
27-06-2025 (Important News Clippings)
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Date: 27-06-25
Citizen Kaun
In the khichdi that’s India, a multiplicity of documents to prove citizenship makes sound sense
TOI Editorials
Nitish Kumar was the first NDA CM to talk down a national register of citizens (NRC) for Bihar back in 2019. His three magic words ‘Kahe ka NRC’ (whatever for, an NRC?) – set the tone for a quiet demise of a nationwide record of citizens. Census 2027’s headcount won’t include a ‘national population register’, the parent body for an NRC, the theme itself dropped from NDA/BJP’s 2024 Lok Sabha poll manifesto.
Diverse & fluid | India by design does not mandate citizenship proof, and by extension has no single document as proof of citizenship. Instead, given the nation’s plurality, caste networks and marriage ties, waves of refugee influx, pockets of intense poverty and patchy access to state institutions, New Delhi framed the citizenship law in terms of conditions met, not documentary evidence. An example of this fluidity is in voter rights, normally reserved for ‘citizens’, extended to those born in India to Tibetan refugee parents. A bunch of govt-issue IDs in various combinations can satisfy criteria to prove citizenship.
Peopled borders | NRC in Assam showed the challenge it is for many to show they’re Indian. Alleged ‘immigrants’ had legitimate documents, many locals never felt the need to have any. CAA in fact confused NRC in operation. Given India’s layered multitudes of ethnic, language and religious groups, subnationality has been more the people’s anchor. Take the Bengali in Dhaka – Indian till 1947, Pakistani till 1971, Bangladeshi then on. Primarily, Bengali. National borders are the most artificial of constructs – ask kith- kin-caste groups at the UP-Bihar-Bengal/Nepal border, villagers at Punjab/Pak border, communities in northeast-Myanmar and Bengal-Bangladesh border.
Proofs & polls | Amid drives to harden citizenship, it is its shadow, the grainy gray of ‘illegal immigrants’, the non-citizen, that crops up like clockwork ahead of every state election-Assam to Bengal to Jharkhand to even Maharashtra – only to curl back post polls. This hardening is newly evident in Manipur. Delimitation in 2008 was put off in Manipur after it raised doubts over 2001 census data. The deferment lapsed in 2020. Now, Meitei groups want an NRC-after two years of conflict-before delimitation, which decides electoral representation. Citizenship serves political purposes that a single documentary proof can weaponise. It is one reason why tech- interface Aadhaar went from being designed as proof of identity for welfare measures, to attempts to make it proof of citizenship, only to return as proof of identity. Nitish Kumar wouldn’t allow lack of certain documents to disenfranchise the Bihari. There’s no harm in rules that accept a multiplicity of documents.
Date: 27-06-25
अंतरिक्ष में भारत की आकांक्षाओं को पंख लगे
संपादकीय
सकारात्मक सामूहिक मानव सोच को गुरुवार शाम 4.30 बजे पंख लग गए, जब आईएएफ के ग्रुप कैप्टेन शुभांशु शुक्ला सहित अन्य दो देशों के एस्ट्रोनॉट्स को लेकर अमेरिकी स्पेसक्राफ्ट ‘क्रू ड्रैगन’ का हर सेकंड में 7.5 किमी की रफ्तार से पृथ्वी के चक्कर लगाता हुआ यान ‘ग्रेस’ अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन (आईएसएस) के डॉकिंग पोर्ट ‘हार्मनी जेनिथ’ पर पहुंचा शुभांशु अपने 14 दिनों के स्पेस भ्रमण के दौरान 60 प्रयोगों के जरिए माइक्रो-ग्रैविटी में कंप्यूटर स्क्रीन पर मनुष्य के देखने के प्रभाव, मानव मांसपेशियों, प्लांट बायोलॉजी (पौधों और माइक्रो-एल्गी के उगने को लेकर) में बदलाव, माइक्रो-बैक्टीरिया के जींस में संभावित प्रोटीन परिवर्तन, मेटाबोलिज्म आदि का अध्ययन करेंगे। यह अव्ययन गगनयान मिशन में बेहद लाभकारी होगा। यह मिशन कोरोना की वजह से टालना पड़ा था, लेकिन अब यह एडवांस्ड स्टेज पर है। शुभांशु इस मिशन से भी जुड़े रहेंगे। एग्जीओम 4 मिशन एक प्राइवेट नासा संयुक्त अभियान है। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर लैंड करने वाला भारत पहला देश बना था। गगनयान की भावी सफलता भारत को अपना स्पेस स्टेशन विकसित करने की दिशा में ले जाएगी। 41 साल पहले राकेश शर्मा ने सोवियत यान से अंतरिक्ष पहुंचकर कहा था- ‘सारे जहां से अच्छा’। शुभांशु ने आईएसएस तक का रास्ता तय करते हुए कहा है- ‘आइए, आप सभी इस यात्रा का हिस्सा बनें।
Date: 27-06-25
भविष्य की आधारशिला रखने वाला मिशन
सृजन पाल सिंह, ( पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के सलाहकार रहे लेखक कलाम सेंटर के सीईओ हैं )
भारतीय वायुसेना में ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला ने अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन आइएसएस में दाखिल होकर एक नया इतिहास रचा। वह एक्सिओम – 4 मिशन का हिस्सा हैं। यह मिशन नासा, इसरो और यूरोपियन स्पेस एजेंसी का समन्वित प्रयास है। इस मिशन के दौरान 60 वैज्ञानिक परीक्षण किए जाएंगे। इन परीक्षणों में 31 देशों का योगदान होगा, जिनमें सात परीक्षणों में इसरो की सक्रिय भूमिका है। ये परीक्षण माइक्रोबायोलाजी, बायोटेक्नोलाजी, पदार्थ विज्ञान, मानव शरीर विज्ञान एवं अंतरिक्ष तकनीक जैसे विविध विषयों से जुड़े हैं। यह मिशन अंतरिक्ष अन्वेषकों को अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन तक ले जाने, प्रवास य अंतरिक्ष में प्रयोग-परीक्षण करने तक ही सीमित नहीं। इसमें उस भविष्य की कुंजी निहित है, जिसमें अंतरिक्ष केवल अन्वेषण का ही एक केंद्र नहीं रहेगा, बल्कि वह रणनीतिक एवं आर्थिक मोर्चे के रूप में भी स्थापित होगा।
यह स्पष्ट है कि आने वाले दशकों में अंतरिक्ष भूराजनीति, वैश्विक शक्ति समीकरण और आर्थिक वृद्धि को आकार देने में अहम भूमिका निभाएगा। चाहे उपग्रह संचार से लेकर रक्षा प्रणालियों का मामला हो या संसाधन उत्खनन से अंतरिक्ष पर्यटन का विषय, उनमें देशों की अंतरिक्ष क्षमताएं ही यह निर्धारित करेंगी कि कौन अनुसरण करेगा। अंतरिक्ष में नियंत्रण का अर्थ है संचार पर नियंत्रण ? यह स्थिति युद्ध और टकराव में बहुत उपयोगी साबित होती है। सैटेलाइट नेटवर्क की महत्ता तो सैन्य संचार से लेकर रियल टाइम नेविगेशन और जलवायु निगरानी के मोर्चे पर पहले ही सिद्ध हो चुकी हैं। रूस- यूक्रेन युद्ध इसका उदाहरण है। जब रूस ने यूक्रेन के संचार ढांचे को तबाह कर दिया तब एलन मस्क की स्टारलिंक सैटेलाइट सुविधा ही यूक्रेन के काम आई।
आधुनिक समर नीति में भी अंतरिक्ष एक महत्वपूर्ण पहलू है । सशक्त अंतरिक्ष कार्यक्रम वाले देशों को स्वाभाविक रूप से सामरिक बढ़त मिलती है। ईरान- इजरायल के हालिया युद्ध में भी इसका प्रमाण दिख, जहाँ ईरान की कई बैलिस्टिक मिसाइलों को इजरायल के एयरो-3 डिफेंस सिस्टम ने पृथ्वी के वायुमंडल की सीमा से बाहर ही निष्प्रभावी कर दिया। यह दर्शाता है कि अंतरिक्ष परिसंपत्तियों पर नियंत्रण कैसे आधुनिक समर नीति को निर्णायक रूप से प्रभावित कर सकता है। बीते दिनों भारत के आपरेशन सिंदूर में भी सैटेलाइट कैमरों की उपयोगिता दिखी, जिन्होंने लक्ष्यों को चिह्नित करने और नुकसान के आकलन में अहम भूमिका निभाई। इन्हीं पहलुओं को देखते हुए अमेरिका ने अपनी अंतरिक्ष परिसंपत्तियों की सुरक्षा के लिए स्पेस फोर्स नाम से एक अलग सैन्य इकाई का गठन किया है। भारत भी इस संकल्पना को साकार करने जा रहा है।
आर्थिक मौर्चे पर भी अंतरिक्ष नया अखाड़ा बन रहा है। अंतरिक्ष पर्यटन अब कोई कपोल-कल्पना नहीं। कुछ कंपनियों संगठनों ने अंतरिक्ष यात्रियों के लिए सेवाएं शुरू कर दी हैं। इसरो भी इस दिशा में काम कर रहा है और उसकी 2030 तक अंतरिक्ष पर्यटन शुरू करने की योजना है। 2030 तक वैश्विक अंतरिक्ष पर्यटन कारोबार के 85,000 करोड़ रुपये तक पहुंचने का अनुमान है।
चूंकि भारत की पहचान विश्वसनीय और किफायती प्रक्षेपण क्षमताओं वाले देश की है, इसलिए यह मानने के अच्छे भले कारण हैं कि इस बाजार में उसे बड़ा हिस्सा प्राप्त होने वाला है। विस्तार ले रही अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में वही देश बाजी मारने में सफल हो सकते हैं, जो मनुष्यों से लेकर मशीनों को अपने दम पर अंतरिक्ष में भेजने में सक्षम होंगे। ऊंचे दांव बाली इस होड़ में भारत बिल्कुल सटीक मौके पर कदम बढ़ा रहा है। एक वैश्विक अंतरिक्ष महाशक्ति बनने की भारत की यात्रा में एक्सिओम – 4 मिशन एक मील का पत्थर है। सीधे तौर पर इसका सरोकार भारत के गगनयान कार्यक्रम से जुड़ा है, जिसके अंतर्गत स्वदेश निर्मित यान के जरिये भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को पृथ्वी की कक्षा में भेजने की योजना है। यह 2027 तक संभव हो सकता है। भारत का लक्ष्य वर्ष 2035 तक भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन – बीएएस के रूप में अपना अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करना है। यह केंद्र शोध- अनुसंधान, नवाचार एवं लंबी अवधि वाले मिशन के लिए एक मंच की भूमिका निभाएगा। इसके साथ ही भारत अंतरिक्ष में स्थायी मानवीय उपस्थिति वाले चुनिंदा देशों में शामिल हो जाएगा। एक्सिओम 4 मिशन के दौरान लाइफ साइंस, कक्षीय परिचालन और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के मौर्चे पर सीखे जाने वाले सबक बीएएस के डिजाइन और संचालन ढांचे को आकार देने में अहम भूमिका निभाएंगे।
अंतरिक्ष में मूल्यवान संसाधनों का भंडार भी छिपा है। इस संदर्भ में मंगल और बृहस्पति के बीच स्थित क्षुद्रग्रह (एस्टेरायड) बेल्ट सर्वाधिक संपन्न है। इनमें प्लेटिनम, सोना, कोबाल्ट, लीथियम जैसे वैसे दुर्लभ संसाधन हैं, जो बैटरी, इलेक्ट्रानिक्स और स्वच्छ ऊर्जा तकनीक जैसे आधुनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में बेहद महत्वपूर्ण हैं। पृथ्वी पर सिकुड़ते संसाधनों को देखते हुए भविष्य की आर्थिकी में अंतरिक्ष खनन का महत्व बढ़ेगा। समझ लीजिए कि संपूर्ण विश्व का सकल घरेलू उत्पाद – जीडीपी करीब 100 ट्रिलियन (लाख करोड़ डालर है तो केवल क्षुद्रग्रह बेल्ट की हैसियत ही दुनिया के उत्पादन से करीब 8,000 गुना अधिक है। यानी वहां मौजूद खनिजों का मूल्य इतना अधिक है कि पूरी दुनिया अगली 80 शताब्दियों तक कमाई के जरिये ही उसकी बराबरी कर पाएगी जो देश इन इलाकों में सबसे पहले पहुंचकर उसके कुछ हिस्से पर अपना नियंत्रण स्थापित करेंगे, वही भविष्य के उद्योगों की आवश्यकताओं की आपूर्ति के चक्र को नियंत्रित कर सकेंगे। के कीमतों के निर्धारण, नए उद्यमों की स्थापना और वैश्विक बाजारों को आकार देंगे। यही वजह है कि अंतरिक्ष में पैठ भारत के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हैं। अपनी क्षमताओं और महारत से भारत विभिन्न देशों के साथ साझेदारी और प्रशिक्षण के जरिये अंतरिक्ष में उभरती अर्थव्यवस्थाओं का नेतृत्व कर सकता है। यह रणनीति कूटनीतिक संबंधों को प्रगाढ़ करने के साथ ही अंतरिक्ष अन्वेषण को भी कहीं अधिक समावेशी एवं न्यायसंगत बनाएगी।
Date: 27-06-25
दम तोड़ते दिख रहे माओवादी
उमेश चतुर्वेदी, ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं )
हर शासक का असल मूल्यांकन इतिहास करता है। मोदी सरकार का भी करेगा। लोकतांत्रिक भारत की सत्ता के केंद्र अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बने हुए हैं, तो इसकी वजह उनकी कई उपलब्धियां भी हैं। मोदी के शासन की सफलताओं में से एक है देश से वामपंथी उग्रवाद का लगभग सफाया। मोदी सरकार माओवादी आतंक के खात्मे के लक्ष्य पर शुरू से ही काम करती रही है, लेकिन अमित शाह के गृहमंत्री बनने के बाद इसमें तेजी आई है। इसका असर अब दिखने लगा है। माओवादियों के पांव उखड़ रहे हैं, वे सरेंडर करके सामाजिक मुख्यधारा में लौट रहे हैं, लेकिन सियासी जुबान में माओवाद की गूंज सुनाई देती रहती है। पहले नक्सली कहे जाने वाले माओवादी भी अभी पूरी तौर पर पस्त नहीं हुए हैं। उनसे वैचारिक स्तर पर भी लड़ने की जरूरत है।
1925 में विरोधी वैचारिक छोर पर खड़े दो संगठनों का जन्म हुआ। राष्ट्रवाद के ध्येय के साथ विजयदशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन हुआ तो लगभग तीन माह बाद दिसंबर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। सौ वर्षों की यात्रा में कम्युनिस्ट आंदोलन कमजोर होता गया, जबकि संगठन और विचार के स्तर पर संघ विराट वृक्ष बन चुका है। आजादी के बाद ही आंध्र प्रदेश मेँ हथियारबंद कथित कम्युनिस्ट क्रांति शुरू हो गई थी, लेकिन इसे गति 1970 के दशक की शुरुआत में बंगाल के नक्सलबाड़ी से मिली। चीनी कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग का कहना था कि सत्ता बारूद से निकलती है। नक्सल आंदोलन ने दो तरह से अपना प्रभाव बढ़ाया। शैक्षिक संस्थानों और वैचारिक प्रतिष्ठानों में इस वैचारिकी ने बौद्धिक जड़ें जमाई तो दूसरी तरफ खेतों और जंगलों में खूनी क्रांति का सपना पूरा करने के लिए नौजवान हाथों ने हथियार थाम लिए । धीरे-धीरे वैचारिक प्रतिष्ठानों में इस विचार का वैचारिक प्रभाव तो बढ़ा ही, जंगलों, पिछड़े और आदिवासी इलाकों में हथियारबंद संगठनों का असर बढ़ा। हथियारबंद आंदोलन की पहले जो नक्सलवादी पहचान थी, उसे माओवादी के रूप में जाना जाने लगा। जंगलों और आदिवासी क्षेत्रों में हथियारबंद आंदोलन जहां खूंखार होता गया, वहीं उसे वैचारिक कवच वैचारिक प्रतिष्ठानों के बौद्धिकों से मिलने लगा । वैचारिक प्रतिष्ठानों में माओवाद समर्थक लोग तत्कालीन सत्ता का विरोध करते हुए भी सत्ता प्रतिष्ठानों के आदरणीय बने रहे, जबकि हथियारबंद दस्तों ने सत्ता के खिलाफ खूनी संघर्ष जारी रखा। एक दौर में छत्तीसगढ़, बंगाल ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, आंध्र, तेलंगाना और महाराष्ट्र के बड़े हिस्से पर उनका असर हो गया।
मोदी सरकार के सत्ता संभालते वक्त देश के लगभग एक चौथाई जिलों में लाल आतंक कायम था। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2013 में माओवाद प्रभावित जिलों की संख्या 126 थी। अप्रैल के आंकड़ों के अनुसार अब महज 18 जिलों में ही माओवाद का प्रभाव है। माओबाद कितना दुस्साहसी है, इसका अंदाजा दो घटनाओं से लगाया जा सकता है। माओवादियों ने 2010 में छत्तीसगढ़ के ताड़मेटला में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के 76 जवानों को विस्फोट से उड़ाकर तत्कालीन सत्ता को चुनौती दे डाली थी। इसके तीन साल बाद छत्तीसगढ़ की ही दरभा घाटी में माओवादियों ने घात लगाकर राज्य कांग्रेस के करीब-करीब पूरे नेतृत्व का सफाया कर दिया था। ताड़मेटला की घटना से क्रुद्ध मनमोहन सरकार ने जंगलों में छिपे माओवादियों पर हवाई कार्रवाई की तैयारी कर ली थी, पर शहरों के वैचारिक प्रतिष्ठानों में काबिज उसके वैचारिक दस्तों के प्रबल विरोध के चलते उसे पीछे हटना पड़ा था। चाहे हथियारबंद माओवादी दस्ते हों या शहरी प्रतिष्ठानों की माओवाद समर्थक वैचारिकी, दोनों के निशाने पर संघ और भाजपा रहे हैं।
2014 के आम चुनाव के लिए भाजपा ने जी चुनाव घोषणापत्र जारी किया, उसमें माओवादी हिंसा को खत्म करने का भी लक्ष्य तय किया गया था। माओवादी हिंसा के चलते आदिवासी क्षेत्रों में विकास की गति धीमी पड़ी। इन क्षेत्रों को मुख्यधारा से जोड़ने में हथियारबंद दस्तों का प्रतिरोध बड़ी बाधा रहा। माओवादी अक्सर स्कूलों, पंचायत भवनों, रेलवे स्टेशनों, रेलवे लाइनों आदि को निशाना बनाते रहे हैं। मोदी सरकार ने माओवाद के खात्मे के लिए दे मौचों पर एक साथ काम शुरू किया। हथियार उठाने वालों के लिए जहां गोली का जवाब गोली से देने की नीति अपनाई, वहीं माओवादियों के सरेंडर और उनके सामाजिक पुनरुत्थान पर जौर दिया। पिछड़े इलाकों में सड़कें और रेलवे लाइन पहुंचाई गईं। मोदी सरकार ने प्रभावित इलाकों में स्कूल बनाने और विकास योजनाओं को गति देने पर जोर दिया। सरकारी नीतियों को लागू करने और माओवादी हथियारबंद दस्तों के खिलाफ कार्रवाई में हाल में काफी तेजी आई है।
एक तरफ जहाँ माओबादी हिंसा पर लगाम लग रही हैं, वहीं सियास वैचारिकी में माओवाद का विस्तार होता दिख रहा है। राहुल गंधी एक बार यह कह चुके हैं कि वह भारतीय राज्य से लड़ रहे हैं। यही भाषा माओबादियों की भी है। जिस कांग्रेस के छत्तीसगढ़ नेतृत्व का माओवाद ने खात्मा कर दिया था, उसी कांग्रेस के नेता और तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ‘नक्सल आंदोलन’ को सामाजिक आंदोलन बता रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों की वापसी कहीं दिख नहीं रही, लेकिन कुछ मामलों में उनकी और कांग्रेस की भाषा एक सी रहती हैं।
Date: 27-06-25
नाटो के नए लक्ष्य
संपादकीय
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने 25 जून को हेग में संपन्न उत्तर अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो की शिखर बैठक में एक ‘भारी जीत दर्ज करने का दावा किया है। यह उनके पहले कार्यकाल के आक्रामक रुख से काफी अलग है। नाटो के सदस्यों ने 2035 तक अपने वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 5 फीसदी रक्षा पर खर्च करने पर व्यापक सहमति बनाई। इससे अमेरिकी राष्ट्रपति की पहले कार्यकाल की वह शिकायत भी दूर होगी जिसमें वह कह रहे थे कि इस संगठन का बोझ ज्यादातर अमेरिका ही उठा रहा है। ऐसा लगता है कि इस प्रतिज्ञा और पहली बार बैठक की अध्यक्षता कर रहे नाटो महासचिव मार्क रट द्वारा ट्रंप की खुशामद कारगर साबित हुई है। पहले कार्यकाल में जहां ट्रंप नाटो से अलग होने की धमकी दिया करते थे, वहीं इस बार उन्होंने वाशिंगटन समझौते के अनुच्छेद 5 को बरकरार रखने की अमेरिका की प्रतिज्ञा को दोहराया जो सामूहिक सुरक्षा की महत्त्वपूर्ण प्रतिबद्धता से संबंधित है। चूंकि अमेरिकी रक्षा व्यय नाटो के सदस्य देशों के कुल रक्षा व्यय के दो-तिहाई के बराबर है इसलिए ट्रंप के कदम नाटो के भविष्य के लिए अहम हैं। खासकर मध्य यूरोप में रूस के विस्तारवादी खतरे को देखते हुए।
यह सही है कि बुधवार का समझौता मौजूदा 2 फीसदी व्यय के लक्ष्य में एक बड़ा इजाफा है। 2 फीसदी व्यय को 2014 में वेल्स में आयोजित नाटो शिखर बैठक में मंजूरी दी गई थी। यद्यपि व्यय के आकलन का तरीका कुछ अलग हकीकत दर्शाता है। ‘बुनियादी रक्षा जरूरतों’ मसलन सैनिकों और हथियारों पर होने वाले व्यय को अब 2 फीसदी से बढ़ाकर 2035 तक 3.5 फीसदी करने का लक्ष्य है। अमेरिकी राष्ट्रपति के 5 फीसदी की मांग को पूरा करने के लिए नाटो ने सुरक्षा संबंधी निवेश पर जीडीपी के 1.5 फीसदी के अतिरिक्त व्यय की बात कही है। इसमें सैन्य इस्तेमाल के लिए अहम अधोसंरचना मसलन सड़क, पुल और बंदरगाह आदि शामिल हैं। इसके अलावा साइबर सुरक्षा और ईंधन पाइपलाइन की सुरक्षा भी शामिल हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यूरोपीय संघ अपने सदस्य देशों को यह इजाजत देगा कि वे अगले 4 साल तक हर वर्ष रक्षा व्यय में जीडीपी के 1.5 फीसदी के बराबर इजाफा करें। इस दौरान घाटे के जीडीपी के 3 फीसदी से अधिक हो जाने पर भी कोई अनुशासनात्मक कदम नहीं उठाया जाएगा।
इन अलग-अलग लक्ष्यों के लिए भी नाटो के सदस्यों को व्यय में भारी इजाफा करना होगा समग्र रूप से देखें तो नाटो के सदस्य सैनिकों और हथियारों पर जीडीपी का 2.6 फीसदी वा करीब 1.3 लाख करोड़ डॉलर व्यय करते हैं लेकिन यह बड़ा आंकड़ा अलग-अलग सदस्यों के बीच व्यय की असमानता को ढक लेता है। उदाहरण के लिए पोलैंड अपने जीडीपी का 4.12 फीसदी, एस्टोनिया 3.43 फीसदी और लातविया 3.15 फीसदी व्यय करता है स्पष्ट है कि रूस के सीमावती देश जीडीपी की तुलना में सबसे अधिक व्यय करने वाले देश हैं। स्पेन जो जीडीपी के मुताबिक यूरोप का पांचवां सबसे बड़ा देश है वह सूची में सबसे नीचे आता है वह जीडीपी का केवल 1.28 फीसदी व्यय करता है। इससे सदस्यों के बीच तनाव पैदा होता है। स्पेन का कहना है कि वह जीडीपी के 3 फीसदी से कम खर्च करके भी सैन्य क्षमता लक्ष्यों को हासिल कर सकता है। यकीनन नाटो अभी भी रूस से अधिक खर्च करता है। वर्ष 2024 में रूस का सैन्य खर्च 14.9 करोड़ डॉलर रहा बानी जीडीपी के 7 फीसदी के बराबर परंतु आलोचकों का कहना है कि 2035 का लक्ष्य अभी बहुत दूर है। यूक्रेन के राष्ट्रपति बोलोदीमिर जेलेंस्की ने भी शिखर बैठक से इतर ट्रंप से मुलाकात की और हेग घोषणापत्र में ‘साझेदार देश’ के रूप में समर्थन की पुष्टि की। परंतु इसे पुतिन के साम्राज्यवादी इरादों के लिए बाधा के रूप में नहीं देखा जा सकता। सच तो यह है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के नतीजे नाटो की व्यय प्रतिबद्धताओं के लिए असली चुनौती साबित हो सकते हैं।
Date: 27-06-25
दोहरे पैमाने
संपादकीय
आतंकवाद के मसले पर समूची दुनिया में एक राय देखी जाती है कि जब तक इसके खिलाफ संयुक्त मोर्चा नहीं खोला जाएगा, इस पर पूरी तरह काबू पाना संभव नहीं होगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस बात की अपेक्षा और मांग की जाती है कि किसी भी देश या समूह को इस मामले में दोहरा रवैया नहीं अपनाना चाहिए। मगर आतंकवाद की समस्या से उपजी फिक्र तब बेमानी हो जाती है जब क्षेत्रीय सहयोग के लिए गठित देशों के किसी समूह में आतंक का सामना करने को लेकर दोहरे पैमाने अपनाए जाते हैं। गौरतलब है कि चीन के किंगदाओ में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ के सम्मेलन में जो साझा बयान तैयार किया गया, उसमें बलूचिस्तान का उल्लेख तो किया गया, लेकिन पहलगाम का जिक्र नहीं किया गया। हालांकि पहलगाम में पर्यटकों पर हुए हमले और उसकी प्रकृति को सभी देश आतंकवाद का एक क्रूर चेहरा ही मानते हैं और उसके खिलाफ अभियान चलाने को लेकर प्रतिबद्धता जताते रहते हैं। लेकिन विचित्र है कि एससीओ की बैठक में आतंकवाद से लड़ाई के संदर्भ में पहलगाम हमले को दर्ज करना जरूरी नहीं समझा गया।
इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि इस बैठक में तैयार संयुक्त बयान पर भारत ने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और साफतौर पर कहा कि यह बयान आतंकवाद के खिलाफ भारत के मजबूत रुख को नहीं दिखाता। इसके बाद यह सम्मेलन बिना संयुक्त बयान जारी किए ही समाप्त हो गया। यह जगजाहिर हकीकत रही है कि भारत में आतंकवाद की समस्या को जटिल बनाने में पाकिस्तान ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। इस तथ्य को दुनिया के ज्यादातर देश भली-भांति जानते हैं। खुद चीन के बेजिंग में कुछ वर्ष पहले हुए ब्रिक्स देशों के सम्मेलन के घोषणापत्र में इस तथ्य को शामिल किया गया था कि कई बड़े आतंकवादी संगठन पाकिस्तान स्थित ठिकानों से अपनी गतिविधियां संचालित करते हैं। फिर पहलगाम में पर्यटकों पर बर्बर हमलों में भी पाकिस्तान से आए आतंकियों का हाथ होने की बात सामने आई थी। इसके बावजूद एससीओ सम्मेलन के संयुक्त बयान में पहलगाम हमले का जिक्र नहीं किया जाना क्या दर्शाता है ?
सवाल है कि इस सम्मेलन में क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करने के लिए संगठन के सदस्य देश हिस्सा ले रहे हैं, तो भारत में आतंकवाद पर उनके दोहरे पैमाने दुनिया के सामने इसके खिलाफ लड़ाई का कैसा रास्ता तैयार करेंगे। वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान आतंकवाद को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से शह देने की अघोषित नीति पर काम करता है और अपनी सीमा में आतंकवादियों को पनाह देता रहा है भारत में घुसपैठ से लेकर जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद और आतंकी हमलों का सिरा कहां से जुड़ा होता है, यह छिपा नहीं है। विडंबना यह है कि इसके बावजूद चीन आमतौर पर पाकिस्तान के हक में खड़ा दिखता रहा है। एससीओ की बैठक के संयुक्त बयान में भी पहलगाम को शामिल न कर बलूचिस्तान का जिक्र करने की कोशिश क्या चीन का पाकिस्तान को स्पष्ट समर्थन नहीं है? आतंकवाद पर ऐसे दोहरे पैमाने के साथ इसके खिलाफ किस तरह की लड़ाई का दावा किया जा सकता है? इस संदर्भ में भारत ने उचित ही एससीओ के देशों, खासतौर पर चीन और पाकिस्तान को स्पष्ट संदेश दिया है कि आतंकवाद के मुद्दे पर वह किसी के सामने झुकने वाला नहीं है।
Date: 27-06-25
गर्व का क्षण
संपादकीय
अंतरिक्ष हमेशा से मानवजाति के लिए जिज्ञासा का केंद्र रहा है। भारत इसरो के जरिए अंतरिक्ष में लगातार ऊंची से ऊंची छलांग लगाकर लगातार इतिहास रचता रहा है। 1984 में राकेश शर्मा के रूप में अंतरिक्ष में पहले भारतीय की उपस्थिति दर्ज करने के रखने के 41 साल बाद बुधवार को किसी दूसरे भारतीय ने यह उपलब्धि हासिल करके इतिहास रच दिया। भारतीय अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला ने एक्सिओम मिशन के तहत बुधवार को तीन अन्य देशों के यात्रियों के साथ अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) की यात्रा के लिए रवाना होकर इतिहास रच दिया । शुभांशु की यह यात्रा मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशन की भारत की आकांक्षा को पूरा करने की दिशा में बहुत अहम कदम है। बुधवार को कारोबारी एलोन मस्क के स्पेसएक्स के फाल्कन 9 रॉकेट ने दोपहर 12 बजकर एक मिनट पर भारतीय वायुसेना में ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला व अन्य अंतरिक्ष यात्रियों के लेकर फ्लोरिडा के केनेडी स्पेस सेंटर से आईएसएस के लिए जैसे ही उड़ान भरी पूरा देश खुशी से झूम उठा। राष्ट्रपति मुर्मू ने यात्रा को अंतरिक्ष में भारत के लिए मील का पत्थर की स्थापना कहा तो प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि शुक्ला अपने साथ 1.4 अरब भारतीयों की शुभेच्छाएं, उम्मीदें और आकांक्षाएं लेकर गए हैं। पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा ने चालक दल से कहा जितना संभव हो सके खिड़की से बाहर देखते हुए समय बिताएं। शर्मा 1984 में तत्कालीन सोवियत संघ के सैल्यूट 7 अंतरिक्ष स्टेशन के तहत कक्षा में आठ दिन रहे थे। इस मिशन में अमेरिका, पोलैंड और हंगरी के अंतरिक्ष यात्री भी शामिल हैं। करीब 28 घंटे की यात्रा के बाद यान के आज (बृहस्पतिवार) शाम साढ़े चार बजे आईएसएस पहुंचने की संभावना है। अंतरिक्ष यात्री अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में 14 दिन बिताएंगे और अपने मिशन के दौरान 60 प्रयोग करेंगे। इन प्रयोगों से मानव शरीर क्रिया विज्ञान, पोषण और अंतरिक्ष में बीज अंकुरण जैसे क्षेत्रों में सूक्ष्मगुरुत्व अनुसंधान में योगदान मिलने की उम्मीद है। शुभांशु की यह यात्रा भारत के लिए असीम संभावनाओं के द्वार तो खोलेगी ही भारत की भावी पीढ़ी को भी विज्ञान और अंतरिक्ष की उन कल्पनाओं की यात्रा में ले जाएगी जो जिज्ञासा करती है और फिर नवाचार के जरिए अकल्पनीय लक्ष्यों को हासिल करने की आकांक्षा जगाती है।
Date: 27-06-25
आतंकवाद पर दृढ़ता
संपादकीय
चीन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक से निकले आखिरी संदेश में पहलगाम हमले का जिक्र न होना बहुत विचारणीय है। यही वजह है कि भारतीय रक्षा मंत्री ने इस दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। वास्तव में, यह एक और प्रमाण है कि आतंकवाद संबंधी भारतीय शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। इस बीच, अमरनाथ यात्रा से ठीक एक सप्ताह पहले गुरुवार को उधमपुर जिले में सुरक्षा बलों और आतंकियों के बीच मुठभेड़ सोचने पर मजबूर करती है। अमरनाथ यात्रा पहले ही आतंकियों के निशाने पर रही है और इस बार भी आतंकियों की गिद्ध दृष्टि यात्रा पर हो, तो आश्चर्य की बात नहीं। विगत तीन दशक से तनाव की स्थिति में ही अमरनाथ यात्रा हो रही है। सुरक्षा बल शांतिपूर्ण यात्रा के लिए प्रयासरत हैं और उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यात्रा सफलतापूर्वक संपन हो ।
भारत विश्व स्तर पर इस कोशिश में लगा रहता है कि आतंकवाद का दबाव कम हो, पर दुर्भाग्य से दुनिया में अनेक देश नफा-नुकसान देखकर ही इस पर अपना रुख तय करते हैं। वास्तव में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भी यही हुआ है। त्रासद विडंबना है कि एससीओ में शामिल देशों ने पहलगाम हमले को तो छोड़ दिया, पर बलूचिस्तान को अपनी घोषणा में शामिल कर लिया। जाहिर है, संयुक्त घोषणा पर हस्ताक्षर न करना ही देशहित में है। ऐसे किसी भी प्रस्ताव या घोषणा को पूरी तरह से नजरंदाज कर देने में ही भलाई है। शंघाई सहयोग संगठन की घोषणा में अगर यह आरोप लगाया गया है कि बलूचिस्तान की गड़बड़ी में भारत शामिल है, तो फिर भारत को ज्यादा कड़ा रुख अख्तियार करने की जरूरत है। किसी भी विश्व स्तरीय सम्मेलन में जाने में कोई हर्ज नहीं है, वहां अपनी बात भी पुरजोर ढंग से रखनी चाहिए, पर वहां पारित होने वाले प्रस्तावों के प्रति ज्यादा संवेदनशील होने की जरूरत है। भारत जब अपनी इस नीति को कुछ दिनों तक दोहराएगा, तो इससे शत्रु मानसिकता वाले देशों को साफ संदेश जाएगा। जिस आतंकी हमले में 26 निर्दोष लोगों की जान चली गई, दो देशों के बीच युद्ध की नौबत आ गई, उस हमले को तवज्जो न देने की रणनीति दरअसल हकीकत के साथ मखौल है। आतंकियों का पोषण करने वाले देश का कथित सदाबहार मित्र चीन हकीकत नहीं देखना चाहता है। हकीकत न देखने की गलती पाकिस्तान ने भी की थी और हम देख रहे हैं कि अब वह गरीबी और कमजोरी का किस तरह शिकार हो रहा है। आतंकवाद का समर्थन करते हुए यह देश अन्य देशों की दया पर आश्रित होता जा रहा है। हमारे रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने चीन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में जवाब देते हुए उचित ही दोहराया है कि इस्लामाबाद को अपने भीतर झांकना चाहिए और भारत पर बेबुनियाद आरोप लगाने के बजाय आतंकवाद को समर्थन देना बंद कर देना चाहिए।
भारतीय नजरिये से देखें, तो अमेरिका और चीन, दोनों ही भारत में आतंकवाद के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। भूलना नहीं चाहिए, पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति ने पाकिस्तानी सैन्य जनरल का अपने भवन में भोज के साथ स्वागत किया है। ऐसे घटनाक्रमों से भारत के लिए संदेश साफ है कि वह आंतरिक स्तर पर आतंकियों को जरा भी फन फैलाने का मौका न दे। इसके साथ ही, राजनीतिक स्तर पर भी भारतीय नेताओं को देशहित में ज्यादा एकजुटता का परिचय देना होगा। विश्व में भारत हित की बात करने वालों को बल प्रदान करना होगा।
Date: 27-06-25
शहरों को जाम से निकालने और संवारने की जरूरत
संजय चड्ढा, ( पूर्व अतिरिक्त सचिव, भारत सरकार )
बढ़ती शहरी आबादी को बसाने के लिए शहरों का जितना विस्तार हो रहा है, उसी अनुपात में बुनियादी ढांचा खड़ा करने की मशक्कत भी करनी पड़ रही है। इस जन दबाव से निपटने के लिए आम तौर पर अधिक से अधिक सड़कों का निर्माण, उनका चौड़ीकरण और फ्लाई ओवर बनाने की नीति अपनाई जाती है। हालांकि, यह नीति उतनी कारगर नहीं साबित हो रही। लिहाजा राज्यों में अब मौजूदा बुनियादी ढांचे को ही बेहतर बनाकर अधिक टिकाऊ विकल्प की तलाश शुरू हो गई है। यदि इस दिशा में सही से काम हुआ, तो आशाजनक प्रगति हो सकती है।
इस साल की शुरुआत में महाराष्ट्र ने वाहनों को अधिक उपयोगी बनाने के इरादे से कार व बाइक पूलिंग नीति को मंजूरी दी, ताकि सड़क पर वाहनों की संख्या में कमी आए। दिल्ली में इंडिया गेट के आसपास भी वाहनों की भीड़भाड़ को प्रबंधित करने के लिए कुछ खास पॉइंट तय किए गए हैं, जहां से प्राधिकरण की टैक्सियां लोगों को इंडिया गेट तक लाती और पहुंचाती हैं। हाल ही में दिल्ली सरकार ने अपने ‘वन सिटी, वन कम्प्यूट’ नीति के तहत एकीकृत परिवहन प्राधिकरण की घोषणा की है। इसमें एक ही टिकट पर सभी तरह के सार्वजनिक वाहनों का उपयोग किया जा सकता है।
दरअसल, हरेक जगह यह देखा जा रहा है कि लोग-बाग अपनी कार लेकर अकेले निकल पड़ते हैं। दिल्ली में ऐसी निजी कारें सड़कों का 75 प्रतिशत हिस्सा घेर लेती हैं। हालांकि यात्रियों की कुल भीड़ में इनकी हिस्सेदारी रोजाना 20 प्रतिशत से भी कम ही होती है। देश में 10 प्रतिशत से भी कम लोगों के पास कार होने के बावजूद उन्हें सार्वजनिक रिवायतों में व शहरी जमीन पर जरूरत से ज्यादा तवज्जो मिलती है। मुंबई में नगरपालिका ऑडिट में पाया गया कि प्रमुख क्षेत्रों में लगभग 30 प्रतिशत फुटपाथ कारों या उनके रखरखाव, मरम्मत आदि के कारण अवरुद्ध रहते हैं । मेट्रो रेल नेटवर्क के विस्तार से सड़कों पर दबाव कुछ कम हुआ है, मगर अपेक्षित गंतव्य तक इसकी अनुपलब्धता और टुकड़े-टुकड़े में योजना निर्माण के कारण इसकी क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो पाया है।
उबर, ओला, रैपिडो व क्विक राइड जैसी सेवाओं ने लोगों की यात्रा के तरीके को बदल दिया है। इनके कारण बेकार पड़े वाहन भी उपयोग में आ गए हैं। मगर नीति बनाने में उदासीनता, बुनियादी ढांचे के सुधार में हीला- हवाली और इन सेवाओं के इस्तेमाल के लिए प्रेरक उपायों में कमी की वजह से इस दिशा में अपेक्षित विकास नहीं हो रहा। हालांकि, इन सेवाओं की मांग में कोई कमी नहीं है।
कोच्चि वाटर मेट्रो ने इस दिशा में नई राह दिखाई है। वहां एक ही टिकट-कार्ड से ई-ऑटो फीडर के साथ फेरी सेवाओं को भी जोड़ दिया गया है। इसी तरह सूरत की क्षेत्रीय पार्किंग प्रणाली ने फुटपाथों के बेहतर उपयोग के लिए वहां पैदल यात्री प्लाजा बनाए हैं। ये कुछ ऐसे मॉडल हैं, जो दर्शाते हैं कि कैसे शहरी भूमि का अधिक कुशलता से उपयोग हो सकता है, कार्बन उत्सर्जन को कम किया जा सकता है और सार्वजनिक परिवहन के उपयोग में प्रौद्योगिकी की अधिक से अधिक मदद ली जा सकती है।
शहरी नियोजन स्थानीय जरूरतों के मुताबिक होना चाहिए। शहरों की सामूहिक परिवहन प्रणाली को मुख्यधारा में लाने के लिए स्पष्ट नियमों, प्रोत्साहनकारी उपायों व यात्रियों के अनुकूल बुनियादी ढांचे की जरूरत है। निजी कारों की पार्किंग में ही शहरों का बड़ा स्थान चला जाता है। विश्व बैंक का अनुमान है कि जाम के कारण भारतीय शहरों को सालाना 22 अरब डॉलर का नुकसान होता है। इसमें प्रदूषण से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर और उत्पादकता में कमी जैसे न दिखने वाले नुकसानों को देखें, तो सुधार और अधिक जरूरी हो जाता है।
शहरी जाम के संकट से निपटने के लिए हमें व्यस्त यातायात वाले इलाकों को सशुल्क बनाना होगा और इससे प्राप्त राशि को फुटपाथ बनाने या सार्वजनिक शटल सेवा शुरू करने में लगाना होगा। पायलट योजना के तहत स्कूलों व अस्पतालों के आसपास कम उत्सर्जन वाली गतिविधियों को प्रश्रय देने के साथ-साथ कम आबादी को बसाना चाहिए। छोटे-छोटे सुधारों से शहरों के परिदृश्य को बदला जा सकता है। भारतीय शहरों का भविष्य वाहनों के नहीं, लोगों के सुगम आवागमन में निहित है।