26-09-2019 (Important News Clippings)

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26 Sep 2019
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Date:26-09-19

Greta’s Revolt

It is time to come to grips with climate change, for our children’s sake

TOI Editorials

You might want to call Greta Thunberg, teenage climate activist, a world-historical figure. A short address by her was a highlight of the UN climate summit this week. “How dare you,” she asked assembled country heads, in the context of their inaction on climate change. Her rage encapsulates one of the prisms through which climate change is viewed, the need to avoid burdening the next generation with an intractable problem. Economic cycles and threat of conflict are indeed serious and immediate problems. But global warming caused by human activity is by far the world’s most impactful collective long-term problem. Tackling it needs special efforts.

Despite naysayers, the science on climate change reflects wide consensus and is the outcome of extensive collaboration. An IPCC special report last year observed that human activities are estimated to already have caused 1°C of global warming above pre-industrial levels. Its impact has begun to show up as an increase in the intensity and frequency of extreme events. In India, it is visible in the pattern of rainfall. If the evidence is overwhelming and countries are willing to set themselves national targets to limit emissions, why is international coordination on the issue difficult to achieve ?

Mitigation efforts, which address the causes, do have an immediate economic cost. The trade-off is tricky and everybody is not on the same page about how much price they want to pay in the present to save the world in the future. Moreover, the industrialised world appears unwilling to accept differentiated responsibilities for which, however, there is a scientific reason. Anthropogenic global warming is on account of both past and current emissions. Therefore, the responsibility of the industrialised world, which is also better endowed in terms of resources and technology for mitigation, is greater.

Even if it is challenging to arrive at a consensus on assigning responsibilities among countries for mitigation, a lot more cooperation is possible in another area. The adverse impact of climate change shows up periodically in all countries. Low income countries need help in adaptation, or ways to address the impact. This is an area where countries which make up a forum such as G20 should do a lot more. All country heads owe it to their youth to take a constructive approach. To quote Thunberg: “If you choose to fail us, I say we will never forgive you.”


Date:26-09-19

सोशल मीडिया पर सरकारी नकेल के अलावा चारा नहीं

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को सोशल मीडिया के लिए गाइडलाइन्स तय करने के सख्त निर्देश दिए हैं। किसी भी स्वस्थ प्रजातंत्र में अभिव्यक्ति, चाहे वह किसी भी तकनीकी के जरिये हो, पर सरकार का अंकुश, दुखद स्थिति का संकेत होता है। संविधान निर्माताओं ने यह स्वतंत्रता हर नागरिक को दी थी लेकिन केवल चार निर्बंधों (रेस्ट्रिक्शन्स) के साथ। लेकिन संविधान अंगीकार करने के डेढ़ साल बाद ही तत्कालीन नेहरू सरकार ने तीन और ‘युक्तियुक्त’ निर्बंध जोड़ दिए। आठवां और अंतिम निर्बंध चीन से युद्ध के बाद जोड़ा गया। सोशल मीडिया गरीबों और ‘बेआवाज’ लोगों को सहज आवाज देने का टेक्नोलॉजी का अद्भुत वरदान है, लेकिन आज सोशल मीडिया को जिस गैर-जिम्मेदाराना तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है उसे देखकर यह कहा जा सकता है कि सरकारी गाइडलाइन्स के अलावा कोई और विकल्प संभव नहीं है। भारतीय समाज की तर्क-शक्ति अभी भी क्षीण है। अक्सर तर्क और वैज्ञानिक सोच पर भावना भारी पड़ जाती है। असम में सोशल मीडिया पर इलाके में बच्चा चोरों की मौजूदगी की अफवाह फैलाई गई और उग्र भीड़ ने दो युवकों पीट-पीटकर मार डाला। हर रोज दर्जनों खबरें आ रही हैं कि युवती से न केवल दुष्कर्म किया गया बल्कि उसका वीडियो बनाकर उसे सोशल मीडिया में वायरल करने की धमकी देकर सालों उसका शारीरिक शोषण किया जाता रहा। सहज में उपलब्ध पोर्न साइटों को देखकर और शराब पीकर तीन साल की बच्ची से दुष्कर्म इसका खतरनाक पहलू बनता जा रहा है। हिमाकत यह है कि सुप्रीम कोर्ट के जज भी सोशल मीडिया पर इस तरह की घटिया टिप्पणी के शिकार होने लगे हैं। कोई भी सभ्य समाज इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। बेहतर विकल्प तो यह होता कि सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म स्वयं ही आगे आते, लेकिन तमाम चेतावनियों के बावजूद वे विषय-वस्तु पर अंकुश नहीं लगा पाए हैं। फेसबुक और वॉट्सएप पर जिस तरह किसी के खिलाफ ‘ट्रोलिंग’ और दुष्प्रचार किए जा रहे हैं वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विद्रूप चेहरा है। भारतीय समाज को सही तर्क-शक्ति और वैज्ञानिक सोच के साथ कानून का सम्मान करने की आदत डालनी होगी। सोशल मीडिया को आधार से जोड़ने की कोर्ट की सलाह का खतरा यह है कि दोषी की पहचान तो हो जाएगी, लेकिन दो व्यक्तियों के बीच संवाद का भी सरकार को पता रहेगा जो डरावना होगा।


Date:26-09-19

ये छह कदम दे सकते हैं 10 फीसदी वृद्धि दर

नियंत्रण घटाने के साथ अचानक नीतिगत बदलावों के खिलाफ निवेशक को सुरक्षा देनी होगी

चेतन भगत , अंग्रेजी के उपन्यासकार

मौजूदा सरकार के लिए 10 फीसदी जीडीपी वृद्धि ठीक बेंचमार्क है, जो स्थिर है, सहयोगियों पर निर्भर नहीं है और यह उसका दूसरा कार्यकाल है। यदि वामपंथी झुकाव वाली और गठबंधन की सारी मजबूरियों व घोटालों वाली यूपीए सरकार 8 फीसदी की जीडीपी वृद्धि दर्ज कर सकती है तो छठे वर्ष में चल रही इस सरकार से 10 फीसदी की उम्मीद गैर-वाजिब नहीं है। हालांकि, इस वक्त हम 5 फीसदी वृद्धि के आसपास हैं। अब वक्त 10 फीसदी की दर कैसे हासिल हो, इस पर फोकस करने का है।

बुनियादी ढांचे में भारी निवेश जैसे लंबी अवधि के कदम अंतत: जीडीपी वृद्धि देंगे। हालांकि, यहां हम जल्दी और आसानी से अमल में लाने वाले ऐसे कदमों पर फोकस करेंगे, जो तेजी से हमारी वृद्धि दर बढ़ा सकते हैं। इनमें से कुछ कदमों के तहत हमें नियंत्रण छोड़ना होगा, जिसे हमारे नेता और नौकरशाह पसंद नहीं करते। लेकिन, कोई भी प्रमुख देश निजी क्षेत्र को कुछ ढील दिए बगैर 10 फीसदी की दर से नहीं बढ़ा है। आप पतंग उड़ाएं तो डोर से पतंग को नियंत्रित कर सकते हैं लेकिन, यदि आप चाहते हैं कि पतंग ऊंची उड़े तो डोर को कुछ ढील देनी पड़ती है। भारत का मौजूदा 2019 का जीडीपी करीब 3 लाख करोड़ डॉलर (सरलता के लिए मोटा आंकड़ा लिया है) रहने की अपेक्षा है। 10 फीसदी की दर के लिए 300 अरब डॉलर की आर्थिक गतिविधियों की और आवश्यकता होगी। चूंकि हम पहले ही 5 फीसदी पर हैं और अतिरिक्त 5 फीसदी करीब 150 अरब डॉलर है। अतिरिक्त 150 अरब डॉलर का मतलब है देश भर में प्रतिदिन 40 करोड़ डॉलर या करीब 3,000 करोड़ रुपए की अतिरिक्त आर्थिक गतिविधियां। पेश है छह व्यावहारिक कदम, जो 10 फीसदी वृद्धि दर देंगे।

1. रियल एस्टेट : यह क्षेत्र बड़े पैमाने पर आर्थिक गतिविधियों व उपभोक्ता के मनोभाव को संचालित करता है। शायद दशकों में पहली बार रियल एस्टेट की कीमतें 5 साल से स्थिर हैं। इसका हल यह है अ) दूसरी संपत्तियों से अपेक्षित किराया (डिम्ड रेंट) हटाकर (क्योंकि यह तो वैसा ही हुआ कि नकदी पड़ी हो तो अपेक्षित ब्याज पर टैक्स वसूला जाए) ब) स्टैम्प ड्यूटी में भारी कटौती (राज्यों को इसकी भरपाई करनी होगी) स) सरकार को भी बड़े पैमाने पर अपनी बेशकीमती जमीन बेचकर पैसा खड़ा करना होगा।

2. कृषि : भारत में खेती को बढ़ावा दिए बगैर वृद्धि दर बढ़ाना कठिन है। यहां ज्यादातर बुनियादी ढांचे पर केंद्रित दीर्घावधि समाधान हैं। हालांकि, जल्दी किया जा सकने वाला एक समाधान है- मेडिकल मारिजुआना (भांग) को वैधता प्रदान करना। यह दुनिया में अरबों डॉलर का उद्योग हो चुकी है। यह भारतीय संस्कृति की पहले ही अंग रही है और कृषि प्रधान देश होने के बाद भी इस क्षेत्र में दुनिया में आई उछाल से हम वंचित हैं। वैसे भी बीस साल बाद दुनिया की राह चलकर हमें इसे वैधता देनी ही होगी। फिर अभी क्यों नहीं? बेशक, किसी भी मादक पदार्थ की तरह इसके लिए एक सुविचारित नियामक नीति बनानी होगी।

3. विनिवेश : सरकार विनिवेश की बात करती रहती है लेकिन, यह लक्ष्य अर्जित नहीं कर पाती, क्योंकि बिक्री में बहुत वक्त लगता है। बेहतर तरीका यह हो सकता है कि जैसे 20 सार्वजनिक इकाइयों को एक फंड या डायवेस्टको जैसी होल्डिंग कंपनी में एकीकृत करें। फिर निवेशकों को आकर्षित करने के लिए डायवेस्टको के शेयर काफी डिस्काउंट पर बेचें। इससे एक बार में ही सारी कंपनियां बेचकर हम बड़े सिरदर्द से बच जाएंगे।

4. कस्टम्स : भारतीय कस्टम ड्यूटी जिस तरह काम करती है उसमें कुछ गड़बड़ है। ड्यूटी में तो कोई बात नहीं है पर हमारे एयरपोर्ट-बंदरगाहों पर आयात-निर्यात में होने वाली देर से देश अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में टिकने लायक नहीं रहता। यदि तीव्र गति से बढ़ना है तो हमें यह दिक्कत दूर करनी होगी। सरल, एकसमान कस्टम्स ड्यूटी समाधान हो सकता है? जांच की मौजूदा प्रक्रिया को देखते हुए और भी काम करने की जरूरत है लेकिन, तय है कि यह हमारी आर्थिक वृद्धि को रोक रही है।

5. वित्तीय सुधार : कॉर्पोरेट टैक्स घटाना स्वागतयोग्य पहल है। कुछ और कदम जरूरी है। लॉन्ग टर्म कैपिटल गैन्स टैक्स हटाना चाहिए। रुपया पूर्ण परिवर्तनीयता की ओर जाना चाहिए। लोगों की वैश्विक आमदनी पर कर न लगाने पर भी सरकार विचार कर सकती है। यह कम से कम दस साल के लिए किया जा सकता है। इसमें राजस्व हानि सीमित होगी (क्योंकि विदेशी करों के भुगतान पर वैसे भी क्रेडिट मिलता है)। लेकिन, वैश्विक निवेशक और कंपनियां भारत की ओर आकर्षित होंगी, जिनकी बहुत जरूरत है अौर जो इस वक्त हमसे दूर चले गए हैं।

6. इन्वेस्टर प्रोटेक्शन बिल : हमें यह समझना होगा कि निवेशक भविष्य का अनुमान लगाकर निवेश करते हैं। कल्पना करें कि दस साल की टैक्स दरों व अन्य लागतों का अनुमान लगाकर फाइनेंशियल मॉडल बनाया गया है। जब सरकार अचानक दरें बदलती हैं, तो यह मॉडल बिगड़ जाता है। हमें ऐसा कानून चाहिए जो यह सुनिश्चित करे कि अचानक, अस्थायी और बार-बार ऐसे नीतिगत व कर संबंधी बदलाव न हो सकें, जो भारतीय बिज़नेस के खिलाफ हों। ये जल्दी उठाए जा सकने वाले उपाय हैं। अंततः हमें बढ़ती अर्थव्यवस्था को ठोस आधार देने के लंबी अवधि के कदम उठाने होंगे। बुनियादी ढांचा अकेला सबसे बड़ा क्षेत्र है, जहां सरकार बहुत कुछ कर सकती है- बेहतर सड़कें, बंदरगाह, विमानतल, सेलफोन नेटवर्क, बिजली व पानी की उपलब्धता। भारतीय बुनियादी ढांचे में कुछ सुधार हुआ है, लेकिन अब भी लंबा रास्ता तय करना है।

आखिरकार, इतिहास जब भारत के मौजूदा दौर का आकलन करेगा तो आर्थिक वृद्धि बहुत बड़ा मानक होगा। जरूरत से ज्यादा नकारात्मक बातें, जीडीपी के आंकड़ें का बहुत ज्यादा राजनीतिकरण और पराजयवादी रवैया हमें कहीं नहीं ले जाएगा और न जरूरत से ज्यादा नियंत्रण। ‘अब तक की सर्वाधिक टैक्स वसूली’ जैसी सुर्खियों की बजाय अब हमें ‘अब तक की सर्वाधिक ऊंची जीडीपी दर’ जैसी सुर्खियों की हसरत रखनी चाहिए! सकारात्मक बने रहें, रणनीतिक ढंग से सोचें और वह सब करें जो 10 फीसदी जीडीपी वृद्धि दर के लिए जरूरी हो। यह भारत का वक्त है। आइए, इसे साकार करें।


Date:26-09-19

विकास का संकट समझें, फिर योजनाओं की आलोचना करें

खेती और ग्रामीण भारत पर दबाव घटाना स्किल इंडिया व मेक इन इंडिया का उद्देश्य

एन के सिंह, वरिष्ठ पत्रकार

दुनिया के मशहूर अर्थशास्त्री नोबेल पुरस्कार विजेता मिल्टन फ़्राइड 1972 में चीन की यात्रा पर गए और देखा कि सैकड़ों श्रमिक फावड़ों से नहर खोद रहे हैं। उन्होंने पूछा, ‘ये लोग फावड़े से जमीन की खुदाई क्यों कर रहे हैं, जबकि यह काम जेसीबी से कम खर्च में तेज़ी से हो सकता है?’ चीनी अधिकारी ने जवाब दिया, ‘दरअसल यह सरकार के रोजगार दिलाने के कार्यक्रम के तहत हो रहा है’। इस पर अर्थशास्त्री की त्वरित सलाह थी, ‘तब तो फावड़े की जगह चम्मच से खुदाई बेहतर होती, ज्यादा रोजगार पैदा होता’।

यह सही है कि एक बड़ा वर्ग ‘वन्दे मातरम’ न कहने पर, गाय के नाम पर ‘भीड़ न्याय’ में या बच्चा चोर के नाम पर पिटाई को ही नया राष्ट्रवाद समझ रहा है। लेकिन, आंकड़े बताते हैं कि एक अन्य वर्ग ‘मोदी-इफेक्ट’ से इतना प्रभावित है कि वह जहां भी है, स्थिति को बेहतर करने में लगा है। मोदी-2 में भारत सरकार के सचिवों की पहली बैठक (विगत जून 10) में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पशुपालन को वरीयता देने की बात पर बल दिया, क्योंकि देश का विकास वगैर कृषि को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाए संभव नहीं है। किसान केवल अनाज पैदा करके अलाभकर खेती ही करता रहेगा, जब तक कि साथ में दुग्ध, मत्स्य , कुक्कुट या अन्य व्यवसाय शुरू नहीं करता। देश की 68 प्रतिशत आबादी ग्रामीण है और लगभग 55 करोड़ लोग कृषि श्रमिक हैं। खेती अलाभकर इसलिए है कि अगर एक हेक्टेयर (लगभग 2.5 एकड़) खेती में गेहूं की फसल की कटाई, थ्रेशिंग कराकर अनाज घर तक लाना हो तो हार्वेस्टर से यह काम 4000 रुपए और तीन घंटे में हो जाएगा, लेकिन अगर मजदूर लगाकर करना हो तो चार गुने से ज्यादा खर्च और करीब चार दिन लगेंगे। कृषि मंत्रालय के अर्थ एवं सांख्यिकी निदेशालय की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार कपास की खेती में मजदूरी, कुल उत्पादन-व्यय (58031 रुपए प्रति हेक्टेयर) का करीब 70 प्रतिशत होता है। तीसरी दिक्कत है किसानों के खेती के तौर-तरीकों में बदलाव के प्रति आदतन विरोध या उदासीनता। लिहाज़ा इतने खर्च के बाद भी गेहूं का औसत उत्पादन 34 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है यानी जिन लगभग तीन करोड़ हेक्टेयर में इसकी खेती हर साल होती है उसमें चरम औसत उत्पादन 10.20 करोड़ टन का हुआ। चीन और अमेरिका इससे कम क्षेत्र में 20 करोड़ टन उत्पादन करते हैं और लागत काफी कम रहती है। यही कारण है भारत को प्रतिस्पर्धा में दिक्कत आ रही है।

मोदी की स्कीमों की खूबी समझें: अब इसे समझने के लिए कोई आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए कि खेती का पूर्ण मशीनीकरण करते हुए मजदूरों और ग्रामीण युवाओं को गैर-खेती रोजगार में लगाना होगा ताकि ग्रामीण भारत और कृषि पर कम दबाव रहे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे अपने मुख्यमंत्रित्व काल में हीं समझ लिया था। लिहाज़ा स्किल इंडिया शुरू किया गया और इसके पूरक के रूप में मेक-इन-इंडिया या छोटे उद्योगों की तमाम योजनाएं शुरू कीं। ताकि उद्यमियों को ड्राइवर, फिटर, टर्नर ही नहीं कम्प्यूटर की औसत ज्ञान वाला युवा भी आसानी से मिल जाए।

एक अन्य तथ्य पर गौर करें। देश दुनिया में सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक है और आज इस उद्योग की कुल आय करीब साढ़े छह लाख करोड़ रुपए यानी गेहूं और चावल के कुल उत्पादन के मूल्य से ज्यादा है और इसी तरह मछली का उत्पादन भी एक लाख करोड़ रुपए का हो गया है यानी अगर किसान खेती के साथ दूध-व्यापार में और मत्स्य पालन में लगे तो उसकी आय दूनी हो सकती है, लेकिन यहां भी वही दिक्कत है। दुग्ध व्यापार 7-12 प्रतिशत विकास दर से हर साल बढ़ रहा है, लेकिन भारत के मवेशी 1805 लीटर दूध प्रति वर्ष देते हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय औसत 2310 लीटर और इजराइल आदि में गायें सात गुना अधिक दूध देती हैं। तीसरा दूध के व्यापार अभी भी संगठित क्षेत्र में कम होने के कारण दूध बर्बाद हो जाता है। वहीं अमेरिका और न्यूजीलैंड बड़े पैमाने पर पाउडर दूध बनाकर विश्व-बाजार को बिगाड़ देते हैं और मनचाही कीमत लेते हैं। भारत में चार करोड़ गायें 7.60 करोड़ टन दूध हर साल देती है, जबकि अमेरिका में दो करोड़ गायें 16 करोड़ टन यानी वही उत्पादकता की समस्या जो केवल ‘माता’ मानने से नहीं नस्ल सुधारने से व बीमारी-मुक्त करने से होगा।

देश के वैज्ञानिकों में एक उत्साह है पर उनके नए शोध को जमीन पर अमल में लाना राज्य अभिकरणों का काम है। गन्ने की नई किस्म सीओ-0238 जो भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के डॉक्टर बक्सी राम ने विकसित की वह उत्तरप्रदेश में गन्ना किसानों व चीनी मिलों के लिए जीवनदयानी बन रही है। इन तथ्यों, मजबूरियों और योजनाओं के मद्देनज़र ही यह देखना होगा कि मोदी-2 में कितना विकास हो सका है या होगा।


Date:26-09-19

बच्चों को मशीनी युग के अनुरूप शिक्षण जरूर

भारत झुनझुनवाला , ( लेखक आइआइएम बेंगलूर के पूर्व प्रोफेसर हैं )

चीन के सबसे अमीर व्यक्ति जैक मा ने कुछ समय पहले विश्व आर्थिक मंच पर कहा था कि आर्थिक तरक्की जारी रखने के लिए हमें अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा देने होगी कि वे मशीनों से मुकाबला कर सकें। उनके मुताबिक शिक्षा में सुधार इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। शिक्षा में सुधार को लेकर भारत को इसलिए अधिक सक्रियता दिखाने की जरूरत है, क्योंकि उसके जरिये ही आर्थिक रूप से सशक्त हुआ जा सकता है। एक अर्से से यह दिख रहा है कि सरकारी और निजी स्कूलों के शिक्षकों के वेतन में अंतर के बावजूद सरकारी विद्यालयों के परिणाम कमतर हैं।

इस वर्ष उत्तर प्रदेश बोर्ड के हाईस्कूल की 21 छात्रों की मेरिट लिस्ट में एवं 12 वीं की 14 छात्रों की मेरिट लिस्ट में एक भी छात्र सरकारी विद्यालय से नहीं था। इसी तरह दिल्ली में दसवीं के रिजल्ट में सरकारी विद्यालयों में 72 प्रतिशत छात्र पास हुए, जबकि निजी विद्यालयों में 93 प्रतिशत। 2016-17 में उार प्रदेश सरकार द्वारा प्राइमरी एवं सेकेंडरी शिक्षा पर 25,000 रु. प्रति छात्र खर्च किया जा रहा था, जो 2019-20 में लगभग 30,000 रुपये होगा।

एक रपट के तहत बिहार के नौ जिलों में 4.3 लाख और झारखंड में 7.6 लाख फर्जी एडमिशन सरकारी विद्यालयों में पाए गए, क्योंकि इन दाखिलों के माध्यम से मध्यान्ह भोजन जैसी सुविधाओं का बजट बढ़ जाता है। यदि फर्जी छात्रों को हटा दिया जाए तो प्रति छात्र सरकारी खर्च 40,000 रु. पड़ सकता है। नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार 2014 में लगभग 64 प्रतिशत छात्र सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे थे। आज शायद उनकी संया 55 प्रतिशत हो। यदि सभी छात्रों को शामिल कर लिया जाए तो सरकार 22,000 रु. प्रति छात्र प्रति वर्ष खर्च कर रही है चाहे वह सरकारी में पढ़ रहा हो अथवा निजी स्कूल में। यदि इसमें से आधी रकम यानी 11,000 रुपये प्रति वर्ष सभी छात्रों को यूनिवर्सल वाउचर के माध्यम से वितरित कर दिए जाएं तो प्रत्येक छात्र को लगभग 1,000 रुपये प्रति माह मिल जाएगा।

सरकारी शिक्षा तंत्र में लगभग 90 प्रतिशत खर्च शिक्षकों के वेतन में लगता है। इन वाउचर से छात्र अपने मनचाहे स्कूल की फीस अदा कर सकेंगे और सहज ही हमारे छात्रों की शिक्षा में सुधार हो जाएगा। नेशनल सैंपल सर्वे द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि 2014 में प्राइवेट स्कूलों की औसत फीस 417 रु. प्रति माह थी। वर्तमान में यह 1000 रु. प्रति माह होगी। वाउचर व्यवस्था लागू होने पर सरकारी स्कूलों के लिए जरूरी होगा कि वे प्राइवेट स्कूलों से प्रतिस्पर्धा में छात्रों को आकर्षित करें जिससे उन्हें वाउचर मिल सकें। इस प्रकार सरकारी विद्यालयों को मजबूरन अपनी कार्यकुशलता में सुधार करना होगा। प्राइवेट स्कूलों को अच्छी फीस मिलेगी और सरकारी स्कूलों में प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होगी। इससे दोनों में सुधार होगा।

अमेरिका के नेशनल ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा किए गए एक अध्ययन में वाउचर से लाई गई प्रतिस्पर्धा के कारण सरकारी स्कूलों में सुधार पाया गया। कोलंबिया में पाया गया कि जिन छात्रों ने वाउचर के माध्यम से प्राइवेट स्कूलों में स्थानांतरण लिया उनका रिजल्ट उत्तम रहा।

न्यूजीलैंड में पाया गया कि वाउचर व्यवस्था लागू होने के बाद सरकारी विद्यालयों में सुधार हुआ,क्योंकि वे अधिक संख्या में वाउचर प्राप्त करना चाहते थे। अपने देश में आंध्र प्रदेश में वाउचर व्यवस्था को प्रयोग के रूप में लागू किया गया तो पाया गया कि वाउचर के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों का अंग्रेजी और गणित में रिजल्ट अच्छा था। दिल्ली में पाया गया कि अंग्रेजी में प्रभाव अच्छा था, यद्यपि हिंदी और गणित में प्रभाव नहीं दिखा। लड़कियों की शिक्षा में वाउचर का विशेष लाभ दिखा। इन तमाम अध्ययनों से पता लगता है कि वाउचर की व्यवस्था से प्रतिस्पर्धा बढ़ती है और शिक्षा में सुधार आता है। वाउचर व्यवस्था का नुकसान मुयत: असमानता को लेकर देखा जाता है। स्वीडन, न्यूजीलैंड, बेल्जियम, अमेरिका इत्यादि देशों में पाया गया कि वाउचर व्यवस्था से समाज के कमजोर वर्ग के छात्र पीछे रह जाते हैं और समृद्ध वर्ग के छात्र वाउचर के साथ अतिरिक्त धन देकर श्रेष्ठतम विद्यालयों में दाखिला ले लेते हैं, लेकिन इन देशों और हमारी परिस्थिति में मौलिक अंतर है। वहां हर छात्र को उसके क्षेत्र के सरकारी विद्यालय में ही दाखिला लेना होता है।

जर्नल आफ इकोनॉमिक लिटरेचर में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार वाउचर से आंध्र प्रदेश में शिक्षा के स्तर में कुछ सुधार हुआ, लेकिन सामाजिक समानता पर असर नहीं पड़ा। अपने देश में कमजोर वर्ग के लोग अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में भेजते हैं और समृद्ध वर्ग के लोग निजी विद्यालयों में। इसलिए अपने देश में वाउचर से केवल कमजोर को ऊपर बढऩे में सहायता मिलेगी और उससे समानता स्थापित होगी। सरकारी विद्यालयों के कमजोर रिजल्ट का एक कारण यह बताया जाता है कि उनमें कमजोर वर्ग के छात्र आते हैं। यह बात सही है। इस समस्या का सीधा उपाय यह है कि कमजोर छात्रों को वाउचर देकर उन्हें अच्छे सरकारी अथवा प्राइवेट विद्यालयों में स्थानांतरित कर दिया जाए।

निजीकरण का एक नुकसान यह है कि निजी विद्यालयों में नकल की छूट होती है। अन्य देशों में भी पाया गया कि निजी विद्यालय अपने मानकों को कमकरके अधिक संया में छात्रों को पास कर देते हैं। यह तर्क अपने देश में लागू नहीं होता, क्योकि हमारे यहां सीबीएसई अथवा राज्य बोर्डों द्वारा परीक्षा ली जाती है जो निजी और सरकारी विद्यालयों को सामान परीक्षा व्यवस्था उपलब्ध  कराते हैं। यदि हमें अपने युवाओं को अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में खड़े होने की क्षमता देनी है तो सरकारी शिक्षकों को दिए जाने वाले वेतन में कटौती कर प्रति माह कुछ रकम सीधे सभी छात्रों को दे देना चाहिए, जिससे वे मनचाहे स्कूलों में दाखिला ले सकें। दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों के लिए वाउचर की रकम को बढ़ाया जा सकता है जैसे हर छात्र को 1,000 के स्थान पर 2,000 रुपये प्रति माह का वाउचर दिया जा सकता है। इससे दूरस्थ क्षेत्रों में सरकारी अथवा निजी, दोनों प्रकार के विद्यालय चल सकेंगे और वहां के छात्रों को भी उत्तम शिक्षा मिल सकेगी।


Date:26-09-19

मोदी-ब्रांड कूटनीति का जलवा

प्रधानमंत्री मोदी को दुनिया के विभिन्न् नेताओं से दोस्ताना रिश्ते कायम करना रास आता है। मोदी-स्टाइल की इस कूटनीति के फायदे भी हैं।

कमलेंद्र कंवर , (लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं)

अमेरिका के ह्यूस्टन में आयोजित ‘हाउडी मोदी कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह 50000 अनिवासी भारतीयों के जोशीले समूह के समक्ष अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ मंच साझा करते और आखिर में करीबी दोस्तों की तरह हाथ में हाथ थामे सबका अभिवादन करते नजर आए, उसने लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। यह मोदी-स्टाइल की कूटनीति है, जिसका जलवा दुनिया ने एक बार फिर देखा।

उन्होंने अनिवासी भारतीयों के समुदाय के समक्ष अपनी सरकार के कार्यों का जिक्र करने के साथ पड़ोसी देश को आतंकवाद के मुद्दे पर आड़े हाथ तो लिया ही, साथ ही साथ मेजबान राष्ट्रपति ट्रंप की तारीफों के पुल बांधने में भी कंजूसी नहीं की। वे जिस आत्मीय ढंग से अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ घुलते-मिलते नजर आए, वैसा अतीत में किसी भारतीय नेता द्वारा शायद ही किया गया हो। गौरतलब है कि अमेरिका में बसे भारतीय पारंपरिक तौर पर रिपब्लिकंस (जिस पार्टी से ट्रंप आते हैं) के बजाय डेमोके्रट्स के ज्यादा करीब रहे हैं। लिहाजा इस आयोजन में ट्रंप की शिरकत की एक वजह यह भी हो सकती है कि वह 2020 में होने वाले आगामी राष्ट्रपति चुनाव के लिए मोदी के करिश्मे का इस्तेमाल करते हुए अनिवासी भारतीय समुदाय को लुभाना चाहते हों।

बहरहाल, यह तो कहना होगा कि मोदी ने दुनिया के विभिन्न् नेताओं के साथ जिस तरह व्यक्तिगत रिश्ते बनाए हैं, उसका आज के दौर में कोई सानी नहीं। चाहे यह रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन हों या चीन के राष्ट्र-प्रमुख शी जिनपिंग अथवा जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे या फिर वैश्विक नेताओं की बाकी जमात, मोदी भलीभांति जानते हैं कि कैसे उनके साथ दोस्ताना कायम किया जाए।

प्रधानमंत्री मोदी को अपने इस प्रयासों में पिछले कार्यकाल के दौरान तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का भी पूरा सहयोग मिला था। अब मौजूदा विदेश मंत्री एस. जयशंकर भी यही करते नजर आ रहे हैं। जयशंकर शुरुआती जमीन तैयार कर देते हैं, जहां कि मोदी अपने वक्तृत्व कौशल और करिश्मे का इस्तेमाल कर सकें। जयशंकर विदेश सचिव रहे हैं और चीन व अमेरिका में भारतीय राजनयिक के तौर पर भी सेवाएं दे चुके हैं। इस नाते उन्हें कूटनीति का लंबा अनुभव है।

एक ओर मोदी रूस के साथ भारत के रिश्ते सुदृढ़ कर रहे हैं, वहीं अमेरिका के साथ भी दोस्ती गहरी हो रही है। इसके अलावा वे चीन के साथ भी कुछ मुद्दों पर गतिरोध के बावजूद सहजता से दोस्ताना संवाद विकसित करने में कामयाब हैं। यह दर्शाता है कि वैश्विक शक्तियां भी उनके कूटनीतिक कौशल की कायल हैं।

ट्रंप के पूर्ववर्ती बराक ओबामा ने हिंद-प्रशांत और हिंद महासागरीय क्षेत्र में भारत के साथ एक ‘साझा सामरिक विजन संबंधी समझौता किया था, जिससे चीन बौखला गया था। जबकि यह समझौता सिर्फ खुफिया सूचनाओं के आदान-प्रदान, सामुद्रिक निगरानी व समुद्र संबंधी नियम-कायदों का अनुपालन सुनिश्चित करने से जुड़ा था, लेकिन चीन ने इस पर नाखुशी ही जताई। इसके अलावा भारत-अमेरिका परमाणु करार व रक्षा संबंधी सौदों को लेकर भी चीन असहज रहता है। जब ट्रंप सत्ता में आए और उन्होंने चीनी सामग्रियों पर आयात शुल्क बढ़ाने का फैसला किया तो चीन खफा हो गया। ऐसे में भला चीन को भारत-अमेरिका की नजदीकियां कैसे रास आ सकती हैं।

इसके बावजूद भारत की चीन के साथ सद्भावनापूर्ण संवाद की कड़ी कायम है। मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल के दौरान जब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज चीन के दौरे पर गईं तो मेजबान राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने प्रोटोकॉल को दरकिनार कर उनकी अगवानी करते हुए उनके साथ बैठक की, जबकि वे महज एक मंत्री थीं, न कि राष्ट्राध्यक्ष। उस बैठक के बाद शी जिनपिंग ने यह कहते हुए कई लोगों को आश्चर्य में डाल दिया कि ‘मैं चीन-भारत के रिश्तों के भविष्य को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हूं और मेरा मानना है कि दोनों देशों के आपसी रिश्तों को आगे बढ़ाते हुए वास्तविक प्रगति हासिल होगी।

यहां पर कहना होगा कि जहां मोदी भारत-अमेरिका परमाणु करार के परिप्रेक्ष्य में भारत को अमेरिका के करीब ले जाने में जुटे थे, तो वहीं सुषमा स्वराज चीन और भारत के मध्य सरहद को लेकर लंबे समय से जारी विवाद को सुलझाने की जमीन तैयार करने में जुटी थीं। सकारात्मक नतीजों को निगाह में रखते हुए यह एक सोची-समझी सफल कूटनीति है।

बहरहाल, ह्यूस्टन में ‘हाउडी मोदी कार्यक्रम के दौरान मोदी ने यह भांपने में देर नहीं लगाई कि ट्रंप की 2020 के राष्ट्रपति चुनाव में अमेरिका में बसे भारतीयों के वोट हासिल करने की लालसा को भुनाने के क्या फायदे हो सकते हैं। उन्होंने समझा कि ट्रंप के अहं को तुष्ट करने में हर्ज नहीं। लिहाजा जब मोदी ने इस कार्यक्रम के दौरान यह कहा कि ‘अबकी बार ट्रंप सरकार, तो उस वक्त ट्रंप के चेहरे की खुशी देखते ही बनती थी।

वर्ष 2016 में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रंप को वहां बसे भारतीयों के कुल मतों में से महज 14 फीसदी मत मिले थे। अब ट्रंप मोदी के प्रति प्रेम दिखाते हुए अनिवासी भारतीय समुदाय का समर्थन हासिल करने की उम्मीद संजोए हैं और शायद यही वजह रही कि उन्होंने अपने संबोधन में मोदी की तारीफों के पुल बांधने में कंजूसी नहीं बरती।

मोदी को दुनिया के नेताओं से दोस्ताना रिश्ते कायम करना रास आता है। इसके फायदे भी हैं। हालिया दौर में एक समय ऐसा भी था जब रूस भारत की अमेरिका से बढ़ती नजदीकियों को देख इससे दूर जाता लग रहा था। लेकिन जिस तरह मोदी रूस का पुन: भारत के लिए समर्थन हासिल करने में कामयाब रहे, वह काबिले-तारीफ है।

गौरतलब है कि अमेरिका के विरोध के बावजूद भारत रूस से एस-400 लड़ाकू विमान के सौदे की राह पर आगे बढ़ा, जिससे रूस को यह भरोसा हुआ कि भारत अमेरिकी दबाव को दरकिनार कर सकता है। मोदी के रूस दौरे से भारत-रूस के रिश्तों में पुन: गर्माहट आई। यह अमेरिकी ऐतराज को तवज्जो न देने की चतुर कूटनीति थी।

भारत के जापान के साथ भी रिश्ते काफी हद तक जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साथ मोदी के निजी ताल्लुकात के जरिए सुदृढ़ हुए। इसी तरह मोदी-नेतन्याहू के दोस्ताने की वजह से भारत-इसराइल के रिश्तों को भी नया आयाम मिला। यही बात भारत-यूएई के रिश्तों के बारे में भी कही जा सकती है, जिन्होंने हालिया वर्षों में सकारात्मक मोड़ लिया है। यह तब है जबकि पाकिस्तान यूएई का पुराना भरोसेमंद साथी रहा है। यह मोदी की व्यक्तिगत रिश्तों की कूटनीति की सफलता है।

अंत में, भले ही मोदी इस वक्त घरेलू मोर्चे पर कुछ जगह निराश करते लग रहे हों, लेकिन वैश्विक शक्तियों को उन्होंने जिस तरह चतुराईपूर्वक साधा है, वह वाकई उनकी एक बड़ी उपलब्धि है।


Date:25-09-19

एक देश एक कार्ड

संपादकीय

साल 2021 की जनगणना प्रक्रिया अभी शुरू नहीं हुई है, लेकिन यह किस प्रकार से कराई जाए, इसको लेकर विचार-मंथन जरूर चल रहा है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने महारजिस्ट्रार एवं जनगणना आयुक्त कार्यालय के नए भवन की आधारशिला रखने के अवसर पर यह कहा कि क्यों न हमारे पास आधार, पासपोर्ट, बैंक खाते, ड्राइविंग लाइसेंस और वोटर कार्ड जैसी सुविधाओं के लिए एक ही कार्ड हो। हालांकि सरकार अभी ऐसे किसी प्रस्ताव पर विचार नहीं कर रही है, लेकिन उन्होंने यह विचार सार्वजनिक रूप से जरूर रख दिया है। पहली नजर में इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इसमें सुविधा ही सुविधा है। अगर ये आंकड़े एक ही कार्ड में समाहित हो जाएं, तो अलग-अलग दस्तावेज लेकर चलने की झंझट से मुक्ति मिल जाएगी। साथ ही व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी और कई तरह के फर्जीवाड़े पर भी रोक लग सकती है। लेकिन आंकड़े सुरक्षित नहीं रहे, तो इसके दुरुपयोग की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता। चूंकि अभी तक ये आंकड़े बिखरे हुए हैं, मगर जब ये एक जगह हो जाएंगे, तो इसका खतरा और बढ़ जाएगा और निजता भी प्रभावित हो सकती है। इसलिए सरकार अगर इस दिशा में आगे बढ़ती है, तो इन आंकड़ों की गोपनीयता को पुख्ता रखने की व्यवस्था भी करनी होगी। बहरहाल, सरकार द्वारा देश के मानव संसाधन के बारे में पर्याप्त आंकड़े एकत्र करने में कोई बुराई नहीं है। इन आंकड़ों की उपयोगिता खुद गृह मंत्री शाह ने यह कहकर स्वीकार किया कि 2011 की जनगणना के आधार पर मोदी सरकार ने 22 कल्याणकारी योजनाएं बनाई। यह बात समय-समय पर उठती रही है कि हमारी सरकारों के पास अपनी ही आबादी के बारे में पर्याप्त आंकड़े नहीं हैं। जाहिर है सटीक आंकड़ों के अभाव में देश के विकास के लिए समुचित योजनाएं नहीं बनाई जा सकतीं। यह जरूरी है कि भावी जनगणना के लिए ऐसा तरीका अपनाया जाए, जिससे इसकी उपयोगिता बढ़ सके। ध्यान देने की बात है कि पहली बार जनगणना में मोबाइल एप का उपयोग किया जाने वाला है, जिससे कागज-कलम वाली जनगणना डिजिटल युग में प्रवेश कर जाएगी। अगर वैज्ञानिक तरीके से जनगणना कार्य संपन्न हो जाता है, तो भविष्य में इसका विभिन्न तरीके से राष्ट्र निर्माण में इस्तेमाल हो सकता है। जनता भी इसमें खुलकर भागीदारी करे।


Date:25-09-19

बात नहीं काम

संपादकीय

संयुक्त राष्ट्रसंघ के जलवायु आपदा शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह आह्वान काफी महत्त्वपूर्ण है कि अब उपदेश देने का नहीं काम करने का समय है। वास्तव में जलवायु परिवर्तन जिस तरह भयावह रु प अख्तियार कर रहा है, उसमें धरती के विनष्ट होने का खतरा मौजूद है। बढ़ते तापमान को देखते हुए दुनिया भर के वैज्ञानिक एवं पर्यावरणवादी कार्बन उत्सर्जन कम करने पर जोर दे रहे हैं, क्योंकि इस समय यह उच्चतम स्तर पर है। भारत को इसके पहले क्रम में ही बोलने का स्थान दिया गया था। इस समय प्रधानमंत्री मोदी की बात दुनिया ध्यान से सुनती है और भारत ने पर्यावरण, सतत विकास एवं सबको स्वास्य के संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्य में तेज स्वर मिलाया है। प्रधानमंत्री मोदी की बात का महत्त्व इसलिए है, क्योंकि भारत ने पेरिस समझौते के अनुसार कदम उठाने की पूरी कोशिश की है। प्रधानमंत्री ने बताया भी कि भारत गैर-परंपरागत (नॉन फॉसिल) ईधन उत्पादन के लक्ष्य को दोगुने से अधिक बढ़ाकर 2022 तक 450 गीगावाट तक पहुंचाने के संकल्प को पूरा करने पर तेजी से कम कर रहा है। पेरिस जलवायु समझौते के तहत अपनी प्रतिबद्धता का पालन करते हुए भारत 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा का उत्पादन करेगा। जब मोदी ने कहा कि भारत सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, पनबिजली जैसे गैर-परंपरागत ईधन के उत्पादन में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाएगा तो चारों ओर तालियां गूंज गई। मोदी को सुनने के लिए कई नेता बिना पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के वहां पहुंचे थे, जिनमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी शामिल थे। वास्तव में यह खबर तो सारे नेताओं एवं राजनयिकों को मालूम था कि भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के छत पर सोलर पैनल लगाया है जिसका उद्घाटन होना है। इसका लक्ष्य पर्यावरण संरक्षण का संदेश देना ही है। मोदी का यह कहना भी सही है कि अब इसे कमरे के विमर्श से निकालकर जन आंदोलन बनाना होगा। देशों को आगे आकर उसके लिए कदम उठाने होंगे। इस सरकार के शासनकाल में जितने महत्त्वपूर्ण सड़कें बनी हैं, सब पर पर सोलर पैनल लगाए गए हैं। भारत ने फ्रांस के साथ मिलकर अंतरराष्ट्रीय सौर ऊर्जा संगठन बनाया है, जिसमें करीब 90 देश भागीदारी कर रहे हैं। इस तरह भारत कुछ मामलों में धरती का तापमान घटाने के लक्ष्य की दिशा में नेतृत्व की भूमिका भी निभा रहा है। जब हम काम करते हैं तो फिर बोलते समय आत्मविास रहता है और यही मोदी के वक्तव्य में झलकता है।


Date:25-09-19

A New Approach

Awareness campaigns are needed to deal with climate change

Ajay Vir Jakhar , [ The writer is chairman, Bharat Krishak Samaj]

We are delighted that Prime Minister Narendra Modi made an impassioned appeal for the reduction in the use of chemicals in agriculture. Though, in time, the PM will realise it is easier to announce new approaches than to get the agriculture system to embrace the appeal. This does not have to be. Public policy and allocation of funds can play a critical role and change the trajectory. The biggest threat to India is climate change. Many civilisations disappeared and empires have collapsed due to shifting rainfall patterns or prolonged drought.

In the run-up to the climate change summit, these points were raised by the IPCC. Over 100 million hectares in India is in the process of serious degradation, desertification and salinisation. Situated in the tropics, India has witnessed a many-fold increase in extreme weather events since 1950 and will be severely impacted by production variability. Soils are being lost upto 100 times faster than they can form and high temperatures increase the incidence of pests and diseases. These will necessitate using more chemicals on the farm. Without the active participation of stakeholders and aid of indigenous and local knowledge, we cannot address these issues.

These alternative approaches require a paradigm shift towards principles of agroecology and weaning farmers by repurposing subsidies for ecosystem services. This requires a combination of different kinds of crop planting practices, different forms of mechanisation, aggregation and distribution of commodities. It is not easy and the myopic outlook of policymakers discourages them from believing it is feasible. As a society, we are not yet ready to commit to lifestyle trade-offs and more significantly, commoditisation of the food systems will impose stiff barriers in changing the status quo.

The bull run in commodity prices ended by 2013. Since then, food prices have generally remained subdued, instilling a sense of complacency amongst the public and those that influence policy. Consequently, there has been a steady but subtle shift in the narrative from agriculture to food, from yield to sustainability, from productivity to prosperity and from quantity to quality. Policies are being formulated where rather than supporting agriculture production, farmer livelihoods are to be supported by schemes like PM Kisan. Additionally, public funding for research and the subsequent deployment of funds for fundamental research and human resources has reduced in real terms. This is worrying as it comes at a time when scientists are warning of impending challenges in food availability arising from climate change.

Policymakers are blissfully unmindful of their own inadequacies. India’s population will peak in 20 years and wild claims are being made that it will have a problem of 20 per cent surplus production. The recent surge in surpluses are deceiving and too meagre to justify such smug satisfaction. Ironically, decision-makers are simultaneously targeting an increase in food production by 50 per cent by 2050. Sadly, this has become the cornerstone of our national policy and the metric for measuring farmer prosperity. To expect a system that nurtures the problem to transform itself is as ridiculous a notion as “zero budget farming” demonising “organic farming”.

Unrestrained profiteering by agri-businesses is expediting climate change. Starved of funds, the exhausted public research system has taken a similar and easier path to maximise farm yields by monocropping and use of chemicals, encouraging agricultural practices that emit human-induced greenhouse gases. Economists will disagree but farm-gate prices have to rise substantially to account for the real cost of growing food for farmers to change practices and for agriculture to sequester carbon. Present practices extract a heavy environmental footprint, completing a vicious circle that makes agriculture more problematic while agriculture itself also intensifies climate change, compelling yields to be maximised.

As a result, millions of acres of a few cereal crops are planted. This is at variance with conserving biodiversity, which is essential for safeguarding the global commons. Worse, higher yielding seeds are quickly adopted by farmers — now over 80 per cent of most crop production comes from a handful of varieties in each crop type. Additionally, growing ecologically unsuitable crops in particular ecosystems is literally killing the planet. But policymakers are failing to grasp that food systems are breaching a breaking point of unsustainability. Policies on food production are not reflecting the exigency for change.

It’s absolutely essential to invest billions in a decade-long awareness campaign to reduce wastage of food and change consumer behaviour. If not, climate change prophesies will come true.


Date:25-09-19

Climate for action

India’s call for solid steps on climate change must be matched by domestic measures

EDITORIAL

Prime Minister Narendra Modi’s assertive stance on the need for all countries to walk the talk on climate change action is to be welcomed as a signal of India’s own determination to align domestic policy with its international commitments. Mr. Modi’s comments at the UN Climate Action Summit in New York have turned the spotlight on not just the national contributions pledged under the Paris Agreement of the UN Framework Convention on Climate Change (UNFCCC), but also the possibility of India declaring enhanced ambition on cutting greenhouse gas emissions under the pact next year. Several aspects place the country in the unenviable position of having to reconcile conflicting imperatives: along with a declared programme of scaling up electricity from renewable sources to 175 GW by 2022 and even to 450 GW later, there is a parallel emphasis on expanding coal-based generation to meet peaks of demand that cannot be met by solar and wind power. The irony of the Prime Minister telling the international community in Houston that his government had opened up coal mining to 100% foreign direct investment was not lost on climate activists campaigning for a ban on new coal plants and divesting of shares in coal companies. No less challenging is a substantial transition to electric mobility, beginning with commercial and public transport, although it would have multiple benefits, not the least of which is cleaner air and reduced expenditure on oil imports.

Advancing the national climate agenda in the spirit of Mr. Modi’s action-over-words idiom requires the Central government to come up with a strong domestic action plan. The existing internal framework, the National Action Plan on Climate Change (NAPCC) is more than a decade old. It lacks the legal foundation to incorporate the key national commitment under the Paris Agreement: to reduce the emissions intensity of economic growth by a third, by 2030. Without an update to the NAPCC and its mission-mode programmes, and legislation approved by States for new green norms governing buildings, transport, agriculture, water use and so on, it will be impossible to make a case for major climate finance under the UNFCCC. It is equally urgent to arrive at a funding plan for all States to help communities adapt to more frequent climate-linked disasters such as cyclones, floods and droughts. There is, no doubt, wide support for India’s position that it cannot be held responsible for the stock of atmospheric carbon dioxide influencing the climate; even today, per capita emissions remain below the global average. Paradoxically, the country is a victim of climate events on the one hand and a major emitter of GHGs in absolute terms on the other. In New York, Mr. Modi chose to rely on the country’s culture of environmentalism to reassure the international community on its ability to act. In coming years, national actions will have to be demonstrably effective in curbing carbon emissions.