) के बोर्ड की बैठक में उन्हें ज्यादा और सस्ता कर्ज मुहैया कराने के लिए सहमति बनी है। छोटे उद्योग-कारोबार की फंसे कर्ज वाली इकाइयों के लिए कर्ज पुनर्गठन योजना पर भी सहमति बनी है। सरकार लगातार जोर दे रही थी कि रिजर्व बैंक 11 सरकारी बैंकों के कर्ज बांटने पर लगाए गए अंकुश में ढील दे, ताकि छोटे उद्योगों को ऋण प्रवाह में तेजी आए।

छोटे-छोटे उद्योग देश में विकास दर और रोजगार बढ़ाने में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। देश में कृषि के बाद सबसे अधिक रोजगार इसी क्षेत्र से मिलता रहा है। छोटे और मध्यम उद्योग-कारोबार का देश के औद्योगिक उत्पादन में करीब 45 फीसदी और निर्यात में करीब 40 फीसदी का योगदान है। डॉलर की मजबूती और वैश्विक सुस्ती के कारण छोटे उद्योगों की ज्यादातर इकाइयां महंगे कर्ज, बिजली समस्या, मांग में कमी, भुगतान रुकने, कराधान, बैंकिंग, वित्तीय व विपणन संबंधी परेशानियों का सामना कर रही हैं। बडे़ उद्योग और बड़ी पूंजी के उद्यमी अपनी स्पद्र्धा क्षमता के आधार पर छोटे उद्यमियों को मैदान से बाहर करते दिखाई दे रहे हैं। इस समय देश के छोटे उद्योगों के सामने सबसे बड़ी चुनौती अमेरिका में 50 भारतीय उत्पादों पर लगाए गए आयात शुल्क के कारण भी दिखाई दे रही है। अमेरिका ने भारत की 50 वस्तुओं को ड्यूटी फ्री आयात की सूची से हटा दिया है। इनमें ज्यादातर हैंडलूम और कृषि क्षेत्र के उत्पाद हैं, जिन्हें छोटे-मंझोले कारोबारी तैयार करते हैं। अब भारत से निर्यात होने वाली अरहर दाल, सुपारी, तारपीन गम, प्रिजर्व किए हुए आम, सैंडस्टोन, टिन क्लोराइड, बेरियम क्लोराइड, हैंडलूम कॉटन फैब्रिक, हैंडलूम कार्पेट, सोने की परत चढे़ बेस मेटल के नेकलेस पर शुल्क लगेगा। इससे ये वस्तुएं अमेरिकी बाजार में महंगी हो जाएंगी और भारत से इनके निर्यात में कमी आएगी।

ऐसे में, केंद्र सरकार ने सूक्ष्म, लघु और मंझोली इकाइयों को राहत देने के लिए जिन 12 अहम प्रोत्साहनों की घोषणा की है, उनके क्रियान्वयन पर ही ये समुचित रूप से आगे बढ़ सकेंगे। इन प्रोत्साहनों की लंबे समय से प्रतीक्षा की जा रही थी। नए प्रोत्साहनों के तहत अब जीएसटी में रजिस्टर्ड छोटी व मध्यम इकाइयां नए पोर्टल के जरिए सिर्फ 59 मिनट में एक करोड़ रुपये तक कर्ज हासिल कर सकती हैं। इस सीमा के भीतर अतिरिक्त कर्ज पर ब्याज में दो फीसदी की छूट मिलेगी। एमएसएमई फैक्टरियों के निरीक्षण को कंप्यूटराइज्ड रैंडम अलॉटमेंट के जरिए मंजूरी दी जाएगी। इंस्पेक्टर को रिपोर्ट 48 घंटे के भीतर पोर्टल पर अपलोड करनी होगी। पर्यावरण नियमों को भी आसान किया गया है। फैक्टरी लगाने के लिए वायु और जल प्रदूषण की सिर्फ एक मंजूरी लेने की जरूरत होगी। आठ श्रम कानूनों और 10 केंद्रीय नियमों के लिए एमएसएमई को सिर्फ एक सालाना रिटर्न दाखिल करना पडे़गा। छोटे-मोटे केस विभागों में ही निपटाए जाएंगे, कोर्ट नहीं जाना पडे़गा। सरकारी कंपनियों को हर साल अपनी 25 फीसदी खरीद छोटी इकाइयों से करनी पडे़गी।

लेकिन इन सुविधाओं के साथ ही हमें अब फूंक-फूंककर कदम रखने होंगे। खासकर ऋण अनुशासन का ध्यान रखा जाना जरूरी हो जाएगा। यह ध्यान रखना होगा कि एक करोड़ रुपये तक का कर्ज लेने वाले नए छोटे उद्यमियों के ऋण कहीं डूबकर बैंकों के गले की एक नई घंटी न बन जाएं। सस्ते और सरल कर्ज के साथ अब यह भी जरूरी होगा कि सूक्ष्म, छोटी और मंझोली औद्योगिक-कारोबारी इकाइयों को जो प्रोत्साहन पैकेज दिए गए हैं, उनका तेजी से क्रियान्वयन हो। उम्मीद है कि अब सूक्ष्म, छोटी और मंझोली औद्योगिक इकाइयां आगे बढ़कर आय वृद्धि, रोजगार वृद्धि और अर्थव्यवस्था की चमकीली संभावनाओं को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी।


Date:26-11-18

Constructing A City

Urban planning curriculum must inculcate a diverse, inter-disciplinary approach

Srirang Sohoni , [ The writer, 21, is a student of planning at College of Engineering, Pune]

Compare Pune and Chicago. Both have roughly the same population but there is a stark contrast in their liveability. Despite being two centuries older than Chicago and having a much older municipality, crises such as acute water scarcity and hopeless traffic jams haunt Pune. These problems are commonplace in almost all Indian cities, despite large budgets and fleets of officials. It is time we ask: Where are we going wrong? In my opinion, we have gone wrong in deciding what qualifies as planning and what does not.

City management and planning is a formidable challenge. But the statutory bodies entrusted with this responsibility do not seem to recognise the enormity of this challenge. Nor do the colleges that claim to be imparting actionable knowledge of planning place planners at responsible positions.

The success stories of the cities of the West that emerged from the detritus of world wars are worth examining. When philosophers, architects, engineers and free-thinkers (planning had not emerged as a profession then) sat to reflect upon how cities should be constructed anew, a flurry of theorisation began. In the genesis was Lewis Keeble’s blueprint theory which saw planning as an extension of architecture — “what architecture does to houses is what planning does to cities”. Next came the pluralist theory drawing upon the need of not one, but multiple agencies to be involved in the plan-making process. But the biggest leap in planning theory was one that was founded on the advances in mathematics. Planners found in mathematics the tools to visualise cities as complex and dynamic systems that were becoming increasingly difficult to manage with the onset of industrialisation and its concomitant effects such as movement of goods, coming up of factories, establishment of institutions and of course, the tendency of people to purchase cars.

Today, if we consider cities such as New York, London and Paris as some of the most iconic cities in the world, it is because plans carrying a heavy systems approach were imposed on their precincts. The backbone of the systems theory is the process of translating social, spatial and cultural desirables into mathematical models using computing, statistics, optimisation and an algorithmic way of formulating and solving problems. The early universities of the West which began to train professionals in planning, spawned some of the most ingenious planners, who were experts in these domains. This was because these very subjects were absorbed into the planning curricula that had its roots in the social sciences, geography and architecture.

Planning in India, and its education, differs from the West. The curriculum for budding planners does not infuse some of the most essential components of the systems theory of planning. It fails to enable the students of planning to answer basic questions like how to compute the number of buses a city’s transportation system would require. The answers to these questions lie in the systems approach that absorbs mathematical modelling as a key ingredient in its recipe of planning.

A famous analogy in planning is the one that compares a city with an organism, where both are conceived as a set of interconnected working components (or organs). For dealing with ailments, a well-trained doctor is the one who can understand organs, diagnose failures, and prescribe remedial measures. Our cities currently fall short of such doctors who can diagnose, analyse and prescribe. No other programme renders formal training that focuses upon empowering its graduates to answer the basic questions such as public transport needs or how districts are to be managed. Planning should be at the forefront of attempts to answer these questions. Assimilating the essential components of the systems theory of planning and establishing links with other areas of learning may open up new and crucial roles for planners.


Date:26-11-18

Leave them alone

Calls to take action against the Sentinelese for a tragic death are dangerously misguided

EDITORIAL

The death of a young American man at the hands of the inhabitants of North Sentinel Island in the Andaman and Nicobar Islands has led to dangerous lines of debate. Some have called for the Sentinelese to be convicted and punished and others have urged that they be integrated into modern society. Both these demands are misguided, and can only result in the extinction of a people. John Chau’s killing was a tragedy but his attempt to make contact with the Sentinelese, who he seemed to know something about, was foolhardy and dangerous, not only to himself but to them. There is a reason why no one — whether missionary, scholar, adventurer, U.S. citizen or Indian — is allowed to venture near North Sentinel Island without permission, which is given only in the rarest of circumstances and with meticulous precautions in place to ensure that the Sentinelese are not disturbed. Having lived in isolation in an island in the Bay of Bengal for thousands of years, the Sentinelese have no immunity or resistance to even the commonest of infections. Various degrees of protection are in place for the indigenous people of A&N Islands, but it is complete in the case of the Sentinelese. The administration enforces “an ‘eyes-on and hands-off’ policy to ensure that no poachers enter the island”. A protocol of circumnavigation of the island is in place, and the buffer maintained around the island is enforced under various laws. The Sentinelese are perhaps the most reclusive community in the world today. Their language is so far understood by no other group and they have traditionally guarded their island fiercely, attacking most intruders with spears and arrows. Arrows were fired even at a government aircraft that flew over the island after the 2004 Tsunami.

Chau knowingly broke the law, as did those who took took him to the waters off North Sentinel Island. Seven persons, including five fishermen, have been arrested for facilitating this misadventure. To call for an investigation on the island, however, is to fail to see its historical and administrative uniqueness. At the heart of the issue is the survival of the Sentinelese. According to the 2011 Census, their population was just 15 — though anthropologists like T.N. Pandit, who made contact with them in the 1960s, put the figure at 80-90. This degree of ignorance about the Sentinelese often sparks an Orientalist public discourse, instead of understanding the dangers of trying to physically overpower them. Chau’s death is a cautionary incident — for the danger of adventurism, and for the administration to step up oversight. But it is also an occasion for the country to embrace its human heritage in all its diversity, and to empathetically try to see the world from the eyes of its most vulnerable inhabitants.