
25-06-2025 (Important News Clippings)
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Date: 25-06-25
Whale Of A Story
New research on orcas points to an old human error: we assume what we can’t perceive doesn’t exist
TOI Editorials
Do you loofah? It’s an efficient delivery of cleaning, soothing, shining pleasures to your skin. Turns out orcas, aka killer whales, the largest members of the dolphin family, are also really into it. The current issue of Current Biology reports observations where orcas were seen to refashion kelp to exfoliate each other. This is the first recorded instance of ‘allokelping’. Actually, it is the first recorded instance of any marine mammal making a tool out of some object, let alone a grooming tool. How little we know about all the other species that cohabit earth with us, never mind how much we hurt them.
Scientists are finding things out bit by slow bit. In orcas, besides allogrooming, they have observed other rubbing behaviours. The hypothesis is that just as touch helps build relationships and moderate stress among humans, so it is when orcas rub each other with their bodies and fins and the kelp enhances this experience. But what’s really revealing is that every such scientific discovery feels like a big surprise. That’s about how hubristic humans are. As conservationist Karen Bakker says, we tend to believe that what we cannot perceive does not exist. Until a wave of new projects and tech started revealing orcas’ complex vocalisations and pod-specific dialects, we assumed whales weren’t talking to each other, because we weren’t hearing them.
Even the fierce debate about AI ignores how it might transform our relationship to the non-human world. Right now we can see a mother orca and child orca grooming each other and talking to each other. What Bakker wonders is whether AI could help ‘decode’ what they are actually saying to each other. Maybe if we ‘heard’ animals better, we would extinct them less. Imagine if it was technology that finally got us to understand that animals speak, and live, meaningfully.
Date: 25-06-25
Woman at the helm
The new IOC president will have to navigate the labyrinth of world sports
Editorials
The first African and the first woman head of the largest, most powerful sporting organisation on the planet, Kirsty Coventry, 41, broke new ground in more ways than one when she formally took charge of the International Olympic Committee (IOC) on Monday. Also the youngest president since Pierre de Coubertin, the founding father of the modern Olympic Games, and hand-picked by outgoing IOC president Thomas Bach, Kirsty was largely seen as a symbol of continuity with Bach, now IOC honor ary president for life, remaining the power centre. But in the last three months since her election, the handover period, those working with her at the IOC headquarters in Lausanne shared the belief that she was her own person. While there is likely to be continuity in some areas, Kirsty’s experiences, as a white woman athlete in racially tense Zimbabwe under Robert Mugabe and a Minister in Emmerson Mnangag wa’s cabinet, indicate that she is likely to be a lot more consensual and humane when compared to the strict Bach. It means that she is unlikely to rush into decisions on complex issues be it protecting female athletes, transgenders in women’s sports, the scourge of doping, the relevance of the Olympic movement, attracting new sponsors and maintaining a balance between traditional competitive sports and experimenting to bring in new audiences, something that has not always worked, as evident with breakdancing in Paris.
Off the field, it will be an eventful eight years for one of Africa’s most decorated Olympians. There will be big decisions to make including the possible return of Russia to the Olympic fold. In the run-up to the 2028 Olympics in Los Angeles, she will have to deal with U.S. President Donald Trump a lot more. The political uncertainties and global conflicts will force her to do a lot more than administering only world sports. The Russia-Ukraine war and growing hostilities in West Asia could have a bearing on the hosting rights for the 2036 Olympics, something that also brings Indian interests into the equation. On Monday, IOC member Nita Ambani was among the closest allies of Kirsty during and after the formal ceremony. A two-day closed-door session with IOC members to exchange ideas and opinions will be crucial to gauge initial impressions. The political situation, in the immediate context, may also have a bearing on the possible bids by Qatar and Saudi Arabia, two countries with deeper pockets than any and with growing interest to host the Games. With little experience in navigating the complex administrative labyrinth of world sports, Kirsty would be hoping to make a splash with her dive into the deep end.
जिसकी लाठी उसकी भैंस के सिद्धांत से चल रही है दुनिया
चेतन भगत, ( अंग्रेजी के उपन्यासकार )
हम सभी ने स्कूल में भूगोल और इतिहास पढ़े हैं। कुछ लोग अंतरराष्ट्रीय संबंधों में उन्नत डिग्री हासिल करते हैं। इस विषय पर अनुभवी राजनयिक और अनगिनत थिंक टैंक हैं। संयुक्त राष्ट्र, जी और इन जैसी अन्य वैश्विक संस्थाओं का काम ही विश्व व्यवस्था को बनाए रखना है। लेकिन इनमें से कोई भी आपको अंतरराष्ट्रीय संबंधों की हकीकत के लिए तैयार नहीं करता। वास्तविक दुनिया की कूटनीति पाठ्यपुस्तक के नियमों का पालन नहीं करती । यह विनम्र या निष्पक्ष या सुसंगत भी नहीं है और इसके बावजूद उसके नियम आज की दुनिया को आकार देते हैं। वैश्विक शक्ति कैसे काम करती है, इसके बारे में कुछ अनकही सच्चाइयां इस प्रकार हैं।
1. जिसकी लाठी उसकी भैंस : वैश्विक मंच पर ऐसा कोई संविधान या सर्वोच्च न्यायालय नहीं है, जो राष्ट्रों को नियंत्रित करता हो। शक्तिशाली राष्ट्रों को जवाबदेह ठहराने वाला कोई अंतरराष्ट्रीय पुलिस बल नहीं है। दुनिया ऐसे जंगल की तरह है- जहां सबसे शक्तिशाली वही करते हैं जो वे चाहते हैं, और बाकी को उनकी इच्छाओं का पालन करना होता है। आज अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई दूसरा देश कितना स्वाभिमानी, ऐतिहासिक या दृढ़ निश्चयी है। अमेरिका के समर्थन से इजराइल ने ईरान पर हवाई हमले किए ने और खुद अमेरिका ने भी उस पर सीधे हमला बोला। ईरान के पास ऐसा कोई वास्तविक मंच नहीं है, जहां वह विरोध दर्ज करा सके। जब तक किसी देश के पास सैन्य, आर्थिक या तकनीकी शक्ति न हो, वह वैश्विक मंच पर महत्वपूर्ण भूमिका की उम्मीद नहीं कर सकता।
2. दोस्ती मायने रखती है, लेकिन सिर्फ आपसी हितों के चलते इजराइल एक छोटा-सा देश है, लेकिन उसके पास अपने आकार से कहीं अधिक ताकत है। क्यों? क्योंकि अमेरिका उसके साथ मजबूती से खड़ा है। अमेरिका में यहूदी समुदाय का कितना प्रभाव है, यह जगजाहिर है, लेकिन बात इससे भी आगे बढ़कर है। अमेरिका के मध्य-पूर्व में रणनीतिक हित हैं- तेल, गैस और शत्रुतापूर्ण कट्टरपंथी शासनों के उदय को रोकना। इजराइल को उसका समर्थन इन हितों के अनुरूप है। यह रिश्ता सिर्फ भावनात्मक ही नहीं है- इसमें आपसी लेन-देन और रणनीतिक सोच भी शामिल है।
3. यूएन कमजोर देशों के लिए है हमें सिखाया गया था कि यूएन विश्व व्यवस्था को नियंत्रित करता है। जबकि हकीकत यह है कि यह वित्त पोषित एनजीओ की तरह काम करता है। यकीनन, यह मानवीय सहायता प्रदान करता है, संघर्षों में मध्यस्थता करता है, और शांति स्थापित करता है लेकिन आमतौर पर छोटे या कम शक्तिशाली देशों के लिए। जब बड़े खिलाड़ी आगे बढ़ते हैं, तो यूएन मूकदर्शक बन जाता है।
4. विज्ञान, टेक्नोलॉजी, पूंजी और इनोवेशन जीतते हैं, कट्टरवाद नहीं : अमेरिका सिर्फ इसलिए शक्तिशाली नहीं है क्योंकि वह अमीर है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि उसने सैन्य तकनीक सहित दूसरी टेक्नोलॉजी में लगातार निवेश किया है। एयर डिफेंस, सटीक मिसाइलें, ड्रोन, एआई- इन सबमें कोई भी उसके करीब नहीं आता। मनुष्यजाति के इतिहास में हमेशा से ही बेहतर तकनीक वाले राष्ट्रों का दबदबा रहा है- बारूद के आविष्कार से लेकर अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों तक जो सरकारें केवल आस्था, जुनून या अतीत के महिमामंडन पर निर्भर रहती हैं, वे अकसर अपने ही लोगों को मूर्ख बनाती हैं।
5. सॉफ्ट पावर एक मिथक है: फारसी कालीन बहुत बढ़िया हैं। ईरानी व्यंजन विश्व स्तरीय हैं। ईरानी सिनेमा ने अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं। लेकिन युद्ध में कोई मायने नहीं रखता। सॉफ्ट पावर शब्द ही विरोधाभासी है। शक्ति कठोर होती है। और यह आर्थिक ताकत, सैन्य क्षमता और अत्याधुनिक तकनीक से आती है। ईरान-इजराइल – अमेरिका संघर्ष ने हमें बहुत सबक सिखाए हैं।
Date: 25-06-25
एक समाज के रूप में सभ्य संवाद हमारा दायित्व है
प्रो. मनोज कुमार झा, ( राजद से राज्यसभा सांसद )
जामिया मिलिया इस्लामिया में मेरी पहली नौकरी के दौरान मेरे एक सहकर्मी अक्सर कहा करते थे कि जिन लोगों के तर्कों में ताकत की कमी होती है, वे अक्सर आक्रामकता का सहारा लेते हैं या जब तर्क विफल हो जाता है तो लोग डराने-धमकाने का सहारा लेते हैं। आज भी यह बात मेरे दिमाग में बनी हुई है। जब भी मैं लोगों को बातचीत में अपने डेसिबल लेबल को बढ़ाते हुए देखता हूं तो मेरे पूर्व सहकर्मी के वो शब्द प्रतिध्वनित होने लगते हैं।
हम जाने कैसे भूल गए हैं कि एक सभ्य समाज और विचारशील लोकतंत्र में तर्क, साक्ष्य और विचारों के संवेदनशील आदान-प्रदान के माध्यम से ही अनुनय जीता जाता है। हम एक चिंताजनक प्रवृत्ति के मूक गवाह बनते जा रहे हैं- जहां बातों में तर्क की अनुपस्थिति की भरपाई बल और धमकी की जुबान से की जाती है। जिन लोगों के पास विचारों की ताकत की कमी है, वे लोगों को चिल्लाकर चुप करा रहे हैं।
राजनीतिक समुदाय में भी विपक्ष को चुप कराने का कमोबेश यही तरीका अपनाया जाता है, बजाय इसके कि उन्हें समझाया जाए कि वे किस दृष्टिकोण से बहस कर रहे हैं। यह बदलाव- तर्कपूर्ण बहस से टकरावपूर्ण बयानबाजी तक न केवल सभ्यता की विफलता है, बल्कि बौद्धिक क्षरण को भी दर्शाता है। जब तर्क तथ्यों या नैतिक तर्क पर आधारित नहीं रह जाते, बल्कि व्यक्तिगत हमलों पर टिके होते हैं, तो लोकतांत्रिक बातचीत का ताना-बाना बिखरने लगता है।
यह शहर के पार्कों में सुबह टहलने के दौरान की चर्चा से लेकर गांव-मोहल्लों की चौपालों पर विचार-विमर्श और संसदीय बहसों पर भी लागू होता है। किसी भी सार्वजनिक स्थान पर बातचीत की प्रकृति को देखते हुए यह चौंकाने वाली सच्चाई दृष्टिगोचर होती है कि बल का तर्क उन लोगों की शरणस्थली बन गया है, जो विचारों के आधार पर जीत नहीं सकते और परिणामस्वरूप लोकतंत्र और सार्वजनिक विमर्श दोनों ही हार जाते हैं। इस तरह की बातचीत की उत्पत्ति को देखते हुए महसूस होता है कि जब आम नागरिक और राजनेता सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की अस्थिर और अस्थायी सामग्री पर अधिक से अधिक निर्भर होते हैं, तो वे सूक्ष्म और विचारशील लोकतंत्र और सभ्य समाज के विचार के मूल तत्व को कमजोर करते हैं।
त्वरित प्रतिक्रियाएं, आक्रोश से प्रेरित रुझान और ध्रुवीकरण करने वाले साउंडबाइट्स विचारशील बहस और तर्कपूर्ण संवाद की जगह ले लेते हैं। इस प्रक्रिया में, लोकतांत्रिक विमर्श वायरल सामग्री तक सीमित हो जाता है, जिससे जटिलता, समझौते और आलोचनात्मक सोच के लिए जगह खत्म हो जाती है । एक स्वस्थ लोकतंत्र और सभ्य समाज में, राजनीतिक नेतृत्व से विचार-विमर्श, आलोचनात्मक जुड़ाव और जटिलता के प्रति खुलेपन की उम्मीद की जाती है। हालांकि, नेताओं की बयानबाजी, रणनीति और यहां तक कि नीतिगत स्थिति को सोशल मीडिया के अस्थिर पारिस्थितिकी तंत्र से निकालने की बढ़ती प्रवृत्ति लोकतांत्रिक शासन और सभ्यतागत मूल्यों के मूलभूत आदर्शोंों के लिए खतरा है।
ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म विचारशील विश्लेषण या साक्ष्य आधारित तर्क के बजाय तात्कालिकता, सनसनीखेज और भावनात्मक प्रतिध्वनि को पुरस्कृत करने के लिए संरचित हैं। जब किसी सार्वजनिक मंच पर होने वाले विमर्श इन गतिशीलताओं से आकार लेते हैं, तो यह चिंतनशील होने के बजाय प्रतिक्रियात्मक हो जाता है। नेता जो ट्रेंडिंग हैशटैग, मीम्स या आक्रोश पैदा करने वाले पोस्ट चुनते हैं, वे अक्सर परामर्श, बहस और जांच के संस्थागत तंत्र को दरकिनार कर देते हैं। यह न केवल गंभीर सार्वजनिक मुद्दों को महत्वहीन बनाने में तेजी लाता है, बल्कि सार्थक नीति निर्माण पर लोकलुभावन मुद्रा को भी बढ़ावा देता है।
Date: 25-06-25
आपातकाल से सबक सीखना जरूरी
केसी त्यागी
इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा किसी बाह्य या आंतरिक उथल-पुथल के कारण नहीं की थी। 1971 के बांग्ला युद्ध के दौरान ही बाह्य आपातकाल लग गया था। गुजरात, बिहार में उभरे युवाओं के आंदोलन का राष्ट्रव्यापी रूप लेना, जेपी जैसे महानायक का उसे नेतृत्व प्रदान करना, 12 जून, 1975 को गुजरात में कांग्रेस पार्टी की पराजय आदि कई प्रमुख कारण रहे। जेपी स्वाधीनता संग्राम में गांधी और नेहरू के विश्वासपात्र साथियों में थे। लिहाजा, आपातकाल को लेकर उनकी पीड़ा अन्य नेताओं से भिन्न और मार्मिक थी। इंदिरा गांधी को जेल से लिखा जेपी का पत्र उनकी आत्मा की आवाज है- ‘कृपया उन बुनियादों को तबाह न करें, जिन्हें राष्ट्र के पिताओं ने, जिसमें आपके पिता भी शामिल हैं, अपने खून-पसीने से सींचने का काम किया है। आप जिस रास्ते पर चल पड़ी हैं, उस पर संघर्ष और पीड़ा के सिवाय और कुछ भी नहीं है। आपको एक महान परंपरा, महान मूल्य और कार्यरत लोकतंत्र विरासत में मिला है। जाते-जाते दुखी कर देने वाला मलबा छोड़कर मत जाइए, फिर से जोड़ने में काफी समय लग जाएगा। जिन लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लिया और उसे परास्त किया, वे अनिश्चितकाल तक अधिनायकवाद के अपमान और शर्म को बर्दाश्त नहीं कर सकते।’
25 जून, 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में समूचे विपक्ष द्वारा आयोजित रैली बहुत विशाल थी। पहले इसका आयोजन 20 जून को तय था। जेपी उस दिन कोलकाता में थे। उनकी उपस्थिति को रोकने के लिए कोलकाता से दिल्ली की सभी उड़ानें रद्द कर दी गईं। लिहाजा, 25 जून की तिथि तय की गई थी। जनसंघ नेता मदनलाल खुराना मंच का संचालन कर रहे थे। लोकदल के प्रतिनिधि के रूप में सत्यपाल मलिक और मैं उपस्थित थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 12 जून को जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के फैसले से समूचे देश में भूचाल – सा आ गया था। समाजवादी नेता राजनारायण ने 1971 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध लोकसभा का चुनाव लड़ा और वे पराजित हो गए थे। उन्होंने उन नतीजों को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले में इंदिरा गांधी को चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने, भ्रष्ट हथकंडे अपनाने, डीएम, एसपी के पदों का दुरुपयोग करने, शराब और कंबल आदि बांटने का दोषी पाया और उनके चुनाव को रद्द कर उन्हें छह वर्ष के लिए अयोग्य घोषित कर दिया।
हालांकि बाद में उनके वकील डीपी खरे ने एक याचिका दायर कर बीस दिन की छूट की मांगी थी कि नए नेता का चुनाव करना होगा और इस बीच में कोई उथल-पुथल राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध हो सकती है। हालांकि नेता के चुनाव की बात तो दूर, समूची पार्टी ने एक बड़ी रैली 23 जून को कर उनके प्रति न सिर्फ आस्था का परिचय दिया, बल्कि तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने सभ्यता की सभी सीमाएं लांघते हुए नारा दिया कि इंदिरा ही भारत है और भारत ही इंदिरा है।
आपातकाल के तमाम प्रसंगों और घटनाक्रम से एक बड़ी सीख मिलती है। जब कोई व्यक्ति या नेता अपने को पार्टी या फिर राष्ट्र का पर्याय मान लेता है, तो लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन और तानाशाही की बुनियाद वहीं से शुरू हो जाती है। औपचारिक रूप से आपातकाल थोपना अब असंभव है, पर ऐसी आशंकाएं बनी रहती हैं, जो किसी व्यक्ति विशेष को संस्थागत तंत्रों और सिद्धांतों से ऊपर उठा देता है।
बहरहाल, रैली में सभी प्रमुख दलों के नेताओं के बाद जेपी बोलने को उठे तो विशाल जनसमुदाय देर तक तालियां बजाकर उनका अभिवादन करता रहा । वातावरण सारगर्भित था और उत्तेजित भी। राष्ट्रकवि दिनकर की इस कविता का कई बार उल्लेख होता है कि- ‘सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी / मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है/ दो राह, समय के रथ का घर्घर – नाद सुनो / सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। ‘
जेपी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के घटनाक्रम का जिक्र करते हुए इंदिरा गांधी के इस्तीफे की पुनः मांग की कि यह जन समर्थन के अभाव वाली सरकार है और वे इसे अस्वीकार करते हैं। उन्होंने सेना और पुलिस से अपील की कि वे किसी भी अवैध आदेश का पालन न करें, जैसा कि उनका मैन्युअल भी कहता है। इसी प्रकार का प्रस्ताव 1930 के दशक में मोतीलाल नेहरू ने भी पारित किया था कि पुलिस को चाहिए कि वह अवैध आदेशों का पालन न करे। उस समय के अंग्रेज जजों ने भी स्वीकार किया था कि अवैध आदेशों का पालन न करने की अपील करने में कुछ गलत नहीं है।
इंदिरा गांधी असुरक्षा के दौर से गुजर रही थीं। एक तबके द्वारा अदालत का फैसला आने तक किसी वरिष्ठ मंत्री को कार्यभार सौंपने की मांग भी उठने लगी। सरदार स्वर्ण सिंह और बाबू जगजीवन के नाम प्रमुखता से चर्चा में रहे, लेकिन इस दौर में इंदिरा गांधी का किसी नेता पर ऐतबार नहीं बचा था। उनकी मुसीबत को निरंतर बढ़ाने का काम चंद्रशेखर और उनके साथी कर रहे थे। मोहन धारिया, कृष्णकांत, लक्ष्मीकांत झा इस समूह के सदस्य थे, जो निरंतर टकराव टालने और जेपी से संवाद करने के पैरोकार थे। इन्हीं नेताओं के प्रयास से दो दौर की वार्ता इंदिरा गांधी और जेपी के बीच हो चुकी थी, जो बेनतीजा रही।
इसी असुरक्षा के दौर में आरके धवन, संजय गांधी और चौधरी बंसीलाल का त्रिगुट सक्रिय हुआ था। संजय गांधी को मारुति उद्योग के लिए 290 एकड़ जमीन आबंटित किए जाने पर संसद कई बार ठप हो चुकी थी। तीनों ने मिलकर सख्त कार्रवाई करने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। इंदिरा गांधी के आवास पर 12 जून से निरंतर जनसमर्थन के नाम पर रैली आयोजित होने लगी। युवा कांग्रेस में उपद्रवी किस्म के तत्त्वों की भरमार हो चली थी। तिगड़ी ने इंदिरा गांधी पर दबाव बनाना शुरू किया कि वे नरम रुख त्यागकर कड़ा रवैया अख्तियार करें चंद्रशेखर के नार्थ एवेन्यू स्थित आवास पर 24 जून को जेपी के सम्मान में आयोजित भोज में दो दर्जन से अधिक कांग्रेसी सांसदों की उपस्थिति ने सबको आश्चर्यचकित कर दिया।
सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कानूनविद आपातकाल का मसविदा तैयार करने लगे और संजय ब्रिगेड ने जेपी की पुलिस और सेना से की गई अपील को मुख्य मुद्दा बनाकर आपातकाल की योजना तैयार कर ली रात को 11:45 पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अहमद से हस्ताक्षर करा कर इसकी घोषणा कर दी गई। सुबह छह बजे कैबिनेट की बैठक में सभी महत्त्वपूर्ण जानकारियां आदान-प्रदान होती रहीं। उस समय तक देश के लगभग डेढ़ लाख से ज्यादा नेता और कार्यकर्ता जेल जा चुके थे परिजनों को यातनाएं दी जा रही थीं। जमानत के लिए अदालतों पर दबाव बनाया गया और प्रेस पर सेंसरशिप लगाकर उसकी आजादी का गला घोंट दिया गया। हालांकि प्रेस क्लब दिल्ली से कुलदीप नैयर की अगुआई में सौ से ज्यादा पत्रकारों ने इसका विरोध किया, लेकिन इंदिरा गांधी के सत्ता के जुनून के सामने सब फीका पड़ गया।