23-11-2018 (Important News Clippings)

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23 Nov 2018
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Date:23-11-18

Be Inspired By Tsinghua’s Success

ET Editorials

China’s Tsinghua University is on track to producing the most cited papers in science, technology, engineering and maths (STEM) in the next five years, overtaking MIT, which for years has had this honour. Today, the top 1% of the most cited papers in STEM are produced by universities in the US and China. While Indian science and engineering graduates have achieved much, when it comes to research citations, India is nowhere in the reckoning. This must change, as the path to prosperity lies in the creation and ownership of knowledge.

Tsinghua’s rise has been facilitated by the Chinese government’s Projects 211 and 985, which preferentially funded 155 of a total of 2,553 institutions in the country. Rather than follow the Chinese model, which focused on STEM to the exclusion of the social sciences and humanities, India must promote broad-based research excellence. Research and published works must form an important factor in professional advancement. Not only should researchers and faculty be encouraged to publish in peer-reviewed international journals but Indian institutions must create more publishing opportunities for relatively junior faculty and researchers by starting quality peer-reviewed journals.

Workload must be more rationally allocated, to create the space faculty need for research. Industry must be weaned off the belief that all the technology they need can be bought/licensed off the shelf or knocked off. Collaboration is central to improving research and publication output. Cross-institution, subject- or issue-centred networks would widen the net beyond higher education institutions to laboratories, private facilities and think tanks. The advantage of English in higher education must be leveraged. Increased interaction between academic research and policymaking would be another driver of research improvement. Knowledge creation and ownership are central to progress. If India is serious about sustained growth and development, it must turn its focus on improving the output of new knowledge from its educational institutions.


Date:23-11-18

Governors Must Not Thwart Democracy

ET Editorials

Jammu & Kashmir governor Satya Pal Malik’s decision to dissolve the state assembly on November 21 is condemnable. His diktat came within minutes of the Peoples Democratic Party (PDP) led by Mehbooba Mufti, Farooq Abdullah-led National Conference and Congress together staking claim to form a government. The J&K government has been in limbo after an alliance between the PDP and Bharatiya Janata Party (BJP) collapsed in June this year. Malik claims his action was driven by apprehensions of horse-trading among legislators.

It is beyond the governor’s brief to thwart an elected House’s prerogative to form a government, and his prejudices and preferences should not interfere with democracy. If one government falls, what should follow next is convening the House to elect a leader. If such a leader emerges with majority support, that person should be sworn in as the next chief minister. If no such figure emerges, the House should be dissolved and a new House elected as soon as possible. The office of the governor has traditionally been misused by the party ruling the Centre, which gets to appoint the governors, to shape local politics to its advantage.

This should cease. The turmoil in Srinagar mirrors the crisis that overwhelmed Congress government in Arunachal Pradesh through 2015-16, in Goa and Manipur in 2017, and in Meghalaya earlier this year. In all cases, Congress had emerged the single-largest party, but the government helped instal a BJP government. Congress has played this game in the past, when it ruled the Centre. To preserve democracy, governors must have no agency other than facilitation in forming governments after the people have chosen their representatives. Floor tests, not whims of Raj Bhavans, are the only way to settle claims to power.


Date:23-11-18

सकारात्मक बदलाव

संपादकीय

वानिकी क्षेत्र में कमजोर प्रदर्शन के अलावा वैश्विक तापवृद्घि में नियंत्रण के लिहाज से अन्य क्षेत्रों में भारत का प्रदर्शन काफी प्रभावशाली रहा है। भारत ने पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते में अपनी अर्थव्यवस्था में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 2005 के स्तर से 33 से 35 प्रतिशत कम करने की जो प्रतिबद्घता जताई थी और बिजली उत्पादन में स्वच्छ ऊर्जा की हिस्सेदारी 40 फीसदी करने की जो बात कही थी, वह उसे पूरा करने की राह पर नजर आ रहा है। भारत सरकार अगले महीने संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन समझौता ढांचे (यूएनएफसीसीसी) के समक्ष जो द्विवार्षिक रिपोर्ट पेश करने जा रही है उसमें भी कहा गया है कि ये लक्ष्य 2030 की तय मियाद के पहले भी हासिल किए जा सकते हैं। यह बात इसलिए भी उल्लेखनीय है कि क्योंकि कई विकसित देश जो भारत की तुलना में कहीं अधिक प्रदूषण फैलाते हैं और जिन्हें इस मोर्च पर अधिक काम करना चाहिए था, वे इस मामले में पीछे रह गए हैं क्योंकि उन्हें आशंका है कि इसका उनकी अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर होगा। अमेरिका तो पेरिस समझौते से बाहर निकलने पर भी विचार कर रहा है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक देश के सकल घरेलू उत्पाद में उत्सर्जन का योगदान वर्ष 2014 तक ही वर्ष 2005 के स्तर से 21 प्रतिशत तक कम हो चुका था। इससे पता चलता है कि इस क्षेत्र में सालाना 2 फीसदी से भी अधिक का सशक्त सुधार देखने को मिला है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उत्सर्जन में काफी कमी आई है और एल्युमीनियम, लोहा, इस्पात, सीमेंट और उर्वरक आदि ऊर्जा की अधिक खपत वाले क्षेत्रों में भी सुधार देखने को मिला है। स्वच्छ ऊर्जा की बात करें तो कुल बिजली में गैर जीवाश्म ईंधन से बनने वाली बिजली की हिस्सेदारी 35 फीसदी हो चुकी है। इसके लिए 40 फीसदी का लक्ष्य तय किया गया था, यानी यह पूरी तरह पहुंच में है।

बहरहाल, ध्यान देने वाली बात यह है कि देश की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्घताओं का असर केवल नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताओं से ही संबंधित नहीं है। इसमें जलविद्युत और नाभिकीय ऊर्जा समेत तमाम गैर जीवाश्म ईंधन स्रोत शामिल हैं। वर्ष 2022 तक 175 गीगावॉट नवीकरणीय ऊर्जा सौर, पवन और जैव ईंधन इकाइयों के माध्यम से जुटाने का लक्ष्य तय किया गया है। जलवायु परिवर्तन के साथ देश की लड़ाई में हम पर्यावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा कम करने में चूक गए हैं। यह काम पौधरोपण के माध्यम से किया जा सकता है। द्विवार्षिक रिपोर्ट में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक वनों के जरिये कार्बन उत्सर्जन कम करने का उपक्रम वर्ष 2010 से 2014 के बीच कम होता गया। हालांकि पौधरोपण और कृषि वानिकी में विस्तार की वजह से वन्य क्षेत्र के बाहर यह बढ़ा भी।

दुर्भाग्य की बात है कि देश के वन्य क्षेत्र को बढ़ाने के लिए खासतौर पर बनाए गए ग्रीन इंडिया मिशन को अब तक वांछित परिणाम हासिल करने में नाकामी मिली है। इसमें दो राय नहीं कि हमारा देश जमीन की कमी वाला देश है। हमारे पास वन्य क्षेत्र बढ़ाने के लिए अतिरिक्त जमीन नहीं है लेकिन ऐसा करना असंभव भी नहीं है। कटे हुए वनों को दोबारा पनपा कर और बेकार भूमि पर रोपण करके कार्बन अवशोषण की व्यवस्था की जा सकती है। इसके अलावा सौर ऊर्जा क्षेत्र भी संभावित निवेशकों के बीच अपना आकर्षण गंवा रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि सौर ऊर्जा के शुल्क में भारी गिरावट आई है और चीन से आयात होने वाले सौर उपकरणों पर शुल्क बढ़ा दिया गया है। जमीन की उपलब्धता भी इस क्षेत्र के लिए एक बड़ी समस्या है। इन मसलों को हल करना आवश्यक है। तभी जलवायु परिवर्तन से हमारी लड़ाई जारी रह सकेगी और हम इस क्षेत्र में दूसरों से आगे रह पाएंगे।


Date:22-11-18

बदलाव की जरूरत

सत्येन्द्र प्रसाद सिंह

सीबीआई के संकट ने भ्रष्टाचार विरोधी उस धारणा या मुहिम को झटका पहुंचाया है, जिसके तहत उसकी स्वायत्तता और उसके प्रमुख की निश्चित कालावधि की वकालत की जाती रही है। लेकिन मौजूदा संकट को एक व्यापक फलक पर देखने की आवश्यकता है। दो राय नहीं कि इसे सीबीआई के आंतरिक विवाद तक सीमित करके देखने का आग्रह हावी है, लेकिन यह एक व्यापक समस्या का लक्षण है। इस धारणा को पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की उस टिप्पणी से बल मिलता है कि नौकरशाही विकास में सबसे बड़ी बाधा है। इसे फिलहाल छोड़ भी दिया जाए तो भी विचार करना वांछित होगा कि क्या नौकरशी का भयंकर पैमाने पर राजनीतिकरण हो चुका है? क्या वह भारतीय गणराज्य के सामने पेश चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार है? सवाल यह भी कि वह मोदी सरकार के साथ तालमेल बिठा पा रही है, या नहीं? नहीं, तो क्यों? राष्ट्रीय विकास में अधिकारी तंत्र की भूमिका को तुच्छ नहीं कहा जा सकता लेकिन सीबीआई के मौजूदा विवाद पर जैसी राजनीति हुई, उससे संदेश गया कि नौकरशाही राजनीतिक दृष्टि से बुरी तरह विभाजित है।

इसके पहले भारतीय नौकरशाही के बारे में सामान्यत: यही माना जाता रहा है कि सरकार बदलने के बावजूद वह तटस्थ भाव से काम करती रहती है। दरअसल, यह तटस्थता कानूनी तरीके से चुनी गई किसी सरकार के प्रति निष्ठा रखने के लिए आवश्यक होती है, तो दूसरी ओर यह किसी राजनीतिक झुकाव को हतोत्साहित करती है। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही नियंतण्र स्तर पर तटस्थ अधिकारी तंत्र के सिद्धांत की आलोचना बढ़ती गई। भारत ने आजादी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हासिल की, इसलिए तटस्थ नौकरशाही की उम्मीद करना बेमानी है। भारत की नौकरशाही जिस ब्रिटिश शासन-पण्राली पर आधारित है, जिसकी खासियत तटस्थता रही है, अब वहां भी इसके प्रति संदेह प्रकट किया जाने लगा है। ब्रिटिश नौकरशाही की इस बात के लिए भी आलोचना की जाती है कि लोक कल्याणकारी राज्य की अपेक्षाओं को पूरा करने में सक्षम नहीं है। प्रगतिशील कदमों में रोड़ा अटकाने का काम करती है।

भारत की नौकरशाही पर यह बात कमोबेश लागू होती है। सामाजिक-सांस्कृतिक पर्वितनों के साथ कदम मिलाकर न चलने के कारण भी उसकी आलोचना होती है। दरअसल, उसका शिक्षण-प्रशिक्षण ही वैसा है, जो उसे समाज से काटकर रख देता है। वह जनता की आकांक्षा और महत्वाकांक्षा से उद्वेलित भी नहीं होती। इसीलिए ‘‘तटस्थ’ के बजाय प्रतिबद्ध नौकरशाही की मांग उठने लगी है। नई मान्यता के अनुसार अधिकारी वर्ग को सत्तारूढ़ दल के आधारभूत सामाजिक दर्शन के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए। भारतीय नौकरशाही तटस्थता और प्रतिबद्धता के इन्हीं दो पाटों के बीच झूलती रही है। आर्थिक उदारीकरण के दौर में इसमें और जटिलता आई है। दो राय नहीं कि भारत में अधिकारी तंत्र का राजनीतिकरण हुआ है। ऐसी परिस्थिति में राजनेताओं द्वारा सरकारी अधिकारियों के मूल्यांकन में उनकी राजनीतिक दृष्टि का खयाल रखा जाता होगा ताकि उसके साथ कामकाजी तालमेल बिठाया जा सके।

मोदी सरकार अधिकारियों की राजनीतिक दृष्टि का खयाल रखती है, या नहीं? बता पाना कठिन है, लेकिन मीडिया रिपोटरे से जाहिर है कि वह उन्हीं अधिकारियों को प्रश्रय देने की रणनीति पर चल रही है, जो उसकी अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे यानी उन्हें सरकार के हिसाब से निर्धारित समय पर टारगेट पूरा करना होगा। जाहिर है मंत्रालय में बैठकर शान-शौकत और आराम की जिंदगी की चाह रखने वाले नौकरशाह मोदी सरकार के साथ सहज नहीं रह पाएंगे। सरकार भी ऐसे नौकरशाहों से पिंड छुड़ाने में भला समझेगी। कुछ वरिष्ठ नौकरशाहों को समय-पूर्व सेवानिवृत्ति दे दी गई। नतीजतन हो यह रहा हैं कि एक तरफ आईएएस दिल्ली आने के प्रति उत्साहित नहीं हैं, तो दूसरी तरफ मंत्रालय में पहले से उनका वर्चस्व भी नहीं रहा। भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय राजस्व सेवा और भारतीय वन सेवा का मंत्रालय में प्रतिनिधित्व बढ़ा है। यही नहीं, सरकार निजी क्षेत्र की प्रतिभाओं को सीधे संयुक्त सचिव स्तर पर लाने का फैसला कर चुकी है। मोदी सरकार चुपचाप नौकरशाही को दुरु स्त करने में लगी है। ऐसे में उच्च नौकरशाही के एक हिस्से में सरकार के प्रति नापसंदगी स्वाभाविक है। ऐसे नौकरशाह अगर विपक्षी दलों की मदद करें, तो अचरज की बात नहीं। समय की मांग है कि स्थानीय परिस्थितियों के मद्देनजर भारतीय नौकरशाही का पुनर्गठन किया जाए।


Date:22-11-18

आम सहमति खत्म होने का अर्थ

नीरजा चौधरी, (वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक)

देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई (केंद्रीय जांच ब्यूरो) इन दिनों कई मोर्चों पर जूझ रही है। इसके आंतरिक भ्रष्टाचार के मामले अदालत में तो चल ही रहे हैं, अब दो राज्य की सरकारों ने ‘बिना अनुमति’ अपने यहां इसके दाखिल होने पर भी रोक लगा दी है। पहले आंध्र प्रदेश ने ऐसा किया, फिर पश्चिम बंगाल ने। सीबीआई का गठन दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टैब्लिशमेंट ऐक्ट 1946 के तहत हुआ है। इसके पास दिल्ली सहित तमाम केंद्र शासित क्षेत्रों में जांच का अधिकार है, पर यह राज्यों में राज्य सरकार की ‘आम सहमति’ से ही प्रवेश कर सकती है। बेशक बीच-बीच में राज्यों ने इस प्रावधान से अपने कदम वापस खींचे हैं, पर आमतौर पर यह ‘आम सहमति’ कायम रही है।

हालांकि दिल्ली हाईकोर्ट का एक फैसला यह भी बताता है कि अगर किसी राज्य से जुड़ा मुकदमा किसी अन्य सूबे में दर्ज है, तो सीबीआई ‘आम सहमति’ न रहने के बावजूद उस राज्य में जांच के लिए जा सकती है। पुराने मामलों की जांच को लेकर भी यही प्रावधान तय किया गया है।  बहरहाल, ‘आम सहमति’ न होने पर सीबीआई को केस-दर-केस राज्य सरकार की हामी लेनी होती है या फिर राज्य सरकार को जब जरूरत होती है, तो वह खुद सीबीआई को बुलावा भेजती है। अभी सीबीआई पर रोक लगाने वाले मुख्यमंत्रियों को लगता है कि चूंकि अब तक इसका इस्तेमाल राजनीतिक औजार के रूप में ही हुआ है, इसलिए केंद्र सरकार का विकल्प तलाशने के उनके प्रयासों को बिगाड़ने के लिए केंद्र इसका इस्तेमाल कर सकता है। सच भी यही है कि चंद्रबाबू नायडू और ममता बनर्जी ने कहीं-न-कहीं महागठबंधन बनाने की पहल की है। ऐसे में, तमाम विपक्षी नेताओं पर दबाव डालने के लिए सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियों का इस्तेमाल हो सकता है। हालांकि भाजपा ने इन आरोपों का खंडन किया है। उसका कहना है कि चूंकि इन नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं, इसलिए जनता को भ्रमित करने के लिए ऐसा किया गया है।

उल्लेखनीय है कि सारदा, नारद चिटफंड की आंच ममता बनर्जी तक पहुंच चुकी है, जबकि चंद्रबाबू नायडू विशाखापत्तनम में जगनमोहन रेड्डी की पदयात्रा पर हुए हमले के बहाने केंद्र द्वारा सीबीआई के इस्तेमाल का शक जता चुके हैं। भाजपा अब इसे चुनावी मुद्दा बनाने की बात भी कह रही है। सीबीआई का राजनीतिक इस्तेमाल अब तक की तमाम सरकारों ने किया है। 1990 के दशक से तो यह खुलकर होने लगा है। सीबीआई निदेशक का प्रधानमंत्री के कमरे में बैठना जैसी बातें उस जमाने में भी होती थीं। नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में हवाला का मामला जब सामने आया था, तब भी ऐसा ही कहा गया था। बाद में तो शीर्ष अदालत ने इसे ‘पिंजरे का तोता’ तक कह दिया, जिसे तत्कालीन सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा ने मान भी लिया। पहले जब कभी दहेज हत्या या बलात्कार का कोई बड़ा मामला सामने आता था, तो लोग सीबीआई जांच की मांग किया करते थे। इस संस्था की विश्वसनीयता तब काफी ज्यादा हुआ करती थी। लोगों को यह भरोसा हाल के वर्षों तक डिगा नहीं था। आम धारणा यही थी कि चूंकि स्थानीय पुलिस राज्य सरकार के अधीन है, इसलिए उस पर केंद्र के अधीन रहने वाली सीबीआई के मुकाबले कहीं ज्यादा दबाव डाला जा सकता है और उसकी जांच को अपने हित में प्रभावित किया जा सकता है। मगर यह सोच अब खंडित होती दिख रही है।

सीबीआई के भीतर जो घमासान मचा है, उसने भी इसकी छवि को बर्बाद किया है। बेशक अंदरूनी रस्साकशी पहले भी थी, पर इसे यूं पहली बार सार्वजनिक किया गया है। देश की सबसे प्रमुख जांच एजेंसी, जिसमें लोगों की इस कदर आस्था हो, उसमें यदि आंतरिक तनाव बढ़ जाए, उसे सुलझाने के लिए अदालत को दखल देना पड़े, और रोजाना भ्रष्टाचार के नए-नए किस्से सामने आने लगें, तो स्याह तस्वीर का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। अब तो सीबीआई की स्वायत्तता को बरकरार रखने के लिए इसे जिस केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के अधीन रखा गया था, उस पर भी उंगली उठने लगी है। यह चिंतनीय है। लोकतंत्र में इन संस्थाओं की जो भूमिका है, उसका सम्मान नहीं हो रहा। इससे हमारे संघीय ढांचे के कामकाज पर असर पड़ रहा है। तमाम संस्थाओं में कामकाज को लेकर एक नाजुक संतुलन बना होता है। सभी की अपनी-अपनी भूमिका तय होती है। अब तक तमाम खामियों के बाद भी यह संतुलन बना हुआ था, मगर अब संस्थाओं में तकरार बढ़ने लगी है। इसकी वजह कुटिल सियासत है, क्योंकि राजनीतिक विवादों ने ही इन संस्थाओं की यह गति की है।

जब सत्ता कुछ हाथों में सिमटकर रह जाती है और वे मनमानी करते हुए संस्थाओं का अपने हित में बेधड़क इस्तेमाल करने लगते हैं, तो संस्थाएं अपनी गरिमा खोने ही लगती हैं। अब एक खतरा यह भी है कि अन्य गैर-भाजपा राज्य भी आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल की राह पर बढ़ सकते हैं। इससे काफी तनाव बढ़ जाएगा और सीबीआई जैसी संस्था मजाक बनकर रह जाएगी। सीबीआई की इस अधोगति के गुनहगार वे सभी राजनेता हैं, जिन्होंने इसका स्वहित में इस्तेमाल किया। उन्होंने यह समझने की कभी जहमत नहीं उठाई कि यदि सीबीआई जैसी एजेंसी अपना भरोसा गंवा देती है, तो लोकतंत्र पर भी संकट गहराने लगेगा। पतन के ये बीज काफी गहरे हैं, जिसकी विषबेल अब जाकर फल-फूल रही है।कुछ ऐसी ही परिस्थिति अमेरिका में भी है। जब से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने वहां कमान संभाली है, तमाम संस्थाओं को कुंद करने की कोशिश हो रही है। हालांकि मुश्किलों के बाद भी वहां कुछ संस्थाएं डिग नहीं सकी हैं। मगर अपने यहां ऐसा नहीं हो सका। हम सबको यह समझना चाहिए कि कोई भी लोकतंत्र या देश अपनी इन्हीं संस्थाओं के बूते जीता है और तरक्की करता है। अगर संस्थाओं पर से विश्वास खत्म हो जाएगा, तो लोकतंत्र का ढांचा ही गिर जाएगा। लिहाजा यह वक्त आपस में मिल-बैठकर सीबीआई की साख बचाने का है।


Date:22-11-18

New labour for new India

Union government has done much to move the workforce into the formal sector

Editorial

Any discussion on the unemployment challenge in India should be grounded in the following facts: One, the Indian economy needs to generate employment for about 5-7 million people that enter the labour force annually; two, over 90 per cent of the workforce has informal employment — they have neither job security nor social security; and three, there has been a growing infomalisation in the organised sector. Informal workers are the most vulnerable section of our society and the trade unions have focused their attention on only protecting the rights of workers in the organised sector.

The Narendra Modi government has tried to address the problems of the informal sector through a focused approach which rests on two legs. The first is to promote formalisation and the second is the provision of social security to those remaining in the informal sector. The most important reform is the introduction of “fixed term contract” employment. According to the notification introducing it, fixed contract workers must be employed under the same working conditions (such as wages, working hours, allowances and other benefits) as permanent workers. Fixed-term workers are also eligible for all statutory benefits available to a permanent workman proportionately, according to the period of service rendered by him/her. Allowing fixed-term employment would help employers to respond to the fluctuating demand and seasonality in their businesses and facilitate the direct employment of workers.

Formal employment is also sought to be promoted by reducing the compliance cost for companies. Under the Ease of Compliance rules, the government has pruned the number of registers mandatory for all establishments to be maintained under nine central Acts to just five from 56, and the relevant data fields to 144 from 933. The government has also taken numerous technology-enabled transformative initiatives such as the Shram Suvidha Portal, universal account number (UAN) and national career service portal in order to reduce the complexity burden and ensure better accountability. In order to reduce the labour law compliance cost for start-ups, the central government has also managed to persuade state governments and Union Territories (UT) to allow self-certification and regulate inspection under six labour laws wherever applicable.

One of the major achievements of the government is the increased Employees’ Provident Fund (EPF) coverage. The Employees’ Enrolment Campaign (EEC) was launched by the government in January 2017 to enrol employees left out of the EPF and provided incentives to employers in the form of a waiver of administrative charges, nominal damages at the rate of Re 1 per annum and waiver of employees share, if not deducted. In this drive, close to 1.01 crore additional employees were enrolled with EPF Organisation between January to June 2017. The government also launched the Pradhan Mantri Rojgar Protsahan Yojana in 2016 (revised this year) under which the government will pay the full employers’ EPF contribution for three years for new employment.