25-12-2017 (Important News Clippings)
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Rising intolerance
Extremist outfits are threatening personal freedoms and development agenda
TOI Editorials
Ease of doing business is a commendable goal of the Centre as well as state governments. UP chief minister Yogi Adityanath is absolutely right to want to promote it in his state. Yet ease of doing business also flows from ease of conducting everyday lives. It becomes impossible to achieve when the latter is disrupted, and moral policing as well as the ‘hurt sentiments’ bogey – which justifies hooliganism and worse as long as someone’s sentiments can be claimed to have been hurt – are allowed to rule the roost.
Another manifestation of growing intolerance occurred in UP’s Ghaziabad last week, when members of BJP, Bajrang Dal, Hindu Raksha Dal and Dharam Jagran Manch disrupted a private marriage because it was an interfaith one. They invoked that other bogey ‘love jihad’ even though there was no religious conversion involved – not that conversion in itself is a crime. That something like this happened in the urbanised environs of the National Capital Region, where law and order is supposed to be better, highlights the virulent nature of the problem. Even though the Supreme Court recently decreed the right to privacy to be a fundamental right, it hardly exists on the ground as ‘hurt sentiments’ hold sway.Take for example a group called the Hindu Jagran Manch, now protesting against Bengali film Rongberonger Korhi because one of its plotlines has two characters named Ram and Sita. This is absurd. It is common in Hindu culture to name children after gods and goddesses. It is not enough for BJP politicians to say they condemn these incidents. They also need to introspect on their actions which has led to the mainstreaming of fringe groups.
घोटाले के बीच धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की तलाश
चारा घोटाले के दूसरे मामले में रांची की सीबीआई अदालत ने राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव को दोषी करार देकर जातिवाद तथा धर्मनिरपेक्षता की नई बहस खड़ी कर दी है। इसी के बीच भारतीय लोकतंत्र को अपना भविष्य तलाशना है। अगर दो दिन पहले आया 2जी फैसला कांग्रेस और द्रमुक को राजनीतिक ताकत देने वाला था तो चारा घोटाले का फैसला कांग्रेस को झटका और भाजपा व उसके सहयोगी दलों को ताकत देने वाला है। जहां भाजपा और एनडीए के सहयोगी दलों ने कहना शुरू कर दिया है कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कांग्रेस ने भ्रष्ट लालू प्रसाद की पार्टी से गठबंधन कर रखा है वहीं यूपीए और उसके समर्थक दलों ने इस सजा को लालू से बदला लेने और चुनिंदा कार्रवाई के रूप में पेश किया है। उन्होंने दूसरे घोटालों में शामिल एनडीए के दलों और नेताओं पर भी कार्रवाई की मांग की है। भारतीय लोकतंत्र और उसकी विडंबना देखिए कि 950 करोड़ रुपए के चारा घोटाले में धड़ाधड़ सजाएं हो रही हैं तो 2जी घोटाले के सारे आरोपी बरी हो रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि चारा और 2जी घोटालों में शामिल नेताओं की राजनीति का आधार सामाजिक न्याय है।
लेकिन, उन पर परिवारवाद की राजनीति हावी हो गई। ये पार्टियां चुनाव हारती-जीतती रहती हैं लेकिन, उनका जनाधार कायम रहता है। अगर भ्रष्ट पार्टी और नेता के साथ जाति, धर्म और राष्ट्र का आख्यान जुड़ा है तो उसका जनाधार साथ खड़ा रहता है। उसका क्षय होता है लेकिन धीरे-धीरे। अगर वह पार्टी और नेता सेक्यूलर मुद्दों के आधार पर राजनीति करते हैं तो उनके आसानी से पतन की संभावना रहती है। भ्रष्टाचार के मामले में भ्रम और यथार्थ की दूरी कम हो, बेगुनाह बचें और दोषी ही सजा पाएं इसके लिए जरूरी है लोकतांत्रिक संस्थाओं को स्वायत्तता मिले और उनकी साख कायम हो। अगर ऐसा नहीं होगा तो द्रमुक नेताओं के छूट जाने और एनडीए नेताओं के सजा पाने पर सवाल उठेंगे। यह कहा जाएगा कि लालू प्रसाद की दृढ़ धर्मनिरपेक्षता उन्हें दोषी साबित कराने तक ले गई, जबकि एनडीए की ओर फिसलती द्रमुक के नेता बरी हो गए। यह सही है कि भाजपा के साथ जाने से कोई भ्रष्ट नेता पवित्र नहीं हो जाता लेकिन, उसी के साथ यह भी सही है कि धर्मनिरपेक्ष होने से कोई नेता ईमानदार नहीं हो जाता। यह हमारे लोकतंत्र का भटकाव है और उसे इससे निकलना ही होगा।
रोजगार पैदा करने के लिए तेज करनी होगी वृद्धि
नितिन देसाई
भारत श्रम बाजार को आधुनिक बनाकर और असंगठित क्षेत्र में छिपीं व्यापक संभावनाओं को भुनाकर रोजगार सृजन की चुनौतियों से निपट सकता है। विस्तार से बता रहे हैं नितिन देसाई
ट्रंप तो औंधे मुंह गिर पड़े
संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव पर भारत समेत 128 देशों ने एक स्वर से अमेरिकी फैसले को खारिज कर दिया कि फिलिस्तीन-इस्रइल विवाद को बातचीत के जरिये ही सुलझाया जा सकता है. ताज्जुब की बात है कि फ्रांस और ब्रिटेन जैसे मित्र राष्ट्रों ने भी ट्रंप का साथ छोड़ दिया. हालांकि संयुक्त राष्ट्र का यह प्रस्ताव बाध्यकारी नहीं है. यह प्रतीकात्मक है. फिर भी इस प्रस्ताव ने ट्रंप की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को धक्का पहुंचाया है, जो अपनी ताकत के बलबूते सात दशक पुराने और अति उलझावपूर्ण विवाद को महज चुटकी में सुलझा कर एक बड़ी वैश्विक उपलब्धि हासिल करने का सपना देख रहे थे. इसको पाने के लिए उन्होंने धमकियां भी दीं कि अमेरिकी मान्यता को खारिज करने के लिए महासभा में लाये जा रहे प्रस्ताव का समर्थन करने वाले देशों की आर्थिक मदद रोक देंगे. उनकी धमकी बेअसर साबित हुई. अमेरिका पर निर्भर सात-आठ छोटे देशों ने ही ट्रंप का समर्थन किया.
वैश्विक समुदाय का यरूशलम पर रुख बहुत साफ है. वह इसे दो हिस्सों में बांट कर देखता है. पश्चिम यरूशलम इस्रइल के हिस्से और पूर्वी यरूशलम फिलिस्तीन को देने का पक्षधर है. लेकिन इस्रइल यरूशलम को एकीकृत के तौर पर देखता है और सम्पूर्ण हिस्से पर अपना अधिकार जताता है. लेकिन संयुक्त राष्ट्र महासभा के इस प्रस्ताव के बाद इस्रइल पर शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का दबाव बढ़ेगा और इस बात की पूरी संभावना है कि उसे फिलिस्तीन को रियायत देनी पड़ेगी. दरअसल, इस्रइल-फिलिस्तीन के बीच द्विपक्षीय वार्ता से ही यरूशलम के भाग्य का निर्धारण मुमकिन हो सकता है.
भारत ने प्रस्ताव का समर्थन करके अपनी पारम्परिक नीति के प्रति दृढ़ता जाहिर की है जो बातचीत के जरिये इस विवाद के हल का पक्षधर है. हालांकि अमेरिका और इस्रइल के साथ बढ़ती नजदीकियों के कारण यह कयास लगाया जा रहा था कि नई दिल्ली-वाशिंगटन के समर्थन में अपना वोट देगा. अगले साल जनवरी में इस्रइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भारत आने वाले हैं. लेकिन भारत विश्व समुदाय के साथ खड़ा हो कर यह दर्शा दिया है कि फिलिस्तीन के प्रति भारत का रुख स्वतंत्र है और कोई अन्य देश इसे प्रभावित नहीं कर सकता. सैद्धांतिक और व्यावहारिक दृष्टि से भी भारत के लिए यह आवश्यक था कि अमेरिका-इस्रइल के विरुद्ध और विश्व समुदाय के साथ दिखाई दे. इस्रइल के पक्ष में खड़ा होने से अरब देशों के साथ संबंध खराब होने का अंदेशा रहता, जो हमारी अस्सी फीसद तेल की आपूर्ति करते हैं. कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान का शत्रुतापूर्ण रवैया को ध्यान में रखते हुए भी यह भारत के राष्ट्रीय हितों के अनुकूल नहीं था. इस्रइल हमारे लिए अब अछूत नहीं है. 1992 से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध है. इन 25 सालों में दोनों के बीच रक्षा और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सहयोग बढ़ा है. लेकिन ट्रंप के फैसले के साथ खड़े होने का मतलब फिलिस्तीन व उसकी आकांक्षाओं के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को कमजोर करना होता.
Institutions after 2G
The many losers after the judgment
Verdict is a reminder that state incapacity may be a bigger issue than active political malfeasance
Pratap Bhanu Mehta,The writer is Vice-Chancellor, Ashoka University. Views are personal
“Public perception has no place in judicial proceedings.” Ordinarily this basic truth, expressed pithily by the trial court judge, O.P. Saini, who presided over the 2G trial, would have been a testament to how good institutions function. The judge seems to have gone by the evidence placed before him. But the observations made in the judgment are a serious indictment of many of the most powerful institutions of the state. And the acquittals of all those accused in the alleged 2G scam will also have profound political implications. Let us look at the losers after this judgment. This judgment does, unwittingly, dent the authority of the Supreme Court of India. Admittedly, the 2G case before the Supreme Court involved a different issue: Whether the policy governing spectrum allocation was arbitrary. But, as this column argued, (‘Governance after 2G’, February 9, 2012) the Supreme Court’s reasoning in that order was internally incoherent.
It is true that the court was deciding on the arbitrariness of policy, but it is hard not to see that its perception of arbitrariness was shaped by the public perception that ministerial corruption may have been involved. It tried to do Parliament’s work by taking a call on a petition based on a CAG report, and thus elevated the CAG report to a definitive document that it is not. It also jumped the gun, and all principles of procedural justice, by letting all the attention fall on A. Raja and the bureaucrats. Raja has now been exonerated. It indiscriminately punished all businesses. It is the Supreme Court that has consistently reposed faith in the CBI and emboldened it. The second institutional loser is the IAS. The judgment is an indictment of the bureaucracy. It argues the bureaucracy does not understand the rules it drafts, its notes to ministers are unclear, if not deliberately misleading. It creates a fog of convoluted reasoning that obscures the issues. The subtext of the judgment is that the ministers are more straightforward and clearer than the best and brightest in the IAS. Whether this is true or not can be debated. But the judgment paints a picture of bureaucratic incapacity of the highest order. But bureaucratic responsibility now seems to be supplanting ministerial responsibility.
In the coal scam, where there was an indictment, bureaucrats, not ministers, were held responsible. Even here, something similar is going on. Part of the reason the prime minister is absolved of responsibility is based on the idea that the bureaucrat’s note was five pages long and convoluted and the PM cannot possibly be expected to have command of the details. As a factual matter, this may be true, but one has to wonder what ramifications this has for bureaucracy-minister relationships. The courts seem to be giving politicians benefit of the doubt more than bureaucrats. The third institutional loser is the CAG-Parliament relationship. The CAG’s reports are, in our constitutional scheme, not meant to be definitive. They are to be presented to Parliament that has to take a view on them. While we can blame the CAG for grandstanding, we must not forget that it was parliamentary dysfunction that made it all possible. Parliamentary dysfunction is what has emboldened non-elected institutions, from the CAG to the Supreme Court, to usurp authority and exceed their brief.
Parliament is the ultimate locus of accountability. If it cannot perform truth-mediating functions, or hold ministers to account, everyone will step into the breach. When Parliament abdicates, the entire administrative law and constitutional scheme gets distorted. In all our handwringing about corruption and arbitrariness, let us not forget that no solution will be possible to this problem without restoring integrity to Parliament. The judgment will damage the CAG’s office. The ability of CAG reports to spark public reaction will now be diminished. The judgment does not harm the authority of the CBI for one simple reason: The CBI’s credibility is so low that it cannot sink any further. Let us look at the political implications. The judgment is a shot in the arm for the Congress. The Congress may now play victim and claim there was a conspiracy against it. But let us not forget this. A disfiguring state-business nexus was endemic during Congress rule. It was not the media and the CAG that created the frenzy. It was the other way around. The experience of corruption was pervasive. This is what gave the CAG reports and media frenzy a degree of plausibility. But there is no denying that for all political purposes, the charge of corruption against Congress will now become less of an issue. After all, the prosecution has taken place under the watch of a BJP government. Indian politics will now return to its standard normalcy: Both parties have been accused of crimes and both absolved by the legal process. Many conspiracy theories will arise: From connections of particular businessmen to political calculations. But the problem with conspiracy theories is that they are too clever by half, and often work without evidence. The door may now open for a BJP-DMK understanding. But even assuming the BJP had a hand in the way the prosecution was conducted (there is no evidence for that), it is hard to imagine why the BJP would have frittered the political capital it would have got by indicting the UPA easily. But these theories will be symptomatic of a deeper malaise. Whatever be the truth of the matter, trust in the ability of formal institutions to deliver justice is still going to be low. Just like each person in India is an expert doctor, with a remedy for everything, each Indian will now become an authoritative guide to guilt and innocence of the accused, since institutions are not seen to deliver. The judgment is a wake-up call to the BJP in one respect.
For all its brandishing of anti-corruption credentials, basic institutional reforms are not in place. The reforms that are needed are not the controversial ones like CBI autonomy, but ones that have to do with basic state capacity. The Enforcement Directorate is still inadequately staffed and may yet again turn out to be no legal match for the legal arsenals that everyone from Vijay Mallya to Karti Chidambaram may deploy. Incapacity is probably an even bigger issue here than active political malfeasance. But finally, the progressive promises of the anti-corruption movement have been struck a grievous blow. Justice Saini did his job, given what was presented to him. But the institutionalising of justice and accountability is still a distant dream.
Date:23-12-17
Bamboo shoots
Removing the natural resource from the ambit of a colonial-era law opens up a range of economic possibilities
Date:23-12-17
Missing the pulse: on policies for farmers
Farmers, like investors, need predictability and coherence in government policie
EDITORIAL
In what may be the Centre’s first strike in response to the rural distress read into the Gujarat Assembly poll outcomes, a 30% customs duty has been slapped on the import of chana dal and masoor dal. The official reasoning is clear. Cheap imports could hit farm incomes especially at a time when domestic production of pulses is at a record high and a bumper rabi crop is expected. With an adequate domestic stockpile of pulses and with international prices remaining low for a prolonged period, the Centre fears that traders may still prefer to import some pulses rather than buy the fresh crop from local farmers at higher prices. There has been a significant upsurge in imports, in the range of 30% to 46%, in four out of the first six months of this financial year. Chana and masoor were the key contributors for India’s pulses imports rising to over $1.6 billion between April and September, compared to $1.2 billion in the same period last year. The value of chana imports in this period rose 373%, while masoor grew 204% year on year.
In September, masoor imports shrank 56% in value terms while chana imports grew by a little over 200%. Disaggregated data for the last two months are not available, but overall pulses imports have cooled off since September, with total pulses imports shrinking nearly 30% in October and about 38% last month. The recent trend of moderation in imports indicates that the government may have moved too late to curb them, but flawed market timing isn’t the real issue. Reflexively raising or breaking such tariff walls, as the production cycle warrants, doesn’t add up to a serious long-term policy, which should be aimed at boosting farm incomes and ensuring food security. In the case of a key protein source like pulses, import duties may be counterproductive going forward. Just last year, while prices were soaring in the Indian market, Prime Minister Narendra Modi signed a pact to double pulses imports from Mozambique.
A bumper crop or two will not diminish the importance of such deals in harder times. India has dal diplomacy interests with more than 40 other countries, for whom the latest move will be of concern, especially since there is already 10% import duty on toor dal and a hefty 50% duty was levied on yellow peas in November. Farmers, like investors, need predictability and coherence in government policies. Just as a duty hike on electronic goods won’t directly prop up local manufacturing or curb their consumption, hiking import duties on one dal or another won’t make farmers better-off — though traders who accumulated cheaper imports will benefit. The government must devise better means to shore up farm incomes without stirring up inflation or upsetting carefully cultivated food security partnerships around the world.
Date:23-12-17
ट्रंप की साख
संपादकीय
संयुक्त राष्ट्र में हुए मतदान के परिणाम से जाहिर है कि पूर्वी यरुशलम के मसले पर अमेरिका अलग-थलग पड़ गया है। मतदान का यह नतीजा ट्रंप के एक निहायत अनुचित फैसले पर दुनिया भर में जैसी प्रतिक्रिया हुई उसके अनुरूप ही है। गौरतलब है कि हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यरुशलम को इजराइल की राजधानी की मान्यता देते हुए वहां के अमेरिकी दूतवास को तेल अवीव से यरुशलम स्थानांतरित करने की घोषणा की थी। इस तरह, उन्होंने दशकों से चली आ रही अमेरिकी नीति को पलट दिया और अपनी कूटनीतिक परिपक्वता व दूरदर्शिता को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया। उनके इस फैसले पर स्वाभाविक ही दुनिया भर में तीखी प्रतिक्रिया हुई। पुराने मित्र ब्रिटेन और फ्रांस तक खफा हो गए। ट्रंप के इस फैसले के खिलाफ तुर्की और यमन की तरफ से लाए गए प्रस्ताव पर गुरुवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा में मतदान हुआ। प्रस्ताव में मांग की गई थी कि यरुशलम को इजराइल की राजधानी की मान्यता देने और वहां अपना दूतावास स्थानांतरित करने के अपने फैसले को अमेरिका वापस ले।
संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य-देशों में से 128 ने प्रस्ताव के पक्ष में यानी अमेरिका के खिलाफ वोट दिया। इनमें भारत भी शामिल था। जबकि प्रस्ताव के विरोध में केवल नौ वोट पड़े। पैंतीस देश मतदान में शामिल नहीं हुए।ट्रंप ने धमकी दे रखी थी कि जो देश प्रस्ताव का साथ देंगे, उनको अमेरिका से मिलने वाली वित्तीय सहायता रोक दी जाएगी। हो सकता है इस धमकी के चलते कुछ देश मतदान में शामिल न हुए हों। पर प्रस्ताव को 128 देशों का समर्थन मिलना और विरोध में केवल 9 वोट पड़ना, यह बताता है कि दुनिया इस बात के खिलाफ है कि यरुशलम को इजराइल की राजधानी मान लिया जाए। इजराइल के वजूद में आने के बाद भी पूर्वी यरुशलम पर फिलस्तीन का कब्जा बना रहा था, 1967 के युद्ध में इजराइल ने उसे भी हड़प लिया। इजराइल और फिलस्तीन के बीच जो सबसे चुभने वाले मुद््दे रहे हैं उनमें यरुशलम भी है। पूर्वी यरुशलम पर फिलस्तीन अपना दावा जताता रहा है। साथ ही, दुनिया भर में आम भावना फिलस्तीन के इस दावे के पक्ष में रही है। दुनिया यह भी मानती रही है कि इजराइल और फिलस्तीन के बीच चले आ रहे विवाद का समाधान दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत ही हो सकता है। लेकिन इजराइल ने हमेशा विश्व-मत की अवहेलना की है और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को ठेंगा दिखाया है। इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू अब भी वही हेकड़ी वाली भाषा बोल रहे हैं। प्रस्ताव से कुपित नेतन्याहू ने संयुक्त राष्ट्र को झूठ का घर कहने में तनिक संकोच नहीं किया। ट्रंप भी ताकत के अहंकार की भाषा बोल रहे हैं। आखिर वे प्रस्ताव के खिलाफ वोट देने वाले देशों को वित्तीय सहायता बंद करने की चेतावनी देकर क्या संदेश देना चाहते थे? इस चेतावनी के बावजूद केवल नौ देशों ने अमेरिका का साथ दिया, और इनमें भी कोई दुनिया का बड़ा देश या अग्रणी अर्थव्यवस्था वाला देश नहीं है। वित्तीय सहायता रोकने की धमकी देना कूटनीतिक शालीनता के खिलाफ तो था ही, धमकी के बावजूद मतदान का जो नतीजा आया उससे एक महाबली के रूप में अमेरिका की छवि को धक्का लगा है।
Date:23-12-17
अलग-थलग अमेरिका
संपादकीय
यरुशलम मामले पर संयुक्त राष्ट्र में मतदान से ठीक पहले अमेरिकी दूत निक्की हेली जब कह रही थीं कि ‘अमेरिका इस दिन को याद रखेगा, जब उसे एक संप्रभु राष्ट्र के तौर पर फैसला लेने के लिए निशाना बनाया गया है।’ तब वह परोक्ष रूप से उन सभी देशों को धमकी दे रही थीं, जो अमेरिका नहीं, बल्कि डोनाल्ड ट्रंप की दादागीरी के खिलाफ खड़े दिख रहे थे। ट्रंप पहले ही यह कहकर कि वे हमसे अरबों डॉलर की मदद भी लेते हैं और हमारे खिलाफ मतदान भी करते हैं, ऐसे देशों की आर्थिक मदद रोकने की धमकी दे चुके थे। ऐसे में, संयुक्त राष्ट्र में यरुशलम को मान्यता देने के अमेरिकी इरादे को ध्वस्त कर विश्व समुदाय ने एक दूरगामी संदेश दिया है। इतिहास गवाह है कि जब-जब किसी इंसान या देश ने स्वयं को असल से कहीं अधिक मानने की हेकड़ी दिखाई, नतीजे खराब रहे हैं। यही कारण है कि आज अमेरिका भी अलग-थलग दिखाई दे रहा है। इसमें अमेरिका कम, ट्रंप का सिर चढ़कर बोलता अहं ज्यादा जिम्मेदार है। संयुक्त राष्ट्र में ट्रंप का यह हश्र उसी दिन तय हो गया था, जब दशकों पुरानी अमेरिकी कूटनीति की दिशा बदलते हुए उन्होंने यरुशलम को इजरायल की राजधानी मानने की इकतरफा घोषणा की थी। ट्रंप ने वह नीति बदली थी, जिसे उनके पूर्ववर्ती व्यापक अमेरिकी हितों को देखते हुए ठंडे बस्ते में डालते आए थे।
इसी नासमझी भरी जिद का नतीजा है कि आज अमेरिका एक हफ्ते में दूसरी बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ता दिखाई दिया है। मामूली बात नहीं है कि अमेरिकी जिद को बुरी तरह नकारते हुए भारत सहित 128 देशों ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिए, जबकि 35 देश गैरहाजिर रहे। इजरायल के अलावा जिन सात देशों ने अमेरिका के पक्ष में वोट डाले, उनमें होंडुरास,ग्वाटेमाला या टोगो जैसे देशों को देख ‘क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा’ वाली कहावत याद आ जाती है।
पहले स्वयं डोनाल्ड ट्रंप और बाद में निक्की हेली की खुली धमकी को धता बताती विश्व जनमत की ऐसी एकजुटता भविष्य के लिए सुखद संकेत है। यह संदेश भी कि विध्वंसकारी फैसले विश्व के सचेत देशों को स्वीकार्य नहीं। यरुशलम को इजराइल की राजधानी मानने का ट्रंप का फैसला मध्य-पूर्व में तनाव की जो नई इबारत लिखने जा रहा है, उसका ऐसा ही निषेध जरूरी था। इस एकजुटता को महज मध्य-पूर्व में तनाव को बढ़ने से रोकने ही नहीं, बल्कि ब्लैकमेल करने और डराने की अमेरिकी कोशिशों के निषेध के शानदार उदाहरण के तौर पर भी याद रखा जाना चाहिए। जाहिर सी बात है कि इजरायल को यह नहीं रास आना था, सो नहीं ही आया, लेकिन यह एक अमेरिकी जिद या इजरायली हित की चिंता करने का नहीं, व्यापक वैश्विक हितों को देखने का वक्त है। यरुशलम को राजधानी की मान्यता देने का मुद्दा किसी एक देश की दादागीरी कायम करने या गिराने का नहीं, वैश्विक सहमति का मामला है और इसे इजरायल और फलस्तीन के बीच शांति समझौते की राह से ही हल किया जा सकता है। यह कई मायनों में बडे़ संकेत और दूरगामी संदेश वाली घटना भी है। इस बात का संकेत भी कि दुनिया में जनमत किस पक्ष में खड़ा है? इजरायल की बात तो समझी जा सकती है, लेकिन अमेरिका की जिद किसी के गले कैसे उतरे? डोनाल्ड ट्रंप शायद यही सच समझने से चूक गए। नतीजा, आज वह अलग-थलग खड़े हैं। महज चंद छोटे देशों का समर्थन कूटनीतिक इतिहास में अमेरिका को लगे झटके की सबसे बड़ी घटना है, और कहने में गुरेज नहीं कि इसके लिए सिर्फ और सिर्फ डोनाल्ड ट्रंप की विशिष्ट दिखने और दादागीरी दिखाने की उत्कंठा भरी जिद जिम्मेदार है।