26-02-2018 (Important News Clippings)

Afeias
26 Feb 2018
A+ A-

To Download Click Here.


Date:26-02-18

Vote on this

Education can be a great leveller but only if government schools deliver it better

TOI Editorials

The district-wise data from the National Achievement Survey (NAS) 2017 is a wake-up call to central and state governments. It indicates that education in government schools is failing to equip a majority of children for the academic rigours of higher education or the confidence to acquire skills and pursue gainful employment. And yet the data also reveals aspirations at work, of girls outshining boys, rural schools bettering urban ones, OBCs outperforming general category, and Dalit students doing better than others in primary classes in some pockets.

Although experts say those with resources have migrated to private schools leaving mostly OBC, Dalit, Adivasi and poor students in government schools, this is also a great window of opportunity for weaker sections of society. This urge to learn and venture outside traditional occupations makes it incumbent upon governments to not let down first generation learners. Unfortunately, while there has been a great emphasis on assessments in this past decade and we now have a wealth of data from these studies, it all points to declining learning outcomes.

NAS 2017 shows Class III, V and VII students tested on subjects like math, language and sciences suffer declining learning outcomes, with higher classes scoring fewer marks. Weaknesses in primary education are getting amplified as students move to higher classes. Clearly, more teachers are needed, they need better training, and curriculum and study material must converge with capacities of teachers and students. But is any of this being done? The time for assessment is over; implementation must start.

The elementary decision to crack down on cheating forced 10 lakh UP board students to drop out of Class X and XII exams. But stopping mass cheating was the easier part. Such mass dropouts underline a crying need to improve teaching and learning systems, especially as technological disruption through automation and robotics is poised to eliminate many lakh unskilled jobs. We also have the likes of 16-year-old Harshita Arora from Saharanpur, UP, who left school to pursue alternative computer education and developed a popular mobile app monitoring cryptocurrency price fluctuations. Her story suggests all the potential that can be unlocked if the education system is rapidly upgraded. If funding, institutional will, and trained teachers can plug into aspirations, results will show. Education, like livelihoods, must become an election issue.


Date:25-02-18

इंद्रधनुष का क्या हुआ

पी. चिदंबरम

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक वांछित हैं या अवांछित? ऐसा लगता है कि जवाब के लिए तनिक इंतजार करना पड़ेगा। जब बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ तब से उनके योगदान को व्यापक तौर पर स्वीकार किया जाता रहा है। नई शाखाएं खोलने के अभियान की अगुआई- खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने की। आज सभी बैंकों की, कुल मिलाकर 1,16,394 शाखाएं हैं। इनमें से 33,864 शाखाएं ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने कृषिऋण का विस्तार किया। अल्पावधि कृषिऋण (फसली ऋण) की राशि 2017-18 में 6,22,685 करोड़ रु. बैठेगी। प्राथमिकता वाले क्षेत्र को कर्ज देने की अवधारणा में सरकारी बैंकों ने अग्रदूत का काम किया, वरना कई क्षेत्र बैंक ऋण से वंचित रह जाते। अत्यंत गरीबों को रियायती ब्याज दर पर ऋण देने की योजना को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने ही क्रियान्वित किया।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने स्त्रियों के स्वयं सहायता समूहों को कर्ज दिए। इन्हीं बैंकों ने शिक्षा ऋण दिए। नवीनतम जानकारी के मुताबिक, इन दो श्रेणियों में बकाया रकम क्रमश: 61,600 करोड़ रु. और 70,400 करोड़ रु. थी। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने ग्रामीण आधारभूत ढांचा विकास कोष के जरिए ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के लिए धन मुहैया कराया। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने वित्तीय समावेशन में अग्रणी भूमिका निभाई। जब यूपीए सरकार विदा हुई, तो 24.3 करोड़ ‘नो फ्रिल’ नए खाते थे। राजग सरकार का दावा है कि 31.11 करोड़ जन धन खाते खोले गए।

न स्याह न सफेद

बैंकिंग क्षेत्र को लेकर भारत की नीति ने धीरे-धीरे, कई वर्षों में आकार लिया। सार्वजनिक क्षेत्र के एकमात्र बैंक (भारतीय स्टेट बैंक) से लेकर राष्ट्रीयकरण और प्रतिस्पर्धा से लेकर सरकारी स्वामित्व घटाने (जो कि पचपन फीसद से कम न हो), फिर निजी क्षेत्र के बैंकों को अधिक लाइसेंस देने से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र के एक बैंक के निजीकरण तक (यूटीआइ बैंक बदल कर एक्सिस बैंक हो गया), बैंकिंग नीति ने एक चक्र पूरा कर लिया है। निजी बैंकों से तुलना करें, तो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अनेक वित्तीय अनुपात, बाजार पूंजीकरण और प्रबंध क्षमता में कमतर ठहरेंगे। फिर भी, यह व्यापक धारणा है, खासकर मध्यवर्ग के लोगों और गरीबों में- और इसे गलत नहीं कहा जा सकता- कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक रहने चाहिए और उन्हें संभाला जाना चाहिए। कई नमूना सर्वे बताते हैं कि अधिकतर लोग नहीं चाहते कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण हो। पीएनबी घोटाले ने व्यापक बैंकिंग सुधार के एक अंग के तौर पर निजीकरण की मांग को हवा दे दी है। पर यह एक सामान्य निष्कर्ष है कि घोटाले का स्वामित्व से कोई लेना-देना नहीं है। इससे काफी बड़े घोटाले अनेक देशों में निजी क्षेत्र के बैंकों में हो चुके हैं। मसलन, लेहमन ब्रदर्स और रॉयल बैंक ऑफ स्काटलैंड तथा मेरिल लिंच जैसे बैंक, घोटालों की वजह से ही धराशायी हो गए।

नियामकीय नाकामी

भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में कई स्तरों पर निगरानी रखी जाती है, जिसकी शुरुआत निदेशकों के बोर्ड से होती है। इसके बाद हैं रिजर्व बैंक (नियामक सह निरीक्षक), वित्तीय सेवा विभाग और राजग सरकार के समय वजूद में आया बैंक बोर्ड ब्यूरो। बैंक अधिकारियों के अखिल भारतीय संघ ने बताया है कि सार्वजनिक क्षेत्र की हर बैंक-शाखा ‘सात तरह के ऑडिट के तहत काम करती है – आंतरिक ऑडिट, समवर्ती ऑडिट, आकस्मिक ऑडिट, रिकवरी ऑडिट, वैधानिक ऑडिट, बाहरी ऑडिट और स्टॉक ऑडिट।’ ऑडिटरों में नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक द्वारा सूचीबद्ध की गई फर्में और चार्टर्ड लेखाकारों की ‘बिग फोर’ फर्में शामिल हैं! यह कहना गलत होगा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की मुश्किलें राजग सरकार आने के साथ ही शुरू हुर्इं, लेकिन यह पूछना उचित होगा कि 2014 में सत्ता में आने के बाद से इसने बैंकों का काम-काज सुधारने के लिए क्या किया है। कमान संभालते ही राजग सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के अध्यक्षों और निदेशकों के कार्यालय अलग-अलग कर दिए। इसने बड़े मनमाने ढंग से अध्यक्षों के तबादले किए। इसने नियम बदल कर दो महत्त्वपूर्ण सरकारी बैंकों के प्रबंध निदेशक के पद पर दो बाहरी लोगों को बिठा दिया। कुछ ही दिनों में, राजग सरकार ने फिर नियम बदल दिए और कार्यकारी निदेशक को प्रबंध निदेशक के रूप में पदोन्नत करने के पुराने नियम पर वह लौट आई। वर्ष 2015 में सकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सुधार के लिए खूब धूमधाम से ‘इंद्रधनुष’ योजना की घोषणा की थी। भाजपा की अपनी खास शैली में, सुधारों को वर्णानुक्रम से सूचीबद्ध किया गया था: ए से अपाइंटमेंट्स (नियुक्तियां), बी से बैंक बोर्ड ब्यूरो और इसी तरह चलते हुए जी से गवर्नेन्स रिफॉर्म्स (कामकाज में सुधार)। एसएस मूंदड़ा जुलाई 2017 में रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर के पद से सेवानिवृत्त हुए। वह बैंकिंग निरीक्षण विभाग के प्रभारी थे। यह पद, जो कि परिपाटी से किसी बैंकर को ही सौंपा जा रहा है, अभी तक खाली है!

अनजान और असहाय

सरकार बैंकों के पुनर्पूंजीकरण को लेकर संभ्रम में थी और उसने कहा कि केवल उन्हीं बैंकों को रकम दी जाएगी जिन्होंने सुधारों को अपनाया है। पंजाब नेशनल बैंक को 2014-15 से 4,714 करोड़ रु. दिए गए, और इसके अतिरिक्त, 5,473 करोड़ रु. देने का वायदा किया गया था! शायद ही कोई इस सवाल का जवाब देगा कि पंजाब नेशनल बैंक ने पुनर्पूंजीकरण की शर्त कैसे पूरी की थी। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सुधार के लिए मौजूदा सरकार ने क्या किया है? कुछ खास नहीं। तथ्य तो यही कहते हैं। उन तथ्यों में से यहां तीन तथ्य दिए जा रहे हैं:

1. पीएनबी में भारी फर्जीवाड़ा, और शायद दूसरे बैंकों में भी, यह संकेत करता है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की कार्यप्रणाली में कुछ खास अंतर नहीं आया है।

2. ‘इंद्रधनुष’ के बाद सरकार सुधारों की घोषणाएं करने की अपनी फितरत में आ गई, ऐसी घोषणाएं जिनमें आकर्षक नारों व नामों के सिवा कुछ नहीं होता। लिहाजा, हमें मिला ‘ईज’ (एनहैंस्ड ऐक्सेस ऐंड सर्विस एक्सीलेंस) और ‘एक सात कोणीय नजरिया’। कोई नहीं जानता कि ‘इंद्रधनुष’ का क्या हुआ, वह सफल हुआ या विफल!

3. पीएनबी घोटाले की रोशनी में, वित्तमंत्री ने देश को बताया (कई दिनों की खामोशी के बाद) कि वह बैंकरों और ऑडिटरों में ‘नैतिकता की कमी’ को लेकर बहुत दुखी हैं और वायदा किया कि गड़बड़झाला करने वाले बख्शे नहीं जाएंगे ताकि इस तरह के ‘छिटपुट मामले’ फिर न हो सकें। छिटपुट मामले? यह साफ है कि सरकार के पास अब न तो कोई परिकल्पना शेष है- और न ही कोई नाम। सुधार की योजना खूब सोच-समझ कर तैयार की गई थी और अपेक्षित नतीजों को ध्यान में रख कर उसे लागू किया गया। इसमें समय लगेगा, कह सकते हैं पांच साल, जो कि सरकार के कार्यकाल के बराबर है। पिछले चार साल जाया हो गए, और शायद पांचवां साल भी इसी तरह जाया हो जाएगा।


Date:24-02-18

Crime and prosperity

Development could facilitate crime in absence of law enforcement strategies.

(Written by Kula Saikia,The writer is an officer of the rank of director general of police, in charge of law and order of Assam)

Are development and crime twin sisters that grow and evolve together? According to NCRB data, the figures for total crimes and crime rate in India for 2016 were 2.97 million and 379 crimes per lakh population. Both these are higher than the corresponding figures for previous years. A concerned citizen may want to know how the development process has impacted criminal behaviour in our society. Most people agree that crime reduction and prevention has to be an important goal of the state’s development agenda. It is expected that an upward shift in the quality of life would create a general well-being and thereby, help reduce the rates and levels of crime.

The probable reason for such crime reduction has been sought in the rise in the opportunity cost of committing crimes by economists like Gary Becker, who discussed criminal behaviour like any other economic activity based on rational choice. This would mean that the criminal would base his/her decision to commit a crime on a cost-benefit scale. The inverse relationship between crime and development has been borne out by several studies. For example, the 2011 report of the United Nations Office on Drugs and Crime (UNODC) found that the richer countries have far lower rates of violent crime than the poorer countries.

A number of other studies have also arrived at similar conclusions. However, a macro look at crime and its relation with development indices in the context of India reveals that both have been co-evolving at the same pace. It appears that improvement in economic prosperity as measured by the per capita net state domestic product (NSDP) has not resulted in the decline of crime rates in the prosperous states. For example, the richer states like Haryana, Gujarat, Maharashtra, Kerala and Karnataka had higher IPC crime rates, while the poorer states including UP, Bihar and Odisha had lower crime rates than the all-India average in 2015.

Even a militancy-affected state like Assam has been no exception to this trend. Between 2004-05 and 2012-13, Assam witnessed a steady rise in per capita incomes. At the same time, crime rates also showed a steady increase. At the district level, the more developed districts had higher crime rates than the less developed districts during the corresponding time period. However, the general expectation connects high crime rates to a low level of development since criminal activities adversely influence the various parameters of economic growth. Not only does crime undermine the rule of law, it erodes people’s faith in the security of private property, which is vital in a market economy. Moreover, crime extracts a price from business enterprises. Rising crime rates give rise to a feeling of insecurity, apprehension and fear. Evidence suggests that rise in crime discourages both domestic and foreign private investment and even forces the flight of investible resources. The increase in security-related expenses curtails profit margins, downgrading the competitiveness of firms. One would, therefore, conclude that crime has a negative impact on development.

The reverse, the impact of development on overall crime reduction, may not be that easy to gauge. The rise in crime in prosperous states could be explained as the result of increased reporting and registration of crimes. This is because overall development leads to progress in other indicators like improvement in literacy, fall in school dropout rates, empowerment of marginal groups, which encourages them to approach law enforcement agencies when necessary.

There is another possibility. The rise in economic activities could also open up more avenues for crime, especially if the opportunity cost of crime falls in the absence of a concomitant improvement in law enforcement strategies, logistics and other necessary infrastructure essential for the delivery of justice. Thus, development planners must account for additional manpower and appropriate logistic support system if ordinary citizens are to enjoy the fruits of progress in a less-crime environment.


Date:24-02-18

कटौती की मार

संपादकीय

इंपलाईज प्रावीडेंट फंड आर्गजनाइजेशन (ईपीएफ) ने ब्याज दर घटाकर 2017-18 के लिए 8.55 प्रतिशत कर दी है. 2016-17 के लिए यह 8.65 प्रतिशत रही है.यानी दशमलव दस बिंदु की गिरावट की गई है. करीब छह करोड़ कर्मचारी इस फैसले से प्रभावित होंगे. गौरतलब है कि अर्थव्यवस्था में ब्याज दरों में गिरावट लगातार दर्ज की जा रही है. वि अर्थव्यवस्था में तो नकारात्मक ब्याज दर का जिक्र तक शुरू हुआ यानी जो बैंक जमा रखेगा, वह ब्याज देगा नहीं, ब्याज लेगा.तर्क साफ है कि बैंकों को जमा की जरूरत नहीं है, उनके पास काफी जमा राशि है. भारत में 8.55 प्रतिशत निश्चित ब्याज दर अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से बहुत शानदार रिटर्न है, पर उन कर्मिंयों के लिए तो यह निराशा का ही सबब है, जिन्होंने अभी के मुकाबले ऊंची ब्याज दरें अतीत में देखी हैं.

जाहिर है लगातार कम होती ब्याज दरों के माहौल में कर्मिंयों के प्राविडेंट फंड के लिए अलग से ब्याज ज्यादा रखने के तर्क नहीं हैं. अब समय आ गया है कि प्राविडेंट फंड के निवेश के लिए नये विकल्पों की खोज की जाए और उनके बारे में निवेशकों को, कर्मिंयों को शिक्षित किया जाए. भविष्य निधि सामाजिक सुरक्षा का इंतजाम है, ताकि बुढ़ापे में बंदे के पास इतनी रकम रहे कि खाने-पीने का सही इंतजाम हो जाए. पेंशन फंड भी ऐसा ही इंतजाम है.नेशनल पेंशन फंड स्कीम तहत एक निश्चित रकम शेयर बाजार, म्यूचअल फंड में लगाने का प्रावधान है. प्राविडेंट फंड के मामले में निवेशकों को, कर्मिंयों को म्यूचअल फंड के बारे में बताया जाए.

प्राविडेंट फंड में बीस से तीस साल तक का निवेश होता है. शेयर बाजार में निवेश करने वाले म्यूचअल फंड पक्के तौर पर जोखिम वाले होते हैं, पर समझने की बात यह है कि लंबी अवधि में जोखिम कम हो जाती है. और निवेशक आराम से दस से पंद्रह प्रतिशत के रिटर्न हासिल कर सकते हैं सेंसेक्स या निफ्टी आधारित मुचुअल फंड में निवेश करके. सेंसेक्स और निफ्टी आधारित म्यूचअल फंड में निवेश का आशय उन कंपनियों में निवेश से है, जो सेंसेक्स या निफ्टी सूचकांक में सूचीबद्ध हों.जाहिर है इन सूचकांकों में सूचीबद्ध कंपनियों से एक न्यूनतम स्तर की गुणवत्ता की उम्मीद की जा सकती है. ज्यादा रिटर्न मिलने से निवेशकों, कर्मिंयों का भी भला होगा और सरकार पर भी दबाव कम होगा कि पीएफ की ब्याज दर बढ़ाई जाए. पर पीएफ का निवेश इंडेक्स आधारित म्यूचअल फंडों में एक प्रक्रिया के तहत किया जाए और इसके लिए तमाम कर्मिंयों और निवेशकों को वित्तीय तौर पर साक्षर किया जाए.