23-05-2019 (Important News Clippings)

Afeias
23 May 2019
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Date:23-05-19

Saving Tigers

Despite Project Tiger’s success, more is needed to protect the big cat

TOI Editorials

In a disturbing trend, tigers in the country are increasingly being killed by snares, even in the core areas of sanctuaries. In the last nine years, 24 tigers and 114 leopards have suffered slow, agonising deaths due to these traps. Worryingly, apart from poachers local communities are also using these wire noose snares to kill the big cats preying on their livestock. This indicates growing man-animal conflict which threatens to reverse the gains made by tiger conservation in the country. There has been a steady increase in the tiger population in the last few years and India had 2,226 tigers as per the 2014 All India Tiger Estimation. This accounts for a 60% jump in tiger population compared to 2006.

However, protecting these gains is proving to be a challenge in the face of growing encroachment of forests and erosion of tiger corridors. Tigers need large habitats as they have high juvenile dispersal rates. But growing human populations and careless development are curtailing this, confining tiger populations to certain pockets. In fact, tigers have lost more than 93% of their historical range. All of this is a recipe for man-animal conflict, providing impetus for dastardly snare traps to kill or injure tigers.

Thus, India’s Project Tiger may have been successful in preventing the decimation of the species. But sustaining and growing tiger populations is the next big challenge. The latter can only be addressed through a holistic approach to preserving and expanding tiger habitats. True, this is easier said than done given the pressure on land from human development. But Project Tiger 2.0 needs to focus on things like proper zoning to keep development away from sanctuaries. For the time being, efforts must be directed towards protecting tigers from snares. Anti-snare exercises using metal detectors must be operationalised in all tiger reserves forthwith.


Date:23-05-19

निष्पक्ष चुनाव पर्याप्त नहीं, ऐसा दिखना भी आवश्यक

संपादकीय

कांग्रेस और कई क्षेत्रीय दलों ने ईवीएम को लेकर गंभीर आरोप लगाए हैं और इसकी सुरक्षा पर संदेह जताया है। यह पहली बार नहीं है कि ईवीएम की कार्यप्रणाली पर संदेह जताया गया है लेकिन, इस बार लगभग पूरा विपक्ष इस पर सवाल उठा रहा है। इसे देखते हुए चुनाव आयोग को उनका संदेह दूर करने के लिए पुख्ता कदम उठाना चाहिए। दो साल पहले जरूर चुनाव आयोग ने ईवीएम की विश्वसनीयता की जांच के लिए सारे राजनीतिक दलों को आमंत्रित किया था पर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को छोड़कर कोई दल उपस्थित नहीं हुआ। इसके पहले सुप्रीम कोर्ट ने ही ईवीएम के साथ वीवीपैट जोड़ने का आदेश दिया था, ताकि यह पुष्टि हो सके कि जिस प्रत्याशी को मतदाता ने वोट दिया है, वह उसी के पक्ष में दर्ज हुआ है। इसके बावजूद कुछ दलों के नेता आरोप लगाते रहे कि डाला गया वोट किसी और प्रत्याशी के पक्ष में दर्ज होता है। इस विवाद के समाधान और मतदान प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाने के उद्देश्य से फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्येक विधानसभा चुनाव क्षेत्र में पांच ईवीएम वीवीपैट से जोड़ने के आदेश दिए। इसके मुताबिक निर्वाचन आयोग ने नियम बनाया कि पहले पांच मशीनों में कुछ गड़बड़ दिखते ही मामले की जांच की जाएगी। अब विपक्षी दलों का कहना है कि यह नियम भी पर्याप्त नहीं है। इसकी बजाय प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में 50 फीसदी ईवीएम वीवीपैट से जोड़ी जानी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने तो यह मांग खारिज करते हुए यह भी कह दिया कि उसे इस मामले में नहीं पड़ना।

मंगलवार को यह फैसला होते वक्त सोशल मीडिया पर बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ लोकसभा क्षेत्रों में ईवीएम को कथित रूप से स्थानांतरित करने के वीडियो दिखाई दिए, जिससे चुनाव आयोग मुश्किल में आ गया। मामला चुनाव आयोग पर अविश्वास का नहीं है बल्कि प्रक्रिया पर संदेह जताकर सफाई मांगने का है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में ऐसा ही होता है। जैसे न्यायपालिका के संदर्भ में कहा जाता है कि न्याय होना पर्याप्त नहीं है, यह होते हुए दिखना भी चाहिए। उसी तरह निष्पक्ष चुनाव होना पर्याप्त नहीं है, ऐसा नज़र भी आना चाहिए। इस मामले में चुनाव आयोग पहले वीवीपैट की गिनती का आदेश दे सकता था, जिसमें वक्त लगता पर कम से कम इससे इस संवैधानिक संस्था में विपक्ष का भरोसा तो बहाल होता।


Date:23-05-19

सात दशकों में कितना कमजोर हुआ है सिस्टम

सर्वोच्च न्यायालय में हुईं तीन घटनाएं और देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती का सवाल

एनके सिंह , राजनीतिक विश्लेषक

देश की सबसे बड़ी अदालत -सुप्रीम कोर्ट- में हुई तीन घटनाओं ने भारत की न्याय-व्यवस्था को सदमें में डाल दिया। यहां तक कि जाने-माने अधिवक्ता और केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी विगत दिनों एक पुस्तक-विमोचन समारोह में कहा कि अदालत को डराने का कुचक्र चल रहा है। अगर देश की सबसे बड़ी पंचायत भी यही बात कहे और देश का शासक वर्ग भी, तो फिर इलाज़ क्या है? क्या न्याय के लिए माफियाओं की दहलीज़ पर जाना होगा? इन तीन घटनाओं ने पूरी दुनिया में भ्रष्टाचार पर शोध कर रहे विद्वानों के लिए एक नया सवाल खड़ा कर दिया है- क्या विकासशील देशों में (खासकर भारत जैसे) प्रचलन में आए कोल्युसिव करप्शन (सहमति के आधार पर भ्रष्टाचार) से छुटकारा पाना असंभव है ?

इसकी शुरुआत 1970 में हुई जब विकास का पैसा बड़े परिमाण में सरकारी विभागों के माध्यम से भारत सहित विकासशील देशों में दिया जाने लगा। इसकी सबसे बड़ी खराबी यह है कि इसका खत्म होना तब तक संभव नहीं जब तक समाज के अंदर वैयक्तिक नैतिक विवेक को झकझोरा न जाए और साथ ही भ्रष्टाचार निरोधक कानून और संस्थाओं को इतना मजबूत न बना दिया जाए कि कोई उनकी अवहलेना करने की हिमाकत न करे। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने दस साल पहले इस संकट को ‘कोएर्सिव करप्शन’ (भयादोहन के जरिये किया जाने वाला भ्रष्टाचार) से भी खतरनाक बताया और अपनी रिपोर्ट में सिंगापुर और हांगकांग का उदाहरण देते हुए सलाह दी कि मजबूत संस्थाएं विकसित की जाएं और दोष-मुक्ति का जिम्मा (बर्डन ऑफ प्रूफ) भी आरोपी पर डाला जाए। क्या कोई विश्वास कर सकता है कि सुप्रीम कोर्ट में बेंच आदेश कुछ देते हैं और जो अॉर्डर औपचारिक रूप से जारी होता है वह कुछ और होता है? आप इस पर मुतमईन हो कि आपके पक्ष में वकील ने अच्छा तर्क दिया और बेंच ने फैसला आपके पक्ष में सुनाया, लेकिन हाथ में जो आदेश आएगा वह शायद आपके खिलाफ हो।

ताज़ा घटना में हुआ यूं कि गत 2 मई को जस्टिस अरुण मिश्र के नेतृत्व वाली बेंच ने आदेश दिया कि आम्रपाली बिल्डर द्वारा मकान खरीदने वाले हजारों लोगों के सैकड़ों करोड़ रुपए की हेराफेरी के मामले में माल सप्लाई करने वाली छह कंपनियों के डायरेक्टर फॉरेंसिक ऑडिटर (कोर्ट -निर्धारित ऑडिटर) पवन अग्रवाल के समक्ष प्रस्तुत हों। लेकिन, जब 9 मई को बेंच फिर बैठी तो औपचारिक अॉर्डर में पवन अग्रवाल की जगह इन डायरेक्टरों को एक अन्य फॉरेंसिक ऑडिटर रवीन्द्र भाटिया के समक्ष प्रस्तुत होने को कहा गया था।

घटना से कुपित होकर बेंच ने कहा, कुछ प्रभावशाली कॉर्पोरेट घराने कोर्ट स्टाफ से मिलकर आदेश बदलवा देते हैं। वे न्याय प्रणाली में अंदर तक घुस गए हैं। उन्होंने याद दिलाया कि कुछ दिन पहले जस्टिस रोहिंगटन नरीमन के नेतृत्व वाली बेंच के आदेश को भी बदल दिया गया था। इस घटना में देश के एक बड़े उद्योगपति के अवमानना के मुकदमे में आदेश बदल दिया गया था। जब बेंच को पता चला तो कोर्ट के दो कर्मचारी तत्काल नौकरी से निकाले गए और उनपर आपराधिक मुकदमे दर्ज किए गए।

जजों के उक्त उद्गार समाज के लिए दहशत पैदा करने वाले हैं। एक ही संस्था बची थी जिस पर भरोसा सबसे ज्यादा था, लेकिन प्रभुता संपन्न वर्ग उसे भी घसीटकर अपने स्तर पर ला खड़ा कर देना चाहता है ताकि हमाम में किसी के तन पर कपड़ा नहीं होगा। लिहाज़ा, कोई भी किसी को गलत कहने की हिम्मत नहीं करेगा। मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले पर पहले दिन कहा था कि कुछ प्रमुख मामलों में यह अदालत सुनवाई करने जा रही है, इसलिए यह सब किया जा रहा है।

इसी अदालत के एक तीन सदस्यीय वरिष्ठ पैनल ने सुप्रीम कोर्ट की एक बर्खास्त महिलाकर्मी द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश पर यौन शोषण के आरोपों के तथ्यों की जांच शुरू की। सुनवाई के दौरान इन जजों के आहत भाव का यह आलम था कि जस्टिस अरुण मिश्र ने कहा- ‘एक सुनियोजित कुचक्र है इस अदालत को प्रभावित करने का। अब समय आ गया है कि संपन्न और शक्तिशाली वर्ग को बता दिया जाए कि तुम आग से खेल रहे हो।’ सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता को बीच में रोकते हुए उन्होंने कहा- ‘मत सोचो कि दुनिया के किसी कोने में बैठ कर देश के आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के जरिये अदालत को भी चला लोगे। हम जब भी किसी ऐसे मामले को सुनते हैं, जिनमें बड़े लोग संलिप्त होते हैं तो ऐसी घटनाएं पैदा की जाती हैं। लोग पैसे के बल पर हमारी रजिस्ट्री (जहां याचिकाएं दाखिल होती हैं) को प्रभावित करना चाहते हैं। अगर किसी एक के खिलाफ कार्रवाई कीजिये तो वे आप की छवि खराब करने की साजिश करेंगे …. मारने का कुचक्र करेंगे … यह सब करते रहेंगे। दूसरी तरफ की वकील इंद्रा जयसिंह जैसे ही कुछ बोलने के लिए खड़ी हुईं तो जस्टिस मिश्र फिर बोले- ‘हमें प्रोवोक (उद्वेलित) न करें , हमें इस पर टिप्पणी करने के लिए मजबूर न करें कि किस तरह बेंच -फिक्स (पीठ -गठन) करवाए जाते हैं।’

ध्यान रहे कि वकीलों के एक वर्ग और कोर्ट के कर्मचारियों के संगठन ने भी धरना-प्रदर्शन किया उस महिला कर्मचारी के पक्ष में। उधर कुछ दिनों में ही वकीलों और कोर्ट कर्मचारियों के अन्य धड़ों ने भी मुख्य न्यायाधीश के पक्ष में प्रति धरना शुरू कर दिया। यह सब राजनीतिक दलों और उनके अनुषांगिक संगठनों द्वारा तो किया जाता है, लेकिन देश के मुख्य न्यायाधीश भी सही हैं कि गलत यह सड़कों पर साबित होगा? हम 70 साल में कहां आ गए हैं। शासक वर्ग के पास तो कानून की शक्ति है, पुलिस है फिर वित्त मंत्री असहाय क्यों? फिर देश के सुप्रीम कोर्ट के जज हीं नहीं, उच्च न्यायालयों के जज भी संविधान के अनुच्छेद 124 (4) के कवच से रक्षित हैं। उन्हें कौन डराने की जुर्रत कर रहा है? हमारा सिस्टम कितना असहाय हो चुका है इन सात दशकों में ?


Date:23-05-19

यूएस-चीन व्यापार युद्ध की तपिश

असल में चीन के कानून ऐसे हैं जिसमें अगर सरकार को कोई खुफिया जानकारी चाहिए तो इसमें घरेलू कंपनी को उसकी मदद करनी होती है।

हर्ष वी पंत , ( लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं )

व्यापारिक मोर्चे पर अमेरिका और चीन के बीच तनातनी लगातार बढ़ती जा रही है। इसी कड़ी में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल में चीन की दिग्गज तकनीकी कंपनी हुआवे पर प्रतिबंध लगा दिया। ट्रंप के इस आदेश के बाद हुआवे के लिए अमेरिकी बाजार में परिचालन संभव नहीं होगा। ट्रंप की सख्ती के पीछे यह वजह बताई जा रही है कि चीन अपनी इस दिग्गज कंपनी के माध्यम से व्यापक स्तर पर जासूसी कराने के अलावा महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे तक अपनी पहुंच बना सकता है।

अमेरिकी वाणिज्य विभाग ने हुआवे टेक्नोलॉजीज कंपनी और 70 अन्य कंपनियों को अपनी तथाकथित ‘एंटाइटी लिस्ट’में डाल दिया है। इसके चलते चीनी कंपनी अमेरिकी सरकार की पूर्व मंजूरी के बिना अमेरिकी कंपनियों से किसी तरह की तकनीकी या कलपुर्जों की खरीद-फरोख्त नहीं कर पाएगी। इसके साथ ही ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश जारी करके अमेरिकी कंपनियों को हिदायत दी है कि वे ऐसी कंपनियों से दूरसंचार उपकरण न खरीदें जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जोखिम पैदा कर सकती हैं। गूगल और क्वालकॉम जैसी प्रमुख अमेरिकी कंपनियां हुआवे के साथ तकनीकी साझेदारी न करने की तैयारी कर रही हैैं। हालांकि अमेरिकी प्रशासन के आदेश में कहीं भी हुआवे का नाम नहीं लिया गया, लेकिन निशाना स्पष्ट रूप से वही है। अमेरिका और चीन के बीच पहले से ही व्यापार युद्ध छिड़ा हुआ है। यह ताजा प्रकरण व्यापार युद्ध की उस आग में और घी डालने का ही काम करेगा। इस ट्रेड वॉर में तकनीक भी लड़ाई का एक प्रमुख अखाड़ा है तो यह प्रकरण न केवल द्विपक्षीय रिश्तों की प्रकृति, बल्कि निकट भविष्य में वैश्विक राजनीति एवं आर्थिकी पर भी अपना असर डालेगा।

स्वाभाविक रूप से हुआवे ने इसकी निंदा करते हुए कहा कि अमेरिकी सरकार उसके व्यापार को खत्म करने का प्रयास कर रही है। कंपनी ने कहा है कि उसके व्यापार में बाधा डालने से अमेरिका अपने देश में अगली पीढ़ी के उन्नत मोबाइल नेटवर्क को विकसित करने में पीछे रह जाएगा। बीजिंग के अनुसार अमेरिका ने कुछ चुनिंदा चीनी कंपनियों को निशाना बनाने के लिए सरकारी नियम-कानूनों का सहारा लिया है ताकि उनके सामान्य एवं कानून के दायरे में संचालित कारोबार पर प्रहार किया जा सके और चीन सरकार अपनी कंपनियों के वैधानिक अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए किसी भी कोशिश से पीछे नहीं हटेगी। हुआवे कुछ अर्थों में चीनी राष्ट्रवाद के प्रतीकों में से एक मानी जाती है। इसे ‘चीन के उभार’ की एक अहम कड़ी के रूप में भी देखा जाता है। ऐसे में इस कंपनी पर किया गया कोई भी हमला चीन खुद पर एक हमला मानता है। इसके अलावा अमेरिका ने हुआवे की मुख्य वित्तीय अधिकारी मेंग वानझू के खिलाफ आरोप तय करने को लेकर अपने पत्ते भी अभी तक नहीं खोले हैं जिन्हें पिछले वर्ष दिसंबर में कनाडा से गिरफ्तार किया गया था।

अमेरिका और चीन के बीच यह संघर्ष केवल द्विपक्षीय स्तर पर ही नहीं रह गया है। वाशिंगटन अपने सहयोगी देशों पर भी दबाव डाल रहा है कि वे चीनी कंपनी को अपने मोबाइल नेटवर्क के काम से दूर रखें। कुछ देशों पर इसका असर भी हो रहा है। खासतौर से पश्चिम के देश हुआवे को लेकर उठ रहे सवालों को नजरअंदाज नहीं कर रहे हैं। हाल में डच खुफिया सेवा भी जासूसी के मामले में हुआवे की जांच कर रही है। उसे संदेह है कि चीनी सरकार हुआवे के माध्यम से ग्र्राहकों के डाटा में सेंधमारी कर रही है।

यह सब कुछ एक ऐसे समय में हो रहा है जब डच सरकार को नीदरलैंड में नए 5जी नेटवर्क के लिए हुआवे की भागीदारी पर विचार करना है। ब्रिटेन में भी दूरसंचार सेवा प्रदाता बीटी ने गत वर्ष पुष्टि की थी कि वह अपने 4जी नेटवर्क के प्रमुख इलाकों से हुआवे के उपकरण हटा रही है। खुफिया एजेंसी एमआइ6 द्वारा जताई चिंताओं के बाद कंपनी ने यह कदम उठाया था। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और जापान पहले ही हुआवे के 5जी उपकरणों पर प्रतिबंध लगा चुके हैं। यूरोप के अधिकांश देश भी चीन की इस तकनीकी दिग्गज के साथ अपने संबंधों की नए सिरे से समीक्षा में जुटे हैं।

कुल मिलाकर दांव बहुत ऊंचे लगे हैं, क्योंकि यह चीन और अमेरिका के बीच व्यापार और वैश्विक प्रभुत्व को लेकर चल रही खींचतान का हिस्सा है। कुछ हफ्तों पहले अमेरिका और चीन के बीच चल रहे ट्रेड वॉर का कुछ समाधान निकलता दिख रहा था, लेकिन अब उसमें नए सिरे से तल्खी आ गई है। इसमें अमेरिका ने दबाव बढ़ाते हुए बीते हफ्ते चीन के 200 अरब डॉलर के चीनी आयात पर शुल्क 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 25 प्रतिशत कर दिया। चीन ने भी पलटवार करते हुए अमेरिका के 60 अरब डॉलर के उत्पादों पर आयात शुल्क की दरें बढ़ा दीं। इस साल की शुरुआत में ही दूरसंचार उपकरणों के मोर्चे पर हुआवे की बादशाहत कायम होते देख ट्रंप प्रशासन ने कुछ कदम उठाए थे जिनसे अमेरिका में नए वायरलेस नेटवर्क का जाल बिछाने के काम को गति दी जाए। इसमें आह्वान किया गया कि 5जी की होड़ अमेरिका को हर हाल में जीतनी चाहिए। मगर यह अभी तक स्पष्ट नहीं कि हुआवे के वर्चस्व की काट के लिए कोई कारगर और समन्वित रणनीति बनाई भी गई या नहीं, क्योंकि अमेरिका में हुआवे की टक्कर का कोई भी 5जी नेटवर्क आपूर्तिकर्ता नहीं है। इस मामले में चीन के प्रयास बहुत सधे हुए हैं और वह दशकों से तकनीकी मोर्चे पर छलांग को राष्ट्रीय प्राथमिकता के तौर पर लेता आया है।

तकनीकी क्रांति के अगले चरण में खेल का पासा पलटने की क्षमता वाली अपनी भूमिका को देखते हुए 5जी वैश्विक तकनीकी जगत का नेतृत्व करने की चीनी आकांक्षाओं की धुरी बनती हुई दिख रही है। हुआवे के इतिहास और चीनी कानूनों के चलते पश्चिमी देशों की राजधानियों में इस चीनी दिग्गज के उभार को लेकर घबराहट का भाव बढ़ा है। असल में चीन के कानून ऐसे हैं जिसमें अगर सरकार को कोई खुफिया जानकारी चाहिए तो इसमें घरेलू कंपनी को उसकी मदद करनी होती है।

भारत में भी अगले महीने से 5जी का बहुप्रतीक्षित ट्रायल शुरू होना है। हुआवे के खिलाफ पश्चिमी देशों द्वारा खड़ी की गई चुनौतियों को देखते हुए इसे लेकर अभी भी कुछ हिचक स्वाभाविक है। परीक्षण के लिए अभी तक किसी भी सेवा प्रदाता ने हुआवे को साझेदार नहीं बनाया है। इस मामले में अभी फैसला किया जाना शेष है। शायद वह पहले दौर के परीक्षणों का हिस्सा न भी बने, लेकिन यह मामला अभी विचाराधीन है।

राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक समृद्धि हमेशा एक कड़ी से जुड़ी होती हैं, लेकिन व्यापार एवं तकनीकी टकराव में अमेरिका और चीन जैसे देशों में जो रणनीतिक प्रतिस्पर्धा बढ़ी है, उसमें भारत जैसे देशों के लिए रणनीतिक गुंजाइश लगातार सिकुड़ती जाएगी। ऐसे में नई दिल्ली को दीर्घावधिक दृष्टिकोण को देखते हुए ऐसी नीति अपनानी होगी जिससे न केवल तात्कालिक हित सुरक्षित रहें, बल्कि उसकी स्वयं की तकनीकी क्षमताओं को भी बल मिले।


Date:22-05-19

The aftermath of a nasty election

The time has come for civil society to forge corrective action and strengthen institutions

R. Seshasayee is a company director and corporate adviser.

The devastation caused by a vicious electoral campaign for the 17th Lok Sabha has cast a troublesome shadow on India’s future. Citizens who have witnessed 10 or more elections in free India would readily agree that electoral politics has never sunk so low in the past as it has now. Truth and national interest were victims while destruction of the political enemy became the sole purpose of fighting the election. Yet there is one very bright side that needs celebration.

The redeeming feature has been the integrity of the election process and the mechanics of registering the choice of the voter. While the overall electoral turnout in this general election has been put at a tentative 67.11%, making it a historic one, there have been no proven instances of booth capture. Most importantly, there has been no credible evidence of any material failure of electronic voting machine (EVM) technology. But this is evaluating democracy against a low bar.

While the body of democracy might still be reasonably healthy, what must trouble every citizen is the the deep corruption of the soul of democracy.

Fissures

What is the damage done to the future of India?

First, the credibility and effectiveness of Parliament, the very institution that we have so painstakingly sent our representatives to, is set to experience a further erosion. The culture of aggressive disruption by the Opposition might get chronic, given that there has been no evidence that political parties will place the nation ahead of their political interests. Parliament can discharge its responsibility of law-making, only if parliamentarians rise above partisan interests.

Second, while Indian foreign policy has remained somewhat underwhelming and defensive (with the exception of the liberation of Bangladesh, and the Balakot attack), the growing nexus between a rogue neighbour and an ascendant superpower in the region has highlighted the radical need for an assertive policy within the framework of non-aggrandisement. That requires a risk-taking ability within a narrow space for manoeuvrability. It needs the government and the Opposition to stand as one. However, the behaviour of both national parties does little to inspire confidence in this direction.

An economic script

Third, by all indications, the Indian economy will face strong headwinds. Consumption-led demand is slowing down and the rural economy continues to be in distress. The ‘twin balance sheet’ problem is constraining new investments while the banking sector is in disarray. Yet, India can achieve at least a high single-digit growth. This will, however, depend on the government executing the next round of reforms in land and labour markets, further pruning unproductive subsidies, devising policies to attract foreign and private investments in infrastructure, and incentivising business to produce and service the world. The new government will have to sell to the public the necessity for some short-term pain for long-term gain. It will have to take bold financial decisions while being accountable and transparent. Election rhetoric and pre-election actions instead focussed on the opposite: doles, which are short-term gains; non-transparency in and witch hunting of procurement deals; and a systematic alienation of private enterprise. This is not the canvas on which a bold turnaround plan for the economy can be scripted.

Fourth, the nation has not only been sharply polarised but the elections have pushed it to react emotionally rather than rationally. Social media has unleashed raw emotions. In election season, every social issue has been viewed through the prism of political ideology.

Need for constructive discourse

Despite our glorious history of advanced thinking, realisation of our constitutional aspirations of equality and liberty has been stymied by inherited societal backwardness. Social reforms can happen only in an atmosphere of constructive debate and dissent and a shared vision of modernity. The discourse has to move away as much as possible from ideology to constitutional rights.

Fifth, democracy has to be anchored in the system of checks and balances among autonomous institutions, the judiciary, the defence forces and the Election Commission of India as well as an independent media and civil society. Despite the mutinous situation in some of these institutions and the disturbing circumstances in this election, there is no great fear that institutions have been permanently damaged. That cannot be said of the media, especially the visual and social media. The polarisation of the media on political lines and the loss of neutrality appear almost complete.

Does this mean that we have collectively failed to safeguard our future? No, there is hope and we have to act quickly and responsibly.

Role for civil society

The time has come for civil society to offer that hope and shoulder the responsibility for corrective action. Participative democracy has to be kept alive through a vigilant and demanding civil society that ensures restoration of the primacy of national interests. India has a very active and vast civil society that has several exemplars in the fields of advocacy, citizen rights, environment and philanthropy. There is a need and space for robust and credible civil organisations that act as bridges between the elected and the electorate.

Leaders from different vocations such as business, arts and administration have to render public service through civil organisations. Indifferent silence and armchair commentaries are not responsible options. Second, relevant organisations have to come together to demand a proper and orderly functioning of Parliament and State legislatures. A worthwhile experiment would be having citizen organisations at the constituency level that act as monitors of elected representatives.

Third, industry and trade organisations must demonstrate spine and pursue a vocal agenda of advocacy based on broader national interests and beyond narrow corporate gains.

Fourth, India has had a long history of socially committed organisations leading societal transformation from the front. While Parliament might enact laws when it comes to closing the gap between legislative intent and social practices, much falls on the shoulders of a socially conscious citizenry. Civil society needs to rise to meet this challenge.

Fifth, civil society should rise in force to safeguard the integrity and independence of autonomous institutions, should they face a threat.

Perhaps, the political class and our elected representatives will morph into butterflies and surprise us citizens with responsible behaviour. There is little doubt that the very presence of organised and active civil society would only serve to hasten such a splendid metamorphosis.