26-05-2025 (Important News Clippings)

Afeias
26 May 2025
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Date: 26-05-25

Yes Means Yes

Teenagers having consensual sex is basic human design. This must be decriminalised by GOI

TOI Editorials

There are countless ways in which adults fail to understand teenagers and let them down. But when a systemic orthodoxy is causing them clear injustice, at least then the adult approaches must be reformed without delay. In the case of Protection of Children from Sexual Offences Act, 2012, court reports have been showing for years that blanket criminalisation of teenage sexual activity is deeply oppressive. Now, the Supreme Court has issued notice to GOI to give its views on amici curiae’s suggestions regarding POCSO, whose rigid application in cases of adolescent relation- ships is found to lead to traumatically unjust outcomes.

An analysis of all judgments passed in a case involving rape in Delhi’s district courts in 2013 found that around one-third involved couples who had chosen to be together. Their parents pursued the police action. Police often sympathises with the girl’s father, families often punish her with a severe beating. He gets jail and a rape conviction. Because her age of consent is 18. The defence is that these families and cops’ morality cannot be changed simply by changing the law. It’s an untenable defence.

Their private morality is immaterial. The issue is adolescents’ entitlement to a private life, to coming of age, on their own terms, in perfectly healthy and natural ways.

Refusing to uphold adolescent agency to consent is in a continuum of injustice that wives also suffer. In this context, the phrase ‘women and children’ rings cruelly apt. GOI has been opposing the crimi- nalisation of marital rape citing concern for “social and family structure”. Consent, though, is the bedrock of human dignity. By wrenching it away from intimate relationships, lawmakers are enabling a legion of personal torments, and encouraging the worst instincts of adult busybodies. Reform the law, recognise consent, that’s where both private and public good lie.


Date: 26-05-25

Be Understanding Towards Young Love

ET Editorials

The Supreme Court has rightly urged GoI to reconsider whether consensual relationships between adolescents should fall within the purview of the Protection of Children from Sexual Offences (Pocso) Act—a call that demands serious and urgent engagement. Along with reviewing the top court’s suggestion to decriminalise such relationships, GoI must also take on board the recommendation to frame a comprehensive sexual and reproductive health education policy. Criminalising young love while failing to educate adolescents on what constitutes healthy romantic and sexual relationships leads to a repressed society. Courts have observed that penalising adolescents in love contradicts the developmental needs of teenagers, many of whom are discovering intimacy and emotional bonds.

The intent behind the Pocso Act was to shield minors from exploitation—not to penalise natural and consensual behaviour between teenagers. Yet, an increasing proportion of Pocso cases involve consensual adolescent relationships, often based on complaints from disapproving families. It is understandable that many parents struggle with the challenges of raising adolescents and naturally want to protect them from harm. But throwing the statute book at youngsters during such a sensitive phase of life—and sending them to prison—is hardly the solution.

Counselling and guidance to help adolescents navigate their sexual and emotional awakening is a far better option. The sexual and reproductive health education policy that the top court has called for could play a crucial role. But this policy must not be a bureaucratic exercise—it should be the product of meaningful engagement with all stakeholders, aimed at developing a policy that is progressive, sensitive, and backed by robust institutional support.


Date: 26-05-25

न्यायपालिका से सवाल

प्रो. रसाल सिंह, ( लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामानुजन कालेज में प्राचार्य हैं )

पिछले दिनों राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने उच्चतम न्यायालय से 14 सवाल पूछे। ये सवाल राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत किए गए हैं। मूलत: ये प्रश्न न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की संवैधानिक शक्तियों और कार्यक्षेत्र से भी संबंधित हैं। राष्ट्रपति ने कानून निर्माण के संबंध में राज्यपाल और राष्ट्रपति को संविधानप्रदत्त शक्तियों को न्यायिक आदेश द्वारा सीमित/नियंत्रित किए जाने पर प्रश्न चिह्न लगाया है। ये प्रश्न भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अंतर्निहित संवाद की स्वस्थ परंपरा का परिचय और प्रमाण हैं।

दरअसल हाल में उच्चतम न्यायालय ने राज्यपाल बनाम तमिलनाडु राज्य नामक वाद का निर्णय दिया था। यह मामला तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों से संबंधित था। राज्य सरकार का कहना था कि विधानसभा द्वारा पारित कई विधेयक लंबे समय से राज्यपाल द्वारा लंबित रखे गए हैं। साथ ही राज्य सरकार ने राज्यपाल द्वारा एक साथ कई विधेयकों को राष्ट्रपति को विचारार्थ भेजने पर भी प्रश्न उठाया था। निश्चय ही, राज्यपाल द्वारा अनिश्चित अवधि तक विधेयकों को लंबित रखना भी संविधानसम्मत नहीं है।

उच्चतम न्यायालय ने उपरोक्त मामले में कुछ संवैधानिक पहलुओं को नए सिरे से प्रस्तुत किया है। पहला, राज्यपाल एवं राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को स्वीकृति प्रदान करने के लिए समयसीमा का निश्चित किया जाना है। यह समय सीमा तीन माह तय की गई है। दूसरा, अगर समयसीमा के भीतर राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा विधेयक पर प्रतिक्रिया नहीं दी जाती है तो राज्य के अनुरोध पर उच्चतम न्यायालय ‘परमादेश रिट’ के तहत विधेयक को स्वीकृति प्रदान करने की क्षमता रखता है।

तीसरा, उच्चतम न्यायालय ने स्वयं को संविधान के अनुच्छेद 142 द्वारा प्रदत्त शक्ति का उपयोग करते हुए 10 लंबित विधेयकों को कानून का दर्जा दे दिया है। इस तरह यह पहला अवसर है जब बिना राष्ट्रपति या राज्यपाल की स्वीकृति के विधेयक कानून बन गए हैं। यह न्यायपालिका द्वारा अपनी संवैधानिक शक्तियों और मर्यादा का अतिक्रमण है।

इस निर्णय की पृष्ठभूमि में संवैधानिक वस्तुस्थिति को समझना आवश्यक है। सर्वप्रथम अनुच्छेद 200 की बात आती है। इसके तहत राज्यपाल या तो विधेयक को स्वीकृति देता है या उसे रोक लेता है या वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए प्रेषित कर देता है। राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित विधेयक के लिए एक कसौटी का उल्लेख है।

वह यह है कि ‘राज्यपाल की राय में’ यदि वह (विधेयक) कानून बन जाए तो उच्च न्यायालय की शक्तियों को इस प्रकार अल्पीकृत करेगा कि वह व्यवस्था खतरे में पड़ जाएगी, जिसे भरने के लिए संविधान द्वारा उसका निर्माण किया गया है। ‘राज्यपाल की राय में’ के दो अर्थ हो सकते हैं। पहला यह कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद के सहयोग एवं सुझाव से ऐसा करेगा। अब सवाल यह उठता है कि मंत्रिपरिषद जो विधानमंडल का हिस्सा है और विधेयक बनाने में शामिल है, आखिर क्यों पहले अपने क्षेत्राधिकार से बाहर विधेयक पारित करेगी और फिर राज्यपाल को परामर्श देकर उसे राष्ट्रपति को भिजवाएगी।

दूसरा यह कि राज्यपाल अपने ‘विवेकाधिकार’ का प्रयोग करते हुए ऐसा करेगा। अनुच्छेद 201 दूसरा अनुच्छेद है, जो इस बहस में आया है। इसमें राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित विधेयक से संबंधित चर्चा है। इसके तहत राष्ट्रपति या तो विधेयक पर स्वीकृति देता है या उसे रोक देता है। साथ ही वह अपने सुझावों और निर्देश के साथ विधेयक को राज्यपाल के माध्यम से वापस विधानमंडल को भेज सकता है। तत्पश्चात वह पुन: विधानमंडल से पारित कराकर राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाएगा। इसके आगे राष्ट्रपति उस विधेयक पर क्या फैसला लेते हैं? इस पर संविधान में स्पष्टता नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार राज्यपाल अब पहली प्रस्तुति में तीन महीने एवं दूसरी प्रस्तुति में अधिकतम एक महीने तक ही विधेयक को अपने पास रख सकते हैं। विधेयक निर्माण प्रक्रिया में राज्यपाल के ‘विवेकाधिकार’ को उच्चतम न्यायालय ने अब न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत बताया है। यह पहले से चली आ रही प्रणाली में बहुत बड़ा बदलाव है, जिसमें राज्यपाल के विवेकाधिकार को सीमित किया गया है।

इसके आगे कोर्ट ने अनुच्छेद 200 एवं 201 के तहत राष्ट्रपति के विचारार्थ प्रेषित विधेयकों को संवैधानिक एवं वैधानिक त्रुटियों से बचाने के लिए राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से सुझाव लेने के लिए भी निर्देशित किया है। राष्ट्रपति को दिए गए निर्देश के मद्देनजर ऐसा प्रतीत होता है कि विधेयक के कानून बनने के पूर्व ही न्यायपालिका का हस्तक्षेप हो रहा है। किसी भी विधेयक को प्रस्तुत करने एवं उस पर बहस करने का कार्य जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का ही होता है। विधायिका के इस कार्य में हस्तक्षेप संविधान के बुनियादी ढांचे को चुनौती देता है।

भारत संघीय व्यवस्था के बावजूद केंद्रीय प्रवृत्ति वाला राष्ट्र है। यह व्यवस्था अलगाव और अराजकता को नियंत्रित करते हुए देश की एकता-अखंडता सुनिश्चित करती है। उपरोक्त निर्णय की पृष्ठभूमि में राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए प्रश्नों के आलोक में न्यायपालिका के उत्तर से न सिर्फ केंद्र-राज्य के संबंधों के समीकरण प्रभावित होगा, बल्कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के संबंध और कार्यक्षेत्र भी पुनर्परिभाषित होंगे।


Date: 26-05-25

झुकता नहीं हार्वर्ड

संपादकीय

चुनावी जीत राजनेताओं को कैसे बौखला देती है, डोनाल्ड ट्रंप इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। उनके मनमाने फैसलों से दुनिया हैरान है। विदेशौ सामानों पर अनाप-शनाप शुल्क लगाने के बाद अब अपनी ही यूनिवर्सिटियों पर काबू पाने की उनकी कोशिशें जोर मार रही हैं। अमेरिका की प्रतिष्ठित हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में विदेशी छात्र-छात्राओं के दाखिले पर रोक के उनके फैसले पर अदालत ने फिलहाल रोक लगा दी है। ट्रंप ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय छात्र-छात्राओं को दाखिला देने का अधिकार रद्द कर दिया था। अमेरिकी गृह सुरक्षा मंत्री क्रिस्टी नोएम ने हार्वर्ड पर कानून का पालन न करने का आरोप लगाते हुए इसे देश भर के सभी विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों के लिए एक चेतावनी बताया था। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने ट्रंप प्रशासन के इस फैसले को ‘गैर-कानूनी’ करार देते हुए इसके खिलाफ मुकदमा दायर किया ज सुनवाई करते हुए अदालत ने फिलहाल ट्रंप प्रशासन के फैसले पर रोक लगा दी है। यूनिवर्सिटी का कहना है, ‘हम अपने अंतरराष्ट्रीय स्टूडेंट्स और स्कॉलर्स को दाखिला देने की क्षमता को बनाए रखने के अपने संकल्प पर कायम हैं। उन हजारों स्टूडेंट्स के लिए जो 140 से अधिक देशों से यहां आते हैं, और यूनिवर्सिटी तथा इस राष्ट्र को समृद्ध बनाते हैं। गौरतलब है कि हर साल 500 से 800 भारतीय छात्र भी उच्च अध्ययन के लिए हार्वर्ड में प्रवेश लेते हैं। हालांकि फैसले पर फिलहाल रोक लगी है लेकिन इससे हार्वर्ड के हजारों विदेशी छात्र दहशत में आ गए हैं। उन्हें अपने वीजा रद्द होने, और शोध निलंबित होने का डर सता रहा है। ट्रंप काफी पहले से अपने विश्वविद्यालयों पर शिकंजा कसने का प्रयास कर रहे हैं। अप्रैल, 2025 में हार्वर्ड को ट्रंप के कार्यालय ने मांगों की एक सूची भेजी थी जिसमें सरकार से सहमति न रखने वाले छात्रों की सूचना देने और यहूदी विरोधी प्रदर्शनों पर कार्रवाई और समानता की नीति खत्म करने की मांग प्रमुख थीं। यूनिवर्सिटी ने इन मांगों को अस्वीकार कर दिया था। इससे खफा ट्रंप प्रशासन ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी को दिए जाने वाले 2.2 अरब डॉलर के अनुदान और 6 करोड़ डॉलर के अनुबंधों पर तत्काल रोक लगा दी थी। कोलंबिया विवि को भी 40 करोड़ डालर का अनुदान रोक कर कुछ शर्तें मानने पर मजबूर किया गया था।


Date: 26-05-25

फिर सोने की चिड़िया बनने लगा भारत

आलोक जोशी

नीति आयोग के सीईओ बीवी आर सुब्रमण्यम ने रविवार की सुबह देश को एक नई सुखद खबर दी कि जापान को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़ों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि अब हम चार ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बन चुके हैं। भारत फिर से सोने की चिड़िया बनने की राह पर एक कदम और आगे बढ़ गया है। एक समय वह ऐसा ही देश था। लगभग दो सदी पहले ।

बात सिर्फ सफरनामे की नहीं है। पुरातात्विक अवशेष बताते हैं कि ईसा से सदियों पहले भारत में विकसित सभ्यता मौजूद थी। यहां से मेसोपोटामिया तक समुद्री जहाजों से सफर होता था और भारत से व्यापारी सोना, तांबा व आभूषण वहां के खरीदारों तक पहुंचाया करते थे। ईसा से छह सौ वर्ष पहले भारत के महाजनपदों में चांदी के सिक्के चलने के प्रमाण हैं। यह व्यापार और विकास में तेजी का दौर था ईसा पूर्व 321 से मौर्य साम्राज्य में वर्तमान भारत का बड़ा हिस्सा एक हुआ। राजनीतिक एकता और सैन्य सुरक्षा के साथ पूरे इलाके का एक आर्थिक तंत्र भी तैयार हुआ। अर्थ इतिहासकारों के मुताबिक, वहीं से आर्थिक समृद्धि का दौर शुरू हुआ, जो लगभग डेढ़ हजार साल चलता रहा।

माना जाता है कि ईस्वी कैलेंडर शुरू होने के बाद पहली से 17वीं सदी तक भारत प्राचीन व मध्यकालीन दौर में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था रहा। तब दुनिया की कुल अर्थव्यवस्था या जीडीपी में एक तिहाई से एक चौथाई योगदान अकेले भारत का होता था। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं के इतिहास का गहराई से अध्ययन करने वाले ब्रिटिश अर्थशास्त्री एंगस मैडिसन ने तो पूरा हिसाब जोड़कर बताया है कि कब-कब कौन सा देश दुनिया की अर्थव्यवस्था में क्या हैसियत रखता था? उनका कहना है कि डॉलर की कीमत को 1990 के भाव पर रखकर आंका जाए, तो सन् 1000 में भारत की अर्थव्यवस्था 3,350 करोड़ डॉलर की थी, जबकि चीन की 2,655 करोड़ डॉलर, पश्चिमी यूरोप के देशों की 1,016.5 करोड़ डॉलर और पूरी दुनिया की कुल अर्थव्यवस्था 11,679 करोड़ डॉलर की रही होगी। इसके बाद दो सदियों में कभी चीन भारत से आगे भी रहा, लेकिन सन् 1700 तक भारत फिर सबसे ऊपर था 9,075 करोड़ डॉलर पर चीन 8,280 करोड़ पर और पश्चिम यूरोप के देश 8,339.5 करोड़ डॉलर पर थे।

तब भारत से (हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश को मिलाकर) न सिर्फ मसालों का जबर्दस्त निर्यात होता था, बल्कि यहां की कारीगरी का डंका दुनिया भर में बजता था। 16वीं सदी से ही भारत से सूती, रेशमी, ऊनी और मिश्रित धागों से बुने कपड़ों का बड़ी मात्रा में निर्यात होता था। बंगाल, सूरत, लाहौर व मछलीपट्टनम कपड़े के बड़े बाजार हुआ करते थे । लकड़ी के सामान, बर्तन, धातुओं की कारीगरी के उत्पाद, हथियार व कीमती जेवर भी भारत से निर्यात होते थे। इनकी कीमत ज्यादातर सोने-चांदी के सिक्कों या जवाहरात में चुकाई जाती थी। शायद इसीलिए भारत सोने का भंडार था ।

भारत की हैसियत को ठीक से समझने के लिए यह
जानना चाहिए कि सन् 1600 में सम्राट अकबर के खजाने की सालाना आमदनी पौने दो करोड़ ब्रिटिश पाउंड आंकी गई थी, जबकि उसके दो सौ साल बाद सन् 1800 में भी अंग्रेज सल्तनत के पूरे खजाने का आकार 1.6 करोड़ पाउंड ही हो पाया था। औरंगजेब के राज में तो मुगल सल्तनत की सालाना आमदनी दस करोड़ पाउंड पहुंच गई थी ।

इसी काल में 1757 से ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में जाल फैलाना शुरू किया। उसके बाद तो अंग्रेजों ने भारत को न सिर्फ गुलाम बनाया, बल्कि बुरी तरह लूटा | अपने कपड़ा उद्योग को बचाने के लिए उन्होंने भारत के बुनकरों को पूरी तरह बर्बाद कर दिया। कारीगरों के हुनर के लिए मशहूर भारत सिर्फ कच्चे माल की आपूर्ति तक सीमित हो गया। और, उसकी कीमत भी अब सोने के सिक्कों में नहीं आ रही थी। उल्टे किसानों से जबरन वसूले गए लगान से अंग्रेज सरकार खेती की उपज और खनिज सस्ते में खरीदकर बाहर ऊंचे दाम पर बेचती थी। इसी का असर था कि एंगस मैडिसन के अनुसार 1700 में जो भारत दुनिया की जीडीपी में एक तिहाई का हिस्सेदार था, अंग्रेजों के जाने के बाद 1950 में उसकी हिस्सेदारी मात्र तीन प्रतिशत रह गई थी। तब से अब तक यह सवाल लगातार पूछा जाता है कि अगर भारत सोने की चिड़िया था, तो हम इतने गरीब क्यों हैं और कब तक रहेंगे?

यह सवाल इसलिए भी लगातार तेज हो रहा है कि विश्व युद्ध से तबाह हुए जापान ने और उसके बाद भारत के ही साथ आजाद हुए चीन ने औद्योगिक उत्पादन के भरोसे पूरी दुनिया में धूम मचा दी। सवाल उठ रहे थे कि जब चीन कर सकता है, तो भारत क्यों नहीं ? 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से भारत की आर्थिक प्रगति की रफ्तार भी खासी तेज हुई है और शोध एवं विकास के काम में और सॉफ्टवेयर या प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में भारत की महारत मानी जाती है। मगर रोजगार के मोर्चे पर अभी बहुत कुछ होने की जरूरत है। फिर, जैसे- जैसे मशीनीकरण तेज हो रहा है, रोबोटबएआई इंसानों की जगह ले रहे हैं, नए सवाल भी खड़े हो रहे हैं। क्या भारत विनिर्माण में फिर सिक्का जमा सकता है? और, जमा भी ले, तो क्या रोजगार पैदा कर पाएगा?

इसका एक जवाब सामने है। जिस वक्त ये पंक्तियां लिखी जा रही हैं, कर्नाटक के देवनहल्ली में एप्पल के आईफोन कारखाने के साथ तीस हजार कामगारों के रहने की जगह तैयार की जा रही है। एप्पल अकेला नहीं है, दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियां भी भारत में कारोबार फैलाने की तैयारी में हैं। बहुत सी अमेरिकी कंपनियां यहां अपने शोध एवं विकास के सेंटर खोल रही हैं, तो माइक्रोसॉफ्ट, एमेजॉन, गोल्डमैन सैक्स, जेपी मॉर्गन, डिलॉयट, एचएसबीसी, वॉलमार्ट, शेल और बॉश जैसी कंपनियां अपने ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर बना रही हैं। भारत के तमाम शहरों में या उनके आस पास जहां देखिए, वहां क्रेनें ही क्रेनें दिख रही हैं।

फिर इतिहास में झांकें, तो लग सकता है कि मौर्य साम्राज्य की तरह एक बार फिर भारत समृद्धि के नए सफर पर निकलने के साजो-सामान तैयार कर रहा है। मॉर्गन स्टेनली के विशेषज्ञों ने कुछ ही समय पहले कहा है कि अगले दस साल भारत के लिए कुछ वैसे ही तेज विकास का समय होगा, जैसे चीन ने 2007 से 2012 के बीच देखा। अगर ऐसा हुआ, तो फिर सोने की चिड़िया शायद अतीत का किस्सा नहीं रह जाएगा !


Date: 26-05-25

सिंधु जल से पंजाब की भूजल समस्या का स्थायी समाधान

विवेक सिंह ग्रेवाल, ( जल भूविज्ञान,वेल लैब्स )

पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत ने सिंधु जल संधि को स्थगित करने का फैसला किया है, मगर इसके पानी को पाकिस्तान जाने से रोकने के लिए हम अभी बुनियादी ढांचा विकसित नहीं कर सके हैं। ऐसे में, सरकार की तरफ से फौरी, मध्यम अवधि के और दीर्घकालिक उपाय किए जा रहे हैं। तात्कालिक उपाय के तहत जलाशयों की जल ग्रहण क्षमता बढ़ाने के लिए उनसे गाद निकालने पर विचार किया जा रहा है, जबकि मध्यम अवधि के और दीर्घकालिक उपायों के तहत शाहपुरकंडी और उझ जैसी परियोजनाओं को तेजी से पूरा करने या नए बांध बनाने पर भारत विचार कर सकता है।

ये सभी कदम बेशक मददगार हैं, लेकिन इनके सामने कई बड़ी चुनौतियां भी हैं। लिहाजा, यह जरूरी है कि भारत अपने जल – अधिकारों की सुरक्षा के लिए नए तरीके खोजे। ऐसा ही एक उपाय है, पंजाब के भूजल- संचय स्थलों का व्यापक उपयोग। भूजल को जमा करके रखने वाली ये चट्टानी परतें पिछले कुछ दशकों में सूख चुकी हैं, जबकि इनमें पानी की बड़ी मात्रा को जमा करने की क्षमता होती है। हम चाहें, तो इन जल संचय स्थलों को फिर से भरने वाली ‘मैनेज्ड एक्विफर रीचार्ज’ (एमएआर) तकनीकी का इस्तेमाल कर सकते हैं, जिनसे हमारी जल सुरक्षा मजबूत होगी।

सिंधु की तीनों पूर्वी नदियों पर भारत ने एक-एक बांध बनाए हैं- सतलुज पर भाखड़ा, ब्यास पर पोंग और रावी पर रंजीत सागर । ये ऐसी जगहों पर हैं, जहां ये नदियां निचली हिमालय श्रृंखला को पार करती हैं। ये जगहें एकदम संकरी घाटियां बनाती हैं, जहां हम पहाड़ों का उपयोग बड़ी मात्रा में पानी को रोकने के लिए कर सकते हैं, ताकि गहरे जलाशय बन सकें। मगर इन तीनों स्थलों का इस्तेमाल पहले से हो चुका है। भाखड़ा ब्यास प्रबंधन बोर्ड के अनुसार, भारत अभी तीनों पूर्वी नदियों के 25 लाख क्यूबिक मीटर पानी का उपयोग नहीं कर पाता। मानसून के दौरान, पानी का प्रवाह इतना अधिक होता है कि ज्यादातर पानी पाकिस्तान में बह जाता है। फिर, बदलते जलवायु के कारण उत्तर-पश्चिम भारत में सालाना वर्षा में वृद्धि की भी आशंका है। ऐसे में, अपने पानी को बचाने के लिए हमें भंडारण क्षमता बढ़ानी होगी। उधर, पंजाब में भूजल की स्थिति काफी चिंताजनक है। केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) का अनुमान है कि यहां प्राकृतिक तौर पर भूजल की जितनी भरपायी होती है, उससे 165 फीसदी अधिक पानी निकाला जा रहा है। कुछ क्षेत्रों में भूजल स्तर हर साल एक मीटर से भी ज्यादा घट रहा है। पंजाब में जल संचय स्थल काफी गहरे हैं और गहराई वाला ज्यादातर भूजल खारा हो चुका है। यदि कोई प्रवास न किया गया, तो अगले कुछ दशकों में इसके ज्यादातर हिस्सों से खारा पानी ही बाहर निकलेगा । सीजीडब्ल्यूबी के मुताबिक, पंजाब में लगभग पांच करोड़ क्यूबिक मीटर जल संचय स्थल उपलब्ध हैं, जिनमें भूजल को फिर से भरा जा सकता है। ऐसे में तीनों पूर्वी नदियों के अतिरिक्त पानी एमएआर तकनीक से पंजाब के इन जलभृतों में पहुंचाया जा सकता है। अमेरिका के टक्सन (एरिजोना) में ऐसा किया जा चुका है। वहां 1950 के दशक के आस-पास बोरवेल के आने के बाद भूजल स्तर में तेज गिरावट हुई, नतीजतन 1990 के दशक में कोलोराडो नदी से पानी भरना शुरू किया गया, जिसका उसे काफी फायदा मिला।

सिंचाई के लिए बाढ़ के पानी का भूमिगत स्थानांतरण भी एक प्रकार की एमएआर तकनीक ही है, जिसका उत्तर प्रदेश में सफलतापूर्वक परीक्षण अंतरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान द्वारा किया गया है। इसके तीन चरण हैं। पहला, उन जगहों की पहचान करना, जहां अच्छे जल भंडारण के स्थल हों, मिट्टी में पानी थामने की क्षमता अधिक हो, नजदीक में नहर हो और पानी की गुणवत्ता अच्छी हो। दूसरा, छोटे तालाबों का निर्माण, जहां पानी को फिर से रिचार्ज करने वाले कुएं हों और उनमें पानी को छानने वाले अच्छे सिस्टम लगे हों और तीसरा, मानसून के दौरान बाढ़ के पानी को मोड़ना । इस तरह की व्यवस्था मध्य पंजाब में की जा सकती है। कहने का मतलब यही है कि हम सिंधु जल समझौते को बेशक स्थगित रखें, लेकिन भारतीय हिस्से के पानी का पूरा उपयोग भी करें। पंजाब से इसकी शुरुआत की जा सकती है।