26-08-2022 (Important News Clippings)

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26 Aug 2022
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Date:26-08-22

Tackle The Four Trojan Horses Of Inequality

The pandemic has widened the gap between haves and have-nots, solutions need to be reconfigured

Indu Bhushan, [ The writer is Chairperson of Partnership for Impact (P4i) and ex-CEO of the National Health Authority ]

Persisting and increasing inequalities have been a defining feature of our times. French economist Thomas Piketty in his seminal work Capital in the Twenty-First Centuryhas postulated that inequalities are here to stay as they are hardwired into the system. Returns to capital have been, and continue to be, much greater than those that are possible from labour. The rich have the capital, which keeps multiplying even while they are asleep, while the poor can rely only on their labour, which will never be enough to catch up.

The rich becoming richer

Policymakers should focus on at least four factors that are increasing inequalities. I refer to these as the four “Trojan horses” as they are surreptitiously becoming a daily part of our lives. Without us realising, they further deepen the wedge between the haves and have-nots.

The first Trojan horse is the macroeconomic situation worldwide, which is disproportionately penalising the poor and benefiting the rich. Faced with slowing economies in early 2020, central banks in all the major economies followed highly expansionary monetary policies. A large inflow of capital into the country was welcome as it buttressed our foreign reserves. This also led to asset price inflation, enriching those who had assets to begin with. For example, the Sensex was around 30,000 in mid-March 2020. Even after some correction in recent times, it stands at about 60,000 today, having almost doubled the wealth of those who own equities.

At the same time, as foreign funds begin to pull out, the pandemic disrupts the global supply chain and other global events make crude oil more expensive, we are faced with decade-high levels of inflation, which will disproportionately squeeze consumption by the poor. Addressing inflation without reducing the prospects for growth and employment will be an unenviable task for policymakers.

The growing education chasm

The second critical policy issue or Trojan horse is the edtech revolution in the education sector, which has profound implications for inequalities in access to and quality of education. In addition, the inequalities have been exacerbated by the pandemic, deepening the chasm between children who have been able to continue their schooling over the past two years and those who have not.

While edtech has huge potential to improve access to quality education, it has not helped the poor and people in rural areas. There is emerging evidence that the large proportion of children who dropped out during the pandemic are not likely to go back to school. These inequalities will have a lasting impact on the productive capacity and future earning potential of these children, as they join the labour force in the future.

The vanishing jobs pie

The third Trojan horse is jobs and the increasing inequalities in the labour market. There have been concerns about the numbers and quality of new jobs being generated, with the employment elasticity of growth coming down and the number of so-called gig-economy workers with no job protection or social protection going up. The pandemic has also rein-forced pre-existing inequalities in the labour market. During the lockdown, lower skilled workers, predominantly in the informal sector, suffered heavily. The pandemic also increased the gender-based inequities in income and employment. How to create quality jobs, reduce inequalities in the labour market and increase women’s labour force participation will be a third major policy challenge.

Digital boost but only for the well off

The fourth Trojan horse is something that has led to impressive growth and prosperity in the country – innovations in information and communication technology (ICT). In current times, access to, and the ability to work with, ICT significantly determines one’s ability to acquire skills, jobs and materials for daily needs. But a large number of people on the other side of the digital divide are getting left behind. The pandemic may have further widened these gaps.

Changes in work patterns and innovations to facilitate working remotely have benefited those who are educated and tech-savvy. However, for people relying on manual labour such as guards, messengers and construction workers, working arrangements have not changed at all. Aggressively bridging the digital divide and making ICT work for the poor and disadvantaged, including women, will need considerable effort.

Thus, unless the four Trojan horses of adverse macroeconomic conditions, education deprivation, scarcity of quality jobs and access to technological innovations are directly addressed, inequalities will continue to expand.


Date:26-08-22

बोलने और लिखने की आजादी पर बढ़ते प्रहार

मकरंद परांजपे, ( लेखक, चिंतक, जेएनयू में प्राध्यापक )

लेखक सलमान रूश्दी पर हुए प्राणघातक हमले को वैश्विक-विमर्श का हिस्सा बनाना जरूरी है। यह न केवल अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा से जुड़ा मामला है, बल्कि इसका सम्बंध चरमपंथ और असहिष्णुता से भी है। जब तक दुनिया आस्था के नाम पर की जाने वाली हिंसा के खिलाफ एक नहीं होगी, हम इस तरह के हादसों के साक्षी बनते रहेंगे। यह विडम्बना ही है कि रूश्दी पर हमले की घटना भारत-विभाजन के स्मरण-दिवस की पूर्वसंध्या पर हुई थी। मिडनाइट्स चिल्ड्रन के लेखक पर न्यूयॉर्क में तब चाकुओं से वार किया गया, जब भारत में बंटवारे की त्रासदी के 75 वर्ष पूरे हो रहे थे। रूश्दी स्वयं बंटवारे की संतान हैं। उन्होंने एक ऐसा उपन्यास लिखा है, जिसे कम से कम पश्चिमी समालोचकों और मीडिया ने अंग्रेजों से भारत की स्वाधीनता और फिर 1975 के आपातकाल में उसी स्वाधीनता के पराभव पर श्रेष्ठ कृति माना है। आश्चर्य नहीं कि मिडनाइट्स चिल्ड्रन को न केवल 1981 में बुकर पुरस्कार दिया गया, बल्कि यह इकलौता ऐसा नॉवल है, जिसे एक नहीं, दो-दो बार बुकर ऑफ बुकर्स पुरस्कार से नवाजा गया है, पहले 1993 में बुकर की 25वीं वर्षगांठ पर, और फिर 2008 में उसकी 40वीं सालगिरह पर भी।

पर दुर्भाग्य कि रूश्दी को वैश्विक प्रसिद्धि मिडनाइट्स चिल्ड्रन के बजाय 1988 में लिखी पुस्तक द सैटेनिक वर्सेस के लिए मिली। इस किताब के कारण न केवल उन्हें 1989 में अयातुल्ला खोमैनी के फतवे का शिकार होना पड़ा, बल्कि उन्हें माफी मांगने को भी मजबूर होना पड़ा, वे अज्ञातवास में रहे और बीस से अधिक बार उन्हें अपना घर बदलना पड़ा। हादी मातर नामक एक हमलावर के द्वारा उन पर अनेक बार प्रहार करने के बाद वे गंभीर स्थिति में रहे। जहां स्वतंत्र-विश्व के बड़े हिस्से ने इस हमले की निंदा की, वहीं अनेक ऐसे मुस्लिम संगठन और व्यक्ति भी थे, जिन्होंने हमलावर के समर्थन में आवाज उठाई और उसे बधाई भी दी। ईरान के दक्षिणपंथी अखबार काहयान ने लिखा कि ‘इस बहादुर और अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने वाले शख्स को शाबासी, जिसने न्यूयॉर्क में भ्रष्ट और अपने ही धर्म के साथ विश्वासघात करने वाले सलमान रूश्दी पर हमला किया। हमें उसके हाथों को चूमना चाहिए।’ रूश्दी पर 1989 में दिया फतवा कभी वापस नहीं लिया गया था और वह ईरानी हुकूमत की वेबसाइट पर आज भी मौजूद है। इतना ही नहीं, रूश्दी की हत्या करने वाले को ईनाम की राशि भी 30 लाख डॉलर से बढ़ाकर 60 लाख डॉलर कर दी गई है। ईरान के मजहबी संगठन ही नहीं, बल्कि मीडिया संस्थान भी इस राशि को और बढ़ाने की अपील कर रहे हैं।

पूरी दुनिया में द सैटेनिक वर्सेस के प्रकाशकों से लेकर अनुवादकों तक की हत्याएं की जा चुकी हैं और उस किताब को लेकर हुए दंगों में भारत, पाकिस्तान, तुर्की सहित अन्य देशों में अनेक लोगों की जान जा चुकी है। सनद रहे कि भारत दुनिया का पहला ऐसा देश था, जिसने इस किताब पर पाबंदी लगाई थी। रूश्दी को जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल में आने से भी रोका गया, क्योंकि शहर के इस्लामिक संगठनों ने आयोजकों को धमकाया था कि अगर रूश्दी आए तो उन्हें इसका खामियाजा भुगतना होगा। इस किताब के प्रकाशन के पूरे 34 साल बाद रूश्दी पर हुए हमले ने एक बार फिर उस असहज कर देने वाली सच्चाई को सामने ला दिया है, जिस पर आज भी कोई बात नहीं करना चाहता, या उसे संजीदगी से नहीं लेना चाहता।

दुनिया के अनेक धर्मों-विचारधाराओं ने अतीत में हिंसा का दुरुपयोग किया है और नरसंहारों को अंजाम दिया है। लेकिन कड़वी सच्चाई है कि आज चरमपंथ के नाम पर होने वाली हिंसा हमारी स्वतंत्रताओं के लिए बड़ी चुनौती बन गई है। पूरी दुनिया की सिविल सोसायटी को इसकी अनदेखी नहीं करते हुए इसका सामना करना चाहिए। दुनियाभर की सरकारों को इसे गम्भीरता से लेते हुए आइंदा ऐसी घटनाओं को होने से रोकना चाहिए। और सबसे जरूरी यह कि इस्लामिक धर्मगुरुओं को आगे आकर हिंसा की ऐसी घटनाओं की निंदा करनी चाहिए। हमें ऐसी मानवीय, सहिष्णु और करुणापूर्ण दुनिया बनाने की जरूरत है, जहां अगर कथित रूप से हमारी आस्था का अपमान भी होता हो तो हम उससे आहत न हों। क्योंकि अगर धर्म ही हिंसा को प्रेरित करने लगेंगे या उसे न्यायोचित ठहराएंगे तो दुनिया में शांति, प्रगति और एकता का क्या होगा?


Date:26-08-22

भारत को बदलनी होगी अपनी चीन नीति

डा. अभिषेक श्रीवास्तव, ( लेखक जेएनयू के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं )

पिछले सात दशकों से भारत-चीन संबंध उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं। भारत के तमाम शांति प्रयासों के बावजूद चीन द्वारा भारतीय सीमाओं और हितों पर चोट करना लगातार जारी है। जून 2020 में गलवन घाटी में हुई झड़प ने दोनों देशों के बीच कड़वाहट को और गहरा कर दिया है। चाहे 1962 का युद्ध हो और उसके पश्चात सीमा विवाद के समाधान के प्रयास हों या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के स्थायी सदस्य बनने का, चीन लगातार अड़ियल रुख अपनाए हुए है। चीन हिंद महासागर में ‘स्ट्रिंग आफ पर्ल्स’ नीति के तहत भारत के चारों तरफ अपने सैन्य अड्डे का विस्तार करता रहा है। इसके साथ ही वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध भारत के प्रस्तावों पर भी रोड़ा लगाता रहा है। इससे चीन की नई दिल्ली के प्रति दुर्भावना स्पष्ट रूप से प्रकट होती है।

चीन के अड़ियल रुख के कारण ही द्विपक्षीय स्तर पर लगातार वार्ता के बाद भी भारत-चीन के बीच सीमा विवाद मामले में कोई सफलता प्राप्त नहीं हो रही है। अब यह साफ है कि वह सीमा विवाद सुलझाने का इच्छुक ही नहीं। गलवन में हुई झड़प के बाद 16 दौर की सैन्य वार्ता और अन्य मंचों पर द्विपक्षीय वार्ताओं के बाद भी सीमा पर तनाव की स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है। भारत लगातार कह रहा है कि समग्र द्विपक्षीय संबंधों में प्रगति के लिए सीमा पर शांति एवं स्थिरता पूर्व शर्त है। इसके बाद भी पूर्वी लद्दाख में टकराव वाले सभी स्थानों में चीन अपनी सैन्य उपस्थिति बनाए हुए है। यह स्थिति चीन द्वारा संबंध सुधार के दावों को पूरी तरह खोखला साबित करती है।

चीन द्वारा हिंद महासागर क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय नियमों और छोटे देशों की संप्रभुता का उल्लंघन जारी है। यह क्षेत्रीय अशांति का कारण बन रहा है। हिंद महासागर के अफ्रीकी देश जिबूती में चीन द्वारा 2016 से नौसैनिक अड्डा का निर्माण किया जा रहा है, जिससे स्वेज नहर से आने जाने वाले व्यापारिक जहाजों पर चीन को रणनीतिक बढ़त हासिल हो सकती है। यह हिंद महासागर में भारतीय हितों के विपरीत है। हाल में भारत की आपत्तियों के बावजूद चीन का जासूसी जहाज ‘युआन वांग 5’ श्रीलंका के हंबनटोटा द्वीप पर गया, जबकि श्रीलंका के विदेश मंत्रालय ने आधिकारिक अनुमति भी नहीं दी थी। चीन के जासूसी जहाज का इस क्षेत्र में आना भारत-चीन संबंधों के गिरते ग्राफ को ही दर्शाता है।

अनेक वैश्विक मुद्दों पर भारत-चीन में आम सहमति नहीं है। वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में चीन द्वारा भारत के प्रयासों में बार-बार रोड़ा अटकाया जा रहा है। पिछले दिनों भारत और अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अब्दुल रहमान मक्की को वैश्विक आतंकी घोषित करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन चीन ने मक्की को सूचीबद्ध करने के प्रस्ताव पर ‘तकनीकी रोक’ लगा दी। यही हरकत उसने एक अन्य आतंकी अब्दुल रउफ अजहर के मामले में भी की।

गलवन की घटना के बाद स्थितियां काफी बदल गई हैं। भारत में चीनी विरोध की लहर चल रही है। भारत सरकार द्वारा सैकड़ों चीनी एप को प्रतिबंधित किया गया है। अब भारत को वर्तमान अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपनी चीन नीति का समग्र विश्लेषण करना चाहिए और उसमें बुनियादी बदलाव लाना चाहिए। हाल में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने यह चिंता प्रकट की कि बीजिंग ने भारत-चीन सीमा पर जो किया, उसके बाद दोनों देशों के बीच संबंध ‘बेहद कठिन दौर’ से गुजर रहे हैं। यदि दोनों देश हाथ नहीं मिला सके तो यह क्षेत्र एशिया की सदी बनने से चूक जाएगा।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से वैश्विक राजनीति आजकल अपने सबसे अनिश्चित दौर में है। कुछ विश्लेषक शी चिनफिंग के नेतृत्व वाले चीन की तुलना हिटलर के नेतृत्व वाले जर्मनी से कर रहे हैं। चीन की विस्तारवादी नीतियों ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र को अशांत कर दिया है। चीन द्वारा अपने पड़ोसी देशों के क्षेत्रों पर दावा करना और अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमाओं एवं कानूनों के लगातार उल्लंघन से इस क्षेत्र में अशांति और युद्ध की आशंका प्रबल होती जा रही है। ऐसी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भारत को चीन के प्रति अपनी नीति में कुछ बड़े बदलाव करने की आवश्यकता है।

भारत को व्यापक वैश्विक समर्थन हासिल करना चाहिए, जिससे चीन की वैश्विक पहुंच को संतुलित किया जा सके। भारत को अपने अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा में और सक्रिय होना चाहिए। इसके साथ वैश्विक एवं क्षेत्रीय आपूर्ति चेन को नियमित रखने के प्रयासों पर लगातार ध्यान देना चाहिए, जिससे चीन की व्यापारिक तानाशाही को नियंत्रित किया जा सके। क्षेत्रीय आपूर्ति चेन के लिए नए सिरे से विचार करना चाहिए, जिसमें दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को मिलकर एक आर्थिक गलियारे के निर्माण पर विचार करना चाहिए।

ताइवान मुद्दे पर चीन लगातार विश्व के सभी देशों से ‘वन चाइना पालिसी’ पर समर्थन मांग रहा है। यदि चीन को ‘वन चाइना पालिसी’ की वैधता की चिंता है तो उसे अपने पड़ोसी देशों की संप्रभुता का भी सम्मान करना चाहिए। चीन को भारत की जमीन पर अपनी अनधिकृत उपस्थिति को समाप्त करते हुए भारत की संप्रभुता और हिंद-प्रशांत क्षेत्र को खुला एवं मुक्त रखने में सहयोग करना चाहिए। यह उल्लेखनीय है कि भारत ने 2010 के बाद से अब तक एक बार भी आधिकारिक मंचों से ‘वन चाइना पालिसी’ का जिक्र नहीं किया है। यह चीन के लिए चिंता का कारण बनता जा रहा है। अब समय आ गया है कि भारत यह स्पष्ट करे कि वह इन-इन कारणों से इस नीति का समर्थन नहीं कर सकता। यदि चीन को भारत की संवेदनशीलता की परवाह नहीं तो फिर भारत को भी उसकी संवेदनशीलता की चिंता करना छोड़ देना चाहिए। इसी तरह यदि चीन द्वपक्षीय समझौतों का पालन नहीं कर रहा है तो फिर भारत को भी यह स्पष्ट करना होगा कि वह उन्हें मानने के लिए बाध्य नहीं, क्योंकि ताली एक हाथ से नहीं बज सकती।


Date:26-08-22

नियमन की खुराक

संपादकीय

बुखार में काम आने वाली ओवर द काउंटर (बिना चिकित्सक के पर्चे के दी जा सकने वाली) पैरासिटामॉल दवा बनाने वाली बेंगलूरु की माइक्रो लैब्स पर हाल ही में आयकर विभाग ने छापा मारा। यह दवा कोविड-19 महामारी के दौरान जमकर इस्तेमाल की गई। इस बात ने औष​धि कंपनियों और चिकित्सा से जुड़े पेशेवरों के बीच नैतिक आचरण एवं व्यवहार सुनि​श्चित करने के लिए आचार संहिता की ओर नए सिरे से ध्यान आकृष्ट किया है। कर वंचना के अलावा माइक्रो लैब्स पर यह आरोप भी है कि कंपनी ने कोविड-19 के मरीजों को डोलो 650 दवा लिखने के लिए चिकित्सकों को करीब 1,000 करोड़ रुपये की रा​शि रिश्वत में दी। इसका नतीजा यह हुआ कि कंपनी की दवा अन्य प्रतिस्पर्धी दवाओं की तुलना में अ​धिक बिकी। यह विडंबना ही है कि यह ताजा विवाद देश में ‘अतिशय मार्केटिंग’ गतिवि​धियों पर रोक लगाने के लिए एक संहिता की मौजूदगी के बावजूद उत्पन्न हुआ है। यह संहिता 2015 में बनाई गई थी ताकि कंपनियां चिकित्सकों पर अपना खास ब्रांड लिखने के लिए दबाव न बनाएं। परंतु इस संहिता के स्वै​च्छिक होने के कारण यह प्राय: बेअसर साबित हुई।

सर्वोच्च न्यायालय फिलहाल एक याचिका पर सुनवाई कर रहा है ताकि औष​धि विपणन व्यवहार के ​लिए समान संहिता (यूसीपीएमपी) को सांवि​धिक जरूरत बनाया जा सके। यह निहायत आवश्यक है क्योंकि चिकित्सकों और औष​धि कंपनियों के बीच का गठजोड़ किसी से छिपा नहीं है। अपने सबसे आम और अहानिकारक रूप में इसके जरिये चिकित्सकों को ब्रांडेड स्टेशनरी, कैलेंडर और मेज पर रखने वाली चीजें भेजी जाती हैं ताकि भीड़ भरे बाजार में वे उनके उत्पादों को वरीयता दे सकें। भारत जैसे बाजार में यह बात खासतौर पर महत्त्वपूर्ण है जहां कई जरूरी दवाओं पर मूल्य नियंत्रण लागू है। इस गठजोड़ का ज्यादा गंभीर उदाहरण यह है कि चिकित्सकों को चिकित्सा सेमीनारों के नाम पर मौज मस्ती के लिए ले जाया जाता है या फिर चिकित्सकीय परीक्षणों में प्रमुख जांचकर्ता के रूप में काम करने अथवा शोध पत्रों को आगे बढ़ाने के लिए पैसे दिए जाते हैं।

जानकारी के मुताबिक सांवि​धिक संहिता के अधीन सभी औष​धि कंपनियां चिकित्सकों अथवा उनके संगठनों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुकाई जाने वाली रा​शि का खुलासा करेंगी। यह एक समझदारी भरा सुझाव प्रतीत होता है लेकिन यह प्रश्न बरकरार है कि स्वै​च्छिक संहिता को सांवि​धिक संहिता में बदलने से क्या हालात वाकई बदलेंगे, भले ही भारी भरकम जुर्माना लगा दिया जाए। संहिता को प्रभावी बनाने के लिए कई शर्तें पूरी करनी होती हैं। इस तरह का व्यवहार केवल भारत में नहीं ब​ल्कि दुनिया भर में होता है। परंतु विकसित देशों में कड़े नियमन और मजबूत ​व्हिसलब्लोअर नीति ने यह सुनि​श्चित किया है कि ऐसे घटनाक्रम समय-समय पर उजागर होते रहें। भारत में ​व्हिसलब्लोअर संरक्षण न्याय प्रणाली के कारण अभी भी काफी कमजोर है। परंतु भारतीय प्रशासनिक जगत की एक वि​शिष्ट दिक्कत यूसीपीएमपी को प्रभावित कर सकती है। यह समस्या है न्याय क्षेत्र के अतिक्रमण की।

फिलहाल यूसीपीएमपी का दायरा रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के अधीन आने वाले औष​धि विभाग तथा स्वास्थ्य मंत्रालय के बीच विवाद का विषय है। स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि यूसीपीएमपी को औष​धि, चिकित्सा उपकरण तथा प्रसाधन सामग्री अ​धिनियम के अधीन लाया जाना चाहिए लेकिन औष​धि विभाग इस बड़े और तेजी से विकसित होते उद्योग पर नियंत्रण छोड़ना नहीं चाहता। इस अहम नियामकीय काम पर चाहे जिस संस्थान को नियंत्रण मिले, उसे इतनी संस्थागत क्षमता रखनी होगी कि 3,000 से अ​धिक कंपनियों और 10,500 से अ​धिक विनिर्माण इकाइयों वाले इस विशालकाय उद्योग में गड़बड़ियों पर नजर रख सके। इस संदर्भ में देखा जाए तो नकली दवाओं के प्रसार को रोकने में अक्षमता यूसीपीएमपी के प्रवर्तन को लेकर बहुत भरोसा नहीं पैदा करती।


Date:26-08-22

भ्रष्टाचार का दीमक

आचार्य पवन त्रिपाठी

बुधवार को देश भर में जब 100 से अधिक स्थानों पर प्रवर्तन निदेशालय‚ सीबीआई और आयकर विभाग जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों ने एक साथ छापेमारी शुरू की‚ तो एक बार फिर यह शोर मचने लगा कि सरकार इन एजेंसियों को हथियार बनाकर अपने राजनीतिक विरोधियों को परेशान करना चाहती है।

संयोग से उसी दिन बिहार विधानसभा में जद (यू) और राजद सहित कई दलों की महागठबंधन सरकार को अपना विश्वास मत भी हासिल करना था। इसलिए इन दोनों दलों के नेताओं ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि भाजपा हम पर दबाव बनाने के लिए इस प्रकार के छापों की कार्रवाई कर रही है ताकि हमलोग डर कर उसके साथ आ जाएं‚ लेकिन केंद्रीय एजेंसियों के निशाने पर बुधवार को न सिर्फ बिहार और दिल्ली में लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद के नेताओं के ठिकाने रहे‚ बल्कि इन एजेंसियों ने झारखंड‚ पंजाब‚ बंगाल‚ हरियाणा और तमिलनाडु में भी कार्रवाई की। इनके छापों में अवैध खनन से लेकर अन्य भ्रष्टाचार जुड़े तमाम तरह के आरोपी रहे हैं। झारखंड में तो इन एजेंसियों को जांच के दौरान दो एके 47 राइफलें भी मिलीं। ये राइफल झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के करीबी माने जाने वाले प्रेम प्रकाश के घर से बरामद हुईं। ईडी ने यह कार्रवाई झारखंड के खनन घोटाले के सिलसिले में की थी। इस घोटाले के तार सीधे मुख्यमंत्री सोरेन से भी जुड़ते दिखाई दे रहे हैं। हालांकि अब लीपापोती करने के लिए झारखंड पुलिस ने इन राइफलों पर अपना दावा ठोक दिया है।

उसका कहना है कि उसके दो सिपाहियों ने बारिश से बचाने के लिए इन राइफलों को प्रेम प्रकाश के घर में रख दिया था‚ लेकिन सवाल उठ रहा है कि प्रेम प्रकाश के घर से सिर्फ 50 मीटर दूर पुलिस थाना होने के बावजूद ये राइफलें सिपाहियों ने थाने के मालखाने में जमा करने के बजाय प्रेम प्रकाश के घर क्यों रखींॽ प्रेम प्रकाश के घर में इन राइफलों का मिलना राजनीति में भ्रष्टाचार एवं अपराध के गठजोड़ की ओर ही संकेत करता है। भ्रष्टाचार की ही कहानी सीबीआई द्वारा बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव एवं राजद के अन्य नेताओं के ठिकानों पर मारे गए छापों में सामने आ रही है। वास्तव में सीबीआई की कार्रवाई लालू प्रसाद यादव के कार्यकाल में हुए जमीन के बदले नौकरी घोटाले पर केंद्रित रही है। इस मामले में बिहार में विभिन्न स्थानों के साथ–साथ गुरु ग्राम के एक निर्माणाधीन मॉल पर मारे गए छापों में मिले 200 से ज्यादा सेल डीड प्राप्त हुए हैं। आरोप है कि इस निर्माणाधीन मॉल में तेजस्वी यादव एवं उनके करीबियों का निवेश है। अब तक इस प्रकार के कई मामले सामने आ चुके हैं कि लालू यादव ने अपने कार्यकाल में मंत्री बनाने के लिए या नौकरियां देने के बदले लोगों की जमीनें अपने परिवार या करीबियों के नाम लिखवाईं। सहज ही कल्पना की जा सकती है कि बिहार के वर्तमान उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव खुद के मुख्यमंत्री बनने पर बिहार के युवकों को जो 10 लाख नौकरियां देने की बात कर रहे हैं‚ यदि उनका यह स्वप्न पूरा हो सका‚ तो यह घोटाला किस स्तर तक जाएगा।

बात सिर्फ लालू प्रसाद यादव या हेमंत सोरेन के परिवार की नहीं है। कुछ ही दिनों पहले पश्चिम बंगाल के कद् दावर नेता और कैबिनेट मंत्री पार्थ चटर्जी की एक महिला मित्र के घर से नोटों के पहाड़ और बेहिसाब सोने–चांदी की बरामदगी हुई है। दिल्ली में उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया पर शराब ठेकों की नीलामी में चुनिंदा शराब कारोबारियों को लाभ पहुंचाने के आरोप लग रहे हैं। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इन दिनों खुद सिसोदिया के जल्दी ही जेल जाने की आशंका जताते दिख रहे हैं। दिल्ली सरकार के एक मंत्री पहले भी जेल जा चुके हैं। महाराष्ट्र में एक साल पहले ही तत्कालीन महाविकास आघाड़ी सरकार के गृहमंत्री खुद एक एपीआई के जरिए हर महीने 100 करोड़ रुपयों की वसूली करवाने के आरोप में सलाखों के पीछे हैं। आघाड़ी सरकार के ही दूसरे मंत्री एक भगोड़े माफिया सरगना के परिजनों के साथ जमीन की सौदेबाजी में जेल की हवा खा रहे हैं।

अभी कुछ दिनों पहले ही शिवसेना के एक और वरिष्ठ नेता संजय राउत भी एक भूखंड घोटाले में ही प्रवर्तन निदेशालय द्वारा गिरफ्तार किए जा चुके हैं। उन्हें जिस पत्रा चाल मामले में आरोपी बनाया गया है‚ उसमें 600 से ज्यादा लोगों की झोपडि़यां यह कहकर ले ली गई थीं कि उन्हें कुछ ही वर्षों में बढ़िया फ्लैट दिए जाएंगे। लोगों को न तो फ्लैट मिले‚ न वायदे के अनुसार किराया ही दिया गया।

अब ये सारे लोग अपनी किस्मत को रो रहे हैं। दरअसल‚ इन सभी घोटालों में कहीं तो मुंबई की पत्रा चाल के निवासियों की तरह आम जनता का प्रत्यक्ष नुकसान नजर आता है‚ कहीं बंगाल के पार्थ चटर्जी मामले में जनता का परोक्ष नुकसान हुआ होगा‚ लेकिन भ्रष्टाचार की इस चक्की में पिस तो आम जनता ही रही है। भ्रष्टाचार की इसी चक्की से बचाने के लिए ही इस बार स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लाल किले से अपने संबोधन में भ्रष्टाचार पर प्रहार करने का आह्वान किया है। इस आह्वान के 10 दिन बीतते–बीतते ही केंद्रीय एजेंसियों ने अपनी कार्रवाई भी शुरू कर दी है।

जब ये एजेंसियां कार्रवाई करती हैं तो राजनीतिक दल शोर मचाते हैं कि ये कार्रवाइयां बदले की भावना के तहत हो रही हैं। जिस मामले से नागरिकों का जो वर्ग सीधा नुकसान नहीं उठा रहा होता है‚ उसे भी इन छापों में राजनीति ही नजर आती है‚ लेकिन हम सबको यह समझना चाहिए कि नेताओं या भ्रष्ट अधिकारियों के घरों में मिलने वाले नोटों के पहाड़ प्रत्यक्ष या परोक्ष‚ हम लोगों की ही जेब से निकलने वाले धन से खड़े किए जाते हैं। इसलिए ऐसे छापे भी लगातार पड़ने चाहिए‚ और अदालतों को ऐसे मामलों में फैसले भी त्वरित गति से सुनाने चाहिए। ताकि नेताओं और अधिकारियों को कड़ा संदेश दिया जा सके।


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