23-05-2023 (Important News Clippings)
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Date:23-05-23
Strangers & Secrets
Latest spy scandal in DRDO shows more attention must be paid to the weakest security link: human fallibility
TOI Editorials
India’s defence research institution DRDO has asked 5,000-odd scientists to tread carefully on social media. The circular on “cyber discipline” came weeks after the arrest of Pradeep Kurulkar, a DRDO scientist at the rank of additional secretary, GoI. Kurulkar, investigators say, fell for a Pakistani “honey-trap”. The scientist is believed to have had access to over 50 DRDO establishments, including laboratories, and headed an R&D division that, among other remits, oversaw India’s missile launcher programmes. While the extent of the security breach is unlikely to be made public, it’s clear that DRDO was worried.
Cybersecurity of India’s military infrastructure is by and large comprehensive. But there are gaps in terms of cyber infra upgrades and adequate supply of tech expertise. Another point of concern is the integrity of hardware, which is largely not manufactured in India. But the weakest link is human error that has repeatedly emerged as a significant security threat. The last six years reportedly saw over 20 serving and retired army staff arrested for allegedly spying for Pakistan’s ISI. Old-fashioned “honey-traps” have morphed into social media, internet inducements, designed to exploit weaknesses of some defence and research personnel. What hasn’t changed is that once trapped, officials are blackmailed.
The army this year also issued a circular warning personnel against posting or forwarding official communication on WhatsApp, storing data on devices at home, and cautioned against strangers acting chummy. DRDO’s cyber-discipline guidelines are similar – do not entertain unknown numbers, avoid chats with unknown people, don’t share information etc. It may be a better idea to also train all military and defence research staff on how to check the IP address of the next friendly stranger who reaches out and make it mandatory for them to immediately report such encounters.
संस्थाओं में मतभेद हो मगर एक दायरे में
संपादकीय
दुनिया का सबसे बड़ा व लिखित संविधान भारत का है। सैकड़ों विद्वानों ने इसे बनाया। संस्थाओं के लिए स्पष्ट भूमिका रखी। लेकिन आज इन संस्थाओं में द्वंद्व की स्थिति बनी है। गवर्नर का मुख्यमंत्री से द्वंद्व है, केंद्र का राज्यों से; केंद्रीय व राज्य विधायिकाओं में सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने-सामने हैं। सुप्रीम कोर्ट और केंद्र के बीच एक अजीब युद्ध-रेखा खींची हुई है। कॉलेजियम ही नहीं, इसी कोर्ट द्वारा प्रतिपादित आधारभूत ढांचे के सिद्धांत के खिलाफ भी संवैधानिक पदों पर बैठे लोग जनमंचों से बोल रहे हैं। इन सब से ऊपर एक ताजा घटना अधिक चिंता का विषय है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने दिल्ली की व्यवस्था पर संविधान के आर्टिकल 239 एए (4) की पुनर्व्याख्या करते हुए कहा, ‘अगर सरकार का अपने मातहत काम करने वाले अधिकारियों पर नियंत्रण नहीं होगा तो त्रि-शृंखला वाली सामूहिक जिम्मेदारी का सिद्धांत (अफसरशाही की सरकार के प्रति, सरकार की विधायिका के प्रति और विधायिका की जनता के प्रति जवाबदेही) निरर्थक हो जाएगा। पीठ ने यह भी कहा कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में चुनी हुई सरकार के पास ही प्रशासन की शक्ति होती है । लेकिन फैसले के चंद दिनों में ही केंद्र ने अध्यादेश जारी कर अफसरों पर नियंत्रण के लिए नई त्रि-सदस्यीय संस्था ‘नेशनल कैपिटल सिविल सर्विस अथॉरिटी’ बना दी। दिल्ली सीएम की अध्यक्षता वाली इस संस्था में मुख्य सचिव व प्रमुख सचिव (गृह) सदस्य होंगे। इस आशय से आहूत बैठक में फैसला मौजूद और मतदान करने वालों के बहुमत से होगा। ऊंट किस करवट बैठेगा, समझना मुश्किल नहीं होगा। कार्यपालिका – न्यायपालिका के बीच मतभेद सामान्य है, लेकिन रोज ऐसा होना प्रजातंत्र के लिए घातक हैं।
Date:23-05-23
इन पांच सूत्रीय सुधारों से गवर्नेस की गाड़ी आगे बढ़ सकती है
विराग गुप्ता, ( सुप्रीम कोर्ट के वकील, अनमास्किंग वीआईपी पुस्तक के लेखक )
मोदी में सरकार ने प्रथम कार्यकाल की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अमल करते हुए नदियों को जोड़ने की परियोजना (आईएलआर) के लिए समिति बनाई थी। बगैर होमवर्क के उस प्रोजेक्ट पर आगे बढ़ने पर हजारों करोड़ के सरकारी धन की बर्बादी होती । उस समिति के सदस्य के नाते मैंने दो बड़े सुझाव दिए थे। पहला, नदियों को समवर्ती सूची में लाने के लिए संविधान संशोधन। दूसरा, नदियों में पानी के बहाव के नवीनतम आंकड़ों के लिए गणना। पहले मामले में तो सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। लेकिन जल स्रोतों की गणना से सही तस्वीर सामने आने से प्रोजेक्ट्स का सफल क्रियान्वयन हो सकेगा। उस समय के जल संसाधन राज्यमंत्री अर्जुन राम मेघवाल अब देश के नए कानून मंत्री हैं। वह अब न्यायिक सुधारों की गाड़ी को आगे बढ़ाकर गवर्नेस और विकास के एजेंडे को पटरी पर वापस ला सकते हैं-
पहला, जेलों में बंद गरीब कैदियों की रिहाई के लिए केंद्र सरकार ने बजट में विशेष प्रावधान किए हैं। सभी जिलों में विधिक सेवा अथॉरिटी भी हैं। लेकिन हकीकत में आनंद मोहन (पूर्व सांसद) जैसे लोग जेल से बाहर आ जाते हैं और गरीबों को जेल की सलाखें ही नसीब होती हैं। गरीब और वंचित वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ‘आउट ऑफ बॉक्स’ ढर्रे से एक्शन की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले से हजारों मजिस्ट्रेट का वेतन कई गुना बढ़ गया है। सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों को अमल में लाने के लिए अंडरट्रायल गरीब कैदियों की रिहाई के लिए संबंधित मजिस्ट्रेट को ओवरटाइम जिम्मेदारी देनी चाहिए। लॉ स्टूडेंट्स के साथ मिलकर कानून मंत्रालय इसे सफल बनाने का राष्ट्रीय अभियान शुरू करे तो लाखों गरीब परिवारों में खुशियों का उजाला बढ़ेगा।
दूसरा, कॉलेजियम के तहत नियुक्त जजों में शहरी वर्ग का वर्चस्व है। इससे न्यायिक व्यवस्था में असंतुलन के साथ भाई-भतीजावाद बढ़ रहा है। इसे खत्म करने के लिए जजों को नियुक्ति से पहले संविधान की तीसरी अनुसूची के तहत शपथपत्र देना जरूरी होना चाहिए। इस बारे में एनजेएसी फैसले के दौरान के एन गोविन्दाचार्य ने सन् 2015 में केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट को लिखित प्रतिवेदन दिया था। जिला अदालतों में नए जजों की संख्या बढ़ाने से पहले, हजारों रिक्त पदों को भरने की जरूरत है। उसके साथ अदालतों में जरूरी स्टाफ और इंफ्रास्ट्रक्चर मिले तो न्याय की गाड़ी आगे बढ़ेगी। हाईकोर्ट में प्रदेश की स्थानीय भाषा जानने वाले जजों की नियुक्ति होनी चाहिए।
तीसरा, संविधान के अनुसार सरकार और सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों का स्पष्ट विभाजन है। लेकिन अदालतों का खासा समय मीडिया की सुर्खियां बटोरने वाली जनहित याचिकाओं (पीआईएल) पर जाया होता है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की लिखित गाइडलाइंस के अनुसार संबंधित विभाग को लिखित प्रतिवेदन दिए बगैर पीआईएल दायर नहीं होना चाहिए। इस नियम का सख्ती से पालन हो तो लंबित मामलों के जल्द निष्पादन के साथ बेवजह की न्यायिक सक्रियता में कमी आएगी।
चौथा, कोरोना खत्म होने के बावजूद जजों और वकीलों को ऑनलाइन सुनवाई की सहूलियत है। नियमों में बदलाव के बगैर जज ऑनलाइन तरीके से घर से काम कर सकते हैं। उसी तर्ज पर पक्षकारों और कैदियों के लिए भी ऑनलाइन उपस्थिति के सिस्टम को भी बढ़ावा मिलना चाहिए। हाईकोर्ट की नई बेंचों पर निवेश करने की बजाय ई-कोर्ट के सिस्टम के विस्तार की जरूरत है। इसके लिए पासपोर्ट सेवा केंद्र की तर्ज पर हर जिले में न्याय केंद्र बनाना चाहिए। जिला अदालतों के माध्यम से हाईकोर्ट की फाइलिंग और हाईकोर्ट के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट की फाइलिंग हो सकेगी। इससे मुकदमा दायर करने के लिए गरीब लोगों को शहरों का चक्कर नहीं लगाना पड़ेगा और अदालतों में भीड़ भी कम होगी।
पांचवां, वीआईपी व रईस लोगों को बेल और गरीबों को जेल की सबसे बड़ी वजह अभिजात्य और लुटियंस सीनियर एडवोकेट्स का न्यायिक व्यवस्था में वर्चस्व है। उनकी वजह से आम लोगों के मामले दशकों तक घिसटते रहते हैं। सीनियर एडवोकेट का दर्जा सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट से मिलता है। कानून के अनुसार निजी स्कूल और अस्पतालों को गरीब और वंचित वर्ग के लोगों को एक निश्चित कोटा के अनुसार फ्री या रियायती दरों पर एडमिशन और इलाज देना होता है। इसलिए सीनियर एडवोकेट्स को भी सिर्फ पैसे कमाने की मशीन नहीं बनना चाहिए। जनता को न्याय दिलाने में सीनियर एडवोकेट्स के योगदान को सुनिश्चित करने के लिए बार काउंसिल को आगे आने के साथ सरकार को एडवोकेट्स एक्ट में जरूरी बदलाव करना चाहिए।
Date:23-05-23
एकतरफा फैसले
संपादकीय
अर्थव्यवस्था में काले धन के प्रवाह पर नजर रखना और इस पर अंकुश लगाने के लिए उपाय करना सरकार के लिए स्वाभाविक सी बात है। तुलनात्मक रूप से अधिक परिपक्व अर्थव्यवस्थाओं में सर्वाधिक उत्पादक कार्यों को कर दायरे में लाने का पूरा ध्यान रखा जाता है ताकि कर वंचना या कर भुगतान में आनाकानी की गुंजाइश नहीं रह जाए। मगर यह पारदर्शी एवं प्रभावी तरीके से किया जाता है ताकि आम लोगों एवं करदाताओं को किसी तरह की असुविधा नहीं हो। वर्तमान भारतीय प्रशासन कई बार कह चुका है कि वह करदाताओं को परेशानी या अत्यधिक हस्तक्षेप से बचाना चाहता है। इस दिशा में सरकार ने मानव रहित कराधान (फेसलेस टैक्सेशन) सहित कई कदम भी उठाए हैं। मगर हाल में दो ऐसे अवसर आए हैं जिनसे पता चलता है कि सरकार कितनी जल्दी सुधार की दिशा से भटक जाती है।
हाल ही में 2,000 रुपये के नोट के संबंध में भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की अधिसूचना ऐसा पहला उदाहरण है। आरबीआई ने पिछले सप्ताह कहा था कि 2,000 रुपये के नोट वापस लिए जाएंगे, यद्यपि इनकी वैधता बनी रहेगी। हालांकि, इस नवीनतम कदम का 2016 में की गई नोटबंदी की घोषणा से कुछ लेना देना नहीं है मगर इससे उस समय मची अफरा-तफरी की यादें एक बार फिर ताजा हो गई हैं। जब से 2,000 रुपये के नोट वापस लिए जाने की घोषणा हुई है तब से कई लोग यह समझ नहीं पा रहे है कि उनके पास ऐसे जो भी नोट हैं उन्हें कैसे बदलेंगे। ऐसी भी खबरें आ रही हैं दुकान एवं प्रतिष्ठान इन्हें लेने से मना कर रहे हैं। लोगों के मन से डर दूर करने के लिए आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास को पहल करनी पड़ी है। केंद्रीय बैंक ने कहा है कि 2,000 रुपये जारी करने का उद्देश्य पूरा हो गया है और इसकी ‘समय सीमा’ भी समाप्त हो गई है मगर यह पहल किसी विशेष अधिसूचना या 30 सितंबर की ‘अंतिम तिथि’ के बगैर भी की जा सकती थी। लिहाजा, इस बात को लेकर शक बहुत कम रह गया है कि नकदी और उच्च मूल्य वाले नकदी लेनदेन को कम से कम करना इस पहल का एक मकसद था। लेकिन सरकार 2016 के समय की नोटबंदी की तरह आम भारतीयों पर होने वाले प्रभाव को ध्यान में रखने में विफल रही।
कुछ दिनों पहले सरकार ने उदार धन प्रेषण योजना (एलआरएस) में कुछ बदलाव किए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने 2,000 रुपये के नोट वापस लेने की तरह ही उसमें भी समझ-बूझ के साथ काम नहीं लिया है। एलआरएस के तहत भारतीय विदेश में निवेश या अन्य विशेष प्रयोजनों के लिए एक साल में अधिकतम 2,50,000 डॉलर तक भेज सकते हैं। अब सरकार ने ऐसे लेनदेन के लिए स्रोत पर काटे गए कर का स्तर बढ़ाने का निर्णय लिया है। अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट कार्ड से होने वाले लेनदेन पर भी यह नियम लागू होगा। सरकार के इस कदम का काफी विरोध हुआ जिसके बाद उसने अपना रुख नरम किया है। सरकार ने कहा है कि 7 लाख रुपये से कम भुगतान 20 प्रतिशत विदहोल्डिंग टैक्स के दायरे में नहीं आएगा। यह अभी तय नहीं है कि यह सीमा कैसे लागू की जाएगी क्योंकि किसी व्यक्ति द्वारा वास्तविक समय में किए खर्च से संबंधित ब्योरा शायद ही उपलब्ध रहता है। यद्यपि ऐसे कर संबंधित व्यक्ति के साल के अंत में कर बिल में समायोजित किए जाएंगे मगर इससे कागजी माथापच्ची और अनुपालन बोझ काफी बढ़ जाएंगे।
कारोबारी व्यय से जुड़े पक्षों को स्रोत पर काटे गए कर के दायरे में लाने से भी अनावश्यक परेशानी होगी। खासकर, इससे मालिक या अपेक्षाकृत छोटे उद्यमों के कर्मचारियों के लिए झंझट बढ़ जाएगी। स्पष्ट है कि सरकार के इस कदम का उद्देश्य बेहतर प्रणाली की स्थापना किए बिना ही कर संग्रह और निगरानी बढ़ाना है। अगर सरकार वास्तविक समय में लेनदेन का ब्योरा रखने के लिए ठोस प्रयास करेगी तो इससे कर वंचना और रकम की हेराफेरी रुक जाएगी। सरकार को बार-बार अपने कदमों पर सफाई देने की शर्मिंदगी से बचने के लिए नागरिकों पर उसके निर्णयों के होने वाले प्रभावों की विवेचना पहले ही कर लेनी चाहिए। एक उपयुक्त कर प्रशासन में करदाताओं की चिंताओं के प्रति अधिक गंभीरता एवं उनकी परेशानियों को समझना पड़ता है।
Date:23-05-23
शहरों की सबसे बड़ी मजबूती संस्कृति
अमित कपूर और विवेक देवरॉय, ( कपूर इंस्टीट्यूट फॉर कंपीटीटिवनेस, इंडिया के चेयर एवं स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी में व्याख्याता और देवरॉय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन हैं। )
विशेषज्ञों का कहना है कि संस्कृति उतनी ही पुरानी है जितनी मानवता। मगर संस्कृति के साथ विशेष बात यह कि इसका निरंतर विकास होता रहता है। हमारा इतिहास क्या है और यह वर्तमान से किन मायनों में भिन्न है? शहरों में हम किस तरह अपने पूर्वजों के साथ जुड़ाव बरकरार रख सकते हैं?
शहरीकरण का प्रभाव किसी क्षेत्र में आबादी संरचना तक ही सीमित नहीं है बल्कि उस क्षेत्र के सांस्कृतिक ताने-बाने पर भी उतना ही दीर्घकालीन असर छोड़ता है। लोग शहरी बन सकते हैं और दीर्घ अवधि तक शहरी क्षेत्रों में रहने से विभिन्न संस्कृतियों के संपर्क में आ सकते हैं। लोग इन अवधारणाओं का आत्मसात करते हैं और उन्हें अपने साथ छोटे शहरों, गांवों में में जाते हैं। उन जगहों के लोग भी इन अवधारणाओं के प्रभाव में आ जाते हैं।
दूसरे रूप में शहरों में बाजारों के स्वरूप जिस तरह बदले हैं उनमें छोटे मगर महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक बदलावों की पहचान की जा सकती है। उदाहरण के लिए हम देख रहे हैं कि बड़े मॉल परंपरागत गल्ली-नुक्कड़ पर लगने वाले बाजारों की जगह ले रहे हैं। बड़े खुदरा सुविधा स्टोर खुलने से छोटे साप्ताहिक बाजार अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं। पिछले दो दशकों में आए इन बदलावों का शहरीकरण के साथ ही सर्वांगीण विकास से भी उतना ही वास्ता है। उपभोक्ताओं के प्रभाव से मांग की बदलती प्रवृत्ति से लोग उन प्रतिष्ठानों की तरफ रुख कर रहे हैं जहां उनकी विभिन्न प्रकार की मांगे पूरी हो रही हैं। शहरीकरण की तरह ही वैश्वीकरण के मामले में भी यह बात सटीक बैठती है। तेजी से बढ़ रही शहरी आबादी उन वस्तुओं से रूबरू हो रही है जिन्हें नियमित जिंस नहीं समझा जाता था। शहरों में रहने वाले लोग विक्रेताओं को इन वस्तुओं की सतत आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए कह रहे हैं।
ये बदलाव उतने अस्थायी नहीं हैं जितना लोग उन्हें समझ सकते हैं बल्कि वे किसी शहर में रहने के भाव को प्रभावित कर रहे हैं। धीरे-धीरे विलुप्त हो रहे छोटे बाजार का उदाहरण इन बदलावों के विरोध में या उन पुरानी परंपराओं के खिलाफ तर्क देने के लिए नहीं दिया जा रहा है। इसका आशय है कि ऐसे बदलाव न केवल अर्थशास्त्र का विषय हैं बल्कि इन्हें शहरीकरण के संदर्भ में भी समझने की चेष्टा की जानी चाहिए। ऐसे कई उदाहरण मिल सकते हैं जिनमें वैश्वीकरण की तरह ही शहरीकरण भी किसी शहर की संस्कृति में बदलाव ला रहा है। इसका उद्देश्य केवल इतना है कि शहरीकरण महानगरों के भविष्य की संस्कृति संस्कृति को नया रूप दे रहा है।
समाजशास्त्री पहले यह सोचा करते थे कि शहरीकरण ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर आबादी के पलायन से अधिक कुछ नहीं है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो शहरीकरण का आशय एक भिन्न सामाजिक ढांचे में लोगों के पलायन या आगमन से है। अब हम यह भली-भांति समझ चुके हैं कि शहरीकरण प्रक्रियात्मक स्तर पर उलझा हुआ एवं बहु-आयामी है मगर हम शहरीकरण के रोजाना होने वाले असर को समझने के लिए किताबी बातों से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। उदाहरण के लिए इस बिंदु पर विचार किया जा सकता है कि शहरीकरण के बीच सांस्कृतिक प्रारूप किस तरह बदलता है। शहरी संदर्भ में संस्कृति एवं विरासत की चर्चा ने सदैव संरक्षण एवं पुनर्स्थापन पर बहस को आगे बढ़ाया है। इस संदर्भ में शहरी विरासत में किसी क्षेत्र के परंपरागत व्यवहार और सांस्कृतिक भिन्नता के कारण नए व्यवहारों का विकास शामिल हैं। शहरी स्थानिक संरचना की भौतिक अभिव्यक्ति इस रूप में दिखती है कि किस तरह संस्कृति शहरी क्षेत्रों में जन्म लेती है। विभिन्न जातीय पृष्ठभूमियों से लोग पलायन करते हैं और शहरों में काम करते हैं जिससे नई संस्कृतियों का आपस में मेल-जोल बढ़ता है। महानगरों में संबंधित समुदायों द्वारा अपने सांस्कृतिक व्यवहारों का पालन करने से शहरी पहचान को और जीवंत बना देता है।
शहर व्यापार, संस्कृति, शोध, उत्पादकता, समाज की प्रगति, मानव जाति एवं अर्थव्यवस्था के केंद्र के रूप में काम करते हैं। संधारणीय शहरी विकास में परिवहन तंत्र, शहरी नियोजन, जल, स्वच्छता, कूड़ा प्रबंधन, आपदा-जोखिम में कमी, सूचना तक पहुंच, शिक्षा और क्षमता निर्माण आदि शामिल हैं। 2008 में ऐसा पहली बार हुआ था जब शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक लोग रह रहे थे। इस उपलब्धि के साथ एक नई शहरी सहस्त्राब्दी की शुरुआत हुई है और अनुमान जताया जा रहा है कि 2050 तक दुनिया की दो तिहाई आबादी शहरी क्षेत्रों में रहेगी। हरेक साल लगभग 7.3 करोड़ लोग शहरों में आ रहे हैं और दुनिया की करीब आधी आबादी पहले ही शहरों में रह रही हैं। आंकड़ों के अनुसार महानगर क्षेत्र वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 70 प्रतिशत योगदान देते हैं। यूएन-हैबिटेट के अनुसार संयुक्त राष्ट्र के ‘न्यू अर्बन एजेंडा’ के साथ अब शहरों को मानव बसावटों के लिए अधिक टिकाऊ बनाकर विकसित करने, लचीला बनाने, सुरक्षित बनाने, वृद्धि एवं संपन्नता के लिए अधिक अनुकूल बनाने पर ध्यान है।
‘क्लचरः अर्बन फ्यूचर, ग्लोबल रिपोर्ट ऑन क्लाइमेट फॉर सस्टेनेबल अर्बन डेवलपमेंट’ शीर्षक नाम से यूनेस्को की एक रिपोर्ट में शहरों को अधिक टिकाऊ बनाने में और उनकी विशिष्ट पहचान में जान डालने में संस्कृति की भूमिका पर रोशनी डाली गई है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अरबों लोगों तक आधारभूत ढांचा एवं सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए एक अच्छे आवास की व्यवस्था और हरित सार्वजनिक स्थान की अवश्य व्यवस्था होनी चाहिए। इनके अलावा सामाजिक अशांति एवं महामारी फैलने से रोकने में जरा भी ढिलाई नहीं बरती जानी चाहिए। नए शहरी कार्यसूची (एजेंडा) को इन एवं अन्य महत्त्वपूर्ण चुनौतियों पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। दुनिया में बड़ी संख्या में महानगरों को देखते हुए शहरी जीवन की गुणवत्ता बनाए रखना, शहरी पहचान की रक्षा करना, स्थानीय संस्कृति को महत्त्व देना और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति, कला एवं धरोहर को टिकाऊ सामाजिक एवं आर्थिक विकास के स्तंभों के रूप में बरकरार रखना ऐसी ही एक चुनौती है।
शहरों के प्रति झुकाव, उनकी आविष्कारशीलता एवं टिकाऊ बने रहने की का श्रेय उनकी संस्कृति को जाता है। सांस्कृतिक कलाकृतियों, परंपरा एवं विरासत के कारण शहरी विकास ऐतिहासिक रूप से संस्कृति पर केंद्रित रहा है। संस्कृति के बिना शहर कंक्रीट एवं इस्पात के महज ढांचा मात्र हैं और ये सामाजिक पतन एवं बिखराव के जोखिम के मंडराते खतरे से जूझते रहते हैं। बिना संस्कृति के शहर जीवंत क्षेत्र का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। संस्कृति शहरों की सबसे बड़ी मजबूती है। शहरी व्यवस्था मजबूत एवं टिकाऊ बनाए रखने के लिए शहरी नीतियों में सांस्कृतिक पहलुओं पर जोर दिया जाना चाहिए।
Date:23-05-23
गंगा का जीवन
संपादकीय
नदियों को स्वच्छ बनाने के लिए लंबे समय से चल रही तमाम योजनाओं और कार्यक्रमों के बावजूद यह अभियान अब तक कहां तक पहुंचा है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज भी गंगा जैसी अहम नदी को स्वच्छ बनाने की कोई नई पहल करनी पड़ रही है। हालत यह है कि अलग-अलग मौके पर लागू दिशानिर्देशों के बावजूद कम से कम मलबा डालने पर भी रोक नहीं लगाई जा सकी है। अब एक बार फिर केंद्र सरकार ने गंगा नदी के किनारे मलबा डाले जाने या गावों का गंदा पानी नदी में गिराने से प्रदूषण का स्तर बढ़ने पर संज्ञान लिया है। इसके तहत सरकार नदी किनारे स्थित चार हजार गांवों से निकलने वाले लगभग चौबीस सौ नालों को चिह्नित करके इनकी ‘जियो टैगिंग’ करेगी। सरकार इनसे ठोस कचरा प्रवाहित होने से रोकने के लिए एक उपकरण ‘एरेस्टर स्क्रीन’ लगाएगी। यह गंगा नदी में अलग-अलग वजहों से होने वाले प्रदूषण को रोकने के अलावा किया जा रहा उपाय है। अब यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके जरिए मानव-सभ्यता के लिए एक बेहद जरूरी नदी में फिर से जीवन भर सकेगा।
हालांकि यह अपने आप में एक सवाल होना चाहिए गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के लिए दशकों से लागू गंगा कार्ययोजना या नमामि गंगे जैसे महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम और अन्य नीतियों के बावजूद आज भी इतनी बड़ी तादाद में ठोस कचरा या अन्य तरह की गंदगी बहाने वाले नालों पर कैसे रोक नहीं लग सकी। गौरतलब है कि गंगा नदी पर अधिकार संपन्न कार्यबल यानी ईटीएफ की पिछले महीने हुई ग्यारहवीं बैठक में यह जानकारी भी सामने आई कि उत्तरकाशी में सुरंग के निर्माण के कारण इसके मलबे को गंगा नदी के किनारे डाल दिया गया। इससे नदी के जल में ठोस कचरा का स्तर बढ़ गया। इससे जलमल शोधन संयंत्रों में गंदे पानी का शोधन करने में समस्याएं आ रही हैं। हैरानी की बात यह है कि करीब साढ़े तीन दशक से गंगा कार्ययोजना सहित अन्य तमाम कार्यक्रमों जैसे अभियानों के बीच क्या गंगा को प्रदूषित करने वाला यह कोई नया कारक खोजा गया है? अगर नहीं, तो इस समस्या को चिह्नित करने में इतना लंबा वक्त कैसे लग गया?
यह समझना मुश्किल नहीं है कि समस्या शायद योजनाओं या कार्यक्रमों नहीं होगी, उनके अमल में बरती गई लापरवाही या फिर गड़बड़ियों की वजह से किसी बड़ी और बेहद महत्त्वपूर्ण पहलकदमी का भी हासिल शून्य हो जा सकता है। सरकार की ओर से घोषणाएं करने में शायद ही कभी कमी की जाती है, मगर उन पर अमल को लेकर कहां चूक या लापरवाही बरती जा रही है, इस पर गौर करना कभी जरूरी नहीं समझा जाता। लगभग तीन साल पहले यह खबर आई थी कि सरकार 2022 तक गंगा नदी में गंदे नालों के पानी को गिरने से पूरी तरह रोक देगी और इस मसले पर एक मिशन की तरह काम चल रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि इसके एक साल बाद चौबीस सौ से ज्यादा नाले चिह्नित किए गए हैं, जिनकी गंदगी और कचरे से गंगा का जीवन धीरे-धीरे छीज रहा है। यह स्थिति बताती है कि इस नदी के निर्मलीकरण के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं की उपलब्धि वास्तव में कितनी है। नीतियों और योजनाओं के बरक्स उन पर अमल की यह तस्वीर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को भी दर्शाती है। अन्यथा क्या कारण है कि नदियों के प्रदूषण को दूर करने के क्रम में सबसे ज्यादा जोर गंगा को स्वच्छ बनाने पर ही दिया गया, मगर इसका हासिल आज भी संतोषजनक नहीं है!
Date:23-05-23
समूह सात सम्मेलन का हासिल
विकेश कुमार बडोला
समूह सात देशों का उनचासवां सम्मेलन जापान के हिरोशिमा शहर में संपन्न हो गया। इसके साथ ही अमेरिका, भारत, आस्ट्रेलिया और जापान के क्वाड समूह ने भी अपना सम्मेलन हिरोशिमा में ही संपन्न कर लिया। क्वाड समूह की बैठक पहले आस्ट्रलिया में प्रस्तावित थी, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने घरेलू ऋण संकट के कारण क्वाड बैठक में सम्मिलित होने में असमर्थता प्रकट की थी।
जी-7 ने सम्मेलन में जिन संकल्पों को पूरा करने के लिए सामूहिक प्रस्ताव पारित किया, उनमें रूस द्वारा यूक्रेन पर थोपे गए अवैध युद्ध का विरोध करना, हर संभव तरीक से यूक्रेन का समर्थन करना, सार्वभौम सुरक्षा हेतु नाभिकीय शस्त्रों से मुक्त एक विश्व का अंतिम लक्ष्य प्राप्त करने के लिये निरस्त्रीकरण और परमाणु अप्रसार का प्रयास करना प्रमुख थे। इसके साथ ही आर्थिक उदारता और सुरक्षा के लिए समूह के विचारगत प्रस्ताव का समन्वय करना, समूह के सदस्य और बाहरी देशों के सहयोग द्वारा भविष्य की स्वच्छ ऊर्जा अर्थव्यवस्थाओं के मध्य सहयोग को बढ़ावा देना, अनुकूल वैश्विक खाद्य सुरक्षा हेतु भागीदार देशों के साथ मिलकर कार्य योजना शुरू करना भी है। वैश्विक अवसंरचनात्मक निवेश के लिए साझीदारी से गुणवत्तापूर्ण अवसंरचना के वित्तपोषण के लिए छह सौ अरब डालर एकत्र करने का लक्ष्य प्राप्त करना भी प्रमुख हैं।
इस सामूहिक प्रस्ताव में एक सशक्त और अनुकूल वैश्विक आर्थिक सुधार को बढ़ावा देने, वित्तीय स्थिरता बनाए रखने और जीविकाओं तथा सतत विकास का संवर्द्धन करने के लिए साथ कार्य करने, गरीबी कम करने तथा जलवायु और प्रकृतिगत संकट का समाधान निकालने का लक्ष्य है। सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में तेजी लाने, बहुपक्षीय विकास बैंकों (एमडीबी) को विकसित करने, अफ्रीकी देशों के साथ अपनी साझीदारी बढ़ाने तथा बहुपक्षीय मंचों पर अधिक से अधिक अफ्रीकी प्रतिनिधित्व का समर्थन करने, अपने ऊर्जा क्षेत्र के अकार्बनीकरण में तेजी लाने और नवीकरणीय ऊर्जा अपनाने पर बल है। प्लास्टिक जनित प्रदूषण को समाप्त करने तथा महासागरों की रक्षा करते हुए पृथ्वी को सुरक्षित बनाने, वन, प्रकृति और जलवायु हेतु ‘न्यू कंट्री पैकेजेज’ के माध्यम से सहयोग को अधिक करने पर जोर दिया गया है।
इतना ही नहीं, जी-7 ने दुनिया की हर प्रमुख समस्या को अपनी भावी कार्ययोजना का हिस्सा बनाया गया है। इसमें, विश्वभर में टीका निर्माण क्षमता के माध्यम से वैश्विक स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश करने, एक महामारी कोष बनाने, महामारी रोकथाम के लिए भावी अंतरराष्ट्रीय अनुबंध करने, सार्वभौमिक स्वास्थ्य सुरक्षा (यूएचसी) का लक्ष्य प्राप्त करने की तैयारी करने, अंतरराष्ट्रीय प्रवासन पर सहयोग बढ़ाने का संकल्प लिया गया है। इसके अलावा मानव तस्करी के विरुद्ध प्रयासों को सुदृढ़ करने, समावेशी कृत्रिम मेधा (एआइ) शासन स्थापित करने, परिचित लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुसार एआइ की विश्वसनीयता के संबंध में अपने सामान्य दृष्टिकोण और लक्ष्य की प्राप्ति करने, इस संबंध में पारस्परिक परिचालन के संदर्भ में उन्नत अंतरराष्ट्रीय संवाद स्थापित करने पर जोर है। दुनिया में कहीं भी बल या शक्तिपूर्वक क्षेत्रों की स्थिति बदलने और उस पर एकपक्षीय अधिकार के प्रयास करने तथा क्षेत्र पर अधिग्रहण करने का निषध करने, सार्वभौमिक मानवाधिकारों, लैंगिक समानता और मानव गरिमा को बढ़ावा देने, शांति, स्थिरता और समृद्धि को बढ़ावा देने में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका और अंतरराष्ट्रीय सहयोग सहित बहुपक्षवाद के महत्त्व को दोहराने, नियम आधारित बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली को मजबूत करने और डिजिटल प्रौद्योगिकियों के विकास के साथ तालमेल रखने जैसे संकल्प भी लिए गए हैं। जी-7 के अनुरूप, अंतरराष्ट्रीय भागीदारों के साथ एक ऐसी दुनिया बनाने का प्रयास होगा, जो मानव-केंद्रित, समावेशी और अनुकूल हो, जिसमें कोई भी पीछे न छूटे।
भारत की ओर से प्रधानमंत्री ने सम्मेलन में अपनी दस सूत्रीय कार्य योजना रखी, जिसके तहत एक समावेशी खाद्य प्रणाली तैयार कर दुनिया के सर्वाधिक अधिकारहीन लोगों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता पर बल दिया गया। इस दस सूत्रीय कार्ययोजना में खाद्यान्न की बर्बादी कम करने, वैश्विक उर्वरक आपूर्ति शृंखला का अराजनीतिकरण, मोटे अनाज, समग्र स्वास्थ्य सुविधा का संवर्द्धन करने, डिजिटल स्वास्थ्य सुविधा को सुदृढ़ करने तथा विकासशील देशों की जरूरतों के अनुरूप अंतरराष्ट्रीय विकास माडल तैयार करने जैसे बिंदु हैं।
पहले के शिखर सम्मेलनों की तरह जी-7 का यह सम्मेलन भी औपचारिकताओं में दब गया। वास्तव में, इस तरह के सम्मेलन अपने सामूहिक उद्देश्यों को धरातल पर क्रियान्वित करने में सदा विफल रहे हैं। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यही है कि समूह सात के सदस्य देश एकत्र तो सामूहिक संकल्पों को पूरा करने के लिए होते हैं, पर सम्मेलन में सदस्य देशों के प्रमुखों की व्यक्तिगत रुचि अपने-अपने हित साधने में ही होती है। फिर सार्वदेशिक, सार्वभौमिक समस्याओं के लिए जो भी देश दोषी हैं, उनसे समूह के सदस्य देशों के द्विपक्षीय व्यावसायिक, आर्थिक, सामरिक और कूटनीतिक संबंध भी होते हैं। इसलिए कभी भी समूह के देश सामूहिक रूप में समस्याओं के लिए दोषी देशों के विरुद्ध कठोर अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई नहीं कर पाते हैं। यों ही समय व्यतीत होता रहता है और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समस्याएं विसंगत से विसंगततर होती जाती हैं।
जी-7 में सम्मिलित अमेरिका, जापान, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली और यूनाइटेड किंग्डम (इंग्लैंड) किसी न किसी रूप में चीन और रूस से दुष्प्रभावित हैं और इसीलिए इनके जी-7 के सामूहिक प्रस्तावों में हर वर्ष चीन और रूस के विरुद्ध प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में कोई न कोई अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव भी होता ही है। इनके विपरीत विकासशील देश तटस्थ होते हैं, जो दुनिया के उसी देश के समर्थन में खड़े होते हैं, जिनसे उन्हें आर्थिक या अन्य प्रकार की सहायता मिलती है। ऐसे ही सहायकों के रूप में चीन और रूस भी सामने आते हैं। इन परिस्थितियों में भारत और आस्ट्रेलिया जैसे देश, जो विकसित होने से कुछ कदम दूर हैं, वे कई गुटों और समूहों में विभाजित देशों के लिए बड़े समर्थक या विरोधी सिद्ध हो सकते हैं। इसीलिए जी-7 हो, क्वाड या जी-20, पिछले साढ़े नौ वर्षों से भारत की भूमिका हर जगह महत्त्वपूर्ण हो चुकी है।
इसमें भारत की प्रगति की बड़ी भूमिका है। यह विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। फरवरी 2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध प्रारंभ होने से लेकर अब तक सऊदी अरब को पीछे छोड़ कर बड़े परिष्कृत पेट्रोलियम तेल का निर्यातक बन चुका है। घरेलू अर्थव्यवस्था को स्थिर रखने, राजकीय भ्रष्टाचार का अंत करने और विश्व में मानवता के आधार पर एक स्थिर, पारदर्शी, वैध और बहुसमावेशी अर्थव्यवस्था बनने की ओर निरंतर बढ़ते भारत के प्रभाव का भला कौन-सा देश अपने हित में उपयोग नहीं करना चाहता।
जी-7 और क्वाड में चीन और रूस सम्मिलित नहीं थे, पर जी-20 में तो ये उपस्थित होंगे। इसीलिए जी-20 में दूसरा ही परिदृश्य देखने को मिलेगा। जो देश जी-7 में चीन का नाम लिए बिना हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसकी एकाधिकारवादिता का विरोध कर रहे हैं, वही देश उसके साथ जी-20 के इतर द्विपक्षीय वार्ता करते दिखाई देंगे। इसी प्रकार जी-7 के जो सदस्य देश यूक्रेन के समर्थन में रूस के प्रति विद्रोही बने हुए हैं, कल जी-20 में उन्हीं में से कुछ अपने हित साधने रूस के साथ द्विपक्षीय या त्रिपक्षीय वार्ता करते मिलेंगे। इस तरह की विरोधाभासी स्थितियां भला, जी-7 हो या जी-20, किसी भी समूह के लिए अपने सामूहिक लक्ष्य की प्राप्ति में कैसे सहायक हो सकती हैं! इस दृष्टि से देखने पर तो यही लगता है कि जी-7 के सार्वभौमिक उद्देश्य अभी पूरे नहीं हो सकते हैं।
Date:23-05-23
सुधार की वकालत
संपादकीय
संयुक्त राष्ट्र में सुधार को लेकर बहस और विमर्श अरसे से चला आ रहा है। भारत ने कई बार संयुक्त राष्ट्र के विस्तार को लेकर वैश्विक मंच पर अपना पक्ष रखा। इसके पांच स्थायी सदस्यों की संख्या को बढ़ाने का भी तर्क रखा, मगर हर बार उसे नकार दिया गया। अब हिरोशिमा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह यूएन की कार्यशैली को लेकर तेवर तीखे किए हैं, उसे नजरअंदाज करना न्यायोचित नहीं माना जा सकता है। प्रधानमंत्री ने बिना लाग-लपेट के कहा कि संघर्ष को रोकने में संयुक्त राष्ट्र नाकाम है। साफ है कि मोदी विश्व के इस सबसे बड़े मंच में सुधार की बात कह रहे हैं। वैसे भी पिछली सदी में बनाई गई वैश्विक संस्थाओं को 21 सदी के अनुरूप बनाया जाना चाहिए। जब तक इसमें मौजूदा विश्व की वास्तविकता प्रतिबंबित नहीं होती, तब तक यह मंच महज चर्चा की एक जगह (टॉक शॉप) बना रहेगा। इससे पहले, 15 मई को पूर्व स्वीडन में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा था कि हर गुजरते साल के साथ संयुक्त राष्ट्र की प्रभावशीलता पर सवाल खड़े हो रहे हैंऔर इसकी बेहतरी के लिए इसमें सुधार होना चाहिए। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र को 1940 के दशक में बनाया गया था। उस समय भारत चार्टर का मूल हस्ताक्षरकर्ता था, लेकिन तब वह एक स्वतंत्र देश नहीं था और उस समय पांच देशों ने एक तरह से खुद ही स्वयं को चुन लिया था। ये पांच देश आज भी सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं। रूस, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस और अमेरिका सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं और उनके पास वीटो का अधिकार है। इसके अलावा दो साल के कार्यकाल के लिए 10 अस्थायी सदस्यों का चयन किया जाता है। भारत का अस्थायी सदस्य के रूप में कार्यकाल पिछले साल दिसम्बर में पूरा हुआ था। भारत सुरक्षा परिषद में सुधारों की लंबे समय से मांग करता रहा है। साफ है कि शांति बहाली के विचार के साथ शुरू हुआ संयुक्त राष्ट्र आज संघर्ष को रोक पाने में कतई समर्थ नहीं है। अस्तित्व में रहने के बावजूद संस्थाओं के शिथिल पड़े रहने से रूस-यूक्रेन समेत दुनिया में चल रहे तमाम संघर्ष को न तो खत्म किया जा सकता है और न सह अस्तित्व की वकालत की जा सकती है। दुनिया के उन देशों को भी इस बारे में संजीदगी से सोचना होगा। दुनिया बदल चुकी है, लिहाजा संस्थाओं में भी सुधार जरूरी है।
चीन के विरुद्ध बनती व्यवस्था में भारत की बढ़ती भूमिका
हर्ष वी पंत, ( प्रोफेसर किंग्स कॉलेज लंदन )
जापान ने पिछले सप्ताह हिरोशिमा में जी – 7 शिखर सम्मेलन की मेजबानी की है, जिसमें भारत एक विशेष आमंत्रित सदस्य था । जापान में जी – 7 शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति महत्वपूर्ण थी, क्योंकि इन दिनों भारत जी -20 की अध्यक्षता कर रहा है। यह भी गौरतलब है कि क्वाड की बैठक भी जापान में ही हुई, जो पहले सिडनी में होने वाली थी। जापान से ही प्रधानमंत्री मोदी पापुआ न्यू गिनी गए और वहां से सिडनी ।
जापानी प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा के लिए यह शिखर सम्मेलन दुनिया को बदलते हुए जापान का दर्शन कराने का अवसर था । यह वह जापान है, जो अंतरराष्ट्रीय शांति व सुरक्षा में वैश्विक जिम्मेदारियों को उठाने के लिए पहले से कहीं अधिक इच्छुक है। धीरे-धीरे किशिदा जापान के सुरक्षा ढांचे को बदल रहे हैं। चीन का सैन्य उदय पहले से ही जापान के शांतिवादी रुख को चुनौती दे रहा था और अब यूक्रेन पर रूसी आक्रमण ने टोक्यो को अपनी रणनीतिक धारणाओं के मूल सिद्धांतों पर पुनर्विचार के लिए मजबूर कर दिया है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से जापान अपनी सबसे गंभीर व जटिल सुरक्षा चिंता का सामना कर रहा है। जापान नीति के तहत यूक्रेन संघर्ष की शुरुआत से ही रूस के खिलाफ जी-7 के कदमों का प्रबल समर्थन करता रहा है।
युद्ध शुरू होने के तुरंत बाद जी-7 राष्ट्रों ने रूस पर कुछ सख्त आर्थिक प्रतिबंध लगाए और उसके बाद रूसी तेल, गैस के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। अभी हिरोशिमा में जी-7 के नेताओं ने कहा है कि वे युद्ध के मैदान में रूस के लिए महत्वपूर्ण वस्तुओं के निर्यात को प्रतिबंधित करने के उपाय करेंगे। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की सम्मेलन में मुख्य आकर्षण रहे। वह अमेरिका से अधिक रियायतें लेने में कामयाब रहे। वाशिंगटन ने यूक्रेन के लिए 3,750 लाख डॉलर के अपने 38वें सैन्य पैकेज की घोषणा की है।
इस बार जी – 7 के नेताओं ने चीन का नाम लिए बिना विरल एकता दिखाई है, उन्होंने बीजिंग की नीतियों को निशाना बनाया और मुकाबले का संकल्प भी लिया। विकसित दुनिया अपने व्यापार, निवेश और आपूर्ति श्रृंखलाओं को चीनी पकड़ से दूर करके चीन पर अपनी निर्भरता को कम करना चाहती है। इस लिहाज से देखें, तो भारत व अन्य आमंत्रित राष्ट्रों की वहां मौजूदगी महत्वपूर्ण थी । क्वाड शिखर सम्मेलन के चार सदस्य देशों ने यथास्थिति बदलने या अस्थिर करने या एकतरफा कार्रवाई करने की कोशिश के प्रति गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए चीन पर निशाना साधा है।
इसके अलावा जी – 7 में वैश्विक भू-राजनीति की अति प्रतिस्पद्ध दुनिया में हाशिये पर धकेले जा रहे लोगों की चिंताओं को आवाज देने की कोशिश खुशी की बात है। यूक्रेनी राष्ट्रपति के साथ अपनी पहली आमने-सामने की बैठक के दौरान नरेंद्र मोदी ने रेखांकित किया कि यूक्रेन युद्ध न सिर्फ राजनीतिक या आर्थिक मामला है, बल्कि यह मानवीय मूल्यों से भी जुड़ा है। भारतीय प्रधानमंत्री ने इस युद्ध का समाधान खोजने के लिए जो भी संभव हो, करने का वादा किया है। हालांकि, इस समय दुनिया के एक बड़े हिस्से की चिंताएं कुछ और हैं, क्योंकि वैश्विक अर्थव्यवस्था कठिन हालात का सामना कर रही है। जापान के लिए, यूक्रेन पर जी-7 समकक्षों के साथ खड़ा होना यह सुनिश्चित करना है कि जब हिंद- प्रशांत में संकट का समय आएगा, तब पश्चिमी देश चीन के खिलाफ भी खड़े होंगे। जापान बढ़ती चुनौतियों का सामना करने के लिए आंतरिक क्षमताओं को मजबूत करने के साथ ही समान विचारधारा के देशों के साथ गठबंधन को तैयार है।
भारत और जापान, दोनों खुद को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में मजबूत पक्ष के रूप में देखते हैं। इस लिहाज से जापान एशिया के रणनीतिक भूगोल को फिर से परिभाषित करने की जरूरत को स्पष्ट करने वाला पहला देश था और उसने संकेत कर दिया था कि भारत की सक्रिय भागीदारी बिना हिंद-प्रशांत सहयोग नहीं होगा। नरेंद्र मोदी ने अपनी जापान यात्रा के दौरान दोहराया है कि उनके एजेंडे में ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, जो यूरेशिया में तत्काल संकट या दुनिया भर में ऋण संकट से परे हैं। वैश्विक अव्यवस्था के लिए विश्वसनीय उत्तर खोजने की कोशिश करना जी-7 के लिए चुनौती है। ऐसा करने के लिए जी-7 को भारत जैसे नए साझेदारों की जरूरत है।