23-05-2016 (Important News Clippings)
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Date: 23-05-16
ईरान में भारत के हित
वर्तमान में दोनों देशों को कनेक्टिविटी, ऊर्जा और व्यापार पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। भारत के सहयोग से मुक्त व्यापार और निवेश जोन सहित दक्षिण-पूर्व ईरान में चाबहार बंदरगाह के विकास के लिए दोनों देश दो दशक से वार्ता करते आ रहे हैं, लेकिन अभी भी इसे वास्तविक रूप नहीं दिया जा सका है। भारत ने संकेत दिया है कि वह इस उद्देश्य के लिए करीब 20 अरब अमेरिकी डॉलर निवेश करने का इच्छुक है। चाबहार बंदरगाह सहित अफगान की सीमा तक सड़क और रेलवे का विकास होने से अफगानिस्तान और पूरे मध्य एशिया में भारत की पहुंच सुनिश्चित होगी। भारत पहले ही ईरान-अफगान सीमा पर जरांग से दिलराम तक रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण 200 किमी से ज्यादा लंबी सड़क बना चुका है। भारत, अफगानिस्तान और ईरान के बीच एक त्रिपक्षीय समझौते को भी अंतिम रूप दिया जाना है और मोदी के उच्च स्तरीय दौरे के दौरान इस पर हस्ताक्षर होने की संभावना है। इसके लिए अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी भी तेहरान का दौरा कर सकते हैं। यह भारतीय कूटनीति की उपलब्धि मानी जाएगी। ऊर्जा के क्षेत्र में कुछ प्रगति होने की उम्मीद है। हाल के वर्षों में ईरान तेल और गैस का भारत का प्रमुख आपूर्तिकर्ता रहा है।
हालांकि अतीत में ईरान के खिलाफ अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों के कारण आपूर्ति में थोड़ी गिरावट आई, लेकिन अब सारे प्रतिबंध हटा लिए गए हैं, लिहाजा ईरान के पेट्रो केमिकल सेक्टर में भारत की भागीदारी के अवसर बढ़ गए हैं। उम्मीद है कि कुछ पुरानी समस्याएं खासकर फरजाद ऑयलफील्ड पर भारत के नियंत्रण संबंधी दिक्कतें दूर कर ली जाएंगी। प्रतिबंधों के हटने के बाद ईरान की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे मजबूत होगी। ईरान में बदले माहौल ने भारतीय निर्यात के लिए बड़े अवसर खोले हैं। भारतीय कंपनियों को ईरान के बाजार में प्रभावी रूप से कदम बढ़ाने की जरूरत है। भारतीय कारोबारियों के प्रयासों का मोदी ने हमेशा ही समर्थन किया है। अब भारत की आर्थिक कूटनीति का परिणाम निर्यात में बढ़ोतरी के रूप में दिखना चाहिए। भारत और ईरान, दोनों क्षेत्र में स्थिरता वापस लाना और आइएस जैसे आतंकी समूह का खात्मा करना चाहेंगे। ईरान परमाणु समझौते के बाद इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है, लेकिन सऊदी अरब के नेतृत्व वाले अरब देश तुर्की की तरह ही उसका विरोध कर रहे हैं। मोदी संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब का दौरा कर चुके हैं। खाड़ी के दूसरे देशों के साथ-साथ इन दोनों देशों में भी भारत के हित निहित हैं। उन दौरों के वक्त दोनों देशों ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई और इस क्षेत्र में शांति एवं स्थिरता बहाली की दिशा में सहयोग देने सहित सभी क्षेत्रों में भारत से मजबूत संबंध विकसित करने के साफ संकेत दिए थे।
पाकिस्तान से करीबी संबंध होने के बावजूद सऊदी अरब और यूएइ भारत से अपने संबंधों को मजबूत करना चाहते हैं। अपनी तरफ से मोदी ने इस क्षेत्र की राजनीति में फंसने के बजाय उससे दूरी बनाकर अच्छा किया। उन्होंने इन देशों से द्विपक्षीय स्तर पर ही संबंधों को आगे बढ़ाया। भारत के हितों को साधने का यही सर्वोत्तम तरीका है। इस क्षेत्र में राजनीतिक गतिविधियां ईरान द्वारा अमेरिका की अगुआई वाले एक समूह के समक्ष अपने परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लिखित में हामी भरने के बाद तेज हुई हैं। इसी के बाद ईरान पर लगे तमाम प्रतिबंध खत्म हुए और दूसरे देशों से उसके व्यापार आरंभ हुए। अब यूरोप और ईरान के दूसरे सहयोगियों में काफी उत्साह है, खासकर ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग को लेकर। इससे ईरान के आत्मविश्वास में इजाफा हुआ है। उसे लगता है कि इस तरह वह इस क्षेत्र में स्वयं को न सिर्फ खड़ा करने, बल्कि शिया मुस्लिमों के हितैषी के रूप में पेश करने में सफल होगा। सबसे ज्यादा शिया मुस्लिम आबादी वाला देश ईरान स्वयं को विश्व भर में फैले शिया मुस्लिमों का अभिभावक मानता है। इसी कारण उसने शिया बहुल इराक, लेबनान और शिया असद परिवार के शासन वाले सीरिया में हस्तक्षेप किया है। यमन में ईरान का प्रभाव बढऩे के भय ने सऊदी अरब को वहां सशस्त्र हस्तक्षेप करने का अवसर दिया और अब वह हिंसा से ग्रस्त है। यह सब इजरायल सहित दूसरे सुन्नी अरब देशों और सऊदी अरब के साथ ईरान के सीधे टकराव का कारण बना है। इन सभी देशों द्वारा भारत को प्रभावित करने के लिए सधे कदमों से चतुराई भरा कूटनीतिक खेल खेला जा रहा है। ईरान भी ऐसा करने का प्रयास करेगा। इसमें संदेह नहीं कि मोदी यही संदेश देंगे कि भारत शांति का पक्षधर है।
हाल में ईरान के राष्ट्रपति हसन रुहानी ने पाकिस्तान का दौरा किया था। उसी दौरान पाकिस्तान यह दुष्प्रचार कर रहा था कि उसने चाबहार में सक्रिय जिस रिटायर्ड भारतीय नौसेना अधिकारी कुलभूषण जाधव को गिरफ्तार किया है वह भारत का जासूस है जो बलूचिस्तान में आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा था। रुहानी के दौरे के वक्त ही उनसे पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ ने कथित रूप से यह शिकायत की कि भारत पाकिस्तान में अवैध गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए ईरान की जमीन का इस्तेमाल कर रहा है। रुहानी ने न सिर्फ इसे नजरअंदाज किया, बल्कि पाकिस्तान के रवैये पर नाराज भी हुए। जाहिर है कि ईरान भारत-पाकिस्तान के झगड़े में नहीं पडऩा चाहता है। यही भारत भी चाहेगा।
[ लेखक विवेक काटजू, विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी और एशियाई मामलों के विशेषज्ञ हैं ]
Date: 22-05-16
Standing up to patent bullying
B. VINOD KUMAR
Access to low-cost quality medicines plays a critical role in public health systems. In the last decade, the public health challenges facing developing countries have expanded beyond infectious diseases to non-communicable diseases (“NCDs”) in large part due to changing lifestyles and environmental risks. The World Health Organisation estimates that 80 per cent of all deaths from NCDs occur in low- and middle-income countries like India.
Affordable prices for medicines are vital to ensure that governments can progressively realise the sustainable development goal of universal access to health care. In particular, low-cost, quality generic medicines have played – and continue to play – a critical role. Generic medicines are essentially identical versions of a branded medicine which can be manufactured without a licence from the innovating company and are marketed after the stipulated time under the patent laws. They are sold under non-proprietary names rather than brand names.
Generic drugs cost a fraction of the monopoly prices charged in countries like the United States, and the presence of multiple generic competitors in India has reduced the price of cancer and HIV treatment by as much as 90 to 1,000 per cent. For instance, first-line HIV treatment that costs over Rs.16 lakh annually to treat just one patient in the U.S. costs the Indian AIDS programme approximately Rs.7,000.
Access to quality generic treatment is particularly important for households that pay for medicines out-of-pocket. When poor households lack access to affordable generics, they must forego treatment, sell precious assets, or make difficult choices between paying for medicines and other basic necessities like food, clothing and children’s education.
India’s crucial role
India is at the centre of the world’s generic drug production as it is one of the few countries with the technical capacity to produce raw materials, also known as Active Pharmaceutical Ingredients (API), and formulations of newer medicines as generics. Medicines produced by generics companies in India are among the most affordable in the world. When generic substitutes are not available in India — for instance due to patent monopoly — it leads to high pricing of medicines as only the proprietary companies can manufacture them. They become inaccessible to manufacturers at large and their high prices place them out of reach for the majority of patients who need them.
The Ministry of Commerce must be cautious of Free Trade Agreements (FTAs), such as the ones it is presently negotiating with the European Union as well as the Regional Comprehensive Economic Partnership (RCEP), that further strengthen or extend intellectual property monopolies. These will subsequently delay generic competition and the associated drop in prices, which will have a negative impact upon access to affordable medicines from domestic producers.
Parliament’s inclusion of public health safeguards in its patent law through an amendment in 2005 set a progressive precedent for the entire world. It substituted Section 3(d) of the Patents Act such that frivolous changes which did not increase the efficacy of a medicine would not make it eligible for a patent. Through this it protected generics from the deadly practice of ‘evergreening’, where pharmaceutical companies endlessly extend patents based on frivolous modifications to their drugs that have little to no effect at best and are active health hazards at worst. The use of these safeguards by patient groups, courts and the patent office has now become a target of the multinational pharmaceutical lobby which seeks to get rid of them so it can pursue its goal of profiting from higher medicine prices. This can be seen as the reason behind intensified pressure from the U.S. against affordable medicines that are ‘made in India’.
The U.S. Trade Representative operates under the office of the American President and is somewhat like India’s Ministry of Commerce and Industry, mainly responsible for foreign trade. It prepares a report known as the ‘Special 301 Report’ where it has a ‘Priority Watch List’ where it lists countries whose intellectual property laws it dislikes. This is generally used to threaten and intimidate countries and is a pressure tactic to get them to change their laws so they are to the U.S.’s liking.
This year the U.S. Trade Representative released its report on April 26 — World Intellectual Property Day — and put India on the ‘Priority Watch List’. This move is to create pressure on the Ministry of Commerce and Industry and force it to comply with its demands on Intellectual Property (IP) enforcement so U.S.-based pharmaceutical companies can reap super profits.
Not satisfied with this move, the U.S. Trade Representative is now coming up with an ‘action plan’ for India with concrete benchmarks to hold India ‘accountable’ for IP-related trade practices that disadvantage American companies. The Indian government should reject such blatant interference in our internal policies on intellectual property. Commerce Minister Nirmala Sitharaman has rightly pointed out that the Special 301 Report is inconsistent with the WTO’s norms which clearly state that any dispute between two countries needs to be referred to its Dispute Settlement Body and unilateral actions such as the Report are not tenable.
India must clearly reject the intellectual property laws which the United States is trying to force on us. These have led to an unprecedented health crisis in the U.S. itself, with spiralling prices of medicines under lengthy and multiple IP monopolies, with American insurance companies struggling to manage the cost of reimbursing expensive new medicines, all of which threaten people’s access to treatment. Current U.S. intellectual property laws have done nothing but enable pharmaceutical companies to charge exorbitant prices for medicines, such as over $1,00,000 annually for new cancer medicines and $1,000 a pill for new hepatitis C treatments. This has made health care simply out of reach for the vast majority of Americans and the issue of affordable health care has dominated the primaries in the ongoing American presidential elections. This failed model, which has allowed companies to profit from human misery and is even rejected in its own country, is not worthy of our consideration.
India’s laws and policies on the other hand are entirely compliant with the World Trade Organisation’s trade rules on intellectual property (TRIPS), promote generic competition and limit abusive pharmaceutical industry practices including patent evergreening. They follow a middle path between granting monopoly patent rights and public health imperatives. Far from modifying our IP policy, we should be proud of the fact that our country has a vibrant pharmaceutical sector that has become the ‘pharmacy of the developing world’ supplying affordable, life-saving medicines used to treat communicable and non-communicable diseases in many developing countries.
B Vinod Kumar is a Member of Parliament and Lok Sabha Deputy Floor leader of the Telangana Rashtra Samithi.