25-03-2019 (Important News Clippings)
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Date:25-03-19
Nirav Modi Lesson
India’s enforcement agencies need to upgrade their skills for successful extraditions
TOI Editorials
Economic fugitive Nirav Modi may have spent Holi in a British prison, but India can take little comfort from that. Last July government informed Parliament that it was pursuing 13 economic fugitives, including Nirav Modi, Mehul Choksi and Vijay Mallya. These prominent fugitives still remain at large. It has not been easy to see through extradition requests and there is an urgent need to improve state capacity in this regard. Successful prosecution of financial misdemeanors will act as a deterrent and enhance trust in India’s justice system.
Three prominent economic fugitives, including Nirav Modi, fled during NDA’s watch. One reason is that different arms of the state which deal with economic matters function in silos. Lack of adequate coordination and necessary expertise have adversely influenced extradition attempts. The legal framework for extradition is in most cases governed by a bilateral treaty. In the case of UK, the process has to work its way through the criminal justice system there. Does CBI, an anti-corruption investigator, have the expertise to deal with extradition requirements in a foreign jurisdiction?
Once it came to light that Nirav Modi may have defrauded PNB and then fled, government got cracking on a legislation to seize economic assets of fugitives. Necessary as it is, it’s unlikely to act as a deterrent. To illustrate, Nirav Modi was willing to deposit half million UK pounds as security while seeking bail. Clearly, the only effective deterrent will be a successful extradition and subsequent prosecution in India. India today is highly integrated with the world in terms of financial flows. This calls for a strategy to strengthen and upgrade skills of agencies which can prevent abuse of the system. Else today’s ‘chowkidars’ can justly be accused of sleeping on their watch, despite election eve protestations to the contrary.
Date:25-03-19
चुनावी वादों की बौछारों में महज कुछ छींटों से भी वंचित वादी
एम जे एंटनी
यह वह समय है, जब राजनीतिक पार्टियां घोषणा पत्र जारी करती हैं। उनमें से कुछ ने अपनी वेबसाइटों से पुराने घोषणा-पत्र हटा लिए हैं ताकि जिज्ञासु लोग यह पड़ताल न कर पाएं कि घोषणा-पत्र के कितने वादे असल में पूरे किए गए। पार्टियों ने अपनी प्रतिद्वंद्वियों के 2014 के घोषणा-पत्रों की नई दिल्ली में होली जलाई है ताकि उनके पूरे नहीं किए गए वादों को उजागर किया जा सके। बहुत कम लोगों को ऐसा कोई घोषणा-पत्र याद होगा, जिसमें न्यायपालिका में दशकों से बनी हुई समस्या को पूरी गंभीरता से हल करने की कोशिश की गई। इसी वजह से कोई वादे टूटे भी नहीं। यहां कोई वोट बैंक नहीं है और वादियों का संकट किसानों या बेरोजगार युवाओं के बराबर नहीं है। बहुत से मुख्य न्यायाधीशों ने सरकार को चेताया था कि न्याय प्रणाली कमजोर पड़ रही है। इन मुख्य न्यायाधीशों में से एक ने ऐसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा था और उन्हें आंखें पोंछते हुए देखा गया था। न्यायाधीशों का अनुमान है कि तीन करोड़ लंबित मामलों को निपटाने में 100 से 200 वर्ष लगेंगे। शिक्षा के प्रसार, लोगों में अधिकारों के प्रति जागरूकता बढऩे और हर बार आने वाली सरकारों के इस क्षेत्र की अनदेखी करने से समस्या और विकराल बनेगी।
यह जगजाहिर है कि न्यायपालिका के लिए महज 0.2 फीसदी बजट आवंटित किया जाता है। किसी भी चुनावी घोषणा-पत्र में अदालतों में बुनियादी ढांचे के मुद्दे को जगह दी गई। उच्चतम न्यायालय की पिछले महीने की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हाल के वर्षों में राज्यों के न्यायिक बुनियादी ढांचे के लिए केंद्र का अनुदान आधा हो गया है। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाले एक पीठ ने अदालत में कहा कि कुछ निचली अदालतों के दौरे में यह सामने आया कि उनकी हालत बीते कई वर्षों से खस्ताहाल बनी हुई है। न्यायाधीशों ने कहा, ‘अदालती कक्ष पुराने और खराब हालत में हैं। न्यायिक अधिकारी ऐसे अदालती कक्षों में काम कर रहे हैं, जिन्हें पर्दों के जरिये अलग-अलग कक्षों में बांटा गया है। इस वजह से उनके जल्द फैसले लिखने के आसार होते हैं।’ ऐसी खबरें आई हैं कि निचली अदालतों में 140 मामले 60 से अधिक वर्षों से लंबित हैं।
शीर्ष अदालत में भी स्थिति ज्यादा बेहतर नहीं है। उच्चतम न्यायालय के दस्तावेजों को खंगालने से संकट की गहराई का पता चलता है। ऐसे 260 से अधिक संवैधानिक मामले हैं, जिन्हें पांच न्यायाधीशों के पीठों को भेजा गया है। कुछ की सुनवाई 1992 में होनी थी। ये सवाल बहुत जटिल हैं जैसे 1975 में आपातकाल के दौरान संवैधानिक संशोधनों के बाद संपत्ति का अधिकार। इसके अलावा ऐसे 11 मामले हैं, जिन्हें सात सदस्यों के पीठ के पास भेजा गया है। ये भी पुराने मामले हैं और विधायिका के विशेषाधिकार बनाम मीडिया की स्वतंत्रता जैसे जटिल विषयों से संबंधित हैं। इसके अलावा 132 मामले ऐसे हैं, जिनकी सुनवाई नौ सदस्यों के पीठ द्वारा की जानी है। अगर इन जटिल मुद्दों की सुनवाई संविधान पीठ करेंगे तो उच्चतम न्यायालय में शेष करीब 60,000 मामलों की सुनवाई में और देरी होगी। बहुत सी पुरानी नागरिक याचिकाओं में वादी या प्रतिवादी के नाम के पीछे (डी) लगा हुआ है। इसका मतलब है कि उनकी मृत्युु हो चुकी है और उन्होंने मामले की फाइलें अपने कानूनी प्रतिनिधियों को दे दी हैं। यह स्थिति उच्च न्यायालयों में और अधिक विकट है।
इन हालात को देखकर ऐसा लगता है कि राजनेता यही चाहते हैं कि न्यायपालिका की स्थिति ऐसी ही बनी रहे। हाल में यह पाया गया कि राजनेताओं के बहुत से मामले तीन दशकों से चल रहे हैं। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया है कि उन्हें एक साल के भीतर निपटाया जाए। आम नागरिकों के कुछ मामलों को चार दशक बीत चुके हैं। इसके नतीजतन जेलों में भीड़ बढ़ गई है। कुछ जेलों में तो उनकी क्षमता से दोगुने कैदी हैं। हर तीन कैदियों में से दो अपने मुकदमे खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं। कुछ कैदी तो जेल में उससे कहीं अधिक समय बिता चुके हैं, जो उनके अपराध के लिए निर्धारित अधिकतम दंड से अधिक है। उच्चतम न्यायालय की रिपोर्ट दर्शाती हैं कि 3.8 लाख कैदियों के लिए बने कमरों को 4.3 लाख कैदियों को साझा करना पड़ा।
यह तस्वीर उससे बिल्कुल उलट है, जिसमें कथित रूप से कर्नाटक के एक राजनेता को शानदार अपार्टमेंट मुहैया कराया जा रहा है या लंदन के मजिस्ट्रेट के शब्दों में मुंबई की एक सेल को ‘फिर से सजाया’ गया है, जिसमें एक भगोड़े कारोबारी को लाया जाएगा। ये आंकड़े घोषणा-पत्रों के शिल्पकारों का ध्यान खींचने के लिए तरस रहे हैं। इनसे सरकार और न्यायाधीशों को चयनित करने वाले कॉलेजियम के बीच तकरार जुड़ी हुर्ई है। हालांकि वादियों की नाराजगी को आर्थिक, धार्मिक या सांप्रदायिक क्षेत्रों के लिए किए जाने वाले वादों में जगह नहीं मिलती है। राजनेताओं को वहां मुनाफा ज्यादा मिलता है। ऐसा नहीं है कि मतदाता चुनावी वादों को बिना सोचे-समझे स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन उन वादियों को भरोसे के कुछ शब्द भी नहीं मिलते, जो अदालती इमारतों में उदासी भरे चेहरे लेकर घूम रहे हैं।
Date:25-03-19
आत्म सम्मान व आत्म अनुशासन से सब कुछ पाया जा सकता है
झुग्गी के बच्चों को पढ़ाकर खर्च चलाया, फुटपाथ पर सोई, पिता से विद्रोह कर घर छोड़ा लेकिन, पढ़ाई नहीं छोड़ी
उम्मुल खेर , ( असिस्टेंट कमिश्नर, भारतीय राजस्व सेवा, दिल्ली )
मुझे आईएएस बनकर दिखाना है, यह वादा जब मैंने खुद से कर लिया तो कठिनाइयों से जूझने की ताकत मिलने लगी। 28 की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते मेरी बॉडी में 16 फ्रैक्चर हुए। इस दौरान 8 ऑपरेशन का सामना किया। 2012 में हुई एक दुर्घटना ने मुझे व्हीलचेयर पर पहुंचा दिया, लेकिन मैं लक्ष्य की ओर बढ़ती रही। रोज 15 घंटे पढ़ाई की और पहले प्रयास में ही यूपीएससी में 420वीं रैंक हासिल की। असिस्टेंट कमिश्नर की जिस कुर्सी पर आज बैठी हूं, उसके लिए कितना संघर्ष किया, यह सब फ्लैशबैक की तरह चित्रित होने लगता है। आत्मविश्वास, आत्मसम्मान व आत्मानुशासन से सब कुछ पाया जा सकता है बस… आपके प्रयास में कोई कमी न रहने पाए। राजस्थान के पाली में अजैले बोन डिसऑर्डर नामक बीमारी के साथ मेरा जन्म हुआ। इस बीमारी में हड्डियां कमजोर होकर हलका झटका लगने से भी टूट जाती हैं। पिता गलियों में फेरी लगाकर सामान बेचते थे तभी हम तीन भाई-बहनों को कुछ खाने को मिलता था। मां को सिजोफ्रेनिया (मानसिक बीमारी) के दौरे पड़ते थे। मैं विकलांग पैदा हुई, इसलिए पांचवीं तक विकलांग बच्चों के स्कूल में पढ़ी। मुस्लिम परिवार से होने के कारण घर में तमाम तरह की पाबंदियां थीं। सातवीं कक्षा में पहुंची तो पिता कहने लगे अब पढ़ने की जरूरत नहीं। लेकिन, मुझे पढ़ने का खूब शौक था। मैंने सोचा पिता मेरी पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते, इसलिए मैं झुग्गियों के कुछ बच्चों को पढ़ाने लगी। मुफलिसी के चलते एक दिन पिता मोहम्मद अय्यूब हम सभी को दिल्ली ले आए। वे छोटे-मोटे सामान के साथ मूंगफली बेचने लगे। मैं भी पिता के साथ फुटपाथ पर काम में उनका हाथ बंटाने लगी। अक्सर हम फुटपाथ पर ही सो जाते थे लेकिन, मैंने पढ़ाई जारी रखी।
एक दिन मेरी मां चल बसीं। पढ़ाई को लेकर वे हमेशा मेरा सपोर्ट करती थीं। पिता ने दूसरी शादी कर ली तो सौतली मां आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ने के लिए रोज लड़ाई करने लगीं। वे कहती थीं कि लड़कियों के लिए पांचवीं-सातवीं तक पढ़ाई बहुत है। इससे आगे पढ़ाया तो वे बिगड़ जाती हैं। सौतेली मां चाहती थी कि मैं घर का काम करूं, सिलाई कर कुछ कमाऊं। 2001 में निजामुद्दीन के पास झुग्गियां हुआ करती थीं, वहीं मेरा बचपन बीता। एक दिन सभी झुग्गियां तोड़ दी गईं तो हम बेघर हो गए। परिवार के लोगों ने रहने के लिए दूसरी जगह ढूंढ़ी, लेकिन मैंने साथ जाने से मना कर दिया और अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए त्रिलोकपुरी में खोली ले ली। तब मैं नौवीं क्लास में थी। खोली का किराया व पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए आसपास के बच्चों को आठ से दस घंटे ट्यूशन पढ़ाने लगी। ये बच्चे मजदूरों, रिक्शा चालकों व दिहाड़ी करने वालों के थे, इसलिए बहुत फीस मिलने की उम्मीद नहीं थी। एक बच्चे के 50-60 रुपए मिल जाते थे। दिल्ली में खोली लेकर एक लड़की का अकेले रहना किसी खतरे को न्योता देने जैसा था। मेरा एक ही सपना था आईएएस बनना।
इतनी गरीबी के बीच रोजाना संघर्ष करते हुए भी मेरा मन पढ़ाई में कितना लगता था, इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं। आठवीं क्लास में मैंने स्कूल में टॉप किया तो स्कॉलरशिप मिलने लगी। टॉपर होने से 2008 में अर्वाचीन स्कूल में दाखिला मिल गया। वहां 10वीं में मुझे 91 तो 12वीं में 90 प्रतिशत मार्क्स मिले थे। इसके बाद 2011 में दिल्ली यूनिवर्सिटी से साइकोलॉजी में दाखिला लेकर छोड़ दिया, क्योंकि इसमें इंटर्नशिप होती थी। मैं इंटर्नशिप करती तो ट्यूशन कैसे पढ़ाती? इसलिए इंटरनेशनल रिलेशंस विषय में ग्रेजुएशन किया। जेएनयू में पढ़ना मेरे लिए टर्निंग पॉइंट रहा। जेएनयू से एमए के दौरान मेरिट-कम-मीन्स स्कॉलरशिप के तहत मुझे 2000 रुपए महीना मिलने लगा। साथ ही हॉस्टल में जगह मिली और मेस का खाना भी। जेएनयू में कई देशों में दिव्यांगों के कार्यक्रम में भारत का प्रतिनिधित्व करने का मुझे अवसर मिला तो मैं दक्षिण कोरिया गई। 2012 में एक सड़क दुर्घटना ने मुझे व्हील चेयर पर पहुंचा दिया। अस्पताल में रहने से ट्यूशन छूट गई लेकिन, हार नहीं मानी। जेएनयू के इंटरनेशनल स्टडीज स्कूल से एमए करने के बाद एमफिल/पीएचडी में एडमिशन ले लिया। 2013 में मैंने जेआरएफ क्रैक कर दिया तो मुझे 25,000 रुपए प्रति महीना मिलने लगा। इससे मेरी गरीबी दूर होने लगी।
2014 में जापान के इंटरनेशनल लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए मेरा चयन किसी सपने से कम नहीं था। बीते 18 साल में सिर्फ तीन भारतीय ही इस प्रोग्राम के लिए चुने गए थे। चूंकि मैं भी दिव्यांग की श्रेणी में आती हूं, इसलिए इस प्रोग्राम में दिव्यांगों को मुझे यह सिखाना था कि सम्मान का जीवन कैसे जी सकते हैं। एमफिल के साथ मैंने जेआरएफ भी क्लियर कर लिया और जनवरी 2016 में पढ़ाई के साथ आईएएस की तैयारी शुरू कर दी। पहले प्रयास में ही मैंने सिविल सर्विस की परीक्षा पास कर 420वीं रैंक हासिल की।
मैं विकलांग पैदा हुई, विकलांगता को अपनी ताकत बनाते हुए सफलता की सीढ़ियां चढ़ती चली गई। मेरा लक्ष्य तय है, मैं दिव्यांग लड़कियों और महिलाओं के उत्थान के लिए काम करूंगी। मेरे परिवार ने मेरे साथ जो किया वह उनकी गलती थी। मेरे पिता रूढ़ीवादी थे, शायद इसलिए मेरा विरोध करते थे। मैंने परिवार के सभी सदस्यों की गलतियां माफ कर दी हैं। अब मैं पिता को हर तरह की सुख-सुविधा देना चाहती हूं।
Date:25-03-19
लोकपाल से आस
यह जरूरी है कि लोकपाल नामक नई संस्था उन उम्मीदों को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़े !
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पीसी घोष के देश के पहले लोकपाल के रूप में शपथ लेते ही देश में एक नई संस्था ने आकार ले लिया। हालांकि लोकपाल सदस्यों की भी घोषणा हो चुकी है, लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह संस्था विधिवत ढंग से अपना काम कब से और कैसे करेगी? यह अस्पष्टता जितनी जल्दी दूर हो उतना ही अच्छा, क्योंकि पहले ही इसमें अनावश्यक देर हो चुकी है। करीब चार दशक के इंतजार के बाद वर्ष 2013 में लोकपाल संबंधी विधेयक को संसद की मंजूरी मिल गई थी, लेकिन किन्हीं कारणों से लोकपाल और उसके सदस्यों के नाम तय करने में छह साल लग गए। चूंकि यह जरूरी काम देर से और लोकसभा चुनावों की घोषणा के बाद हुआ, इसलिए उस पर सवाल भी उठे। इन सवालों की अनदेखी नहीं की जा सकती, लेकिन अब ज्यादा जरूरी यह है कि केंद्रीय स्तर के नेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाली लोकपाल नामक नई संस्था उन उम्मीदों को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़े जो उससे लगाई गई थीं और जिनके चलते एक समय पूरा देश आंदोलित हो उठा था।
नि:संदेह लोकपाल संस्था इसीलिए अस्तित्व में आई, क्योंकि अण्णा हजारे के नेतृत्व में एक प्रभावी आंदोलन उठ खड़ा हुआ था। इसमें दोराय नहीं कि इस संस्था के सामने खुद को सक्षम साबित करने की चुनौती है। यदि लोकपाल पीसी घोष और उनके आठ सहयोगी इस चुनौती का सामना सही तरह करते हैैं, तो वे न केवल उम्मीदों को पूरा करेंगे, बल्कि भ्रष्टाचार से लड़ने के मामले में एक प्रतिमान भी स्थापित करेंगे। यह प्रतिमान इसलिए स्थापित होना चाहिए, क्योंकि एक तो भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की सख्त जरूरत है और दूसरे, राज्यों के लोकायुक्तों के समक्ष उदाहरण पेश करने की भी आवश्यकता है।
यह सही है कि भ्रष्टाचार से लड़ने का काम केंद्रीय जांच ब्यूरो और सुप्रीम कोर्ट के जरिए अभी भी हो रहा है, लेकिन सीबीआई की अपनी सीमाएं हैं और फिर वह सरकार के नियंत्रण में काम करने वाली एजेंसी है। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट की भी अपनी सीमाएं हैं। एक तथ्य यह भी है कि वह न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के सवाल को सही तरह नहीं हल कर सका है। इन हालात में सरकार से इतर एक स्वतंत्र एवं स्वायत्त संस्था चाहिए ही थी। इससे बेहतर और कुछ नहीं कि लोकपाल संस्था अपने कार्य-व्यवहार से अपनी साख बनाने का काम करे। यह बहुत कुछ उसके कामकाज के तौर-तरीकों पर निर्भर करेगा।
उचित यह होगा कि नई सरकार का गठन होने के पहले ही लोकपाल संस्था जांच और अभियोजन संबंधी अपने तंत्र का गठन कर ले। केंद्रीय सेवाओं के अधिकारियों एवं कर्मचारियों के साथ-साथ केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को इसका आभास होना आवश्यक है कि भ्रष्टाचार की जांच करने वाली एक नई और सक्षम संस्था अस्तित्व में आ चुकी है। लोकपाल संस्था के सक्रिय होने के बाद भ्रष्टाचार के मामलों में कमी आने के साथ ही भ्रष्ट तत्वों के मन में भय व्याप्त होना आवश्यक है। बेहतर होगा राज्य सरकारें भी इसकी चिंता करें कि लोकायुक्त अपने दायित्व का निर्वहन सही तरह कर पा रहे हैं या नहीं ?
Date:24-03-19
दोहरी चुनौती के मुहाने
डॉ. दिलीप चौबे
घरेलू राजनीति और विदेश नीति का देश के आम चुनाव पर इससे अधिक शायद ही पहले कभी देखा गया हो। पुलवामा हमले और उसके बाद बालाकोट एयर-स्ट्राइक भारत-पाकिस्तान के बीच केवल छिट-पुट संघर्ष नहीं था, बल्कि बड़े पैमाने पर युद्ध छिड़ने की स्थिति पैदा हो गई थी। अमेरिका, सऊदी अरब, रूस और चीन की ओर से पाकिस्तान पर डाले गए भारी दबाव का ही नतीजा था कि युद्ध का खतरा भले ही टल गया, लेकिन भारत और पाकिस्तान के द्विपक्षीय संबंध पटरी से पूरी तरह उतर गए। इस बीच, भारत में आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई और सत्ता पक्ष तथा विपक्ष का पूरा ध्यान चुनाव गतिविधियों में लग गया।
पुलवामा हमले के बाद पंजाब के सिख यात्रियों के लिए पाकिस्तान स्थित करतारपुर साहिब जाने के लिए प्रस्तावित कॉरिडोर की वार्ता पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार संपन्न हुई। बेशक, यह मोदी सरकार के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। साथ ही, इससे यह साबित होता है कि दोनों देशों के बीच जो भौगोलिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संबंध सूत्र हैं, उन्हें तोड़ा नहीं जा सकता। पाकिस्तान दिवस के अवसर पर भी ऐसा ही देखने को मिला। दोनों देशों ने जहां एक ओर सद्भावना प्रदर्शित की वहीं आपसी वैमनस्य भी दिखाई दिया। भारत ने नई दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायोग द्वारा आयोजित स्वागत समारोह का विरोध किया और बीते शनिवार को इस्लामाबाद में आयोजित रस्मी परेड में भाग लेने के लिए किसी राजनयिक को नहीं भेजा। कहना न होगा कि भारत की ओर से बहिष्कार की यह कार्रवाई असामान्य थी। तनाव और तल्खी के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पाकिस्तान दिवस पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को भेजे शुभकामना संदेश में आतंकवाद और हिंसा से मुक्त माहौल में दोनों देशों में शांति, समृद्धि और खुशहाली की कामना की। जवाब में इमरान खान ने अपना आभार जताने के साथही कश्मीर का राग अलापा। उन्होंने कश्मीर को द्विपक्षीय संबंधों में केंद्रीय मुद्दा बताया लेकिन हिंसा और आतंकी वारदात के बारे में कोईउल्लेख नहीं किया। जाहिर है कि इमरान खान पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई की ओर से लिखी गई इबारत ही दोहरा रहे थे।
लोक सभा चुनाव संपन्न होने के बाद नई सरकार द्विपक्षीय संबंधों पर ठंडे दिल दिमाग से विचार कर सकती है। चुनाव से पहले के राजनीतिक दबाव से राजनीतिक नेतृत्व मुक्त रहेगा और ऐसे में कुछ कठिन फैसले कर सकेगा। संयोग से रूस और चीन के प्रभुत्व वाले शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की शिखर बैठक जून में आयोजित होने जा रही है। इसमें प्रधानमंत्री मोदी और इमरान खान सहित विभिन्न सदस्य देशों के शीर्ष नेता भाग लेंगे। नरेन्द्र मोदी यदि दोबारा सत्ता में आते हैं, तो उनके लिए इमरान से मिलने और द्विपक्षीय संबंधों को फिर से पटरी पर लाने का वह एक अवसर होगा। गौरतलब है कि भारत की तरह ही एससीओ का भी आतंकवाद को लेकर कड़ा रुख है। इस संगठन के सदस्य देशों के लिए यह अनिवार्य शर्त है कि वे आतंकवाद, उग्रवाद और अलगाववाद को किसी तरह का समर्थन न दें।
आतंकवाद के खिलाफ एससीओ का अपना एक तंत्र है। भारत इस तंत्र को सक्रिय बनाने के लिए रूस और चीन के साथ मिलकर काम कर सकता है। वास्तव में यह संगठन आतंकवाद के बारे में भारत की चिंताओं को दूर करने का प्रभावी मंच साबित हो सकता है। चूंकि द्विपक्षीय मामलों से यह संगठन अपने आपको अगल रखता है, इसलिए भारत-पाकिस्तान के आपसी हितों को सामान्य बनाने में इसकी कोई सीधी भूमिका नहीं है, लेकिन इस संगठन में इन दोनों देशों की भागीदारी और इसके तहत संयुक्त सैनिक अभ्यास तथा आतंकवाद विरोधी संघर्ष भविष्य में द्विपक्षीय वार्ता का आधार बन सकता है। दोबारा जनादेश हासिल करने की स्थिति में नरेन्द्र मोदी में आत्मविास और इच्छाशक्ति प्रकट करने का अवसर होगा।
गौरतलब है कि भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद के मुद्दे द्विपक्षीय अवश्य हैं, लेकिन युद्ध के हालात इन्हें अंतरराष्ट्रीय आयाम देते हैं। पिछले महीने का घटनाक्रम इस बात को साबित करता है। भारत के लिए आने वाले दिनों में दोहरी चुनौती है। एक ओर इसे अपनी रक्षा तैयारियों को अपराजेय बनाना है, वहीं अपनी कूटनीति को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अति सक्रिय करना है, ताकि अपने पक्ष में अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को एकजुट किया जा सके।
Date:23-03-19
शिकंजे में नीरव
संपादकीय
नीरव मोदी की लंदन में गिरफ्तारी से हर उस भारतीय को सुकून मिला है, जो आर्थिक अपराध कर विदेश भाग चुके अपराधियों को वापस लाकर कानूनी कठघरे में खड़ा किए जाने के समर्थक हैं। नीरव मोदी, उसके परिवार एवं कुछ कारोबारी साझेदार भारत के सबसे बड़े बैंक घोटाले के दोषी हैं। हालांकि मोदी सरकार द्वारा आर्थिक अपराधी भगोड़ा कानून बनाने के बाद ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई आसान हो गई है। अब इनके देश के साथ विदेश स्थित संपत्तियां भी जब्त की जा सकती हैं। किंतु इसके लिए भी जिस देश में भगोड़े रह रहे हों, वहां की सरकार एवं न्यायालय का आसरा तो लेना ही पड़ता है। अपराधियों के प्रत्यर्पण के लिए कानूनी प्रक्रिया से गुजरना होता है। जनवरी 2017 में नीरव मोदी, उसका परिवार तथा एक समय साझेदार रहा मेहुल चौकसी देश छोड़कर भाग गए थे। कुछ महीने पहले भारतीय जांच एजेंसियों को नीरव के लंदन में होने का पता चला और प्रत्यर्पण वारंट जारी किया गया। जाहिर है, भारतीय कूटनीति ने मामले को यहां तक लाने के लिए काफी परिश्रम किया है, अन्यथा जो व्यक्ति वहां लाइसेंस लेकर कारोबार कर रहा हो उसे गिरफ्तार करके न्यायालय में प्रस्तुत करना आसान नहीं था।
वेस्टमिनिस्टर पुलिस ने जिस ढंग से न्यायालय में मामला रखा उससे पता चलता है कि भारत ने न केवल नीरव के अपराध के पूरे सबूत ब्रिटिश प्रशासन के सामने रखा बल्कि उसकी गंभीरता को ठीक प्रकार से समझाया है। नीरव की गिरफ्तारी के बाद आम धारणा यही थी कि उसे उसी तरह जमानत मिल जाएगी जैसे विजय माल्या को मिल गई थी। किंतु न्यायालय ने उसे जेल भेज दिया तो इसी कारण कि वहां उसके गंभीर अपराध के पूरे तय मौजूद थे। हालांकि उसका प्रत्यर्पण इतनी जल्दी नहीं हो सकता। ब्रिटेन जैसे देश में सारे सबूत होने के बावजूद मानवाधिकारों के तहत पुलिस प्रताड़ना और जेल की असुविधा जैसी बाधाएं आ जाती हैं। किंतु न्यायालय के रु ख और भारत की सघन कोशिशों को देखते हुए आज न कल उसका भारत लाया जाना निश्चित है। उसने अपने परिवार के साथ साजिश रचकर फर्जीवाड़े से पंजाब नेशनल बैंक सहित 18 बैंकों के कई हजार करोड़ रुपये निकाले। धन की वसूली के साथ ऐेसे अपराधियों को सजा मिलना आवश्यक है। नीरव के साथ उसके भाई, पत्नी तथा मेहुल को भी भारत लाना होगा। हालांकि उसकी भारत स्थिति बहुत सारी संपत्तियां नीलाम की जा चुकी हैं और बची हुई नीलाम होने वाली हैं। पूरी वसूली तथा उपयुक्त सजा के लिए नीरव का भारत लाया जाना आवश्यक है।
Date:23-03-19
Missing workers
Government needs to acknowledge that the situation on the jobs front is serious
Editorial
India’s total workforce — the sum of persons in employment — has fallen from 42 crore to 37.3 crore between 2011-12 and 2017-18, according to an official Periodic Labour Force Survey (PLFS) report cited by this newspaper. There are apparent differences in data collection methodology used in the latest survey vis-à-vis the ones for the earlier years, but the findings raise concern. To start with, this is probably the first time that the total number of employed persons has actually registered a decline. Now, it’s plausible that such a decline can happen with rising education levels, which makes people that much more reluctant to take up casual labour work. That would be reflected in lesser numbers joining the workforce. The ones joining may do so only after attaining a certain age — the so-called working age population includes all individuals who are at least 15 years old, which is definitely too young for the job market — and accumulating skills that enable them to command a higher salary or wage rate. If this is, indeed, taking place, it isn’t a bad thing.
However, the above optimism is not borne out by other evidence, whether hard survey-based or anecdotal. The Labour Bureau’s data on rural wages, for instance, shows the average annual growth during the last four years at just over 4.5 per cent in nominal terms and a mere 0.5 per cent in real terms after netting out inflation. If the supply of workers has fallen, even for good reasons, it should have led to a tightening of the labour market, which clearly isn’t the case. Moreover, the private data analytics firm, Centre for Monitoring Indian Economy (CMIE), has systematically been putting out data pointing to both a falling labour participation rate (the proportion of working-age population either employed or actively seeking jobs) and rising unemployment rate (the proportion of labour force that is unemployed) since early 2017. It is for the National Sample Survey Office, which has done the PLFS, to release its report and clarify the methodology employed that might even make comparisons with previous surveys inappropriate. The more the delay, the more likely it is that people — including global investors — are going to read motives. Also, they would increasingly depend on alternative data sources, be it the CMIE or two-wheeler and car sales, cement dispatches, bank credit offtake, unsold real estate inventory and other such numbers having strong correlation with jobs and incomes.
The government, both the current one and the one that will take over in about two months, must acknowledge that the situation on the jobs front is serious. India is now in a position where its rising numbers of young people and declining fertility have the potential to reap a “demographic dividend”. The lack of reasonably-paying jobs risks turning that into a spectre.
Date:23-03-19
A New Red Line
Success of Code of Ethics for social media outfits during LS polls will depend on how they own it, and how EC keeps watch
Editorial
Ever since the 2014 Lok Sabha elections, new media platforms such as Twitter, Facebook and WhatsApp, have become political battlegrounds. These spaces of electioneering have, however, remained unregulated because the Representation of People Act (RPA), 1951, does not cover social media. On Wednesday, the Election Commission (EC) and Internet and Mobile Association of India — the body that represents social media firms — took a decisive step towards plugging this gap. The two agencies agreed on a Code of Ethics, which social media outfits will follow during the Lok Sabha elections. The Code that came into effect on March 20 ticks several boxes — it emphasises transparency and stresses on measures to “prevent abuse of social media platforms”. However, as Chief Election Commissioner Sunil Arora put it, “the document should be seen as a work in progress”. Since adherence to the Code is voluntary, much will depend on the measures taken by individual social media outfits to put the document’s guidelines into practice.
Section 126 of the RPA prohibits political parties and candidates from campaigning in the two days before voting. In January, an EC panel suggested bringing social media platforms under the Act’s ambit so that voters are “afforded a period of reflection”. The panel suggested that these new media platforms should abide by the EC’s guidelines about taking down “objectionable content”. Social media outfits, however, did not agree with the recommendation that such content “be taken down within three hours of a notice”. It’s reassuring that the Code, put in place on Wednesday, addresses the EC’s concerns: “Valid legal orders will be acknowledged and/ or processed within three hours for violations reported under Section 126”. Also welcome is the Code’s insistence on “transparency in paid political advertisements”. Any political advertisement posted without the EC’s certification and notified as such by the EC will be acted upon expeditiously, the Code says.
The Code asks social media firms to train the EC’s nodal officers on how their “platforms work and on mechanisms for sending requests on dealing with offensive material”. These companies will also develop a “reporting mechanism” through which the poll watchdog can inform the platforms about “potential violations of Section 126”. The Code’s success will depend, in large measure, on how these channels of communication work. In the run-up to the Lok Sabha elections, the conduct of the social media firms — and the EC — will be watched.
The Kerala alert
There needs to be greater surveillance across India for the West Nile Virus
EDITORIAL
The death of a child in Kerala’s Malappuram district has drawn attention to the epidemiology of the little-known West Nile Virus in India. Though awareness is low, the virus is endemic to several States. The first documented WNV case in Kerala was in Alappuzha in 2011, with the numbers then growing. However, official records do not reflect this, given the difficulty of diagnosing WNV in its acute phase. This microbe is serologically similar to the Japanese Encephalitis virus, which means a go-to test, ELISA, often fails to differentiate JE antibodies from WNV antibodies. More tests are typically needed to confirm WNV, and while the results appear in journals, they don’t always make it to State surveillance systems. This is why, though a 2014 Journal of Clinical Virology paper identified the 2011 Alappuzha outbreak as WNV, with around six deaths, Kerala’s health department is calling the Malappuram death the State’s first. The confirmation triggered an alert, but it doesn’t mean Kerala did not have WNV deaths before.
Nevertheless, the alert is a welcome move. It means that State health authorities will look harder for the disease. Historically, wherever Indian researchers have looked for the WNV, they have found it. The first sign of its presence came from positive antibody tests among residents of Bombay in 1952. Thereafter, it began showing up in encephalitis patients in many of the places it was tested for, including Maharashtra, Assam and Madhya Pradesh. In Malappuram too, the rapid diagnosis was driven by heightened surveillance in Kerala following the 2018 Nipah outbreak. Patient samples were sent to the Manipal Centre for Virus Research, which deployed the Plaque Reduction Neutralisation Test, more specific than ELISA. If more States used such diagnostics, it would help determine just how widespread WNV is in India. There is a good chance the virus is a significant cause of Acute Encephalitis Syndrome, the infamous basket of illnesses with no known aetiology that affect over 10,000 Indians each year. Still, WNV rarely kills. In less than 1% of infections, the virus travels to the brain, triggering potentially fatal encephalitis. Otherwise, it merely causes a mild flu-like illness. This could change. Viruses are known to adapt for both greater virulence and more efficient transmission. Urbanisation and land-use changes are bringing the virus’s zoonotic hosts, such as birds, in more frequent contact with humans. Given increased mobility, viruses can hitch a ride to new regions via infected humans and vectors. All this makes the WNV a formidable foe. India’s best defence is better surveillance, which will help doctors reach patients early to prevent complications. Kerala could not prevent the death in Malappuram, but other States should adopt its model of heightened surveillance.