24-05-2017 (Important News Clippings)

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24 May 2017
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Date:24-05-17

मैनचेस्टर आत्मघाती विस्फोट से बढ़ेगा दमन और हमला

ब्रिटेन के मैन्चेस्टर अरेना में अमेरिका की पाप गायिका अरियाना ग्रैंड का मनमोहक कार्यक्रम समाप्त होते ही आत्मघाती विस्फोट के हृदयविदारक हमले ने 20 से अधिक लोगों की जान लेकर और 59 लोगों को घायल करके यह जता दिया है कि दुनिया में ऐसी ताकतें सक्रिय हैं जिनसे दूसरे हिस्से के युवाओं और बच्चों की खुशी देखी नहीं जाती। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इजराइल के बेथलेहम में कहा है कि वे युवा और सुंदर लोग थे जिनका खूबसूरत जीवन कुछ लोगों को रास नहीं आया। वे लोग बुरी ताकतों द्वारा जीवन की लड़ाई हार गए। लेकिन सीरिया के आईएस के समर्थक लोगों ने सोशल मीडिया पर संतोष जताते हुए कहा है कि अब ब्रिटेन को मोसुल के उन लाचार लोगों का दर्द महसूस होगा जिन पर बमबारी की जा रही है। आंतकवाद और उसे खत्म करने के लिए चल रही लड़ाई के यह अपने-अपने पक्ष हैं। लेकिन बेगुनाह की जान लेने की कोशिश को सही नहीं ठहराया जा सकता। ब्रिटेन पुलिस जहां इसे आतंकी घटना मानकर चल रही है। इससे एक बात स्पष्ट है कि अरब-इजराइल और फिर अमेरिका और रूस के संघर्ष से पैदा हुआ आतंकवाद यूरोप समेत दुनिया के सिर पर तलवार की तरह लटक रहा है। अगर सन् 2005 में ब्रिटेन के ट्यूब रेलवे में हुए विस्फोट में 52 लोग मारे गए थे तो 2015 में पेरिस हमले में 90 लोगों की जान गई थी। इस तरह नववर्ष के मौके पर तुर्की के हवाई अड्डे पर आतंकी हमले में 39 लोगों की जान गई थी। यह हमले अफगानिस्तान, इराक और सीरिया में चल रहे अमेरिका और समर्थक देशों के हमलों को बहाना बनाकर किए जाते हैं। अगर ब्रिटेन और फ्रांस में होने वाले आतंकी हमले क्रूर और कायराना हैं तो सीरिया और इराक में बेगुनाहों पर होने वाली क्रूरता भी भयानक कही जाएगी। यह दोनों स्थितियां उन शरणार्थियों पर भारी पड़ेंगी जो सीरिया और इराक की बदतर स्थितियों से भाग कर यूरोप में पनाह लेना चाहते हैं। आज भले फ्रांस में इमैनुअल मैक्रों जैसे उदार नेता सत्ता में आ गए हैं और यूरोपीय संघ के बने रहने की उम्मीद बची है लेकिन ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से अलग होने का फैसला कर लिया है। दुनिया की हिंसा और संकीर्णता खत्म करने का उपाय सैनिक कार्रवाई के साथ राजनीतिक संवाद है और संयोग से डोनाल्ड ट्रम्प ने शोक संवेदना व्यक्त करते हुए इजराइल के बेथलेहम से वही करने की कोशिश की है।


Date:24-05-17

बिज़नेस करना और आसान बनाना होगा

मोदी सरकार के 3 वर्ष | भास्कर विशेषज्ञ बता रहे हैं चार प्रमुख क्षेत्रों में जरूरी सुधार

डिजिटल इंडिया, क्लीन एनर्जी जैसे कार्यक्रमों के अच्छे नतीजे

उद्योग

केंद्र सरकार के तीन साल पूरे होने पर अर्थव्यवस्था आर्थिक संकेतकों में स्थिरता और मजबूत आर्थिक वृद्धि दिखा रही है। 2013-14 के 4.5 फीसदी के वित्तीय घाटे को इस वित्त वर्ष में 3.2 फीसदी तक लाने के लक्ष्य को देखते हुए वित्तीय प्रबंधन के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता दिखती है। खाद्य कीमतों के प्रबंधन और दुनिया में चीजों की गिरती कीमतों से महंगाई दर काबू में है। इससे रिजर्व बैंक ब्याज दरें नीचे ला पाई है। छोटी कंपनियों के कॉर्पोरेट टैक्स घटाने और टैक्स विवादों पर ध्यान देने से उद्योगों को प्रोत्साहन मिला है।
मैन्युफैक्चरिंग में मेक इन इंडिया के तहत बिज़नेस करने की आसानी के लिए माहौल बनाने वाले कई कार्यक्रम हैं। बौद्धिक संपदा अधिकार को मजबूत बनाने और हुनर बढ़ाने को भी इससे बढ़ावा मिला है। कपड़ा व वस्त्र, पूंजीगत सामान व स्टील आदि में मैन्युफैक्चरिंग बढ़ाने के लिए सरकार ने रणनीतिक नीतियों की घोषणा की है। सार्वजनिक क्षेत्र में खर्च बढ़ने से पूंजी निर्माण में अच्छी वृद्धि को बढ़ावा मिला है।
डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, क्लीन एनर्जी आदि में रणनीतिक कार्रवाई की सराहना करनी होगी। इससे काफी अच्छे परिणाम मिले हैं। पिछले तीन साल में अप्रत्याशित अक्षय ऊर्जा क्षमता निर्मित हुई है। नई इलेक्ट्रॉनिक्स सुविधाएं घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा दे रही हैं। सीआईआई को अपेक्षा है कि अगले दो-तीन साल में जीडीपी दर 9 फीसदी को पार कर लेगी। बैंकों के फंसे कर्ज की समस्या पर ध्यान देना होगा, ताकि लोन का नया चक्र शुरू हो सके। दुनिया में मांग तो बढ़ ही रही है, पर घरेलू मांग भी ब्याज दरें घटाकर बढ़ाने की जरूरत है। निजी क्षेत्र के निवेश को भी प्रोत्साहन देना होगा। आने वाले दिनों में बिज़नेस करना आसान बनाना चुनौती का काम होगा। हमें पूरा भरोसा है कि सरकार इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति जारी रखेगी।
चंद्रजीत बनर्जी  डायरेक्टर जनरल, सीआईआई

बड़े देशों पर मोदी का प्रभाव ट्रम्प को नरमी दिखानी होगी

आईटी

इस समय आईटी इंडस्ट्री नए मोड़ पर है। वह विश्व में उच्चस्तरीय आईटी/ बीपीओ सर्विस प्रोवाइडर की भूमिका से विकसित दुनिया के बदलते सफर में पार्टनर बन रही है। उसे पश्चिमी बिज़नेस को डिजिटल टेक्नोलॉजी से चलाने की विशेषज्ञता हासिल करनी होगी। निवेशकों और स्टॉक मार्केट को खुश रखने के लिए उसे स्टाफ की छंटनी करनी पड़ेगी और नई नियुक्तियां भी कम होंगी। 1990 के दशक के प्रारंभ में वह ऐसी चुनौतियों से सफलतापूर्वक निपट चुकी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियों और एच1बी वीज़ा की अड़चन को अलग कर दें तो आईटी इंडस्ट्री ने ग्लोबल आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तनों को तेजी से अपनाया है। अब इस पृष्ठभूमि में मोदी फैक्टर कहां काम करता है? कुछ बिंदुओं पर गौर कीजिए।
1. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टीम बड़े देशों में राजनीतिक प्रभाव कायम करने में बेहद कामयाब रही है। इससे ऐसा माहौल बना है, जिसमें भारतीयों और भारतीय उद्योगों को आसानी से दबाया नहीं जा सकता है। ट्रम्प प्रशासन सख्ती से कार्रवाई करता है। फिर भी, उसे भारतीय कंपनियों से नरमी बरतनी पड़ेगी। अमेरिकी सरकार पर अमेरिकी उद्योगपतियों का भी दबाव है।
2. मोदी ने नौकरियां पैदा करने, बेहतर शासन, पारदर्शिता और पेमेंट गेटवे, इलेक्ट्रॉनिक वॉलेट, ई-कॉमर्स जैसा फाइनेंशियल सिस्टम बनाने के लिए आंत्रप्रेन्योरशिप और टेक्नोलॉजी पर ध्यान केंद्रित किया है। इसने नई अर्थव्यवस्था में जान फूंकी है। कई नई कंपनियां बनी हैं। कई स्थापित कंपनियां अपने कारोबार को नया रूप दे रही हैं।
3. मेक इन इंडिया योजना से भारत में नई पूंजी आ रही है। इससे जीडीपी दर 7% पहुंचने में मदद मिली है।
4. देश की विविधता को देखते हुए टेलीकॉम और टेक्नोलॉजी सेक्टर को बहुभाषी होना पड़ेगा। सरकार इसे प्रोत्साहन दे रही है।
प्रदीप उधास एग्ज़ीक्यूटिव, स्पॉन्सर टेक्नोलॉजी, केपीएमजी

क्या ऐसी योजनाओं से किसान की आमदनी दोगुनी होगी?

कृषि

नोटबंदी की अप्राकृतिक विपत्ति ने खेती की आमदनी में 50 से 70 प्रतिशत की गिरावट ला दी। इधर, अच्छे मानसून और सरकार द्वारा दालों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि से तुअर और मूंग की फसल अधिक बोई गई। तुअर का सरकारी खरीद मूल्य 5,050 रुपए क्विंटल(425 रु. बोनस शामिल) तय किए जाने के बावजूद उसके दाम गिर गए। एक स्तर पर आंध्रप्रदेश में थोक मूल्य 3,666 रुपए और कर्नाटक में 4,850 रुपए प्रति क्विंटल थे। 2015 के 4,850 रुपए प्रति क्विंटल की तुलना में मूंग का एमएसपी 5,225 रुपए प्रति क्विंटल तय किया गया था। लेकिन, उसकी कीमतों में भी गिरावट आई।
जब बॉयो टेक इंडस्ट्री आयात का भार कम करने का तर्क देकर सरसों की जीएम किस्म को मंजूरी दिलाने के लिए लॉबीइंग कर रही थी तो किसानों ने जीएम बीज का उपयोग किए बिना तीन करोड़ 36 लाख टन सरसों की रिकॉर्ड पैदावार की। खबरों के अनुसार 3,700 रुपए प्रति क्विंटल के एमएसपी की तुलना में सरसों 2,800 रुपए से 3,400 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से बिक रही है। इन तीन फसलों के अलावा कई राज्यों में टमाटर की कीमतें जमीन पर आ गईं। आलू के दाम भी गिर गए। पंजाब भी किसानों की आत्महत्या के लिए चर्चित है। लगता है, सरकार नहीं जानती कि उसे क्या करना है? वह सॉइल हेल्थ कार्ड, नीम मिश्रित यूरिया, परम्परागत कृषि विकास योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, राष्ट्रीय कृषि बाजार और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना जैसी योजनाओं पर अमल के सहारे स्थिति बदलने का वादा कर रही है। लेकिन, इन योजनाओं से किसानों की आय दोगुनी होने की सोच संकट को समझने में नीति निर्माताओं की अक्षमता दर्शाता है। शायद, यही कारण है कि आत्महत्या करने वाले किसान अगले पांच वर्षों में किसानों की आय दोगुनी होने के वादे में उम्मीद की किरण नहीं देखते हैं।
देविंदर शर्मा कृषि विशेषज्ञ और पर्यावरणविद


Date:24-05-17

A charter for liberal Indians

Liberals, it’s time to boldly and constantly assert your vision of patriotism

Dear Indian liberals,

The photograph of a blood-soaked father of three urgently negotiating for his life minutes before he was beaten to death in a Jharkhand town, has horrified you. It reveals the impunity a mob enjoys when violence goes unpunished. Is the rule of law becoming only weak liberal wishful thinking in times of cow hooligans and enraged mobs enforcing street retribution?The entire liberal project, you’re being told, is apparently dead. This is supposed to be the era of macho patriotism in which those arguing for a dialogue with Kashmiri stakeholders or talks with Pakistan or those who question religious nationalism, are shouted down as ‘anti-nationals’ and ‘jihadists’. Driven into silence by an anti-minority nationalistic fervour, the idealistic middle class, once the great bedrock of India’s freedom movement, is missing in action. The potential loss of idealism among the middle class can become a tragedy of monumental proportions. But it’s not too late to recover it if liberals speak up strongly.

Indian liberals, you’re told that you belong to a small ‘westernised elitist club’ and have ‘colonised mindsets’. This is not true. Numerous liberal protestors who down the decades have fought for progressive values have hardly been disconnected and exclusive. Those who stood by Tamil author Perumal Murugan after he was slapped with criminal complaints, rationalists like Kalburgi, Pansare and Dabholkar, those who fought for women’s empowerment like Ela Bhatt, for farmer’s rights like Sharad Joshi, to deepen democracy at the grassroots like Sandeep Pandey and Aruna Roy, none of them were or are ‘westernised elitists’. The rooted salt-of-the-earth liberal is found in every Indian small town and city.

Indian liberals, your quest is individual freedom. Your ancestors are Gandhi, Tagore, Ambedkar, Nehru (who was a social liberal if not an economic one) even a C Rajagopalachari, all of whom believed in the individual over dominant state power. You would like to see citizens’ freedom enhanced responsibly and lawfully. You have always chafed at controls, both economic and social. You don’t like theocracies or morality cops.The nationalist Right-wing (like the ideological Left) believes in a gargantuan state machinery, in unbounded state power and in the state’s superior rights over the individual, as reflected in the attorney general’s recent comment that “You may want to be forgotten but the State doesn’t want to forget you.” The AG of a Hindu nationalist government sounded a bit like a Soviet commissar!

Indian liberals instead have always stood against rampaging state power and for individual rights. Those who protested against the Emergency, against the Anti-Defamation Bill, against bans on books and movies and those who campaigned for citizens’ rights, they have all held firm against brute state authority.Liberals are called ‘anti-national’. But the greatest patriot of all, Mahatma Gandhi was India’s original liberal. Gandhi was always deeply apprehensive of state power and did not believe in enforcing his personal ideology through government agencies. A devout Hindu, he never wanted a law banning cow slaughter. For Gandhi individual rights of others were greater than his own beliefs. In fact, he had unlimited faith in the power and goodness of individuals, which is why he saw the freedom struggle as a lift off into personal as well as political regeneration.

To Gandhi, the means were always much more important than the ends. He called off the 1921-22 non-cooperation campaign because it descended into violence and failed to be the just means to a cause. For the liberal, means are always just as important as ends: because once the ends are achieved, the means shape the nature of the victory.

Indian liberals, don’t let anyone tell you that you don’t represent a mighty tradition. You represent the tradition of liberalism in the Upanishads, in the Bhakti movement and the one embodied by Gandhi and the Constitution. It’s a heavy duty legacy that is neither confined to a small minority, nor elitist, nor westernised nor simply restricted to any political party. But with such a strong tradition why then are liberals losing out to the votaries of majoritarianism?

That’s because the liberal language has become mired in, as newly elected French President Emmanuel Macron pointed out, negativity and fear. It’s become too focussed on denigrating and demonising opponents. Instead, the Indian liberal language should draw upon Gandhi and propose something positive, open and persuasive, a language that stimulates goodness and a sense of justice in every citizen and encourages every citizen to be her best not her worst self. It should encourage private enterprise, not crush or over-protect it and seek ways out of poverty for globalisation’s victims. Above all, it should recognise the freedom of every citizen to pursue his or her goals without harming others.Liberal Indians, why should you be fearful? Above your heads floats the spirit of the founders of constitutional India, a spirit that has always opposed those who insist on dress codes, behaviour codes, romance codes, bans on free speech and restrictions on religious, intellectual, dietary and sexual freedom. Confronted with a control-freak state, once again it’s up to you to speak up against those who seek control of what you eat, study, watch, wear, speak or worship, in the name of their version of ‘nationalism’.

This is not the time to shy away or secede or retreat from the debate. This is the time to speak boldly and constantly on every current issue, and emphasise your version of patriotism, grounded in law and respect for all faiths. It’s time to proudly say yes I am a patriotic Indian and I am a liberal.


Date:24-05-17

दक्षता विकास से ही निकल सकेगी आईटी क्षेत्र की राह

भारतीय सॉफ्टवेयर एवं सेवा उद्योग को दुनिया भर में अपने क्षेत्र का अगुआ माना जाता था लेकिन इन दिनों ऐसी मीडिया रिपोर्ट आ रही हैं जिनमें इस उद्योग में लगे हजारों लोगों की नौकरी पर खतरा मंडराने की खबरें दिखाई दे रही हैं। ऐसे समय में हमें निर्णायक भूमिका निभा रहे मुद्दों को समझने की जरूरत है। इन मुद्दों को सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भी देखना होगा ताकि सटीक नीतियों के सहारे इस उद्योग के मौजूदा संकट से निकल पाने का रास्ता तलाशा जा सके।

भारतीय सॉफ्टवेयर एवं सेवा उद्योग ने ऐतिहासिक रूप से चक्रीय पैटर्न दिखाया है। जब भी कोई नई चुनौती आती है तो यह उद्योग नई रणनीतियां लेकर सामने आता रहा है। वर्ष 2009-10 का समय भारतीय आईटी उद्योग के लिए एक बड़ी चुनौती का दौर था। पूरी दुनिया वर्ष 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी के गहरे असर से निकलने की जद्दोजहद में लगी थी। उसके एक दशक पहले भी प्रौद्योगिकी और दूरसंचार का बुलबुला फूटने से नई प्रौद्योगिकी में निवेश प्रभावित हुआ था। 11 सितंबर, 2001 के आतंकी हमले ने तो समूची दुनिया में कारोबारी धारणाओं पर गहरी चोट पहुंचाई थी। उस बार भी भारतीय आईटी उद्योग को संकट से निकलने का रास्ता तलाशना पड़ा था। इस तरह यह एक ऐसा उद्योग है जो समय-समय पर खतरों से जूझता रहा है और बखूबी उससे बाहर भी निकला है। इस उद्योग ने वित्त वर्ष 2015-16 में करीब 37 लाख लोगों को रोजगार दिया था। सॉफ्टवेयर कंपनियों के राष्ट्रीय संगठन नैसकॉम के एक अध्ययन में कहा गया था कि करीब 40-50 लाख लोगों को प्रशिक्षित करने और उनकी दक्षता बढ़ाने की जरूरत होगी। सॉफ्टवेयर उद्योग को पहले से ही अंदाजा था कि आने वाले समय में उसे अपने समूचे कार्यबल को नए सिरे से प्रशिक्षित करना पड़ेगा। इस तरह यह नहीं कह सकते कि सॉफ्टवेयर उद्योग को मौजूदा चुनौतियों के बारे में पहले से अनुमान नहीं था।
हालांकि डॉनल्ड ट्रंप की जीत और उसके बाद की वीजा पाबंदियों का पूर्वानुमान नहीं लगाया गया था। यह भी ध्यान में रखना महत्त्वपूर्ण है कि सभी भारतीय आईटी एवं सेवा कंपनियों पर मौजूदा संकट का एक जैसा असर नहीं पड़ा है। देश की सबसे बड़ी आईटी कंपनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) अपना कारोबार ऐसे कर रही हैं मानो वह किसी दूसरे ही ग्रह पर हो। उसने अपने कर्मचारियों की छंटनी के भी कोई संकेत नहीं दिए हैं। इसने हाल ही में बिहार सरकार के सहयोग से पटना में एक सेंटर भी खोला है जहां करीब तीन हजार लोगों को रोजगार मिलेगा। भारत की बड़ी आईटी कंपनियों में से टीसीएस का कारोबार दुनिया में सर्वाधिक फैला हुआ है। उसका 54 फीसदी राजस्व तो अकेले उत्तरी अमेरिका से आता है। इसके साथ ही भारत में भी वह अपने पांव जमाए हुए है। वहीं आईटी क्षेत्र के संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित कॉग्निजेंट का 75 फीसदी राजस्व उत्तरी अमेरिका से आता है। यही वजह है कि उसने इस दौर में सबसे ज्यादा कर्मचारियों की छंटनी की है।
इससे दो सरल सिद्धांत निकलकर सामने आते हैं- अपने कारोबार को बेहद विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र में फैलाइए और हरेक तरह का काम करने के लिए तैयार रहिए। हाल ही में अपना पासपोर्ट बनवाने वाले किसी भी भारतीय को यह अहसास हुआ होगा कि पासपोर्ट सेवा केंद्र की तस्वीर बदलने में टीसीएस ने कितनी अहम भूमिका निभाई है। दरअसल देश के अधिकांश पासपोर्ट सेवा केंद्रों का संचालन टीसीएस के ही पास है। इन केंद्रों में तैनात सरकारी कर्मचारी भी अब लोगों के प्रति अधिक दोस्ताना नजर आते हैं। नवीनीकरण के लिए ऑनलाइन आवेदन देने के बाद मैं दो घंटे के भीतर ही पासपोर्ट सेवा केंद्र से अपना काम पूरा कर बाहर निकल आया। एक हफ्ते के भीतर ही घर पर मेरा पासपोर्ट भी पहुंच गया था। अब जरा भारत को डिजिटल बनाने के लिए सरकार की तरफ से घोषित उद्देश्य पर गौर कीजिए। यूनिफाइड पेमेंट्स सिस्टम के आने से पैदा हुई कारोबारी संभावनाओं पर गौर कीजिए। इसकी वजह से पहले बैंक जाने या क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करने से भय महसूस करने वाले मामूली पढ़े-लिखे लोग भी बॉयोमेट्रिक तरीके से अपनी पहचान सुनिश्चित कर आसानी से डिजिटल भुगतान करने लगे हैं।
एक अरब से भी अधिक आबादी वाले देश के तीव्र गति से डिजिटल होने से नवाचार लेकर आने वाले स्टार्टअप के सामने भी बेशुमार अवसर सृजित होंगे। तेजी से डिजिटल हो रही दुनिया में ऑटोमेशन, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और क्लॉउड कंप्यूटिंग के चलते पैदा होने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए भारतीय आईटी उद्योग किस तरह से खुद को तैयार करता है? नैसकॉम के अध्ययन में इसकी रूपरेखा भी बताई गई है। भारत को डिजिटल तकनीक में नवाचार का वैश्विक केंद्र बनाना, नवाचार में लगे समूहों को तकनीकी संस्थानों से संबद्ध करना, 40-50 लाख लोगों की दक्षता बढ़ाने के लिए क्षमता का विकास, उद्यमशीलता को बढ़ावा देने के लिए स्टार्टअप इंडिया कार्यक्रम पर अधिक जोर, भारत की ब्रांडिंग किफायती तकनीक के अगुआ के स्थान पर वैश्विक तकनीकी केंद्र के रूप में की जाए और इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए ऐसे नियम बनाए जाएं जो घरेलू स्तर पर भी बाजार पैदा कर सके। इसके अलावा बौद्धिक संपदा अधिकारों के संरक्षण, साइबर सुरक्षा कानूनों को सशक्त बनाने, शिक्षा में सार्वजनिक एवं निजी भागीदारी को सरल बनाना और कारोबारी सुगमता को बेहतर बनाने पर भी ध्यान देना होगा।
भारतीय आईटी उद्योग को तो आने वाली चुनौती और उससे निपटने के लिए उठाए जाने वाले कदमों की जानकारी थी लेकिन देश और सरकार के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है। भारतीय आईटी कंपनियों के पुनर्गठन का मध्यवर्ग के रोजगार पर तगड़ा असर पड़ेगा। उस स्थिति में आईटी क्षेत्र पहले की तरह रोजगार का बड़ा प्रदाता नहीं रह जाएगा। कर्मचारियों की दक्षता बढ़ाने की कोशिशों का सामाजिक प्रभाव भी पड़ सकता है। 10 साल से अधिक अनुभव रखने वाले टीम लीडर को अगर अपनी नौकरी बचाने के लिए नई तकनीक सीखने के लिए मजबूर होना पड़ेगा तो यह उसके लिए कम चुनौतीपूर्ण नहीं होगा।

Date:24-05-17

यूरोप में फिर आतंक का कहर

मैनचेस्टर (ब्रिटेन) के एक एरीना में हुए आतंकी हमले से दुनिया स्तब्ध है। हालांकि अभी तक किसी आतंकी संगठन ने इसकी जिम्मेदारी से नहीं ली है, लेकिन शक की सुई ‘इस्लामिक स्टेट(आईएस) की ओर घूम रही है, जिसके समर्थकों द्वारा इस घटना पर सोशल मीडिया पर जश्न मनाने की खबरें हैं। ध्यान रहे कि ब्रिटिश होमलैंड सिक्युरिटी एमआई-5 द्वारा इस घटना को उच्चस्तरीय खतरे के रूप में देखा जा रहा है और आतंकवाद-निरोधक अधिकारियों की चेतावनी है कि आईएस पर इराक और सीरिया में जैसे-जैसे सैन्य कार्रवाइयों का दबाव बढ़ेगा, वह विदेशों में हमलों की अपनी कोशिशों को और विस्तार देगा।

तो क्या यह मान लिया जाए कि न केवल ब्रिटेन, बल्कि संपूर्ण यूरोप सुरक्षा संकट से गुजर रहा है? यहां पर कुछ प्रश्न और भी हैं। पहला सवाल मैनचेस्टर हमले की टाइमिंग को लेकर है। इस्लामोफोबिया से ग्रस्त अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की सऊदी अरब यात्रा और इस्लामी देशों की एकजुटता के आह्वान के ठीक बाद आईएस के इस एक्शन को किस नजरिए से देखा जाए? दूसरा सवाल, क्या आईएस ने दुनियाभर के मुस्लिम युवाओं के एक छोटे से घटक पर ही सही, स्थायी वैचारिक प्रभाव स्थापित कर लिया है? क्या ‘लोन वुल्फ हमलावरों को समय रहते निष्क्रिय करने , उन्हें गिरफ्त में लेने या ऐसे हमलों से निपटने की कोई प्रभावी रणनीति यूरोप एवं अमेरिका सहित दुनिया के देशों के पास नहीं है? क्या मैनचेस्टर हमला भी पेरिस हमले की तरह से आधुनिक जीवन शैली पर हमला है अथवा यह आईएस द्वारा छेड़े गये जिहाद का एक हिस्सा? एक प्रश्न यह भी है कि आईएस एवं उसके लोन वुल्फ्स के पास धन एवं हथियार कहां से आते हैं? विचार इस पर भी किया जाए कि आखिर दुनिया इसके खिलाफ किस प्रकार लड़ेगी?

सबसे पहले हमले की टाइमिंग को देखें तो ट्रंप के भाषण के बाद (जिसमें उन्होंने इस्लामी देशों की एकजुटता का आह्वान किया) यह पहली आतंकी घटना है। दरअसल ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन के नारे के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति पद पर पहुंचने वाले ट्रंप अब ‘अमेरिका फर्स्ट से ‘बिजनेस फर्स्टपर पहुंच गए हैं। अब वे सभ्यता की लड़ाई के पक्षधर बन गए हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि ट्रंप वास्तव में बदल रहे हैं? अभी देखना यह है कि अपने 9 दिन के पश्चिम एशिया से यूरोप तक के दौरे में ट्रंप रियाद, तेल अवीव और वेटिकन सिटी के बीच किस तरह का संतुलन बनाने की कोशिश करेंगे या बिखर रहे नाटो को किस तरह से पुनर्जीवन देंगे? लेकिन सऊदी अरब के साथ हुआ 350 अरब डॉलर का करार (जिसमें 110 अरब डॉलर का रक्षा करार भी शामिल है) कुछ संदेश तो जरूर दे रहा है, उन हालात में तो अवश्य ही जब सऊदी अरब आईएस के प्रति सॉफ्ट कार्नर रखता हो। एक बात और, ट्रंप ने सऊदी यात्रा के दौरान 50 मुस्लिम देशों के नेताओं के समक्ष अपने भाषण में कहा कि आतंक के खिलाफ लड़ाई के लिए मुस्लिमों को एकजुट होना चाहिए। प्रश्न यह उठता है कि किस तरह से? क्या उसी तरह से, जिस प्रकार सऊदी अरब के नेतृत्व में 39 देशों ने मिलकर एक सैन्य संगठन तैयार किया है जो आतंकवाद के खिलाफ कम, शिया व अन्य समूहों के खिलाफ अधिक है? कहा जा रहा है कि ट्रंप हर्गिज ये नहीं चाहते कि उनकी वजह से दुनिया में ‘जेहाद वर्सेस क्रूसेड का माहौल रहे, लेकिन इसकी शुरूआत तो अमेरिका ने ही की थी। 9/11 की घटना के बाद जॉर्ज बुश ने स्पष्ट शब्दों में कहा था – ‘वी आर रेडी टू क्रूसीफाई।हालांकि बाद में ये ‘वार इनड्यूरिंग फ्रीडममें बदल गया था, लेकिन यह अमेरिका का छद्म युद्ध था। वास्तव में आतंकवाद को पोषित करने वाला अमरिका अब आतंकवाद के खिलाफ युद्ध की अगुआई कर रहा था और दक्षिण एशियाई आतंकवाद की नाभि पाकिस्तान उसका विश्वस्त सलाहकार था। यही वजह है कि काबुल के ध्वंस के बाद नाटो सेनाएं इस्लामाबाद की ओर नहीं बढ़ी थीं, बल्कि बगदाद की ओर मुड़ गई थीं। आखिर क्यों? जो भी हो, इस संपूर्ण लड़ाई में अमेरिकी हथियार इंडस्ट्री को खासा लाभ हुआ। ट्रंप सही अर्थों में इसी की नुमाइंदगी कर रहे हैं, इसलिए सवाल यह भी उठता है कि क्या अब पुन: नए किस्म के युद्धों की व्यूह रचना होगी?

थोड़ा पीछे जाकर पेरिस में हुए आतंकी हमले से मैनचेस्टर हमले की तुलना करें तो दोनों में काफी निकटता देखी जा सकती है। पेरिस घटना के बाद एक अमेरिकी अखबार ने लिखा था कि आईएस जब तक सीरिया व इराक में अपनी गतिविधियों को अंजाम देता रहा, तब तक उसका फोकस पड़ोसी देशों के क्षेत्रों पर कब्जा करना रहा। किंतु अब वह अपनी प्रकृति बदल रहा है। ध्यान रहे, आईएस ने उसी वक्त यह घोषणा भी की थी – ‘पश्चिम! तुम जब तक बम बरसाते रहोगे, चैन से नहीं रह पाओगे। तुम्हें बाजार जाने में भी डर लगेगा। इसका मतलब तो यही हुआ कि आईएस पश्चिमी देशों के खिलाफ युद्ध की स्थिति में पहुंच चुका है।

यह कैसे हुआ? एक आतंकी संगठन इतने कम समय में इतना ताकतवर कैसे हो गया? क्या आईएस के पास कोई जादू की छड़ी थी, जिसे घुमाकर वह होम्स, अल-रक्का, दायर अल जोर, अल-हस्का, अलेप्पो, दमिश्क से लेकर फालुजा, मोसुल तक विस्तार करने में सफल हो गया था? इस विस्तार के दौरान पश्चिमी देश नींद में क्यों रहे? अमेरिका का सीरिया में वास्तविक लक्ष्य असद क्यों रहे, आईएस क्यों नहीं? जो भी हो, आज आज की स्थिति यह है कि दुनिया के कई देशों के जिहादी संगठन, जैसे फिलीपींस बीआईएफएफ (बांग्सामोरो इस्लामिक फ्रीडम फाइटर्स), तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, अलकायदा, एक्यूआईएम आदि एकजुट हो रहे हैं। आईएस आज इराक के तमाम चरमपंथी समूहों, जैसे मुजाहिदीन शूरा काउंसिल, अलकायदा इन इराक, जायश अल-फातिहीन, जुंद अल-सहाबा, कातबियान अंसार अल-जवाहिद वल सुन्न्ा तथा जैश अल-तैफा अल-मनसूरा के साथ-साथ अन्य क्लैंस (कबीलों), जो सुन्न्ी इस्लाम को मानते हैं, को मिलाकर एक ‘रिलिजियो-पॉलिटिकल स्टेटकी हैसियत काफी पहले ही प्राप्त कर चुका है। दुनिया के अस्सी देशों के चरमपंथी संगठन आईएस से जुड़ चुके हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके साथ ही आईएस के खतरों का दायरा बढ़ रहा है।

बहरहाल, कुछ समय पहले बीबीसी और इंटरनेशनल सेंटर फॉर स्टडी ऑफ रेडिकलाइजेशन (आईसीएसआर) व इंटरपोल ने बताया था कि आतंकी संगठन काफी समय से समूहन की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। इसका मतलब यह हुआ कि आतंकवाद अपनी रणनीति अभी और बदलेगा। इस स्थिति में क्या उसका निशाना सिर्फ यूरोप होगा अथवा दुनिया के अन्य हिस्सों के देश भी, जिनमें भारत भी शामिल है। आतंकवाद से निपटने हेतु साझा वैश्विक रणनीति जरूरी है। दुनिया के तमाम देश इस बात को जितनी जल्दी समझ लें, बेहतर है।

डॉ रहीस सिंह (लेखक विदेशी मामलों के जानकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)


Date:24-05-17

सौर ऊर्जा का उज्ज्वल भविष्य

राजस्थान में सौर ऊर्जा से जुड़ी एक कंपनी का दावा है कि उसने 2.44 रुपये प्रति यूनिट की बेहद कम दर पर बिजली आपूर्ति की है। यह दावा ऐसे समय किया गया है जब भारत सरकार ने स्वदेशी तकनीक आधारित दस परमाणु संयंत्र स्थापित करने की घोषणा की है। सौर बिजली की इतनी कम दर हैरान करने वाली है, क्योंकि कोयले से बनने वाली तापीय बिजली, पनबिजली और परमाणु बिजली के दाम छह से दस रुपये प्रति यूनिट के दायरे में आते हैं। इसमें एक पेंच यही है कि सौर उर्जा का उत्पादन केवल दिन में होता है जबकि बिजली की मांग सुबह और शाम को ज्यादा होती है। सौर ऊर्जा की तुलना में तापीय और परमाणु बिजली 24 घंटे उपलब्ध होती है जिसे बेस बिजली कहा जाता है। इसमें सुबह-शाम के पीक आवर भी शामिल होते हैं। तापीय और परमाणु संयंत्रों को चालू और बंद करना कठिन होता है। बॉयलर को गरम-ठंडा करने में समय लगने के साथ ही खर्च भी आता है। पनबिजली इनकी तुलना में उत्तम होती है। नदी के पानी को रोककर बांध के पीछे तालाब बना दिया जाता है। वांछित समय पर तालाब से पानी छोड़ कर पीकिंग बिजली बनाई जा सकती है। अब तक सरकार का प्रयास तापीय अथवा परमाणु और पनबिजली के मेल से बिजली की पूर्ति करना था। 24 घंटे के लिए तापीय अथवा परमाणु बिजली का उपयोग किया जाता था जबकि सुबह शाम की जरूरत के लिए पनबिजली का। इन सभी तकनीकों के माध्यम से बनने वाली बिजली छह से दस रुपये यूनिट में मिल रही है जबकि सौर उर्जा से बनी बिजली केवल तीन रुपये में उपलब्ध है। समय के साथ तापीय, परमाणु एवं पनबिजली तीनों की उत्पादन लागत बढ़ रही है जबकि सौर बिजली की लागत घट रही है। दस साल पहले तापीय एवं पनबिजली की उत्पादन लागत लगभग तीन रुपये प्रति यूनिट थी जबकि सौर बिजली की उत्पादन लागत 15 रुपये प्रति यूनिट। इस अवधि में तापीय और पनबिजली की उत्पादन लागत तीन रुपये प्रति यूनिट से बढ़कर छह रुपये प्रति यूनिट हो गई है जबकि सौर बिजली की उत्पादन लागत 15 रुपये से घटकर तीन रुपये प्रति यूनिट रह गई है।
पनबिजली की राह में तमाम पर्यावरणीय समस्याएं भी सामने आ रही हैं। गंगासागर जैसे देश के तटीय क्षेत्रों का तेजी से क्षरण हो रहा है, क्योंकि हिमालय से आने वाली मिट्टी टिहरी जैसे बांधों से रुक रही है। पनबिजली के लिए बनाए गए बांधों ने मछलियों के रास्तों को रोक दिया है। गंगा द्वारा बदरीनाथ और केदारनाथ से लाई जा रही आध्यात्मिक ऊर्जा का क्षरण पनबिजली टरबाइनों मे हो रहा है।तापीय, परमाणु और पनबिजली के ऊंचे और लगातार बढ़ते दाम के कारण बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए सौर बिजली को शामिल करना बेहद जरूरी हो चला है। साथ ही पनबिजली को लेकर आ रही पर्यावरणीय समस्याओं को देखते हुए उससे किनारा भी करना होगा। इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति सौर ऊर्जा के साथ पंप स्टोरेज को अपनाकर की जा सकती है। पंप स्टोरेज योजना पनबिजली का बदला हुआ रूप है। पनबिजली नदी के पानी को रोककर उसके वेग को टरबाइन पर डालकर बनाई जाती है। नदी के स्वाभाविक ढलान का उपयोग बिजली उत्पादन में किया जाता है। टरबाइन से निकाले पानी को वापस पंप से ऊपर के तालाब में डाल दिया जाता है। जिस समय बेस बिजली का उत्पादन पर्याप्त होता है और मांग कम होती है उस समय बिजली का दाम लगभग दो रुपये प्रति यूनिट होता है। इस बिजली को खरीदकर नीचे के पानी को ऊपर झील में डाल दिया जाता है। फिर जिस वक्त बिजली की मांग अधिक होती है और दाम लगभग 10 रुपये होता है तब उस पानी को पुन: टरबाइन में डालकर बिजली बना ली जाती है जैसे आयुर्वेदिक उपचार में शिरोधरा के तेल को नीचे के बर्तन से उठाकर ऊपर के बर्तन में डाला जाता है और उसका पुन: उपयोग किया जाता है उसी प्रकार बेस बिजली को पीकिंग बिजली में परिवर्तित कर लिया जाता है। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के अध्यक्ष के अनुसार बिजली के ऐसे रूपांतरण में केवल 40 पैसे प्रति यूनिट का खर्च आता है। लिहाजा दो रुपये में बेस लोड को खरीदकर मात्र 40 पैसे मे इसे पीकिंग लोड में परिवर्तित कर 10 रुपये में बेचा जा सकता है। यही कारण है कि सरकार पंप स्टोरेज योजनाओं को बढ़ावा दे रही है। पंप स्टोरेज योजनाओं में समस्या यह है पनबिजली परियोजना के पर्यावरणीय दुष्प्रभावों की। इसका उपाय है कि नदी को छोड़कर अन्य स्थानों पर स्वतंत्र पंप स्टोरेज योजना बनाई जाए। जैसे पहाड़ के ऊपर और नीचे नदी के पाट को छोड़कर दो कृत्रिम तालाब बनाए जा सकते है। दिन के समय जब सौर बिजली उपलब्ध हो तो नीचे से पानी को ऊपर पंप किया जा सकता है और पीकिंग बिजली की जरूरत के समय ऊपर के तालाब से पानी छोड़ कर बिजली बनाई जा सकती है। ऐसा करने से सौर बिजली को पीकिंग बिजली में बिना नदी को बर्बाद किए परिवर्तित किया जा सकता है।

वर्तमान मे पनबिजली बनाने का खर्च लगभग छह रुपये प्रति यूनिट आ रहा है। देश में पनबिजली परियोजनाओं द्वारा लगभग 80 प्रतिशत बिजली वर्षा के समय बनाई जाती है। बांध और टरबाइन में किया गया निवेश साल में आठ महीने व्यर्थ पड़ा रहता है। स्वतंत्र पंप स्टोरेज परियोजना को साल के 12 महीने बराबर चलाया जा सकता है। इसलिए इसमें किया गया निवेश पूरे साल काम आएगा। मेरा अनुमान है कि स्वतंत्र पंप स्टोरेज योजना से बिजली उत्पादन का खर्च केवल तीन रुपये प्रति यूनिट आएगा। सौर उर्जा का खर्च तीन रुपये मान लें तो स्वतंत्र पंप स्टोरेज के साथ पीकिंग बिजली का सम्मिलित खर्च छह रुपये आएगा। तापीय और परमाणु उर्जा द्वारा उत्पादित बेस उर्जा का लगभग यही दाम आता है। इसी दाम पर हमें पीकिंग उर्जा उपलब्ध हो सकती है। सौर बिजली उत्पादन में कार्बन उत्सर्जन नहीं होता है। इस प्रकार हम नदियों को बचाए रखते हुए साफ पीकिंग बिजली उत्पादित कर सकते है।पीकिंग बिजली की मांग कम करने के भी प्रयास करने चाहिए। विकसित देशों में दिन के समय के अनुसार बिजली के दाम में परिवर्तन किया जाता है। बिजली के मीटर में व्यवस्था होती है कि अलग-अलग समय पर उपयोग की गई बिजली की अलग-अलग गणना करे। जैसे सुबह और शाम में बिजली का दाम 10 रुपये, दिन मे छह रुपये और रात मे तीन रुपये कर दिया जाए तो उपभोक्ता का प्रयास होगा कि गरम पानी के गीजर आदि का उपयोग रात में अधिक करें। उद्योगों का प्रयास होगा कि दिन के स्थान पर रात में उत्पादन करें जिस समय बिजली के दाम कम होते हैं। पीकिंग बिजली की मांग कम हो जाएगी तो स्वतंत्र पंप स्टोरेज योजनाओं की आवश्यकता भी स्वत: कम हो जाएगी। सौर बिजली के घटते दाम एक सुखद उपलब्धि है। तापीय और परमाणु बिजली के उत्पादन के लिए कोयले और यूरेनियम के आयात पर हमारी निर्भरता को सौर बिजली कम कर सकती है। इसे स्वतंत्र पंप स्टोरेज के साथ जोड़ने से हम अपनी ऊर्जा की जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। कोयले और परमाणु ईंधन के आयात पर भी हम निर्भर नही रहेंगे और हमारी उर्जा सुरक्षा स्थापित होगी। स्वतंत्र पंप स्टोरेज बनाने से हमारी नदियां, पर्यावरण और संस्कृति की भी रक्षा होगी।

डॉ. भरत झुनझुनवाला [ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर है ] 


Date:23-05-17

Gandhi, The Economist

His idea of trusteeship needs to be revisited in times of growing inequality

 The “Gandhi Conclave” in Patna on April 10 and 11 commemorated the centenary of Gandhi’s visit to Bihar in 1917 in connection with the Champaran Satyagraha, which, for the first time, lent a mass character to the Congress-led freedom movement in the country. At a time when the country is enveloped by clouds of helplessness, the conclave underlined how Gandhian strategy has a non-violent solution for almost every problem confronting the world.

Two conclusions can be drawn if one approaches Gandhism in a simple manner. One, Gandhi appears compulsively antediluvian; two, he was not bound by standard frameworks. The period when he wrote Hind Swaraj was probably Gandhi’s most negative phase, though the text should be treated as a critique of India’s de-industrialisation by colonialism. From 1919, after the successful Champaran Satyagraha, Gandhi scripted the Swadeshi Movement which gave a foundation to domestic industrialisation. He was possibly the first Indian to underline that the development and emancipation of the country required concurrent dialogues with the colonial state, civil society, the market and corporate sector.

Apart from the Patna conclave, two books I read inspired me to revisit Gandhi’s philosophy, specially its economic dimension — How the Other Half Dies: The Real Reason For World’s Hunger by Susan George and Rich People’s Movements: Grassroots Campaigns To Untax The One Percent by Isaac William Martin. George makes three seminal points: One, the Third World War will be over water; two, the consumption of cereals by pets in the First World is higher than by human beings in the Third World; three, four Earths would be required if the Third World emulates the First World’s consumption pattern.

Martin’s book is about the counter movement of the rich for tax holidays and their demand of removing all financial fetters. He writes on the “tax day, April 15, 2010 hundreds of thousands of Americans turned out to rallies around the United States to protest against taxes and big Government… offered forthright defense of capitalists and the rich using grassroots tactics of the poor”.I revisited two basic Gandhian economic principles after reading the two books. One, the limitation of wants: No maximisation technique is enough to satisfy unlimited wants, and social interest outweighs self-interest. Production should be mindful of the earth’s capacity. The unbridled use of natural resources will lead the world towards disaster, as prophesised by George. Two, the concept of “trusteeship”: With the idea of market-centric development under mammoth multinationals assuming hegemonic proportions, there is a need to appreciate this concept.

Even though Gandhi promoted Indian capitalism as a spin-off of the Swadeshi Movement, he was aware of the monstrous consequences of capitalism. Just before his assassination, Gandhi finalised the “practical trusteeship formula”, which would have transformed the “present capitalist order of society into an egalitarian one (in which) an individual will not be free to hold or use wealth for selfish satisfaction”.

Liaquat Ali Khan, the finance minister of the interim government in 1946 under the premiership of Jawaharlal Nehru, held similar views. He not only introduced 91 per cent income tax in the maiden budget of the interim government, but also instituted a commission to investigate ill-gotten accumulation during WW II. G.D. Birla, who was in the visitor’s gallery of Parliament when the budget was presented, not only walked out but organised fortnightly strikes of the stock exchange in protest. India’s top industrialist and closest comrades of Gandhi rallied to demand Khan’s ouster from the cabinet.Partition and Gandhi’s assassination meant that the principle of trusteeship and equity-centric taxation never got full play. Today, we pride ourselves on having the third highest numbers of billionaires when we also have the highest number of poor in the world. The “Gandhi Conclave”, I hope, will bring back Gandhi’s ideals on the centrestage, nationally and globally. Unless the counter movement of the rich is stalled, the world won’t have authentic economic democratisation.

The writer is member secretary, Asian Development Research Institute (ADRI), Patna

Date:23-05-17

साइबर खतरे का संसार

दुनिया अब भी रैंसमवेयर वायरस ‘वॉनाक्राई’ के हमले से उबर नहीं पाई है। इसी बीच भविष्यवाणी हो रही थी कि और भी साइबर हमले होंगे और यह सच साबित हुई। नया साइबर हमला विश्व को कितना प्रभावित करेगा, इसका अंदाजा लगाने के लिए पहले ब्रॉनाकाई रैंसमवेयर की साइबर विनाशलीला को समझना होगा। डेढ़ सौ देशों के कम से कम तीन लाख कंप्यूटर बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। सुरक्षा सॉफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी क्विक हील के अनुसार, भारत में वॉनाक्राई रैंसमवेयर के अड़तालीस हजार से ज्यादा मामले पाए गए हैं, जहां साठ फीसद हमले उद्योगों पर तथा चालीस फीसद व्यक्तिगत ग्राहकों पर हुए हैं। बीते गुरुवार को आॅनलाइन फूड डिलीवरी कंपनी जोमेटो पर भी साइबर हमले की बात सामने आई। इस वायरस से महाराष्ट्र एटीएस के वरिष्ठ आइपीएस अधिकारियों के कंप्यूटर भी नहीं बच पाए। वहीं आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर के भी दर्जनों कंप्यूटर इसके चपेटे में आए। रैंसमवेयर वायरस ने ओड़िशा के एक सरकारी अस्पताल के कंप्यूटरों को भी चपेटे में लेकर तीन सौ करोड़ फिरौती की मांग की। वैश्विक तौर पर ब्रिटेन की स्वास्थ्य सेवा, जापान के उद्योग जगत तथा रूस की बैंकिंग व्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचा। चीन, रूस, स्पेन, इटली, विएतनाम जैसे देश भी बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं।

नया वायरस वॉनाक्राई से काफी ज्यादा खतरनाक है। एक ग्लोबल साइबर सिक्योरिटी फर्म के अनुसार, नया वायरस भी उन्हीं खामियों का लाभ उठाता है जिनके माध्यम से वॉनाक्राई रैंसमवेयर हमला कर रहा है। इस नए वायरस का नाम ‘एडिलकुज्ज’ है, जिसे सामान्य बोलचाल में ‘वानाक्राई रैंसमवेयर का पिता’ कहा जा रहा है जो अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है। ग्लोबल सिक्योरिटी फर्म ‘प्रूफपॉइंट’ के एक शोधकर्ता ने पाया कि वॉनाक्राई हमले के साथ एक और वाइरस हमला हुआ है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एनएसए ने जिन हैंकिंग टूल्स की पहचान की है, यह वायरस उन्हीं को इस्तमाल करता है। नए वायरस एडिलकुज्ज की काफी विशेषताएं वॉनाक्राई से मिलती-जुलती हैं, लेकिन इसके हमले की गहनता ज्यादा है। यह अत्यंत खामोशी और धीमी गति से अपने हमले को अंजाम देता है। इसका मकसद भी वॉनाक्राई रैंसमवेयर से अलग है। यह वायरस आभासी मुद्रा मोनिरो की माइन को प्रभावित करता है और सारी करंसी को वायरस बनाने वालों के पास ट्रांसफर कर देता है। स्पष्ट है कि एडिलकुज्ज आपसे सीधे पैसे ले लेता है, इसे फिरौती मांगने की भी जरूरत नहीं पड़ती, जबकि वॉनाक्राई रैंसमवेयर आपके डाटा को चोरी कर आपसे फिरौती मांगता है। अब प्रश्न उठता है कि यह मोनिरो करेंसी और उसका माइन क्या है।
मोनिरो, बिटकॉइन आदि ओपेन पेमेंट नेटवर्क करेंसी है। यह अनोखी और नई आभासी मुद्रा है। मोनिरो को क्रिप्टोकरेंसी भी कहते हैं। मोनिरो भी बिटकॉइन की तरह ब्लॉकचेन मेथड का प्रयोग करती है। यह शृंखला पूरी तरह से खंगाली जा सकती है। मगर इस शृंखला को जिस ‘डार्क वेब’ पर ब्राउज किया जाता है उसे ट्रैक करना काफी कठिन है। इन सब कारणों से बिटकॉइन और मोनिरो जैसी मुद्राएं गोपनीय भी रहती हैं।

मोनिरो को इंटरनेट पर बिटकॉइन से भी काफी सुरक्षित आभासी मुद्रा माना जाता है। पर जिस नए वायरस एडिलकुज्ज का हमला हुआ है, वह मोनिरो के इस सुरक्षा दुर्ग को भी तोड़ दे रहा है। बिटकॉइन, मोनिरो जैसी मुद्राएं आसानी से विश्व में कहीं भी बिना किसी मध्यस्थ (बैंक) के लेन-देन (ट्रांजैक्शन) के लिए प्रसिद्ध हैं। इन मुद्राओं का निर्माण जटिल कंप्यूटर एल्गोरिथ्म और कंप्यूटर पावर से होता है, जिसे माइनिंग कहते हैं। चूंकि यह करंसी सिर्फकोड में होती हैं, इसलिए न इसे जब्त किया जा सकता है और न ही इसके बारे में सामान्य रूप से पता लगाया जा सकता है। इन वर्चुअल क्रिप्टोकरेंसी को खरीदने के लिए यूजर को 27-24 अंकों के कोड का पता दिया जाता है। इन वर्चुअल पतों का कोई रजिस्टर नहीं होता। ऐसे में इन मुद्राओं को रखने वालों की पहचान गुप्त रहती है। प्रारंभ में इन मुद्राओं का लक्ष्य डिजिटल करंसी बनाना नहीं था, बल्कि मुख्य लक्ष्य था पैसे का लेन-देन बिना तीसरे पक्ष (थर्ड पार्टी) के संपन्न करना।

मोनिरो, बिटकॉइन आदि मुद्राओं का संचालन कंप्यूटरों के विकेंद्रीकृत नेटवर्क से किया जाता है जहां न तो लेन-देन करने वालों की व्यक्तिगत जानकारियां होती हैं और न ही दोतरफा नेटवर्क। क्रेडिट कार्ड, बैंक ट्रांजैक्शन के विपरीत इसमें होने वाले ट्रांजैक्शन को वापस नहीं लिया जा सकता, अर्थात वन वे ट्रैफिक है। वहीं क्रेडिट कार्ड, बैंक ट्रांसफर आदि में पैसे कहां भेजे जा रहे हैं, यह आसानी से जाना जा सकता है। जबकि आभासी मुद्रा के जरिए होने वाले लेन-देन के बारे में जान पाना मुश्किल है और यह हैकरों से भी सुरक्षित है, लेकिन एडिलकुज्ज वायरस ने इन सभी दावों को गलत साबित कर दिया है।इन मुद्राओं का अर्थशास्त्र परंपरागत मुद्रा से पूरी तरह अलग है। परंपरागत मुद्रा को किसी केंद्रीय बैंक का समर्थन होता है, जबकि इसे किसी बैंक का समर्थन नहीं है। इसकी आपूर्ति ‘माइनिंग’ के द्वारा होती है, जो मूलत: इसके व्यवस्था निर्माण से ही संबद्ध है। एडिलकुज्ज का मोनिरो करेंसी पर हमला इसी माइनिंग के चरण में हुआ। कुछ उपयोगकर्ता अपने कंप्यूटर से पीयर टु पीयर नेटवर्क में लेन-देन की पुष्टि के लिए काम करते हैं। ये उपयोगकर्ता जितनी ज्यादा कंप्यूटिंग शक्ति से नेटवर्क में योगदान करते हैं, उसी अनुपात में उन्हें नए मोनिरो मिलते हैं। पर यह प्रक्रिया अत्यंत जटिल होती है। इस कारण इन मुद्राओं की आपूर्ति, मांग की तुलना में काफी कम होती है, जिससे मोनिरो तथा बिटकॉइन का मूल्य निरंतर अप्रत्याशित तरीके से बढ़ता जा रहा है।

एडिलकुज्ज का हमला होने पर विडोंज रिसोर्सेस को एक्सेस मिलने में कठिनाई होती है, साथ ही सर्वर और अन्य प्रणालियों की परफॉरमेंस घट जाती है। इन संकेतों को बहुत-से कंप्यूटर यूजर्स तुरंत नोटिस कर सकते हैं। यह चुपके से काम करता है, इसलिए एडिलकुज्ज-हमला साइबर अपराधियों के लिए बहुत ही फायदेमंद है। यह संक्रमित प्रयोगकर्ता से चुपके से पैसे कमाता रहता है। ‘प्रूफपाइंट’ का कहना है कि उसने ऐसी मशीनों की पहचान की है जिनसे हजारों डॉलर के मोनिरो इस वायरस को बनाने वालों के पास भेजे गए हैं। इस वैश्विक साइबर हमले की जड़ें अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) से जुड़ी रही हैं। एनएसए के ही लिक्ड टूल ‘इंटर्नल ब्लू’ का प्रयोग वॉनाक्राई रैंसमवेयर में था और इसमें भी। इसे अमेरिका ने आतंकियों और दुश्मनों पर हमला करने के लिए बनाया था। इस हैंकिंग टूल को शैडो ब्रदर्स नामक समूह ने लीक कर दिया था। एडिलकुज्ज हमले में इस्तेमाल हुए वायरस के कुछ हिस्से भी इस लीक से मिलते-जुलते थे। अप्रैल 2016 में इस टूल ‘इंटर्नल ब्लू’ को शैडो ब्रदर्स ने एनएसए से जुड़े एक समूह ‘इक्वेशन ग्रुप’ से हैक कर चुराया था। 2016 में ही दुनिया को पहली बार अमेरिकी एनएसए और ‘इक्वेशन ग्रुप’ के अति गोपनीय रिश्ते का पता चला था। मूलत:अमेरिका की असावधानियों के कारण ही आज पूरे विश्व को इन साइबर हमलों का संकट झेलना पड़ा है। अन्य देशों की साइबर सुरक्षा संबंधी उदासीनता भी इसकी वजह रही। भारत में तो बिटकॉइन और मोनिरो जैसी मुद्राएं ज्यादा प्रचलन में नहीं हैं। पर यहां भी बिटकॉइन की लोकप्रियता बढ़ रही है। रिजर्व बैंक की चेतावनी के बावजूद हर रोज ढाई हजार से ज्यादा लोग बिटकॉइन में पैसा लगा रहे हैं। सरकार ने इसी साल मार्च में कहा था कि बिटकॉइन में पैसा डालना अवैध है। इसके बावजूद भारत में बिटकॉइन वॉलेट डाउनलोड करने वालों की संख्या पांच लाख तक पहुंच गई है। इन्हें एडिलकुज्ज कभी भी कंगाल बना सकता है। यही नहीं, यह मोबाइल वॉलेट और इंटरनेट बैंकिंग को भी बुरी तरह प्रभावित कर सकता है।