25-06-2018 (Important News Clippings)
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Date:25-06-18
Strategic Quotient
Why the US must reconsider punitive trade tariffs against India, fast
TOI Editorials
With India announcing additional duties on 29 American goods to counter higher levies on steel and aluminium announced earlier by the US, the two countries are going through a tense phase in their trade relationship. New Delhi has said that the new rates will kick in from August 4, leaving room for negotiations with Washington. It’s just as well that assistant US trade representative Mark Linscott is visiting to work on possible solutions. An all-out trade tussle between the two countries will benefit neither and negatively impact their growing strategic partnership.
As a bargaining chip for negotiations, India has reportedly offered to order nearly 1,000 civilian aircraft over the next seven to eight years and step up oil and gas purchases from the US. Additionally, it is looking to buy 12 more P8i naval surveillance aircraft from the Americans. The two sides are also working on the next foundational agreement – the Communications Compatibility and Security Agreement – necessary for the two countries’ Indo-Pacific strategy. The US should not miss the woods for the trees.
While US President Donald Trump’s decision to adopt trade countermeasures against China is understandable given Beijing’s track record on intellectual property and non-tariff barriers – China has been gaming world trade for decades – it would be a serious mistake to place a struggling and pacific India in the same category as a hyper aggressive China that works counter to US interests. As the world’s largest and oldest democracies, India and the US share common values and a world view underpinned by liberty and a rules-based order. Trump may well be sticking to his ‘America First’ political framework but he should also know that he can’t have a strategic partnership with India and simultaneously engage in a trade war with it.
Date:24-06-18
चीन की रेल पर नेपाल की सवारी
डॉ. दिलीप चौबे
नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली चीन की यात्रा से स्वदेश लौट आए हैं। दोनों देश तिब्बत के ल्हासा से नेपाल के काठमांडू तक रेल की पटरी बिछाने पर सहमत हो गए हैं। अगर यह रेल परियोजना सफल हो जाती है, तो इस पूरे क्षेत्र की भू-राजनीतिक स्थिति बदल जाएगी, जो भारत और नेपाल के संबंधों को गहरे तक प्रभावित कर सकती है। नेपाल भूबंध देश है, इसलिए प्रधानमंत्री ओली इस रेल नेटवर्क को व्यापार और परिवहन वस्तुओं की आपूर्ति का वैकल्पिक मार्ग के तौर पर देखरहे हैं। चीन के साथ द्विपक्षीय संबंधों की यह दूसरी महत्त्वपूर्ण पहल है। इससे पहले उन्होंने दो हजार सोलह के अपने संक्षिप्त कार्यकाल के दौरान चीन के साथ ट्रांजिट ट्रेड का समझौता किया था। उस समय मधेशी आंदोलन चरम पर था, जिसके कारण नेपाल में आर्थिक नाकेबंदी हुई थी। रोजमर्रा की वस्तुओं की जबरदस्त किल्लत हो गई थी। ओली ने इस आंशिक नाकेबंदी के लिए भारत को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराया था। चीन के साथ ट्रांजिट ट्रेड समझौता आर्थिक नाकेबंदी का स्वाभाविक परिणाम था। इसलिए इन दोनों समझौतों को भारत पर नेपाल की निर्भरता को कम करने की रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है।
शीत युद्ध के दौरान जब सोवियत संघ एक महाशक्ति था, तब राजनीति शास्त्र के अध्ययन का यह रोचक विषय हुआ करता था कि क्या समान विचारधारा वाले देशों के बीच संबंध अधिक सहज और अधिक मधुर होते हैं? लेकिन सोवियत संघ और चीन के असहज रिश्तों ने इस अध्ययन को आगे बढ़ने से रोक दिया था। नेपाल और चीन के संदर्भ में भी यह सवाल बनता है कि क्या वैचारिक समानता के कारण ओली की विदेश नीति का झुकाव चीन की ओर हो रहा है, या भारत को भय दिखाने के लिए प्रधानमंत्री ओली चीन का कार्ड खेल रहे हैं? हालांकि नेपाल, भारत से नाराज होकर जब कभी चीन के करीब गया है, उसे प्रायश्चित ही करना पड़ा है। यह साठ के दशक की बात है, जब राजा महेंद्र ने जब निर्वाचित सरकार को भंग कर आपातकाल लगाया था, तब प्रधानमंत्री नेहरू ने उनकी लोकतंत्र विरोधी कार्रवाई की कठोर शब्दों में निंदा करते हुए कहा था कि यह लोकतंत्रपर कुठाराघात है।
उस दौरान राजा महेंद्र ने चीन से हाथ मिलाया था, लेकिन नेपाल में चीन की बढ़ती अवांछित गतिविधियों को देखकर उन्हें अपना हाथ पीछे खींचना पड़ा था। प्रधानमंत्री ओली चीन की महत्त्वाकांक्षी ‘‘वन बेल्ट, वन रोड’ परियोजना के साथ हैं। इसे वह अपने राष्ट्रीय हितों के लिए आवश्यक मानते हैं, लेकिन चीन की यह परियोजना भारत की संप्रभुता को रौंदने वाली है। इसलिए पिछले दिनों चीन में संपन्न शंघाई सहयोग परिषद के शिखर सम्मेलन में भारत अकेला देश था, जिसने इस परियोजना का विरोध किया था। नेपाल की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसकी आर्थिक निर्भरता भारत पर बनी रहेगी। भारत-नेपाल के रिश्ते राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आयाम लिए हुए हैं। दोनों देशों के संबंधों की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उनकी आपसी सीमाएं खुली हुई हैं और भारत और नेपाल के नागरिक बिना वीजा के यात्रा कर सकते हैं। लिहाजा, दोनों के सुरक्षा हित परस्पर जुड़े हुए हैं। इसलिए नेपाल को चीन के साथ अपने रिश्तों को आगे बढ़ाते हुए भारत के सुरक्षा हितों को भी ध्यान में रखना होगा।
Date:24-06-18
कृषि का संकट ले आया अनुबंध खेती का दौर
संपादकीय
दशकों से यह चिंता जताई जा रही थी कि जल्दी ही देश के किसान किसानी छोड़ने को मजबूर होंगे। यह आशंका अब सच के रूप में हमारे सामने आ खड़ी हुई है। किसानों के खेती छोड़कर जाने के कारण ही कॉन्ट्रैक्ट खेती का विकल्प आजमाया जा रहा है। कॉन्ट्रैक्ट खेती कानून के जरिए सरकार अब खेतों को अपने कब्जे में लेकर औद्योगिक घरानों को लीज पर देकर उनसे खेती कराएगी। इसके लिए किसान अपनी मर्जी से अपनी जमीन सरकार को देंगे। बदले में उनको ठेके की तरह प्रतिवर्ष के हिसाब से कीमत दे दी जाएगी।दरअसल विगत कुछ वर्षों से किसानों का खेती-बाड़ी से तेजी से मोहभंग हुआ है। किसान अपने बच्चों को खेती की जगह दूसरे काम-धंधों में लगाने लगे हैं। वजह साफ है कि खेती से उनको लगातार नुकसान हो रहा है। इससे उनकी लागत भी नहीं निकलती। इसी वजह से अन्नदाता कर्ज के बोझ में दबता चला जाता है, जो कई मामलों में आत्महत्या तक का कारण बन जाता है। यह स्थिति लंबे समय से बनी हुई है। मगर किसी भी सरकार ने इस स्थिति को बदलने वाला कोई निर्णायक कदम नहीं उठाया। जो एकाध कदम उठाए भी गए वे दिखावे वाले ही साबित हुए। अब पिछले माह केंद्र की मोदी सरकार ने अनुबंध खेती का मॉडल कानून (मॉडल कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट 2018) पेश किया है।
सरकार की मानें तो यह कानून उन खेतिहरों के हित में लाया जा रहा है जो खेती पर ही आश्रित हैं, लेकिन नाम मात्र खेती के जोतकार हैं और इस वजह से उनके परिवारों का भरण-पोषण ठीक से नहीं हो पाता, लेकिन किसान नेता कॉन्ट्रैक्ट खेती कानून को केंद्र सरकार की गहरी चाल बता रहे हैं। उनका मत है कि सरकार किसानों को खेती से पैदल करना चाहती है। कॉन्ट्रैक्ट खेती कानून को लेकर सरकार की ओर से दावा किया जा रहा है कि इस प्रयोग से 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी। केंद्र सरकार इसे अगले आम चुनाव का मुद्दा बनाने की तैयारी में भी है। उसे भरोसा है कि देश के छोटे व कमजोर किसान इस कानून के पक्ष में गोलबंद होंगे। मौजूदा सरकार ने जिस तरह नोटबंदी जैसे फैसले को भी आम लोगों के पक्ष में न केवल साबित कर दिया बल्कि उन्हें अपनी तकलीफों की अनदेखी कर इस कदम के समर्थन में आगे आने को भी तैयार कर लिया, उसे देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि इस कानून पर आम किसानों की वास्तव में कैसी प्रतिक्रिया होगी। दिलचस्प बात है कि कॉन्ट्रैक्ट खेती कानून का जहां बड़े-बड़े किसान नेता विरोध कर रहे हैं वहीं कई विशेषज्ञ मानते हैं कि मॉडल कॉन्ट्रैक्ट खेती कानून सही दिशा में एक कदम हो सकता है।
उनके मुताबिक यह न केवल किसानों के स्वामित्व के अधिकारों की रक्षा करेगा, बल्कि उन्हें बेईमान बिचौलियों को बाईपास करने और सीधे खेतों में प्रायोजकों को अपने उत्पाद बेचने की अनुमति देगा। आढ़तिया या कमीशन एजेंटों के उन्मूलन का मतलब किसानों को 5 से 10 प्रतिशत की अतिरिक्त आय होगी। देश के विभिन्न राज्यों के किसानों को हाल में फसल मूल्य सीधे उनके खाते में डाले जाने के सरकारी प्रावधान को आढ़तिया आंदोलन के जरिये खटाई में डलवा देने का कड़वा अनुभव अभी भी याद है। हालांकि इस कानून ने उम्मीद जगाई है कि किसानों को आधुनिक तकनीक और विस्तार सेवाओं, परेशानी मुक्त वित्त और फसल व पशुधन बीमा तक आसानी से पहुंच मिल जाएगी। आदर्श कानून प्रायोजक के तहत छोटे परिवार के खेतों के एकीकरण में मदद करेगा, जमीन पर दबाव कम करेगा और रोजगार पैदा करेगा। इस कोड में फसल विविधीकरण की ओर किसानों को ले जाने की क्षमता भी है। इन परस्पर विरोधी दावों के बीच यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि देश में अनुबंध खेती का दौर आ चुका है। किसान नेता इसका विरोध तो कर रहे हैं, लेकिन देश का आम किसान इस सवाल पर तत्काल किसी लंबे और मजबूत आंदोलन के मूड में है, ऐसा लगता नहीं है। लिहाजा, हमें इस कदम को इसके नतीजों से ही नापने की तैयारी करनी चाहिए।
Date:24-06-18
मौलिक अधिकार बनाम मौलिक कर्तव्य
संपादकीय
छब्बीस जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया। संविधान ही वह दस्तावेज है जिसमें वर्णित मौलिक अधिकारों के बल पर हम देश के हर कोने में अपनी हर प्रकार की स्वतंत्रता का आनंद उठाते हैं। किसी भी प्रकार का अन्याय होने पर यही मौलिक अधिकार हमारी ढाल बन जाते हैं। हर भारतीय खुद को सौभाग्यशाली समझता है कि उसे ऐसे मौलिक अधिकार मिले जिनसे वह अपने जीवन को बिना किसी डर के व्यतीत कर सकता है। हम सब मौलिक अधिकारों की बात तो बड़े जोर-शोर से करते हैं, लेकिन जब बात आती है देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों की, तो हम सब पीछे हटने और टालमटोली वाली हालत में आ जाते हैं। इसी संविधान ने हमें समाज व देश के प्रति जो जिम्मेदारी तय करने के मौलिक कर्तव्य दिए उनकी बात या तो कोई करना नहीं चाहता या हम जान-बूझ कर नहीं करते। मतलब साफ है, हम पाना तो सबकुछ चाहते हैं लेकिन बदले में या अपना दायित्व समझ कर कुछ करना नहीं चाहते। इसी संविधान में वर्ष 1976 में किए गए 42वें संविधान संशोधन के द्वारा नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों को सूचीबद्ध किया गया था। संविधान के भाग क में सन्निहित अनुच्छेद 51 ‘क’ मौलिक कर्तव्यों के बारे में है। यह अन्य चीजों के साथ-साथ नागरिकों को संविधान का पालन करने, आदर्श विचारों को बढ़ावा देने और अनुसरण करने का आदेश देता है, जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा लेता है, देश की रक्षा करने के साथ-साथ जरूरत पड़ने पर देश की सेवा करने और सौहार्द व समान बंधुत्व की भावना विकसित करने, साथ ही धार्मिक, भाषाई, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय विविधताओं का सम्मान करने का आदेश व प्रेरणा देता है।
सरदार स्वर्ण सिंह समिति की अनुशंसा पर ही संविधान के 42वें संशोधन-1976 के द्वारा मौलिक कर्तव्यों को संविधान में जोड़ा गया। मौलिक कर्तव्यों की अवधारणा को रूस के संविधान से लिया गया है। कहने को तो मौलिक कर्तव्यों की संख्या ग्यारह है, पर इनमें कुछेक कर्तव्यों को एक-दूसरे में जोड़ दिया गया है अर्थात नाम अलग-अलग कर दिया गया है। बात की जाए विशेष व जरूरी मौलिक कर्तव्यों की, तो सबसे पहले प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि वह संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे। प्रत्येक देशवासी का मौलिक कर्तव्य बनता है कि भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे। हमें यह याद जरूर रहता है कि हमें हमारी सुरक्षा का मौलिक अधिकार मिला हुआ है, पर देश की सुरक्षा व अखंडता की आज कितने लोग परवाह कर रहे हैं? देश की रक्षा केवल सीमा पर जाकर या सैनिक बन कर ही नहीं हो सकती। हम देश में या अपने क्षेत्र में भाईचारे की भावना को पैदा कर भी देश की रक्षा कर सकते हैं। आज जाति या धर्म के नाम पर बंटने-बांटने के बजाय हम क्यों नहीं अपने मौलिक कर्तव्य का पालन करते? अपने-अपने धर्म की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की बात तो सब करते हैं लेकिन सर्वधर्म स्वतंत्रता व धार्मिक विश्वास को बढ़ाने की बात आखिर क्यों नहीं की जाती? तब हम इसी मौलिक अधिकार के साथ-साथ मौलिक कर्तव्य की बात क्यों नहीं करना चाहते? हम शिक्षा, स्वास्थ्य, व सड़क जैसी जन सुविधाएं पाने के लिए अपने मौलिक अधिकारों की बात भी करते हैं लेकिन इन्हीं जन सुविधाओं को पा लेने के बाद इनके रखरखाव की बात हम क्यों नहीं करते? हमें परिवहन सुविधा मिलती है लेकिन हम उसी सुविधा के प्रति अपने मौलिक कर्तव्य को भूल जाते हैं। अपने-अपने क्षेत्र में सरकारी बस चले ऐसा अधिकार तो हम चाहते हैं लेकिन उन्हीं बसों को अपने आक्रोश का प्रदर्शन करने या किसी मांग को पूरा करवाने के लिए जला देते हैं। कई बार बस में बैठे-बैठे बस की सीट को फाड़ देना या किसी को ऐसा करते देख कर न रोकना भी मौलिक कर्तव्य का हनन है।
अपनी मांगें मनवाने के लिए हम मौलिक अधिकार की आड़ लेकर आंदोलन करते हैं, लेकिन मौलिक अधिकार में शांतिपूर्वक विरोध प्रकट करने की बात है, न कि हिंसक प्रदर्शन या आगजनी कर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाना। हम तब क्यों भूल जाते हैं कि सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखने का मौलिक कर्तव्य भी इसी संविधान ने दिया है। आपका रोष व्यवस्था से हो सकता है लेकिन सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का मतलब खुद को नुकसान पहुंचाना है। यह कोई मुफ्त में मिला उपहार नहीं होता, यह हम सबके द्वारा करों के रूप में किए गए भुगतान से होने वाली आय से बनी संपत्ति होती है। चाहे कोई ग्रामीण हो या शहरी, सभी को सड़क सुविधा तो चाहिए, लेकिन जब यही सड़क सुविधा मिल जाती है तो देखने में आता है कि कोई अपने घर के व्यर्थ पानी को सड़क पर फेंक रहा है, किसी के शौचालय की निकासी सड़क पर है तो कोई निजी कार्य के लिए सड़क को उखाड़ रहा है। सुविधा के लिए मौलिक अधिकार तो याद रहा लेकिन उसी सुविधा अर्थात सार्वजनिक संपत्ति के प्रति हमें अपने मौलिक कर्तव्य की याद क्यों नहीं रहती! हमारा मौलिक कर्तव्य है पर्यावरण की रक्षा और उसका संवर्धन करना, पर आए दिन जंगलों को अवैध रूप से काटने से खुद को या अन्य को कहां रोक पा रहे हैं? छह से चौदह वर्ष के बच्चों का प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करना (86वां संशोधन) जहां बच्चों का मौलिक अधिकार है वहीं दूसरी तरफ इनके अभिभावकों का यह मौलिक कर्तव्य भी है कि बच्चों को शिक्षा दिलाएं। देखा जाए तो अधिकारों और कर्तव्यों का अन्योन्याश्रित संबंध है
अधिकारों का अभिप्राय है कि मनुष्य को कुछ स्वतंत्रताएं प्राप्त होनी चाहिए, जबकि कर्तव्यों का अर्थ है कि व्यक्ति के ऊपर समाज के कुछ ऋण हैं। समाज का उद्देश्य किसी एक व्यक्ति का विकास न होकर सभी मनुष्यों के व्यक्तित्व का समुचित विकास है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार के साथ कुछ कर्तव्य जुड़े हुए हैं जिन्हें निभाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। देखा जाए तो हम मौलिक अधिकारों को अपनी जागीर मानते हैं जबकि मौलिक कर्तव्यों को दूसरों के लिए छोड़ देते हैं, मतलब लेने का अधिकार हमारा और देने का किसी दूसरे का। यह सोच हमें विकसित होने नहीं दे सकती। एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हम सबकी अपने राष्ट्र के प्रति जवाबदेही बनती है। मौलिक अधिकार जहां हमें देश में स्वतंत्र रूप से रहने-सहने की शक्तियां देते हैं वहीं मौलिक कर्तव्य हमें देश के प्रति बनते हमारे दायित्व को निभाने के आदेश देते हैं। मौलिक अधिकार व मौलिक कर्तव्य एक-दूसरे के पूरक हैं, न कि विरोधी। वक्त के साथ मौलिक अधिकारों को लेकर सामाजिक चेतना बढ़ी है, पर मौलिक कर्तव्यों की तो जैसे किसी को सुध ही नहीं। यह अंतर्विरोध ही आज हमारी तमाम समस्याओं की जड़ है, और इसी अंतर्विरोध के कारण आए दिन तमाम तरह के टकराव, झगड़े और संघर्ष पैदा होते हैं। बेशक अगर मौलिक अधिकारों पर आंच आए या उनका हनन हो तो हमें उसका पुरजोर विरोध करना चाहिए, वरना हमारे मौलिक अधिकारों के साथ-साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था की भी बलि चढ़ जाएगी। लेकिन मौलिक अधिकारों के साथ-साथ मौलिक कर्तव्यों को भी हमेशा याद रखने की जरूरत है।
Date:23-06-18
पानी का प्रश्न
संपादकीय
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो के पूर्व अध्यक्ष के. कस्तूरीरंगन का कहना है कि भारत के कुल जल उपयोग में कृषि-कार्यों में होने वाले इसके इस्तेमाल को पचास फीसद से नीचे लाने की जरूरत है। साथ ही, जल की एक-एक बूंद को बचाने और उसके प्रबंधन की कोशिश की जानी चाहिए। कस्तूरीरंगन का यह आग्रह दरअसल वक्त का तकाजा है। भारत में जल संकट दिनोंदिन और गहराता जा रहा है। पिछले दिनों आई नीति आयोग की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में करीब साठ करोड़ लोग पानी की घोर कमी का सामना कर रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक 2030 तक देश में पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति से दोगुना होने का अनुमान है। ऐसे में, अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगले दस-बारह साल बाद कैसे भयावह हालात होंगे। अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होने की कथित भविष्यवाणी सही हो या नहीं, यह अभी से दिख रहा है कि सामाजिक असंतोष और कानून-व्यवस्था की बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है। लिहाजा, पानी को बचाने और सहेजने के जतन सभी को करने होंगे। दरअसल, ऐसे प्रयास युद्धस्तर पर चलाए जाने चाहिए।
पानी की सबसे ज्यादा खपत सिंचाई में होती है। फिर, औद्योगिक तथा घरेलू उपयोग में। भारत में कुल जल-उपयोग का करीब सत्तर फीसद कृषि-कार्यों में होता है। खेती तो बंद नहीं की जा सकती, क्योंकि यह हमारे पोषण का आधार है, लेकिन खेती में पानी की खपत जरूर घटाई जा सकती है। असल में, खेती में पानी की बेतहाशा खपत का दौर हरित क्रांति के समय शुरू हुआ। हरित क्रांति ने एक समय पैदावार बढ़ाने में बहुत अहम भूमिका निभाई, पर उसने रासायनिक खादों, कीटनाशकों पर अत्यधिक निर्भरता और पानी की बेतहाशा खपत वाली जिस कृषि प्रणाली का प्रसार किया वह आज पर्यावरणीय संकट की वजह बन गई है। इसलिए अब ऐसी कृषि प्रणाली की जरूरत दिनोंदिन अधिक शिद््दत से महसूस की जा रही है जो रासायनिक खादों व कीटनाशकों पर निर्भरता घटाती जाए और पानी की कम खपत से संभव हो सके। इस सिलसिले में बूंद-बूंद सिंचाई और टपक सिंचाई की विधि को अधिक से अधिक अपनाने की जरूरत है। इजराइल इसमें दुनिया में अग्रणी है और हम इस मामले में उससे बहुत कुछ सीख सकते हैं। तालाबों को पाटते जाने और नदियों के सिकुड़ते जाने के कारण भी सिंचाई के लिए भूजल का दोहन तेज हुआ और इसके फलस्वरूप धरती के नीचे का जल भंडार लगातार छीजता जा रहा है।
भूजल के अंधाधुंध दोहन के कारण, एक समय हरित क्रांति का अगुआ रहे पंजाब की यह हालत हो गई है कि वहां के कई इलाके ‘डार्क जोन’ की श्रेणी में आ गए हैं, यानी वहां अब भूजल निकालना संभव नहीं रह गया है। अगर हम पुनर्भरण के मुकाबले बहुत ज्यादा निकासी करेंगे, तो जल की उपलब्धता घटते जाना स्वाभाविक है। यही जल संकट का मूल कारण है। फिर, संकट का दूसरा प्रमुख कारण है कि उपलब्ध पानी प्रदूषित होने से उपयोग लायक नहीं रह जाता। हमारी बहुत-सी नदियों और झीलों का यही हाल है। इसलिए अगर हम जल संकट से समय रहते निपटना चाहते हैं तो हमें एक तरफ भूजल का दोहन सीमित करना होगा, पानी को प्रदूषित होने से बचाना होगा, और दूसरी तरफ वर्षाजल संचयन के तरीके अपना कर पानी को सहेजने का भी जतन करना होगा।
Date:23-06-18
कारोबारी जंग
संपादकीय
अमेरिका ने इन दिनों व्यापार युद्ध छेड़ रखा है। पड़ोसी देश कनाडा से लेकर चीन तक व्यापार युद्ध के मैदान में हैं। दशकों पुराना कारोबारी सहयोगी भारत और यूरोपीय संघ के सहयोगी देश भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। अमेरिका ने व्यापार युद्ध की इस रणनीति के तहत आयात शुल्क का कोड़ा चलाया है। बदले में उसे भी ऐसी ही कार्रवाई का सामना कर पड़ रहा है। कुल मिलाकर दुनिया के कारोबारी देशों में छिड़ी यह जंग अच्छे संकेत नहीं दे रही है। ऐसे व्यापार युद्ध अर्थव्यवस्था को काफी हद तक प्रभावित करते हैं। इस जंग की शुरुआत तब हुई जब इस साल मार्च में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन के पचास अरब डॉलर के उत्पादों पर आयात शुल्क लगाने की बात कही थी। जवाब में चीन ने भी ऐसी ही कार्रवाई की धमकी दी तो ट्रंप ने चीन के एक सौ अरब डॉलर के उत्पादों पर शुल्क लगाने की बात कह दी। ट्रंप ने तर्क रखा कि चीन की नीतियों की वजह से अमेरिका व्यापार असंतुलन की मार झेल रहा है। उन्होंने चीन पर बौद्धिक संपदा चोरी का आरोप भी मढ़ दिया। इसलिए चीन से आयात होने वाले इस्पात, अल्युमीनियम सहित कई उत्पादों पर शुल्क लगा दिया। ट्रंप ने इस आयात शुल्क में यूरोपीय संघ सहित कई देशों को तो रियायत दे दी, लेकिन चीन के मामले में कोई नरमी नहीं दिखाई।
बदले में चीन ने भी अमेरिका से आयात होने वाली तमाम वस्तुओं पर उत्पाद शुल्क ठोक दिया। लड़ाई अब अमेरिका और चीन तक सीमित नहीं रह गई है। अमेरिका ने भारत से आयात होने वाले इस्पात और अल्युमीनियम पर भारी उत्पाद शुल्क लगा दिया। जवाब में भारत ने भी अमेरिका से खरीदे जाने वाले उनतीस उत्पादों पर शुल्क लगा दिया। इनमें दालें, बादाम, अखरोट, सेब, लोहे और इस्पात के उत्पाद शामिल हैं। सबसे ज्यादा शुल्क अखरोट पर तीस से बढ़ा कर एक सौ बीस फीसद कर दिया है। पिछले साल भारत ने अमेरिका से अट्ठावन करोड़ डॉलर का अखरोट आयात किया था। हार्ले डेविडसन की मोटरसाइकिल को लेकर भी विवाद है। भारत ने आठ सौ सीसी से ज्यादा क्षमता वाली मोटरसाइकिलों पर आयात शुल्क पचास फीसद और बढ़ाने की बात कही है। हालांकि अभी इस पर फैसला नहीं हुआ है। इस्पात और अल्युमीनियम पर शुल्क से भारत को चौबीस करोड़ डॉलर से ज्यादा का नुकसान होगा।
इसके जवाब में भारत ने जो शुल्क लगाए हैं, उनसे चौबीस करोड़ डॉलर का राजस्व मिलने की उम्मीद है। भारत और चीन ही नहीं, ट्रंप की व्यापार नीति से यूरोपीय संघ के देश भी कम नाराज नहीं हैं। ट्रंप ने यूरोपीय देशों से आयात होने वाले इस्पात पर पच्चीस फीसद और अल्युमीनियम उत्पादों पर दस फीसद आयात शुल्क लगाया है। जवाब में यूरोपीय संघ ने सवा तीन अरब डॉलर के अमेरिकी उत्पादों पर शुल्क लगा दिया। हालात बता रहे हैं कि आयात शुल्क के इस तरह के कठोर फैसले से ट्रंप खुद फंस गए हैं। उनकी पार्टी के सांसद और अमेरिका के उद्योग संगठन यूरोपीय संघ और कनाडा पर आयात शुल्क लगाने के विरोध में हैं और इसे अमेरिकी हितों के खिलाफ बता रहे हैं। लेकिन ट्रंप जिस तरह से दुनिया को हांकने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे में भारत के लिए चुनौती यह है कि विश्व व्यापार की रणनीति में वह अपने हितों की कहां तक और कैसे रक्षा पाता है।