26-06-2025 (Important News Clippings)

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26 Jun 2025
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Date: 26-06-25

Qualified cheer

Shukla’s paid flight to ISS will provide insight on human space flight

Editorials

At noon on June 25 (IST), India’s Shubhanshu Shukla lifted off with three other astronauts from NASA’s Florida spaceport to the International Space Station (ISS) as part of the Axiom-4 commercial mission. This is the first time an Indian has gone to orbital space since Rakesh Sharma in 1984. If the Dragon crew capsule docks successfully with the ISS on June 26, Mr. Shukla will also become the first Indian onboard the ISS. Over the next two weeks, he and the ISS crew will perform a suite of experiments carried by the Axiom-4 mission, including eight from the Indian Space Research Organisation (ISRO). Mr. Shukla is among the leading candidates to fly in India’s maiden human space flight mission, Gaganyaan, currently slated for 2027. For now, the Department of Space has not articulated the reasons for spending *548 crore to buy Mr. Shukla’s seat on Axiom-4. Against the backdrop of the *20,200-crore budget for Gaganyaan, Mr. Shukla’s paid flight to the ISS, packaged along with advanced training for him and backup crewmate Prasanth Nair, will give India considerable insight into human space flight and how it is coordinated ahead of mounting its own astronaut expedi- tions, regardless of the money spent. However, this does not spare the Department of Space and ISRO from communicating the rationale and extent of these benefits, which has yet to happen.

Space flight has changed considerably between Mr. Sharma’s and Mr. Shukla’s flights: the stakes today are multidimensional and more demanding. Axiom is a private entity contracted with NASA and SpaceX, and which sells seats to commercial missions to the ISS. But uncertainties linger over NASA’s future access to the Dragon crew capsules following Elon Musk’s spat with U.S. President Donald Trump. The effects of Mr. Trump’s tariffs and his willingness to honour predecessor Joe Biden’s commitments to India, given the major budget cuts he has proposed for 2026, are also unclear. And the ISS is set to be decommissioned by 2030. In this world, the future of India’s own space programme is caught between multiple futures. NASA and private U.S. companies, including Blue Origin, have said they would like to use Gaganyaan technologies in future missions as part of strengthening U.S.-India ties in the space sector. But even as the country balances commercial with public sector needs, it needs to remain a relevant provider of space flight services. The Indian government has signalled that it is willing to take positive steps to bolster the private sector but which, thus far, have been inadequate. Thus, once Mr. Shukla returns, ISRO’s to-do list will move to the next big challenge even as public expectations of it, including transparent communication, will soar.


Date: 26-06-25

Cause and effect

Governments must uphold human rights in citizenship cases

Editorials

Concerns surrounding citizenship faced by sections of society in India’s border States have come to the fore again with courts stepping in to provide temporary relief to harassed individuals. The issues arising from these cases are far from settled. On June 24, the Supreme Court of India stayed the deportation of Jaynab Bibi who was labelled a “foreigner”, first by the Foreigners’ Tribunal in Assam, and then by the Gauhati High Court. Despite hailing from a family whose members have lived in Assam for generations, and furnishing all documents, she has had to run from pillar to post to prove that she is an Indian citizen. A Bench of Justices K.V. Viswanathan and N. Kotiswar Singh ordered the Union government not to take any coercive steps against Ms. Bibi, till the next hearing in August. In the case of Rakshanda Rashid, the High Court of Jammu and Kashmir and Ladakh ordered the Union Home Secretary to repatriate the 63-year-old housewife to India. She was deported to Pakistan following the crackdown against Pakistani nationals after the Pahalgam terror attack in April. Ms. Rashid, a Pakistani national, had been stay- ing in Jammu for the past 38 years with her hus- band and two children, and had a long-term visa. Her application for citizenship in 1996 is yet to be processed.

In his order, High Court judge Rahul Bharti said human rights are the most sacrosanct component of a human life and that there are times when a court has to respond “SOS like” without going into the merits and demerits of a case, which can be decided on in due course of time. The lawyers for Ms. Bibi referred to Md. Rahim Ali @Abdur Rahim vs The State Of Assam in 2024 in which the Supreme Court touched on the manner in which people in Assam were being randomly suspected as foreigners without any cogent evidence. “…[I]t is well settled that suspicion, however high it may be, can under no circumstances, be held to be a substitute for legal evidence,” it said, laying down the due process to be followed when an individual is declared a foreigner. The Citizenship (Amendment) Act of 2019, by offering citizenship to six non-Muslim communities in Afghanistan, Pakistan and Bangladesh, adopted a narrow and arbitrary view of “religious persecution”. The innate violence in the rhetoric of senior Bharatiya Janata Party Chief Ministers such as Yogi Adityanath and Himanta Biswa Sarma against minorities has heightened the anxiety felt by the marginalised, poor, sometimes undocumented, communities. Govern- ments must uphold human rights and dignity of the individual, as provided for under the United Nations Universal Declaration of Human Rights, and not have to be nudged by courts.


Date: 26-06-25

अमेरिका का रवैया हमारे हितों के अनुकूल नहीं है

संपादकीय

अमेरिका का जैसे को तैसा टैरिफ 15 दिन बाद लागू होगा, लेकिन पहले ही भारत-अमेरिका ट्रेड डील खतरे में पड़ गई है। अमेरिकी वार्ताकार की जिद है कि भारत के साथ पूर्ण ट्रेड डील की पूर्व शर्त है अपने यहां घटी ड्यूटी दरों पर अमेरिकी मक्का और सोया की खरीद, लेकिन इसके लिए अमेरिका वह भी प्रमाणित करने को तैयार नहीं है कि ये खाद्यान्न जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) नहीं होंगे। भारत में ऐसे जीएम उत्पादों पर बैन है। दूसरे, इस आयात से भारतीय किसान संकट में आ जाएगा, जो सरकार कतई नहीं चाहेगी। भारत से स्टील और एल्युमिनियम के निर्यात पर पहले ही टैरिफ बढ़ा दिया गया है, जिससे तमाम उद्योग प्रभावित हो रहे हैं। इस वार्ता में एक और अड़चन है यह अमेरिकी शर्त कि ऑटोमोबाइल और उसके पार्ट्स का भारत सस्ते ड्यूटी रेट्स पर आयात करे। इसका सीधा मतलब होगा कि भारत के ऑटो उद्योग ध्वस्त हो जाएंगे, जिससे बेरोजगारी और बढ़ेगी। अमेरिकी वैवा कहीं से भी एक विकासशील देश के हितों को ध्यान में रखने वाला नहीं है। मजबूरी यह है अमेरिका अब तक भारत का सबसे बड़ा खरीदार रहा है। भू-राजनीतिक कारण भी है। ट्रम्प के भारत-पाक युद्ध बंद करवाने को दावों को लगातार और सख्त लहजे में नई दिल्ली ने खारिज किया है। साथ ही प्रधानमंत्री ने जी/ बैठक के बाद लौटते हुए अमेरिका आने के ट्रम्प का निमंत्रण को ठुकरा दिया। तब पाकिस्तानी सेना चीफ भी अमेरिका में ट्रम्प को नोबेल देने की वकालत कर रहे थे। अगले कुछ दिन भारत के लिए अहम होंगे।


Date: 26-06-25

मध्य-पूर्व के इस युद्ध ने कई सारी चीजों से परदा हटाया है

अभय कुमार दुबे, ( आबेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर )

क्या मध्य-पूर्व में बारह दिन तक मिसाइलों और बमों से लड़े गए युद्ध में असली झगड़ा केवल 408 किलोग्राम यूरेनियम का था? हम जानते हैं कि 1984 से लगातार कोशिश करते-करते ईरान इस यूरेनियम को केवल 60 फीसदी तक ही परिष्कृत कर पाया था। एटम बम बनाने के लिए यह आंकड़ा 90 फीसदी तक पहुंचना जरूरी है। इसीलिए अमेरिका की इंटेलिजेंस चीफ तुलसी गबाई ने ट्रम्प की डांट खाकर बयान बदलने से पहले स्वीकार कर लिया था कि ईरान बम बनाने से काफी दूर है। खास बात यह है कि अभी कुछ दिन पहले तक ट्रम्प का घोषित मकसद ईरानी यूरेनियम के एनरिचमेंट की सीमा तय करने का था। इसके लिए उनके और ईरान के बीच पांच दौर की बातचीत हो चुकी थी। बस एक दौर और होना था जिसके बाद एटमी सौंध हो जाती। लेकिन, तब अचानक इजराइल ने ईरान पर हमला क्यों कर दिया? और इस हमले के बाद ट्रम्प ने अचानक एनरिचमेंट की सीमा आरोपित करने का लक्ष्य बदलकर ईरान के पूरे परमाणु कार्यक्रम को तबाह करने का इरादा क्यों बना लिया? अमेरिका पर निर्भर इजराइल उससे बिना पूछे यह कदम उठाने की जुर्रत तो नहीं ही कर सकता था।

एक और जरूरी सवाल है। अमेरिका के बी-2 बमवर्षक विमानों ने ईरान के तीन एटमी संयंत्रों पर 14 जीबीयू-57 नामक बंकरतोड़क बम बरसाए। उसके पास ऐसे केवल 20 बम थे। अब बचे कुल छह क्या अमेरिका के पास इस तरह की कोई गारंटी थी कि बाकी छह बम और डालने के बाद ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह से खत्म हो जाएगा? विशेषज्ञों में इस बात पर मतैक्य है कि अमेरिकी बमबारी में केवल संयंत्रों को नुकसान हुआ है, जिसकी भरपाई तीन-चार साल में हो सकती है। सैटेलाइट की तस्वीरें बताती है कि एनरिच्ड यूरेनियम तो ईरान ने ट्रकों में भरकर पहले ही हटा लिया था। क्या अमेरिका की सीमाओं को ईरान के सिर्फ एक हमले (कतर के फौजी अड्डे पर) ने उजागर नहीं कर दिया है? इन सभी सवालों का एक संभव जवाब इस युद्ध के शुरू और बंद होने की अंतर्कथा में छिपा है।

इसके मर्म में इजराइल, ईरान और मध्य-पूर्व के देशों के सत्ताधारियों पर हावी राजनीतिक असुरक्षा की भावना है। इसने ट्रम्प के मन की बेचैनियों के साथ जुड़कर हाहाकारी अंदेशों वाले युद्ध को जन्म दिया। युद्ध से पहले इजराइल के नेतन्याहू भ्रष्टाचार के इलजामों और बढ़ती अलोकप्रियता से जूझ रहे थे। सत्ता में टिके रहने के लिए उन्होंने दो कट्टरपंथी पार्टियों का सहारा लिया, जिनके नेताओं ने उन्हें फिलिस्तीनी समस्या के राजनीतिक हल का विकल्प अपनाने नहीं दिया। नेतन्याहू जानते हैं कि अगर सत्ता गई तो उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल जाना पड़ेगा।

ईरान के धार्मिक और राजनीतिक नेता अयातुल्ला अली खामेनेई की सरकार भी अरसे से अलोकप्रियता का सामना कर रही थी। अपनी गिरती साख बचाने के लिए उन्हें भी युद्ध की आवश्यकता थी। उनके सत्ता से हटने का मतलब था 55 साल पुरानी इस्लामिक क्रांति का खात्मा। वे इतिहास में ऐसे अयातुल्ला की तरह नहीं दर्ज होना चाहते थे, जिसने इस्लामिक रिपब्लिक के सपने को नष्ट कर दिया हो। इसलिए उन्होंने खुदकुशी की हद तक जाने का फैसला कर लिया।

कुवैत, बहरीन, कतर, यूईए, सऊदी अरब जैसे देशों के शासक अमेरिकी पिहू होने के साथ-साथ पूरी तरह से तेल पर निर्भर निरंकुश तंत्रों का संचालन कर रहे हैं। जैसे ही ईरान ने कतर और इराक के फौजी अड्डों पर मिसाइल बरसाए, उनके हाथ-पैर फूल गए। उनके पास इस तरह के युद्ध में भाग लेने की सैन्य क्षमता नहीं है। उन्होंने अमेरिका पर दबाव डाला कि युद्ध खत्म होना उनके लिए जरूरी है। मध्य-पूर्व के इस युद्ध ने सबकी पोलें खोल दी हैं। सबसे ज्यादा तो उसने स्वयं युद्ध की नीति की ही पोल खोल दी है कि उसके पीछे छुपकर राजनीतिक अक्षमता के परिणामों से नहीं बचा जा सकता।


Date: 26-06-25

गरीबी घट रही है तो रोजगार के आंकड़ों में दिखनी चाहिए

डॉ. अरुणा शर्मा, ( इस्पात मंत्रालय की पूर्व सचिव )

दुनिया में किसी देश की पोजिशन उसकी ताकत से ही तय होती है। बेशक, भारत दुनिया में पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। 6.2% की वृद्धि दर और 4.19 ट्रिलियन डॉलर के मौजूदा आकार के साथ हमारी अर्थव्यवस्था अगले दशक में तीसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी बनने की ओर अग्रसर है। लेकिन जब हम वास्तविक तौर पर जीडीपी (187.95 लाख करोड़) की गणना करते हैं तो पाते हैं इसमें बड़ा योगदान हमारी आबादी का है। वह मैन्युफैक्चरिंग, रिसर्च और प्रति व्यक्ति आय के मामले में आगे बढ़ती नहीं दिखती। इसके लिए हमें विभिन्न क्षेत्रों में खर्च को बढ़ाना होगा। 6.2% की वृद्धि दर से ऐसा कर पाना संभव नहीं। यह दो अंकों में होनी चाहिए, जैसे चीन ने अपने जनसांख्यिकी विकास के वर्षों में 10 प्रतिशत की दर से विकास किया था।

हमें प्रति व्यक्ति जीडीपी को बढ़ाने के लिए अभी बहुत अधिक प्रयास करने होंगे, क्योंकि यह अभी नाइजीरिया से भी कम है। हमारी अर्थव्यवस्था में आज भी सबसे बड़ा योगदान कृषि क्षेत्र का है। एमएसएमई का योगदान 13 से 17 प्रतिशत के बीच बना हुआ है, जबकि लक्ष्य 25 प्रतिशत का था समावेशी अर्थव्यवस्था के लिए वह 50 प्रतिशत होना चाहिए। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में उतार-चढ़ाव हैं। स्टॉक मार्केट में ज्यादातर एफडीआई पूंजीगत निवेश के बजाय बढ़ते बाजार का लाभ उठाने के लिए दिख रहा है। निजी क्षेत्र का पूंजीगत निवेश भी नीचे गिर रहा है।

वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत को आज भी एक उपभोक्ता के तौर पर देखा जाता है। मोबाइल निर्माण में हमारी सफलता भी सिर्फ असेंबलिंग तक सीमित है। कृषि उत्पादन भी अंतरराष्ट्रीय मानकों की तुलना में एक तिहाई है। मांग अब भी कोविड से पहले के स्तर पर नहीं पहुंच पाई है। इधर, विश्व में पैदा हो रही प्रतिकूल परिस्थितियां भी हमारे समावेशी विकास में बाधा डालेंगी। देश में गरीबी कम होने का दावा तो किया जा रहा है। लेकिन इसमें नीति आयोग ने निर्धारित राशि के स्थान पर बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) को आधार बनाया है, जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर जैसे फैक्टर्स शामिल हैं। इसकी गणना भी प्रभाव का वास्तविक आकलन करने के बजाय सरकारी योजनाओं के आधार पर की जाती है। स्थिर और गिरते वेतन, घरों और खेतों में काम कर रही महिलाओं को डेटा में शामिल करने से आंकड़े तो बढ़ जाएंगे, लेकिन इससे अतिरिक्त नौकरियां नहीं पैदा होंगी। देश में 65% युवा 8% की बेरोजगारी दर झेल रहे हैं और बाजार में उपलब्ध रोजगार तथा कौशल के बीच बिल्कुल तालमेल नहीं है।

हमें युवा आबादी होने का जो लाभ हासिल था, वह एआई और ऑटोमेशन के दौर में घट रहा है। ऐसे में युवाओं में ऑटोमेशन के लिए स्किल्स विकसित करना बहुत जरूरी है। नीति निर्माण में लेटलतीफी के चलते इनोवेशन हतोत्साहित हो रहे हैं। यदि गरीबी घट रही है तो वह रोजगार के आंकड़ों में दिखनी चाहिए, लेकिन ऐसा है नहीं। शोध के क्षेत्र में बेहतर संभावनाओं वाले और प्रशिक्षित इंजीनियरों के बावजूद भारत में इनोवेशन को मुक्त हस्त से प्रोत्साहित नहीं किया जाता।

व्यापार में हम पिछड़े हैं और हमारा उपभोग बुनियादी चीजों में भी आयात पर निर्भर होता जा रहा है। यह सब हमें कंस्ट्रक्शन, कपड़ा, भवन निर्माण सामग्री, मदर बोर्ड आदि में बेहतर मैन्युफैक्चरिंग से वंचित कर रहा है। हमारे पास डिजिटल सेवी ऑडियंस है, फिन टेक क्षेत्र में हमारे सुधार शानदार हैं, बड़ी संख्या में इंटरनेट यूजर्स हैं। इनके दम पर हम महज एक उपभोक्ता बनने के बजाय बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। लेकिन इस सब के लिए मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देना होगा। हमें टिकाऊ रोजगार और स्थिर नीतियां बनानी होंगी, इसी से पूंजीगत निवेश बढ़ेगा। नहीं तो हम अपनी आवाज बुलंद करने के बजाय दुनिया के आदेशों से ही चलते रहेंगे।


Date: 26-06-25

हमें अपने खेती करने के तरीकों में अब बदलाव लाना होगा

डॉ. राजीव कुमार, ( नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष और पहले इंडिया फाउंडेशन के चेयरमैन )

डॉ. हरपिंदर, ( फेडरेशन यूनिवर्सिटी ऑस्ट्रेलिया के संधू हैं)

सघन कृषि के समर्थकों का मत है कि भारत की मौजूदा कृषि प्रणाली समय के साथ उत्पादन में बढ़ोतरी कर देश की खाद्य सुरक्षा में सहायक बनी रहेगी। हालांकि, कृषि संबंधी डेटा इस विचार का समर्थन नहीं करते हैं। कई साक्ष्य बताते हैं कि देश में मिट्टी के उपजाऊपन, भूजल संसाधन और उर्वरकों की क्षमता बिगड़ती जा रही है। रुझान बताते हैं कि अगले दशक में गेहूं, चावल जैसे खाद्यान्न का उत्पादन गिरेगा। वहीं खाद्यान्न की मांग हर साल 2 से 3 प्रतिशत बढ़ती जा रही है। वैज्ञानिक तौर पर इस बात का कोई सबूत नहीं कि मौजूदा सघन कृषि प्रणाली देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर पाएगी।

हमें सघन कृषि प्रणाली (ऐसी पद्धति, जिसमें कम भूमि से अधिक उपज प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है) के बजाय ऐसा तंत्र विकसित करना होगा, जो ज्यादा स्थायी और भरोसेमंद हो। यह साबित हो चुका है कि प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग वाली वैकल्पिक कृषि प्रणालियों से कैसे किसानों की आय और उत्पादन को दोगुना किया जा सकता है।

ऐसी प्रणालियों को आम तौर पर प्राकृतिक या री-जनरेटिव खेती कहा जाता है। भारत में कुल किसानों का महज 5 प्रतिशत यानी सिर्फ 20 से 30 किसान ही ऐसी खेती करते हैं। लेकिन ये सब लघु और सीमांत किसान हैं, जो बाजार नहीं, जीवनयापन के लिए फसल उगाते हैं। बाजार के लिए उत्पादन करने वाले किसानों को प्राकृतिक खेती के प्रति आकर्षित करने के लिए हमें तथ्य जुटाने होंगे।

प्राकृतिक कृषि प्रणाली से किसान व उपभोक्ता की बेहतर सेहत पर्यावरण स्थायित्व और सामाजिक समावेश जैसे लाभ हैं। आज आवश्यकता है कि हम इसकी व्यावहारिकता और गुणों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा शुरू करें। वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर बनाया गया जनमानस भारतीय कृषि में बदलाव के लिए उत्पादक, उपभोक्ता और समाज के बीच सहमति बनाने में सहायक होगा। इसके लिए देश में दोनों प्रकार की कृषि प्रणालियों को लेकर अध्ययन कराया जाना चाहिए, जो उत्पादकता, कृषक आय मृदा स्वास्थ्य, जैव विविधता, पोषकता समेत विभिन्न सामाजिक व स्वास्थ्य सूचकांकों को लेकर मजबूत वैज्ञानिक साक्ष्य दे पाए।

प्राकृतिक खेती के जरिए आज किसानों को बिजली, पानी और उर्वरकों के लिए दी जा रही वित्तीय रियायतों का वजन भी कम होगा। इस बचत से सघन से प्राकृतिक की ओर बढ़ रही कृषि प्रणाली को सहायता देने के लिए आवश्यक संसाधन जुटाए जा सकते हैं।

किसी भी कृषि प्रणाली को उत्पादकता, आय, पोषकता और विविधता के संदर्भ में जरूर देखा जाना चाहिए। आंध्र प्रदेश में समुदाय प्रबंधित प्राकृतिक खेती (सीएनएफ) की ऐसी ही प्रणाली का मूल्यांकन किया रहा है। एक ताजा रिपोर्ट में बताया गया कि इस प्रणाली के जरिए चावल, मक्का, मूंगफली, रागी जैसी प्रमुख उपजों में 7.8 से 25.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। इससे किसान की लागत कम हुई और उनकी सकल आय में भी 283 प्रतिशत की महत्वपूर्ण वृद्धि देखी गई। हालांकि, ये साक्ष्य उत्साहजनक हैं, लेकिन सीमित भूभाग के लिए हैं।

अन्य लाभों के अलावा प्राकृतिक खेती में कार्बन अवशोषण और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने की क्षमता भी औद्योगिक खेती की तुलना में अधिक है। अगर इस खेती के सभी लाभों को देखें तो यह देश में कार्बन उत्सर्जन रहित ‘नेट जीरो एग्रीकल्चर के साथ भारतीय किसान के लिए बेहतरीन स्थिति हो सकती है।

प्राकृतिक खेती को लेकर देश में बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक अध्ययन के जरिए भरोसेमंद तथ्य जुटाए जाएं के तो किसानों की चिंताओं को दूर किया जा सकता है। कृषि शिक्षा और शोध की शीर्ष निकाय भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद को भी इसमें भूमिका निभानी चाहिए।

यदि प्राकृतिक और री-जनरेटिव खेती में निवेश किया जाए तो यह मौजूदा सघन कृषि प्रणाली का विकल्प हो सकती है। इस खेती को प्रोत्साहन देने से देश में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होगी और यह 2070 तक हमारे ‘नेट जीरों के संकल्प को भी पूरा करने में सहायक होगी।


Date: 26-06-25

महान नेतृत्व की क्या हो असली पहचान

अजय शाह, ( लेखक एक्सडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं )

हममें से अधिकांश लोग सरकारों को लेकर एक हल्के संशय के शिकार रहते हैं। हम सत्ता प्रतिष्ठान से उम्मीद करते हैं कि वह गर्व और राष्ट्रवाद के मिश्रण के साथ काम करेगा। ऐसे में यकीनन हम सोचते हैं कि ईरान की सरकार जवाबी कार्रवाई करेगी और वह इजरायल की सैन्य शक्ति का मुकाबला करने का प्रयास करेगी। वह परमाणु हथियार बनाने के प्रयत्न भी जारी रखेगी।

ऐसा करके हम सत्ता प्रतिष्ठान के हितों की पुष्टि कर देते हैं किंतु जनता के हितों का मामला रह जाता है। राजनीति विज्ञान और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की एक अनिवार्य अंतर्दृष्टि यह है कि मुख्य पक्ष और प्रतिनिधि के बीच विशिष्ट अंतर होता है। यानी जनता के हितों और सत्ता के हितों में अंतर होता है। खामेनेई की सत्ता जिस प्रकार गर्व और राष्ट्रवाद की तलाश में है उसने ईरान के लोगों के लिए तबाही के हालात बना दिए हैं। ईरान के लिए सही रणनीति यह है कि वह अगले 50 सालों तक एक सामान्य देश बन जाए। वह जनता के विरुद्ध राज्य की हिंसा से दूरी बना ले, समाज और अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए काम करे, एक सामान्य देश बनने की कोशिश करे और दुनिया के अन्य देशों के साथ सहज रिश्ते कायम करे। इससे उसे एक महान देश के रूप में उभरने में मदद मिलेगी जो जनता के हित में होगा। महान नेता वे होते हैं जो अपनी छवि सरकार की स्थिरता, विचारधारा आदि के संकीर्ण विचारों से ऊपर निकलकर ऐसे काम करें जो जनता के हित में हों। इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं।

कांग्रेस नेतृत्व के लिए यह आसान होता कि वह 1947 में ब्रिटिशों के प्रति शत्रुता का व्यवहार रखती। उस समय अधिकांश औपनिवेशिक देशों का स्वतंत्रता के बाद यही रुख था । परंतु समझदारी दिखाते हुए कांग्रेस नेतृत्व ने ब्रिटिशों के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्ते कायम रखे और हिंसा का इस्तेमाल नहीं होने दिया। यहां नाराज जनता के गुस्से को संतुष्ट करने के बजाय भारत के निर्माण को तवज्जो दी गई जो उदारता का प्रतीक था ।

चार्ल्स द गाल फ्रांस में 1958 में इस वादे के साथ सत्ता में आए कि अल्जीरिया को फ्रांसीसी उपनिवेश बना रहने दिया जाएगा। परंतु उन्हें यह समझ में आ गया कि यह फ्रांस के लिए नुकसानदेह है। उन्होंने 1962 में अल्जीरिया की आजादी को स्वीकार कर लिया हालांकि व्यक्तिगत रूप से उन्हें इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। यह भी नाराज जनता को खुश करने के बजाय फ्रांस के निर्माण के उद्दात्त भाव का उदाहरण था ।

एफ डब्ल्यू डी क्लार्क को दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी नीति विरासत में मिली थी। वह चाहते तो क्रोध की राजनीति और दुनिया को नकारने की राजनीति जारी रख सकते थे। परंतु उन्हें इस बात का अंदाजा हो गया था कि यथास्थिति उनके देश की जनता के लिए कितनी मुश्किलें ला रही थी। उन्होंने 1990 में नेल्सन मंडेला को जेल से रिहा कर दिया और 1994 में लोकतांत्रिक परिवर्तन होने दिया तथा प्रभावी ढंग से स्वयं को तथा अपनी पार्टी को सत्ता से बाहर जाने दिया ।

यह भी अपने जनाधार को खुश करने के बजाय दक्षिण अफ्रीका के निर्माण का उदात्त भाव था। मिखाइल गोर्बाचेव भी ऐसे ही एक नायक हैं जिन्होंने रूस के सामान्य देश बनने की संभावनाएं तैयार कीं जबकि वह चाहते तो पश्चिम की बराबरी की होड़ करते हुए सत्ता में बने रहते । अनवर सादात ने भी 1977 में इजरायल के साथ शांति कायम करने के क्रम में समूचे अरब क्षेत्र के नेता का अपना कद कुर्बान कर दिया । इजरायल इत्जियाक राबिन ने यासर अराफात के साथ बातचीत की और कथित गर्व का रास्ता त्यागकर 1993 में ओस्लो समझौता किया। इसके बदले में उन्हें क्या मिला ? सादात की 1981 में और राबिन की 1995 में हत्या कर दी गई। ये हत्याएं उनके ही देशों में मौजूद दक्षिण- पंथियों ने की।

तंग श्याओ फिंग ने माओ की जगह ली और वह चाहते तो और माओवाद जारी रख सकते थे। पश्चिम के प्रति नफरत, रणनीतिक स्वायत्तता और घरेलू कुलीनों के प्रति घृणा के मिश्रण के साथ वह माओवाद के गौरव को आगे बढ़ा सकते थे लेकिन इसके बजाय उन्होंने नारा चुना, ‘अपनी ताकत को छिपाओ और सही समय की प्रतीक्षा करो। उन्होंने पश्चिम से संपर्क बनाया, कुलीनों के उभार का समर्थन करते हुए नारे दिए ‘अमीर बनना गौरव की बात है’ और ‘पहले कुछ लोगों को अमीर बनने दो।’ यह भी नाराज प्रशंसकों का मन रखने के बजाय चीन के निर्माण के भाव से संचालित था।

ये तमाम उदाहरण बताते हैं कि कैसे महान नेताओं ने जनता के हितों का ध्यान रखा अपनी सत्ता का नहीं। उन्होंने एक सामान्य देश बनाने के क्रम में गर्व को जाने दिया, उन्होंने कम हिंसा वाला माहौल बनाया और ऐसी स्थितियां निर्मित कीं जहां 50 साल तक टिकाऊ आर्थिक वृद्धि हासिल हो सके।

यकीनन ऐसे नाकाम नेता भी रहे हैं जिन्होंने गर्व और राष्ट्रवाद पर जोर दिया और अपने जनाधार को खुश करने की कोशिश की। लियोपोल्डो गैल्टियेरी ने 1982 में फॉकलैंड द्वीपों पर हमला किया ताकि घरेलू औपनिवेशिक विरोध की भावना को भुनाया जा सके। इसके चलते 1983 में उनकी सत्ता का ही पतन हो गया। नासिर भी ख़ामेनेई की तरह ही टकराव पसंद करते थे। उन्हें 1967 में छह दिवसीय युद्ध में हार का सामना करना पड़ा था। रॉबर्ट मुगाबे ने जिंबाब्वे में एक (लोकप्रिय !) हिंसक भूमि सुधार कार्यक्रम का नेतृत्व किया जिसने कृषि उत्पादन को ध्वस्त कर दिया और महंगाई बहुत अधिक बढ़ गई। मूखर्तापूर्ण गौरव का स्वर्ण पदक व्लादिमिर पुतिन को जाता है जिन्होंने रूस के एक सामान्य देश बनने की संभावना को ही समाप्त कर दिया, जबकि वह यूरोप के स्तर का एक गुणव- त्तापूर्ण लोकतांत्रिक देश तथा यूरोपीय संघ और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) का सदस्य भी बन सकता था।

यह सही है कि ऐसे नेता होते हैं परंतु हमें नेतृत्व के ऐसे गुणों का सामान्यीकरण नहीं करना चाहिए। हमें इस नतीजे पर नहीं पहुंच जाना चाहिए कि केवल गौरवबोध ही काम करता है। नेतृत्व का सार इस बात में निहित है कि ऐसे काम किए जाएं जो सरकार के नहीं जनता हित में हों।

खामेनेई की सत्ता ईरान के हालात को गर्व वाले नजरिये से देख सकती है। वह यह सोच सकती है कि ईरान के लोगों को जवाब देना चाहिए और परमाणु बम बनाना चाहिए। लेकिन यह ईरान के लोगों के लिए अच्छी रणनीति नहीं है। ऐसी कोई वजह नहीं है कि ईरान सरकार परमाणु बनाने की कीमत अपनी जनता की शांति और समृद्धि के रूप में चुकाए। ईरान को इजरायल या सुन्नी बहुल अरब देशों से शायद ही कोई खतरा है। उसे परमाणु हथियारों की आवश्यकता नहीं है। यहां बात केवल ईरान पर शासन कर रहे एक छोटे से समूह के अहं की है। पुरुषवादी अहं या सम्मान महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है ईरान को एक सामान्य देश बनाकर शांति और समृद्धि के हालात निर्मित करना ।


Date: 26-06-25

कामयाबी का अंतरिक्ष

संपादकीय

अंतरिक्ष अब कुतूहल का विषय नहीं, बल्कि कारोबारी संभावनाओं के अनंत आकाश में तब्दील हो चुका है। इसीलिए दुनिया के तमाम उन्नत देश अंतरिक्ष में अपनी पहचान अंकित करने की होड़ में नजर आते हैं भारत भी पिछले कुछ वर्षों से अपने तकनीकी विकास, अनुसंधान क्षमता और प्रणाली के बल पर अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस जैसे अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में अग्रणी देशों की कतार में शामिल हो गया है। उपग्रह प्रक्षेपण के कारोबार में तो वह दुनिया के कई देशों को चुनौती देने लगा है। अब भारत अपनी महत्त्वाकांक्षी गगनयान योजना पर काम कर रहा है उस दिशा में एक बड़ी कामयाबी हासिल हुई है। अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी नासा ने एक्सिओम मिशन-4 के तहत जिन चार अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजा है, उनमें भारतीय वायुसेना के कप्तान शुभांशु शुक्ल भी शामिल हैं। शुभांशु को खासतौर पर गगनवान मिशन की दृष्टि से ही तैयार किया गया था। वे अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर पहुंच कर सात प्रयोग करेंगे। यह भारत के लिए इसलिए भी बड़ी उपलब्धि है कि लंबे समय बाद उसका तैयार किया हुआ कोई अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष में गया है। राकेश शर्मा के बाद शुभांशु को दूसरे भारतीय अंतरिक्ष यात्री का गौरव प्राप्त हुआ है।

अंतरिक्ष में मानव को भेजना इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि उन्नत अंतरिक्ष यानों, ताकतवर कैमरों, रोबोटिक यंत्रों आदि के विकास के बावजूद अंतरिक्ष के विस्तार को पूरी तरह खंगाल पाना संभव नहीं है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित किया गया, ताकि वहां रह कर अंतरिक्ष यात्री विभिन्न क्षेत्रों का अध्ययन कर सकें। मगर उस स्टेशन तक मानव को भेजना और वापस लाना अब भी बड़ी चुनौती है। सुनीता विलियम्स के वहां लंबे समय तक फंस जाने की घटना से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जिन यात्रियों को वहां भेजा जाता है, उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से विशेष प्रशिक्षण की जरूरत होती है, क्योंकि अंतरिक्ष में लंबे समय तक रहने के लिए जिस तरह शरीर को ढालने की जरूरत होती हैं, वह कम ही लोग कर पाते हैं। फिर, उस स्टेशन तक यात्रियों को भेजने के लिए भरोसेमंद यान अभी तक अमेरिका ही विकसित कर पाया है। शुभांशु के अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर जाने से भारत को अपने अंतरिक्ष यात्री तैयार करने का रास्ता खुलेगा और गगनयान मिशन के लिए काम करने में काफी मदद मिलेगी।

अंतरिक्ष के बहुत सारे रहस्य अभी खुलने बाकी हैं। उसका अध्ययन केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि उसमें जीवन की संभावनाओं की तलाश हो सकेगी। विभिन्न ग्रहों पर खनिजों और नए तत्वों की खोज से विज्ञान व मानवता के लिए नए रास्ते भी खुल सकेंगे भविष्य में धरती के कई खनिज बढ़ती जरूरतों के आगे अपर्याप्त पड़ सकते हैं। इसलिए दूसरे ग्रहों पर उनकी तलाश अभी से करनी पड़ेगी। फिर, अब तो अंतरिक्ष पर्यटन पर जोर बढ़ रहा है। इस दिशा में कई सरकारी व निजी प्रयास हो रहे हैं गगनयान मिशन को भी इसी दृष्टि से विकसित किया जा रहा है कि अंतरिक्ष पर्यटन की संभावनाओं को भुनाया जा सके। ऐसे में शुभांशु जैसे अंतरिक्ष यात्रियों की जरूरत बढ़ेगी। दुनिया के देशों की उन्नति इस बात से भी आंकी जाने लगी है कि अंतरिक्ष में किसकी कितनी पहुंच है और अपने दम पर वह अंतरिक्ष में कितनी जगह बना पाया है। भारत निस्संदेह अंतरिक्ष अनुसंधान की बड़ी ताकतों में शुमार हो चुका है अपना अंतरिक्ष यात्री भेज कर उसने इस दिशा में एक और कदम बढ़ा दिया है।


Date: 26-06-25

वित्तीय अभाव के बीच अनुसंधान क्षेत्र

जयप्रकाश त्रिपाठी

इन दिनों वैज्ञानिक शोध और नवाचारों में गहरा दाल रखने वालों के बीच अनुसंधान परिवेश पर गंभीर विमर्श चल रहा है कि इस मद में सरकारी और निजी क्षेत्रों से वित्तीय सहायता अगर सिमटने लगेगी तो नवाचार और वैज्ञानिकों के भविष्य का क्या होगा शोध- अनुसंधान क्षेत्रों के लिए विश्व भर में वित्तीय सहायता विभिन्न स्रोतों से आती है, जिनमें सरकारी एजेंसियां, निजी संस्थाएं और कंपनियां शामिल हैं। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यदि अनुसंधान तंत्र सही रखते हुए सैद्धांतिक रूप से पूंजी और श्रम की गतिशीलता से सभी प्रतिबंध हटा दिए जाए, तो दुनिया में प्रति वर्ष अर्थव्यवस्था में 95 लाख करोड़ डालर तक की वृद्धि संभव है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक उच्च स्तरीय अनुमान है, क्योंकि इसमें अकुशल और कुशल प्रतिभाओं के लिए प्रतिबंधों में ढील के तमाम लाभ शामिल हैं।

उद्यमशील आविष्कार की गतिविधियों और घनिष्ठ सहयोग के माध्यम से नवाचार को आगे बढ़ाया जाता है। कुशल विदेशी प्रतिभाओं को आकर्षित करने में अमेरिका प्रवासियों की उद्यमशीलता और आविष्कारशील गतिविधि की जांच करने के लिए एक अच्छा अवसर प्रदान करता आ रहा है। लगभग पैंतालीस फीसद कंपनियों की स्थापना आप्रवासी परिवारों से ही संभव हुई है। आज ऐसी तीस लाख से अधिक आप्रवासी प्रतिभाएं कुशल उद्यमी के रूप में स्थापित हो चुकी हैं। अमेरिका के अलावा यूरोप और एशिया के देशों में भी ऐसा ही चलन देखा गया है।

‘वैश्विक चुनौतियां अनुसंधान कोष’ (जीसीआरएफ) विकासशील देशों के जीवन और अवसरों को बेहतर बनाने के सामने खड़ी चुनौतियों के समाधान के लिए अत्याधुनिक अनुसंधानों और नवाचारों का समर्थन करता है। साथ ही, दुनिया के सतत विकास लक्ष्यों में हाथ बंटाता है। अब अमेरिका के अनुसंधान कोष में कटौती के बीच वैज्ञानिकों का भविष्य और शोध कार्य एक बार पुनः अनिश्चितता से घिर गया है। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ हेल्थ (एनआइएच), अंतरिक्ष एजेंसी नासा नेशनल साइंस फाउंडेशन ( एनएसएफ) आदि प्रमुख एजेंसियों के अनुसंधान कोष में ट्रंप सरकार ने अरबों डॉलर की कटौती कर दी है।

उल्लेखनीय है कि दशकों तक अमेरिका विज्ञान और तकनीक में वैश्विक नेतृत्व करता रहा है। इंटरनेट, मोबाइल फोन, कैंसर और दिल की बीमारियों के इलाज जैसी कई क्रांतिकारी शोध और खोज अमेरिका के विश्वविद्यालयों और अनुसंधान एजेंसियों की देन रही हैं, लेकिन अब पहली बार वैज्ञानिक समुदाय के बीच एक असुरक्षा की भावना फैल रही है, खासकर युवा शोधकर्ताओं के औच, जिनका भविष्य वित्तीय मदद पर टिका होता है। इस बीच, फ्रांस और जर्मनी जैसे कई देश अमेरिकी वैज्ञानिकों को यह भरोसा दिला रहे हैं कि उनके शोध में कोई राजनीतिक या वैचारिक अड़ंगा नहीं होगा। इन योजनाओं में अमेरिकी वैज्ञानिकों की भी दिलचस्पी देखी जा रही है।

कई देशों ने अपने प्रतिभा परिदृश्य में बेहतर सुधार किए हैं, जबकि कुछ के लिए यह क्षेत्र एक चुनौती बना हुआ है। अमेरिका अपने उत्कृष्ट वैज्ञानिकों और कुशल तकनीकी प्रतिभाओं के लिए जाना जाता है कनाडा लीड्स ने तो इस दिशा में गंभीर पहल करते हुए अपने देश के लिए एक भर्ती अभियान शुरू किया है, जिसका उद्देश्य अमेरिका से युवा वैज्ञानिकों को आकर्षित करना है स्विट्जरलैंड को दुनिया का सबसे प्रतिभा प्रतिस्पर्धी देश माना जाता है, क्योंकि यह कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने, आकर्षित करने और बनाए रखने की क्षमता के लिए जाना जाता है। वैश्विक असमानताएं सतत विकास लक्ष्यों तक पहुंचने में एक बाधा बन सकती है। अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और विकसित करने के लिए प्रतिभाओं को आकर्षित करने की आज हर देश की प्राथमिक आवश्यकता है दुनिया भर में एआइ, हरित ऊर्जा, रोबोटिक्स और अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में कौशल रखने वाली प्रतिभाओं की मांग बढ़ रही है। इसके लिए प्रतिस्पर्धा मुख्य रूप से तीन क्षेत्रों में चल रही है- विज्ञान और प्रौद्योगिकी, वाणिज्यिक नवाचार और शिक्षा अधिकतर सरकारों ने सामारिक उपायों पर ध्यान केंद्रित किया है, लेकिन प्रतिभा में सार्थक भू- राजनीतिक बढ़त हासिल करने के लिए साहसिक, नए और रणनीतिक उपायों की जरूरत होती है। हालांकि, अधिकांश देश वैश्विक प्रतिभा का दोहन करने के लिए वृद्धिशील और सामरिक दृष्टिकोण पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, लेकिन शुरुआती संकेत बताते हैं कि अत्यधिक कुशल प्रतिभाओं के लिए प्रतिस्पर्धा भू-राजनीतिक क्षेत्र में स्थानांतरित होने लगी है।

प्यू अनुसंधान केंद्र के अनुसार, बस में से आठ लोग आप्रवास सुधार का समर्थन करते हैं, जो मांग में कुशल प्रतिभाओं के पक्ष में हैं। दूसरी तरफ, ट्रंप प्रशासन अत्यधिक कुशल प्रतिभाओं के लिए योग्यता-आधारित प्रणाली के तहत अवैध अप्रवास पर नकेल कसता जा रहा है। इस बीच, जापान और कई यूरोपीय व मध्य पूर्वी देशों की कुशल अप्रवासियों के लिए अपनी सीमाएं खोलने में दिलचस्पी है, लेकिन उनके प्रयास प्रायः लालफीताशाही के कारण बाधित होते रहे हैं। इसी क्रम में चीन ने तो 2008 में ही प्रतिभा योजना शुरू की थी, जिसका उद्देश्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी में चीनी मूल की प्रतिभाओं को अन्य देशों से वापस लाना है, ताकि नवाचार को बढ़ावा दिया जा सके और देश को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में मजबूत किया जा सके। यूरोपीय संघ और ब्रिटेन की एआइ कंपनियां प्रतिद्वंद्वी देशों से उदार प्रस्तावों के साथ संपर्क में हैं, जिसमें सबसिडी, कर छूट और विनियमन शामिल हैं।

कई देश अपने विश्वविद्यालयों में छात्रों और शोधकर्ताओं को आकर्षित कर भू-राजनीतिक बढ़त चाहते हैं। जर्मनी अंतरराष्ट्रीय शोध को बढ़ावा देने के उद्देश्य से महत्त्वाकांक्षी छात्रवृत्ति कार्यक्रम चला रहा है। वह हर वर्ष 200 देशों के लगभग डेढ़ लाख छात्रों और शोधकर्ताओं को अनुदान देता है। एक सच्चाई यह भी है कि आधुनिक वैश्विक होड़ में विकास, प्रतिभा से आगे निकलता जा रहा है। विकसित दुनिया के अधिकांश भाग में धीमी वृद्धि और राजकोषीय मितव्ययिता के कारण कई कंपनियों को कुछ उभरते बाजारों की मजबूत अर्थव्यवस्थाएं और बढ़ती आय काफी आकर्षक लग रही है, लेकिन इसमें एक जटिलता है। ब्राजील, रूस, भारत और चीन जैसे देशों में प्रतिभा खोज और उसे बनाए रखना तेजी से मुश्किल होता जा रहा है।

ऐसे में शोध – समर्थित ढांचा नीति निर्माताओं को बेहतर कामयाबी की दिशा में ले जा सकता है, जबकि उन्नत अर्थव्यवस्थाओं का रुख प्रवासी प्रतिभाओं को सक्रिय रूप से मजबूत आकार देने के बजाय बहुधा प्रतिक्रियात्मक है। दूसरी तरफ, चौंकाने वाला सच यह भी है कि पिछले दशकों में विविध नवाचार प्रयासों का अपेक्षित लाभांश नहीं मिला है। ऐसे में कुशल प्रतिभाओं के लिए प्रवासन रणनीति को नए सिरे से परिभाषित करना होगा। व्यापक सैद्धांतिक और अनुभवजन्य शोध का लाभ उठाने के लिए वैश्विक प्रतिभा प्रवास सूचकांक विकसित करना होगा। हालांकि, बाजार की ताकतें निश्चित रूप परिणामों को प्रभावित कर रही हैं, लेकिन दुर्लभ प्रतिभा-संसाधनों का असमान वितरण बाधक साबित हो रहा है। ऐसे में कुशल आप्रवासी प्रतिभाओं की राह में रोड़े बिछाने के लिए वैज्ञानिक शोध अनुसंधानों और नवाचारों की वित्तीय मदद बाधित करना कितना विवेक सम्मत है, इसे स्वतः ही समझा जा सकता है।


Date: 26-06-25

आपातकाल का काला अध्याय

अर्जुन राम मेघवाल, ( केंद्रीय विधि एवं न्याय राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) एवं संसदीय कार्य राज्य मंत्री हैं )

25 जून, 1975 का दिन भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे दुभाग्यपूर्ण दिन था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तानाशाह सरकार ने आंतरिक अशांति का बहाना बना कर देश में आपातकाल की घोषणा की। इसके बाद आपातकाल के 21 महीनों ने भारतवासियों की संवैधानिक विरासत की समझ को झकझोर कर रख दिया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती गांधी को 1971 के लोक सभा चुनाव गड़बड़ी करने का दोषी ठहराते हुए उनका लोक सभा के लिए निर्वाचन अमान्य घोषित कर दिया था। इसके बाद श्रीमती गांधी के इस्तीफे की मांग बढ़ती गई और इसी बीच इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 की रात तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को सादे कागज पर (बिना कैबिनेट की सहमति और आधिकारिक लेटरहेड के) अनुच्छेद 352 के तहत आंतरिक अशांति’ के आधार पर देश में आपातकाल लागू करने की सिफारिश कर दी। यह देश की संवैधानिक शासन व्यवस्था पर सीधा प्रहार था। अगले दिन 26 जून, 1975 को सुबह 6 बजे कैबिनेट की बैठक में यह विषय औपचारिक रूप से प्रस्तुत किया गया।

इस कदम से जनता को संविधानप्रदत्त आजादी रातों-रात समाप्त कर दी गई। अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन बनाने और देश के भीतर आने-जाने की स्वतंत्रता झटके में खत्म कर दी गई। जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देने वाला अनुच्छेद 21 निरर्थक हो गया सबसे दुखद यह था कि बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान के जिस अनुच्छेद 32- जो नागरिकों को न्यायालय जाने का अधिकार देता है को संविधान की ‘आत्मा’ कहा था, उसे भी निरस्त कर दिया गया। आपातकाल के दमनचक्र के पहले शिकार वे विपक्षी नेता बने जिन्होंने सरकार की नीतियों का विरोध किया था। हजारों लोगों को कठोर मीसा (मेंटिनेंस ऑफ इंटरनल सेक्युरिटी एक्ट) और भारत रक्षा अधिनियम (डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट) के तहत जेल में डाला गया।

मेरे 90 वर्षीय दादा जी को उसी दौर में अपने रोजमर्रा के काम के दौरान गायों की देखभाल करते हुए ऊंगली में गहरी चोट लग गई थी जिसके इलाज के लिए उन्हें बीकानेर के पीबीएम अस्पताल में भर्ती कराया गया लेकिन अस्पताल में उन्हें पता चला कि नसबंदी लक्ष्यों को पूरा करने के सरकारी दबाव के चलते डॉक्टर उन्हें जबरदस्ती नसबंदी के लिए तैयार कर रहे हैं। इस अमानवीय स्थिति को भांपते हुए मेरे दादा जी अस्पताल से भाग निकले। हालांकि वे बच गए लेकिन उस भयावह अनुभव ने पूरे समुदाय को गहरे डर और सदमे से भर दिया था। दुर्भाग्यवश 1975-1977 के बीच एक करोड़ से अधिक लोगों की जबरन नसबंदी करा दी गई।

उस काले दौर में प्रशासनिक तंत्र का दुरु पयोग केवल एक परिवार के हित में किस हद तक किया गया इसका सबसे बड़ा उदाहरण 24 मार्च, 1976 को संजय गांधी की बीकानेर यात्रा थी। न तो उनके पास कोई संवैधानिक पद था, न ही वे राजकीय अतिथि थे, फिर भी उनके स्वागत में सरकारी संसाधनों की खुल कर बर्बादी की गई। उस समय मैं डाक एवं तार विभाग में टेलीफोन ऑपरेटर था मुझे जानकर आश्चर्य हुआ कि रैली में विशिष्ट लोगों के लिए बनाए गए मंच के नीचे अस्थायी टेलीफोन कनेक्शन लगाने आदेश दिए गए। जबकि ऐसी व्यवस्था केवल प्रधानमंत्री के लिए की जाती है।

आपातकाल के दौरान संविधान में 38वां संशोधन करके आपातकाल की घोषणा की समीक्षा करने में न्यायालय की भूमिका समाप्त कर दी गई। अध्यादेश जारी करने के मामले में राष्ट्रपति व राज्यपाल के अधिकार बढ़ा दिए गए। इसके तुरंत बाद 10 अगस्त, 1975 को लागू किए गए 39 वें संविधान संशोधन द्वारा से न्यायालयों को प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति एवं लोक सभा अध्यक्ष जैसे उच्च पदों से जुड़े चुनावी मामलों की न्यायिक समीक्षा करने से रोक दिया गया। इस संविधान संशोधन के बाद ‘एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला के मामले की काफी चर्चा हुई थी जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के निर्णय को सही ठहराया था। उस मामले में न्यायमूर्ति एचआर खन्ना ही अकेले न्यायाधीश थे जिन्होंने उस निर्णय से अपनी असहमति जताई थी और नागरिक स्वतंत्रता का समर्थन किया था। बाद में श्री खन्ना को वरिष्ठतम होने के बावजूद भारत का मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया।

आपातकाल के दौरान श्रीमती गांधी की सत्तालोलुपता का एक दूसरा उदाहरण 42वें संविधान संशोधन करना था जिसके माध्यम से लोक सभा का कार्यकाल पांच वर्ष से बढ़ाकर छह वर्ष कर दिया गया। ऐसा करके लोकतंत्र में जनादेश की गरिमा को और अधिक कम किया गया और आम चुनाव कराए बिना सरकार के कार्यकाल को बढ़ा दिया गया। इस संशोधन के द्वारा संविधान की उद्देशिका में तीन नये शब्द सामाजिक, पंथनिरपेक्ष और अखंडता जोड़े गए और ऐसा करके मूल संविधान से छेड़छाड़ की गई। आपातकाल के दौरान सरकार द्वारा 48 अध्यादेश जारी किए गए और इन्हें पारित करने में संसद में चर्चा और संशोधन करने की प्रक्रिया की अनदेखी की गई।

हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी उस समय मात्र 25 वर्ष के थे, लेकिन उन्होंने साहसपूर्वक तानाशाही शासन का विरोध किया। अपनी पहचान छिपाकर अलग-अलग नामों से भूमिगत रहकर गुप्त बैठकों का आयोजन किया और आपातकाल विरोधी साहित्य व पत्र- पत्रिकाओं के प्रकाशन एवं वितरण में यत्न से जुटे रहे। जब आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिए जाने के कारण इसे भूमिगत होना पड़ा तब मोदी जी ने गुजरात लोक संघर्ष समिति के महासचिव के रूप में लोकतंत्र की रक्षा हेतु अहम भूमिका निभाई मोदी सरकार ने 11 जुलाई, 2024 को गजट अधिसूचना के माध्यम से 25 जून का दिन ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की। यह दिन उस विश्वासघात की याद दिलाता है जो आपातकाल के दौरान संविधान के मूल सिद्धांतों के साथ किया गया था। देश में आपातकाल का काला अध्याय 50 वर्ष पहले समाप्त हो गया है लेकिन वह भयावह दौर हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए हमें सजग प्रहरी बने रहने की आवश्यकता है।


Date: 26-06-25

शुभांशु का सफर

संपादकीय

यह सुखद और स्वागतयोग्य कामयाबी है कि भारतीय अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला अंतरिक्ष में पहुंच गए हैं। आज से करीब 41 साल पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा को यह कामयाबी हासिल हुई थी। राकेश शर्मा को जैसे हमेशा याद किया जाता है, वैसे ही शुभांशु शुक्ला भी अब हमारे इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गए हैं। यह एक ऐसा अभियान है, जिसकी प्रतीक्षा लोग महीनों से कर रहे थे। इस अभियान को इसलिए भी याद किया जाएगा कि इसके प्रक्षेपण की तिथि एकाधिक बार टली है। पहले यह मिशन 29 मई को रवाना होना था, बाद में 8 जून, फिर 10 जून, 11 जून, 19 जून और फिर 22 जून का समय तय किया गया। अब अंततः भारतीय समय के अनुसार, 25 जून को अभियान रवाना हुआ है। भारत की प्रथम नागरिक राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने बुधवार को प्रसन्नता का इजहार करते हुए कहा है कि पूरा देश भारतीय अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला की सितारों को यात्रा से उत्साहित और गौरवान्वित है। भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में उत्सव का माहौल है और तमाम वैज्ञानिकों को शुभांशु के बहुमूल्य अनुभवों की प्रतीक्षा है।

प्रथम भारतीय अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा के समय अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र की स्थापना नहीं हुई थी, पर शुभांशु को अंतरिक्ष केंद्र पर रहने का मौका मिलेगा। ध्यान रखने की बात है कि यह अभियान दुनिया के आला वैज्ञानिक देशों के साथ भारत के समन्वय का भी प्रमाण है। राकेश शर्मा सोवियत संघ के सहयोग से अंतरिक्ष यात्रा पर गए थे और शुभांशु शुक्ला मुख्य रूप से अमेरिका के सहयोग से गए हैं। यह सीखने वाली बात है, ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में जहां से भी लाभ मिले, वहां से हमें समन्वय साधकर चलना चाहिए। बेहतर सहयोग का ही प्रमाण है कि भारत एविस ओम 4 मिशन का हिस्सा है। वैज्ञानिक तालमेल की यह रणनीति भारत के मुफीद है।

बहरहाल, इस अभियान में भारतीय अंतरिक्ष यात्री के अलावा, अमेरिका, पोलैंड और हंगरी के यात्री भी शामिल हैं। विज्ञान के मोर्चे पर यह एकजुटता बहुत जरूरी है। नासा और इसरो के बीच स्थायी साझेदारी बढ़नी चाहिए। अमेरिका के फ्लोरिडा स्थित केनेडी स्पेस सेंटर से भारतीय मानक समय के अनुसार, दोपहर बारह बजकर एक मिनट पर यह अभियान रवाना हुआ और इसकी रवानगी को पूरी दुनिया में जगह- जगह देखा गया। इस बार यह भी खास है कि इस अभियान के प्रक्षेपण को देखने के लिए जगह-जगह इंतजाम किए गए थे। लखनऊ के सिटी मॉटेसरी स्कूल में आयोजित वॉच पार्टी में शुभांशु के माता-पिता इस ऐतिहासिक प्रक्षेपण को देखते हुए जिस तरह भावुक हुए, उससे बहुत से परिवारों, बच्चों और युवाओं को प्रेरणा मिलेगी। ये विजय के कुछ ऐसे पल होते हैं, जिनसे सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। कुछ खास करने की इच्छा मन में जगती है, जिससे तरक्की को बल मिलता है।

कोई संदेह नहीं कि अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत को अभी बहुत कुछ करना है। भारतीयों में यह क्षमता होनी चाहिए कि वे अकेले दम पर अंतरिक्ष में पहुंच सकें। चीन अंतरिक्ष के मामले में हमसे काफी आगे निकल चुका है। उसका अंतरिक्ष में अपना केंद्र भी है, वह पूरी तरह से आत्मनिर्भर है। भारत को भी अपने प्रयोगों में तेजी लानी चाहिए। अंतरिक्ष की कक्षा में मानव सहित यान भेजने की क्षमता का विकास जल्दी होना चाहिए। चंद्रयान के अगले चरण पर भी हमारा पूरा ध्यान रहना जरूरी है। इसरो और देश को ज्यादा प्रतिभावान इंजीनियरों की जरूरत है। ऐसे में इसरो की सेवा का आकर्षण बढ़ाना चाहिए।


Date: 26-06-25

अंतरिक्ष में भारतीय हौसले की उड़ान

प्रदीप कुमार मुखर्जी, ( पूर्व प्रोफेसर व विज्ञान लेखक )

भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा के बाद अब शुभांशु शुक्ला हमेशा के लिए भारतीयों की स्मृति का हिस्सा बन गए हैं। ग्रुप कप्तान शुभांशु ने बुधवार को भारतीय समयानुसार दोपहर करीब 12 बजे फ्लोरिडा के केनेडी स्पेस स्टेशन से अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र (आईएसएस) के लिए उड़ान भरी। याद कीजिए, 3 अप्रैल, 1984 का दिन, जब राकेश शर्मा सोयुज टी-11 यान की उड़ान से अंतरिक्ष में पहुंचे थे, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के इस सवाल का कि ‘अंतरिक्ष से भारत कैसा दिखता है?’ उन्होंने जवाब दिया था सारे जहां से अच्छा।

राकेश शर्मा और शुभांशु शुक्ला के अलावा एक अन्य भारतीय भी अंतरिक्ष में जा चुके हैं, जो हैं कप्तान गोपीचंद थोटाकुरा। वह पिछले साल एक पर्यटक के रूप में अंतरिक्ष में गए थे। शुभांशु का यह मिशन कई मायनों में महत्वपूर्ण है। उन्होंने क्रू ड्रैगन 213 अंतरिक्षयान से उड़ान भरी उड़ान भरने के कुछ देर बाद ही अंतरिक्ष से अपने संदेश में उन्होंने कहा, हम 41 साल बाद वापस अंतरिक्ष में पहुंच गए हैं। यह एक अद्भुत सफर है।… यह महज मेरो अंतरिक्ष यात्रा की शुरुआत नहीं है, बल्कि यह भारत के मानव अंतरिक्ष अभियान की शुरुआत है।

वाकई, भारत द्वारा अपने दम पर यात्रियों को अंतरिक्ष में भेजने के लिहाज से इस अभियान को काफी महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। भारत 2035 तक अपना अंतरिक्ष स्टेशन बनाने और 2040 तक चंद्रमा पर इंसानों को भेजने की दिशा में तेजी से काम कर रहा है। कहा जा रहा है कि भारत के मानव अभियानको शुभांशु की इस यात्रा से एक नई दिशा मिल सकेगी।

देखा जाए, तो भारत अंतरिक्ष विज्ञान में अपनी महती उपलब्धियों से विश्वभर में झंडे गाड़ चुका है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र, यानी इसरो इस दिशा में लगातार सक्रिय है। वह तो देश-विदेश के उपग्रहों को प्रक्षेपित कर काफी समय से कमाई भी कर रहा है।

चंद्रयान, मंगलयान और आदित्य मिशन के बाद इसरो अपने गगनयान मिशन को अंजाम देना चाहता है। यह मिशन तीन चरणों में होगा और आशा की जा रही है कि 2027 तक वह मानवयुक्त अंतरिक्ष यान भेजने में सफल हो सकेगा। इससे भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान के फलक का स्वाभाविक विस्तार होगा।

इसरो की भविष्य के लिए कई अन्य योजनाएं भी हैं। इनमें शुक्र आदिग्रहों से जुड़े अंतरिक्ष मिशन शामिल हैं। चंद्रयान-4 को भी इसरो द्वारा भविष्य में भेजने की योजना है। भारत खुद का अंतरिक्ष स्टेशन बनाने की दिशा में कार्य कर हो रहा है, जिसके 2035 तक पूरी तरह से चालू होने की उम्मीद है। 52 टन वजनी इस अंतरिक्ष स्टेशन को पांच मॉड्यूलों में बनाया जाएगा, जिनमें से पहला मॉड्यूल 2028 मे लॉन्च किया जाएगा। यह अंतरिक्ष स्टेशन लंबी अवधि के सूक्ष्म गुरुत्व अनुसंधान, अंतरिक्षयात्री प्रशिक्षण और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए महत्वपूर्ण साबित होगा।

बहरहाल, एक्सिओम 4 मिशन काफी अहम इसलिए भी है, क्योंकि पहले इस अभियान को कभी मौसम की वजह से, तो कभी तकनीकी खराबी के कारण छह बार टाला जा चुका है। ऐसे में, पूरे देश की नजर इस पर बनी हुई है और अगर सब कुछ योजना के मुताबिक हुआ, तो शुभांशु आज यानी 26 जून को शाम साढ़े चार बजे आईएसएस से डॉकिंग करेंगे। वह इस मिशन के पायलट हैं। उनके साथ तीन अन्य अंतरिक्ष यात्री भी आईएसएस पहुंचे हैं। इनमें एक हैं, मिशन का नेतृत्व करने वाली नासा की पूर्व अंतरिक्षयात्री पैगी व्हिट्सन, जबकि दो अन्य है- पोलैंड के स्लावोज उज्नास्की विस्नीव्स्की और हंगरी के टिबोर कापू। ये दोनों मिशन विशेषज्ञ है।

10 अक्तूबर, 1985 को लखनऊ के त्रिवेणीनगर में जन्मे शुभांशु शुक्ला बचपन से ही कुछ गंभीर प्रकृति के रहे हैं। उनमें कुछ अलग करने और बड़ा बनने की चाह हमेशा रही है। एक खास बात शुभांशु के अंदर यह भी है किलक्ष्य पूरा होने तक यह कभी चैन से नहीं बैठते । यही कारण है कि 12वीं की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी जाना बेहतर समझा । सन् 2006 में फ्लाइट पायलट के तौर पर शुभांशु भारतीय वायुसेना में शामिल हुए। मिंग, सुखोई, डोर्नियर, जगुआर और हॉक्स जैसे लड़ाकू विमानों के साथ 2,000 से अधिक घंटे की उड़ान का अनुभव उन्होंने हासिल किया है।

एक्सिओम 4 मिशन के अलावा इसरो के गगनयान मिशन के लिए भी सन् 2019 में शुभांशु का चयन हो चुका है। गगनवान इसरो का मानव मिशन है, लेकिन अंतरिक्षयात्रियों को भेजने से पहले दो अन्य मिशनों को अंजाम देने की इसरो की योजना है। इनमें से पहले मिशन में खाली यान, जबकि दूसरे में रोबोटिक व्योममित्र को भेजे जाने की योजना बनाई गई है। जैसा कि शुभांशु ने अंतरिक्ष से दिए गए अपने संदेश में कहा है कि वर्तमान मिशन भारत के मानव मिशन कार्यक्रम की शुरुआत है। लिहाजा, गगनवान मिशन के लिए शुभांशु का आईएसएस में हासिल किया गया अनुभव निश्चित रूप से बड़ा काम आएगा।

एक्सिओम 4 मिशन इसरो, नासा, यूरोपियन स्पेस एजेंसी (ईएसए) और एक्सिओम स्पेस का संयुक्त मिशन है। शुभांशु सहित चारों अंतरिक्षयात्री आईएसएस में 60 वैज्ञानिक प्रयोग करेंगे, जिनमें से सात प्रयोग भारत से होंगे। एक प्रमुख प्रयोग में छह प्रकार के फसल बीजों पर अंतरिक्ष के प्रभाव की जांच की जाएगी। यह प्रयोग इस बात को समझने में मदद करेगा कि भविष्य के मिशनों के लिए अंतरिक्ष में फसलें कैसे उगाई जा सकती हैं? आईएसएस में ग्लूकोज और इंसुलिन पर भी विशेष अध्ययन किया जाएगा, जो भविष्य में मधुमेह के इलाज की दिशा को पूरी तरह से बदल सकता है। यह चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान होगा। सूक्ष्म शैवाल (माइक्रोएल्गी) की तीन प्रजातियों की वृद्धि, उपापचय व आनुवंशिकी का अध्ययन भी किया जाएगा, ताकि यह समझा जा सके कि माइक्रोएल्गी अंतरिक्ष में कैसे वृद्धि करते हैं? इसके अलावा छह फसल बीज किस्मों का अध्ययन भी किया जाएगा। एक और पहलू पर भी आईएसएस में प्रयोग किया जाएगा, जो है अंतरिक्ष में कंप्यूटर स्क्रीन का उपयोग करने के शारीरिक और संज्ञानात्मक (कॉग्निटिव) प्रभावों के बारे में पता लगाना।

कोई दोराय नहीं कि शुभांशु का आईएसएस में 14 दिनों का यह अनुभव, खासकर इसरो के भावी गगनवान मिशन के लिए बड़ा महत्वपूर्ण साबित होगा। यह मिशन वास्तव में भारत के मानव अभियान कार्यक्रम की शुरुआत है।


Date: 26-06-25

ईरान का संकट और भारत के लिए पैदा नए अवसर

एम एल मीना, ( प्रोफेसर, भू-राजनीति )

रवि दास

इजरायल – ईरान के बीच सीजफायर होने से पूरी दुनिया ने राहत की सांस ली है। दरअसल, ईरान ने होर्मुज जलडमरूमध्य को बंद करने के मसौदे को अपनी संसद से पारित करवाने के बाद कतर व इराक स्थित अमेरिकी सैन्य अड्डों पर जो जवाबी हमले किए, उससे यह अंदेशा गहरा गया था कि अब यह समुद्री मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा। भारत के लिए यह संकट की स्थिति थी, क्योंकि अपनी ऊर्जा जरूरतों का एक बड़ा हिस्सा वह होर्मुज और मध्य- पश्चिम एशिया के समुद्री मार्ग से पूरा करता है। फिलहाल वह संकट टल गया है, पर पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है। ऐसे में सवाल यह नहीं है कि ऐसी किसी भी स्थिति में भारत तटस्थ रहे या नहीं, बल्कि यह है कि क्या भारत अपनी तटस्थता को सक्रिय और नेतृत्वकारी भूमिका में बदल सकता है?

भारत ने दशकों से गुटनिरपेक्षता और रणनीतिक स्वायत्तता की नीति अपना रखी है। यह नीति उसे ईरान जैसे देशों से मजबूत संबंध बनाए रखने की सुविधा देती है। चाहे चाबहार बंदरगाह का उपयोग हो, अंतरराष्ट्रीय नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (आईएनएसटीसी) हो या मध्य एशिया तक पहुंच, इस रणनीति की बदौलत भारत अपने हित साधता रहा है। दूसरी ओर, उसने अमेरिका और इजरायल के साथ रक्षा,तकनीक, और ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग भूमिका निभाव बढ़ाया है। लेकिन हालिया घटनाओं ने स्पष्ट कर दिया है कि अमेरिका जैसा सहयोगी, जो संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी के बिना ईरान पर हमला करता है, पूरी तरह भरोसेमंद नहीं है।

ईरान के पास होर्मुज जलडमरूमध्य को बंद करने की वास्तविक क्षमता है। चाहे बारूद बिछाना हो, मिसाइलों की तैनाती हो या छोटी युद्धक नौकाओं का इस्तेमाल करना हो, वह ऐसा कर सकता है। अगर उसने भविष्य में ऐसा किया, तो इससे न केवल भारत सहित पूरे दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्वी एशिया, यूरोप या यूं कहें कि लगभग पूरे विश्व की ऊर्जा आपूर्ति बाधित होगी, बल्कि वैश्विक व्यापार भी चरमरा सकता है। इस संकट ने भविष्य की चुनौतियों से हमें अवगत कराया है। तो केवल आपूर्ति का विविधीकरण या रणनीतिक भंडारण जैसे कदम ही काफी नहीं होंगे, बल्कि भारत को कुशल राजनयिक वास्तुकला और निर्णयों की आवश्यकता है।

भारतीय नौसेना द्वारा ‘ऑपरेशन संकल्प’ के जरिये होर्मुज के आसपास अपने वाणिज्यिक जहाजों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा रही है। यह कार्रवाई रक्षा से अधिक रणनीतिक उपस्थिति के संकेत देती है। इस समय भारत के पास कुछ ऐसे अवसर उपलब्ध हैं, जिनके माध्यम से वह इस क्षेत्र में प्रमुख भूमिका में आ सकता है । जैसे, भारत को इस समय एक नया प्रस्ताव ‘चाबहार स्थिरता पहल’ लाना चाहिए। इसके तहत वह ईरान, ओमान और यूएई को एक साथ लाकर एक ऐसा राजनयिक तंत्र बना सकता है, जो ईरान को भरोसा दिलाए कि उसका कभी आर्थिक बहिष्कार नहीं होगा, अगर वह समुद्री मार्गों के आवागमन की सुरक्षा व स्वतंत्रता सुनिश्चित करे। भारत के तीनों ही पक्षों- ईरान, अमेरिका और खाड़ी के देशों से संतुलित संबंध हैं। यह उसके लिए गुटनिरपेक्षता का नहीं, ‘रणनीतिक नेतृत्व’ की भूमिका निभाने का समय है। भारत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि चाबहार पोर्ट से शुरू होकर पश्चिम एशिया व यूरोप तक जाने वाला ‘इंडियन – मिडिल ईस्ट- यूरोपियन कॉरिडोर’ (आईएमईसी) अब सपना नहीं, बल्कि प्राथमिकता बने ।

भारत को समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में ‘इंडो-गल्फ मैरीटाइम अवेयरनेस नेटवर्क’ (आईजी-मैन) जैसी पहल करनी चाहिए। इसके जरिये वह अपने ‘इंडियन ओशन डोमेन अवेयरनेस सेंटर’ को खाड़ी के देशों से जोड़ सकता है। इससे ड्रोन निगरानी, डाटा साझा करना और समुद्री गतिविधियों का सामूहिक विश्लेषण संभव होगा, जो समुद्री मार्गों को सुरक्षित व भरोसेमंद बनाएगा । इस प्रकार की गतिविधियां भारत की वैश्विक छवि को संतुलित बनाती हैं।

भारत को अब ‘स्थिरता का शिल्पकार’ देश बनना चाहिए। अगर भारत एक ऐसे ढांचे की वकालत करे, जो समुद्री सुरक्षा, ऊर्जा आपूर्ति और क्षेत्रीय सहयोग को जोड़ता हो, तो वह वैश्विक अस्थिरता को अवसर में बदल सकता है।