22-06-2024 (Important News Clippings)

Afeias
22 Jun 2024
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Date: 22-06-24

India, React to Small, Modular Nuclear

ET Editorials

Bill Gates isn’t the first name that you’d think of after watching Oppenheimer. But TerraPower, the nuclear reactor engineering company the Microsoftwala founded in 2006, began constructing a micro nuclear reactor plant, Natrium, in Wyoming this month. This marks a quiet, commercially untested class of nuclear reactors: small modular reactors (SMR). SMR projects are in development in a dozen countries. In only China and Russia are they operational. Its viability test will come around 2030, when plants, including Natrium, will likely begin production.

As energy demands grow, nuclear power will be a necessary option. SMR is one. It’s modular, replicable with standardised design, and can absorb existing coal plant workforce. It has its fair number of challenges: capital costs, fuel sourcing and supply chains. Natrium will cost about $4 bn, with half the amount borne by support under the US Inflation Reduction Act. But nuclear power, as an unsafe bogeytech, should go through an image makeover in the public eye. There are at least six tech options at present. This has limitations on cost rationalisation and developing a regulatory regime. Besides, there are considerations of safety, use of spent fuel and disposal of waste. Building on its domestic nuclear programme, India should invest in SMR R&D, especially suited for local designs and needs.

India’s growing demands in a climate-constrained world compel it to explore all options for clean, reliable, affordable, safe and sustainable energy. It must take an informed decision to make budgetary allocations, investment plans and building infrastructure for this. SMR is one option that deserves a serious dekho.


Date: 22-06-24

New Cold War

Russia’s pact with North Korea will deepen U.S. ties in East Asia

Editorial

The security pact reached between Russian President Vladimir Putin and North Korean leader Kim Jong-un in Pyongyang, in which both countries promised mutual assistance “in the event of aggression”, has echoes from the Cold War era. Russia and North Korea, erstwhile allies, are facing biting sanctions, but for different reasons. And, both are at odds with the West. Now, they seem determined to revive the alliance so that they can stand up to the western-led global order together. Mr. Putin’s visit to Pyongyang, his first in 24 years, itself marked a new beginning. The Russian leader has supported multilateral efforts to curb the North’s nuclear programme in the past. Moscow has also voted for sanctions at the UN Security Council against Pyongyang over its nuclear arsenals. But the Ukraine war appears to have altered Kremlin’s geopolitical arithmetic and provided an opportunity for Pyongyang to make itself useful as an ally. When the Ukraine war dragged on and Russia came under western sanctions, Mr. Putin turned to Mr. Kim for ammunition and ballistic missiles. After Mr. Kim’s visit to Russia in September 2023, North Korea reportedly supplied ammunition to Russia. Moscow stepped up supplies of food and fuel, and there was speculation that it could help the North’s defence sector with critical technologies. While both have rejected reports of weapons trade, the security pact clearly elevates ties to the level of a de facto alliance.

Ever since the Ukraine war, Mr. Putin has steadily expanded Russia’s cooperation with countries that are at odds with the U.S. He reportedly bought kamikaze drones from Iran. China has also emerged as a key economic, technological and energy partner. And, by promising to help North Korea, an isolated, one-family-ruled totalitarian state that is still technically at war with South Korea, in the event of an attack, Russia has signalled its readiness to play a larger role in northeast Asia. Mr. Putin, essentially a cold warrior, wants to build an axis of the ‘others’ opposed by the West to expedite the churn in the global order. China remains cautious but seems fine with the idea of its closest partners challenging the western order. This will have far-reaching geopolitical consequences. North Korea will now have little incentive to discuss denuclearisation. Russia, which already has testy ties with Japan, could see its relationship with South Korea deteriorating. The agreement is also likely to strengthen the emerging tripartite partnership in East Asia among Japan, South Korea and the U.S., further solidifying the new cold war between great powers, which is still in its early stages.


Date: 22-06-24

मापदंड बदलने से सत्य नहीं बदल जाता

संपादकीय

ऐसा कैसे संभव है कि जब सब्जी, दूध, दाल, अनाज, तेल और रोजमर्रा की चीजों के दाम आसमान पर हों और लगातार बढ़ रहे हों, तब खुदरा महंगाई पिछले साल भर के मुकाबले सबसे कम हो। पता चला कि सरकार ने पैमाना ही बदल डाला। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में खुदरा खर्च के सामान की सूची में खाद्यान्न के अलावा रिहाइश, परिधान, ट्रांसपोर्ट, चिकित्सा व मनोरंजन, शिक्षा और तमाम तरह की सेवाएं हैं। इनमें खाद्यान भार, जो पहले 46% था, घटा कर 39% कर दिया । खाद्यान्न की महंगाई अपने शबाब पर (17%) है, इसमें भी रोजाना के खाने-पीने वाले चीजें जैसे प्याज, आलू और दाल के दाम क्रमशः 55, 44 और 27% बढ़े हैं। गरीब या निम्न मध्यम वर्ग (जो 70% से ज्यादा है) का व्यक्ति न तो मनोरंजन करता है ना ही पेट्रोल खरीदता है। उसकी आय का 70 फीसदी खर्च खाने पर होता है। लिहाजा पेट्रोल या ट्रांसपोर्ट या फीस में वृद्धि उसे उतना नहीं सताती, जितना सब्जियों या तेल का महंगा होना । जनमत से बनी सरकार के लिए ऐसी महंगाई जनाक्रोश पैदा करती है लिहाजा वह निर्यात रोक पर अंकुश लगाती है, लेकिन इससे किसान की आय घटती है। सरकार को बेहतर पैदावार के लिए किसानों को वैज्ञानिक खेती की ओर ले जाना होगा और सिंचाई के भी नए तरीके अपनाने के लिए तत्पर करना होगा।


Date: 22-06-24

घातक सिद्ध होता प्रकृति से छेड़छाड़

अनिल जोशी, ( लेखक पर्यावरणविद् हैं )

मानसून के आगमन के बीच हम सब इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि इस बार कितनी अधिक गर्मी पड़ रही है और लू का कहर किस तरह जानलेवा सिद्ध हुआ। गर्मी और लू के प्रकोप का सामना दुनिया के अन्य देशों को भी करना पड़ रहा है। निःसंदेह मानसून राहत देगा, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मौसम में अप्रत्याशित बदलाव खतरे की एक घंटी है। पर्यावरणविदों के अध्ययनों के आधार पर यह पहले ही साफ हो चुका था कि 2024 में गर्मी ज्यादा पड़ने वाली है। पर्यावरणविदों के अनुसार इस वर्ष एल नीनो का असर होगा और फिर उसके तत्काल बाद ला नीना का भी। एल नीनो गर्मी को बढ़ाएगा तो ला नीना शीतकालीन परिस्थितियों को और गंभीर कर देगा।

एक अध्ययन के अनुसार, 2023 में एल नीनो ने पिछले साल जुलाई को अत्यधिक गर्म किया। वैसे ही हालात इस साल जून के आसपास दिखे। अपने देश में देखें तो दिल्ली में तापक्रम 50 के आसपास पहुंच गया। अन्य शहरों में भी इसी के आसपास तामपान पहुंचा। पहाड़ों में भी गर्मी बढ़ी तो जैसलमेर में तापमान ने 55 का आंकड़ा छू लिया। अब यह भी स्पष्ट हो चुका है कि 2024 तापक्रम वृद्धि को लेकर अच्छा नहीं कहा जा सकेगा। 2016 से 2019 के तीन साल के लंबे दौर के बाद 2023 में ही एल नीनो दूसरी बार आया और दिसंबर 2023 में यह अपने चरम पर था। समुद्री वायुमंडल के हालात बिगड़ने के कारण अगस्त 2024 में यह और प्रभाव डालेगा। इसके तुरंत बाद ला नीना के प्रभाव की आशंका है।

इस बार जापान और मेक्सिको में बसंत से पहले ही फूल खिलने लगे थे। इसी तरह यूरोप में फरवरी-मार्च में ही हिमखंड पिघलने लगे। इसी समय अमेरिका के टेक्सास में तापक्रम 38 के पार चला गया था। भारत में भी गर्मी के जल्दी आने से वनों की आग ज्यादा घातक हो गई। जापान से मेक्सिको तक तापक्रम की वृद्धि पिछले कई महीनों से लगातार बढ़ रही है और परिस्थितिकी में कुछ बड़े मूलभूत परिवर्तन आ रहे हैं। अपने देश में जनवरी- फरवरी कुछ इस तरह से बीते, जैसे बसंत आ गया हो। बीते जाड़े में भी ठंड का अधिक प्रभाव नहीं था।

वास्तव में लगातार लंबे समय से मौसम के व्यवहार का सही अनुमान नहीं लगाया जा पा रहा है। देश में बसंत वाली गर्मी पहले ही आ गई थी और उसने वनाग्नि जैसे दावानल के लिए दरवाजे खोल दिए। यह भी संज्ञान में लेना जरुरी है कि पश्चिमी विक्षोभ, जो पहले नवंबर-दिसंबर के महीने में आता था, इस बार फरवरी के अंत या मार्च के पहले सप्ताह में ही दिखाई दे गया। यह एक बहुत बड़ा लक्षण है कि अब मौसम का समयानुसार प्रभाव नहीं रहा। मौसम के अनुकूल न होने के कारण हमारे पारिस्थितिकी तंत्र पर असर पड़ रहा है। इसके असर को खेती-बाड़ी से लेकर वनों में बढ़ती हुई आग को लेकर देखा जा सकता है। इसके साथ तूफान और बाढ़ कब आ जाए, इसकी कल्पना नहीं की जा सकेगी। मौसम विभाग अब आने वाले समय में मौसम के हालात का सटीक विश्लेषण मुश्किल से कर पाएगा।

मौसम में अप्रत्याशित बदलाव का सीधा असर पूरे आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिकी तंत्र पर पढ़ना तय है। तापक्रम के बढ़ने के कारण इसका असर वन्य जीव से लेकर मनुष्यों पर दिखाई देगा। कई तरह की बीमारियां भी पनपेंगी। खास तौर से वे, जो उमस के कारण आती हैं। उमस भरी गर्मी को झेलने के लिए एसी का उपयोग वातावरण में और गर्मी तो पैदा करेगा ही, वायु प्रदूषण के हालात और भी गंभीर हो जाएंगे, जो सीधे ही पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर विपरीत असर डालेंगे। इसका सीधा मतलब है कि जल, जंगल, जमीन बढ़ते तापक्रम के कारण आदर्श व्यवहार नहीं कर पाएंगे।

एक लंबे समय से मौसम में अप्रत्याशित बदलाव आ रहा है, लेकिन हम चेत नहीं रहे हैं। यह कड़वा सच है कि अब हमारे पास बहुत ज्यादा समय नहीं बचा कि हम अपनी पुरानी परिस्थितियों को वापस ला पाएं। हम जहां हालात को ले जा चुके हैं, वहां से हमारी वापसी 5 से 10 प्रतिशत ही बची है। इसका कारण यह है कि हम अपने जीवन को आरामदेह बनाने में लगे हैं। आरामदायक जीवनशैली आज की आवश्यकता बन गई है, लेकिन हम यह देखने से इन्कार कर रहे हैं कि आधुनिक जीवन शैली के चलते हमने पृथ्वी के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को अपने प्रतिकूल बना लिया है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो फिर धरती को प्रतिकूल मौसम से बचाना मुश्किल हो जायेगा। इतना तो हमारी समझ में आना ही चाहिए कि हम पृथ्वी को उतना ही भोगें, जितना उसमें जोड़ पाएं। पिछले दो-तीन सौ वर्षों में हमने पृथ्वी से जितना कुछ लिया है, उसका पांच प्रतिशत भी उसे वापस नहीं कर पाए हैं।

हम अपने काम का तो नफा-नुकसान जांचते हैं, पर धरती के पारिस्थितिकी तंत्र के हिसाब-किताब में फेल हैं। प्रकृति के पास कई तरीके हैं कि वह हमें रास्ते पर लाए। कुछ भी अप्रत्याशित रूप में प्रकट होगा, जो हमसे कुछ न कुछ छीन लेगा। कोविड की मार तो याद होगी ही, जिसकी हमने कभी कल्पना नहीं की थी। वह प्रकृति कहर ही था, जिसने हमें बताया था कि हमें समय रहते अपनी सीमाएं तय कर लेनी चाहिए। प्रकृति हमारी मनमानी ज्यादा सहन नहीं करेगी। हम सुनार की तरह ही गए हैं, जो जीवन को चमक-दमक देखते हैं, जबकि प्रकृति लोहार की तरह है, जो तप-खप कर बनी है। यह कहावत तो हमें पता ही होगी कि सौ सुनार की और एक लोहार की। मतलब टुकड़ों- टुकड़ों में हमारी चोटों के बदले लोहार की एक ही चोट हमें नेस्तनाबूद करने के लिए काफी होगी।


    Date: 22-06-24

तार्किक हो कोटा

संपादकीय

पटना हाई कोर्ट ने 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत किए गए राज्य सरकार के आरक्षण को रद्द कर दिया है। यह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई वाली बिहार सरकार को तगड़ा झटका माना जा रहा है। यह दलितों, पिछड़े वर्गों व आदिवासियों को सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में दिया जा रहा था। बिहार की तत्कालीन महागठबंधन सरकार द्वारा बीते साल नवम्बर जाति गणना के आधार पर इन वर्गों के लिए आरक्षण सीमा बढ़ाने का कानून बनाया गया था। अदालत ने विभिन्न याचिकाओं की सुनवाई के बाद इस बढ़ी आरक्षण सीमा को संविधान के अनुच्छेद 14, 16 व 20 का उल्लंघन बताया। जैसा कि शीर्ष अदालत पहले ही स्पष्ट कर चुकी है कि कोई भी राज्य सरकार 50 प्रतिशत की तय सीमा से अधिक कोटा नहीं लागू कर सकती है, जबकि बिहार में आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए 10 फीसद मिलाकर यह आरक्षण 75 प्रतिशत पहुंच गया था। अदालत का मानना है कि बिहार में कुल जनसंख्या के केवल 1.57 प्रतिशत लोग ही सरकारी नौकरियों में हैं। जनसंख्या के अनुपात में सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व भी पर्याप्त बताया जा रहा है। हालांकि राज्य सरकार इस आदेश के खिलाफ सबसे बड़ी अदालत का दरवाजा खटखटाने की तैयारी में है। दरअसल, जैसा नजर आता है कि आरक्षण अब राजनीतिक पार्टियों के लिए जनता को फुसलाने का साधन मात्र रह गया है। उनका ध्येय समाज में व्याप्त गैर-बराबरी को मिटाना नहीं रहा । वे मतदाताओं को बड़ी तादाद में प्रभावित करने के उद्देश्य से व्यवस्था के साथ खिलवाड़ करते नजर आते हैं। तमाम अगड़ी जातियां मानती हैं कि आरक्षण के चलते नौकरियों क लाले पड़ रहे हैं। वे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के प्रभावित होने का रोना भी रोती रहती हैं, परंतु यह भी गलत नहीं है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था में विभिन्न जातियों / समुदायों को जबरदस्त अन्याय सहना पड़ा है। उनके लिए कोटा तय कर, उन्हें सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक तौर पर बराबरी पर लाने के प्रयासों पर अड़चनें लाने उचित नहीं है। यूं तो अन्य राज्यों में भी सत्ताधारी दल लाभ के लोभ में कोटा बढ़ाते रहने को उतावले हो सकते हैं। इसलिए बिना देरी किए, इस पर लगाम लगाना लाजमी है। कमजोर वर्ग की सहूलियत लिए, उन्हें सहायता देने व जीवन स्तर बेहतर बनाने के अन्य तरीकों पर भी विचार किए जाने की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जाना चाहिए।