24-05-2019 (Important News Clippings)

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24 May 2019
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Date:24-05-19

मोदी की जीत

संपादकीय

तीन दशक पहले कांग्रेस केंद्रित राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव आया और हिंदू लामबंदी की शुरुआत हुई। उसके बाद की चौथाई सदी में नए जाति आधारित क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ। फिर गठबंधन सरकारों का दौर आया। अब वह बदलाव पूरा हो चुका है और भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर तथा पश्चिमी भारत पर कब्जे के बाद पूर्व और दक्षिण में पहुंच बनानी शुरू कर दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की टीम को इस व्यापक जीत के लिए बधाई दी जानी चाहिए। प्रचार अभियान के दौरान शायद ही किसी ने यह सोचा होगा कि भाजपा का मत प्रतिशत और सीट दोनों बढ़ेंगे। कई लोगों का मानना था कि 2014 की जीत बंटे हुए विपक्ष की वजह से हुई थी और केवल 31 फीसदी वोट के साथ पार्टी को बहुमत मिल गया था। हालिया विधानसभा चुनावों और उपचुनावों में हार तथा विपक्षी दलों के गठबंधन के बाद माना जा रहा था कि 2019 में भाजपा का प्रदर्शन खराब होगा। परंतु परिणाम पहले से बेहतर आए। सरकार ने आर्थिक मोर्चे और भ्रष्टाचार पर विपक्ष के हमलों को विफल कर दिया।

इसमें मोदी की भूमिका अहम रही। कुछ महीने पहले जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन कमजोर था, वहां उसकी जीत इसकी बानगी है। ओडिशा में जहां विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ हुए वहां भी ऐसा देखने को मिला। विधानसभा में मतदाता विकल्प पर विचार करते हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनका भरोसा भाजपा पर है। इंदिरा गांधी ने देश की विचार प्रक्रिया में अनुत्पादक समाजवाद की पैठ की। मोदी क्या करेंगे? आर्थिक मोर्चे पर उन्होंने अब तक कुछ बड़ा नहीं किया है। सामाजिक और राजनीतिक धरातल पर उन्होंने देश का डीएनए ही बदल दिया है। वह दूसरे कार्यकाल में प्रवेश कर रहे हैं। तत्काल कोई सांस्थानिक उपाय नहीं हो सकता लेकिन रामजन्मभूमि विवाद और कश्मीर घाटी का निस्तारण लंबित है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस जहां की तहां है। यह भ्रम भी दूर हो गया है कि प्रियंका गांधी के आगमन से कुछ सुधार हो सकता है। अमेठी इसका उदाहरण है। कांग्रेस खुद को इस हालत से कैसे उबारेगी यह देखने वाली बात होगी। पार्टी बिना गांधी परिवार के बच नहीं सकती और उसके साथ वह विकसित नहीं हो सकती।

छोटे दलों की स्थिति तो और भी खराब है। एक समय दबदबा रखने वाले राष्ट्रीय जनता दल और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जैसे दलों की हालत खस्ता हो गई। तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल तथा तेलंगाना राष्ट्र समिति के समक्ष भी भाजपा के चलते विकल्प सीमित हो रहे हैं। सन 1990 के दशक में उभरे ये दल जल्द ही अतीत बन सकते हैं। देश में एकदलीय लोकतंत्र का उभार हो रहा है। शेयर बाजार की प्रतिक्रिया भी उत्साह से भरी हुई है। स्थायी सरकार निवेशकों के लिए राहत भरी है लेकिन मुनाफावसूली भी देखने को मिली। आगे कठिन चुनौतियां भी हैं। जनवरी-मार्च के सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़े अगले सप्ताह आएंगे। बजट आने के बाद यह पता चल सकेगा कि सरकार के पास खपत बढ़ाने की क्या गुंजाइश है। बुनियादी निवेश के लिए भी सरकार के पास धन नहीं है और निजी निवेश रुका हुआ है।

नीतिगत बदलाव की बात करें तो सवाल यह है कि मोदी ने पहले कार्यकाल से क्या सीखा और क्या वह आगे सुधार अपनाएंगे? निर्यात में ठहराव और विनिर्माण में नाकामी को हल करना होगा। कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देना होगा। श्रम सुधारों को अंजाम देना होगा। ऋण की उपलब्धता और लागत छोटे उपक्रमों के लिए समस्या है। मंत्रिमंडल गठन पर भी नजर रखनी होगी। अरुण जेटली स्वास्थ्य कारणों से पीछे हटे तो वित्त मंत्री का पद अहम निर्णय होगा। अमित शाह कैबिनेट में शामिल हो सकते हैं। तीन अनुभवी पूर्व मुख्यमंत्रियों को भी राज्यसभा में लाकर उनकी प्रतिभा का इस्तेमाल किया जा सकता है।


Date:24-05-19

नई सरकार के सामने आर्थिक चुनौतियां

पहली चुनौती अर्थव्यवस्था को तेजी देने की होगी, जिसकी चाल पिछले कुछ वक्त से सुस्त सी पड़ गई है।

धर्मकीर्ति जोशी , (लेखक क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री हैं)

देश की अर्थव्यवस्था इस समय कुछ चुनौतियों से जूझ रही है। इन चुनौतियों से निपटना नई सरकार के लिए नितांत अनिवार्य होगा। जनादेश हासिल करने के बाद सरकार के सामने उन वादों को पूरा करने की भी जिम्मेदारी होती है जिनके दम पर वह सत्ता में आती है। ये वादे संसाधनों के बिना पूरे नहीं हो सकते। ऐसे में सरकार के सामने यह दोहरी चुनौती खड़ी हो जाती है कि वह अर्थव्यवस्था की स्थिति में सुधार करने के साथ ही जनता की अपेक्षाओं-आकांक्षाओं पर भी खरी उतरे। वास्तव में यह कोई विरोधाभास नहीं। अगर अर्थव्यवस्था की तस्वीर बेहतर होगी तो सरकार की झोली भी भरी होगी। स्वाभाविक है कि इससे सरकार के पास खर्च करने की गुंजाइश भी बढ़ती है। नई सरकार के सामने सबसे पहली चुनौती अर्थव्यवस्था को तेजी देने की होगी, जिसकी चाल पिछले कुछ वक्त से सुस्त सी पड़ गई है। हालांकि इसके लिए घरेलू कारकों के साथ ही अंतरराष्ट्रीय पहलू भी उतने ही जिम्मेदार हैं।

पिछले वित्त वर्ष की दूसरी छमाही में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की वृद्धि दर 6.5 प्रतिशत पर अटक गई। यह दर पिछले पंद्रह वर्षों के दौरान औसतन सात फीसदी वृद्धि से कम थी, जो निश्चित ही चिंता का विषय है। इसके बावजूद भारत दुनिया में सबसे तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बना हुआ है, लेकिन यह भारत की संभावनाओं के मुकाबले अपेक्षाकृत कमतर है। वैश्विक अनिश्चितताओं से जहां निर्यात में आई गिरावट ने आर्थिक गतिविधियों की रफ्तार कुछ कुंद की है, वहीं घरेलू स्तर पर उपभोग घटने से भी आर्थिक चाल निस्तेज पड़ी है। वाहनों से लेकर अन्य कई वस्तुओं के उपभोग में आई कमी से इसकी पुष्टि भी होती है। ऐसे हालात में निजी क्षेत्र का निवेश भी अटका हुआ है। ऐसे में सरकार को आगे आकर मोर्चा संभालना होगा। इसके लिए सरकार को अपने खजाने का मुंह खोलना होगा। साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि सरकारी खर्च बढ़ाने से वित्तीय अनुशासन की स्थिति न बिगड़ जाए। इसके लिए सरकार को अधिक संसाधन भी जुटाने होंगे। इस दिशा में विनिवेश की राह पकड़ी जा सकती है तो बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की परिसंपत्तियों को भी भुनाया जा सकता है। इसके साथ ही कुछ और कदम भी उठाने होंगे। यदि संसाधन जुटाए बिना ही खर्च बढ़ा दिया गया तो राजकोषीय घाटे का दायरा बढ़ जाएगा। इससे अर्थव्यवस्था की सेहत को लेकर अच्छे संकेत नहीं जाएंगे। इससे देश में होने वाले निवेश से लेकर रुपए की चाल पर भी नकारात्मक असर पड़ सकता है।

किसी भी नई सरकार के लिए सुधारों का काम कुछ आसान होता है, क्योंकि चुनाव के तुरंत बाद राजनीतिक जोखिम कम होने से उसके पास साहसिक फैसले लेने की गुंजाइश होती है। मोदी सरकार ने कई अहम सुधार किए हैं, लेकिन वे अभी भी संक्रमण काल में हैं। जैसे वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी, जिसमें समय के साथ काफी संशोधन किए गए हैं, लेकिन अभी भी पेट्रोलियम उत्पादों को इसके दायरे में लाना और दरों के मोर्चे पर भी कुछ काम किया जाना शेष है। इसी तरह दिवालिया संहिता भी एक अहम सुधार है, लेकिन इसमें भी अभी तक वित्तीय क्षेत्र को शामिल नहीं किया गया है। अभी भी भूमि सुधारों व श्रम सुधारों को मूर्त रूप दिया जाना बाकी है। चूंकि इनमें राज्य सरकारें भी अहम अंशभागी हैं तो नई केंद्र सरकार को चाहिए होगा कि वह इस कवायद में प्रोत्साहक की भूमिका निभाए। कुल मिलाकर नई सरकार के लिए यह जरूरी होगा कि वह नए सुधारों को लागू करने के साथ पहले किए जा चुके सुधारों की निरंतरता को कायम रखे।

चुनावों में किसानों का मुद्दा प्रमुखता से छाया रहा। चूंकि एक वर्ग के रूप में किसान एक बड़ा वोट बैंक है तो सरकार के सामने यह न केवल राजनीतिक रूप से, बल्कि अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी बड़ी चुनौती है। कृषि क्षेत्र लंबे समय से सुधारों की बाट जोह रहा है। इसकी कायापलट देश की एक बड़ी आबादी का जीवन बेहतर बनाने में सक्षम है। इसके लिए सरकार निजी क्षेत्र को कृषि के साथ जोड़े। चूंकि काफी मात्रा में खाद्य उत्पाद बाजार तक पहुंचने से पहले ही खराब हो जाते हैं, इसलिए खाद्य प्रसंस्करण का दायरा बढ़ाकर उसमें उनका इस्तेमाल किया जाए। केंद्र सरकार राज्य सरकारों के साथ मिलकर कृषि सुधारों को अमली जामा पहनाए। उत्पादकता बढ़ाने के लिए भी सभी स्तरों पर प्रयास किए जाने चाहिए। वैसे तो भारत और चीन के पास कृषि योग्य भूमि बराबर है, फिर भी चीन का उत्पादन भारत से दोगुना अधिक है। ऐसे में अगर उत्पादन बढ़ता है तो उद्योगों के लिए भी अतिरिक्त जमीन आसानी से उपलब्ध हो सकेगी। इससे खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होने के साथ ही अर्थव्यवस्था की रफ्तार भी बढ़ेगी।

रोजगार भी नई सरकार के लिए निश्चित रूप से एक चुनौती होगी। चुनावों में इस पर भी खूब सियासी गोलबंदी होती रही। मंदी की वजह से फिलहाल रोजगार के मोर्चे पर तस्वीर अच्छी नहीं है। ऐसे में नई सरकार को तात्कालिक और दीर्घकालिक, दोनों तरह के उपाय आजमाने होंगे। तात्कालिक उपायों में मनरेगा जैसी योजनाएं अहम होंगी तो दीर्घावधिक योजनाओं के लिए कौशल विकास को बढ़ावा देना आवश्यक होगा। इसके लिए विनिर्माण में कपड़ा, वाहन, चमड़ा और सेवा में स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यटन जैसे श्रम आधारित उद्योगों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। इस हकीकत से भी इनकार नहीं कर सकते कि बदलते वक्त के साथ ऑटोमेशन को अपनाया जा रहा है। इससे परंपरागत नौकरियां खतरे में पड़ेंगी, लेकिन इससे नई तकनीकी नौकरियों की राह भी खुलेगी।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका-चीन के बीच गहराते ट्रेड वॉर सहित तमाम घटनाक्रम अनिश्चितता बढ़ाने वाले हैं। इसका असर निर्यात और विदेशी निवेश, दोनों पर पड़ सकता है। ऐसे में नई सरकार के सामने घरेलू स्थायित्व बरकरार रखना एक बड़ी चुनौती होगी, क्योंकि इसमें दरार राजकोषीय घाटे पर दबाव से लेकर रुपए की सेहत बिगाड़ सकती है। हालांकि यह वैश्विक संकट भारत के लिए कुछ अवसर भी बना सकता है, क्योंकि अमेरिका-चीन दोनों को नए व्यापार साझेदार तलाशने होंगे। ऐसी स्थिति में ट्रेड डायवर्जन होता है। नई सरकार को इस अवसर को भुनाने की कोशिश करनी होगी। इसका निर्यात और निवेश दोनों पर अनुकूल असर होगा।

महंगाई को लेकर नई सरकार को कोई खास चिंता करने की जरूरत नहीं, लेकिन यदि मानसून खराब रहा और कच्चे तेल के दाम चढ़ते गए, तब जरूर इस बारे में कुछ सोचना पड़ सकता है। फिलहाल तो नई सरकार के आर्थिक एजेंडे में यही प्राथमिकता होनी चाहिए कि वह वित्तीय अनुशासन कायम रखते हुए खर्च बढ़ाए ताकि मांग में सुधार हो सके और सुधारों की प्रक्रिया को निरंतर बनाए रखे। कृषि और रोजगार पर विशेष ध्यान दे और घरेलू स्थिरता की ऐसी क्षमता विकसित करे, जिस पर वैश्विक अस्थिरता कम से कम असर करे।


Date:23-05-19

हिंसा का रास्ता

संपादकीय

अरुणाचल प्रदेश के तिरप में निवर्तमान विधायक के परिजनों और सुरक्षाकर्मियों समेत ग्यारह लोगों की हत्या वहां सुरक्षा-व्यवस्था संबंधी नई चुनौतियों को रेखांकित करती है। इस हत्या में नगा अलगाववादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आॅफ नगालैंड यानी एनएससीएन का हाथ माना जा रहा है। इस हमले में मारे गए विधायक तिरोंग अबो के मौजूदा चुनाव में भी विजयी होने की संभावना जताई जा रही थी। अबो नेशनल पीपुल्स पार्टी यानी एनपीपी के नेता थे। इसलिए इस हत्याकांड में राजनीतिक वैमनस्य का कोण भी देखा जा रहा है। हालांकि इससे पहले भी दो बार एनएससीएन के लोग अबो पर हमला कर चुके थे, इसलिए उन्हें विशेष सुरक्षा दी गई थी। बीते मार्च में अबो के दो समर्थकों की भी हत्या कर दी गई थी। इसलिए इस घटना में एनएससीएन का हाथ होने पर संदेह अधिक जा रहा है। इससे पहले भी एनएससीएन का एनपीपी और भाजपा नेताओं की हत्या में हाथ रहा है। इस तरह भारत सरकार के साथ समझौते के बाद जिस वृहत्तर नगालैंड की मांग के शांत पड़ जाने का भरोसा किया जा रहा था, वह सही नहीं माना जा सकता।

एनएससीएन वृहत्तर नगालैंड या नगालिम की मांग करता रहा है। यह संगठन सन अस्सी में शिलांग समझौते के विरोध में बना था। पर बाद में भारत सरकार के साथ शांति वार्ता को लेकर इसका विभाजन हो गया था- इसाक-मुइवा गुट और खापलांग गुट में। इसाक-मुइवा गुट ने भारत सरकार की तरफ से ज्यादातर मांगें मान लिए जाने के बाद अपनी चरमपंथी गतिविधियों पर विराम लगाने पर सहमति जता दी थी। उसने अपने प्रशिक्षण शिविर बंद भी कर दिए थे, पर खापलांग गुट निरंतर सक्रिय रहा। एनएससीएन की गतिविधियां नगालैंड में तो हैं ही, अरुणाचल में भी उसका सशक्त प्रभाव दिखाई देता है। इस संगठन की एक तरह से समांतर सरकार चलती है। एनएससीएन के नेता विदेशों में रह कर अलगाववादी गतिविधियों का संचालन करते हैं। उनके पास अत्याधुनिक हथियार और संचार सुविधाएं हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अबो के काफिले की हमलावरों को पुख्ता जानकारी थी और उन्होंने अबो के सुरक्षाकर्मियों की परवाह किए बगैर एक तरह से घेर कर हमला किया और काफिले में शामिल सभी लोगों को मौत के घाट उतार दिया। वहां का सरकारी सुरक्षा तंत्र उनके सामने इस कदर कमजोर है कि उसे उनकी साजिशों की भनक तक नहीं मिल पाती।

नगालैंड में अक्सर जातीय हिंसा भड़क उठती है। इसकी वजह यह है कि वहां की कुछ जातियों को लगता रहा है कि सरकार ने जान-बूझ कर उन्हें उपेक्षित कर रखा है। इसलिए वहां वृहत्तर नगालैंड की मांग उठती रही है, जिसमें अरुणाचल प्रदेश के भी कुछ नगाबहुल इलाकों को शाामिल करने की मांग प्रमुखता से उठाई जाती है। मगर सरकार इसे मानने को तैयार नहीं होती, इसलिए कि अरुणाचल के लोग इस शर्त को मानने को तैयार नहीं। ऐसे में एनएससीएन वहां के स्थानीय लोगों को सरकार के खिलाफ लामबंद करता रहा है। पूरे सरकारी तंत्र के खिलाफ इसी वजह से वहां के लोगों में आक्रोश रहता आया है। लंबे समय से केंद्र सरकार उनके असंतोष को कम करने का प्रयास करती भी नहीं देखी गई। वहां रोजगार के नए अवसर, शिक्षा, चिकित्सा आदि की सुविधाएं उपलब्ध कराने के कारगर प्रयास हुए होते, तो यह असंतोष शायद काफी कम हो गया होता। लिहाजा, दोनों सरकारों को इस समस्या पर काबू पाने की दिशा में सोचने की जरूरत है।


Date:23-05-19

बादलों के पार

संपादकीय

रिसैट-2बी सैटेलाइट के सफल प्रक्षेपण के साथ अंतरिक्ष में भारत की क्षमता का विस्तार सुखद प्रगति है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने श्रीहरिकोटा केंद्र से 615 किलोग्राम वजनी जिस सैटेलाइट का प्रक्षेपण किया है, वह भारत के आर्थिक और सामरिक विकास में बहुत मदद करने वाला है। इस अनिवार्य और दुर्लभ उपलब्धि के लिए इसरो के वैज्ञानिकों की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। यह अंतरिक्ष से धरती की इमेज या छवि-चित्र भेजने वाला सैटेलाइट है। इस विशेष सैटेलाइट का प्रक्षेपण भारत के लिए बहुत जरूरी हो गया था। वैसे दो इमेज सैटेलाइट भारत पहले अंतरिक्ष में भेज चुका है, लेकिन उनमें से रिसैट-1 वर्ष 2017 में ही काम करना बंद कर चुका है, जबकि रिसैट-2 प्रतिकूल मौसम या बादल होने पर इमेज भेजने में नाकाम रहता है। विशेषज्ञ बता रहे हैं, पाकिस्तान के बालाकोट में भारत की सर्जिकल स्ट्राइक के पुख्ता प्रमाण भारत सरकार पेश नहीं कर पाई, क्योंकि बालाकोट की सैटेलाइट इमेज बादल छाए होने के कारण नहीं ली जा सकी थी। अब रिसैट-2बी भारत की इस कमी को दूर कर देगा। यह सैटेलाइट रात में भी इमेज लेने में सक्षम है। साथ ही, बादल होने या प्रतिकूल मौसम होने पर भी यह बहुत साफ इमेज भेज सकता है। यह अंतरिक्ष में स्थापित भारत की विशेष आंख के रूप में काम करेगा। भारत जिस तरह से अराजक और शत्रु तत्वों से घिरा हुआ है, जरूरी है कि अंतरिक्ष से उनकी गतिविधियों पर नजर रखी जाए। भारत के विरुद्ध किसी तरह का सैन्य जमावड़ा होने की स्थिति में या भविष्य में कभी आतंकी शिविरों पर हमला करने में भारतीय सुरक्षा और रक्षा बलों को काफी सुविधा होगी। आतंकी शिविरों में मौजूद तत्वों के बीच यह भय होना ही चाहिए कि वे दिन-रात हर मौसम भारत की निगाह में हैं।

रिसैट-2 में कुछ इजरायली यंत्र लगे थे, लेकिन रिसैट-2बी पूरी तरह से भारत की अपनी कामयाबी है। यह अपने आप में प्रशंसनीय है कि भारत 615 किलोग्राम के सैटेलाइट को प्रक्षेपित कर पृथ्वी से करीब 557 किलोमीटर ऊपर कक्षा में स्थापित करने की क्षमता वाला देश बन गया है। चीन के पास यह क्षमता है ही, पाकिस्तान भी लगभग इसी तरह का एक्स-बैंड रडार वाला सैटेलाइट चीन की मदद से पिछले वर्ष जुलाई में प्रक्षेपित करवा चुका है। ऐसे में, वे भारतीय वैज्ञानिक बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने मात्र 15 महीने में पूरी तरह से भारतीय सैटेलाइट तैयार किया है, जो पांच वर्ष तक सक्रिय रहेगा। यह बात भी गौर करने की है कि इस सैटेलाइट द्वारा भेजी गई इमेज का इस्तेमाल मौसम व अन्य भू-अध्ययनों में हो सकेगा।

भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान की इस उपलब्धि के बाद अब पूरी दुनिया की निगाह चंद्रयान-2 पर है। रिसैट-2बी की सफलता के बाद यह घोषणा भी हो गई है कि 9 से 16 जुलाई के बीच चंद्रयान-2 का प्रक्षेपण होगा और वह 6 सितंबर को चांद पर उतरेगा। भारतीय यान चांद पर वहां उतरेगा, जहां अभी तक न कोई इंसान उतरा है और न कोई यंत्र। ये उपलब्धियां देश के यथोचित विकास की ओर बढ़ने की सूचक हैं और इनसे देश में विज्ञान और सकारात्मक पढ़ाई-लिखाई के प्रति लगाव बढ़ता है। भारत आकाश और धरती पर नित नए अनछुए मुकाम को छूते हुए आगे बढ़ता चले, निस्संदेह, लोग यही चाहते हैं।


Date:23-05-19

Arunachal Omen

The murder of a legislator ahead of assembly poll results raises the spectre of renewed militancy in the region.

Editorial

The murder of 11 persons, including a National People’s Party MLA in the outgoing Arunachal Pradesh legislative assembly, his son and security guard, by suspected Naga militants on Tuesday is a challenge to the government’s efforts to end militancy in the Northeast. Tirong Aboh was on his way to Khonsa, the headquarters of Tirap district, when he was ambushed by militants suspected to be from the NSCN (I-M). Aboh, reportedly, had been speaking out against the NSCN (I-M), the Naga insurgent group engaged in peace talks with the Centre, for threatening his supporters during the recent election campaign. Whatever be the motive, and whoever be the culprit, the government should send out a strong message that it will not let anyone take the law in their hands.

The incident comes a month after the Armed Forces Special Powers Act (AFSPA) was partially lifted from Arunachal Pradesh, 32 years after the law was first introduced in the state. However, it continues to be in force in Tirap, which borders Assam and Myanmar. Militant groups, among them various NSCN factions and the ULFA, have a presence in Tirap district because of its terrain and proximity to the international border. These have come under pressure after the Myanmar military began to target their camps, forcing them to relocate to India and even surrender to the armed forces. Naga civil society groups in India have raised the concern that the military action in Myanmar is no longer limited to militant groups but extended to the indigenous Naga population as well. The Naga insurgency has a transnational imagination and conceives of Naga populations outside Nagaland, including in Myanmar, as part of the Naga homeland of Nagalim or Greater Nagaland. Groups like the NSCN claim to speak for all Nagas, a claim fiercely contested by dominant ethnicities in Manipur, Assam and Arunachal Pradesh. The demand for Nagalim, which will need a redrawing of the existing state boundaries, is a major stumbling block as the Centre and the NSCN (I-M) work towards a final peace accord.

The new Arunachal Pradesh government — the assembly election results will be out today — should see Tuesday’s incident as a warning: It needs to step up the vigil against militancy. It calls for a co-ordinated effort involving the various state administrations, armed forces and the Centre. A clean and effective administration can help ensure that militancy has no ground to stand on.


Date:23-05-19

Eye in the sky

RISAT-2B will enhance India’s monitoring capabilities for civil and military purposes

EDITORIAL

With the successful pre-dawn launch of RISAT-2B satellite on May 22, the Indian Space Research Organisation (ISRO) has added another feather to its cap. The satellite will enhance India’s capability in crop monitoring during the monsoon season, forestry mapping for forest fires and deforestation, and flood mapping as part of the national disaster management programme. Given that overcast skies are a constant during the monsoon season and during times of flood, the ability to penetrate the cloud cover is essential. While optical remote sensing that relies on visible light for imaging gets obstructed by clouds, RISAT-2B will not. Much like the RISAT-1 satellite that was launched by ISRO in April 2012, RISAT-2B will also use microwave radiation. Unlike visible light, microwaves have longer wavelength and so will not be susceptible to atmospheric scattering. Microwave radiation can thus easily pass through the cloud cover, haze and dust, and image the ground. Hence, RISAT-2B satellite will be able to image under almost all weather and environmental conditions. Since it does not rely on visible light for imaging, it will be able to image the ground during both day and night. The satellite does not have passive microwave sensors that detect the radiation naturally emitted by the atmosphere or reflected by objects on the ground. Instead, RISAT-2B will be transmitting hundreds of microwave pulses each second towards the ground and receiving the signals reflected by the objects using radar. The moisture and texture of the object will determine the strength of the microwave signal that gets reflected. While the strength of the reflected signal will help determine different targets, the time between the transmitted and reflected signals will help determine the distance to the object.

The RISAT-2B satellite uses X-band synthetic aperture radar for the first time; the synthetic aperture radar was developed indigenously. Unlike the C-band that was used by RISAT-1, the shorter wavelength of the X-band allows for higher resolution imagery for target identification and discrimination. Since it has high resolution, the satellite will be able to detect objects with dimensions of as little as a metre. This capacity to study small objects and also movement could be useful for surveillance. As K. Sivan, ISRO Chairman and Secretary, Department of Space, had said last month, the satellite could be used for civil and strategic purposes. RISAT-2B will have an inclined orbit of 37 degrees, which will allow more frequent observations over the Indian subcontinent. With ISRO planning to launch four more such radar imaging satellites in a year, its ability to monitor crops and floods as well as engage in military surveillance will be greatly enhanced.


Date:23-05-19

A blueprint for a national security strategy

The new government must build on D.S. Hooda’s outline

Happymon Jacob teaches Disarmament and National Security at the School of International Studies, JNU, New Delhi

“Indian elites show little evidence of having thought coherently and systematically about national strategy… Few writings offer coherent, articulated beliefs or a clear set of operating principles for Indian strategy,” wrote American think tanker George Tanham in a paper prepared for the U.S. government in 1992.

A glaring lacuna

Most Indian students of strategy and security studies rightly disagree with this rather presumptuous argument, especially since Tanham located the causes of the Indian inability to think strategically in its historical and cultural specificities. And yet it is pertinent to ask, even today, whether India thinks about strategic affairs in a systematic, consistent and coherent manner or whether its national security runs on ad hoc arrangements and ‘raw wisdom’. Or is it that the political class has traditionally been too cagey about putting out a national security strategy, even a mere declaratory one as opposed to an operational one, in black and white?

It is interesting, therefore, that the Congress party recently shed its coyness about formulating a national security strategy for India. Earlier this year it tasked Lt. Gen. (retd) D.S. Hooda, a former Northern Army Commander, to write a strategy document which it eventually endorsed and made part of its manifesto.

In fact, there have been several attempts at formulating a national security strategy for India. According to some accounts, the National Security Advisory Board (NSAB) had formulated draft national security strategy documents on four different occasions and presented them to successive governments, but the political class wouldn’t bite. There has been a lingering worry in the minds of the politicians about a potential commitment trap if a national security strategy were to be put on paper.

Recently a senior member of the NSAB stated that there is indeed in existence a national security strategy of sorts, though not disclosed to the general public — though Gen. Hooda has said that as the Northern Army Commander, he at least had not seen the document. So, if indeed there is such a document, it is odd that one of the senior-most generals tasked with managing Kashmir and India’s border with Pakistan didn’t know about it. And if there isn’t a strategy in place, we should be worried.

Key issues

There are some major shortcomings in India’s national security architecture that must be addressed. There is a need to take a relook at some of our key national security institutions and revamp their functioning. The National Security Council (NSC) set up in 1998 almost never meets, primarily because it is an advisory body, with the Cabinet Committee on Security being the executive body. If the NSC is to be made more useful, the government’s allocation of business rules should be amended to give more powers to the NSC and its subordinate organisations, such as the Strategic Policy Group.

Second, the job of the National Security Adviser needs to be reimagined. Even though the NSA plays a vital role in national security, he has no legal powers as per the government’s allocation of business rules. The K.C. Pant Task Force in the late 1990s had recommended the creation of an NSA with the rank of a Cabinet Minister. Over the years, the NSA’s powers have increased, even though he is not accountable to Parliament. The institution of the NSA today requires more accountability and legal formality.

More national security organisations are not the answer; fundamental structural reforms in national security planning are needed. Take the case of the recently constituted Defence Planning Committee (DPC) tasked to recommend policy measures to improve India’s defence capability and preparedness, and national security in general. Not only does the DPC have too many responsibilities on its plate, it is also an advisory body. More worryingly, there is a feeling among the armed forces that by having the NSA chair the DPC, the government may have scuttled the demands to appoint a Chief of the Defence Staff, an issue the Hooda document highlights.

The Hooda document

The Congress promised Gen. Hooda that it would adopt his national security strategy document after internal consultations. The document was prepared in less than two months and in consultation with six key core group members and many domain experts. The guiding philosophy of the document is enshrined in the following sentence: “This strategy recognises the centrality of our people. We cannot achieve true security if large sections of our population are faced with discrimination, inequality, lack of opportunities, and buffeted by the risks of climate change, technology disruption, and water and energy scarcity.”

This is by far the most comprehensive treatment of national security in the Indian context. The document offers a comprehensive definition of national security ranging from challenges posed by new technologies to social unrest to inequality. At a time when national security is referred to in strictly military terms, it is heartening to see that a strategy document written by a former Army general, the man behind the 2016 surgical strikes, defines security in an out-of-the box and inclusive manner. A glance at the key themes shows how well-designed the document is: “assuming our rightful place in global affairs”, “achieving a secure neighbourhood”, “peaceful resolution of internal conflicts”, “protecting our people” and “strengthening our capabilities”.

The key recommendations in the document are both timely and well-thought-out. On the issue of military jointmanship, it recommends that “the three services should undertake a comprehensive review of their current and future force structures to transform the army, navy and air force into an integrated warfighting force.” It argues that it would take “a cultural change in the way the DRDO is currently operating” to improve domestic defence production.

While discussing emerging national security threats, the document differs with the BJP-led government’s decision to set up a Defence Cyber Agency instead of a Cyber Command as was originally recommended. On the Kashmir question too, the document seems to differ with the incumbent government’s muscular policy, and Gen. Hooda’s wise words should be a wakeup call for everyone: “Killing terrorists is an integral part of military operations to ensure that the state does not descend into chaos. However, this is not the primary measure of success or conflict resolution. Serious efforts are required for countering radicalisation. There is a need to initiate structured programmes that bring together civil society members, family groups, educationists, religious teachers and even surrendered terrorists in an effort to roll back radicalisation.”

Let’s hope that this document is the beginning of a tradition in India of thinking about national security and strategy more systematically, consistently and comprehensively.