23-12-2019 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Net loss
Disruption of connectivity should be resorted to only in the face of specific threats
EDITORIAL
The shutting down of the Internet in Delhi and several States as a response to growing protests against the Citizenship (Amendment) Act (CAA), 2019, is unsophisticated and deeply damaging to social life and the economy. Meghalaya, Tripura and Arunachal Pradesh were entirely cut off, and parts of Assam, West Bengal, Karnataka and Uttar Pradesh were deprived of Internet access, in clumsy attempts to quell demonstrations. Such ham-handed interventions have won for India a place at the head of the table among intolerant countries that routinely shut down the Internet to block criticism of the government. Jammu and Kashmir is now acknowledged globally as a dark spot on the Internet, with service there blocked since August 4. After protests against the CAA began, other States are also experiencing shutdowns, and the fate of connectivity is being decided by officers empowered by the Temporary Suspension of Telecom Services (Public Emergency or Public Safety) Rules, 2017 under the Indian Telegraph Act, 1885, or Section 144 of the Code of Criminal Procedure. A disruption is an extreme measure, and should be countenanced only for a specific threat, and as an interim measure as official communications fill the information vacuum. A case in point is the spreading of rumours on child lifters on social media, which resulted in several lynchings. The net blackout of the kind being witnessed now, however, has little to do with rumours, and is clearly aimed at muzzling the protests.
The Prime Minister, who has fashioned himself as a digital first leader, issued a Twitter appeal to people in Assam on the CAA, but they did not get it as they had no net. The NDA government should also be aware that the connectivity chokehold applied on J&K is proving lethal to entrepreneurship, crippling a new generation running start-ups and promoting women’s employment. A disrupted Internet is dealing a blow to digital financial transactions across several States, to e-governance initiatives, and economic productivity. It affects education and skill-building, as the Kerala High Court affirmed in an order holding access to the net a fundamental right that could not be denied arbitrarily. The court pointed out that the apprehension of a gadget being misused is not a legitimate ground for denial of service, and the government should act on specific complaints. Yet, since 2015, shutdowns have been rising — 134 in 2018 — and the NDA seems unwilling to change course. It seems to matter little that blunt interventions make the ambitious goal of growing into a $5-trillion economy even more unrealistic, or that India is losing face as a democracy because it chooses to sit with authoritarian regimes. That is the wrong road to take. Reform and progress vitally need the net.
ब्लैकमेलिंग नहीं है आरटीआई
अंजलि भारद्वाज
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक सूचना के अधिकार (आरटीआई) पर याचिका की सुनवाई करते हुए यह चिंता व्यक्त की कि कहीं सूचना के अधिकार कानून का दुरुपयोग तो नहीं हो रहा? खंडपीठ ने यह भी कहा कि सूचना के अधिकार की याचिकाओं के चलते सरकारी अधिकारियों में एक भय का माहौल उत्पन्न हो गया है। वो निर्णय लेने से हिचकिचाते हैं और यह सरकार के कामकाज को गतिहीन बनाते हैं।
वैसे तो ये सारी बातें केवल मौखिक रूप से कोर्ट में कही गई है और न्यायाधीशों द्वारा लिखित रूप से इनका कोई उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन यह टिप्पणी सूचना के अधिकारों का इस्तेमाल करने वालों के लिए चिंता का विषय है। सूचना का अधिकार कानून तो 2005 में पारित हुआ, उसे देश के करोड़ों नागरिकों ने अपनाया है और जमकर इस्तेमाल किया है। इस कानून ने लोगों को इतना सशक्त बनाया है कि वो कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका से सूचनाएं लेकर उन्हें जवाबदेह बना सकें। एक सव्रेक्षण के मुताबिक देश में हर साल 60 लाख आरटीआई आवेदन लगाए जाते हैं, जिससे लोग अपने मौलिक अधिकारों-राशन, पेंशन, शिक्षा, स्वास्य सेवाएं, पानी, सड़क आदि से संबंधित सूचनाएं हासिल करते हैं। साथ ही आरटीआई कानून का व्यापक इस्तेमाल देश में भ्रष्टाचार, मानव अधिकारों का हनन और सत्ता के दुरुपयोग को उजागर करने के लिए किया जाता है। लोगों ने इस कानून का सहारा लेकर देश के सबसे बड़े संस्थान (सर्वोच्च न्यायालय) को भी जवाबदेह बनाया है। शायद यही कारण है कि लगातार आरटीआई कानून पर प्रहार भी हुआ है। सरकारों का यह निरंतर प्रयास रहा है कि सूचना आयोग जिनका काम है कि वो सूचना के अधिकार कानून का सही से क्रियान्वयन कराएं, उन्हें कमजोर कर दिया गया है।
2014 से भाजपा सरकार ने केंद्रीय सूचना आयोग में एक भी आयुक्त की नियुक्ति नहीं की है, जब तक लोगों ने कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया। मौजूदा स्थिति यह है कि केंद्रीय सूचना आयोग में आयुक्तों के 11 में से 4 पद खाली पड़े हैं। और 33 हजार मामले लंबित हैं। इसके कारण लोगों को बहुत लंबे समय तक अपनी अपील और शिकायतों की सुनवाई का इंतजार करना पड़ता है और सूचना मिलने में सालों लग जाते हैं। यह हाल कई राज्य सूचना आयोगों में भी है। एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए फरवरी 2019 में अदालत ने केंद्र और सूचना आयोगों में तुरंत आयुक्तों की नियुक्तियां पारदर्शी तरीके से की जाए, जिससे कि लोगों के सूचना के अधिकार का इस्तेमाल समयबद्ध तरीके से कर सकें। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का उल्लंघन होने पर याचिका कोर्ट में दर्ज की गई, जिसकी सुनवाई में आश्र्चयजनक तरीके से अदालत ने सूचना के अधिकार के दुरुपयोग की आशंका होने पर टिप्पणी की। हालांकि ऐसा होने का कोई ठोस तय सामने नहीं आया। बल्कि दिसम्बर 2018 में एक सवाल के जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री जितेंद्र सिंह ने लिखित में संसद में जवाब दिया कि आरटीआई के दुरुपयोग का कोई प्रमाण सरकार के पास नहीं है।
साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इस कानून में ऐसे सुरक्षा उपाय हैं, जिससे कि कोई भी शख्स या अपीलकर्ता किसी की निजी जानकारी या देश के खिलाफ सूचनाएं हासिल कतई नहीं कर सकते हैं। इतना ही नहीं हाल ही में हुई केंद्रीय सूचना आयोग की कन्वेंशन में गृहमंत्री अमित शाह ने अक्टूबर 2019 में यह कहा कि सूचना का अधिकार कानून ने देश के लोगों को और लोकतंत्र को सशक्त किया है और कानून का दुरुपयोग नहीं देखने को मिला है। कोर्ट ने यह भी चिंता जाहिर की थी कि लोग आरटीआई का इस्तेमाल करके अधिकारियों को ब्लैकमेल करते हैं। इस कानून के चलते कुछ विपरीत प्रभाव भी पड़े हैं, जिससे नौकरशाहों को फैसले लेने में डर लगता है। आरटीआई कानून के तहत लोग केवल वही सूचना हासिल कर सकते हैं, जो सरकारी दस्तावेजों में लिखित हैं। कोई भी नौकरशाह ब्लैकमेल तभी हो सकता है जब अधिकारी अपनी ताकत का दुरुपयोग करे। आरटीआई से डर तो केवल उन्हीं अधिकारियों को हो सकता है, जो भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और अवैध कामों को प्रश्रय देते हैं। इसीलिए यह स्पष्ट नहीं है कि कोर्ट ने इस तरह की टिप्पणी क्यों दी? और इससे आरटीआई के क्रियान्वयन पर सवालिया निशान उठ सकते हैं। यह इसलिए भी आश्र्चयजनक है कि हाल ही में भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) के दफ्तर को सूचना के अधिकार कानून के तहत लाया गया है। और 5 न्यायाधीशों की खंडपीठ ने यह स्पष्ट रूप से कहा कि सूचना का अधिकार लोगों का मौलिक अधिकार है, जो लोकतंत्र को मजबूत करता है और पारदर्शित से जवाबदेही बनती है।
आरटीआई इस्तेमाल करने वाले लोग या कार्यकर्ता (एक्टिविस्ट), जो जनहित में सूचना निकालकर इस्तेमाल करते हैं, उनपर लगातार प्रहार होता रहा है। वो चाहे असम में नंदी सिंह हों जिन्होंने राशन पण्राली में भ्रष्टाचार को उजागर किया था, जिसके चलते उनकी हत्या कर दी गई थी या गुजरात के अमित जेठवा थे जिन्होंने अवैध खनन के खिलाफ ढेर सारा खुलासा किया था। उनकी भी हत्या कर दी गई।
कहने का आशय यह है कि जिस कानून के दम पर आरटीआई एक्टिविस्ट सरकार और भ्रष्ट नौकरशाहों के मामलों को उजागर करती रही है, अगर उनके लिए कोर्ट की टिप्पणी अवरोधक बनेगी तो यह देश और समाज के लिए अच्छा नहीं रहेगा। इसीलिए उपरोक्त संदभरे को ध्यान में रखने की जरूरत है। इस कानून को कमजोर बनाने के जो आरोप लगते रहे हैं, उस धुंध को भी साफ करने की जिम्मेदारी हर किसी की बनती है। स्वाभाविक रूप से अदालत की टिप्पणी कई तयों को परखने के बाद आई है, लिहाजा इसे बेहतर, पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के लिए सभी को आगे आना होगा। आरटीआई कार्यकर्ताओं को भी इसे संजीदगी से लेने की जरूरत है। जरूरत सूचना के अधिकार को मजबूत बनाने की, और इस दिशा में आगे बढ़ने की है। जब ऐसा होगा तभी हमारा लोकतंत्र और ज्यादा परिपक्व होगा।
क्यों नाराज हैं हमारे वैज्ञानिक
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार
नागरिकता संशोधन विधेयक (अब कानून) के खिलाफ खूब प्रदर्शन हो रहे हैं, अभी और होंगे। यह कानून संविधान के हृदय पर चोट है और यह भारत को अलग तरह का देश बनाता दिख रहा है। यह स्वाभाविक है कि विभिन्न वर्गों के काफी सारे लोगों ने इसके विरुद्ध आवाज बुलंद कर दी है। विरोध में उन भारतीय वैज्ञानिकों की आवाज भी शामिल है, जिन्हें आमतौर पर जनहित के मामलों में सामूहिक विरोध अभियानों के लिए नहीं जाना जाता। हमारे प्रमुख अकादमिक संस्थानों से जुड़े कुछ हजार विज्ञान शिक्षकों और शोध छात्रों ने तब एक याचिका पर हस्ताक्षर किया, जब संबंधित विधेयक संसद में पेश किया जा रहा था। इस याचिका में लिखा है, ‘हमें डर है, विशेष रूप से मुसलमानों को कानून के दायरे से बाहर रखना देश के बहुलतावादी ढांचे पर वार करेगा।’
वैज्ञानिकों ने इसे तत्काल वापस लेने और इसकी जगह एक ऐसा उचित कानून लाने का अनुरोध किया है, जो कोई धार्मिक भेदभाव न करते हुए शरणार्थियों व अल्पसंख्यकों की चिंताओं को दूर करता हो। इस याचिका (या अनुरोध) पर हस्ताक्षर करने वालों में दुनिया की सबसे सम्मानित वैज्ञानिक संस्था रॉयल सोसायटी के अनेक सदस्य शामिल हैं। हस्ताक्षर करने वालों में देश के चंद विश्वस्तरीय शोध संस्थानों के निदेशक और सभी आईआईटी के प्रोफेसर व पीएचडी स्कॉलर भी हैं।
मैं इतिहासकार हूं, लेकिन मैं वैज्ञानिकों के परिवार से हूं। अपने शोध जीवन में मुझे भी 35 वर्ष से ज्यादा समय तक भारतीय विज्ञान के कुछ बेहतरीन दिमागों के साथ काम करने का मौका मिला है। अपने इसी अनुभव से मैं यह बोल सकता हूं कि वैज्ञानिकों की यह याचिका अप्रत्याशित है। ये जेएनयू के झोला वाले या मानवाधिकार कार्यकर्ता या वामपंथी रुझान वाले सृजनशील कलाकार नहीं हैं, जो बिना नागा हस्ताक्षर अभियान चलाते और उसमें भाग लेते हैं। इतने वैज्ञानिकों का एक कानून के विरोध में साथ आना वास्तव में बहुत चौंकाता है।
विशेष रूप से, हस्ताक्षर करने वालों को एक ऐसी विभूति का भी समर्थन मिला है, जो भारतीय मूल के सबसे प्रतिष्ठित जीवित वैज्ञानिक हैं, नोबेल पुरस्कार विजेता वेंकटरमन (वेंकी) रामकृष्णन। वह बताते हैं कि धर्म पर आधारित भेदभाव विज्ञान के साथ-साथ समाज के लिए भी बुरा है। वह एक ऐसा वातावरण चाहते हैं, ‘जिसमें हर कोई बिना भेदभाव अपनी प्रतिभा से पहचाना जाए, क्योंकि विज्ञान तभी सबसे अच्छा काम करता है, जब सभी सक्षम लोगों को योगदान का अवसर दिया जाता है।’ प्रोफेसर रामकृष्णन अब हर साल भारत आने लगे हैं, पूरे देश में वह व्याख्यान व सम्मेलन के लिए जाते हैं, हर उम्र व पृष्ठभूमि के भारतीयों से बात करते हैं। अपने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर वह कहते हैं, ‘भारत में युवा बहुत ही उद्यमी हैं, कठिन हालात में भी कुछ करने की कोशिश करते हैं, और हम नहीं चाहते कि वे देश के अंदर किसी तरह के विभाजन की वजह से देश-निर्माण के अभियान से भटक जाएं।’ वह कहते हैं, ‘मैं हमेशा सोचता हूं कि भारत एक महान सहिष्णु आदर्श का प्रतिनिधित्व करे और मैं इसे कामयाब देखना चाहता हूं।’
आज अमेरिका के पास सबसे अच्छा वैज्ञानिक बुनियादी ढांचा है, पहले ऐसा ही ढांचा जर्मनी में था। टेलीग्राफ को दिए अपने साक्षात्कार में रामकृष्णन ने कहा है, ‘जिन देशों की विचारधारा विज्ञान पर हावी है, वे अपने विज्ञान को नष्ट कर रहे हैं। जर्मन विज्ञान को हिटलर से उबरने में 50 साल लग गए।’ वह अपनी बात में यह जोड़ सकते थे कि जर्मनी के नुकसान से अमेरिका फायदे में रहा। हिटलर की नीतियों के कारण कई बेहतरीन जर्मन वैज्ञानिक अमेरिका चले गए।
विज्ञान के फलने-फूलने के लिए वास्तव में देश के पास मजबूत आर्थिक आधार होना चाहिए। विज्ञान को सरकार से समर्थन मिलना चाहिए और राजनीतिक परिवेश से लोकतंत्र व बहुलतावाद को बढ़ावा मिलना चाहिए। अमेरिका के पास ये तीनों चीजें भरपूर हैं, लेकिन भारत अभी इन तीनों के लिए संघर्षरत है। मोदी सरकार की नीतियों के कारण आर्थिक विकास रुक रहा है। यह सरकार बौद्धिकता विरोधी है। ऐसे समय में, भारतीय वैज्ञानिकों ने सामूहिक विरोध का अपूर्व कदम उठाया है।
1970 के दशक में भारतीय विज्ञान चीनी विज्ञान से बहुत आगे था, लेकिन आज बहुत पीछे है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि चीनी अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से विकसित हुई। चीन की सरकार ने आधुनिक विज्ञान शोध को खूब बढ़ावा दिया। जैसे लोगों को भारत में विज्ञान की बागडोर थमाई जाती है, वैसे लोगों को शी जिनपिंग कभी नियुक्त नहीं करते। 21वीं सदी में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी भी यह समझती है कि किसी देश का आर्थिक और राजनीतिक भविष्य उसके वैज्ञानिक संस्थानों की गुणवत्ता व स्वायत्तता पर निर्भर है। अधिनायकवाद वैज्ञानिक शोध के लिए बुरा है, पर कट्टरता उससे भी बुरी है। भारतीय अर्थव्यवस्था व विज्ञान तब तक अपनी क्षमताओं पर खरे नहीं उतरेंगे, जब तक हमारे राजनेता यह यकीन करते रहेंगे कि हिंदुओं ने ही सारे आविष्कार किए हैं।
1950 और 1960 के दशक में विदेश से प्रशिक्षित होकर अनेक वैज्ञानिक देश में काम करने के लिए लौटे, क्योंकि उन्हें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बेहतर राजनीतिक परिवेश देकर आश्वस्त किया था। उस दौर के वैज्ञानिक लौट आए, पर क्या अब उनके छात्र लौटेंगे? भारतीय युवा वैज्ञानिक आज देख रहे हैं, कोई मंत्री यह बता रहा है कि प्राचीन हिंदू टेस्ट-ट्यूब बेबी पैदा करना जानते थे, विमान बनाना और उड़ाना जानते थे। वे देख रहे हैं कि विशेषज्ञ विज्ञान समितियों की सिफारिशों को कैसे नकार दिया जाता है और कैसे-कैसे लोगों को विश्वविद्यालय का वाइस चांसलर और शोध संस्थानों का निदेशक बना दिया जाता है।
नागरिकता संशोधन कानून का एक परिणाम यह होगा कि देश में ‘ब्रेन ड्रेन’ तेज हो जाएगा। विदेश में शिक्षित-प्रशिक्षित बहुत थोडे़ वैज्ञानिक अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए लौटेंगे। भारत की हानि अमेरिका की उपलब्धि होगी। देश के भविष्य की परवाह करने वाली सरकार को भारतीय विज्ञान की सर्वश्रेष्ठ विभूतियों की बात सुननी चाहिए। क्या यह सरकार ऐसा करेगी? खैर, इतिहास वैज्ञानिकों की ओर से गवाही देगा कि जब भारत के लिए बोलने की जरूरत थी, तब वे बोले थे।