27-09-2024 (Important News Clippings)
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Date: 27-09-24
समस्या न बनने पाए श्रीलंका
हर्ष वी. पंत और आदित्य जी. शिवमूर्ति, ( पंत आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष और शिवमूर्ति एसोसिएट फेलो हैं )
श्रीलंका के हालिया चुनाव में जनता विमुक्ति पेरामुना यानी जेवीपी को जीत हासिल हुई और उसके नेता अनुरा कुमारा दिसानायके नए राष्ट्रपति चुने गए। ऐसा प्रतीत होता है कि जनता ने ढांचागत बदलाव और भ्रष्टाचार मुक्त सरकार के लिए जनादेश दिया है। नई सरकार की विदेश नीति को लेकर तमाम अटकलें लगाई जा रही हैं। दिसानायके के अतीत और वैचारिक झुकाव को देखते हुए यह स्वाभाविक भी है। हालांकि वर्तमान आर्थिक एवं भूराजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए यही संभावना अधिक है कि श्रीलंका उसी राह पर आगे बढ़ेगा, जिसमें वह भारत और चीन के साथ संतुलन साध सके। सुशासन और सुधारों को लेकर नई सरकार से जुड़ी उम्मीदें भी दीर्घकाल में भारत और उसके सहयोगियों को लाभ पहुंचाएंगी।
जेवीपी पिछली सदी के सातवें दशक में अस्तित्व में आई। अपने मार्क्सवादी चिंतन और सिंहली राष्ट्रवादी विचारधारा के चलते आरंभ से ही उसका रवैया भारत विरोधी रहा। दक्षिण एशिया में भारतीय ‘विस्तारवाद’ से निपटना उसके वैचारिक लक्ष्यों में से एक रहा। इसने 1971 में पहली बार श्रीलंका राज्य के विरुद्ध विद्रोह किया, जिसे तुरंत ही दबा दिया गया। तब कोलंबो एयरपोर्ट की सुरक्षा के अलावा सरकार के अनुरोध पर भारत ने सामुद्रिक निगरानी का भी काम किया। हालांकि 1987 से 1990 के बीच दूसरे दौर के इसके विद्रोह में भारत विरोधी तेवर कहीं तीखे थे। जेवीपी ने श्रीलंका-भारत के उस समझौते का भी विरोध किया था, जिसके तहत श्रीलंका में भारतीय शांति सेना को अनुमति दी गई थी।
अपनी स्वीकार्यता को बढ़ाने और भ्रष्ट एवं अक्षम कुलीन तबके को हटाने में भी इस संगठन ने अपने भारत विरोधी रवैये को नए तेवर दिए। वर्ष 1994 में जेवीपी सशस्त्र संघर्ष की राह छोड़ मुख्यधारा की राजनीति से जुड़ी, मगर मतदाताओं की पारंपरिक पसंद नहीं बन पाई। जब 2022 के आर्थिक संकट में लोग स्थापित व्यवस्था और नेताओं से आजिज आ गए, तब दिसानायके की लोकप्रियता बढ़नी शुरू हुई। जेवीपी के बढ़ते ग्राफ ने भारत को भी इस पार्टी के साथ सक्रियता बढ़ाने की दिशा में उन्मुख किया। चूंकि चुनावी नतीजों को लेकर भारी अनिश्चितता जुड़ी थी तो भारत के लिए सत्ता के प्रमुख दावेदारों के साथ संपर्क बनाए रखना जरूरी था। इसी सिलसिले में चुनावों से पहले भारत ने श्रीलंका के विभिन्न दलों के नेताओं को आमंत्रित किया। विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने कई नेताओं से बात भी की। दिसानायके भी इन नेताओं में शामिल रहे।
भारत की व्यावहारिक सक्रियता उसकी पड़ोसी-प्रथम नीति और सागर दृष्टिकोण के अनुरूप ही है। चूंकि समय के साथ श्रीलंका का भूराजनीतिक महत्व और बढ़ा है तो भारत भी वहां अपनी मौजूदगी बढ़ाकर लाभ उठाने के प्रयास में लगा है। जिस समय श्रीलंका आर्थिक दुश्वारी और अस्तित्व के संकट से जूझ रहा था, तब भारत ने चार अरब डालर के कर्ज के साथ ही करेंसी स्वैप, अनुदान और क्रेडिट लाइन जैसे कई उपायों से उसे मदद पहुंचाई। इसके अलावा कई आवश्यक वस्तुओं और दवाओं की आपूर्ति की। इस पड़ोसी देश पर चीन की बढ़ती पकड़ को देखते हुए भारत ने अपने प्रयासों की गति और बढ़ाई। इसी का नतीजा है कि भारत श्रीलंका में एयरपोर्ट और बंदरगाहों को अपग्रेड करने के साथ ही त्रिनकोमाली क्षेत्र के विकास और अक्षय ऊर्जा, रिफाइनरी, एनर्जी ग्रिड एवं पेट्रोलियम पाइपलाइन से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश कर रहा है। तमाम भारतीय कंपनियां श्रीलंका सरकार के उपक्रमों में निवेश में दिलचस्पी दिखा रही हैं। दोनों देश एक लैंड ब्रिज बनाने पर भी चर्चा कर रहे हैं। आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग अनुबंध (ईटीसीए) पर भी बात चल रही है।
जेवीपी के स्तर पर भी बदलाव की आहट दिखती है। उसे महसूस हो रहा है कि समकालीन विश्व में शीत युद्ध वाली मानसिकता से काम नहीं चल सकता। चुनावों के दौरान भी यह रवैया दिखा। उसे यह लगता है कि अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में भारत का भूराजनीतिक कद और उसकी आर्थिकी बहुत मददगार हो सकती है। दिसानायके ने श्रीलंका के विकास और बुनियादी ढांचे को उन्नत बनाने के जो चुनावी वादे किए हैं, उनकी पूर्ति भारत के साथ सहयोग से ही संभव हो सकती है। सरकार पर्यटन और सूचना प्रौद्योगिकी के जरिये भी राजस्व बढ़ाना चाहती है। उसमें भी भारत की अहम भूमिका होगी। इसलिए भारत की चिंताओं पर गौर करना जेवीपी के लिए जरूरी होगा। उसके घोषणा पत्र में भी उल्लेख था कि किसी भी देश विशेषकर भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को जोखिम में डालने वाली किसी भी प्रकार की गतिविधि को उसकी जमीन और जल एवं वायु सीमा से इजाजत नहीं दी जाएगी। इसके बाद भी भारत को देखना होगा कि श्रीलंका उसके हितों के लिए समस्या न बनने पाए।
यह तय है कि नई सरकार चीन के साथ भी संतुलन साधने की दिशा में बढ़ेगी। बीजिंग भी अपनी साम्यवादी विचारधारा को देखते हुए नई सरकार के साथ सक्रियता बढ़ाएगा। दिसानायके भी चुनाव पूर्व भारत से पहले चीन का दौरा कर चुके हैं। करीब सात अरब डालर के साथ बीजिंग श्रीलंका के लिए सबसे बड़े ऋणदाताओं में से एक बना हुआ है। हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी स्थिति और मजबूत करने के लिए चीन के ऐसे प्रयास जारी रहेंगे। जैसे हंबनटोटा में रिफाइनरी के लिए 4.5 अरब डालर के निवेश की पेशकश श्रीलंका के लिए जरूर लुभावनी होगी, जिससे उसे अपनी आर्थिकी को पटरी पर लाने में मदद मिलेगी।
हालांकि चुनाव जीतने के बाद वादों को पूरा करने की नई चुनौती उत्पन्न होती है। देखना होगा कि दिसानायके इस चुनौती का सामना कैसे करते हैं। दिसानायके ने कुछ कदम उठाने भी शुरू कर दिए हैं, जिसका संभावित निवेश पर कुछ असर पड़ सकता है। जैसे अदाणी एनर्जी की परियोजना को लाल झंडी दिखाना। हो सकता है कि वह कुछ ऐसे फैसले लें, जो चीन के गले न उतरें, जो तमाम तिकड़मों के सहारे देशों के शोषण की योजना पर काम करता है। हालांकि अगर दिसानायके नीर-क्षीर विश्लेषण के साथ इस दिशा में आगे बढ़ते हैं तो यह भारत और उसके जैसे सोच वाले साझेदारों के लिए ही फायदेमंद होगा, क्योंकि तब चीन के लिए अनुचित लाभ की गुंजाइश खत्म हो जाएगी। साथ ही श्रीलंका के तंत्र में पारदर्शिता एवं जवाबदेही भी बढ़ेगी।
Date: 27-09-24
भारत जैसी उभरती ताकत के लिए चुनौतियां
श्याम सरन, ( लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं )
भारत अब भी विकासशील देश की पहचान से बाहर नहीं निकल पाया है। इसकी प्रति व्यक्ति आय 2,500 डॉलर है, जो आय एवं धन में व्यापक असमानता की तरफ इशारा करती है। मानव विकास सूचकांक में भारत इस समय 193 देशों में 134वें स्थान पर है। मानव विकास सूचकांक किसी देश की आबादी के सामाजिक एवं आर्थिक विकास के आकलन का अधिक उपयुक्त माध्यम है। विकसित भारत का स्वप्न साकार करने का मार्ग लंबा प्रतीत हो रहा है और लगभग निश्चित है कि 2047 में जब देश अपनी स्वतंत्रता की 100वीं वर्षगांठ मनाएगा तब तक यह लक्ष्य पूरा नहीं होने जा रहा है।
भारत को प्रति व्यक्ति आय के आधार पर बेशक निम्न से मध्यम आय वर्ग वाले देश की श्रेणी में रखा जा सकता है मगर यह उच्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वाले देशों में शुमार है। भारत की अर्थव्यवस्था का आकार इस समय 3.5 लाख करोड़ डॉलर है और इस लिहाज से यह दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था मानी जाती है। किंतु शेष बड़ी अर्थव्यवस्थाओं तथा इसके बीच अंतर काफी अधिक है।
वैश्विक जीडीपी में अमेरिका की हिस्सेदारी 26.3 प्रतिशत, यूरोपीय संघ की 17.3 प्रतिशत और चीन की 16.9 प्रतिशत है लेकिन भारत की हिस्सेदारी महज 3.6 प्रतिशत है। चूंकि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में दूसरे की तुलना में आपका वजन काफी मायने रखता है, इसलिए वृहद-आर्थिक दृष्टि से दुनिया में भारत का रुतबा औसत स्तर का माना जा सकता है।
हालांकि कुछ ऐसे कारक भी हैं, जो भारत को वजनदार बना रहे हैं। भारत की आबादी दुनिया में अब सबसे अधिक हो गई है और इसमें युवाओं की संख्या अधिक है। भारत के लिए संभवतः यह बड़ी ताकत है क्योंकि चीन सहित दुनिया के अन्य देशों में आबादी तेजी से कम हो रही है और उसमें भी उम्रदराज लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है।
भारत दुनिया की दूसरी सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था है और इसका जीडीपी 6 से 6.5 प्रतिशत दर से बढ़ रहा है। अगर वृद्धि की यह दर बरकरार रही तो वैश्विक जीडीपी में ठहराव आने पर भारत आर्थिक एवं वाणिज्यिक संभावनाओं का बड़ा केंद्र बन जाएगा। भारत जलवायु परिवर्तन, जन स्वास्थ्य, खाद्य एवं ऊर्जा सुरक्षा तथा तकनीक में बदलाव जैसी चुनौतियों से निपटने में सकारात्मक भूमिका निभा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय समस्याएं इतनी पेचीदा होती हैं कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों या औद्योगिक एवं विकासशील देशों के समूह जी-7 के लिए भी इनका व्यापक समाधान खोज पाना मुश्किल होता है। ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए शक्तिशाली देश बाकी दुनिया पर अब पहले की तरह वैश्विक नियम-कायदे नहीं लाद सकते।
तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाएं किसी विशेष क्षेत्र में वैश्विक व्यवस्था का आकार निर्धारित करने में आगे नहीं आ पाती हैं मगर वे ऐसी व्यवस्था लागू होने से रोकने में जरूर अपनी ताकत का इस्तेमाल करती हैं। इससे यह संदेश जा सकता है कि तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाएं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले प्रयासों में बाधा डालती हैं। मगर इसके ठीक उलट वे पहले के मुकाबले अधिक कारगर तरीके से अपने हितों की रक्षा कर पा रही हैं। भारत अपने हितों की रक्षा के लिए ऐसे कदम उठा चुका है और वह आगे भी ऐसा करेगा। मगर इसे वैश्विक स्तर पर पेचीदा संवाद प्रक्रिया में अपनी बात कारगर तरीके से रखने के लिए अपनी क्षमता बढ़ानी होगी।
भारत के आर्थिक एवं सामाजिक विकास सूचकांकों में मेल नहीं दिखता है। सामाजिक विकास सूचकांकों में यह अब भी पीछे चल रहा है मगर इस बीच दुनिया में भारत की छवि में काफी सुधार हुआ है। भारत के विकास का यह ढांचा दुनिया की स्थापित अर्थव्यवस्थाओं में पाए जाने वाले तौर-तरीकों से काफी अलग है। वैश्विक पटल पर दूसरे देशों की अहमियत उनके लोगों एवं सामाजिक कल्याण में सतत सुधारों के साथ-साथ बढ़ती जाती है।
तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाएं दुनिया में सक्रिय भूमिका निभाने में उलझन का सामना करती हैं। इन देशों से अपेक्षा की जाती है कि वे अधिक जिम्मेदारी उठाएं और साझा वैश्विक हितों में अधिक योगदान दें। मगर इन देशों को उन वैश्विक ढांचे की तलाश रहती है जो उन्हें घरेलू चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक संसाधन और जरिये मुहैया कराएं। भारत जैसे देशों के लिए ऐसे ढांचे की तलाश जरूरी है क्योंकि वह विकासशील देश से बड़ी उभरती शक्ति बनने की तरफ कदम बढ़ा रहा है।
भारत जैसी तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए वैश्विक स्तर पर बड़ी भूमिका निभाना और देश के भीतर चुनौतियों से निपटने की अनिवार्यता के बीच संतुलन स्थापित करना आसान नहीं है मगर उसके लिए यह जरूरी है। विभिन्न देशों के साथ साझेदारी करने, छोटे स्तर के समझौतों, क्षेत्रीय एवं कार्यशील समूहों में सक्रिय भागीदारी निभाने में भारत की सक्रियता इसी ओर इशारा करती है। भारत उन विशेष उद्देश्यों के लिए तैयार गठबंधनों में हिस्सा ले रहा है और यह निर्णय उसके लिए लाभकारी भी रहा है।
भारत को ‘क्वाड’ (अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ) और ‘शांघाई सहयोग संगठन’ (जिसमें चीन, रूस, ईरान, पाकिस्तान और पश्चिम एशिया हैं) का हिस्सा होने में किसी तरह का विरोधाभास नहीं दिखता। न ही इसे ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) में चीन जैसे देशों के साथ सहयोग करने में कोई एतराज है। इसी तरह बिम्सटेक (जिसमें भारत, बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका तथा दक्षिण-पूर्व एशिया से थाईलैंड और म्यांमार शामिल हैं) का हिस्सा बनकर भी यह अन्य देशों के साथ सहयोग कर रहा है।
भारत ने जी-20 सम्मेलन का सफल आयोजन किया है। ये सभी प्रयास भारत को वैश्विक शक्ति बनाते हैं। देश के भीतर भारत की क्षमता और दुनिया में इसकी छवि के बीच तालमेल का अभाव इसकी विदेश नीति के लिए जटिल चुनौतियां खड़ी करता है। दुनिया में बढ़ता कद भारत के लिए संतुष्टि की बात है मगर आर्थिक, तकनीकी और सुरक्षा क्षमताओं के लिहाज से अधिक ताकतवर नहीं होने से वैश्विक समीकरण को नई दिशा देने में भारत की भूमिका सीमित रह जाती है।
हमारी मुख्य चिंता अपने नागरिकों के आर्थिक और सामाजिक विकास से जुड़ी है। इस लिहाज से वैश्विक ताने-बाने में भारत की स्थित सहज नहीं लगती है। व्यापार की बात हो या जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियां, भारत पूरी दुनिया को सार्वजनिक उपभोग का सामान देते हैं और दूसरे देशों से ऐसा सामान लेते भी हैं। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के अधिक सहज नियम-कायदों की हिमायत करने या अपने विकास की जरूरतों के लिए अंतरराष्ट्रीय वित्त एवं तकनीक हस्तांतरण की मांग करने में हमारी प्राथमिकता चीन सहित दूसरे देशों से अलग है।
प्रश्न यह है कि भारत को वैश्विक स्तर पर अग्रणी भूमिका निभाने वाले देश के रूप में उससे लगाई जा रही उम्मीदों को कब पूरा करना चाहिए और कब इनका विरोध करना चाहिए, जबकि ऐसा करना उसकी गरीब आबादी के लिए नुकसानदेह हो सकता है? क्या हमें दुनिया के निम्न आय वर्ग वाले विकासशील देश के रूप में अपनी पहचान को दुनिया में एक बड़ी ताकत बनने की ख्वाहिश की तुलना में अधिक तरजीह देनी चाहिए?
भारत के लिए यह पसोपेश वाली स्थिति है, जो अगले कई वर्षों तक बनी रहेगी। प्रत्येक स्थिति में हमें संतुलन साधना होगा ताकि वैश्विक स्तर पर बड़े देश की भूमिका निभाते समय हमारे करोड़ों नागरिकों के बुनियादी विकास पर कोई असर न पड़े। यह संतुलन भारत के नागरिकों के हितों के अनुरूप रहना चाहिए।
Date: 27-09-24
क्वाड देशों के अंतर्विरोध
ब्रहाद्वीप अलूने
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सामूहिक सुरक्षा की अवधारणा एक मजबूत और स्थायी तंत्र है, जो शांति और सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद करती है। भारत, अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया के हिंद प्रशांत में गहरे आर्थिक और सामरिक हित है, जिन्हें चीन से लगातार चुनौती मिल रही है। क्वाड इन चारों देशों का प्रतिनिधित्व करने वाला एक रणनीतिक गठबंधन है, जिसे आपसी सहयोग को बढ़ावा देने के लिए स्थापित किया गया है। इस गठबंधन का मुख्य उद्देश्य हिंद प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा, आर्थिक और रणनीतिक सहयोग को मजबूत करना है। क्वाड, शक्ति संतुलन की दृष्टि से भी बेहद महत्त्वपूर्ण है। यह सदस्य देशों के बीच राजनीतिक और सैन्य संबंधों को मजबूत करता है, जो क्षेत्र में स्थिरता बनाए रखने में सहायक है।
इस समूह के शीर्ष नेताओं के बीच पिछले चार-पांच वर्षों से नियमित रूप से बैठकें और संवाद की प्रक्रिया तो चल रही है, लेकिन इसके सदस्य देशों- भारत, अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया- की राजनीतिक और आर्थिक प्राथमिकताएं अलग-अलग होने से, इस समूह के राष्ट्रों के बीच ही अंतर्विरोध देखा जा रहा है। यही कारण है कि क्वाड का प्रभाव न तो सामरिक और कूटनीतिक स्तर पर दिखाई पड़ता है और न ही चीन से निपटने के लिए कोई प्रभावी कार्ययोजना और दीर्घकालिक रणनीति आगे बढ़ सकी है। अमेरिका में आयोजित क्वाड शिखर सम्मेलन में दक्षिण चीन सागर के सैन्यीकरण पर चिंता तो जताई गई, लेकिन कुछ बिंदुओं पर आपसी मतभेद भी दिखाई दिए। वहीं अमेरिका का रुख भारत को आशंकित करने वाला रहा।
भारत में खालिस्तानी गतिविधियों को लेकर सुरक्षा चिंताएं रही हैं और इसकी गंभीरता का अहसास अमेरिका को भी है। इसके बाद भी प्रधानमंत्री की यात्रा के ठीक पहले खालिस्तानी समर्थकों के साथ अमेरिकी प्रशासन ने वाइट हाउस में एक बैठक की। अमेरिका में कई समूह मानवाधिकार और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं और अमेरिकी प्रशासन इसका इस्तेमाल वैश्विक स्तर पर राजनीतिक दबाव बढ़ाने के लिए करता है। खालिस्तानी आतंकी पन्नू की हत्या की साजिश को लेकर न्यूयार्क की एक अदालत में भारत के कई लोगों को समन जारी किया था। अमेरिकी अदालत और बाइडेन प्रशासन के कदम भारत विरोध और भारत की सुरक्षा से जुड़े महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की छवि धूमिल करने तथा भारत की एकता तथा अखंडता को चुनौती देने के तौर पर देखे जाने चाहिए।
पन्नू के पास अमेरिका के साथ कनाडा की भी नागरिकता है। अमेरिका और कनाडा के मजबूत द्विपक्षीय संबंध हैं। कनाडा की जमीन खालिस्तानियों के लिए सुरक्षित मानी जाती है तथा वहां की राजनीति में कई पृथकतावादी खालिस्तानी नेता हावी हैं। ऐसे में अमेरिका का रुख कनाडा समर्थक और भारत विरोधी दिखाई पड़ रहा है।
भारत और अमेरिका के संबंध हाल के वर्षों में काफी मजबूत हुए हैं। दोनों देशों के बीच संयुक्त सैन्य अभ्यास, हथियारों की बिक्री और रक्षा प्रौद्योगिकी का आदान-प्रदान हो रहा है। दोनों देश एक-दूसरे के लिए महत्त्वपूर्ण व्यापारिक भागीदार हैं तथा कई मुद्दों पर साझा हित भी रखते हैं। इन सबके बाद भी कई मामलों में अमेरिका की कूटनीति भारत की परेशानियां बढ़ा रही है। खासकर पड़ोसी राष्ट्र बांग्लादेश में शेख हसीना के तख्तापलट में अमेरिका की भूमिका उभरना और इसके बाद अंतरिम सरकार को अमेरिकी आर्थिक मदद से भारत की सुरक्षा चुनौती बढ़ गई है। हिंद महासागर से लगे बांग्लादेश में चीन के बंदरगाह हैं और भविष्य में चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश का सुरक्षा घेरा भारत के साथ क्वाड के अन्य देशों की चुनौतियां भी बढ़ा सकता है।
बांग्लादेश हिंद महासागर में दक्षिण एशिया और पूर्वी एशिया के बीच एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग के केंद्र में है। शेख हसीना के सत्ता में रहने से भारत ने बांग्लादेश और चीन के सामरिक सहयोग को एक सीमा से आगे नहीं जाने दिया था। अब बांग्लादेश में शेख हसीना के सत्ता से जाने के बाद पाकिस्तान और चीन का समर्थन करने वाली राजनीतिक ताकतों को अमेरिकी मदद ने क्वाड की सामूहिक सुरक्षा की अवधारणा को ही ध्वस्त कर दिया है।
क्वाड के एक और साझेदार आस्ट्रेलिया से भी भारत के रिश्ते स्थिर नहीं हैं। 2020 में आस्ट्रेलिया ने दो भारतीय नागरिकों को जासूसी के आरोप में निष्कासित कर दिया था और अब क्वाड सम्मेलन के दौरान अमेरिका की यात्रा पर आए आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज ने मीडिया के सामने इसे कूटनीतिक तरीके से उठाने की बात स्वीकार की। ऐसा लगता है कि अल्बनीज कनाडा के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि क्वाड जैसे बहुआयामी सुरक्षा संगठन के केंद्र में रहने वाले भारत के अमेरिका और आस्ट्रेलिया के साथ मजबूत संबंध होने के बाद भी, इन दोनों देशों ने खालिस्तानी आतंकियों पर दबाव डालने के लिए भारत की मदद करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। इन सबके बीच क्वाड देशों की चीन के साथ आर्थिक निर्भरता भी आपसी संबंधों के अलग-अलग आयाम प्रदर्शित करती है। सीमा पर भारत और चीन के जटिल संबंधों के बाद भी आर्थिक मोर्चे पर स्थितियां अलग हैं। चीन भारत का एक बड़ा व्यापारिक भागीदार है। इसी प्रकार आस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था के लिए चीन एक महत्त्वपूर्ण बााजार है। आस्ट्रेलिया चीन से संतुलित संबंधों का हिमायती रहा है। वहीं जापान और अमेरिका के बेहद मजबूत संबंध हैं। अमेरिका और जापान रक्षा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सहयोग कर रहे हैं, जिसमें नई तकनीकों का विकास और उसे साझा करना शामिल है।
दरअसल, क्वाड समूह में चीन को लेकर अमेरिका ज्यादा मुखर दिखाई पड़ता है। वह चीन को एक प्रमुख रणनीतिक प्रतिस्पर्धी मानता है। इसका मुख्य कारण चीन की तेजी से बढ़ती सैन्य शक्ति, आर्थिक प्रभाव और वैश्विक स्तर पर उसकी विस्तारवादी नीतियां हैं। अमेरिका ने कई चीनी तकनीकी कंपनियों पर प्रतिबंध लगाए हैं और तिब्बत, शिनजियांग और हांगकांग में मानवाधिकार तथा लोकतंत्र की स्थिति पर चिंता जताई है। अमेरिका चीन के वैश्विक प्रभाव को रोकना चाहता है और इसीलिए उसने क्षेत्रीय सुरक्षा गठबंधनों को तरजीह दी है। दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती दादागीरी दुनिया के लिए चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि विश्व व्यापार का एक बड़ा हिस्सा यहीं से गुजरता है।
यह समुद्री मार्ग चीन, जापान, कोरिया और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के लिए आर्थिक गतिविधियों का केंद्र है। यह क्षेत्र चीन, वियतनाम, फिलीपींस, मलेशिया और ब्रुनेई के बीच स्थित है जिससे यह भौगोलिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण हो जाता है। अमेरिका ने एशिया प्रशांत क्षेत्र में अपने सहयोगियों के साथ मिल कर चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए सहयोग बढ़ाया है और क्वाड उसी का प्रतिनिधित्व करता है।