25-09-2017 (Important News Clippings)

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25 Sep 2017
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Date:25-09-17

Gas chamber again?

North India’s great autumn crop burn can be prevented with an economic package

TOI Editorials

Autumn sees a sharp deterioration in air quality in north India, as farmers set fire to their monsoon crop stubble to ready their fields for winter crop. This is illegal but remains unchecked, taking a terrible toll on people in the form of respiratory and other health problems. Late last week, Delhi high court directed state governments of Punjab, Haryana, Rajasthan, Uttar Pradesh and Delhi to prevent burning of crop residue which turns the air into a ‘gas chamber’. These states must use this as an opportunity to review their strategy. The crop burning phenomenon can be checked with a different approach.

The root cause of the problem is that farmers find it economical to burn their crop. For sure, it will cause them long-term problems in the form of soil damage. But the economically stressed Indian farmer has no choice. The solution, therefore, needs to be grounded in economic incentives. Farmers can be weaned away from burning crop residue if governments’ alternative offers make economic sense. Some solutions have already been put forth, but for them to have an impact they need to be part of a package backed by governments.

NTPC, India’s largest power generator, has come up with a workable economic solution. It has offered to use crop residue as input for biomass which can be used along with coal in its power plants. Central government had earlier estimated that surplus agro residues in India could generate up to 17,000 MW of electricity. Therefore, incentivising greater use of biomass through power purchase agreements is one solution. Not only will it address environmental issues, the attendant benefit is in the form of enhanced economic activity. But given varying agricultural conditions in these states, a single measure will not suffice. Farmers need to be given options.

Among the options is more suitable mechanical implements. Rotovators are one way to go. They are machines that spread the crop residue into the soil. Another mechanical option is to sell combined harvester machines with a straw management system. For sure, these solutions may need governments to initially subsidise the sale of these machines to make them more affordable. But the benefits in the form of lower healthcare costs and better air quality will more than offset the initial subsidy. The short point is that the autumn and winter haze need not be a permanent feature. All it needs is an economic solution.


Date:24-09-17

धर्म सचमुच व्यक्तिगत मामला है?

संपादकीय

सेकुलर लोगों द्वारा अक्सर कहा जाता है कि धर्म व्यक्तिगत मामला है। कुछ विद्वानों ने इस बात को इस तरह कहा है कि धर्म व्यक्ति और ईर के बीच का मामला है। निश्चय ही कोई व्यक्ति किस धर्म को मानता है, यह उसके अपने अंत:करण पर निर्भर है। लेकिन दुनिया में कितने लोग स्वेच्छा से धर्म को चुनते हैं? व्यक्ति धर्म को चुने, इसके पहले ही धर्म उसे चुन लेता है। नि:संदेह कुछ लोग अपनी पसंद के धर्म में जाने के लिए धर्म परिवर्तन करते हैं, लेकिन किसी भी युग में ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम होती है, पूरे धार्मिंक जमात का दशमलव एक प्रतिशत भी नहीं। बाकी लोग धर्म का चुनाव नहीं करते। जिस धर्म में जन्मते हैं, उसी में जीवन बिताते हैं, और उनका अंतिम संस्कार भी उसी धर्म के विधि-विधान के अनुसार होता है। वस्तुत: धर्म की समस्या ही यह है कि वह तर्क नहीं, आस्था का विषय है। जो व्यक्ति ईर में विास करना चाहता है, वह यह पता लगाने की कोशिश नहीं करता कि ईर है भी या नहीं। इसका कारण है। प्रत्येक व्यक्ति अपने स्तर पर ईर की खोज करने निकले तो हो सकता है कि इसी में उसका आधे से ज्यादा जीवन व्यतीत हो जाए। यह सही है कि प्रत्येक व्यक्ति के मन में कभी न कभी जिज्ञासा पैदा होती है कि सृष्टि क्या है, क्यों है, क्या इसका कोई निर्माता है और नहीं है तो यह अस्तित्व में कैसे आई, इसका संचालन कौन करता है, जीवन का उद्देश्य क्या है, या इसका कोई उद्देश्य है भी या नहीं। लेकिन ये कठिन प्रश्न हैं, और निश्चित नहीं है कि इनका उत्तर है भी या नहीं। दूसरी तरफ, जीवन में इतना आकर्षण होता है, उसके तात्कालिक दबाव इतने गुरु तर होते हैं कि जीवन को तब तक के लिए स्थगित नहीं किया जा सकता, जब तक इन जिज्ञासाओं का समाधान नहीं हो जाता। यहीं धर्म शक्तिशाली सिद्ध होता है। हमारी विचारशीलता पर हावी हो जाता है। धर्म व्यक्तिगत मामला होता तो जितने व्यक्ति हैं, उतने ही धर्म होते।

इस बात की व्याख्या हमारे समय के सबसे बड़े धार्मिंक महात्मा गांधी ने बहुत अच्छी तरह की है। उन्होंने अनेक बार ईर के गुणों का वर्णन किया, लेकिन यह भी स्वीकार किया है कि उन्होंने ईर के दर्शन नहीं किए हैं। पहले वे कहते थे कि ईर सत्य है, परंतु बाद में कहने ही नहीं लगे, बल्कि इस पर जोर देने लगे कि सत्य ही ईर है। गांधी के अनुसार, सत्य क्या है? जो कुछ है, वह सत्य है। इसका अर्थ निकलता है कि पूरी सृष्टि ही सत्य है। दूसरी ओर, धर्म वह है, जो हमें ईर से मिलाता है। लेकिन ईर की तरफ जाने का कोई एक रास्ता नहीं है। इसलिए धर्म भी अनेक होंगे। इस पहेली को हल करते हुए, लेकिन गांधी जी ने इस पर भी जोर दिया कि सभी धर्मो में एक बुनियादी एकता है। यह एकता कहां से पैदा है? जाहिर है, सभी मनुष्यों की बाह्य और आंतरिक बनावट में भी एक मूलभूत एकता है।

फिर विभिन्न धार्मिंक समुदायों में संघर्ष क्यों होता है? इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए हमारा साक्षात्कार इस सचाई से होता है कि धर्म सिर्फ आत्मिक या आध्यात्मिक मामला नहीं है, इसके भौतिक आधार भी होते हैं। किसी एक धर्म को मानने वाले लोगों की जीवन पद्धति में बहुत कुछ साझा होता है। इस तरह धर्म व्यक्ति की पहचान बन जाता है और इस पहचान के साथ घर-परिवार, संपत्ति, जमीन, नागरिकता, शासन आदि जुड़ जाते हैं। जब दो धर्मो के लोगों के भौतिक स्वार्थ टकराते हैं, तब जो लड़ाई शुरू होती है, उसका आधार धर्म को ही बनाया जाता है, क्योंकि इससे लोगों को लामबंद करने में सुविधा होती है। दोनों ओर के गरीब और वंचित लोग भी इस लड़ाई में शामिल हो जाते हैं। चूंकि धर्म का संबंध तर्क से कम, आस्था से ज्यादा होता है, इसलिए जड़ता या स्थिरता सभी धर्मो का प्रधान तत्व बन जाती है। कोई किताब, कोई आचार्य, कोई पीठ तय करता है कि हमारा धर्म क्या है यानी हमें किस तरह रहना चाहिए। लेकिन सभी धर्मो की सामान्य खूबी यह है कि इस मामले में अंतिम रेखा पहले ही खींच दी जाती है। जो भी धार्मिंक सत्ता है-पैगंबर, किताब या शास्त्र-वह आखिरी होती है। नया पैगंबर नहीं आ सकता, नई किताब नहीं लिखी जा सकती, नये शास्त्रों की रचना नहीं हो सकती। लेकिन रूढ़िबद्ध जीवन मनुष्य के स्वभाव में नहीं है। वह रूढ़ियों का पालन करता है, तो रूढ़ियों से विद्रोह भी।

इसी प्रक्रिया में नये धर्मो या नये संप्रदायों का जन्म होता है। ईसा मसीह जन्म से यहूदी थे। गौतम बुद्ध जन्म से हिंदू थे। दयानंद सरस्वती आर्यसमाजी परिवार में पैदा नहीं हुए थे। लेकिन इन सभी ने एक नये धर्म की धारा बहाई। धर्म के उत्तर में वैज्ञानिक चिंतन और जीवन-पद्धति का विकास हुआ है। लेकिन इनमें अभी भी वह शक्ति नहीं आ पाई है कि वे सामूहिक जीवन का आधार बन सकें। बहुत कम लोग अपनी धार्मिंक पहचान से मुक्त हो पाते हैं। सिगमंड फ्रायड ने स्वीकार किया है कि वे अपनी यहूदी जड़ों को मिटा नहीं पाए। गांधी जी बार-बार कहते थे कि मैं जितना हिंदू हूं, उतना ही मुसलमान और उतना ही ईसाई हूं। लेकिन अंत तक रहे वे हिंदू ही। हालांकि यह भी सच है कि मानवता का भविष्य धर्म से नहीं, विज्ञान से तय होगा, क्योंकि धर्म में मेधा का सहज और उन्मुक्त प्रवाह नहीं दिखाई देता, जो विज्ञान की मूल विशेषता है।