25-05-2023 (Important News Clippings)

Afeias
25 May 2023
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Date:25-05-23

Govt, Gendered

Still too few women among administrators & given the needs of a big country, too few administrators

TOI Editorials

Women have bagged the top four spots in the Civil Services Exam 2022, the second year in a row. Even more significantly, women candidates recommended for appointment to various elite government services like IAS and IPS have overall risen from 24% to 34% since 2018. The improvement in gender equality in public administration this suggests is very welcome, as it has globally been found to be an important metric for a government more responsive and accountable to diverse public interests. However, if we zoom out to look at the larger picture, women in India remain far from reaching equal employment across all levels, sectors and positions in government – especially its highest offices.

A telling fact is that in seven decades, India has never had a woman cabinet secretary. The winds of change really only started blowing this century, with the first woman foreign secretary appointed in 2001 and the first woman finance secretary in 2011. But it is important to move all the faster now because there is much catching up to do. A 2021UNDP global report on gender equality in public administration for example assesses that women’s share of top leadership in India is only 12% compared to 29% in Singapore, 40% in Australia and 53% in Sweden.

What women’s recent UPSC performance indicates is that gender parity among civil servants is within reach with the right service policies – including for recruitment and promotions panels. In this context it is concerning that the committee on civil service reforms’ 2004 report wraps its analysis around enabling “women in the higher civil service to play their roles effectively as mothers and wives”. This mindset needs a serious update to encourage a more equal culture of care work in the senior bureaucracy, which should in turn support a more equal distribution at government workplaces downstream.

But it is not just women. Even in total officialdom India compares very poorly to countries like China and the US, with vacancies worsening the shortage. Last year a parliamentary committee reported yawning deficits between authorised and actual IAS strength – 57% in J&K and 31% in Jharkhand. As the most populous country, as a complex society and as a fast-growing economy, India needs at the governing wheel a bureaucracy that’s bigger and more inclusive in ways that matter.


Date:25-05-23

लोकसेवा में ज्यादा हिंदी व महिलाएं यानी नई सोच

संपादकीय

अगर यूपीएससी परीक्षा में शीर्ष की चार टॉपर्स महिलाएं हों, हर तीसरा अभ्यर्थी एक महिला हो और 933 में से 54 अभ्यर्थी हिंदी भाषा में परीक्षा देकर पास हुए हों, तो इसके समाजशास्त्रीय संकेत दूरगामी हैं। इस शीर्ष सेवा का चयनकर्ता यूपीएससी शायद अब यह समझने लगा है कि धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलना या एक खास पैटर्न पर पूछे गए सवालों का एक खास ढंग से जवाब देना किसी व्यक्ति की ईमानदार प्रशासनिक क्षमता का नहीं बल्कि रटने की क्षमता का पैमाना है। वहीं, महिलाओं का शीर्ष सेवा में इतनी बड़ी तादाद में आना नारी सशक्तीकरण के लिए ही नहीं, अन्य लड़कियों को पढ़ने, नौकरी करने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने को प्रेरित करेगा। अभिभावक भी लड़की तो पराया धन है की दकियानूसी सोच से बाहर निकलेंगे। उधर हिंदी माध्यम से परीक्षा देकर उत्तीर्ण हुए 54 अभ्यर्थी आज तक के इतिहास में सर्वाधिक हैं। इनमें से 29 ने हिंदी साहित्य को वैकल्पिक विषय के रूप में चुना था। गांवों में आज भी लाखों प्रतिभाशाली बच्चे हैं, जो हिंदी मीडियम सरकारी टाट-पट्टी वाले स्कूलों से पढ़ने के कारण अपेक्षाकृत छोटी नौकरियों तक ही अपनी उड़ान भर पाते हैं। फिर अगर एक युवा कलेक्टर गांव और गरीबी की तकलीफें झेलकर अपने वर्तमान मुकाम तक पहुंचेगा तो लोक सेवा में लोक भी होगा और सेवा भी ।


Date:25-05-23

दुनिया को डराने क्यों लगी है आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस?

अंशुमान तिवारी, ( मनी-9 के एडिटर )

‘वे जब तक इसे समझेंगे नहीं, तब तक इससे डरेंगे नहीं। और जब तक इसे इस्तेमाल नहीं करेंगे, तब समझेंगे नहीं!’ यह संवाद है आने वाली फिल्म ‘ओपनहाइमर’ का। क्रिस्टोफर नोलन की यह फिल्म एटम बम के जनक जे. रॉबर्ट ओपनहाइमर पर है। लेकिन बमों के खतरे खत्म होते, उससे पहले ही इस अप्रैल में एक सनसनीखेज चिट्‌ठी ने सरकारों के पैरों तले जमीन हिला दी। एआई के उत्सव के बीच ओपन एआई के संस्थापक इलॉन मस्क, लेखक युवल नोहा हरारी, एआई से जुड़े वैज्ञानिकों, बड़ी कंपनियों के सीईओ और संस्थापकों ने खुली चिट्ठी जारी कर दी। पत्र ने सरकारों से पूछा कि क्या हम मशीनी झूठ का अम्बार लगा देना चाहते हैं? क्या हम मशीनी दिमागों को बनाकर सभ्यता पर नियंत्रण खोना चाहते हैं? क्या हम गैर निर्वाचित तकनीकी नेताओं को लोगों की जिंदगी तय करने की ताकत देना चाहते हैं? एआई की प्रयोगशालाएं कुछ भी करने पर उतारू हैं। उनकी जांच हो और ताजा शोध पर तत्काल प्रतिबंध लगे।

मशीनी दिमागों के आतंक वाली फंतासी फिल्मों की पटकथा जैसी इस चिट्ठी के बाद सरकारों में खौफ की लहर दौड़ गई। इटली ने ओपन एआई को अपने देश की सूचनाएं जुटाने से रोक दिया। यूरोपीय समुदाय एआई को नियंत्रित करने का कानून बनाने जा रहा है। मई के पहले सप्ताह में एआई कंपनियों के प्रमुख व्हाइट हाउस तलब कर लिए गए। कर्ज संकट और यूक्रेन युद्ध की फिक्र छोड़ बाइडेन और कमला हैरिस ने कृत्रिम दिमाग वालों से तीखे सवाल-जवाब किए। ‘रिस्पांसिबल एआई’ के लिए कानूनी उपाय शुरू कर दिए गए हैं। अमेरिकी कांग्रेस एआई की जांच के लिए केंद्रीय एजेंसी बनाने के विधेयक पर विचार रही है। किसी नई तकनीक को लेकर इतना डर पहली बार दिखा है।

रोजगार और बहुत कुछ : ब्रिटेन की टेलीकॉम कंपनी बीटी अगले कुछ सालों में 50000 नौकरियां खत्म करेगी। डेल बड़ी छंटनी का ऐलान कर चुकी है। 2022 में दुनिया की करीब 1048 सूचना तकनीक कंपनियों में 1.61 लाख लोगों की नौकरियां गई हैं। 2023 में छंटनी की रफ्तार और तेज है। इसकी वजह है एआई, जो 2021 में आया। रोजगारों का कत्लेआम शुरू हो गया है। गोल्डमैन सैक्शे ने बताया एआई कुछ वर्षों में 30 करोड़ नौकरि‍यां निगल जाएगा। मेकेंजी कह रहा है पांच वर्ष में 80 करोड़ रोजगारों में उथल-पुथल होगी। भारत के आईटी उद्योग में नई नौकरियों की संख्या बीते एक साल में 65 फीसदी कम हुई है।

झूठ की मशीनें : राजनीतिक झूठ बहुत कुछ तबाह कर चुका है। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी ने बताया है कि एआई सिस्टम्स मिनटों में लाखों गीगाबाइट सूचनाएं बना सकते हैं और पलक झपकते साक्ष्य और सबूत ही बदल सकते हैं। तब जरूरी बहसें वास्तविकता से हटकर उनके हाथ में होंगी, जो लोगों का राजनीतिक-आर्थिक इस्तेमाल करना चाहते हैं। एआई लोकतंत्र में सोशल ट्रस्ट यानी जन-विश्वास को मिनटों में ध्वस्त कर सकता है। एआई का 90 फीसदी मतलब डाटा मैनेजमेंट है। कंपनियों को डर है झूठे आंकड़े पढ़कर एआई ने कारोबार तहस-नहस कर दिया तब क्या होगा? मशीनों को मिल रही सूचनाओं की गुणवत्ता संदिग्ध है, इसलिए यूरोप के नियामक परेशान हैं कि एआई से नुकसान हुआ तो भरपाई कौन करेगा?

कुटिल मशीनें : 2020 में नेटफ्लिक्स पर डाक्यूमेंट्री कोडेड बायस बताती है कि फेस रिक्ग्नीशन सॉफ्टवेयर में नस्लवादी प्रोग्रामिंग की गई है। एआई में एल्गोरिदम बायस पैबस्त हैं, सुविधाओं व अवसरों के बंटवारे में राजनीतिक भेदभाव के प्रोग्राम तैयार हो रहे हैं। एआई रोगों की संभावना का सटीक आकलन तो कर लेगा मगर किसी खास समुदाय में रोग की संभावनाएं पता चलने के बाद उसके साथ बड़ा अन्याय हो सकता है। चीन में एक सोशल क्रेडिट सिस्टम बन रहा है, जो देश के 1.4 अरब लोगों को सामाजिक व्यवहार, नियम पालन आदि के आधार पर नंबर या ग्रेड देगा। डाटा के आधार पर एक सीमा तक ही न्याय किया जा सकता है। आंकड़े गलत हुए तो अनर्थ हो जाएगा। एआई तकनीकें पसंद के आंकड़े चुनकर नतीजे दे सकती हैं।

नए बम : क्रेमलिन पर ड्रोन हमले के बाद दुनिया कांप गई। स्लॉटरबॉट्स तैयार हैं। हथियार खुद फैसला करेगा कि किसको मारना है। आटोनॉमस वेपंस बन चुके हैं, जो सामूहिक जासूसी और एकमुश्त विनाश कर सकते हैं। अमेरिकी कांग्रेस को लगने लगा है कि एआई न्यूक्लियर हथियारों को भी अपने आप लांच कर सकता है। इसे रोकने एक विधेयक लाया गया है।


Date:25-05-23

रेवड़ी संस्कृति पर लगे विराम

राहुल वर्मा, ( लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं )

कर्नाटक में नवगठित कांग्रेस सरकार ने सत्ता संभालते ही चुनाव में किए गए पांच वादों को सैद्धांतिक स्वीकृति प्रदान की है। इन पांच वादों में हर गृहिणी को 2,000 रुपये प्रति माह भत्ता और घर को 200 यूनिट बिजली मुफ्त दी जानी है। गरीब परिवारों को हर महीने 10 किलो चावल और महिलाओं को नि:शुल्क बस यात्रा की सुविधा मिलेगी। वहीं, डिप्लोमाधारक बेरोजगारों को हर माह 1,500 और डिग्रीधारकों को 3,000 रुपये का बेरोजगारी भत्ता दिया जाएगा। एक मोटे अनुमान के अनुसार इन पांच वादों की पूर्ति के चलते राज्य सरकार के खजाने पर हर साल करीब 50,000 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। वित्त वर्ष 2022-23 के लिए कर्नाटक के बजट में 61,564 करोड़ रुपये के राजकोषीय घाटे का अनुमान लगाया गया जो राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के 3.26 प्रतिशत के बराबर है। ऐसे में 50,000 करोड़ रुपये के अतिरिक्त व्यय से राज्य के खजाने पर बढ़ने वाले भारी बोझ का सहज ही आकलन किया जा सकता है। बहरहाल, कांग्रेस को कर्नाटक में मिली चुनावी सफलता के बाद अन्य राज्यों में भी राजनीतिक दलों ने इस तरह की लोकलुभावन पेशकश शुरू कर दी हैं। इससे पहले दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी ने इसे सफलता का राजनीतिक सूत्र बना लिया। वहीं, अब कर्नाटक की कामयाबी से उत्साहित होकर कांग्रेस ने मध्य प्रदेश से लेकर हरियाणा में इस तरह की योजनाओं का एलान किया है। हरियाणा में तो कांग्रेस ने 100 गज के प्लाट तक देने का एलान किया है। आखिर जमीन जैसे दुर्लभ संसाधन को लेकर कोई पार्टी किस प्रकार ऐसा वादा कर सकती है। खासतौर से शहरी इलाकों में।

ऐसे में आगामी आम चुनाव से पहले इस प्रकार की घोषणाओं की बाढ़ आ सकती है। यह देश की आर्थिक स्थिति के लिए शुभ संकेत नहीं। भारतीय रिजर्व बैंक पूर्व में भी कई राज्यों को अनावश्यक खर्चों के लिए चेता चुका है। ऐसे में क्या यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि चुनावी घोषणापत्रों को व्यावहारिक बनाने की दिशा में मंथन शुरू किया जाए। चूंकि रेवड़ियां बांटने में कोई भी दल किसी से पीछे नहीं है तो इसमें कोई सर्वमान्य हल आसानी से निकलता हुआ नहीं दिखता। इस मामले में चुनाव आयोग भी दलों के लिए कोई बाध्यकारी प्रविधान नहीं बना सकता। वहीं उच्चतम न्यायालय ने भी 2013 में कह दिया कि वह इसमें कोई व्यवस्था नहीं बना सकता और उसने गेंद राजनीतिक दलों के पाले में डाल दी, लेकिन दलों के स्तर पर इस विषय में कोई गंभीरता नहीं दिखती। कांग्रेस द्वारा पुरानी पेंशन योजना के जिन्न को बोतल से बाहर निकालना इसका एक बड़ा उदाहरण है, जिसकी आलोचना कांग्रेस की ओर झुकाव रखने वाले बुद्धिजीवी भी कर चुके हैं।

क्या मुफ्त उपहारों की पेशकश ही चुनावों में निर्णायक सिद्ध होकर किसी दल को सत्ता दिलाने में सहायक होती है। कर्नाटक के हालिया उदाहरण को ही देखें तो वहां केवल कांग्रेस ने ही नहीं, बल्कि भाजपा और जनता दल-सेक्युलर ने भी कमोबेश इसी प्रकार के वादे किए थे। स्पष्ट है कि चुनाव में केवल यही घोषणाएं ही मायने नहीं रखतीं। इस सिलसिले में 2015 में हमने दिल्ली में एक शोध किया था। शोध में शामिल एक समूह ने माना कि बिजली और पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं उन्हें मुफ्त में मिलेंगी तो अच्छा है। वहीं जब उन्हें यह बताया गया कि इन सुविधाओं से सरकारी खजाने पर करीब 500 करोड़ रुपये का बोझ बढ़ेगा तो मुफ्त सुविधाओं को पसंद करने वालों की संख्या में लगभग 20 प्रतिशत की कमी आ गई। स्पष्ट है कि यदि जनता में इसे लेकर जागरूकता का प्रसार होगा तो संभव है कि राजनीतिक दलों को भी अपनी रणनीति बदलनी पड़ेगी। भले ही इस मामले में चुनाव आयोग और उच्चतम न्यायालय ने अपने लिए लक्ष्मण रेखा खींच दी हो, लेकिन कहीं न कहीं जनता, नागरिक समाज और राजनीतिक दलों सहित समूचे तंत्र से जुड़े अंशभागियों को इस मुद्दे का कोई कारगर हल निकालना होगा। जनता को राजनीतिक दलों से यह प्रश्न करना चाहिए कि इन वादों को पूरा करने के लिए वित्तीय संसाधन कहां से आएंगे, क्योंकि इसमें केवल वर्तमान की राजनीति का ही नहीं, बल्कि भविष्य के आर्थिक संतुलन का भी सवाल है। तब शायद दलों को इन वादों के साथ ही उन्हें पूरा करने की कार्ययोजना भी प्रस्तुत करनी पड़े और फिर जनता उसी आधार पर निर्णय करे।

फिलहाल लोकलुभावनवाद को लेकर प्रतिस्पर्धा जारी है, जिसमें सभी दल बड़े-बड़े वादे कर रहे हैं, परंतु वित्तीय संसाधनों के अभाव में राज्य उन्हें पूरा करने के लिए केंद्र से मदद की गुहार लगाने से भी गुरेज नहीं करते। जैसे पंजाब की कमान संभालते ही मुख्यमंत्री भगंवत मान ने केंद्र से 50,000 करोड़ रुपये का पैकेज मांगा। सीमित संसाधनों और वित्तीय अनुशासन को देखते हुए केंद्र सरकार के लिए ऐसे प्रस्तावों से इन्कार स्वाभाविक है। केंद्र की ऐसी प्रतिक्रिया को लेकर भी कुछ राज्यों में आक्रोश है, क्योंकि उनका मानना है कि जीएसटी के बाद करों के मोर्चे पर उनके पास अधिकार नहीं बचे। उन्हें करों में उनके योगदान के अनुपात में राजस्व साझेदारी में हिस्सेदारी नहीं मिलती। इस मामले में दक्षिण के राज्यों की शिकायत है कि कर संग्रह में उनका योगदान अधिक होने के बावजूद संसाधन आवंटन उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों को ज्यादा होता है। संसाधनों की साझेदारी को लेकर तमिलनाडु के पूर्व वित्त मंत्री औपचारिक रूप से अपना पक्ष भी रख चुके हैं।

स्पष्ट है कि यदि रेवड़ी संस्कृति पर विराम लगाना है तो राजनीतिक दलों को अपना सुविधावादी दृष्टिकोण त्यागना होगा। एक राजनीतिक दल को मुफ्त उपहारों से जुड़ी अपनी योजना तो कल्याणकारी लगती है, लेकिन दूसरे दल की योजना रेवड़ी नजर आती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद एक ओर रेवड़ी संस्कृति से मुक्ति की बात करते हैं, लेकिन ऐसी पेशकशों के मामले में उनकी पार्टी भाजपा भी पीछे नहीं रहती। नि:संदेह, रेवड़ी संस्कृति पर अंकुश लगाना समय की मांग है, लेकिन इसके लिए सभी को जिम्मेदारी का भाव और संवेदनशीलता का परिचय देना होगा। अन्यथा भारत को विकसित देश बनाने का जो स्वप्न हम देखते हैं, वह पूरा होना कठिन होता जाएगा।


Date:25-05-23

जेनरेटिव एआई की चुनौतियां अपार

नितिन देसाई

दुनिया भर में प्रयोग करने योग्य आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) सॉफ्टवेयर के तेजी से उभार ने अर्थव्यवस्था और सुरक्षा पर इसके संभावित प्रभाव को लेकर एक व्यापक बहस छेड़ दी है। आमतौर पर हम जिस सॉफ्टवेयर का उपयोग करते हैं उसमें कोई स्वतंत्र रचनात्मकता नहीं दिखती है, उदाहरण के तौर पर लेखन से जुड़े सॉफ्टवेयर। हालांकि, यहां भी हम कुछ सरल एआई सॉफ्टवेयर देखते हैं जो वर्तनी की गलतियों को ठीक करते हैं और आप जब कोई संदेश या टेक्स्ट टाइप कर रहे होते हैं तो ये अगले शब्द का सुझाव देते हैं।

इन दिनों जो कुछ हम देख रहे हैं वह इससे बिल्कुल अलग है। यह एआई भाषा मॉडल पर आधारित है जो पूछे गए प्रश्न को समझने के लिए डिजाइन किया गया है और यह इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री के माध्यम से सवालों का विस्तृत जवाब तुरंत तैयार कर देता है। एआई का उपयोग आवाज और ग्राफिक्स बनाने के लिए भी किया जा सकता है। चैट जीपीटी भाषा से जुड़ा सॉफ्टवेयर है जिसका विस्तार पिछले साल अक्टूबर से काफी तेजी से हुआ है लेकिन इसकी वजह से एआई के बारे में कई चिंताएं भी उभरी हैं। मैंने रोजगार के प्रभाव के बारे में चैटजीपीटी पर एक प्रश्न पूछा और नियमित तथा दोहराए जाने वाले कार्यों को स्वचालित करने की क्षमता के बारे में संतुलित उत्तर मिला जैसे कि डेटा एंट्री, असेंबली लाइन वर्क, ग्राहक सेवा के साथ-साथ जेनरेटिव एआई में ग्राफिक डिजाइन, विज्ञापन और सामग्री निर्माण जैसे रचनात्मक उद्योगों में कुछ कार्यों को स्वचालित करने की रचनात्मक क्षमता की बात भी थी। इसमें बढ़ती आय असमानता का जिक्र हुआ जहां कम और मध्यम स्तर की दक्षता वाले श्रमिक पीछे रह जाते हैं। मशीन लर्निंग, डेटा विश्लेषण और सॉफ्टवेयर विकास जैसे क्षेत्रों में विशेष कौशल वाले कर्मचारियों के लिए नई नौकरियां तैयार करने की क्षमता की ओर भी इशारा किया। किसी भी तरह के तकनीकी विकास का प्रभाव विशेष रूप से हमेशा मौजूदा नौकरियों से जुड़े रोजगार पर पड़ता है लेकिन इससे नए रोजगार के मौके भी तैयार होते हैं जिस तरह मोटर कार ने पशुओं द्वारा खींची जाने वाली गाड़ियों की जगह ले ली।

भारत में, पर्याप्त रचनात्मक क्षमता वाली जेनरेटिव एआई, सॉफ्टवेयर और बिजनेस प्रोसेसिंग सेवाओं में मौजूदा रोजगार के स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है क्योंकि वे जो सेवाएं देते हैं उसे आसानी से एआई-आधारित प्रोग्राम के द्वारा पूरा किया जा सकता है।

लेकिन ऐसा करने के लिए एआई के खास उपयोग के लिए सेवाओं में कुछ समर्थन की आवश्यकता होगी, खासतौर पर तब जब इसका उपयोग सॉफ्टवेयर तैयार करने के लिए किया जाता है। यह वह क्षमता है जिसे हमारी आईटी और बीपीओ कंपनियों को अवश्य विकसित करनी चाहिए। संयोग से एआई, कम दक्ष श्रमिकों के लिए, अधिक सक्षम लोगों के साथ अंतर कम करने के लिए एक उपकरण देता है। उदाहरण के तौर पर खराब अंग्रेजी भाषा कौशल वाला एक कर्मी, एआई का उपयोग अंग्रेजी भाषा-शिक्षित कर्मी के रूप में उपयोगी बनने के लिए कर सकता है, जैसे कि मार्केटिंग या किसी अन्य गतिविधि में, जिसमें अंग्रेजी भाषा में संवाद करने की आवश्यकता होती है। हालांकि, अब एआई से जुड़ी बहस इसके रोजगार प्रभाव के बजाय सुरक्षा से जुड़े पहलुओं और उसके असर के बारे में ज्यादा है। जेनरेटिव एआई के उभार के साथ यह बहस अधिक व्यापक हो गई है जो एआई मॉडल का वह संदर्भ देता है जो मनुष्यों से स्पष्ट निर्देश लिए बिना ही अपने दम पर नई सामग्री, जैसे चित्र, वीडियो और टेक्स्ट बनाने में सक्षम हैं।

एक प्रभावशाली लेखक युअन हरारी ने तर्क दिया है कि भाषा मानव संस्कृति का आधार है और भाषा से जुड़ी अत्यधिक कुशल एआई प्रणाली, संस्कृति और मान्यताओं के विकास पर कब्जा कर सकती है। लेकिन एक पहलू यह भी है कि एआई सॉफ्टवेयर में आत्म-चेतना और महत्त्वाकांक्षा की कमी है। एक सटीक अनुमान यह लगाया जा रहा है कि इसका उपयोग कुछ आदमियों द्वारा दूसरों पर अपने प्रभाव को गहरा करने के लिए किया जा सकता है। किसी को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ओपन-सोर्स एआई ऐप तक कई लोगों की पहुंच होती है और इससे संस्कृति पर पड़ने वाले प्रभाव को लोकतांत्रिक बनाने में मदद मिलेगी।

असली चुनौती एआई के प्रतिकूल इस्तेमाल को रोकना भी है। चैटजीपीटी की एक प्रतिक्रिया के अनुसार, एआई संचालित निगरानी प्रणाली, गोपनीयता अधिकारों का हनन कर सकती है। इसके अलावा एआई-स्वचालित साइबर हमले, पारंपरिक सुरक्षा दायरे से बचने के लिए तैयार किए गए हैं और स्वायत्त रूप से मनुष्यों को लक्षित करने तथा हमला करने के लिए एआई संचालित हथियार डिजाइन किए गए हैं।

एआई फर्जीवाड़े और धोखाधड़ी के साथ फर्जी खबरों के प्रभाव को भी गहरा कर सकता है। इसमें भी सबसे खराब बात यह है कि इसमें आवाज तैयार करने की क्षमता है जिससे फर्जी कॉल की रफ्तार बढ़ सकती हैं और मिसाल के तौर पर परिवार के किसी सदस्य से किसी को किसी जगह तुरंत पैसे भेजने के लिए कहा जा सकता है।

क्या जेनरेटिव एआई मानव हस्तक्षेप के बिना घातक हो सकता है? सॉफ्टवेयर के माध्यम से नियंत्रित ड्रोन का मामला हीं लें। एक विशेष प्रकार के लक्ष्य पर हमला करने के लिए प्रोग्राम किया गया ड्रोन अपने खास लक्ष्य को चुनने के लिए स्वतंत्र है जो प्रोग्राम किए गए मानदंडों को पूरा करता है। लेकिन इसमें कुछ ऐसा नहीं है जिसे ड्रोन निर्धारित करता है। यह ड्रोन प्रोग्रामिंग करने वाले लोगों द्वारा ही निर्धारित किया गया है।

एआई में न्यूरल नेटवर्क्स की प्रोग्रामिंग आत्म-चेतना नहीं पैदा कर कर सकती है क्योंकि हम अभी भी इसके लिए तंत्रिका तंत्र के आधार को नहीं जानते हैं। एआई सॉफ्टवेयर में मनुष्यों की तरह किसी विकल्पों या पूर्वग्रहों का आकलन करने की क्षमता नहीं होती है जिससे सत्य के परे किसी खास मकसद से किसी जवाब को विकृत रूप दिया जा सकता है। नुकसानदेह और लाभकारी प्रभाव, मानव की चेतना और निर्णय पर निर्भर करते हैं। इसीलिए एआई का दुरुपयोग किसी विशिष्ट व्यक्ति की दुर्भावना पर निर्भर करेगा। अब प्राथमिक बहस इसके रोजगार पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में नहीं है। उस प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जाता है और यह कोई संयोग नहीं है कि चैटजीपीटी बनाने वाले ओपनएआई के सैम अल्टमैन, सार्वभौमिक बुनियादी आय के सिद्धांत में विश्वास करते हैं जो संभवतः रोजगार के अवसरों में कमी की भरपाई करने के लिए है। लेकिन अब प्राथमिक चिंता एआई के व्यापक दुरुपयोग के डर से जुड़ी हुई है और इसी वजह से एआई बनाने और उपयोग करने के लिए एक नियामक व्यवस्था स्थापित करने को लेकर आम सहमति बनती दिखाई दे रही है। जी7 ने इस उद्देश्य के लिए एक कार्यकारी समूह स्थापित करने का प्रस्ताव रखा है और यूरोपीय संघ नियमन को तैयार करने की राह पर है।

एक स्तर पर बहस न केवल उपयोग के नियमन के बारे में है बल्कि यह दुरुपयोग के जोखिम को नियंत्रित करने के लिए एआई ऐप्स के मूल डिजाइन से जुड़ा है। यदि यह सरकारों द्वारा किया जाता है तो इसका उपयोग राजनीतिक लाभ के लिए किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर चीन ने एआई विकास पर कथित तौर पर नियंत्रण करना शुरू किया है। चीन में एआई ऐप्स के जारी होने से पहले आधिकारिक मंजूरी का प्रावधान शामिल किया गया है और उन्हें ‘समाजवाद के बुनियादी मूल्यों’ के अनुरूप ही पेश करना सुनिश्चित करने की आवश्यकता होती है! हालांकि इस प्रकार के राजनीतिकरण से बचना चाहिए। इंटरनेट का दुरुपयोग किया जा सकता है लेकिन यह हमारी स्वतंत्रता और लोकतंत्र का सबसे मजबूत आधार बना हुआ है।

भारत को एआई पर क्या रुख अपनाना चाहिए? हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि यह भविष्य की तकनीक है। जिस तरह कई दशक पहले कंप्यूटरीकरण का दौर आया था ठीक उसी तरह ही हमें एआई विकसित करने और इसका उपयोग करने के लिए स्थानीय क्षमता तैयार करने के लिए काम करना चाहिए। एआई के मुख्य भाग की नींव एक भाषा मॉडल है, इसलिए भारत के लिए यह एक बड़ी चुनौती है क्योंकि यहां कई भाषाएं हैं। एआई सेवाओं के प्रावधान के लिए बहुत बड़े सर्वर सिस्टम की आवश्यकता होती है, विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो ग्राफिक्स के लिए एआई की सेवाएं लेते हैं। एआई प्रदाताओं के रूप में बड़ी कंपनियों के लिए पूर्वग्रह है। यह भी एक अंतरराष्ट्रीय रुझान है और जितनी जल्दी हम अपने इन्फोटेक उद्योग को इसमें शामिल करते हैं, एआई बाजार में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान कायम करने की हमारी संभावना उतनी ही बेहतर हो सकती है।

आज कंप्यूटर भाषा, गणितीय गणना और ग्राफिक डिजाइन से जुड़े कई काम करते हैं जिस काम को हमें कंप्यूटर दौर आने से पहले हाथ से धीरे-धीरे और थकाऊ तरीके से करना पड़ता था, जब हम वयस्क हो रहे थे। कंप्यूटर युग ने हमें उच्च स्तर की बौद्धिक गतिविधि पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मुक्त किया, लेकिन हमें अज्ञात फर्जीवाड़े की घटनाओं का सामना भी करना पड़ रहा है। हमारे बच्चों के लिए भी एआई कुछ ऐसी ही स्थितियां तैयार करेगा और हमारा मुख्य कार्य उन्हें एआई द्वारा दिए जाने व्यापक अवसरों के लिए तैयार करना और यह सुनिश्चित करना है कि जोखिम का प्रबंधन किया जाए।


Date:25-05-23

समुद्र तट का सिकुड़ना चिंताजनक

पंकज चतुर्वेदी

केंद्र सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च (NCCR) की ताजातरीन रिपोर्ट चेता रही है कि देश की समुद्री सीमा कटाव और अन्य कारणों के चलते सिकुड़ रही है। अकेले तमिलनाडु में राज्य के कुल समुद्री किनारों का कोई 42.7 हिस्सा संकुचन की चपेट में आ चुका है। हालांकि कोई 235.85 किमी. की तट रेखा का विस्तार भी हुआ है। जब समुद्र के किनारे कटते हैं, तो उसके किनारे रहने वाले मछुआरों, किसानों और बस्तियों पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाता है। चिंता की बात है कि समुद्र से जहां नदियों का मिलन हो रहा है, वहां कटाव अधिक है। इससे नदियों की पहले से खराब सेहत और बिगड़ सकती है।

ओड़िशा के जिलों बालासोर, भद्रक, गंजम, जगतसिंघपुर, पुरी और केंद्रपाड़ा की लगभग 480 किमी. समुद्र रेखा पर भी कटाव का संकट गहरा गया है। ओड़िशा जलवायु परिवर्तन कार्य योजना, 2021-2030 में बताया गया है कि राज्य में 36.9 फीसद समुद्र किनारे तेजी से समुद्र में टूट कर गिर रहे हैं। यूनिर्वसटिी ऑफ केरल, त्रिवेंद्रम द्वारा किए गए और जून-22 में प्रकाशित हुए शोध में बताया गया है कि त्रिवेंद्रम जिले में पोदियर और अचुन्थंग के बीच के 58 किमी. के समुद्री तट का 2.62 वर्ग किमी. हिस्सा बीते 14 सालों में सागर की गहराई में समा गया। शोध बताता है कि 2027 तक कटाव की रफ्तार भयावह हो सकती है। वैसे इस शोध में एक बात और पता चली कि इसी अवधि में समुद्र के बहाव ने 700 मीटर नई धरती भी बनाई है। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत काम करने वाले चेन्नई स्थित नेशनल सेंटर फॉर सस्टेनेबल कोस्टल मैनेजमेंट के आंकड़े बताते हैं कि देश में कुल 6907 किमी. की समुद्री तट सीमा है, और बीते 28 सालों के दौरान हर जगह यह कुछ न कुछ क्षतिग्रस्त हुई ही है। देश में सर्वाधिक समुद्र तटीय क्षेत्र गुजरात में 1945.60 किमी. है, और यहां 537.50 किमी. कटाव दर्ज किया गया है, आंध्र प्रदेश के कुल 1027.58 किमी. में से 294.89, तमिलनाडु में 991.47 में से 422.94 किमी. में कटाव देखा जा रहा है। पुदुचेरी, जो कभी सबसे सुंदर समुद्र तटों के लिए विख्यात था, भी धीरे-धीरे अपने किनारों को खो रहा है। दमन दीव जैसे छोटे द्वीप में 34.6 प्रतिशत तट पर कटाव का असर सरकारी आंकड़े मानते हैं। केरल के कुल 592.96 किमी. के समुद्री तट में से 56.2 फीसद धीरे-धीरे कट रहा है। कोस्टल रिसर्च सेंटर ने देश में ऐसे 98 स्थानों को चिन्हित किया है, जहां कटाव तेजी से है। इनमें से सबसे ज्यादा और चिंताजनक 28 स्थान तमिलनाडु में हैं। पश्चिम बंगाल में 16 और आंध्र में 7 खतरनाक कटाव वाले स्थान हैं। कोई एक दशक पहले कर्नाटक के सिंचाई विभाग द्वारा तैयार ‘राष्ट्रीय समुद्र तट संरक्षण रिपोर्ट’ में कहा गया था कि सागर-लहरों की दिशा बदलना कई बातों पर निर्भर करता है। लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण समुद्र के किनारों पर बढ़ते औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से तटों पर हरियाली का गायब होना है। हवा का रु ख, ज्वार-भाटे और नदियों के बहाव में आ रहे बदलाव भी समुद्र को प्रभावित कर रहे हैं। कई भौगोलिक परिस्थितियां जैसे-बहुत सारी नदियों के समुद्र में मिलन स्थल पर बनीं अलग-अलग कई खाड़ियों की मौजूदगी और नदी-मुख की स्थिति में लगातार बदलाव भी समुद्र के अस्थिर व्यवहार के लिए जिम्मेदार हैं। ओजोन पट्टी के नष्ट होने और वायुमंडल में कार्बन मोनो आक्साइड की मात्रा बढ़ने से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। इससे समुद्री जल का स्तर बढ़ना भी इस तबाही का एक कारक हो सकता है।

मुंबई हो या कोलकता हर जगह जमीन के कटाव को रोकने वाले मेग्रोव शहर का कचरा घर बन गए हैं। पुरी समुद्र तट पर लगे खजरी के सभी पेड़ काट दिए गए। पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 में तहत बनाए गए सीआरजेड में समुद्र में आए ज्वार की अधिकतम सीमा से 500 मीटर और भाटे के बीच के क्षेत्र को संरक्षित घोषित किया गया है। इसमें समुद्र, खाड़ी, उसमें मिलने आ रहे नदी के प्रवाह को भी शामिल किया गया है। ज्वार यानी समुद्र की लहरों की अधिकतम सीमा के 500 मीटर क्षेत्र को पर्यावरणीय संवेदनशील घोषित कर इसे एनडीजेड यानी नो डवलपमेंट जोन (किसी भी निर्माण के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र) घोषित किया गया। इसे सीआरजेड-1 भी कहा गया। सीआरजेड-2 के तहत ऐसे नगर पालिका क्षेत्रों को रखा गया है, जो पहले से ही विकसित हैं। सीआरजेड-3 किस्म के क्षेत्र में वह समुद्र तट आता है, जो सीआरजेड-1 या 2 के तहत नहीं है। यहां किसी भी तरह के निर्माण के लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति आवश्यक है। सीआरजेड-4 में अंडमान, निकोबार और लक्षद्वीप की पट्टी को रखा गया है। 1998 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने राष्ट्रीय समुद्र तट क्षेत्र प्रबंधन प्राधिकरण और इसकी राज्य इकाइयों का भी गठन किया ताकि सीआरजेड कानून को लागू किया जा सके। लेकिन ये सभी कानून कागज पर ही दिखते हैं।


Date:25-05-23

विकास योजनाओं पर हावी लोक-लुभावन राजनीति

पूजा मेहरा, ( सलाहकार संपादक, मिंट )

अर्थव्यवस्था ने कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनाने में कोई बड़ी भूमिका नहीं निभाई थी, पर हार में हो सकती है। भ्रष्टाचार, महंगाई व ग्रामीण मतदाताओं की बदलती प्राथमिकताएं उन वजहों में शामिल थीं, जिनको राजनीतिक विश्लेषकों ने गिनाया है। अब भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व कोई जोखिम नहीं लेना चाहता, इसलिए तमाम तरह की कवायदें की जा रही हैं। अगर सियासी पंडितों ने सही भांपा है, तो अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चिंता कर्नाटक के ग्रामीण मतदाताओं द्वारा भाजपा के कल्याणकारी उपायों की अनदेखी है। पार्टी ने ‘लाभार्थियों’ का एक खास वर्ग बनाने का दावा किया था। इस वोट बैंक में यह असंतोष राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पद्र्धी लोक-लुभावन राजनीति बढ़ा सकता है। हमने पहले भी इस तरह की राजनीति देखी है।

साल 2019 के आम चुनाव के दरम्यान, ओडिशा और तेलंगाना की राज्य सरकारों ने किसानों को पैसा देकर ग्रामीण संकट दूर करने और कृषि क्षमता में सुधार लाने की कोशिश की थी। केंद्र सरकार ने इसे अपने लिए चुनौती माना और पीएम-किसान योजना के माध्यम से वह भी ऐसा करने लगी। किसानों के लिए वैकल्पिक आय कोई बुरा अर्थशास्त्र नहीं है। मगर विफलता यह थी कि सरकार ने पानी व बिजली जैसी कृषि सब्सिडी को वैकल्पिक आय का स्रोत बनाने का मौका गंवा दिया। इस बीच, अन्य वोट बैंकों के लिए पूरक आय (आवश्यक सुधारों को दरकिनार करते हुए) एक अलग संभावना की तरह दिखने लगी।

आगामी लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस ने लोक-लुभावनवाद को हवा दे दी है। उसने पेंशन पर बहस को सफलतापूर्वक फिर से शुरू कर दिया, नतीजतन कई राज्य सरकारें इस बात की परवाह किए बिना कि इससे उनके खजाने पर कितना बोझ पड़ेगा, अपने कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन योजना पर लौटने को मजबूर हुई हैं। केंद्र की मोदी सरकार अब तक इसकी काट नहीं निकाल सकी है। उसने सरकारी कर्मचारियों के लिए पेंशन में सुधार के लिए एक पैनल का गठन किया है। तमाम जानकारों के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाले तत्कालीन योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने भी आगाह किया है कि पुरानी पेंशन योजना पर वापस लौटने से सरकारें दिवालिया हो जाएंगी। इस योजना को दिसंबर, 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बंद कर दिया था।

कर्नाटक में कांग्रेस सरकार ने पहले ही दिन अपने चुनावी वायदों को पूरा करने का फैसला किया- हर घर को 200 यूनिट मुफ्त बिजली, परिवार की महिला मुखिया को हर माह 2,000 रुपये, गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों के हर सदस्य को प्रतिमाह 10 किलो चावल आदि। 2019 के आम चुनाव में भी कांग्रेस ने न्यूनतम आय योजना (न्याय) के तहत देश के गरीब परिवारों को हर वर्ष 72 हजार रुपये की सहायता देने का वादा किया था। मुमकिन है, आगामी चुनाव में इसे फिर से जारी किया जाएगा। तब खतरा यह होगा कि सत्तारूढ़ दल भी दबाव में ऐसी योजनाओं की ओर बढ़ेगा, भले ही ऐसे खर्च को संभालने की कोई व्यवस्था उसने न की हो।

समस्या यह है कि भारत अपने आर्थिक दर्द का इलाज लोक-लुभावनवाद में देख रहा है, जबकि आर्थिक सुरक्षा सिर्फ स्थायी आजीविका से मिल सकती है और लोगों की खर्च करने की क्षमता को बढ़ाकर बाजार को विस्तार दे सकती है, जो कि अर्थव्यवस्था के सतत विकास के लिए आवश्यक है। तथ्य यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था लाखों अकुशल नौजवानों के लिए जरूरी रोजगार-सृजन नहीं कर पा रही। सरकार लोक-लुभावन खर्च से इन विफलताओं की भरपायी करने की सोचती है, जबकि डिजिटली ट्रांसफर किए जाने वाले पैसे गुणवत्तापूर्ण आजीविका का विकल्प नहीं हो सकते। साफ है, हमारा आर्थिक मॉडल सबके लिए सुखद नहीं है। इसको सुधारने के लिए अर्थशा्त्रिरयों से नीतिगत सलाह की दरकार है। सुधारों को लेकर राजनीतिक विश्वास छीजता जा रहा है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही अपने पूर्व प्रधानमंत्रियों की प्रगतिशील आर्थिक नीतियों की धज्जियां उड़ाने को तैयार दिख रही हैं। यह अर्थव्यवस्था के लिए कतई शुभ नहीं।