27-08-2024 (Important News Clippings)
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Date:27-08-24
No more delays
Caste enumeration should not hold the Census from being undertaken quickly
Editorial
In what can only be a case of muddying the waters, the Union government is reportedly mulling the expansion of data collection in the long-delayed Census to include caste enumeration. That caste may be one of the variables in the Census could be an outcome of the strident demand for a caste census by several political parties. But considering the incomplete and poorly constructed nature of the Socio-Economic and Caste Census of 2011, which resulted in data that were unwieldy, inaccurate, and hence unusable, the government must not hurry into utilising the office of the Registrar General and other agencies to tabulate caste. There must first be a definite time frame to conduct the Census on a war footing. If the delay is deliberate, in order to allow for delimitation to be conducted first in 2026, this will be harmful not just to public policy but also to relations with States. As of June 2024, out of 233 countries, India was one of 44 not to have conducted the Census this decade. The ostensible reason provided by the Union Home Ministry was delay due to the COVID-19 pandemic, but 143 other countries conducted the Census after March 2020, which marked the onset of the pandemic. India shares this dubious distinction of not having a Census with countries affected by conflict, economic crises or turmoil such as Yemen, Syria, Afghanistan, Myanmar, Ukraine, Sri Lanka and in sub-Saharan Africa.
There remains little excuse to continually delay the decennial Census, an exercise that has been conducted without fail from 1881 to 2011. Yet, the deadline to freeze administrative boundaries of districts, tehsils, towns and municipal bodies — a prerequisite before the conduct of the Census — lapsed on June 30 this year. This deadline has been extended 10 times since 2019. Several public schemes such as the National Food Security Act, the National Social Assistance Programme and the delimitation of constituencies are dependent upon the Census being conducted. Besides, statistical surveys that go into setting policy such as those related to household and social consumption, the National Family Health Survey, the Periodic Labour Force Survey, and the Sample Registration System, among others, use the Census to set their sampling frames. With the 2011 Census data getting increasingly out-dated and phenomena such as migration across and within States, the urbanisation of Indian societies, and the suburbanisation of cities becoming increasingly prominent in recent years, the lack of a Census is telling. The reliance on a bevy of sample surveys to fill in the gap is only resulting in debates over methodology and conclusions based on cherry-picking according to one’s political choice. Clearly, the Union government must stop being derelict in its duties and should proceed with the Census quickly.
Date:27-08-24
बीच का रास्ता
संपादकीय
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सरकारी कर्मचारियों के लिए एक नई पेंशन योजना को गत सप्ताह मंजूरी प्रदान की जिसे यूनिफाइड पेंशन सिस्टम (यूपीएस) का नाम दिया गया है। इसे 1 अप्रैल, 2025 से लागू किया जाएगा। इससे उन सरकारी कर्मचारियों को लाभ मिलेगा जिन्होंने 1 जनवरी, 2024 के बाद नौकरी शुरू की है तथा जो न्यू पेंशन स्कीम (एनपीएस) में शामिल हैं। यूपीएस के तहत केंद्र सरकार के कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति के पहले के 12 महीनों के औसत मूल वेतन के 50 फीसदी के बराबर पेंशन मिलेगी। इसके लिए शर्त है कि कर्मचारी ने न्यूनतम 25 वर्षों की सेवा अवधि पूरी की हो। कम अवधि तक नौकरी करने वालों की पेंशन कम होगी लेकिन इसके लिए कम से कम 10 साल नौकरी करना जरूरी होगा। न्यूनतम 10 वर्ष नौकरी करने वाले कर्मचारियों को 10,000 रुपये की सुनिश्चित मासिक पेंशन प्रदान की जाएगी। यूपीएस में परिवार पेंशन भी मिलेगी तथा महंगाई का भी ध्यान रखा जाएगा। यूपीएस को मंजूरी मिलने के साथ ही सरकार ने पुरानी पेंशन योजना और नई पेंशन योजना की विशेषताओं को मिलाकर बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की है।
पेंशन का मसला कुछ राज्यों में हाल में हुए विधानसभा चुनावों में राजनीतिक रूप से भावनात्मक रहा है। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब जैसे कुछ राज्यों ने जहां उस समय राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार नहीं थी, वापस पुरानी पेंशन योजना अपना ली। इसकी वजह से भविष्य की पीढ़ियों पर पेंशन का बोझ पड़ेगा। उधर केंद्र सरकार ने तत्कालीन वित्त सचिव टीवी सोमनाथन के अधीन एक समिति का गठन किया था ताकि इस विषय की पड़ताल की जा सके ओपीएस के उलट जहां यूपीएस के तहत मिलने वाले लाभ परिभाषित होंगे, वहीं इसमें एनपीएस की तरह सुनिश्चित योगदान भी करना होगा। कर्मचारी यूपीएस में अपने मूल वेतन का 10 फीसदी और महंगाई भर्ती का योगदान जारी रखेंगे सरकार अब एनपीएस में 14 फीसदी के स्थान पर इसमें 18.5 फीसदी का योगदान करेगी। पहले वर्ष में इस अतिरिक्त योगदान का बोझ करीब 6,250 करोड़ रुपये होगा जबकि एकबारगी बकाये के रूप में 800 करोड़ रुपये की राशि खर्च होगी। जिन लोगों ने एनपीएस की शुरुआत के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली हैं उन्हें यूपीएस को अपनाने का विकल्प मिलेगा। यह योजना राज्य सरकारों के कर्मचारियों के लिए भी उपलब्ध होगी।
केंद्र सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के बीच पेंशन को लेकर व्याप्त अनिश्चितता को दूर करने की कोशिश की है। सुनिश्चित पेंशन के साथ अब उन्हें अपने पेंशन फंड्स के प्रदर्शन को लेकर चिंतित नहीं होना होगा। योगदान बढ़ने के कारण सरकार को अतिरिक्त राशि चुकानी होगी। इसके अलावा भविष्य में अगर सुनिश्चित राशि प्रदान करने के लिए पेंशन फंड पर्याप्त रिटर्न नहीं जुटा पाता तो उसे इसके लिए भी धन जुटाना होगा। इसके बावजूद वह ओपीएस की तुलना में बेहतर विकल्प है क्योंकि इसमें भविष्य की पीढ़ियों पर उतना दबाव नहीं होगा। यद्यपि यूपीएस ने सरकारी कर्मचारियों की चिंताओं को दूर करने की कोशिश की है लेकिन अभी देखना होगा कि राजनीतिक रूप से इसका क्या असर होता है। संभव है कि कुछ राज्य अभी भी ओपीएस की और वापस जाएंगे क्योंकि अल्पावधि में उन्हें योगदान के मोर्चे पर बचत देखने को मिलेगी। बहरहाल वृहद आर्थिक नजरिये से ऐसे कठिन सुधारों को उलट देना अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ेगा। उदाहरण के लिए चालू वर्ष में केंद्र सरकार के स्तर पर पेंशन पर होने वाला व्यव केंद्र के कर राजस्व का तकरीबन 10 प्रतिशत होने का अनुमान है। एनपीएस को अपनाना हालिया दशकों के सबसे अहम सुधारों में से एक था। यह देश के लिए दीर्घकालिक लाभ का विषय होता और इसमें किसी भी तरह के बदलाव से बचना चाहिए था।
Date:27-08-24
भारत में नए आविष्कार के युग का उदय
अजित बालकृष्णन, ( लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं )
कुछ हफ्ते पहले एक सुबह मैं भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) बंबई के सम्मेलन कक्ष में बैठा था। मैं उस कक्ष में छह अन्य लोगों के साथ एक कार्यक्रम शुरू होने का इंतजार कर रहा था। पूरा हॉल आईआईटी के छात्रों एवं प्राध्यापकों से खचाखच भरा था। इस भारी जुटान के लिए मैं मानसिक रूप से तैयार भी था। इसका कारण यह था कि मुझे आईआईटी और आईआईएम (भारतीय प्रबंध संस्थान) से किसी न किसी कार्यक्रम में शामिल होने के निमंत्रण मिलते रहते हैं। मुझे निर्णायकों की उस समिति में शामिल होने के लिए कहा जाता है जिसके सामने आईआईटी या आईआईएम के छात्र अपने शोध पत्र या उद्यम के विचार रखते हैं। मैं कुछ घंटों तक नए अल्गोरिद्म पर चर्चा सुनने और उस पर विचार-विमर्श करने के लिए मानसिक एवं भावनात्मक रूप से पूरी तरह तैयार था।
मुझे बताया गया कि उस दिन 10 टीमें आएंगी और हर टीम में दो सदस्य होंगे। प्रत्येक टीम अपने उत्पादों के नमूने या प्रोटोटाइप पेश करेगी, जो उन्होंने आईआईटी बंबई में छह सप्ताह ठहरकर तैयार किए हैं। आयोजकों ने जोर दिया कि कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे सभी भागीदारों का जोर ‘इन्वेंशन’ (आविष्कार) पर रहेगा ‘इनोवेशन’ (नवाचार) पर नहीं। वे लोग तो इस पर चर्चा कर रहे थे मगर मैंने इस बीच चुपके से अपना मोबाइल फोन निकाला और अपने दोस्त चैटजीपीटी से दोनों के बीच अंतर समझने की कोशिश की। मैंने अपने दोस्त से यह भी कहा कि उनके बीच अंतर केवल एक वाक्य में बताओ। मेरे दोस्त चैटजीपीटी ने तुरंत मेरी इच्छा पूरी की और बताया, ‘आविष्कार कुछ नया तैयार कर देने की प्रक्रिया है, जबकि नवाचार में पहले से मौजूद विचारों को सुधारकर और बदलकर बेहतर इस्तेमाल किया जाता है’। इस उत्तर से चीजें अधिक स्पष्ट हो गईं।
प्रस्तुति शुरू होने के बाद मैं अचरज में पड़ गया। मैंने तो खुद को समझाया था कि आईआईटी क्या किसी भी इंजीनियर कॉलेज के छात्र केवल छह हफ्तों में तैयार प्रोटोटाइप से क्या दिखा सकते हैं? मुझे लगा था कि छह हफ्तों में उन्होंने जो भी सोचा है, उसके बारे में वे पावर पॉइंट प्रस्तुति के जरिये बताएंगे। मगर जो हुआ उसने मुझे भौंचक्का कर डाला। मंच पर आने वाली हरेक टीम ने अपने विचार रखते समय केवल पावर पॉइंट प्रस्तुति ही नहीं दी बल्कि तैयार उत्पाद भी सामने रख दिया। उदाहरण के लिए एक टीम ने तरल पदार्थ की बोतलों पर लगाने वाला ढक्कन दिखाया। उसने दिखाया कि उस ढक्कन की मदद से कैसे बोतल से निश्चित मात्रा में तरल निकाल सकते हैं। इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति ढक्कन में लगे शाफ्ट को घुमाकर किसी निश्चित मात्रा (मान लीजिए 50 मिलीलीटर) पर सेट कर दे तो बोतल झुकाने पर उतनी ही मात्रा में तरल बाहर आता है। आसान शब्दों में कहें तो आपको मात्रा बार-बार नापने की जरूरत नहीं पड़ेगी, यह काम ढक्कन की मदद से अपने आप हो जाएगा। टीम का कहना था कि इस ईजाद से उन लोगों को मदद मिलेगी, जिन्हें नियमित तौर पर एक निश्चित मात्रा में दवा लेनी होती है। मैं यह सोचकर हैरान था कि उस टीम ने महज छह हफ्ते में ऐसा अनूठा उत्पाद तैयार कर लिया था।
दूसरी टीम ने ‘माउंटेबल गारबेज कॉम्पैक्टर’ का नमूना पेश किया। इस कॉम्पैक्टर का इस्तेमाल नगर निगम के कूड़ेदान में किया जा सकता है। इसे कूड़ेदान के ढक्कन पर रखा जाएगा तो यह कचरे को दबा देगा, जिससे उसमें और कचरे के लिए जगह बन जाएगी यानी कूड़ेदान में अधिक कचरा भरा जा सकेगा। दूसरे शब्दों में ‘कॉम्पैक्टर’ की मदद से नगर निगम के कूड़ेदानों में सामान्य से चार-पांच गुना अधिक कचरा आ सकेगा। मैं यह सोचकर दंग था कि इन बच्चों को कूड़े के बेहतर तरीके निपटान जैसी समस्याओं का ख्याल भी आखिर कैसे आया। मेरी पीढ़ी के आईआईटी एवं आईआईएम के बच्चे गणित के मॉडलों में ही दिमाग खपाते रह गए थे और शायद ही किसी ने तकनीक के जरिये देश के नागरिकों की जीवन शैली सुधारने के बारे में सोचा था।
मुझे सबसे ज्यादा मगर सुखद आश्चर्य तब हुआ, जब एक युवक और युवती अपना आविष्कार लेकर मंच पर आए। उनके पास एक छोटे से उपकरण का प्रोटोटाइप था, जिसमें एयर कंप्रेसर बैग लगा था। अगर आप लंबे समय से मांसपेशी के दर्द से जूझ रहे हैं तो इस बैग को अपनी पेशियों के इर्दगिर्द लपेट सकते हैं। बैग में दर्द खत्म करने वाला मरहम भी भरा जा सकता है। एथलीट एवं फुटबॉल प्रेमी होने के कारण यह प्रयोग मुझे बहुत काम का लगा। मगर ज्यादा सुखद आश्चर्य यह था कि इसे तैयार करने वाली टीम में एक महिला भी थी। महिला आविष्कारक? मैं जानता हूं कि भारत में महिलाएं कई ऊंचे पदों पर पहुंच चुकी हैं। देश के कई बड़े बैंकों में महिलाएं मुख्य कार्याधिकारी बन चुकी हैं और इस समय देश की वित्त मंत्री भी महिला ही हैं। मगर 20 वर्ष की किसी लड़की का इतने काम की ईजाद में योगदान करना वाकई चौंकाने वाला था। जब आप किसी महिला को एक अनूठे आविष्कार में भागीदार बना देखते हैं तो आपको तुरंत अहसास होता है कि सभ्यता के रूप में भारत ने शानदार प्रगति कर ली है। उस दिन ऐसी कई महिलाएं नजर आईं।
उस दिन अपने आविष्कार दिखाने वाली प्रत्येक टीम ने अपने इन अनूठे उत्पाद में पेटेंट कराने लायक खूबियों का भी जिक्र किया। उन्होंने बताया कि उनके उत्पाद किस तरह अलग थे और बाजार में मौजूद ऐसे दूसरे उपकरणों से बेहतर थे। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी बताया कि उन्हें भारत और अमेरिका में उनके उत्पादों के अस्थायी पेटेंट भी मिल गए हैं! उस दिन हमने जो 10 प्रस्तुतियां देखीं, वे आईआईटी एवं अन्य इंजीनियरिंग संस्थानों से आए 700 आवेदनों में चुनी गई थीं। इसकी आयोजक एक गैर-लाभकारी संस्था मेकर भवन फाउंडेशन है, जिसकी शुरुआत आईआईटी के पूर्व छात्रों ने अमेरिका में की थी।
हाल के वर्षों में भारत ने महसूस किया है कि स्टार्टअप एवं ‘कौशल’ देश में आर्थिक वृद्धि और रोजगार सृजन को बढ़ावा देने में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन,आत्मनिर्भर एवं कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय सभी केंद्र एवं राज्य स्तरों पर कई कार्यक्रम चलाते हैं। भारत में ऐसी कई वित्तीय इकाइयां भी हैं, जो स्टार्टअप इकाइयों में निवेश करने पर विचार कर रही हैं। मगर ‘इन्वेंशन फैक्टरी’ उन सभी से अलग हैं क्योंकि वह पावर पॉइंट प्रस्तुति और अगले कुछ वर्षों के लिए कारोबारी अनुमानों के बजाय वास्तविक उपकरण (फिजिकल डिवाइस) तैयार करने पर ध्यान दे रही हैं, जो एकदम नए विचार वाले यानी पेटेंट कराने योग्य हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ध्यान ‘आविष्कार’ पर केंद्रित हो ‘नवाचार’ पर नहीं।
Date:27-08-24
शोषण का पर्दा
संपादकीय
मलयालम फिल्म उद्योग को लेकर एक धारणा रही है कि केरल में होने के नाते वहां की स्थितियां बेहतर होंगी, महिलाओं के लिए अपेक्षया ज्यादा सहज और अनुकूल माहौल होगा। मगर कुछ महिला कलाकारों के आरोप के बाद अब जो मामले उजागर हो रहे हैं, उससे यही लगता है कि पर्दे पर प्रगतिशील और महिलाओं के हक में दिखने वाली फिल्मी दुनिया का भीतरी ढांचा कई स्तर पर महिलाओं के खिलाफ बहुस्तरीय शोषण की शर्मनाक तस्वीर भी छिपाए हुए है। मलयालम फिल्म उद्योग में महिला कलाकारों के शोषण के मसले पर 2017 में गठित न्यायमूर्ति हेमा समिति की रपट के अब सामने आने के बाद कुछ पुराने मामले भी उभर रहे हैं। गौरतलब है कि एक अभिनेत्री ने मलयालम फिल्मों के एक निर्माता रंजीत पर अनुचित व्यवहार करने का आरोप लगाया, जिसके बाद रविवार को रंजीत ने केरल चित्रकला अकादमी के प्रमुख के पद से इस्तीफा दे दिया। वहीं एक अन्य अभिनेत्री के यौन उत्पीड़न के आरोप के बाद अभिनेता सिद्दीकी ने ‘एसोसिएशन आफ मलयालम मूवी आर्टिस्ट्स’ के महासचिव पद से इस्तीफा दे दिया।
यों आरोपों के घेरे में आने वाली हस्तियों ने सच्चाई सामने आने का इंतजार करने का हवाला दिया है, मगर इस मसले पर गठित समिति की रपट में जो हकीकत सामने आई है, उसके बाद किस तरह के सच की उम्मीद की जा सकती है! संभव है कि आरोप और उसके साबित होने के बीच लंबा फासला हो। यह भी परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि फिल्म में काम पाने के लिए किसी महिला को मजबूरी में जो समझौते करने पड़े, शोषण या भेदभाव के मसले पर चुप रहना पड़ा, उसके काफी समय बीत जाने के बाद आरोप उसी रूप में साबित हो सकें। मगर मलयालम फिल्मों की दुनिया में महिलाओं के साथ होने वाले अनुचित व्यवहारों को हेमा समिति ने जिस शक्ल में दर्ज किया है, उससे साफ है कि पर्दे पर दिखने वाली प्रगतिशील कहानियों का नेपथ्य महिला कलाकारों के लिए उतना ही अनुकूल नहीं रहा है। वैसी स्थिति की कल्पना भी बेहद तकलीफदेह है जिसमें किसी महिला को उस व्यक्ति की पत्नी की भूमिका निभानी पड़ी, उसे गले लगाना पड़ा, जिसने एक दिन पहले उसका यौन उत्पीड़न किया था।
ऐसी न जाने कितनी घटनाएं काम नहीं मिलने और यहां तक कि प्रतिबंध लगाए जाने के हालात और मजबूरी के दुख में दब कर रह जाती होंगी और पर्दे पर चलती कहानियों के आधार पर फिल्म जगत की भीतरी दुनिया के बारे में लोग सकारात्मक राय बनाते होंगे। मगर उस दुनिया में महिलाओं के लिहाज से हकीकत कई बार उलट भी हो सकती है। किसी फिल्म की कहानी महिलाओं से होने वाले भेदभाव, उनके शोषण से जुड़े मुद्दे उठाती दिख सकती है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि इसके निर्माण से जुड़े समूह में महिलाओं के हक और सम्मान का भी उतना ही खयाल रखा गया हो। हिंदी फिल्म उद्योग में महिला कलाकारों और खासतौर पर फिल्मी दुनिया में जगह बनाने पहुंची नई युवतियों को कैसी विपरीत परिस्थितियों और कई बार शोषण का सामना करना पड़ता है, इससे संबंधित खबरें पहले भी आती रही हैं। एक अघोषित चलन के तौर पर ‘कास्टिंग काउच’ नई महिला कलाकारों के लिए क्या साबित होता होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। यह देखने की बात होगी कि न्यायमूर्ति हेमा समिति की रपट में जो सामने आया है, उसमें बदलाव के लिए सरकार और खुद फिल्म जगत क्या करता है!
Date:27-08-24
अंतरिक्ष में नई जमीन की तलाश
अभिषेक कुमार सिंह
भारत सरकार का एक आकलन है कि अगले कुछ वर्षों में देश अंतरिक्ष क्षेत्र में एक ट्रिलियन (एक लाख करोड़) डालर की अर्थव्यवस्था बन जाएगा। इस क्षेत्र के ज्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि चंद्रयान-3 की अभूतपूर्व सफलता के बाद भारत के लिए ऐसा करना मुश्किल नहीं है। भारत में जगते इस भरोसे की नींव असल में पिछले वर्ष 23 अगस्त, 2023 को रखी गई थी। उस दिन भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के ‘मून मिशन’ की कड़ी में चंद्रयान-3 चंद्रमा के उस दक्षिणी ध्रुव पर उतरा था, जो इससे पहले अछूता रहा था। इस सफलता में एक और अहम चीज जुड़ी थी कि चंद्रयान-3 ने चांद पर ‘साफ्ट लैंडिंग’ की थी, जो इससे पहले सिर्फ तीन देशों (रूस, अमेरिका और चीन) के खाते में दर्ज है। इस अहम पड़ाव पर पहुंचने के महत्त्व को दर्शाने के लिए इस वर्ष भारत ने प्रथम राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस का आयोजन किया।
‘इसरो’ ने कहा है कि अब उसका ध्यान चंद्रयान-4 और चंद्रयान-5 के प्रक्षेपण पर है। इसे इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि चंद्रयान, मंगलयान और भावी गगनयान जैसी परियोजनाएं देश को आर्थिक महाशक्ति के रूप में स्थापित करेंगी। इस क्षेत्र में मिलने वाली हर कामयाबी देश की युवा पीढ़ी को अंतरिक्ष अनुसंधान के प्रति प्रोत्साहित करेगी और वे इसे एक सम्मानजनक पेशे के तौर पर अपनाने के लिए प्रेरित होंगे। मगर, मामला सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। चंद्रयान की सफलता भारत को ‘लूनर जियोपालिटिक्स’ (चंद्र भू-राजनीतिक) परिदृश्य के एक बड़े खिलाड़ी के रूप में स्थापित कर रही है। भारत बेहद सस्ती दरों पर राकेट और अंतरिक्ष यानों के प्रक्षेपण के बाजार में खुद को एक बड़े खिलाड़ी के रूप में पेश कर रहा है। साथ ही, वह अंतरिक्ष में खनन की उन संभावनाओं को साकार करने की दिशा में बढ़ सकता है, जहां पृथ्वी पर कम पड़ते संसाधनों की भरपाई के लिए वह चंद्रमा और क्षुद्रग्रहों से खनिजों की ढुलाई कर भारी मुद्रा अर्जित कर सकता है।
भारत के बाद यह कामयाबी चीन के खाते में दर्ज हुई, जब जून 2024 में उसका यान (प्रोब) ‘चांग ई-6’ चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव स्थित बेसिन-एटकेन में उतरा। चंद्रमा का यह हिस्सा पृथ्वी से नजर नहीं आता है। निश्चय ही भारत और चीन अंतरिक्ष में आज जिस जगह पर हैं, उससे इस क्षेत्र में पश्चिमी दबदबे को ठोस चुनौती मिली है। इससे भी बड़ी बात यह कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने बेहद कम खर्च में जिस प्रकार अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों का संचालन किया है, उससे दुनिया बेहद प्रभावित है। यानी जितने खर्च में पश्चिमी देश कोई फिल्म बनाते रहे हैं, उससे कम खर्च में भारत अंतरिक्ष अनुसंधान के अपने कार्यक्रमों को चला रहा है। भारत के मार्स मिशन- मंगलयान और फिर चंद्रयान-1 और चंद्रयान-3 की कामयाबी ने वह रास्ता दुनिया को दिखाया कि इरादे पक्के हों तो आर्थिक मजबूरियां भी आखिर में घुटने टेक देती हैं। आज अगर ‘इसरो’ सूर्य के अध्ययन, चंद्रमा के खनिजों के दोहन और अंतरिक्ष में इंसानों को पहुंचाने वाले ‘गगनयान’ जैसे कार्यक्रमों के संचालन का दम भरता है, तो कोई उसकी क्षमताओं पर सवाल नहीं उठाता।
मानवता के इतिहास में यह पहली बार है कि भारत और चीन जैसे देश चंद्रमा के जटिल हिस्से में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। ‘इसरो’ की मानें तो चांद का दक्षिणी ध्रुव कई मायनों में भावी चंद्रमिशनों के द्वार खोलने वाला साबित होगा। इसकी कई वजहें हैं। पहली तो यह कि हमेशा छाया में रहने वाले इस हिस्से के बेहद ठंडे क्रेटर्स (गड्ढों) में जमी हुई बर्फ के भंडार हो सकते हैं, जो पानी के बड़े स्रोत होंगे। यहां जीवाश्मों का खजाना मिल सकता है। यहां हीलियम-3 जैसा बहुमूल्य खनिज मिलने की भी उम्मीद जताई जा रही है। एक टन हीलियम की मौजूदा कीमत करीब पांच अरब डालर हो सकती है और अंदाजा है कि चंद्रमा से ढाई लाख टन हीलियम-3 पृथ्वी तक ढोकर लाया जा सकता है। यह ऐसी अकूत संपदा होगी, जिसकी कीमत कई लाख करोड़ डालर मानी जा रही है। इसरो ने दक्षिणी ध्रुव की चट्टानों में लोहे के अलावा मैग्नीशियम, कैल्शियम आदि की मौजूदगी का अंदाजा लगाया है। यह खोजबीन बिना वहां रोवर उतारे मुमकिन नहीं है, जिसकी शुरुआत पहले चंद्रयान-3 और फिर चीनी यान के रोवरों ने कर दी है।
अगर चांद पर ये खनिज मिले, वहां भरपूर पानी मिला तो न सिर्फ चंद्रमा पर इंसानी बस्तियां बसाने की संभावनाओं को एक ठोस आधार मिल जाएगा, बल्कि इससे चांद ही नहीं, बल्कि पृथ्वी के निर्माण के नए रहस्यों का खुलासा हो सकता है। हालांकि ज्यादा बड़ा फायदा यह हो सकता है कि भविष्य में मंगल आदि ग्रहों पर भेजे जाने वाले अंतरिक्ष अभियानों के लिए संसाधन मुहैया कराने और पड़ाव के रूप में चंद्रमा का इस्तेमाल हो सकता है। अमेरिका, रूस, जापान और यूरोपीय संघ की चंद्रमा के प्रति दिलचस्पी बढ़ने की एक बड़ी वजह यह भी है कि आगे चलकर चंद्रमा को दुर्लभ अंतरिक्षीय सूचनाओं के केंद्र के रूप में विकसित किया जाने वाला है। यानी हमें ब्रह्मांड के जन्म से लेकर उसके और आगे बढ़ने से जुड़ी वे सारी सूचनाएं मिल सकेंगी, जो शायद इस पूरी कायनात के रहस्य खोल देंगी।
22 अक्तूबर, 2008 को श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से अंतरिक्ष में भेजा गया चंद्रयान-1 मिशन करीब एक साल (अक्तूबर 2008 से सितंबर 2009 तक) संचालित किया गया था और 312 दिन की अवधि में इससे चंद्रमा पर पानी के पहले निशान देखने का सौभाग्य भारत को मिला था। चंद्रमा की सतह से करीब सौ किलोमीटर ऊपर चांद के तकरीबन हर हिस्से के ऊपर से गुजरे चंद्रयान-1 ने पता लगाया था कि चंद्रमा के ध्रुवीय इलाकों में पानी की भारी मात्रा बर्फ की शक्ल में मौजूद हो सकती है। यह वाकई पानी ही है, इसकी पुष्टि तब हुई थी, जब चंद्रयान-1 के साथ भेजे गए अमेरिका के मून मिनरलाजी मैपर (एम-3) ने वहां से एकत्रित डेटा का विस्तृत अध्ययन किया। ‘नासा’ का यह अध्ययन ‘पीएनएएस’ जर्नल में प्रकाशित हुआ था। यह अध्ययन चांद की ऊपरी पतली परत में हाइड्रोजन और आक्सीजन की मौजूदगी तथा उनके रासायनिक संबंध पर केंद्रित था। इससे पहले चांद से धरती पर लाए गए नमूनों की जांच करने वाले शोधकर्ता लगभग चालीस वर्षों में इतना ही कह पाए थे कि चांद पर कभी कुछ पानी जरूर रहा होगा। मगर इसे साबित करने के लिए उनके पास कुछ नहीं था।
आज हम यह बात बेखटके कह सकते हैं कि चंद्रयानों की बदौलत भारत (इसरो) ने तकनीक का एक अहम पड़ाव पार कर लिया है। जिस तरह चंद्रयान-1 ने चांद पर पानी की तसदीक कर भारत के खाते में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि डाली थी, उसी तरह चंद्रयान-3 ने भी कामयाबी की नई इबारत लिखी। अब भारत जिस तरह ‘गगनयान’ से भारतीय यात्रियों को अंतरिक्ष में भेजने की योजना पर काम कर रहा है, उससे हमारा देश अंतरिक्ष में एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर कर सामने आएगा।
ताकि पेंशन सही मायने में दे सके सामाजिक सुरक्षा
अरुण कुमार, ( अर्थशास्त्री )
बुजुर्गों के लिए पेंशन एक सामाजिक सुरक्षा है। नई पेंशन योजना (एनपीएस) में चूंकि शेयर बाजार या अन्य वित्तीय संस्थानों में निवेश का प्रावधान था, इसलिए इसमें पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) जैसी सुरक्षा नहीं थी। फिर, ओपीएस में सरकार अपने बजट से पेंशन देती थी, लेकिन एनपीएस में यह प्रावधान हटा दिया गया था और बाजार में निवेश के बाद मिले रिटर्न के अनुपात में पेंशन का लाभ दिया जाता था, जो रकम अमूमन पुरानी पेंशन से कम होती थी। यही कारण है कि सरकारी कर्मी नई पेंशन योजना का विरोध व पुरानी पेंशन योजना की बहाली की मांग कर रहे थे।
यूपीएस के लाभ-हानि को समझने के लिए पेंशन की मूल संकल्पना को समझना आवश्यक है। भारत में 1930 के दशक में 58 साल में सेवानिवृत्ति की बात कही गई और वही पुरानी पेंशन योजना का आधार भी बनी। उस समय भारतीयों की औसत उम्र 35 साल होती थी। इसका मतलब था कि बहुत कम लोग ही 58 या 60 साल से अधिक जी पाते थे। ऐसे लोगों की संख्या बमुश्किल चार-पांच प्रतिशत होती थी। इस कारण सरकार को पेंशन भी बहुत कम लोगों को देनी पड़ती थी। अब भारतीयों की जीवन-प्रत्याशा काफी बढ़ गई है और 80-85 साल तक लोग जीने लगे हैं। इसका अर्थ है कि 60 साल में सेवानिवृत्त होने वाले व्यक्ति को अगले दो-ढाई दशकों तक सुरक्षा देने की अनिवार्यता है। यही विसंगति सरकारी खजाने पर भारी पड़ने लगी है और पेंशन नीति में सुधार की मांग होने लगी है।
इस समस्या का एक निराकरण हम शिक्षकों ने कुछ वर्ष पूर्व सुझाया था। दरअसल, हमारा मानना है कि जो लोग सरकारी सेवा में हैं, वे सेवानिवृत्ति के बाद या तो निजी क्षेत्र में काम करने लगते हैं या खुद का अपना कोई धंधा शुरू कर देते हैं। वे इतने कुशल होते भी हैं। यही कारण है कि हमने सेवानिवृत्ति की उम्र 70 साल करने की मांग की। शिक्षकों के लिए सेवानिवृत्ति की आयु 65 साल है और अगर वे चाहें, तो अगले पांच साल के लिए भी उनकी सेवा बरकरार रखी जा सकती है। इसका फायदा कर्मियों को भी होता है और सरकार को भी। सरकार को जहां तुलनात्मक रूप से कम वर्षों के लिए पेंशन देनी पड़ती है, वहीं ज्यादा साल तक सेवा देने के कारण कर्मियों की बचत ज्यादा होती है।
इसके खिलाफ एक तर्क यह दिया गया था कि इससे बेरोजगारों के लिए अवसर घट जाएंगे, इसलिए हमने श्रमबल में सरकारी कर्मियों की संख्या बढ़ाने का भी सुझाव दिया था। दरअसल, हमारे देश में करीब 60 करोड़ लोगों के हाथों में रोजगार है, जिनमें से 1.8 करोड़ सरकारी मुलाजिम हैं, यानी कुल कामगारों में तीन प्रतिशत हिस्सा ही सरकारी कर्मचारियों का है, जबकि अन्य देशों में यह आंकड़ा छह से लेकर 10 प्रतिशत तक है। ऐसे में, अगर हम श्रमबल में सरकारी कर्मियों की संख्या बढ़ाने का काम करें, तो नौजवानों को रोजगार भी मिलेगा और सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ने का कथित नुकसान भी नहीं होगा। सरकार चाहे, तो इसकी शुरुआत उन 10 लाख सरकारी पदों को भरने के साथ कर सकती है, जो इस वक्त रिक्त पड़े हुए हैं। रही बात संसाधन जुटाने की, तो इसके लिए प्रत्यक्ष कर और जीडीपी का अनुपात बढ़ाने पर काम होना चाहिए। यह अनुपात अभी सवा छह प्रतिशत ही है। संसाधान जुटाकर हम असंगठित क्षेत्र को भी पेंशन का लाभ दे सकेंगे।
इसी कारण एकीकृत पेंशन योजना में सुधार की मांग जोर पकड़ने लगी है। इसमें न सेवानिवृत्ति-आयु बढ़ाने की बात कही गई है और न प्रत्यक्ष कर-जीडीपी अनुपात को लेकर कुछ कहा गया है। फिर अन्य पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जाति/ जनजाति के नौजवान 35-40 साल तक सरकारी नौकरी के लिए पात्र होते हैं, तो 58 या 60 साल में सेवानिवृत्ति से 25 साल तक वे सेवा देने में सक्षम नहीं होंगे और पूर्ण पेंशन का लाभ नहीं उठा सकेंगे। इसी तरह, न्यूनतम 10 साल की सेवा देने वालों को 10 हजार रुपये पेंशन देने की बात इसमें कही गई है, पर मुमकिन है, इस अवधि के बाद लोग बेहतर मौके की तलाश में जुट जाएं और दोनों लाभ उठाने लगें। जाहिर है, इन विसंगतियों को दूर करके ही हम सामाजिक सुरक्षा का सही लाभ कर्मचारियों को दे सकेंगे।