23-04-2019 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date:23-04-19
Why NYAY Won’t End Poverty
Promise of income without work represents a panicked pessimism about India and her people
Manish Sabharwal, [The writer is Chairman, Teamlease Services.]
The 1971 surrender by Lieutenant General AAK Niazi in Bangladesh with 93,000 soldiers is a perennial source of Pakistani shame. But history is kinder to General Niazi’s legacy; he was cut off from his army, his troops were low on rations, the local population was hostile, and he presided over East Pakistan for only two days. In other words, he faced an impossible situation. But ending India’s poverty is hardly an impossible situation and the “surrender” to income without work of the NYAY scheme is an inferior bet to fixing our infrastructure of opportunity.
Why is India poor? Despite completing the more difficult project of creating the world’s largest democracy on the infertile soil of the world’s most hierarchical society, why haven’t we created the world’s largest economy? It surely wasn’t God’s will that it should take 72 years for 1.3 billion Indians to cross the GDP of 66 million Britishers. Cultural explanations are weak; the so called Hindu rate of growth of 2% increased to 7% after 1991. India still has poverty because the brilliant politics after 1947 was coupled with nutty economics that sabotaged competition, entrepreneurship and productivity.
Too many Indians work in low-productivity geographies (Karnataka has the same GDP as UP with a third of the people), low-productivity sectors (50% of our labour force in agriculture only produces 14% of our GDP, while IT employs 0.7% of our labour force and produces 8% of GDP), low-productivity firms (our 63 million enterprises only translate to 19,500 companies with a paid-up capital of Rs 10 crore) and low-productivity skills (this year the bottom 10% of engineers will make less salaries than the top 10% ITI graduates).
Income guarantee proponents suggest Scandinavian social democracies as inspiration but forget that the World Bank Ease of Doing Business scale ranks Denmark 3rd, Norway 7th and Sweden 12th of 190 countries. Their dense social security nets are underwritten by remarkably free economies compared to India’s regulatory cholesterol universe; 60,000+ compliance rules, 3,600+ filings, and 5,000+ changes every year. This cholesterol is partly responsible for our agrarian distress; the only way to help farmers is to have less of them. But migration has been blunted by low formality.
Income guarantees may be interesting and viable for rich countries trying to prevent people from falling into poverty but are hardly an idea whose time has come for countries trying to pull people out of poverty. We are far from the productivity frontier, short on resources, and don’t have to be Western to be modern. Jawaharlal Nehru said in 1955: “We cannot have a welfare state unless our national income goes up. India has no existing wealth for you to divide; there is only poverty to divide. Our economic policy must, therefore, aim at plenty.” I think he’d agree that India still can’t afford Rs 4 lakh crore plus for income without work without touching current subsidies of Rs 4 lakh crore, exploding inflation or raising income taxes.
Poverty is not like cancer where every malignant cell must be removed or will come back. Instead, poverty is like being overweight or obese. The fight is hard and slow; victories are partial, sometimes you regress. But keeping up the fight by all methods can mitigate obesity. Eventually, diet and exercise will become a way of life and a healthier body will yield tangible benefits.
For an economy this involves fixing the infrastructure of opportunity that breeds productivity; low inflation, low regulatory cholesterol, more formal enterprises, more taxpayers, good urbanisation, faster bankruptcy, higher manufacturing employment, decentralisation, payment digitisation, higher credit to GDP ratio, reliable infrastructure, better government schools, vocationalised higher education, more apprenticeships, labour reform, efficient employment exchanges, and civil service reform. The role of the government is not setting things on fire but creating the conditions for spontaneous combustion.
Indians know they get more from work than income; self-esteem, confidence, identity, and soft skills. In fact, the promise of income without work represents a panicked pessimism about India, her people and their will that is inconsistent with Tagore’s dream of a country where the mind is without fear and the head is held high. Pessimists get more attention because they sound like they are trying to protect you, while optimists sound like we are trying to sell you something. The day i landed in the US for my MBA in 1994 there was a front page article in the Wall Street Journal that said India is more interesting than important. I hope that journalist is eating the newspaper on which she wrote it; India has been the world’s best performing stock market in dollar terms for the last 25 years.
Stock markets have challenges but they do value the future over the past; they expect us to continue being the fastest growing economy. The world realises that what is happening to India’s productivity is not once in a decade, or once a millennium, but once in the lifetime of a country. The Indian economy will soon be larger than that of France, Germany and Japan. Persisting with fixing our infrastructure of opportunity is a better bet than the surrender of income without work.
Date:23-04-19
धरती बचाने के लिए हमें खुद बनना होगा बदलाव का जरिया
सुनीता नारायण
अब यह साफ है कि इस ‘एन्थ्रोपोसीन’ युग में पर्यावरण सुरक्षा को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। यह सर्वविदित है कि यह दुनिया निर्धारित सीमाओं के भीतर रहने की अपनी क्षमता तेजी से खोती जा रही है। स्वास्थ्य से जुड़े स्थानीय संकट की खबरें हमारे इर्दगिर्द छाने लगी हैं। ऐसा पर्यावरण के हमारे कुप्रबंधन और जलवायु परिवर्तन के असर के वैश्विक अस्तित्ववादी संकट के कारण हो रहा है। ऐसे में हम क्या कर सकते हैं? हम सभी हालात बदलना चाहते हैं। हम पर्यावरण की साफ-सफाई और संरक्षण में योगदान चाहते हैं। हम शिद्दत से जरूरत महसूस किए जा रहे बदलावों का हिस्सा बनना चाहते हैं। हम जिस हवा में सांस लेते हैं वह इतनी दूषित हो चुकी है कि हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। हमारी नदियां कूड़े-कचरे और गंदे पानी से खत्म हो रही हैं। हमारे जंगलों पर भी खतरा मंडरा रहा है। हम जानते हैं कि अपना पर्यावरण बचाने के लिए काफी कुछ किया जाना है क्योंकि इसके बगैर हमारी धरती का वजूद ही दांव पर होगा।
हम इन चीजों के बारे में जानते हैं लेकिन सवाल यह है कि किया क्या जा सकता है? क्या कुछ ऐसा है जो हम एक इंसान या स्कूल, कॉलेज, कॉलोनी एवं सोसाइटी के तौर पर सामूहिक रूप से कर सकते हैं? क्या हम भी अपना योगदान दे सकते हैं? अगर हां तो फिर कैसे? हम ऐसा कर सकते हैं। बहुत साल पहले महात्मा गांधी ने कहा था कि हम दुनिया में जो भी बदलाव लाना चाहते हैं, उसे पहले हमें खुद पर लागू करना चाहिए। हमें आज भी वही काम करने की जरूरत है। यह साफ है कि हमारी जीवनशैली ने पर्यावरण पर खासा असर डाला है। हमारी गतिविधियों और उन्हें अंजाम देने के तरीकों का अहम फर्क होता है। इसीलिए बदलाव की दिशा में पहला कदम यह है कि हम अपने कार्यों को लेकर जागरूक हों। मसलन, हमें पता हो कि हम कितना पानी और बिजली इस्तेमाल कर रहे हैं और उससे कितना अवशिष्ट पैदा होता है? ऐसा तभी हो सकता है जब हम अपने तौर-तरीके इस तरह बदलें कि संसाधनों का कम-से-कम इस्तेमाल हो और उससे अवशिष्ट भी कम-से-कम पैदा हों। ‘धरती पर ज्यादा बोझ न डालना’ ही हमारा आदर्श होना चाहिए।
हमें बदलावों को आत्मसात करना होगा। पानी के ही मुद्दे पर गौर करें तो एक तरफ पानी का संकट बढ़ता जा रहा है तो दूसरी तरफ उपलब्ध जल दूषित होता जा रहा है। इसका जवाब इन पंक्तियों में निहित है: पहला, पानी की हरेक बूंद बचाकर हमें अपने जल संसाधनों को बढ़ाना है। हम वर्षा-जल का इस तरह संचय करें कि हरेक छत और सतह जल संकलन के काम आए। केवल सरकार का ही काम नहीं है, हमें भी इस समाधान का अंग बनना होगा। ऐसा करना हमारी पहुंच में भी है। हरेक गांव, स्कूल, कॉलोनी और संस्थान को बारिश का पानी रोकने, उसके संचयन और बारिश की हरेक बूंद को अहमियत देनी होगी।
हमें पानी की अपनी मांग कम करने पर भी ध्यान देना चाहिए। हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि पानी व्यर्थ में नहीं बहाएंगे और गंदे पानी को दोबारा इस्तेमाल में लाने लायक बनाया जा सके। हमें अपने रसोईघरों, स्नानघरों और बागीचों में पानी के कम-से-कम इस्तेमाल के तरीके भी निकालने होंगे। हालांकि ऐसा कर पाना हमेशा हमारे हाथ में नहीं होता है क्योंकि गंदा पानी घरों से निकलने के बाद सीवेज में चला जाता है। लेकिन यह भी एक सच है कि कई घर खराब पानी के संग्रहण के मामले में आत्मनिर्भर भी होते हैं। उन घरों में सेप्टिक टैंक और अवशिष्ट जमा करने वाले बॉक्स बने होते हैं और वहां से उस कचरे को खुले नाले या जमीन तक ले जाया जाता है। इन प्रणालियों को गंदे पानी के शोधन, दोबारा इस्तेमाल के लिए बनाए गए और पानी के पुनर्चक्रण से स्थानीय स्तर पर जोड़ा जा सकता है। लेकिन असली बात यह है कि हमें खराब पानी को दोबारा इस्तेमाल लायक बनाने के लिए काम करना होगा।
कचरे के साथ भी यही बात है। अगर हम अपने कचरे का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि हम कितना कचरा पैदा करते हैं। लेकिन अगर हम गीले कचरे को अलग रखें तो हम अपने कचरे की संरचना समझ जाएंगे। प्लास्टिक, सीसा, धातु को एक तरफ और खानपान अवशिष्ट, पत्तियों और सड़ जाने वाले दूसरे जैविक कचरों को एक तरफ रखा जाए। जब हम यह संरचना समझ लेंगे तो फिर हम उसका प्रबंधन भी कर सकते हैं। मसलन, जल्द नष्ट होने वाले जैविक कचरे से कंपोस्ट खाद बनाई जा सकती है। इसी तरह प्लास्टिक, सीसा और धातुओं को रिसाइकल किया जा सकता है। लेकिन अधिक अहम बात यह है कि इससे हमें यह पता चल जाएगा कि जल्दी नष्ट न होने वाला कचरा किन चीजों से पैदा होता है और फिर हम उसी हिसाब से अपनी योजना बना सकते हैं। हम ऐसा कर सकते हैं।
हम अपनी ऊर्जा जरूरतों में कटौती करते हुए भी योगदान दे सकते हैं। ऊर्जा उपकरणों की सक्षमता और प्रचुरता के जरिये हम ऊर्जा उपभोग में कटौती कर सकते हैं। वे अपने घरों और संस्थानों में नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाने की दिशा में भी काम कर सकते हैं। ये छोटे-छोटे कदम बड़ी छलांग का आधार तैयार करते हैं। मेरी संस्था सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने एक हरित स्कूल कार्यक्रम तैयार किया है जिसमें स्कूल पर्यावरणीय बदलावों पर भाषण नहीं देते हैं बल्कि उनका पालन करते हैं। इस कार्यक्रम में छात्र और शिक्षक मिलकर अपने स्कूल का पर्यावरणीय बेंचमार्क तय करते हैं। मसलन, वे कितना पानी, बिजली या वाहन इस्तेमाल करते हैं और कितना कचरा एवं प्रदूषण पैदा होता है? उस फुटप्रिंट के आधार पर वे अपने पर्यावरण को दुरुस्त करने के कदम उठा सकते हैं। वे बदलाव का सबब खुद बनते हैं। मुझे भरोसा है कि अगर हरेक स्कूल और घर इन गतिविधियों में सक्रिय हों तो उसका प्रभाव दूरगामी और अधिक होगा। हम जिंदगी के इन सबकों को खुद जिंदगी बना सकते हैं। यही हमारे लिए आगे की राह भी है।
Date:23-04-19
सबसे बड़ी परीक्षा
संपादकीय
सप्ताहांत पर देश के प्रधान न्यायाधीश पर लगे यौन शोषण के आरोप ने सर्वोच्च न्यायालय समेत पूरे देश में हलचल मचा दी। वह यौन शोषण के दोषी हैं या किसी राजनीतिक दुश्मनी के शिकार, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा। इन सारी बातों से परे देश के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के विरुद्घ मामला सर्वोच्च न्यायालय के उन प्रक्रियागत दिशानिर्देशों का भी अहम परीक्षण होगा जो सन 1997 में एक अहम मामले में तय किए गए थे। ये दिशानिर्देश 2013 में कानून में बदल गए। इन नियमों को शुरुआत में विशाखा गाइडलाइन का नाम दिया गया था। यह नाम एक गैर सरकारी संगठन से लिया गया था जिसने पीडि़त की ओर से मामले की पैरवी करते हुए पहली बार यौन शोषण को परिभाषित किया और जिसके बाद 10 से अधिक कर्मचारियों वाले सभी संस्थानों में शिकायत समिति का होना अनिवार्य किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में संसद से कानून बनने के बाद अपनी विशाखा समिति भी गठित की। परंतु इस मामले में इसे अमल में नहीं लाया गया। इस संदर्भ में गोगोई के कदमों पर सवाल उठ सकते हैं।
गत वर्ष जनवरी में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा द्वारा प्रक्रियाओं के अतिक्रमण के खिलाफ हुए न्यायाधीशों के अप्रत्याशित सामूहिक विरोध प्रदर्शन में गोगोई ने भी शिरकत की थी। इस बात ने प्रक्रियाओं और नियम कायदों के पालन को लेकर उनकी छवि बहुत मजबूत की थी। चकित करने वाली बात है कि इसके बावजूद गोगोई खुद पर इन नियमों को लागू करने के अनिच्छुक दिखे। यौन शोषण शिकायत समिति के माध्यम से जांच प्रक्रिया की शुरुआत करना इस मामले में एकदम उचित कदम होता लेकिन इसके बजाय उन्होंने अपने बचाव का एक अस्वाभाविक तरीका चुना। कथित पीडि़त की तुलना में उनकी शक्तिशाली स्थिति का भी बचाव नहीं किया जा सकता। सोलीसिटर जनरल द्वारा आरोपों की सूचना मिलने के बाद गोगोई ने सुनवाई के लिए एक विशेष पीठ बनाया जिसमें न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा शामिल थे। उन्होंने कहा कि यह सुनवाई ‘महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक महत्त्व के मसले से जुड़ी है और यह न्यायपालिका की स्वायत्तता से संंबंधित है।’ इसके बाद वह आधे घंटे तक अपने निर्दोष होने के बारे में बोलते रहे। उन्होंने अपने मामूली बैंक बैलेंस और पीडि़ता की प्रतिष्ठा को लेकर भी बातें कीं।
इससे कई सवाल खड़े होते हैं। जिन 26 न्यायाधीशों को पीडि़ता का हलफनामा मिला, उनमें से केवल दो न्यायाधीशों को इस ‘विशेष पीठ की सुनवाई’ में शामिल क्यों किया गया? जैसा कि गोगोई ने दावा किया यौन शोषण की शिकायत भला किस तरह न्यायपालिका की स्वायत्तता को प्रभावित करती है? शिकायतकर्ता को इस विशेष पीठ के समक्ष उपस्थित होने की इजाजत क्यों नहीं दी गई? अंतिम प्रश्न महत्त्वपूर्ण है क्योंकि कानून के मुताबिक शिकायत समिति के शिकायत स्वीकार करने के लिए प्रधान न्यायाधीश की इजाजत आवश्यक है। प्रधान न्यायाधीश के विरुद्घ सुनवाई के लिए कोई प्रक्रिया नहीं है। कथित पीडि़त की सुनवाई की अनुपस्थिति में अदालत ने एक वक्तव्य जारी किया जिस पर केवल न्यायमूर्ति मिश्रा और खन्ना के हस्ताक्षर थे। मीडिया से कहा गया कि वह जिम्मेदारी भरा व्यवहार करे और विचार करे कि क्या ऐसे फिजूल और विवाद पैदा करने वाले आरोपों को प्रकाशित करना है? ध्यान रहे कि मामले का परीक्षण बिना पीडि़त से प्रश्न-प्रतिप्रश्न किए कर लिया गया। स्वतंत्र जांच का सुझाव क्यों नहीं दिया गया? शिकायतकर्ता के प्रक्रिया में शामिल न होने के बाद भी उसकी विश्वसनीयता का संदर्भ और उसके कथित आपराधिक रिकॉर्ड का जिक्र अस्वाभाविक था। इस बात की अनदेखी मुश्किल है कि सर्वोच्च न्यायालय ने शिकायत को लेकर न्यूनतम कानूनी प्रक्रिया तक का पालन नहीं किया, जो उसे करना चाहिए था।
Date:23-04-19
चुनावी बॉन्ड से बढ़ी अपारदर्शिता
नवंबर 2018 तक देश में 222 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड बिके जिनमें से 201 करोड़ रुपये सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के खाते में गए हैं
संपादकीय
चुनावी चंदे की यह बहस इस बार तब सुर्खियों में तब आई, जब एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) ने सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बॉन्ड की वैधता को लेकर एक याचिका दायर की। एडीआर की दलील थी कि इसके चलते राजनीतिक चंदा लेना पहले से भी ज्यादा अपारदर्शी हो गया है और इसका अधिकांश सत्तारूढ़ दल – भारतीय जानता पार्टी – को ही मिला है। हालिया समय में कई तरह की आलोचनाओं के घेरे में रहे चुनाव आयोग ने भी सुप्रीम कोर्ट में दिये अपने हलफनामे में कहा कि चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था के बाद राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता बिल्कुल ध्वस्त हो गई है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने इन बॉन्ड्स पर रोक लगाने से तो इन्कार कर दिया, लेकिन राजनीतिक दलों को निर्देश दिया कि वे 30 मई तक इसके जरिये मिलने वाले चंदे का पूरा ब्यौरा चुनाव आयोग के सामने पेश करें। उसने चंदे में मिली राशि के अलावा इसे देने वाले का नाम भी सीलबंद लिफाफे में देने को कहा है। चुनावी बॉन्ड राजनीतिक पारदर्शिता बढ़ा रहे हैं या इसे कम कर रहे हैं? इस बहस से पहले यह जानना जरूरी है कि चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था है क्या ?
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने 2018 में एक वित्त विधेयक के जरिये चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था बनाई है। इसमें यह प्रावघान है कि बैंक एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ के चुनावी बॉन्ड जारी करेंगे और इन्हें खरीदकर राजनीतिक दलों को चंदा दिया जा सकेगा। चुनावी बॉन्ड आने से पहले राजनीतिक दलों को अपने आय विवरण में केवल उन्हीं चंदों का जिक्र करना होता था जो 20 हजार से ऊपर के होते थे। इससे कम की राशि को राजनीतिक दल नकद ले सकते थे। इससे चंदे के स्रोत का पता नहीं चल पाता था। सरकार का दावा था कि चुनावी बॉन्ड के जरिये चंदे अधिक साफ-सुथरे होंगे और उनमें काले धन का इस्तेमाल खत्म हो जाएगा।
चुनावी बॉन्ड की खरीद के लिए नियम यह है कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से कोई भी यह बॉन्ड खरीद सकता है। ऐसा करते समय उसे एक केवाईसी फार्म भरना पड़ेगा। यानी कि चुनावी बॉन्ड खरीद कौन रहा है बैंक को इसकी जानकारी होगी, लेकिन वह इस जानकारी को प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग या किसी अन्य संस्था को नहीं दे सकता है। इसके अलावा बॉन्ड पर किसी का कोई नाम नहीं होगा। यानी कि बॉन्ड खरीदने वाला, इसे किस पार्टी को देगा यह जानकारी बैंक के पास नहीं होगी। और राजनीतिक दलों के लिए भी यह अनिवार्य नहीं है कि वह उस संस्था या व्यक्ति का खुलासा करें, जिसने उन्हें चुनावी बॉन्ड के जरिये चंदा दिया है। पार्टियों को केवल इस बात का खुलासा करना होगा कि उन्हें इलेटरोल बॉन्ड के जरिये इतना पैसा मिला, यह पैसा किसने दिया है इस बात का नहीं।
चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था लागू होने के बाद अब कोई भी दल दो हजार से ऊपर का चंदा नकद नहीं ले सकता है, जबकि पहले यह रकम बीस हजार थी। चूंकि बॉन्ड के जरिये पार्टियों को मिलने वाला चंदा अकाउंटेड ( बैंक के हिसाब-किताब में) होगा इसलिए इस व्यवस्था को नकद चंदे वाली व्यवस्था से बेहतर कहा जा सकता है। लेकिन, बैंकों से जारी होने के बाद भी चुनावी बॉन्ड पर गोपनीयता के इतने आवरण चढ़ा दिए गए हैं कि इस क्षेत्र के जानकारों को ये अपने घोषित उद्देश्य पर खरे उतरते नहीं दिख रहे हैं। आर्थिक जानकार कहते हैं कि एकबारगी यह मान भी लिया जाए कि बॉन्ड के जरिये आने वाला पैसा बैकिंग व्यवस्था के जरिये आएगा, लेकिन ये बॉन्ड एक तरह के कैश कूपन हैं और कोई भी इन्हें खरीदकर गोपनीय तरीके से किसी भी राजनीतिक पार्टी को दे सकता है। ऐसे में यह किस तरह के स्रोत से आने वाला कैसा पैसा है इसका पता आसानी से नहीं चलता है।
लेकिन फिर भी जानकार यह मानते हैं कि यह व्यवस्था चंदे में काले धन के इस्तेमाल को उस तरह से बढ़ावा नहीं देती है। योंकि इलेटोरल बॉन्ड देने वाले बैंक से इसकी जानकारी सरकार तक पहुंच ही सकती है। चूंकि अभी भी सियासी दल दो हजार से नीचे की रकम नकद ले सकते हैं, ऐसे में कोई व्यक्ति-पार्टी काले धन को चंदे के रूप में देना-लेना चाहे तो उसका सबसे सुरक्षित रास्ता यही है। जानकार चुनावी बॉन्डों को राजनीतिक डील आदि को बेहद आसान बना सकने वाली व्यवस्था के रूप में देखते हैं जो हमेशा ही सत्ता धारी दल को फायदा पहुंचाएंगे। उदाहरण के तौर पर इनके जरिये कोई भी कंपनी सत्ता धारी पार्टी को बड़ी आसानी और कानूनी तरीके से रिश्वत दे सकती है।
एक आरटीआई आवेदन के मुताबिक, मार्च 2018 से जनवरी 2019 तक राजनीतिक पार्टियों को लगभग पूरा चंदा (99.8 फीसदी) चुनावी बॉन्ड के रूप में ही मिला है। और इस चंदे की 95 फीसद रकम भाजपा के हिस्से में आई है। नवंबर 2018 में भाजपा ने चुनाव आयोग के सामने जो ब्यौरा पेश किया था, उसके मुताबिक तब तक उसके पास चुनावी बॉन्ड के रूप में 201 करोड़ से ज्यादा का चंदा आया था। जबकि तब तक देश में महज 222 करोड़ के ही चुनावी
बॉन्ड की ब्रिकी हुई थी।
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एडीआर की याचिका के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से यह सवाल किया कि अगर बॉन्ड की व्यवस्था चुनाव में काले धन का इस्तेमाल रोकने और पारदर्शिता के लिए लाई गई है तो इसमें इतनी गोपनीयता यों? सरकार का इस बारे में तर्क है कि अगर इसके जरिये चंदा देने वालों के नाम सार्वजनिक किए जाएंगे तो इससे उन्हें दूसरी पार्टियों के शासन में राजनीतिक प्रतिशोध का सामना करना पड़ सकता है। चंदा देने वाले की निजता का सवाल भी उठाया जा रहा है। ये तर्क गलत नहीं लगते हैं, लेकिन या ये इतने बड़े हैं कि इनकी वजह से मतदाताओं के अपनी चुनावी प्रक्रिया को जानने के अधिकार को ताक पर रख दिया जाए ?
क्या इन तर्कों की वजह से पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुड़ी पारदर्शिता की अनदेखी की जा सकती है? और राजनीतिक प्रतिशोध का सामना भी तो चंदा देने वालों को इन पार्टियों की सरकारों से ही करना है! अगर चुनावी चंदे में गोपनीयता को जरूरी भी मान लिया जाए तो भी कम से कम यह प्रावधान तो किया ही जा सकता है कि चुनावी बॉन्डों के जरिये मिलने वाले चंदे का नामवार विवरण चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था को दे दिया जाए! हालांकि सबसे बेहतर तरीका तो यही होगा कि चुनावी चंदे की बात सार्वजनिक पटल पर रहे।
Date:23-04-19
दक्षिण एशिया में खतरे की घंटी
श्रीलंका के भयावह घटनाक्रम ने नए संघर्षों की जमीन तैयार की है जो दक्षिण एशिया के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं।
जी. पार्थसारथी , (लेखक पूर्व राजनयिक एवं जम्मू कश्मीर विश्वविद्यालय के चांसलर हैं)
रविवार को श्रीलंका में हुए वीभत्स आतंकी हमले ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इस हमले में अब तक 290 से अधिक लोग मारे चुके हैं और सैकड़ों घायलों में से तमाम अभी भी जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। मृतकों में भारतीय भी शामिल हैं। समूचा श्रीलंका गमगीन है। वहां राष्ट्रीय आपातकाल घोषित कर दिया गया है। राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना ने इन हमलों की जांच के लिए तीन सदस्यीय आयोग गठित कर दिया है। हालांकि अभी तक इस हमले से जुड़ी बहुत सी बातें स्पष्ट नहीं हुई हैं, लेकिन शुरुआती ब्योरे के अनुसार व्यापक रूप से इसे एक चरमपंथी हमला माना जा रहा है। इस हमले के बाद दक्षिण एशिया सहित समूची दुनिया में समीकरण बदल सकते हैं। अविश्वास, आशंका और असुरक्षा का भाव और बढ़ सकता है। चूंकि श्रीलंका भारत का निकट पड़ोसी देश है तो उसके लिए इस घटना के और भी गहरे निहितार्थ हैं। दक्षिण एशिया में अपनी भौगोलिक एवं भू-राजनीतिक स्थिति के कारण भी भारत इससे जुड़े खतरों की अनदेखी नहीं कर सकता।
सबसे पहले तो इस हमले से जुड़ी कड़ियों को जोड़ना होगा। रविवार को श्रीलंका में चर्चों व होटलों में सिलसिलेवार आत्मघाती हमलों को अंजाम दिया गया। अब तक इन हमलों की जिम्मेदारी औपचारिक रूप से किसी संगठन ने नहीं ली है, लेकिन हिंसा के स्तर व उसके स्वरूप को देखते हुए इन्हें आतंकी हमला ही माना जा रहा है। इसके लिए ईसाइयों के त्योहार ईस्टर को चुनकर चर्चों और कुछ विशेष होटलों को निशाना बनाने से यह संदेह और गहरा जाता है। आतंकी इससे भलीभांति वाकिफ थे कि पर्व की वजह से चर्चों में भारी भीड़ होने से वे अधिक से अधिक नुकसान पहुंचा सकते हैं। उन्होंने उन होटलों को निशाना बनाया, जिनमें मुख्य रूप से अंतरराष्ट्रीय सैलानी ही ठहरते हैं। इन सैलानियों में अमेरिका और यूरोपीय देशों के नागरिकों की खासी तादाद होती है। इस हमले में शक की सुई कई संगठनों की ओर मुड़ रही है, लेकिन मुख्य रूप से नेशनल तौहीद जमात का नाम ही सामने आ रहा है। श्रीलंका सरकार के प्रवक्ता ने भी इसकी पुष्टि की है। यदि ऐसा है तो यह और भी बड़ी चिंता की बात है, क्योंकि इस संगठन का एक धड़ा तमिलनाडु में भी सक्रिय बताया जा रहा है। ऐसे में भारत को और अधिक सतर्क रहना होगा। इन कड़ियों को जोड़ने के लिए हमें कैलेंडर को कुछ पीछे भी पलटना होगा।
कुछ दिन पूर्व न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में जुमे की नमाज के दौरान एक बंदूकधारी ने हमला किया था, जिसमें पचास से अधिक मुस्लिम मारे गए थे। उसके बाद जिस तरह यह हमला किया गया, उसे एक तरह से क्राइस्टचर्च का जवाब ही माना जा रहा है। वैश्विक स्तर पर चल रही धार्मिक-वैचारिक खींचतान भी इसकी एक वजह हो सकती है। पूरी दुनिया में इस्लाम को लेकर बन रही धारणा से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तनाव बढ़ा है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद इस्लाम के नाम पर द्वंद्व और बढ़ा है। उधर सीरियाई संकट के बाद यूरोपीय देशों पर बढ़े शरणार्थियों के बोझ ने भी कई देशों में सामाजिक ताना-बाना बिगाड़ने का काम किया है। इसे लेकर कई यूरोपीय देशों में आक्रोश है। संभव है कि अपने खिलाफ मुखर हो रही ऐसी आवाजों को जवाब देने की अभिव्यक्ति के रूप में यह हमला किया गया हो। यदि ऐसा है तो भी एक और गुत्थी उलझ जाती है कि आतंकियों ने अपने मंसूबों को अंजाम देने के लिए श्रीलंका को ही क्यों चुना?
इसके लिए श्रीलंका की आंतरिक स्थिति पर गौर भी करना होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत की ही तरह श्रीलंकाई समाज में भी कई विभाजक रेखाएं हैं। यह द्वीपीय देश कई धार्मिक व सामाजिक पहचानों के आधार पर विभाजित है। श्रीलंका से बहुसंख्यक बौद्धों की दबंगई की खबरें रह-रहकर आती रहती हैं। उनके दूसरे लोगों के साथ संघर्ष होते रहे हैं, लेकिन धार्मिक आधार पर ऐसा भीषण रक्तपात नहीं हुआ जैसा रविवार को देखने को मिला। यहां मुस्लिम आबादी बहुत ज्यादा नही है, किंतु फिर भी कुल आबादी में उनकी संख्या दस प्रतिशत है। तमिलों की करीब 12 प्रतिशत और ईसाइयों को लगभग सात प्रतिशत। शेष सिंहली हैं, जो बौद्ध मत के अनुयायी हैैं। इन हमलों को जिस तरह अंजाम दिया गया, उससे साफ है कि आतंकियों को स्थानीय मदद जरूर मिली होगी। जिन लोगों के नाम सामने आ रहे हैं, उससे भी स्पष्ट है कि हमलों में स्थानीय लोगों की मिलीभगत रही। ऐसे में यह पड़ताल भी करनी होगी कि आखिर किन कारणों से उन्होंने ऐसा किया? क्या उन्हें धर्म के नाम पर बरगलाया गया या फिर आर्थिक लोभ के चलते उन्होंने ऐसा किया?
राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे श्रीलंका से बीते कुछ समय में मिले संकेत शुभ नहीं कहे जा सकते। बीते दिसंबर में यहां हिंसक वारदातें हुई थीं। जहां तक इस्लामिक पहचान के आधार पर संघर्ष की बात है तो हाल में थाईलैंड और म्यांमार में भी ऐसा देखने को मिला। म्यांमार में तो मुस्लिमों को खदेड़ने से पड़ोसी देशों में शरणार्थियों की एक नई समस्या पैदा हो गई। श्रीलंका के भयावह घटनाक्रम ने नए संघर्षों की एक जमीन तैयार की है जो दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं हैं। इस इलाके से भारत के रिश्ते न केवल अहम हैं, बल्कि उनसे पुराना सांस्कृतिक जुड़ाव भी है। इस रूह कंपा देने वाले आतंकी हमले के तार विदेशों से भी जुड़ते दिख रहे हैं। श्रीलंका सरकार ने हमलों की साजिश का ताना-बाना विदेश में बुने जाने की बात कही है। इससे आतंक को पालने-पोसने वाले देशों पर दबाव बढ़ना स्वाभाविक है। आतंक के मामले में पाकिस्तान की संदिग्ध भूमिका से पूरी दुनिया परिचित है। श्रीलंका में कुछ लोगों को यह आशंका सताती रही है कि पाकिस्तानी तत्व स्थानीय मुसलमानों को भड़काते हैं। पाकिस्तानी तत्वों से आशय डीप स्टेट यानी फौज और आईएसआई की जुगलबंदी से है। जाहिर है, इस जघन्य हमले के बाद पाकिस्तान पर पहरेदारी और कड़ी होगी। हालांकि पुलवामा हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान पर शिकंजा कसा है, जिसे पर्याप्त अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समर्थन भी मिला है। इसमें कई देशों ने न केवल भारत का समर्थन किया, बल्कि पाकिस्तान को सुरक्षा परिषद में घेरने का व्यूह भी रचा। अगर श्रीलंका की घटना से आतंकियों के पस्त पड़े हौसले को बल मिलता है तो ये सभी प्रयास व्यर्थ हो जाएंगे और इस क्षेत्र में शांति एवं स्थिरता को बड़ा झटका लग सकता है।
संकट की इस घड़ी में अंतरराष्ट्रीय बिरादरी श्रीलंका के साथ खड़ी है। भारत सरकार ने भी अपने पड़ोसी देश को हरसंभव मदद का आश्वासन दिया है। खुद दशकों से आतंक का दंश झेल रहा भारत अपने मित्र देश की पीड़ा को बखूबी समझ सकता है। अब समय आ गया है कि आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक जगत एकजुट होकर निर्णायक प्रहार करे, अन्यथा ऐसे हमलों की पुनरावृत्ति होती रहेगी।
Date:22-04-19
आतंक का दायरा
संपादकीय
श्रीलंका में हुए बम धमाके आतंकवाद से लड़ने को प्रतिबद्ध विश्व बिरादरी के लिए एक नई चुनौती है। श्रीलंका के तीन गिरजाघरों, तीन पांच सितारा होटलों और दो अन्य जगहों पर हुए शृंखलाबद्ध बम धमाकों में अब तक दो सौ से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और साढ़े चार सौ से ऊपर घायल हैं। अभी तक इन हमलों की जिम्मेदारी किसी संगठन ने नहीं ली है। पर हमलों की प्रकृति को देखते हुए अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि इसमें शामिल संगठन का मकसद क्या था। हालांकि श्रीलंका लंबे समय तक गृहयुद्ध की चपेट में रहा है। वहां तमिल समुदाय के लोगों में जब-तब अपने प्रति भेदभाव का दंश उभरता रहा है। पर अब तमिल लिबरेशन टाइगर जैसे संगठन ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि इतने बड़े स्तर पर सुनियोजित हमले कर सकें। ताजा घटना के बारे में श्रीलंका सरकार ने कहा है कि ये हमले धार्मिक कट्टरपंथी संगठन ने किए हैं। रविवार को ईस्टर का त्योहार था। चर्चों में ईस्टर का उत्सव चल रहा था। इसी तरह होटलों में आयोजन हो रहे थे। इन धमाकों में कई विदेशी नागरिक भी मारे गए हैं। इसे देखते हुए साफ है कि हमलावरों का निशाना ईसाई समुदाय के लोग थे। इसलिए स्वाभाविक ही शक की सुई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय आतंकवादी संगठनों की तरफ जा रही है।
श्रीलंका में गृहयुद्ध समाप्त होने के बाद छिटपुट हिंसक झड़पें होती रही हैं। बहुसंख्यक सिंहली समुदाय के लोग वहां की मस्जिदों पर हमले करते रहे हैं। इसके चलते पिछले साल वहां आपातकाल भी लगाना पड़ा था। इस तरह यह आशंका हो सकती है कि वहां के अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों में अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों की टीस दबी होगी और वे इसके प्रतिकार की योजना बना रहे होंगे। पर ताजा हमलों में जितने बड़े पैमाने पर विस्फोटक और सुनियोजित रणनीति अपनाई गई है, वह सामान्य रूप से बदले की भावना की उपज नहीं हो सकती। श्रीलंका सरकार का कहना है कि सभी जगहों पर आत्मघाती हमले हुए। हालांकि अभी इन हमलों में इस्तेमाल किए गए विस्फोटकों की जांच बाकी है। पर यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि इन आत्मघाती हमलावरों को साजो-सामान कहां से उपलब्ध हुआ होगा। उन्हें प्रशिक्षण कहां से मिला होगा। फिर किस तरह वे सुरक्षा एजेंसियों को चकमा देकर अपनी साजिशों को अंजाम देने में कामयाब हो गए। हालांकि श्रीलंका सरकार का कहना है कि इन हमलों की सूचना खुफिया एजेंसियों ने दी थी, पर जब तक काबू पाया जाता, तब तक विस्फोट हो गए। पर इससे उसके खुफिया और सुरक्षा इंतजामों की जवाबदेही पर सवाल समाप्त नहीं हो जाते।
श्रीलंका में हुए ताजा हमलों की प्रकृति से स्पष्ट है कि इसमें अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों की मिलीभगत है। छिपी बात नहीं है कि आइएसआइएस जैसे संगठन किस तरह दुनिया के तमाम देशों में इस्लामी कट्टरपंथ की जड़ें फैलाने में जुटे हुए हैं। खासकर जहां मुसलिम समुदाय पर अन्य समुदायों के हमले अधिक होते रहे हैं, वहां उनके लिए अपनी उपस्थिति बनाने में आसानी होती है। वे दुनिया के तमाम देशों में इसी तरह होटलों और भीड़भाड़ वाली जगहों पर आत्मघाती हमले कर चुनौती देते रहे हैं। श्रीलंका में भी इसी तरह उन्होंने घुसपैठ बनाई हो, तो हैरानी की बात नहीं। हालांकि पूरी स्थिति जांच के बात ही स्पष्ट होगी, पर स्पष्ट है कि यह आतंकवाद से लड़ने वाले राष्ट्रों के लिए यह बड़ी चुनौती है ।
Date:22-04-19
भगीरथ प्रयास ही विकल्प
रमेश ठाकुर
विश्व पृवी दिवस’ को पर्यावरणीण रक्षा का प्रेक्षण राष्ट्रीय दिन माना गया है। यह दिवस धरती को सहेजने के लिए हम सबको संकल्पित होने के लिए जागरूक करता है, लेकिन हम लगातार अनदेखी करते हैं। न हुकूमतें गौर कर रही हैं और न ही सामाजिक चेतना, जबकि हम भलीभांति जानते हैं कि धरती का इंसानी जीवन से सीधा वास्ता होता है, उसके बिना मानवीय जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। पर वर्तमान समय में इंसान पृवी का ही सबसे बड़ा दुश्मन बना हुआ है। उसे मिटाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा।
धरती जिसने हमें जीवन दिया, आज हम उसी धरती के संसाधनों का निर्दयतापूर्वक इस्तेमाल करने लगे हैं। अपने ग्रह के महत्त्व के बारे में मानव जाति को जागरूक करने के लिए ‘‘पृवी दिवस’ के रूप में 22 अप्रैल को चिह्नित किया गया है। लेकिन यह दिवस भी बेगाना सा लगने लगा। इस वक्त पूरे देश में चुनावी शोरगुल है। चुनावी व्यस्तताओं में शायद ही कोई ‘‘धरती दिवस’ की ओर ध्यान दे। परंतु हमें नहीं भूलना चाहिए जब धरती बचेगी, तभी चुनावों की कल्पना की जाएगी।
आंकड़े गवाही देते हैं कि मौजूदा समय की औद्योगिक क्रांति के बाद से धरती के तापमान में वृद्धि युद्वस्तर पर हुई है। कोयले और तेल जैसे जीवाम ईधनों के विस्तृत प्रयोग के चलते कार्बन डाइअक्साइड के स्तर में अभूतपूर्व तेजी आई है। मीथेन, ओजोन और अन्य गैसों के साथ धूल में भी बहुत बढ़ोत्तरी हो रही है जिससे पर्यावरण दूषित हो रहा है। इन सबका पृवी की जलवायु पर विपरीत प्रभाव पड़ता जा रहा है। राजनीतिक र्चचाओं के अलावा लगातार दूषित होते पर्यावरण की परवाह कोई नहीं करता। समय रहते अगर पर्यावरण पर ध्यान नहीं दिया तो वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब धरती पर इंसानी जीवन खतरे में पड़ जाएगा। न अपनी और न ही दूसरों की परवाह किए बिना लोग धरती का सीना छलनी कर लंबी-लंबी गगनचुंबी इमारतों का निर्माण कर लगातार पर्यावरण का दोहन कर रहे हैं। बेजुबान जीवों के लिए रहना बड़ा मुश्किल हो गया है क्योंकि उनके रहने माफिक जगहें; जैसे खेत-खलिहान, नदी-तालाब, झरने, अभयारण, जलाय आदि खत्म होते जा रहे हैं। पानी का जलस्तर तेजी से नीचे खिसक रहा है। महज दो-तीन दशकों से स्थिति बहुत भयावह हो गई है। इसे रोकने के लिए सरकारी व सामाजिक कोशिशें नाकाफी साबित हो रही हैं। मानवीय हिमाकत पृवी का दोहन जिस युद्वस्तर पर कर रही है, उससे प्रतीत होता है कि आने वाला समय इंसानी जीवन के लिए बहुत जल्द संकट खड़ा करेगा।
22 अप्रैल को समूचा विश्व ‘‘अर्थ दिवस’ इस उद्देश्य से मनाता है कि इस विकराल समस्या को रोकने के लिए मनन-मंथन किया जाए। रस्म अदायगी के लिए कोरे वायदे और आश्वासन हर मुल्क में किए जाते हैं। लेकिन ईमानदारी से पर्यावरण को बचाने के बारे में कोई नहीं सोचता। धरती पानी के बिना कराह रही है। पेड़-पौधे सूखते जा रहे हैं। जीवों की संख्या खात्मे के कगार पर पहुंचती जा रही है। पक्षियों की कई प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। धरती दिवस पर अक्सर पृवी को बचाने के दावे किए जाते हैं। बढ़ती जनसंख्या के चलते जमीन सिमटती जा रही है। जंगल कम हो रहे हैं। जंगलों को काटकर आवासीय और खेतीबाड़ी की जाने लगी है। समय रहते अगर धरती और पर्यावरण का संरक्षण नहीं किया गया तो परिणाम भयावह होंगे, जिसका खामियाजा हम सब भुगतने के लिए अभी से तैयार रहें। पर्यावरण हर क्षेत्र में दूषित हो रहा है। मनाही के बाद भी अब सब कुछ प्लास्टिक के थैलों में पैक होने लगा है। धरती दिवस के मायने हमें समझने की जरूरत है। इस दिवस को गंभीरता से लेने की दरकार है।
सिर्फ रस्म अदायगी तक ही सीमित न रहे। दरअसल, आम लोगों खासतौर से युवाओं के बीच पर्यावरणीय सुरक्षा के अभियान व जागरूकता बढ़ाने के मकसद से ही संस्थापक गेलार्ड नेल्सन ने पृवी दिवस का गठन किया था। पृवी को संरक्षण प्रदान करने के लिए आज समूची दुनिया सहयोग और समर्थन कर रही है, लेकिन नतीजा कुछ खास नहीं निकल रहा। धरती दिवस पर कई देशों का एक समूह है, जो इस दिवस पर मंथन करता है। विश्व स्तर पर कार्यक्रम भी समन्वित होते हैं। समय की मांग है दुनिया को अब आधुनिक संसाधनों के बजाय प्रकृतिक संसाधनों की तरफ लौटना होगा। धरती बचाने के लिए सरकारी प्रयासों के अलावा सामाजिक कोशिशों भी जरूरी हैं। इसलिए इस पृवी दिवस पर हम सबको संकल्प लेना चाहिए कि पौधों का निर्माण करेंगे और धरती को दूषित नहीं करेंगे। धरती को सहेजने के लिए अपने-अपने हिस्से की जिम्मेदारियों को निभाना होगा, तभी धरती दिवस का मतलब साबित होगा।
Date:22-04-19
Being fair and transparent
After these elections, the Election Commission needs to take stock of several issues, including campaign funding
Navin B. Chawla is a former Chief Election Commisisoner and is the author of ‘Every Vote Counts’
Two phases of the 2019 general election have been completed. Polling has finished in 186 out of 543 parliamentary constituencies. Polling in Vellore, Tamil Nadu, has been cancelled for corrupt practices. Five phases still remain till counting is comprehensively undertaken for all the seven phases of the election, on May 23. The reason to complete all the phases is that the result of any one phase should not influence the choices that electors may make.
Having served the Election Commission of India (EC) for five-and-a-half years during which I conducted the 2009 general election, I have an insider’s view, but of course am not privy to the inputs that the EC has and on which its decisions are made.
Dark points
As I have argued in my recent book, Every Vote Counts, several negative features of our electoral scene have worsened. Since the Model Code of Conduct came into effect, in just the first two phases this time, money power has so reared its ugly head that seizures made of unaccounted cash, liquor, bullion and drugs amounting to ₹2,600 crore have already surpassed the entire seizures made in the nine phases of the general election in 2014. Most depressingly, this includes huge hauls of drugs, the vast majority smuggled into Gujarat. Uttar Pradesh is awash with liquor. Tamil Nadu has seen the largest seizures of illicit cash —over ₹514 crore.
These vast sums intended to bribe or influence voters prove several things. The first is that these sums almost certainly represent only a fraction of current illegal spending, a tip of the iceberg as it were. They have been detected by the EC’s machinery acting on the basis of tip-offs, or else by the vigilance of electoral officials in the States. Unfortunately, the bulk of illegal tranches of money, liquor or freebies would have reached their destination. Second, political players have refined their methods in being many steps ahead of the EC’s observers and their vigilance teams by moving their funds to their destinations even before the elections are announced.
Does this not make a mockery of the statutory limit of ₹70 lakh that each Lok Sabha candidate has as his poll expenditure limit?
Difficult questions
As a country we need to ask ourselves some hard questions. When every rule in the book is being broken, when there is no transparency on how political parties collect or spend their funds, when limits of candidate spending are exceeded in every single case, then the time has come to debate whether we need to re-examine our rule book. In order to supervise the matches in play, the EC has had to deploy over 2,000 Central observers for the entire duration, drawing them out from their ministries and departments at the cost of their normal work at the Centre and in the States. Thousands of vigilance squads are set up and must act on the information they receive, which is why the current level of seizures have already made this India’s most expensive general election yet. An intelligent guess may lead us to a final tally of spending in excess of ₹50,000 crore, the bulk of which is made up of illicit funding and spending.
It is by now clear as daylight that electoral bonds, far from enabling a legitimate and transparent means of political funding, have proved to be the reverse. The EC, in its own affidavit before the Supreme Court, has admitted as much. The Supreme Court’s order has made sure that full disclosure, albeit to the EC, has already effectively killed further funding along this route. Nothing is a better disinfectant for camouflaged funding than sunlight itself.
With my experience this compels me to say that any serious reform with regard to funding must come from the EC itself, for it is very unlikely that any government will take an initiative in this direction. The EC must take stock after this election is over. It should convene a conference of all stakeholders, including of course all recognised political parties, both Central and State. But this should not be exclusively confined to them, for they will tend to support the status quo or they will be unable to reach consensus. The list of stakeholders must also include the best constitutional and legal minds in our country.
In my book I have also raised the twin problem of candidates fielded with criminal antecedents. The 16th Lok Sabha that has now passed into history, saw almost 30% of its members declaring, in their compulsory self-sworn affidavits, the list of criminal cases registered against them. They are also legally obliged to declare their wealth and their educational qualifications. This is the result of two vital orders passed by the Supreme Court in 2002-2003, the result of a battle that the Association for Democratic Reforms fought tenaciously. Unfortunately, in the first phase of this election, 12% of the candidates perforce declared that they had heinous cases pending, while in the second phase the figure was 11%. It may be noted that these cases include murder, attempt to murder, dacoity, kidnapping and rape. Have we forgotten Nirbhaya and 2012 already?
Giving it teeth
The matter of the Model Code of Conduct and its administration by the EC has been the most frequently reported single issue in this election. For those of a certain generation, the 10th Chief Election Commissioner (CEC), T.N. Seshan — he once famously declared that “he ate politicians for breakfast” — was the man who made the country sit up and take note when he decided to level the playing field as never before. There is little doubt that he reminded the EC that it had powers inherently enshrined in Article 324 of the Constitution — powers so great that there is arguably no other electoral management body with similar powers.
I learned this during my years as Election Commissioner, and these are the powers I exercised during the course of the 15th general election in 2009; I was successfully able to confront three Congress-ruled State governments and one Congress ally too. One of them even convened a special press conference to declare that his government would move the Supreme Court against the EC’s “arbitrariness”, but I personally had no doubt about its outcome. As it happened, he chose not to in the end.
The point I seek to make, by virtue of my own experience, is that the powers of the EC are so enormous and so all-encompassing that they exceed the powers of the executive in all election-related issues during the course of the election period. Of course, these must be exercised judiciously, fairly and equitably, not least because every decision is analysed in every “adda”, every home, every street corner and every “dhaba” across the country, where the EC’s decisions must be seen to be fair and transparent. During the years precedent to becoming CEC, I was fortunate that Mr. Seshan advised me whenever I called on him. As a result I never felt any need to make reference to government or court, once the process was under way.
Words into action
If there is anything for me to applaud thus far in this election, it is the decision made by two political parties which have selected over 33% women candidates — Mamata Banerjee’s Trinamool Congress (41% for 42 Lok Sabha seats) and Naveen Patnaik’s Biju Janata Dal (33% for 21 Lok Sabha seats). After years of patriarchy or at best lip service, these parties have taken a vital step towards empowering women politically.