25-05-2024 (Important News Clippings)

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25 May 2024
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Date: 25-05-24

Southern sojourn

India must continue to oppose unregulated tourism in the Antarctica

Editorial

Delegates from over 60 countries have convened in Kochi, Kerala to attend the 46th Antarctic Treaty Consultative Meeting (ATCM) that is expected to go on until the month end. An annual affair, this is in essence a meeting of the ‘Consultative Parties,’ or the 29 countries that have a right to vote on affairs concerning the management of the continent. Other attendees are countries with a non-voting ‘observer’ status as well as independent experts and invited functionaries. One of the interesting points on the agenda this time relates to tourism. A group of ‘like-minded’ countries, that includes India, pressed for a proposal to introduce a regulatory framework governing tourism in the continent. Unlike other continents, the Antarctica does not have its own indigenous population.

With millions of hectares of untrammelled ice and its geographical isolation, it is not a tourist’s everyday jamboree or the elite’s regular private-jet getaway. This makes it irresistibly alluring. In this day and age, where every navigable square inch of land is up for fleeting, visual consumption, the Antarctica is the only continent that can be described as wild, its secrets buried under kilometres-thick blankets of ice. Given that the creation, capture and marketing of the ‘exotic’ experience is an industry that guarantees exponential returns, the Antarctica is now the ‘wild south’ that the wealthy traveller aspires to. A recent joint study by universities in Tasmania, the U.K. and Australia said that the number of tourists rose from 8,000 in 1993 to 1,05,000 in 2022. This does not include all the scientific expeditions and the long-term presence of scientific personnel at research stations maintained by different countries. Reports now suggest that the number of tourists exceeds scientists. To be sure, concerns about rising tourists have been expressed since 1966 at the consultative meets, with the attendant worries that more ships and more people mean more man-made pollutants and rising instances of accidents and disasters that lead to upsetting the unique biodiversity of the region. This urge to preserve the pristine purity of the continent — estimated to be the size of the United States and Mexico combined — however conceals the underlying anxiety of all nations. Will, despite the treaty’s commitment to disallowing territorial claims, unexpected future circumstances effect a change in terms? Will the presence of more people from one country influence terms in their favour? Though India’s Antarctica-bound tourists are minimal, this could very well change in the days to come, thanks to growing lop-sided prosperity. While a proponent of the proposal, India must be wary of any deal that could undercut future opportunities from tourism.


Date: 25-05-24

बंगाल हाई कोर्ट का फैसला आईना दिखाने वाला है

संपादकीय

यह राजनीतिक वर्ग का ही कमाल हो सकता है कि जिस देश में प्रति एक हजार आबादी पर (केंद्र और राज्य जोड़कर) सरकारी कर्मचारी मात्र 16 हों, जबकि बिहार में चार, बंगाल में सात और केरल में 17 ही हों, वहां चुनावों में बेरोजगारी नहीं आरक्षण आज भी मुद्दा बने। सरकारी नौकरियां घटती जा रही हैं और इनकी प्रकृति स्थाई न होकर कैजुअल होती जा रही हैं। ऐसे में पश्चिम बंगाल में ममता सरकार का सभी स्थापित संवैधानिक कानूनी व्यवस्था को छोड़कर वर्ष 2011 में शासन में आते ही वेस्ट बंगाल बैकवर्ड क्लासेस एक्ट 2012 बनाना और उसके तहत जातियों की पहचान की सारी शक्ति आयोग की जगह सरकार को देना और फिर बगैर किसी वैज्ञानिक- तार्किक संख्यात्मक आधार के 77 मुस्लिम ‘जातियों’ को दो चरणों में बैकवर्ड घोषित करना हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया। सवाल यह है कि क्या गणतंत्र के 75 साल बाद भी पिछड़ों को मुख्यधारा में लाने का एक यही जरिया रह गया है। और अगर है तो सामाजिक कारणों से सदियों से शोषित, वंचित और अशिक्षित रखे गए इन वर्गों का अपेक्षित उत्थान हो सका है? क्या ये राजनीतिक वर्ग का फरेब नहीं है कि चुनाव में आरक्षण की बात तो करते हैं लेकिन सरकारी पदों पर भर्ती दशकों तक लंबित रखते हैं? हाई कोर्ट का फैसला सरकारों को आईना दिखाने जैसा है।


Date: 25-05-24

सभी पार्टियां अपने नेताओं के आचरण की जवाबदेही लें

विराग गुप्ता , ( सुप्रीम कोर्ट के वकील )

पुणे में पोर्श कार से दो लोगों को कुचलने वाले नाबालिग रईसजादे की रिहाई के बाद नेता, पुलिस और जज सभी कठघरे में हैं। ऐसे हाई प्रोफाइल मामलों से साफ है कि सिस्टम की आखिरी चाबी नेताओं के पास है। लोकसभा चुनावों में सभी पार्टियों के नेता लगभग 1.35 लाख करोड़ रुपए खर्च करके सत्ता हासिल करने की दौड़ लगा रहे हैं।

गौरतलब है कि 90 फीसदी से ज्यादा चुनावी खर्च अवैध और काला धन है। वैकल्पिक राजनीति और तस्वीर बदलने का वादा करने वाली पार्टियों के नेताओं पर भी भ्रष्टाचार, अवैध विदेशी फंडिंग और महिलाओं के साथ हिंसा के गंभीर आरोप लग रहे हैं। लेकिन संविधान में समानता का सिद्धांत है। उसके अनुसार सभी पार्टियों को कानून की कसौटी पर कसने की जरूरत है। इसके तीन पहलू हैं।

1. भ्रष्टाचार और अपराध की जवाबदेही : चुनावी बॉन्ड के नाम पर अवैध तरीके से चंदा लेने के मामले में अभी तक किसी भी पार्टी के खिलाफ एक्शन नहीं हुआ है। नकद लेन-देन करने वाली पार्टियों को टैक्स में छूट पर भी सवाल नहीं उठ रहे । अग्निवीरों को पेंशन नहीं मिलती, लेकिन विधायकों और सांसदों को आजीवन पेंशन की गारंटी है। पार्टियों के एक-तिहाई से ज्यादा नेताओं के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं।

गलत किराएदार रखने पर मकान मालिक के खिलाफ और सीवर लाइन में हादसे के लिए ठेकेदार की जवाबदेही होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक इंटरव्यू में सभी नेताओं से अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टी के क्रियाकलापों की जिम्मेदारी और जवाबदेही लेने की बात कही है। इसलिए सभी पार्टियों को अपने नेताओं और उनके कथित भ्रष्टाचार की कानूनी जवाबदेही लेनी ही चाहिए।

2. परिवारवाद और हितों का विरोधाभास : सभी पार्टियां परिवारवाद, वंशवाद या अधिनायकवाद के मर्ज की शिकार हैं। इसे दुरुस्त करने के लिए सरकारी खजाने से अनेक लाभ हासिल करने वाली पार्टियों के कार्यकर्ताओं और संगठन के ढांचे का पूरा विवरण सार्वजनिक होना चाहिए। हिंसा में नेताओं की मौत पर पार्टियां सियासी रोटियां सेंकती हैं। उसी तर्ज पर अपराधी नेताओं के कारनामों के लिए भी पार्टी नेतृत्व की जिम्मेदारी और जवाबदेही होनी चाहिए।

साल 2010 में केंद्रीय मंत्री जयपाल रेड्डी ने कहा था कि एक चौथाई सांसदों के खिलाफ कारोबारी स्वार्थ साधने का मामला बन सकता है। वर्तमान लोकसभा में ऐसे सांसदों की संख्या 60 फीसदी से ज्यादा है।

ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और दक्षिण अफ्रीका में नेताओं को निजी और कारोबारी हितों के मामलों पर वोट देने का अधिकार नहीं है। दक्षिण कोरिया और कनाडा जैसे देशों में सांसदों और मंत्रियों के रिटायरमेंट के बाद नौकरी और रोजगार करने पर कई तरह की शर्तें हैं। लेकिन पार्टी, सरकार और कारोबार के बीच फर्क खत्म होने से संविधान के साथ आम जनता के हित गौण हो रहे हैं।
लोकसभा की आचरण समिति ने साल 2008 में हितों के विरोधाभास की घोषणा के लिए नियम बनाने का सुझाव दिया था, जिस पर तत्काल अमल करने की जरूरत है।

3. मान्यता रद्द होना पार्टी को कंपनी सरीखा मानते हुए ईंडी ने चार्जशीट दायर तो कर दी, लेकिन किस पदाधिकारी को डायरेक्टर सरीखा माना जाएगा ? कानून का डंडा सभी राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ समान तौर पर चले तो जरूर तस्वीर बदल सकती है। पार्टियों के अपराधों की कानूनी जवाबदेही तय हो तो वोटिंग में जनती की दिलचस्पी के साथ, संविधान का मान भी बढ़ेगा।

कंपनी को खत्म करने या दिवालिया घोषित करने के लिए कंपनी कानून और आईबीसी में प्रावधान हैं। लेकिन अपराध साबित होने पर किस कानून के तहत पार्टी की मान्यता रद्द होगी? पार्टी को आरोपी बनाने के बाद सरकार के उप-मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी कैसे तय होगी ?

चुनाव आयोग के पास चुनाव चिह्न को निलंबित या जब्त करने का स्पष्ट अधिकार है। क्या अनुच्छेद 324 के तहत हासिल विशिष्ट शक्तियों के इस्तेमाल से चुनाव आयोग, राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द कर सकता है? लोहिया, जेपी, वीपी सिंह और अन्ना हजारे द्वारा प्रचारित वैकल्पिक राजनीति के प्रयोग विद्रूप तरीके से भले ही विफल हो गए हों, लेकिन कानून का डंडा सभी पार्टियों के खिलाफ समान तौर पर चले तो जरूर तस्वीर बदल सकती है। चुनाव परिणाम और नई सरकार के गुणा-भाग के साथ पार्टियों के अपराधों की कानूनी जवाबदेही तय हो तो वोटिंग में जनता की दिलचस्पी के साथ संविधान का मान भी बढ़ेगा।


Date: 25-05-24

दुनिया पर कमजोर होती अमेरिका और पश्चिमी देशों की पकड़

टी एन नाइनन, ( लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के पूर्व संपादक एवं चेयरमैन हैं )

पश्चिम देशों और शेष दुनिया के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा के बीच यह स्पष्ट हो गया है कि अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश अब भी ताकतवर अवश्य हैं मगर दुनिया पर उनकी पकड़ कमजोर होने लगी है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी नौसेना का दबदबा हुआ करता था मगर अब उसकी भूमिका चीन को रोकने तक सीमित रह गई है।

आर्थिक मोर्चों पर भी अमेरिका ने आक्रामक रवैया (तकनीक, व्यापार एवं आर्थिक प्रतिबंध जैसे कदम) छोड़ दिया है और अब बचाव की मुद्रा (अमेरिकी बाजार के हित सुरक्षित रखने के लिए शुल्कों का सहारा) में आ गया है।

एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि यूक्रेन को पश्चिमी देशों से मिले समर्थन के बावजूद रूस के सैनिक लगातार आगे बढ़ रहे हैं। माओ ने काफी पहले कह दिया था कि पूरब से चलने वाली हवा की गति पश्चिमी दिशा से चलने वाली हवा से अधिक हो गई है। माओ का अभिप्राय यह था कि चीन जैसे देश पश्चिमी देशों को कड़ी चुनौती देने की ताकत रखने लगे हैं।

कई वर्षों तक पश्चिमी देशों के विश्लेषकों एवं पत्रकारों ने चीन और रूस दोनों को ही समझने में भूल की। रूस को आर्थिक रूप से कमजोर समझा गया और यह धारणा बना ली कि व्लादीमिर पुतिन के लिए राजनीतिक चुनौती उन्हें एक दिन किनारे लगा देगी।

पुतिन को गंभीर बीमारी से भी ग्रस्त बता दिया गया। दशकों से यह कयास भी लगाए जा रहे थे कि एक न एक दिन चीन कमजोर पड़ जाएगा और हाल तक इसकी ताकत को अधिक अहमियत नहीं दी गई। इन कयासों के बीच रूस ने पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का उम्मीद से कहीं बढ़कर मजबूती से सामना किया है और अब यूक्रेन में उनकी सेना नए इलाकों पर कब्जा कर रही है। पुतिन एक बार फिर राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं।

इस बीच, चीन आय के स्तर पर पश्चिमी देशों को टक्कर देने के साथ दुनिया में सर्वाधिक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल रहा है।

हाल में अमेरिका ने चीन के कुछ उत्पादों पर शुल्क काफी बढ़ा दिया है मगर यह कदम दोनों देशों के बीच पूर्ण व्यापार युद्ध शुरू होने का संकेत नहीं दे रहा है। इसका कारण यह है कि अमेरिका द्वारा शुल्क में बढ़ोतरी उन उत्पादों पर की गई है जिन्हें चीन अमेरिका को बहुत अधिक नहीं बेचता है।

इस तरह, यह कदम जो बाइडन ने घरेलू राजनीतिक समीकरणों को ध्यान में रखते हुए उठाया है। कारण जो भी हो, चीन इनमें कई उत्पादों का अब भी बड़ा उत्पादक है और वह इनके लिए बाजार आसानी से खोज सकता है।

शुल्कों से दिक्कत अमेरिका के आयातकों को हो सकती है जिनके पास कुछ वस्तुओं की आपूर्ति के वैकल्पिक स्रोत मौजूद नहीं हैं। चीन तीसरी दुनिया के देशों में कारखानों के जरिये इनकी आपूर्ति कर सकता है। दूसरी तरफ, अमेरिकी उपभोक्ताओं को मुद्रास्फीति के कारण अधिक भुगतान करना होगा।

ऐसी रक्षात्मक नीतियां (सब्सिडी के दम पर अमेरिका में विनिर्माण को पटरी पर लाने के दुष्प्रभाव) पूर्व में दिखे आक्रामक रवैये के विपरीत हैं।

उम्मीद तो यह की जा रही थी कि ये आक्रामक कदम अमेरिका के दुश्मनों को जकड़ लेंगे। यह सच है कि प्रतिबंधों से रूस पर असर जरूर हुआ है मगर इसका प्रभाव आंशिक ही रहा है।

रूस को इसके तेल एवं गैस के लिए नए ग्राहक मिल गए हैं जबकि यूरोप को सस्ती ऊर्जा के किफायती स्रोत से हाथ धोना पड़ा है। इससे जर्मनी जैसी मजबूत अर्थव्यवस्थाओं को भी नुकसान पहुंचा है।

दूसरी तरफ रूस की अर्थव्यवस्था लगातार आगे बढ़ रही है। रूस और चीन दोनों ही ने भुगतान प्रणाली विकसित कर ली है जो डॉलर और बैंकिंग संवाद प्रणाली जैसे ‘स्विफ्ट’ (सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनैंशियल टेलीकम्युनिकेशन) को दरकिनार कर आगे बढ़ रही है।

रूस और चीन के बीच 95 प्रतिशत व्यापार स्थानीय मुद्राओं में हो रहा है। रूस के पास डॉलर की तुलना में अब रेनमिनबी का भंडार अधिक है। चीन सोना खरीदने में काफी सक्रियता दिखा रहा है और पिछले 18 महीनों में इसने भारी मात्रा में यह पीली धातु खरीदी है।

द पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना के पास 2,250 टन सोना है जो दुनिया में कुल भंडार का 5 प्रतिशत से कम है मगर तब भी यह अब तक के उच्चतम स्तर पर है।

तकनीक के मोर्चे पर चीन अन्य देशों की तुलना में काफी पहले कदम उठाया और तेजी से आगे बढ़ा और अब वह इलेक्ट्रिक वाहन, सौर ऊर्जा और लीथियम बैटरी खंड में प्रभावी भूमिका में आ गया है। इन उद्योगों के लिए जरूरी विशेष सामग्री की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए भी चीन ने तेजी से कदम बढ़ाया है। वह इलेक्ट्रॉनिक्स, जीव विज्ञान और रक्षा विनिर्माण में आने वाली तकनीकी बाधाओं को पार करने की ताकत जुटा चुका है।

उदाहरण के लिए हुआवे ने हाल में 7 नैनोमीटर चिप से लैस स्मार्टफोन के साथ पश्चिमी देशों को चकित कर दिया। कंपनी अब 5 नैनोमीटर की चिप लाने की तैयारी कर रही है। चीन अगले वर्ष तक चिप विनिर्माण में 70 प्रतिशत तक आत्म-निर्भरता हासिल करने का लक्ष्य लेकर चल रहा है।

इस बीच, पश्चिमी देशों की दवा कंपनियां भी बायोफार्मा और जीव विज्ञान में चीन के बढ़ते प्रभुत्व को स्वीकार कर रही हैं। रक्षा क्षेत्र में चीन चौथा विमानवाहक पोत बना रहा है जो परमाणु ऊर्जा से संचालित किया जा सकता है। यह भी एक तकनीकी बाधा को पार करने का संकेत है। सच्चाई यह है कि तकनीक के मोर्चे पर चीन की प्रगति रोकने में काफी देर हो गई है। सुरक्षा के मोर्चे पर पश्चिमी टीकाकारों को इस बात का डर सता रहा है कि अगर रूस यूक्रेन पर अपनी पकड़ यूं ही मजबूत बनाता रहा तो उनके लिए इसके कई गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

डॉनल्ड ट्रंप अगर अमेरिका के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए और उन्होंने उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) से बाहर निकलने की धमकी पर अमल किया तो पश्चिमी देशों के लिए हालात और बिगड़ सकते हैं। मानव संसाधन, उपकरण, लड़ने की क्षमता और रक्षा उत्पादन में यूरोप के हाथ काफी तंग होने से शीत युद्ध के बाद पहली बार यूरोपीय देश स्वयं को इतने असुरक्षित महसूस करेंगे। हालांकि, अब यूरोप का रक्षा बजट सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत तक जरूर पहुंच गया है मगर अमेरिकी मदद (परमाणु हथियार सहित) के बिना अपनी रक्षा में पूरी तरह सक्षम होने में इसे कम से कम एक दशक लग जाएगा।

यूरोपीय देशों एवं अमेरिका की तुलना में रूस और चीन एक दूसरे के काफी करीब आ गए हैं और दुनिया के अन्य हिस्सों में कूटनीतिक बढ़त भी हासिल कर ली है। रूस सीरिया में अपने दांव में सफल रहा है और उसे ईरान से ड्रोन भी मिल रहे हैं। चीन ने पिछले साल ईरान और सऊदी अरब के बीच संबंध सामान्य बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आर्थिक संसाधनों की कमी का सामना कर रहे अफ्रीका में चीन अमेरिका से अधिक खर्च कर रहा है।

अफ्रीका में कई देश देश फ्रांस और अमेरिकी सैनिकों को जाने के लिए कह रहे हैं। उनकी जगह वे सुरक्षा देने के लिए रूसी सैनिकों को आमंत्रित कर रहे हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया में चीन पर निर्भर देश अमेरिका को तरजीह देने के मूड में नहीं हैं।

एक भरोसेमंद साथी के रूप में अमेरिका की विश्वसनीयता कम होती जा रही है। यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति में अमेरिका के लचर रवैये से यह बात काफी हद तक साबित भी हो गई है। ये सभी पहलू अमेरिका के खिलाफ जा रहे हैं जिससे चीन को सीधा फायदा मिल रहा है। पश्चिमी देश के यूक्रेन और गाजा में विरोधाभासी रुख को भी आर्थिक रूप से कमजोर एवं विकासशील देश पचा नहीं पा रहे हैं।

पश्चिमी देशों के टीकाकार कारण के साथ तर्क दे रहे हैं कि लंबे समय से चीन कारोबारी रणनीति के साथ आगे बढ़ता और भारी भरकम सरकारी समर्थन से उद्योगों को बढ़ावा देता रहा है। उनके अनुसार निर्यात बढ़ाने के लिए चीन जान बूझकर अपनी मुद्रा का अवमूल्यन नहीं रोकता है।

इन टीकाकारों के अनुसार चीन की इन हरकतों को देखते हुए ही पश्चिमी देशों ने उसके खिलाफ एहतियाती उपाय किए हैं। यह तर्क अपनी जगह ठीक है मगर पश्चिमी टीकाकार यह नहीं कह रहे हैं कि चीन के घरेलू बाजार में प्रतिस्पर्द्धा काफी तेज है।

उदाहरण के लिए वहां लगभग 139 कंपनियां इलेक्ट्रिक वाहन बनाती हैं। जो सबसे उपयुक्त होगी वही अपना अस्तित्व बचा पाएगी, इसलिए बीवाईडी जैसी कंपनियां दुनिया की संभावित दिग्गज कंपनी के रूप में उभर रही हैं।

हालांकि, निर्यात के बड़े बाजार तक पहुंच नहीं होने से चीन के लिए चुनौती जरूर बढ़ेगी। मगर भारत का अनुभव बताता है कि महज शुल्क लगाने से चीन के उत्पाद को आने से नहीं रोका जा सकता है। वास्तव में चीन जल्द ही तकनीक और बाजार में प्रवेश देने के मामले में पश्चिमी देशों एवं अमेरिका के खिलाफ जवाबी कदम उठाने की स्थिति में होगा।

पश्चिमी देशों के दबाव के जवाब में संभवतः वह इसी तरह के कदम उठाएगा जो जापान से अलग होंगे। 1980 के मध्य में अमेरिका और जापान के बीच व्यापार युद्ध चल रहा था। अमेरिकी दबाव के जवाब में जापान ने निर्यात नियंत्रित कर लिया था और अपनी मुद्रा येन को मजबूत होने दिया था। दुनिया में वर्तमान हालात में सुरक्षा मामलों से लेकर, तकनीकी विकास, विनिर्माण एवं व्यापार एवं कूटनीतिक मोर्चों पर पूरब से चलने हवा प्रचंड रूप ले रही है।


Date: 25-05-24

अपराध तो बालिग जैसा है

कमलेश जैन

पूरे हिन्दुस्तान में चर्चा है कि यह कैसा कानून है जिसमें दो 24 वर्षीय युवाओं, इंजीनियर्स की 150-200 की स्पीड में करोड़ों की पोर्श कार से रात में दो बाइक सवारों को फुटबॉल की तरह उड़ा देने पर 17 वर्ष 8 महीने के युवा को नाबालिग समझ कर, पुलिस स्टेशन से ही बेल देकर रिहा करने और 300 शब्दों में निबंध लिखने की सजा देकर क्लीन चिट दे दी।

सवाल है क्या 17 वर्ष 8 महीने का लड़का बालिग है या नाबालिग? तो इसका जवाब जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2015 में किए गए संशोधन के अनुसार सेक्शन 18 में, 1- 9-2022 से यह बदलाव आया कि 16 वर्ष या उससे भी छोटा लड़का-लड़की यदि जघन्य अपराध करता जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड उसको कोर्ट में स्थानांतरित कर देगा, जहां वह एक बालिग की तरह ट्रायल के सम्मुख होगा। साथी ही 2 वर्ष या ज्यादा सजा वाले प्रावधान में सजा का अधिकारी होगा। सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों के अनुसार ‘मोटर व्हीकल एक्ट’ में अधिकतम सजा के प्रावधान भी वह जनरल आईपीसी में जघन्य अपराध की तरह सजा ही देगा कम नहीं। अब इससे जघन्य अपराध क्या हो सकता है? जनता का आक्रोश सही है मैंने कभी कहा था- कानून का सही पालन करने वालों के साथ, मेहनत करने वालों के साथ, बिना रसूख वालों, गरीब व्यक्तियों को कानून के अधिकारी, पुलिस, निचली अदालतें, अदक्ष वकीलों के ज्ञान और कर्तव्य के प्रति असम्मान होने के कारण ही यहां का कॉमन आदमी जो निर्दोष है वह जेलों में है। आजादी के बाद से ही, पुराने ब्रिटिश कानून की प्रक्रिया को अपना लिया गया है जो आज भी व्यवहार में आ रहा है।

जैसे कानून ‘को चलाने वाले उसी युग के कर्ताधर्ता हैं, जिनका काम निर्दोष पर अन्याय करना है। कानून बदले पर कानून के ज्ञान रखने वाले, रूल करने वाले उसका संशोधन भी नहीं पढ़ते। गलत आर्डर देते रहते हैं यह संशोधन सितम्बर 2022 का है। किसी ने इसे पढ़ा क्यों नहीं? पुलिस कमिश्नर ने कहा कि इसे नाबालिग किस आधार पर ट्रीट किया। क्या वह भी अरबपति पिता, दादा के प्रति डर था कि जिसका संबंध छोटा राजन से था। नाबालिग को 300 शब्दों का निबंध लिख, बेल पर जाने क्यों दिया? जुवेनाइल जस्टिस एक्ट बोर्ड ने क्यों नहीं अभी ही यह निर्णय दिया कि वह 16 से ऊपर का है। 16 से नीचे भी होता तो उसे गंभीर अपराध के आधार पर रेगुलर कोर्ट को रेफर किया जाता जहां उसे वर्षों तक बेल नहीं होती और आजीवन कैद मिलती। उसे रिमांड होम क्यों भेजा, फैसला 5 जून तक क्यों टाल दिया? क्या वह लड़का जो कानूनन बालिग है, रिमांड होम में चंद दिनों में सुधर जाएगा, एक संत होकर निकलेगा, उसके अभिमान भरे क्रिमिनल माइंड में बदलाव आएगा? यह जस्टिस बोर्ड के हसीन सपनों के सिवा कुछ नहीं है। क्यों हम भी यह नहीं सोचे कि वह पढ़ता नहीं, इस पद के बुलाए अयोग्य अपराधी के रसूख से प्रभावित है? इस देश का जस्टिस सिस्टम को तीन लेयर का बनाया गया- पहले ट्रायल कोर्ट, फिर हाईकोर्ट, उसके बाद अंतिम सुप्रीम कोर्ट | यह कई लेयर सिस्टम है। पहले लेयर पर पुलिस है- वह कानून नहीं जानती, जानने पर भी लागू नहीं करती, मनमाने तरीके से निर्णय लेकर काम करती है। खुद मैने, अपनी गाड़ी चोरी होने की रिपोर्ट दर्ज कराने पुलिस स्टेशन पहुंची तो जब तक मैने अपना परिचय नहीं दिया तो एक घंटे तक कम्पलेन नहीं लिया गया। उसके बाद जब मैंने अपना विजिटिंग कार्ड दिया तो तुरंत मुझे थाना इंचार्ज के कमरे में बैठाकर आनन-फानन में मेरी शिकायत दर्ज की, रिपोर्ट घर पहुंचाने को कहा गया। वैसे भी अब कई ट्रिब्यूनल्स हैं, वे गलती करें तो हाईकोर्ट, उसके बाद कई सालों तक मुकदमा चलने पर खारिज होने तक सुप्रीम कोर्ट केस लड़ा जाता है।

इस प्रक्रिया में 30-32 साल आराम से गुजर जाते हैं, दूसरी-तीसरी पीढ़ी केस लड़ती है। जेल तो खुद ही नरक बन चुकी है। गरीब लोग छोटे अपराधों में 32-35 वर्ष तक रिहाई के बाद भी ट्रायल नहीं होने पर भी जेलों में पड़े रहते ,कारण उनका कोई नहीं है जो ज्यादा फीस देकर वकील रखे। उसकी तुलना में रसूख वालों का मुकदमा नीचे से ऊपर तक किस प्रकार हल्के तौर पर ट्रीट किया जाता है, जगजाहिर है। संक्षेप में कहें तो कभी-कभी किसी की आत्मा जाग्रत हो या भाग्य पलटता है तो गरीब को न्याय नसीब हो जाता है। वाकई, पुणे की घटना को जानने-समझने के बाद इस व्यवस्था में दम घुटता है। एक वकीलों की सोसाइटी के सामने अचानक एमसीडी, डीडीए सरकारी फुटपाथ से आज्ञा लेकर एक रेस्टोरेंट खुलता है मालिक उसे अपनी बपौती समझ सुबह 9 से रात तीन बजे तक, बिना किसी परमीशन पर, रेजिडेंसियल सोसाइटी के सामने तेज म्यूजिक और हुड़दंग करता है, विगत 3-4 वर्षों से पुलिस हाईकोर्ट पहुंचने पर भी न्याय नहीं मिलता है। पुलिस कभी विक्टिम के पास आकर उसका हालचाल नहीं पूछती हाईकोर्ट के आदेश पर भी नहीं।