26-03-2025 (Important News Clippings)

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26 Mar 2025
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Date:26-03-25

हमें ट्रेड का वैकल्पिक रोडमैप तैयार करना होगा

संपादकीय

भले ही ट्रम्प की जैसे को तैसा टैरिफ नीति के पहले चरण की त्रि- दिवसीय भारत-अमेरिकी टैरिफ वार्ता बुधवार से शुरू हो रही हो, भारत को वैकल्पिक रोडमैप तैयार करना होगा। तीन दिन पहले ट्रम्प ने भारत का नाम लेकर कहा कि वह 2 अप्रैल से नए नियम के लिए तैयार रहे। यह भारत के लिए संकट की घड़ी होगी। भारत का सबसे बड़ा व्यापार अमेरिका से ही है, और हमारे हित में है। इसके बरअक्स चीन से भी लगभग उतना ही व्यापार है लेकिन उसमें हम खरीदते ज्यादा हैं बेचते कम, यानी भारत के लिए उपयुक्त नहीं। ऐसे में अगर हम अमेरिका को तेवर दिखाने वाला संदेश देते हुए चीन के साथ व्यापार की पेंग बढ़ाएं और डोकलम झड़प के बाद लगाए कुछ कड़े नियमों को शिथिल करें तो संभव है कि चीन भी बड़ी खपत वाले अपने ग्राहक दोस्त के लिए उदारता दिखाए। सैकड़ों चीनी उत्पाद भारत में निर्माण लागत से सस्ते हैं, लिहाजा हमारे उपभोक्ताओं को लाभ होगा। लेकिन इसके दो बड़े परिणाम होंगे। भारत का एमएसएमई सेक्टर बैठ जाएगा जिससे बेरोजगारी और मुंह फैला लेगी। यही खतरा अमेरिकी कृषि उत्पादों को नई दर से आयात करने पर भी है लेकिन चीनी माल अपनी खराब क्वालिटी के लिए बदनाम है। साथ ही आज के सूक्ष्म टेक्नोलोजी के दौर में प्रोडक्ट्स के जरिए सुरक्षा भी खतरे में आ सकती है।


Date:26-03-25

चुनावों में धार्मिक प्रतीक हमेशा ही कारगर नहीं होते

संजय कुमार, ( प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार )

बड़ी संख्या में भारतीय अपनी समृद्ध धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत को संजोए हुए हैं। खासतौर पर पिछले एक दशक में इसके प्रति भारतीयों में अधिक उत्साह का संचार हुआ है। यह भावना सामाजिक और सांस्कृतिक एकरूपता का एक जरूरी साधन है, लेकिन राजनीतिक लामबंदी के साधन के रूप भी क्या धार्मिक-सांस्कृतिक गौरव कारगर हो सकता है?

राजनीतिक दल कई फैक्टर्स के बूते चुनाव जीतते हैं। जैसे सरकार द्वारा किए गए काम, नेतृत्व की गुणवत्ता और उनके सामाजिक और राजनीतिक गठबंधन। लेकिन यह जरूरी नहीं कि वे केवल धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत का हवाला देकर ही चुनाव जीत जाएं। साल 2014 में भाजपा सत्ता में आई क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को खारिज करने के बाद लोगों को भाजपा में उम्मीद दिखी। भाजपा 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बड़े अंतर से जनादेश जीतने में सफल रही। हालांकि जरूरी नहीं कि ये जीतें सांस्कृतिक-धार्मिक गौरव का हवाला देकर ही मिली हों।

2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने चुनावी लाभ को बढ़ाने के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक गौरव को भुनाने की कोशिश की, क्योंकि यह अयोध्या में बहुप्रतीक्षित राम मंदिर के उद्घाटन की पृष्ठभूमि में हुआ था। इसके बावजूद भाजपा की सीटें 303 से घटकर 240 रह गई। साफ है कि धार्मिक और सांस्कृतिक गौरव का आह्वान उतना फायदा नहीं दे पाया, जितने की भाजपा को उम्मीद थी। हालांकि यूपी विधानसभा चुनाव अभी दो साल दूर है, लेकिन भाजपा ने प्रयागराज में संपन्न महाकुम्भ से चुनावी लाभ बढ़ाने की दिशा में पहले ही काम करना शुरू कर दिया है।

राम मंदिर वर्षों से विवाद का विषय रहा था और भाजपा ने इसे चुनावी मुद्दा बना रखा था। 22 जनवरी, 2024 को राम मंदिर का उद्घाटन करके वादा पूरा कर लिया गया। सरकार के मुखिया ने कार्यक्रम का उद्घाटन किया और सरकार सक्रिय रूप से इसका हिस्सा बनी। कुछ राज्यों में स्कूलों की छुट्टी की घोषणा भी की गई। कार्यक्रम को लाइवस्ट्रीम करके भक्तों तक पहुंचाया गया। आयोजन में 7000 से ज्यादा गणमान्यजन आमंत्रित किए गए और अतिथियों को विशेष प्रसाद बॉक्स दिए गए। ‘खादी ऑर्गेनिक’ और ‘मंदिर दर्शन’ जैसी कई कंपनियों ने उद्घाटन समारोह से मिली मिठाइयां बेचने का दावा भी किया, हालांकि राम मंदिर ट्रस्ट (श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र) ने दावा किया कि ऐसा कोई भी संगठन उनसे नहीं जुड़ा है।

भाजपा को उम्मीद थी कि राम मंदिर के उद्घाटन से उसे बड़ा चुनावी लाभ मिलेगा क्योंकि इससे मतदाताओं के बीच उसकी मजबूत हिंदू पहचान बनी थी, खासकर यूपी और हिंदी पट्टी के राज्यों में। लेकिन लोकसभा चुनाव में उसे यूपी, हरियाणा और राजस्थान में झटका लगा और काफी नुकसान हुआ। यहां तक कि भाजपा फैजाबाद लोकसभा सीट भी हार गई, जिसके तहत अयोध्या शहर आता है। इसे राम मंदिर उद्घाटन के बाद भाजपा की हिंदू लामबंदी के लिए बड़ा झटका माना गया। लेकिन भाजपा कार्यकर्ताओं ने इसके बाद कड़ी मेहनत की और हरियाणा, महाराष्ट्र और हाल ही में दिल्ली में शानदार जीत हासिल करके लोकसभा चुनावों की हार की भरपाई कर ली। हालांकि इनमें से किसी भी राज्य में भाजपा ने मतदाताओं को एकजुट करने के लिए हिंदू लामबंदी को साधन नहीं बनाया।

प्रयागराज में हाल ही में संपन्न हुए कुम्भ मेले में सरकार ने एक बार फिर धार्मिक भावनाओं को बढ़ाने की कोशिश की। यह मेला 13 जनवरी से 26 फरवरी तक चला। प्रधानमंत्री ने लोगों से इस आयोजन में भाग लेने की अपील की। लेकिन विशेष व्यवस्थाओं के बावजूद दुर्घटनाओं में कुछ लोगों की जान चली गई।

मेले में सरकार की भागीदारी धार्मिक और आध्यात्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने की उसकी पहल का हिस्सा थी। जो भक्त इस आयोजन का हिस्सा नहीं बन पाए, उनके लिए घर पर ही त्रिवेणी संगम का पवित्र जल मंगवाने का भी प्रबंध था। कुछ ने लोगों को ऑनलाइन डुबकी लगवाकर कमाई की। इन सबने यह दिखाया कि धार्मिक आस्था भौतिक सीमाओं से परे है।

वैसे तो यह एक धार्मिक आयोजन था, लेकिन कुम्भ के बाद भाजपा 2027 में होने वाले यूपी विधानसभा चुनावों के लिए मतदाताओं को जुटाने की पूरी कोशिश कर रही है। हालांकि बड़ी संख्या में लोग इस बड़े धार्मिक आयोजन के लिए भाजपा सरकार को श्रेय देने को तैयार हैं, लेकिन इससे यह सुनिश्चित नहीं होता कि भाजपा इसका विधानसभा चुनावों में लाभ उठा पाएगी। फिलहाल हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं।


Date:26-03-25

केवल 10,000 एफपीओ से नहीं होगा भला

सुरिंदर सूद

सरकार ने 10,000 किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) बनाने की जो बड़ी योजना 2020 में शुरू की और जिसके लिए करीब 6,865 करोड़ रुपये आवंटित किए थे वह कम से कम कागजों में तो पूरी हो गई है। बिहार के खगड़िया में 24 फरवरी को पंजीकृत हुआ ‘आमी-ग्रामविकास एफपीओ’ इस योजना के तहत बना 10,000 वां एफपीओ है।

पहले बने एफपीओ और केंद्र की इस योजना से बाहर एफपीओ मिला लें तो जमीनी काम कर रहे ऐसे ग्रामीण कारोबारी उद्यमों की संख्या 44,000 के पार पहुंच जाएगी। लेकिन उनमें से सबकी हालत अच्छी नहीं है। कई वित्तीय संकट की वजह से अस्तित्व बनाए रखने के लिए जूझ रहे हैं और कुछ केवल कागजों पर मौजूद हैं। फिर भी सफल एफपीओ की संख्या अच्छी- खासी है। अच्छी तरह चल रहे कुछ एफपीओ सालाना 1 करोड़ रुपये से ऊपर कारोबार कर रहे हैं और जितने छोटे स्तर पर ये काम करते हैं उसे देखते हुए इन्हें दूसरे क्षेत्रों के स्टार्टअप के बीच मौजूद यूनिकॉर्न के बराबर माना जा सकता है। इन संगठनों से करीब 30 लाख किसान जुड़े हैं और उनमें 40 फीसदी महिलाएं हैं।

कुछ एफपीओ किसान उत्पादक कंपनी (एफपीसी) भी कहलाते हैं और एफपीओ बनाने का मकसद बड़े स्तर पर उत्पादन के जरिये सदस्य किसानों की आमदनी बढ़ाना और मोलभाव की ताकत बढ़ाना है। किसानों का समूह खेती में इस्तेमाल होने वाला सामान थोक में सस्ते में खरीद लेता है और थोक माल बेचने पर बेहतर भाव भी मिल जाता है। इसलिए हैरत नहीं कि छोटे किसानों के ऐसे संगठन केवल खेती-बाड़ी तक सीमित नहीं हैं। पशुपालन, मत्स्य पालन और अन्य ग्रामीण व्यवसायों से जुड़े लोग भी ऐसा ही कर रहे हैं। एफपीओ को बढ़ावा देने की सरकारी योजना के तहत उन्हें तीन साल के लिए 18 लाख रुपये तक वित्तीय मदद, 2,000 रुपये प्रति सदस्य तक इक्विटी अनुदान और चुनिंदा संस्थानों से परियोजना ऋण के लिए ऋण गारंटी दी जाती है।

किसानों के सामूहिक संगठनों का जन्म 1904 में शुरू हुए सहकारी आंदोलन के साथ माना जा सकता है। किंतु दूध, चीनी और उर्वरक जैसे क्षेत्रों को छोड़कर ज्यादातर सहकारी संगठन सियासी दखल के कारण अपना उद्देश्य पूरा करने में नाकाम रहे । एफपीओ की खास बात है कि ये सहकारी भावना के बावजूद निजी कंपनी की तरह काम करते हैं। वास्तव में कंपनी अधिनियम को 2013 में संशोधित कर एफपीओ को ‘उत्पादक कंपनी’ की तरह गठित करने का प्रावधान शामिल किया गया ताकि वे अपनी उपज को सामूहिक रूप से संभाल सकें। इससे एफपीओ सहकारी समिति के बजाय कंपनियों की तरह काम कर पाए हैं।

एफपीओ अच्छी तरह से चलें तो अपने सदस्य किसानों को कई फायदे पहुंचा सकते हैं। एक साथ काम करने के फायदों के साथ ये संगठन तकनीकी मदद और कौशल प्रशिक्षण देकर तथा वित्त एवं ऋण मुहैया कराकर अपने सदस्यों के कारोबारी उपक्रम की मुनाफा कमाने की क्षमता बढ़ाते हैं । वे अपने सदस्यों को कच्चा माल मुहैया कराने वालों, उत्पाद खरीदने वालों और दूसरे कृषि कारोबारों से सीधे जुड़ने में भी मदद करते हैं। साथ ही वे ढुलाई का खर्च कम करने के लिए लॉजिस्टिक्स सुविधाएं भी सुधारते हैं। वे किसानों को अपनी जानकारी, उपकरण या खुद बनाए बीज एक जगह इकट्ठी करने देते हैं ताकि खेती ज्यादा कुशलता के साथ हो सके, दूसरे किसानों के साथ साझा कर कृषि मशीनरी का अधिक से अधिक इस्तेमाल हो सके और मूल्यवर्द्धन, ब्रांड निर्माण एवं उत्पादों के प्रचार से बेहतर बाजार मिल सके। ऐसे उपायों से आखिरकार लागत घटती है और रिटर्न बढ़ता है, जिससे एफपीओ सदस्यों को अधिक मुनाफा होता है और उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति बेहतर होती है ।

किंतु एफपीओ कुछ बड़ी चुनौतियों से भी घिरे हुए हैं, जिससे उनका प्रदर्शन कमजोर होता है और उनकी प्रगति तथा विकास में रुकावट आती है । व्यापार बढ़ाने के लिए पर्याप्त रकम जुटाना सबसे बड़ी समस्या है।
वित्तीय संस्थाएं आम तौर पर एफपीओ को कर्ज देने से हिचकती हैं क्योंकि उनके पास संपत्ति बहुत कम होती है और जोखिम ज्यादा माना जाता है। एफपीओ ज्यादा इक्विटी भी नहीं जुटा सकते क्योंकि उनके छोटी जोत वाले या भूमिहीन सदस्य ज्यादा रकम चुका नहीं सकते। पेशेवर महारत और प्रबंधन कौशल की कमी दूसरी बड़ी बाधा है। संसाधनों की कमी के कारण वे मार्केटिंग, अकाउंटिंग, कानूनी और दूसरे काम संभालने के लिए पेशेवर और अनुभवी प्रबंधन कर्मचारी नहीं रख पाते। साथ ही वे अपने कारोबार को उन्नत बनाने, विस्तार करने और विविधता लाने के लिए कारगर रणनीतियां भी नहीं बना पाते । व्यावसायिक आपदाओं से निपटने के लिए जोखिम घटाने और उत्पादन एवं वित्तीय नुकसान से अपनी सुरक्षा करने के रास्ते भी उनके पास नहीं होते ।

कामयाब होने के लिए एफपीओ को पेशेवर तरीके से तैयार कारोबारी मॉडल की जरूरत है, जिसमें प्रसंस्करण, पैकेजिंग और गुणवत्ता सुधार सहित विभिन्न तरीकों से मुनाफा बढ़ाने की गुंजाइश हो । एफपीओ संभालने वालों का नेतृत्व और प्रशास कौशल सुधारकर क्षमता बनाने की भी जरूरत है। एफपीओ लंबे समय तक टिकें और वृद्धि करें, इसके लिए उत्पादन, गुणवत्ता नियंत्रण, ब्रांड निर्माण, उत्पाद के प्रचार तथा मार्केटिंग में आधुनिक तकनीकों खास तौर पर डिजिटल तकनीकों का अधिक से अधिक इस्तेमाल जरूरी है। संसाधनों की किल्लत वाले ग्रामीण इलाकों की बेहतरी के लिए सामूहिकता को संस्थागत व्यवस्था बनाना कितना जरूरी है यह देखते हुए केवल 10,000 एफपीओ तक रुकना ठीक नहीं है। आंकड़ा बढ़ते रहना चाहिए।


Date:26-03-25

बर्दाश्त की हद

संपादकीय

स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा के खिलाफ कथित रूप से अपमानजनक टिप्पणी करने के आरोपों के बाद मुंबई पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज की। मुंबई के खार इलाके के हैबिटेड कॉमेडी क्लब में इंडियाज गॉट लैटेंट में यह कार्यक्रम शूट किया गया था। महाराष्ट्र के उप- मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे पर पॉपुलर गाने की पैरोडी बना कर गद्दार कटाक्ष करने के आरोपों के बाद शिवसैनिकों ने तोड़फोड़ और हंगामा किया। 19 शिवसैनिकों पर नामजद और 15-20 अज्ञात के खिलाफ भी प्राथमिकी दर्ज की गई | कामरा ने बयान जारी कर तोड़-फोड़ की निंदा की तथा कहा कि वह शिंदे पर की टिप्पणी पर माफी नहीं मांगेंगे। यू-ट्यूब पर पोस्ट की गई 36 वर्षीय कामरा की टिप्पणी छत्तीस लाख बार से ज्यादा देखी जा चुकी है और सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है। बयान में कामरा ने इस टिप्पणी के लिए कहा है कि यह पहले अजित पवार कह चुके हैं। मैं भीड़ से नहीं डरता और पलंग के नीचे छिप कर मामला शांत होने का इंतजार नहीं करूंगा। कॉमेडियन ने तंज करते हुए लिखा, कॉमेडियन के कहे शब्दों के लिए किसी जगह को नुकसान पहुंचाना बिल्कुल वैसे ही है, जैसे आपको चिकन नहीं परोसा जाए तो आप टमाटर का ट्रक पलट दें। कामरा ने मीडिया को भी निशाना बनाते हुए टिप्पणी की है, ईमानदारी से इस तमाशे की रिपोर्टिंग करें, याद रखें, प्रेस की आजादी के मामले में भारत 159वें स्थान पर है। शिंदे ने व्यंग्य की सीमा तय करने की बात कहते हुए इसे किसी के खिलाफ बोलने की सुपारी लेने जैसा कहा। पैरोडी में किसी विशेष को संबोधित नहीं किया गया है। इसलिए इस कदर त्योरियां चढ़ाना जज्ब नहीं होता। सत्ता और राजनीतिज्ञों की हालिया पौध में बर्दाश्त इस कदर खत्म हो चुकी है कि आलोचना, व्यंग्य या मसखरी बर्दाश्त करने को राजी नहीं हैं। याद रखना होगा कि विरोधियों या आलोचकों की जुबान पर ताले नहीं जड़े जा सकते, जनता का एक हिस्सा उनके पक्ष में रहता है। प्रेस या अभिव्यक्ति की आजादी पर बखान करना आसान है, जिसे लेकर अक्सर बातें बनाई जाती हैं। मगर यह रचनात्मक आपातकाल सरीखा माहौल रचा जा रहा है। जहां बोलने, लिखने, गाने, अभिनय पर नजर रखी जा रही है। जो बात या विधा अखरती है, उसके खिलाफ शालीनतापूर्वक न्यायिक और कागजी कार्रवाई करने को सरकारी तंत्र स्वतंत्र है। विरोधस्वरूप उपद्रव या कानून को हाथ लेना भी सरकार विरोधी काम ठहराया जा सकता है।


Date:26-03-25

न्यायिक आस्था का प्रश्न

संपादकीय

दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के आवास से आग लगने के उपरांत जले हुए नोटों की कथित बारामदगी का मामला तूल पकड़ लिया है। आग उनके घर के स्टोर में 14 मार्च को लगी आग थी, लेकिन मामला सामने आया एक हफ्ते बाद जब जले हुए नोटों का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ । इस विलंब को लेकर के कयास यह लगाया गया कि मामले को दबाने की कोशिश की गई, लेकिन मीडिया के कारण दबा नहीं और इस मामले में दबाव में ही सही शीर्ष अदालत को सक्रिय उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने जस्टिस यशवंत वर्मा को कार्य मुक्त कर दिया और शीर्ष अदालत से मामले की जांच की संस्तुति की जिसने । जिसने उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की एक समिति नियुक्त कर दी जिसमें से दो मुख्य न्यायाधीश हैं। अब यह समिति जांच में क्या पाती है और इस पर सर्वोच्च न्यायालय या केंद्र सरकार की ओर से क्या कार्रवाई की जाती है यह तो भविष्य का मामला है। लेकिन इस समय इलाहाबाद उच्च न्यायालय की बार एसोसिएशन ने जो रणनीति अपनाई है। उसने एक दूसरी तरह की चिंता पैदा कर दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने जस्टिस वर्मा का स्थानांतरण इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लिए कर दिया है, लेकिन यहां की बार एसोसिएशन ने स्थानांतरण के प्रति कड़ा विरोध किया और यहां तक कह दिया कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय डंपिंग ग्राउंड नहीं है। बार एसोसिएशन ने यह कहकर सीधे सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को ही चुनौती दे दी है और दूसरे उसका कदम यह बताता है कि उसने किसी विधिक जांच के निष्कर्ष सामने आने से पहले ही जस्टिस वर्मा को अपराधी मान लिया है। तकनीकी रूप से बार एसोसिएशन की निंदा या आलोचना की जा सकती है। लेकिन बार संगठन न्याय की भावना और न्याय व्यवस्था के प्रति जनआस्था को अभिव्यक्ति दे रही है। जो न्यायाधीश सही या गलत का निर्णय देता है, भ्रष्ट पद्धति, भ्रष्ट व्यक्ति और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने और उसे दंडित करने की भूमिका निभाता है, स्वयं वही भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाए। जस्टिस वर्मा नोटों की बरामदगी के मामले में दोषी पाए जाते हैं या नहीं लेकिन आम जनभावना ने उन्हें दोषी मान लिया है और समूचे न्याय तंत्र को ही कठघरे खड़ा कर दिया है। इस मामले का अंत इस तरह होना चाहिए कि न्याय व्यवस्था के प्रति जन अवस्था मजबूत हो न की और अधिक क्षरित हो।


Date:26-03-25

एआई का इंसानी मिजाज न बने मुसीबत

हरजिंदर, ( वरिष्ठ पत्रकार )

हम सब भौचक हैं। असंभव सी दिखने वाली मंजिल अगर एक दिन अचानक हमारा दरवाजा खटखटा दे, तो हम समझ ही नहीं पाएंगे की अब इसका क्या किया जाए? इससे कैसा बर्ताव किया जाए? एलन मस्क की कंपनी एक्सएआई के ग्रोक 3 ने हमें महज दो- तीन दिनों में उसी मोड़ पर पहुंचा दिया है। बाजार में आते ही ग्रोक ने जिस तरह 5 जवाब दिए और जो धमाके किए, उन पर बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। इसने बहुत सारे विवादों को भी जन्म दिया है, जो ग्रोक के लिए इश्तिहार का काम कर रहे हैं। मगर इन सबसे आगे जाकर पहले यह देखना जरूरी है कि यह काम किस तरह से करता है?

लार्ज लैंग्वेज मॉडल के रूप में ग्रोक की मूल ट्रेनिंग यह है कि अगला जिस भाषा में सवाल पूछे, उसे उसी भाषा में जवाब दो। अंग्रेजी में सवाल हो, जवाब अंग्रेजी में, हिंदी में सवाल हो, तो जवाब हिंदी में और रोमन हिंदी में सवाल हो, तो जवाब भी रोमन हिंदी में। मगर उसका जवाब देने का यह रवैया भाषा से बहुत आगे जाता है। मसलन, अगर आप उससे बुद्धिमानी भरा कोई सवाल पूछेंगे, तो वह बहुत ही बुद्धिमानी भरा जवाब देगा। आप चुहल करेंगे, तो वह आपसे बड़ा मजाक कर देगा। कुछ ही ग्रोक ने बहुत सारे तथ्य दिए हैं, बहुत सारी फेक न्यूज खंडन उन्हीं की शैली में किया है। सवाल पूछने वालों के माखौल उड़ाए हैं, यहां तक कि ऐसी गालियां भी दीं, जो आमतौर पर हमारे आस-पास हर जगह सुनी जाती हैं, साथ ही हम उनको असभ्य और अश्लील भी मानते हैं। वैसे, यही वह चीज है, जिसको लेकर ग्रोक ज्यादा चर्चा में है।

ग्रोक पर आगे की चर्चा से पहले जरा यह भी देख लें। कि अब तक हमारे पास कृत्रिम बुद्धिमत्ता के जो मंच थे, वे किस सोच से काम करते थे और ग्रोक उनसे किस मामले में अलग है? इनमें सबसे पहले आने वाला टीपीटी है। गूगल का जेमिनी है, चीन का डीपसीक है, परप्लेक्सिटी है। ग्रोक के मुकाबले देखें, तो ये सब किसी भद्रलोक के वासी दिखते हैं। उन्हें नैतिकता की स्थापित मान्यताओं पर खरा उतरने के हिसाब से तैयार किया गया है। अंग्रेजी भाषा में कहें, तो उन्हें ऐसे जवाब देने के लिए बनाया गया है, जो ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ हों, इसलिए आप कुछ भी पूछें, वे धीर गंभीर ही दिखाई देते हैं। उनके अपने पूर्वाग्रह हो सकते हैं, अपनी सीमाएं हो सकती हैं, लेकिन किसी विवाद के चक्कर में वे नहीं पड़ते। गूगल का का जेमिनी तो विवादास्पद सवालों पर ही साध जाता है। यह भी पाया गया है कि कई बार ये अलग-अलग देश में ही सवाल के अलग- अलग जवाब देते हैं। जैसा देश, वैसा जवाब। पता नहीं, यह पचड़ों से बचने के लिए किया गया है या इसके पीछे की सोच ही यही थी ?

मगर ग्रोक 3 पॉलिटिकली करेक्ट होने के फेर में नहीं पड़ता। यह बात इसे जारी करते समय एक्सएआई ने ही साफ कर दी थी। उसने यह स्पष्ट तौर पर बता दिया था कि नया ग्रोक विद्रोही स्वभाव का है, इसलिए इसके जवाब भी वैसे ही होंगे। साथ ही, यह चेतावनी नत्थी कर दी गई थी कि जिनमें हास्य-बोध नहीं है, वे कृपया इससे दूर ही रहें। शुरू में यह भी कहा गया कि इसकी भाषा वही है, जो एलन मस्क और डोनाल्ड ट्रंप की है। इसमें उन्हीं की तरह का बड़बोलापन है और उदंडता भी। बहुत से सवालों के जवाब में ग्रोक वाचाल दिखाई देता है। उसकी भाषा अक्सर सड़क छाप
हो जाती है और उसे भद्दी गालियां देने से भी परहेज नहीं है। बेशक, यह सब इस पर निर्भर करता है कि पूछने वाले ने क्या पूछा है और किस तरह से पूछा है? उसके कई जवाबों से ऐसा भी लगता है कि वह सवाल पूछने वाले की नीयत भांप लेता है।

एक एआई से हम क्या उम्मीद करते हैं? या एआई को तैयार करते समय क्या लक्ष्य रखे गए थे? सबसे पहले तो हम चाहते हैं कि एआई हमारी तरह ही सोचे- समझे और व्यवहार करे। और फिर, इन सभी कामों में हमें बहुत पीछे छोड़ दे। यह तो नहीं कह सकते कि ग्रो-3 में हमने उस मंजिल को पा लिया है, लेकिन यह मंजिल कैसी होगी, ग्रोक ने हमें उसकी एक झलक जरूर दिखा दी है।

जब बात अक्ल की है, तो ग्रोक यह साबित करने में ન ખુદ जाता है कि चंद रोज पहले तक हम जिसे धरती का सबसे बुद्धिमान प्राणी मानते थे, वह उससे कहीं ज्यादा अक्लमंद है। वह यह साबित करता दिखाई देता है कि वह हमसे कहीं ज्यादा चुहलबाज है। | कुछ अन्य मौकों पर उसके जवाब जाहिर कर देते हैं कि वह ज्यादा उदंड और गालीबाज है। जवाबों में उसके दंभ को भी आसानी से देखा जा सकता है। हो सकता है कि एआई का कोई अगला संस्करण धोखेबाजी व षड्यंत्र रचने में भी सबको पछाड़ने की कोशिश करे।

यह ठीक है कि कोई एआई कैसे काम करेगा, यह ज्यादातर इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी प्रोग्रामिंग कैसे की जाती है? मगर एक हद के बाद उसे इस तरह से भी प्रोग्राम किया जाता है कि नई चीजों को वह खुद ही सीखे, जिससे समय के साथ उसके ज्ञान और उसकी क्षमताओं का विस्तार भी होता रहे। यही वह मोड़ है, जहां से हमारी कई समस्याएं शुरू हो सकती हैं।”

हम यह तो चाहते हैं कि एआई बिल्कुल हमारी ही तरह हो, लेकिन उसके साथ ही एक सदिच्छा भी जुड़ जाती है कि हमारी जो बुराइयां हैं, वे उसमें न हों। हम यह समझते हैं कि अगर बुराइयों में वह हमसे बीस हुआ, तब क्या होगा? अगर वह हमारे संचित ज्ञान से, हमारी किताबों से, हमारे साहित्य से, हमारी भाषा से और हमारे नैतिकता-बोध के विरोधाभासों से खुद सीखने निकल पड़ा, तो उसके खतरे भी बहुत त तरह के होंगे, इसीलिए बहुत से विचारक एआई विकसित करने के एथिक्स (नैतिकता की बात करते हैं। पता नहीं, रातोंरात आई विकसित करके उसका व्यावसायिक लाभ उठाने की कोशिश में जुटी कंपनियां नैतिकता के बारे में कुछ सोचती भी हैं या नहीं?

अगर नहीं सोचा गया, तो क्या होगा, इसकी एक झलक हम ग्रोक 3 की भाषा और उसके बर्ताव में देख सकते हैं।


Date:26-03-25

खेल प्रशासन में बढ़नी चाहिए महिलाओं की हिस्सेदारी

शारदा उगरा, ( वरिष्ठ पत्रकार )

अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) के अध्यक्ष पद पर क्रिस्टी कोवेंट्री का चयन कई अर्थों में अहम है। इस चयन में महिलाएं खेल की हरेक विधा एथलीट, कोच, अधिकारी, प्रबंधक, प्रशासक, तकनीकी अधिकारी आदि में अपने लिए एक ऐसी जगह देख सकती है, जिसको मिटाया नहीं जा सकता। दशकों तक महिलाओं को खेल के मैदान से और हाल-फिलहाल तक खेल बोर्डरूम (जहां खेल रणनीति बनाई जाती है) से दूर रखा जाता था। मगर अब ऐसा नहीं है।

अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) में पहली बार 1981 में महिलाओं को शामिल किया गया था। 1992 में बोर्ड तक पहुंचने वाली पहली महिला थीं, अमेरिकी अनीता डेफ्रैंट्ज । आज आईओसी ग्रीष्मकालीन ओलंपिक के 30 अंतरराष्ट्रीय महासंघों में से केवल दो की मुखिया महिला हैं। इसके अलावा, सहयोगी सदस्य के रूप में ओलंपिक से जुड़े महासंघों का नेतृत्व करने वाली दो अन्य महिलाएं भी हैं- स्कवैश फेडरेशन में जेना वूलरिज और स्की पर्वतारोहण महासंघ में रेगुला मायर ऐसे में, कोवेंट्री किसी अंतरराष्ट्रीय खेल संगठन के शीर्ष पर पहुंचने वाली सिर्फ पांचवीं महिला नहीं हैं, बल्कि वह अब एक ऐसे संगठन का नेतृत्व करने जा रही हैं, जिसके सदस्यों की संख्या संयुक्त राष्ट्र (193 सदस्य ) से भी अधिक (206) है।

कोवेंट्री के चयन को लेकर जमकर ऑनलाइन टीका-टिप्पणी की गई, विशेषकर परदे के पीछे की गई ‘राजनीति’ को लेकर । इसका नतीजा यह हुआ कि विश्व एथलेक्टिस के प्रमुख को को महज आठ वोट मिले। अफ्रीका की इस 41 वर्षीया महिला ने चुनाव में सभी सात पुरुष प्रतिद्वंद्वियों को बड़े अंतर से हराया है। इसलिए, असंतुष्टों ने कीचड़ उछालने का काम किया। उनका उद्देश्य कोवेंट्री की साख को धूमिल करना था। जबकि, कोवेंट्री ने तैराकी में सात पदक (दो स्वर्ण, चार रजत और एक कांस्य) जीते हैं और 2012 में शुरू आईओसी एथलीट आयोग का उनका आठ साल का कार्यकाल भी महत्वपूर्ण माना जाता है। अभी वह 15 सदस्यीय ताकतवर आईओसी कार्यकारी बोर्ड की छह महिला सदस्यों में एक हैं।

अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि थॉमस बाक आईओसी अध्यक्षों में ‘सबसे अधिक राजनीतिक’ हैं, लेकिन उनके कार्यकाल की पहचान विश्व के ‘प्रथम देशों’ के नेटवर्क को तोड़ने के रूप में होगी, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण लैंगिक समानता का प्रयास करना है। रियो ओलंपिक के बाद मार्च 2017 में आईओसी ने ओलंपिक में लैंगिक समानता की स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक लैंगिक समानता समीक्षा परियोजना शुरू की थी। इसकी रिपोर्ट में 25 सिफारिशें की गई थीं, जिनमें शासन संबंधी सिफारिशों में दो महत्वपूर्ण थीं। पहली, ‘सामान्य भूमिका के साथ- साथ कार्यकारी बोर्ड में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के उपाय करना’। दूसरी, यह सुनिश्चित करना कि आईओसी की चुनाव प्रक्रिया विविध व संतुलित सदस्यता के लिए प्रतिबद्धता’ जताए । 2023 में मुंबई आईओसी सत्र के बाद इस संगठन में महिला सदस्यों की संख्या कुल 107 में 44 की गई। अब 2025 में इनकी संख्या बढ़कर 47 हो गई है, जबकि कुल 110 सदस्यों में पुरुष सदस्यों की संख्या 63 है ।

भारतीय ओलंपिक के लिहाज से इसकी किस तरह व्याख्या की जाए ? हां, हमारे पास पीटी उषा के रूप में महिला आईओए अध्यक्ष हैं, पर यह देखते हुए कि वह सीईओ की नियुक्ति को लेकर कार्यकारी परिषद से जूझ रही हैं, आईओसी से तुलना का कोई मतलब नहीं। इसी तरह, आईओए का पहला एथलीट आयोग एथलीटों के हित में कितना काम कर पा रहा, यह हमने महिला पहलवानों के मामले में देखा है। बेशक, सभी खिलाड़ी अच्छे प्रशासक नहीं साबित होते, पर अच्छे खेल प्रशासक खिलाड़ियों का भला चाहते हैं। ऐसे प्रशासक आईओए व हमारे राष्ट्रीय महासंघों में आसानी से नहीं मिलते। यही कारण है कि किसी भी समिति में 40 फीसदी खिलाड़ियों को शामिल करने संबंधी सोच परवान नहीं चढ़ पाती। निस्संदेह, आईओसी पूर्णता से दूर है, पर बीते ढाई दशकों में हमने उसमें कई बदलाव देखे हैं। एक सदी से भी ज्यादा समय तक पुरुषों के वर्चस्व वाले इस संगठन पर अब एक महिला का अध्यक्ष चुना जाना इसी की कड़ी है।