24-05-2023 (Important News Clippings)
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Date:24-05-23
Take Your PIC
India’s outreach to Pacific island countries is smart but needs a lot of policy work & a larger navy
TOI Editorials
That PM Modi’s recent visit to Papua New Guinea – the first by any Indian premier – coincided with the US inking a defence agreement with the Pacific island nation wasn’t a coincidence. Pacific island countries (PIC) have emerged as a strategic battleground between the US and China, with Beijing trying to peel away some PICs in recent years. China inked its own security pact with the Solomon Islands last year. That sent alarm bells ringing. If the Chinese are able to establish a strong foothold in the islands, it would create a serious strategic-security headache for Washington in the south Pacific.
This is precisely why India and the US teaming up in the PIC region is a good idea. While Washington can provide security guarantees to the islands, New Delhi can position itself as a reliable development partner. That was the thrust of Modi’s 12-point action plan announced at the 3rd Forum for India-Pacific Islands Cooperation Summit. Ranging from steps to boost healthcare infrastructure in the islands, to setting up a regional IT and cybersecurity hub and providing desalination units to address water scarcity, New Delhi is rightly championing a demanddriven cooperation model that doesn’t burden the island nations.
But it’s important that the momentum behind these measures endures. Geographical distance between India and the PIC can lead to complacency setting back in. And China with deeper pockets and the world’s largest navy is better equipped for the push-and-pull of a long-term strategic tussle. Case in point, cashstrapped Sri Lanka has turned to Chinese oil and gas giant Sinopec to import, distribute and sell petroleum products despite Chinese loans playing a significant role in Colombo’s economic crisis.
Thus, if India is to counter Chinese influence or even apply strategic pressure on Beijing, it needs to have consistent outreach policies for important partner countries. In the long term, New Delhi has to sufficiently grow its economy to ensure a strong maritime component in its foreign policy. The Indo-Pacific is a seascape. A larger and modern Indian navy is needed for both countering Chinese adventurism and inspiring confidence among island partners.
वित्तीय हालत अच्छी हो तो चुनाव- पूर्व घोषणाएं संभव
संपादकीय
वैश्विक बाजार में तमाम कमोडिटी (जिंसों) के दाम कम हैं। देश में पेट्रोलियम की बेहतर स्थिति है। इसके साथ ही सब्सिडी कम करने की वजह से केंद्र सरकार को चालू वित्तीय वर्ष में कुल करीब दो लाख करोड़ रुपए से ज्यादा की बचत हो रही है। इसके दो लाभ हैं। पहला, राजकोषीय घाटा 6. 4% से घटकर 5.9% हो सकता है और दूसरा, आम चुनाव के ठीक पूर्व के कुछ महीनों में जनता को कई किस्म की आर्थिक मदद/ पैकेज की घोषणा भी बगैर किसी अतिरिक्त चिंता के की जा सकती है। देश में तीन मुख्य सब्सिडीज हैं- फूड, फर्टिलाइजर और फ्यूल। वर्ष 22-23 के बजटीय अनुमान में इन पर कुल खर्च 3.18 लाख करोड़ रु. आंका गया, जो यूक्रेन युद्ध के कारण पुनरीक्षि अनुमान में बढ़कर 5.22 लाख करोड़ रु. हो गया। चालू वित्त वर्ष में इसके केवल 3.75 लाख करोड़ रु. यानी 28% कम होने का अनुमान है। इसमें रूस से मिल रहे सस्ते क्रूड के आयात और रिफाइंड पेट्रोलियम के निर्यात से प्राप्त लाभ को नहीं जोड़ा गया है। पांच किलो मुफ्त अनाज की स्कीम खत्म करना, मनरेगा पर खर्च में 29 हजार करोड़ रु. की कटौती के अलावा खादों के वैश्विक मूल्यों में भारी कमी भी भूमिका है। यूरिया जो कुछ माह पहले तक 900-1000 डॉलर प्रति टन था वह 400-500 डॉलर पर आ गया है। डीएपी के दाम भी 35% कम हुए हैं। लिहाजा आयात बिल काफी कम रहेगा। केंद्र की बजटीय स्थिति बेहतर होने का मतलब है कि सरकार नई स्कीमों के लिए पैसे दे सकती है। 2019 के चुनाव पूर्व सरकार ने किसान सम्मान राशि के रूप में हर चार माह में दो हजार रुपए देने की घोषणा की, जो आज भी जारी है। इस बार बेरोजगारी से असहाय हुए युवाओं के लिए मासिक राशि का ऐलान राजनीतिक रूप से लाभकारी हो सकता है।
काले धन की अर्थव्यवस्था
संपादकीय
अंततः दो हजार के नोटों को बदलने का काम शुरू हो गया। भले ही रिजर्व बैंक ने इस संदर्भ में सभी बैंकों को निर्देश जारी किए हों, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें लेकर वे असमंजस में हैं और इसीलिए उनके तौर-तरीकों में एकरूपता नहीं दिख रही है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में इस समस्या का समाधान हो जाए कि दो हजार के नोट बदलने और उन्हें जमा करने के मामले में किस तरह के नियमों का पालन होना है, लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं होगा। रिजर्व बैंक ने दो हजार के नोट वापस लेने की घोषणा करते हुए कहा था कि वे वैध बने रहेंगे। प्रश्न यह है कि कब तक ? रिजर्व बैंक ने यह भी सूचित किया है कि नोट बदलने की समयसीमा यानी 30 सितंबर के बाद आगे आवश्यक निर्णय लिए जाएंगे। क्या तब तक उक्त प्रश्न अनुत्तरित रहेगा? जो भी हो, यह उल्लेखनीय है कि पहले दिन बैंकों में नोट बदलवाने या जमा कराने के लिए ज्यादा भीड़ नहीं दिखी। क्या इसका यह अर्थ है कि आम लोगों के पास दो हजार के अधिक नोट नहीं हैं? लगता तो ऐसा ही है, लेकिन इसी के साथ इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सोने के दाम में उछाल आ गया है। इसके अतिरिक्त आभूषणों की खरीद में भी तेजी देखी जा रही है और डालर की खरीद में भी। इससे नोटबंदी के बाद के दिनों की याद ताजा हो रही है। तब पांच सौ और एक हजार के नोटों को बैंकों में जमा कराने के साथ आभूषणों और जमीन-जायदाद की खरीद में खपाया गया था। इसके चलते ही नोटबंदी के वांछित परिणाम नहीं मिल सके थे।
आशा की जाती है कि रिजर्व बैंक ने यह सुनिश्चित किया होगा कि दो हजार के नोट वापस लेने के उसके फैसले के पीछे जो उद्देश्य तय किए गए, वे पूरे होंगे। चूंकि दो हजार के नोट कुल करेंसी के 10 प्रतिशत के ही करीब हैं, इसलिए उन्हें वापस लेने के फैसले का अर्थव्यवस्था पर सीमित प्रभाव होगा। इसके बाद भी रिजर्व बैंक को उन तत्वें को सफल नहीं होने देना चाहिए, जो दो हजार के नोटों को मनचाहे तरीके से खपाने में लगे हुए हैं। इससे यही पता चलता है कि दो हजार के नोट कालेधन का जरिया बना लिए गए थे। शायद इसी कारण कई वर्ष पहले उनकी छपाई बंद कर दी गई थी। आम लोगों के बीच उनका प्रचलन भी कम हो गया था, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि कालेधन वालों ने उनकी जमाखोरी नहीं की। यदि दो हजार के नोट वापस लेने के फैसले के बाद भी कालेधन वालों पर अंकुश नहीं लगता तो इससे यही साबित होगा कि यदि सरकार और रिजर्व बैंक डाल-डाल हैं तो वे पात- पात। अच्छा होगा कि काले धन की अर्थव्यवस्था पर अंकुश लगाने के नए उपाय खोजे जाएं।
Date:24-05-23
प्रभावी राष्ट्रीय नवाचार प्रणाली की तरफ कदम बढ़ाना जरूरी
नौशाद फोर्ब्सनौशाद फोर्ब्स, ( लेखक फोर्ब्स मार्शल के को-चेयरमैन हैं और भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के पूर्व अध्यक्ष और सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी इनोवेशन ऐंड इकनॉमिक रिसर्च के चेयरमैन हैं )
लगभग 30 वर्ष से भी अधिक समय पहले तीन अर्थशास्त्रियों- ब्रिटेन में क्रिस फ्रीमैन, स्वीडन में बैंग्टेक लुंडवॉल और अमेरिका में रिचर्ड नेल्सन- ने राष्ट्रीय नवाचार प्रणाली (नैशनल इनोवेशन सिस्टम्स) के बारे में सोचना शुरू किया था। ये तीनों अर्थशास्त्री अलग-अलग देशों से थे और उन्होंने नवाचार को अंतरराष्ट्रीय एवं तुलनात्मक नजरिये से देखा। इससे हमें यह समझने में आसानी हुई कि एक प्रभावी नवाचार तंत्र तैयार करने में किन बातों की जरूरत होती है। नवाचार ज्यादातर कंपनियों में होता है इसलिए इनकी शुरुआत भी वहीं से हुई। किसी कंपनी की क्षमता इन दोनों बातों से प्रभावित होती है कि वे स्वयं क्या करती है और उनके इर्द-गिर्द संस्थानों में क्या हो रहा है।
व्यापार प्रणाली पूरी दुनिया के लिए या फिर सीमित सोच के साथ उत्पादन शुरू कर सकती है। शिक्षा प्रणाली हुनरमंद (या फिर नहीं) श्रमिक, इंजीनियर और शोधकर्ता उपलब्ध कराती है। सार्वजनिक वित्त पोषित शोध विज्ञान को बढ़ावा दे सकता है। लोक नीति शोध एवं विकास (आरऐंडडी) में सीधे या पेटेंट के जरिये निवेश को प्रोत्साहन दे सकती है। उद्यमशीलता की संस्कृति विभिन्न रूपों में निवेश को प्रभावित करती है। उद्यमी जिस रूप में ‘अच्छाई’ को परिभाषित करते हैं वृहद सांस्कृतिक कारक उसे (उस रूप को) प्रभावित कर सकते हैं।
आइए, चर्चा की शुरुआत कंपनियों के साथ करते हैं। भारतीय उद्योग को आरऐंडडी को मालिकाना प्रौद्योगिकी (प्रॉपराइटरी टेक्नोलॉजी) आधारित भविष्य तैयार करने के माध्यम के रूप में देखना चाहिए। भारतीय उद्योग को देश में आरऐंडडी पर खर्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.3 प्रतिशत से बढ़ाकर दुनिया (और चीन) के 1.5 प्रतिशत के बराबर करना चाहिए। भारतीय कंपनियां आंतरिक स्तर पर निवेश में दुनिया की तुलना में इतनी पीछे क्यों है? कहां संभावनाएं दिख रही हैं? पूरी दुनिया में औद्योगिक आरऐंडडी में जितना निवेश हो रहा है उनमें शीर्ष 2,500 कंपनियों द्वारा शोध एवं विकास पर किए जाने वाले खर्च की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत है।
शीर्ष 10 क्षेत्रों की इसमें हिस्सेदारी 80 प्रतिशत तक है। इन 10 क्षेत्रों में पांच में शीर्ष 2,500 कंपनियों में भारत की कोई कंपनी नहीं है। कुछ क्षेत्रों में हम आरऐंडडी पर अधिकार ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। हमारी सॉफ्टवेयर कंपनियां मुनाफा कमाने के लिहाज से तो बड़ी हैं मगर आरऐंडडी में निवेश के मोर्चे पर पीछे चल रही हैं। ये कंपनियां आरऐंडडी में 12 प्रतिशत के वैश्विक औसत (चीन के 10 प्रतिशत) का करीब 1 प्रतिशत निवेश कर रही हैं। इसके अलावा आरऐंडडी क्षेत्र में कोई बड़ा निवेशक भी नहीं है। भारतीय कंपनियां संयुक्त रूप से आरऐंडडी में जितना निवेश करती हैं दुनिया की 26वीं (आरऐंडडी में निवेश के लिहाज से) सबसे बड़ी कंपनी बॉश अकेले उससे अधिक निवेश करती है। आरऐंडडी में बड़े निवेशक कहां से आ सकते हैं?
इसी समाचार पत्र में मैंने अपने पिछले स्तंभ में भारत की सफलतम कंपनियों की चर्चा की थी। हमारे देश की शीर्ष 10 कंपनियां सॉफ्टवेयर (टीसीएस और इन्फोसिस), तेल परिष्करण (ओएनजीसी, रिलायंस और इंडियन ऑयल), धातु (टाटा स्टील और जेएसडब्ल्यू) और अन्य उद्योगों (एनटीपीसी, रिलायंस जियो और आईटीसी) में हैं। पिछले साल इन कंपनियों ने 44 अरब डॉलर का मुनाफा कमाया था। उन्होंने आरऐंडडी में अपने लाभ का करीब 2 प्रतिशत (1 अरब डॉलर से कम) निवेश किया। अब चीन की कंपनियों पर विचार करते हैं। चीन की सर्वाधिक मुनाफा कमाने वाली कंपनियां सॉफ्टवेयर, तेल परिष्करण, बेवरिजेज, खनन एवं निर्माण में हैं। उन्होंने पिछले साल 106 अरब डॉलर मुनाफा कमाया और इनमें 31 अरब डॉलर (29 प्रतिशत) आरऐंडडी पर खर्च किए। अमेरिका, जापान और जर्मनी की शीर्ष 10 कंपनियों ने अपने मुनाफे का क्रमशः 37, 43 और 55 प्रतिशत आरऐंडडी निवेश किया था।
भारतीय उद्योग जगत के लिए आरऐंडडी में निवेश के प्रति अधिक गंभीर रवैया अपनाना होगा। हमें प्रौद्योगिकी गहन (टेक्नोलॉजी -इन्टेंसिव) क्षेत्रों में उपस्थिति बढ़ानी होगी। इसके अलावा उन क्षेत्रों में वैश्विक औसत के करीब निवेश करना होगा जहां हम पहले से उपस्थित हैं। हमारी सर्वाधिक मुनाफा कमाने वाली कंपनियों में कुछ को आरऐंडडी पर भारी निवेश करना होगा। भारत में तकनीकी प्रतिभा की कमी नहीं है और हम चाहें तो दीर्घकालिक सफलता के लिए उनका इस्तेमाल कर सकते हैं।
इस चर्चा ने उद्योग को हमारे राष्ट्रीय नवाचार प्रणाली के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है। मैं यह प्रस्ताव दूंगा कि कोई भी जीवंत राष्ट्रीय नवाचार प्रणाली की शुरुआत दृढ़ प्रतिस्पर्द्धी क्षमता के साथ होनी चाहिए। इसके अभाव में सार्वजनिक आरऐंडडी पर भारी निवेश के जरिये तकनीकी क्षमता विकसित करने का भारत का प्रयास सफल नहीं रहा है। पिछले 70 वर्षों में जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, सिंगापुर और चीन की आर्थिक प्रगति से हम काफी कुछ सीख सकते हैं। इनमें प्रत्येक देश ने नवाचार क्षमता विकसित करने के लिए सिलसिलेवार उपाय किए। कंपनियां पहले निर्यात बाजार में मूल उपकरण विनिर्माताओं (ओईएम) के रूप में उतरीं और विदेशी ब्रांड को निर्यात करने लगीं। इससे उन्हें विश्व स्तरीय क्षमता प्राप्त करने में सहायता मिली और परिभाषा के हिसाब से उनके उत्पाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा करने में सक्षम थे।
ये उद्योग मोटे तौर पर श्रम आधारित और बहुत प्रौद्योगिकी गहन – परिधान, फुटवेयर, खाद्य प्रसंस्करण- नहीं थीं। अगला चरण मूल्य श्रृंखला में तकनीक का अधिक इस्तेमाल करने वाले क्षेत्रों-कंज्यूमर ड्यूरेबल्स, इलेक्ट्रॉनिक असेंबली, वाहन एवं कल-पुर्जे एवं रसायन मद्यवर्ती (इंटरमीडिएट्स)- की तरफ बढ़ना था। जैसे कंपनियां इस क्षेत्र में शामिल हुईं उन्होंने प्रतिस्पर्द्धा में दीर्घ अवधि तक बने रहने के लिए आंतरिक स्तर पर आरऐंडडी में निवेश करना शुरू कर दिया। इसके बाद उच्च-तकनीकी क्षेत्रों- सेमीकंडक्टर, दवा (फार्मास्युटिकल्स), कंप्यूटर- में कदम बढ़ाने से आंतरिक स्तर पर आरऐंडडी में निवेश बढ़ने लगा। औद्योगिक शोध एवं विकास में तेजी से अधिक आधुनिक शोध प्रतिभा की जरूरत बढ़ने लगी।
ढांचे या सुखद घटना किसी भी लिहाज से सभी पांच पूर्वी एशियाई देशों की सरकारों ने सार्वजनिक वित्त पोषित आरऐंडडी में निवेश बढ़ाना शुरू कर दिया और इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि उन्होंने पश्चिमी देशों की तरह ही इस सार्वजनिक शोध को उच्च शैक्षणिक संस्थानों में स्थापित करना शुरू कर दिया।
इसका प्रभाव यह हुआ कि सार्वजनिक शोध लाभदायक रहा। इसका कारण यह नहीं था कि यह स्वयं में अधिक महत्त्व वाला था बल्कि श्रेष्ठ शोधकर्ता शिक्षा प्रणाली में साथ-साथ प्रशिक्षित होते गए। ये शोधकर्ता स्थानीय कंपनियों में तेजी से बढ़ते आधुनिक आंतरिक आरऐंडडी विभागों का प्रमुख हिस्सा बन गए। यह सिलसिला बढ़ता गया और प्रतिस्पर्द्धी उद्योग के बाद आधुनिक तकनीक पर पकड़ मजबूत होने लगी। कंपनियों में आंतरिक स्तर पर आरऐंडडी में निवेश बढ़ने से सार्वजनिक शोध भी होने लगे। इन देशों के आर्थिक इतिहास के अध्ययन से मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंच पाया हूं।
1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद भारतीय उद्योग जगत पर प्रतिस्पर्द्धा करने का दबाव बढ़ा और देश नवाचार क्रम के पहले चरण में आ गया। इससे अगले चरण की शुरुआत वृहद अर्थ में नहीं हो पाई है। जैसा कि हमने पहले देखा था, भारतीय उद्योग आरऐंडडी पर जीडीपी का महज 0.3 प्रतिशत खर्च करने के साथ संतुष्ट रहा है जबकि वैश्विक औसत 1.5 प्रतिशत रहा है। हालांकि, कुछ क्षेत्र जरूर आगे बढ़े हैं।
वैश्विक औद्योगिक आरऐंडडी में जिन 10 प्रमुख तकनीक आधारित क्षेत्रों का दबदबा है उनमें भारत की कंपनियां औषधि एवं वाहन क्षेत्रों में कुछ हद तक मौजूद रही हैं। सर्वाधिक मुनाफा कमाने वाली हमारी कंपनियों में दवा क्षेत्र की भले ही उपस्थिति नहीं रही है मगर यह हमारे शीर्ष 50 आरऐंडडी निवेशकों की सूची में शामिल है। आरऐंडडी पर खर्च करने वाली 100 कंपनियों में 41 कंपनियों के साथ के साथ दवा क्षेत्र की भारतीय औद्योगिक आरऐंडडी पर खर्च में 34 प्रतिशत हिस्सेदारी है। इस क्षेत्र में बिक्री का 10 प्रतिशत के स्तर पर आरऐंडडी की गति विश्व के 16 प्रतिशत की तुलना में कम है मगर यह अनुपात अन्य दूसरे क्षेत्र की तुलना में शानदार है।
दवा क्षेत्र में एक विश्व स्तरीय नवाचार उद्योग लगाने की हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ अवसर है। हमें यह करने के लिए क्या करना होगा? उद्योग जगत को अनिवार्य रूप से क्या करना चाहिए? नवाचार को समर्थन देने के लिए वृहद नवाचार तंत्र-सार्वजनिक स्वास्थ्य, आरऐंडडी गहन और नियामकीय प्रणाली को क्या किया जाना चाहिए? इन बातों की चर्चा इस आलेख के दूसरे हिस्से में होगी।
Date:24-05-23
मणिपुर की आग
संपादकीय
मणिपुर में एक बार फिर हिंसा भड़क उठी। फिर से वहां सेना को तैनात करना पड़ा। पांच दिनों के लिए इंटरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ीं। करीब एक पखवाड़ा पहले जब हिंसा भड़की थी, तब अनेक घरों में आग लगा दी गई, कई लोग मारे गए थे। तब करीब दस हजार लोगों को हिंसाग्रस्त इलाकों से बाहर निकालना पड़ा था। उस वक्त सरकार ने उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने का आदेश दिया था। उसके बाद करीब दस दिनों तक कोई उपद्रव नहीं हुआ, मगर सोमवार को एक बार फिर से इंफल इलाके में हिंसा भड़क उठी। बताया जा रहा है कि वहां मैतेई समुदाय के लोगों से जबरन दुकानें बंद कराई जाने लगीं, जिसे लेकर हिंसा भड़की। इस बार गनीमत है कि किसी के हताहत होने की खबर नहीं है। मगर कुछ घरों को इस बार भी आग के हवाले कर दिया गया। ऐसे में सवाल है कि मणिपुर की यह आग कब तक शांत होगी। विवाद दरअसल वहां के उच्च न्यायालय के इस आदेश पर शुरू हुआ कि उसने राज्य सरकार को मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की दस साल पुरानी मांग पर विचार करने को कहा। इससे वहां के मान्यता प्राप्त जनजातीय समुदायों में ऐसी आशंका पैदा हुई कि सरकार मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा दे सकती है और वे उनके संरक्षित भूभाग पर कब्जा करना शुरू कर सकते हैं।
मणिपुर में मुख्य रूप से तीन समुदाय के लोग रहते हैं। उनमें से नगा और कुकी मान्यता प्राप्त जनजातीय समुदाय हैं और उनका वहां के लगभग नब्बे फीसद संरक्षित पहाड़ी भूभाग पर कब्जा है। मैतेई समुदाय आबादी के लिहाज से इन दोनों जनजातियों से करीब दोगुना है, पर भूभाग का केवल दस फीसद हिस्सा उनके लिए मुक्त है। इस तरह वे मुख्य रूप से इंफल इलाके तक सीमित हैं। मगर मैतेई समुदाय हर दृष्टि से प्रभावशाली है। राजनीति में इसी समुदाय के विधायक अधिक हैं, साठ में से चालीस। 09मणिपुर में फिर बिगड़े हालात… इंफाल में घरों को किया आग के हवाले, लगाया गया कर्फ्यू, 5 दिन के लिए इंटरनेट भी बंद फिर प्रशासन में भी उन्हीं का दबदबा है। वे बरसों से मांग करते रहे हैं कि उन्हें भी जनजातीय समुदाय का दर्जा मिलना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो मैतेई समुदाय को भी जनजातियों के संरक्षित भूभाग में प्रवेश का हक मिल सकता है। इसीलिए मान्यता प्राप्त जनजातियां आशंकित रहती हैं। इस तथ्य से वहां की सरकार अनजान नहीं है, मगर उसने कभी गंभीरता से इस मसले को निपटाने का प्रयास ही नहीं किया।
जबसे वहां नई सरकार आई है, तबसे जनजातीय लोगों में यह आशंका घर करती गई है कि वह मैतेई समुदाय को प्रश्रय दे रही है। उनकी यह आशंका तब आक्रोश में बदल गई, जब इस साल फरवरी में संरक्षित पहाड़ी इलाकों से अवैध लोगों को निकालने का अभियान शुरू किया गया। सरकार का कहना था कि बाहरी लोग वहां जाकर बस गए हैं, जबकि जनजातीय समुदायों का दावा है कि वे उन्हीं के बीच के लोग हैं। उसके बाद जब उच्च न्यायालय का आदेश आया, तो उनका आक्रोश फट पड़ा और वे आगजनी पर उतर आए। अब वहां की लड़ाई वर्चस्व की लड़ाई में बदलती जा रही है। ताजा हिंसा में जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है उनमें से एक पूर्व विधायक भी है, जिसका संबंध सत्तापक्ष से है। अगर वहां की सरकार इसी तरह समुदायों के बीच पैदा हुई वैमनस्यता को स्थायी रूप से समाप्त करने के बजाय तदर्थ भाव से सेना के बल पर रोकने का प्रयास करती रहेगी, तो यह आग शायद ही जल्दी शांत हो।
Date:24-05-23
निजता पर जोखिम
संपादकीय
आधुनिक तकनीकी के विस्तार के साथ-साथ सूचना और संवाद के क्षेत्र में सोशल मीडिया की भूमिका जगजाहिर है। आज हालत यह है कि दुनिया की ज्यादातर आबादी इसके दायरे में है और किसी न किसी रूप में लोग ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम, वाट्सऐप जैसे सोशल मीडिया के मंचों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया मंचों पर बेफिक्र होकर वक्त गुजारने वाले लोगों की निजता बुरी तरह प्रभावित हो रही है और इन मंचों के संचालक ऐसी लापरवाहियों के खिलाफ कार्रवाई के बावजूद खुद में सुधार को लेकर गंभीर नहीं हैं।
ताजा मामला सोशल मीडिया के मंच फेसबुक और वाट्सऐप का परिचालन करने वाली कंपनी मेटा से जुड़ा है, जिसमें उस पर निजता के नियमों के उल्लंघन का आरोप है। यूरोपीय संघ ने इस आरोप की पूरी पड़ताल के बाद मेटा को दोषी पाया और इस मामले में उस पर 1.3 अरब डालर का जुर्माना लगाया है। साथ ही यूरोपीय संघ ने उपयोगकर्ताओं से संबंधित किसी जानकारी को अमेरिका भेजे जाने पर भी रोक लगा दी। दरअसल, फेसबुक पर ऐसे आरोप लगाए गए थे कि वह उपयोगकर्ताओं की निजी जानकारी या डेटा आंग्ल-अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के साथ साझा करती है और इसी की मदद से बड़े पैमाने पर लोगों की निगरानी की जाती है
लगभग पांच साल पहले यूरोपीय संघ में निजता के उल्लंघन से संबंधित सख्त कानून लागू होने के बाद किसी सोशल मीडिया मंच पर लगाया गया यह सबसे बड़ा जुर्माना है। इसी साल की शुरुआत में यूरोपीय संघ के डेटा से जुड़े नियमों का उल्लंघन करने की वजह से आयरलैंड ने मेटा पर 5.5 मिलियन यूरो का जुर्माना लगाया था। इससे पहले भी मेटा को निजता के नियमों का अनुपालन नहीं करने पर भारी जुर्माना देना पड़ा है। लेकिन इस तरह की सख्त कार्रवाइयों के बावजूद आम लोगों की निजता को भंग करने वाली जानकारी को मनमाने तरीके से किसी और को बेचे या भेजे जाने की प्रवृत्ति पर रोक नहीं लग पा रही है। समय-समय पर हो रही इस तरह की कार्रवाइयों से यह साफ है कि सोशल मीडिया पर अलग-अलग मंचों का परिचालन करने वाली कंपनियां अपने उपयोगकर्ताओं की निजता की न केवल सुरक्षा नहीं कर पा रही हैं, बल्कि अपनी मनमर्जी से और लोगों को जानकारी दिए बिना उनसे संबंधित संवेदनशील सूचनाएं किसी तीसरे पक्ष को बेच देती हैं या किसी परोक्ष समझौते तहत भेजती हैं। इस तरह का तालमेल सिर्फ कारोबारी मुनाफा कमाना भी हो सकता है और इसके पीछे व्यापक पैमाने पर लोगों की निजता पर निगरानी करने की मंशा भी संभव है।
यह सब जानते हैं कि लोगों के आम व्यवहार में इंटरनेट के शामिल होने का दायरा जैसे-जैसे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे साइबर दुनिया में कई तरह के खतरे भी बढ़ रहे हैं। लेकिन आधुनिकी तकनीकी के विकास के इस चरम दौर में भी निजता और अन्य इंटरनेट उपयोग को लेकर जोखिम भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं। कायदे से सोशल मीडिया के मंचों का संचालन करने वाले समूहों से लेकर इस तरह के अन्य संस्थानों की जिम्मेदारी थी कि वे आम लोगों की संवेदनशील जानकारियों की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करें। मगर इसके बजाय वे खुद ही निजता के उल्लंघन में संकोच नहीं कर रही हैं और ऐसे करने को सही भी ठहराती हैं। सवाल है कि क्या मेटा या सोशल मीडिया के अन्य मंचों का संचालन करने वाली कंपनियां उपयोगकर्ताओं से संबंधित निजी जानकारियों को किसी तीसरे पक्ष को बेचना या भेजना ही अपने मुनाफे का जरिया मानती हैं या फिर क्या वे आम लोगों की निजता पर निगरानी के किसी व्यापक तंत्र का हिस्सा हैं?
मणिपुर की चिंता
संपादकीय
मणिपुर की राजधानी इंफाल में सोमवार को भड़की हिंसा और आगजनी के बाद कफ्र्यू लगाने, इंटरनेट सेवाएं रद्द करने और सेना बुलाने की राज्य सरकार की विवशता समझी जा सकती है। निस्संदेह, यह दुखद स्थिति है, पर उपद्रवियों को काबू में करने का यह आखिरी रास्ता है, जिस पर कोई भी सरकार मजबूरी में ही कदम बढ़ाती है। पिछले कई हफ्तों से पूर्वोत्तर का यह सूबा अशांत है और वहां बड़ी संख्या में मैतेई व कुकी समुदाय के लोगों को हिंसा की वजह से अपने ही प्रदेश में दरबदर होना पड़ा है। अनगिनत घरों, उपासना स्थलों के राख होने और करीब 70 लोगों की मृत्यु के ब्योरे हालात की गंभीरता बताने के लिए काफी हैं। विडंबना यह है कि इस सूरते-हाल में जिन लोगों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सामाजिक वैमनस्य व सामुदायिक खटास को मिटाने की कोशिश करेंगे, वही आग में घी डालने की कार्रवाई कर रहे हैं।
सोमवार को भड़की हिंसा के लिए एक पूर्व विधायक और उनके कुछ समर्थकों की गिरफ्तारी इसकी तस्दीक करती है। आरोप है कि पूर्व विधायक और उनके समर्थकों ने हथियार के जोर पर समुदाय विशेष के लोगों को अपनी दुकानें बंद करने को बाध्य किया, जिसके कारण इंफाल में हिंसा नए सिरे से भड़क उठी। यही नहीं, राज्य के कई सत्तारूढ़ विधायकों के सियासी सुर भी उकसाने वाले सुनाई पड़े हैं, जबकि उन्हें इस वक्त ऐसे किसी भी बयान या कदम से खास परहेज बरतना चाहिए, जो राज्य और केंद्र सरकार की शांति-स्थापना की कोशिशों को पलीता लगाते हों। इस वक्त शांति मणिपुर की पहली आवश्यकता है। इसके दो बड़े जातीय समुदायों के दिलों में एक-दूजे के लिए जो कटुता पैदा हुई है, उसे पाटने की हरमुमकिन कोशिश की जानी चाहिए। यह अफसोसनाक है कि जब केंद्र सरकार की राजनीतिक-आर्थिक सक्रियता से पूर्वोत्तर में स्थायी शांति की उम्मीदें जगने लगी थीं और लगने लगा था कि देश की मुख्यधारा से उसका जुड़ाव बढ़ रहा है, तब हिंसा के इस सिलसिले ने नई आशंकाओं और शक-शुब्हे को जन्म दे दिया है।
मणिपुर की स्थिति पर इसलिए भी विशेष ध्यान देने की जरूरत है कि पूर्वोत्तर के राज्यों का समूचा ताना-बाना एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है और इन राज्यों में कई जातीय समूहों के बीच हितों के टकराव का एक लंबा इतिहास है। ऐसे में, यदि मणिपुर के हालात लंबे वक्त तक तनावपूर्ण बने रहे, तो इसकी आंच अन्य सूबों में पहुंच सकती है। इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों को विश्वास बहाली के लिए स्थानीय नेताओं को भरोसे में लेना चाहिए। हमने उपद्रवग्रस्त पंजाब, जम्मू-कश्मीर में यह देखा है कि ऊपर से थोपी गई रणनीति के बजाय स्थानीय कोशिशें ज्यादा प्रभावी साबित हुई थीं। पूर्वोत्तर में केंद्र सरकार ने पिछले नौ वर्षों में जितनी योजनाएं शुरू की हैं, उन्हें पूरा करने के लिए वहां शांति की दरकार है। फिर पूर्वोत्तर की सरकारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि वे जिस ‘सशस्त्र बल विशेष शक्तियां कानून’ को हटाने के मनसूबे बांध रही हैं, यह तभी मुमकिन होगा, जब वहां स्थायी शांति की कोई सूरत नजर आएगी। वैसे भी सरहदी इलाका होने के कारण देश की सुरक्षा के लिहाज से इनमें से कई प्रांत संवेदनशील हैं। इसलिए मणिपुर में जल्द शांति बहाल हो और लोगों की जिंदगी पटरी पर लौटे, इसके लिए बीरेन सिंह सरकार को उपद्रवियों के खिलाफ सख्ती के साथ-साथ पीड़ितों के जख्म पर मरहम रखना होगा।
Date:24-05-23
फिर दिल्ली अध्यादेश और अदालत
वृंदा भंडारी
बीते शुक्रवार की देर शाम राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (संशोधन) अध्यादेश, 2023 जारी किया, जिसने सेवाओं पर दिल्ली सरकार की शक्तियां छीन लीं। उसके बजाय केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त उप-राज्यपाल (एलजी) को दिल्ली सरकार के नौकरशाहों के स्थानांतरण व पोस्टिंग से जुड़े मसलों पर अंतिम फैसला लेने का अधिकार दे दिया गया। नए अध्यादेश में नौकरशाहों के ट्रांसफर-पोस्टिंग से संबंधित मुद्दों पर फैसले लेने के लिए एक वैधानिक निकाय राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण का गठन किया गया है, जिसमें तीन सदस्य होंगे- दिल्ली के मुख्यमंत्री, यहां के मुख्य सचिव और प्रधान गृह सचिव। इसका अर्थ यह है कि निर्वाचित मुख्यमंत्री के फैसले को दो वरिष्ठ नौकरशाह, जो निश्चय ही जनता के चुने हुए प्रतिनिधि नहीं होंगे, वीटो या खारिज कर सकते हैं।
यह अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा 11 मई को सर्वसम्मति से पारित फैसले के मद्देनजर लाया गया है। इस फैसले में शीर्ष अदालत ने उप-राज्यपाल के बजाय लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई स्थानीय सरकार को दिल्ली की सेवाओं पर नियंत्रण का अधिकार दिया था। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने माना था कि भूमि, पुलिस और पब्लिक ऑर्डर को छोड़कर जनता द्वारा निर्वाचित दिल्ली सरकार के पास ही नौकरशाहों के स्थानांतरण और पोस्टिंग के मुद्दे पर अंतिम विधायी और समान विस्तार वाली कार्यकारी शक्ति होनी चाहिए। अदालत के फैसले के पीछे तर्क यह था कि चूंकि सिविल सेवक सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में निर्णायक भूमिका निभाते हैं इसलिए निर्वाचित सरकार इतनी सक्षम होनी चाहिए कि वह अपनी सेवाओं में तैनात नौकरशाहों को नियंत्रित कर सके और उनकी जिम्मेदारी तय कर सके।
जाहिर है, ताजा अध्यादेश से प्रक्रियात्मक, औचित्य और बुनियादी मुद्दों से जुड़े तमाम तरह के सवाल पैदा हो गए हैं। सामान्यत: अध्यादेशों को संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत तब जारी किया जाता है, जब संसद के दोनों सदनों का सत्र न चल रहा हो, और जब राष्ट्रपति को लगता है कि ऐसी परिस्थितियां पैदा हो गई हैं, जिसके लिए तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है। इस प्रकार, अनुच्छेद 123 बनाने के पीछे अति-आवश्यकता की भावना रही है।
सुप्रीम कोर्ट ने साल 2017 में कृष्ण कुमार सिंह बनाम बिहार सरकार के मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया था, जिसका उल्लेख यहां उचित होगा। उस फैसले में कहा गया था कि अध्यादेश जारी करने की शक्ति राष्ट्रपति को इसलिए दी गई है, ताकि जब अप्रत्याशित हालात बन जाएं और उनसे निपटने के लिए विधायी उपायों की दरकार हो तब कोई सांविधानिक शून्य की स्थिति न बनने पाए। सात न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि अध्यादेश जारी करना एक असाधारण शक्ति है, जिसका मकसद सांविधानिक जरूरतों को पूरा करना है।
आखिर वह असाधारण परिस्थिति थी क्या, जिसके लिए अभी कार्यपालिका को तत्काल हस्तक्षेप की जरूरत महसूस हुई। हमारी नजर स्वाभाविक तौर पर आठ दिन पहले दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तरफ जाती है। ताजा अध्यादेश का मुख्य उद्देश्य अदालती फैसले के प्रभाव को कम करना जान पड़ता है। केंद्र सरकार ने दावा किया था कि सुप्रीम कोर्ट में आने से पहले सेवाओं को नियंत्रित करने और दिल्ली में नौकरशाहों के स्थानांतरण की शक्ति में उसे सर्वोच्चता हासिल थी। जाहिर है, सर्वसम्मत फैसले में हारने के तुरंत बाद उसने यह अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कमतर करने का प्रयास किया है। अध्यादेश में कहा गया है कि यह इसलिए जारी किया गया है, क्योंकि यह व्यापक राष्ट्रीय हित में है कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई केंद्र सरकार के जरिये पूरे देश के लोगों की कुछ भूमिका राष्ट्रीय राजधानी के प्रशासन में हो और अपनी राजधानी पर शासन करने की राष्ट्र की इस लोकतांत्रिका इच्छा को प्रभावी बनाने के लिए यह कदम उठाया जाता है। इस तरह से केंद्र ने (उप-राज्यपाल के माध्यम से) सेवाओं पर दिल्ली सरकार का अधिकार अपने हाथों में ले लिया।
यह जगजाहिर तथ्य है कि नौकरशाहों के स्थानांतरण और पोस्टिंग का अधिकार सीधे तौर पर शासन की दक्षता व प्रभावशीलता से जुड़ा होता है, क्योंकि ये (गैर-निर्वाचित) नौकरशाह ही होते हैं, जो नीतियों को जमीन पर लागू करने की व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसीलिए, अध्यादेश की भाषा ऐसी जान पड़ती है कि केंद्र सब कुछ अपने हाथों में रखने के प्रयास कर रहा है, और लोकतांत्रिक जवाबदेही, प्रतिनिधि सरकार व सहकारी संघवाद के सिद्धांतों को कमतर करना चाहता है।
इस अध्यादेश को जारी करने का समय भी काफी खास है। सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई को अपना फैसला सुनाया था और 19 मई की देर शाम अध्यादेश जारी कर दिया गया, जबकि उसी दिन शीर्ष अदालत छुट्टियों के लिए बंद हो रही थी। इसके साथ ही कुछ अन्य मसले भी इसके साथ नत्थी हैं। मसलन, अदालती फैसले के आधार को हटाकर, जो कि विधायी अधिनियम द्वारा किया जा सकता है, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बेअसर करने की कसौटी पर क्या यह अध्यादेश खरा उतरता है, या सीधे-सीधे यह अदालत का विरोध है, जो अस्वीकार्य माना जाता है? अदालत को इस बात पर भी विचार करना होगा कि क्या यह अध्यादेश दिल्ली के शासकीय ढांचे से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 239 (अ)(अ) में संशोधन किए बिना उसके फैसले को निष्प्रभावी बनाता है? सुप्रीम कोर्ट को संघवाद पर इस अध्यादेश के प्रभाव के बारे में भी गौर करना होगा, जो संविधान का एक बुनियादी हिस्सा है।
निस्संदेह, इस बात की पूरी संभावना है कि इस अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट के सामने चुनौती दी जाएगी। जब भी ऐसा किया जाएगा, यह लाजिमी है कि शीर्ष अदालत मामले की सुनवाई तत्काल आधार पर करे और शीघ्रता से इस मसले का निपटारा करे। देरी के कारण होने वाली न्यायिक सुस्ती कहीं इतनी लंबी न खिंच जाए कि यथास्थिति ही बनी रह जाए।