22-06-2019 (Important News Clippings)

Afeias
22 Jun 2019
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Date:22-06-19

For A Credible Opposition

Don’t disrupt Parliament, but make your voice heard loud and clear

Pavan K Varma, [The writer is an author and member of JD(U).]

This Monday, the inaugural day of the new Parliament, Prime Minister Narendra Modi made a statesmanlike assertion. “The presence of a strong and active opposition is an inevitable condition of democracy,” he said. “I hope the opposition parties stop worrying about their number (of MPs).” For his critics, his sagacity had perhaps a touch of condescension. But, for the world’s largest democracy, his sentiment is exceptionally relevant. Politics, like nature, cannot sustain a vacuum. Under the Modi tsunami, the opposition was largely decimated. After this humiliating drubbing the fragmented opposition has, in public perception and for all practical purposes, ceased to exist. But the space that it needs to occupy has not, and must be filled.

There are several incontrovertible reasons for this. Political uniformity – imposed or by default – is the antithesis of the effervescence of a vibrant democracy. A democratic nation must have more than one view on issues, which are effectively expressed and attentively heard, so as to enrich the entire spectrum of the political landscape. A monochromatic polity, apart from becoming dangerously complacent, ultimately becomes resistant to questioning, challenge and change.

Mature democracies need a political counter narrative. Only ceaseless interrogation can provide a bulwark against any tendency towards autocracy. A polity requires a system of checks and balances. Some of these exist in the structure of the Constitution itself, but there can be no substitute for a vigilant opposition. This is especially important when the ruling party has such a large majority on its own. It is hoped that this will not happen, but large majorities nurture a natural swagger, a tendency to dismiss any non-conforming viewpoint as against the manifest will of the people.

It is not as if there is a shortage of issues which need urgent attention and resolution, and which the opposition can take up. Whatever the government spin in this regard, the fact is that the economy is in serious trouble. Growth rates have dipped; unemployment is at a 45 year high; there is a debilitating liquidity crisis; exports are not picking up; the agriculture sector is reeling under low productivity and drought; and, investments are at a worrying low.

There are deep worries too about the social milieu. With depressing frequency we hear statements from important members of the ruling party that are an open and blatant incitement to communal disharmony. Pragya Singh Thakur, who said that Nathuram Godse was a desh bhakt, took her oath in Parliament to rousing acclaim by the treasury benches. Giriraj Singh, a Union minister, tweeted to express his disapproval of the celebration of Iftar instead of Hindu festivals.

These are discordant notes that militate directly against the PM’s assurance of sabka saath, sabka vikas, sabka vishwaas. India, as a nation and a civilisation, can only survive if there is respect for all faiths. The Constitution proclaims that we are a secular Republic. The opposition has its work cut out to ensure that this is followed in practice. There is also the need to respond to the muscular assertion of ultra-nationalism, unfortunately used much too often as a counter to any criticism.

In spite of our underlying civilisational unity, we are a land of great diversities. As against the ruling party’s numerical behemoth, there are localised issues of importance to vast numbers of people, that cannot be brushed under a majoritarian narrative. To provide a voice to those who have been sidelined by a centrally driven triumphal claim to invincibility, is the job of the opposition. This can best be done by bringing together regional parties with those with a pan-Indian presence.

For all these reasons, and in conformity with the PM’s advice, the opposition – and especially Congress – must shake off the stupor of defeat and begin to reconstruct the architecture of a cohesive counter narrative. This will not happen on its own. Leaders of the opposition need to learn the lessons from the past, work towards a common and coordinated agenda, pool their resources, work out a practical line of action that has resonance with the people, and discover a new rallying point around leadership and issues. Working in insular silos, nurturing oversize egos, waiting for some magic wand to make them relevant again, without doing the selfless legwork that constructs a doctrine of protest, is not going to work.

To some extent, it is understandable that currently the opposition is in disarray. But, in a democracy, dissent cannot wait indefinitely for the perfect opportunity. The mood of the people is not written in stone: notwithstanding BJP’s stupendous victory people’s expectations can outstrip governance deliveries; the mood can change; opinions can mutate; appraisals can move swiftly from approval to disappointment. The opposition must be geared to sense this and provide the correcting critique to the ruling dispensation.

What the opposition needs to do most is to restore its credibility. For this, it must not only protest but also act responsibly, and convince the people that it can be a viable alternative. Perhaps, the first step in this endeavour must be to allow Parliament to function. Instead of disrupting proceedings, Parliament is where the opposition’s voice must be heard loud and clear.


Date:22-06-19

पानी की समस्या के समाधान को समाज दिखाए राह

पुरानी परंपराओं और नए विचारों का उपयोग कर, सरल तरीकों से पानी का संरक्षण कर सकते हैं

रोहिणी निलेकणी फाउंडर और चेयरपर्सन, अर्घ्यम

अमेरिका में एक पर्यावरण एनजीओ सिएरा क्लब के संस्थापक जॉन मुइर ने कहा था कि जब हम किसी चीज को दुनिया से अलग करने की कोशिश करते हैं, तो पता चलता है कि वह किसी न किसी रूप में दुनिया की बाकी सभी चीजों से जुड़ा हुआ है। अगर हम पानी की बात करें तो यह भी कुछ ऐसा ही है। जिस भी पानी को हम छूतेे हैं, जो भी पानी हम उपयोग करते हैं, वह संसार में मौजूद हर तरह के पानी से जुड़ा होता है। चूंकि पानी ग्रह पर खुद को रीसाइकल करता रहता है, इसलिए हम वही पानी पी रहे हैं जो लाखों साल पहले डायनासोर पिया करते थे। पानी न घटता है, न बढ़ता है, बस रूप बदलता रहता है।

हम मानसून का उत्सुकता से इंतजार कर रहे हैं, उसे ट्रैक करते हैं, क्योंकि यह हर साल कई तरीकों से हमारे भाग्य का फैसला करता है। भारत में जल संकट अब हमारे भविष्य के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक बन चुका है। हालांकि दूसरे देशों की तुलना में भारत एक जल समृद्ध देश है। हमारे यहां औसतन हर साल 4000 बिलियन क्यूबिक मीटर के करीब बारिश होती है। लेकिन एक समस्या यह है कि इसका आधे से कम इस्तेमाल लायक होता है। बाकी हिमालय में बर्फ के रूप में रहता है, या फिर जमीन की गहराई में चला जाता है। दूसरी बात यह है कि हमारी आबादी पिछले 70 वर्षों में 30 करोड़ से बढ़कर 130 करोड़ हो गई है, इसलिए प्रति व्यक्ति का पानी का हिस्सा कम हो गया है। पैमाने के हिसाब से आबादी पानी की कमी का अनुभव तब करती है जब आपूर्ति प्रति व्यक्ति 1000 क्यूबिक मीटर से कम हो जाए। हम जल्द ही यहां तक पहुंच जाएंगे, जबकि कई जिलों में पहले से ही पानी की यह स्थिति बन चुकी है। लेकिन भविष्य उतना डरावना नहीं होना चाहिए। सच तो यह है कि हमारी बहुत सी समस्याएं जल संसाधनों की बेतरतीब शासन प्रणाली की वजह से ही हैं। और हम यह बदल सकते हैं।

हम सब जानते हैं कि प्रमुख मुद्दे कृषि नीति से जुड़े हैं। उपलब्ध पानी का करीब 80% से अधिक भोजन और गैर-खाद्य फसल उत्पादन में जाता है, लेकिन हमारी उत्पादकता पानी की प्रति बूंद के हिसाब से कम है। हमें कम जमीन का इस्तेमाल करते हुए पानी की हर बूंद से और ज्यादा फसल उगाने की आवश्यकता है। सिर्फ तीन फसलें, चावल, गेहूं और गन्ना अत्यधिक पानी खींचते हैं। अगर हम खाद्य सुरक्षा से समझौता किए बिना इस मुद्दे को हल करें, तो लोगों के रोजमर्रा के इस्तेमाल, शहरीकरण के लिए, उद्योग और ऊर्जा उत्पादन के लिए बहुत अधिक पानी बचेगा। आम जनता सोचती होगी कि इससे हमारा क्या लेनादेना? यह मामला तो राजनेता, सरकारी अधिकारी और सेक्टर के विशेषज्ञ ही संभाल सकते हैं। लेकिन इसके बावजूद हम नागरिक अपनी ओर से पानी बचाने का प्रयत्न करते रहते हैं। हम पुरानी परंपराओं और नए विचारों का उपयोग करते हुए, सरल तरीके से पानी का संरक्षण कर रहे हैं। हम नहाते वक्त या घर में साफ-सफाई के दौरान पानी बचाने की कोशिश करतेे हैं। आजकल हमने बोतलबंद पानी का उपयोग करने से पहले भी दो बार सोचना शुरू कर दिया है। एेसी हर पहल महत्वपूर्ण है। खासकर, एक ऐसे देश में जो अमीर होता जा रहा है और अधिक खपत कर रहा है। ऐसे में हम अपनी सावधान रहने वाली सांस्कृतिक नैतिकता को खोने का जोखिम नहीं उठा सकते। पुराने मूल्यों को सराहा और संरक्षित किया जाना चाहिए, लेकिन उन्हें और भी नए क्षेत्रों में विस्तारित करने का समय आ गया है। यदि चावल, गेहूं और गन्ना ऐसी फसलें हैं जो अधिकतम पानी लेती हैं, तो हम एक संतुलन को बहाल करने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर क्या कर सकते हैं?

पारंपरिक तौर पर जो हमारा खानपान रहा है नए शोध भी उसे सही ठहरा रहे हैं। जैसे प्रोसेस्ड चावल की तुलना में ज्वार-बाजरा ज्यादा बेहतर होता है और कुछ लोगों को गेहूं हजम नहीं होता। जबकि चीनी को तो अब जहर के समान ही माना जाता है। ये अच्छा संयोग है कि हमारे स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद फसलें कम पानी में तैयार हो सकती हैं। जो लोग अपने शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति बहुत सचेत हैं, वे तीन सफेद चीज, चावल, मैदा और चीनी से पूरी तरह से बचते हैं। उच्च रक्तचाप, मधुमेह और मोटापे जैसी कई बीमारियां इन खाद्य पदार्थों के ज्यादा इस्तेमाल करने से जुड़ी हुई हैं। फिर भी हमारी सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से इन तीनों वस्तुओं को अत्यधिक रियायती मूल्य पर बेचती आ रही है। जिन लोगों को राशन का मासिक बजट बहुत सावधानीपूर्वक खर्च करना होता है उनके पास इन चीजों को खरीदने और इनका उपयोग करने के अलावा बहुत कम विकल्प होते हैं। यह गरीबों के साथ बहुत नाइंसाफी है और इसे बदलना ही होगा। कर्नाटक जैसे राज्य राशन की दुकानों में इन अनाजों के साथ-साथ रागी और कांगनी उपलब्ध कराने की कोशिश कर रहे हैं। इस कोशिश को और आगे तक ले जाने की जरूरत है, लोगों के स्वास्थ्य के लिए भी और पानी की भारी बचत के लिए भी। कई परिवार पहले से ही ऐसा करने लगे हैं। रागी, ज्वार और बाजरा से स्वादिष्ट खाना पकाने के लिए प्रतियोगिताएं भी होती हैं जो युवाओं को आकर्षित कर रही हैं। आजकल माएं चाहती हैं कि स्थानीय, मौसमी उत्पाद और सब्जियां सुरक्षित रूप से उगाई जाएं और वे हार्मोन और कीटनाशक मुक्त दूध का उपयोग कर सकें।

जब हम फूड स्मार्ट होते हैं, तो हम अक्सर वॉटर स्मार्ट भी होते हैं। हां, हम सभी कभी-कभार पिज्जा, समोसा और फ़िज़ी ड्रिंक पसंद करते हैं, लेकिन मध्यम वर्ग ने थोड़ा बदलाव करना शुरू कर दिया है। लाखों लोगों द्वारा किए गए छोटे परिवर्तन मिलजुलकर बहुत बड़ा प्रभाव डाल सकते हैं। कौन जाने कृषि नीति को राजनेता और अधिकारियों के एक्शन के लिए कितना इंतजार करना होगा। तब तक हम खुद भी कुछ कर सकते हैं। यही सही वक्त है। खुद को सुरक्षित और पर्याप्त पानी मुहैया कराने की जिम्मेदारी लेने का।

जैसा मुईर ने कहा था, हर कुछ, सबकुछ से जुड़ा हुआ है। हमारी व्यक्तिगत जीवन शैली और भोजन के विकल्प जल संकट पर व्यापक रूप से प्रभाव डाल सकते हैं। कभी-कभी हम नागरिकों को पहल करनी होती है, रास्ता दिखाना होता है। और फिर कई बार सरकार और बाजार को भी इसी रास्ते पर चलना पड़ता है।


Date:22-06-19

बेहिसाब बढ़ती जनसंख्या और देश में मुसीबतों की बैलेंस शीट

संपादकीय

अगले आठ सालों में हमारा देश दुनिया की सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश होगा। यह किसी भी लिहाज से खुशखबरी नहीं हो सकती है। बेहिसाब बढ़ती जनसंख्या सिर्फ मानव मुसीबतों की बैलेंस शीट से ज्यादा कुछ नहीं दे सकती है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, हम चीन को पछाड़कर सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश बनेंगे जबकि चीन में जनसंख्या 2.2% कम हो जाएगी। शायद यह पहला प्लेटफॉर्म होगा जिसमें हम चीन को पछाड़ेंगे। पिछले कई सालों में जनसंख्या न बढ़े इसकी जद्दोजहद में लगे भारत की ज्यादा गंभीर चुनौती जनसंख्या को संभालने की होगी। कुछ सालों पहले सरकार ने सात राज्यों के 145 जिलों में मिशन परिवार विकास योजना शुरू की थी। जिसका उद्देश्य परिवार नियोजन को लेकर काम करना है। लेकिन दुनिया की 18% आबादी के हिस्सेदार हम हर काम के लिए सरकार के भरोसे तो नहीं रह सकते। परिवार नियोजन को मानवाधिकार ठहराने वाला संयुक्त राष्ट्र हो या देश का अपना परिवार कल्याण मंत्रालय, समझ पैदा करने में इनके बड़े कैम्पेन भी बेअसर साबित हो रहे हैं। हम तो उस देश में रहते हैं जहां आज भी परिवार नियोजन के लिए महिलाओं को आगे किया जाता है।

फैमिली प्लानिंग के 75% तरीके देश में महिलाएं अपनाती हैं। जबकि पुरुषों के लिए मौजूद तरीके कहीं ज्यादा आसान होते हैं। परिवार नियोजन में पुरुषों की भागीदारी का हिसाब इसी बात से लगा सकते हैं कि देश में सिर्फ 1% पुरुष ही किसी भी तरह के गर्भनिरोध के तरीके इस्तेमाल करते हैं। ये हालात सिर्फ हमारे देश में नहीं हैं बल्कि उन सात अन्य देशों के भी हैं जो भारत के साथ मिलकर दुनिया की आधी आबादी अपने अंदर बसाए हुए हैं। चाहे पाकिस्तान हो, या नाइजीरिया, कांगो, यूथोपिया, तंजानिया, इंडोनेशिया जैसे देश। अपनी अर्थव्यवस्था की जद्दोजहद से बोरमबोर ये देश जनसंख्या पर लगाम लगाकर सेहत और संसाधन दोनों जुटा सकते हैं। वरना मूलभूत सुविधाओं का इंतजाम करते इनको अविकसित से विकासशील और विकसित बनने में दशकों लग जाएंगे। मुट्‌ठीभर सुविधाओं में से कब तक हम बेहिसाब जनता को दे पाएंगे। 8 साल पुराने आंकड़ों के मुताबिक अपनी जनसंख्या गिनने और उसका हिसाब लगाने वाला हमारा देश अब इंतजार करेगा ताजे जनसंख्या सर्वे और उसके हिसाब से तैयार की जाने वाली देश की आर्थिक, सामाजिक बैलेंस शीट का।


Date:22-06-19

कश्मीर में नए उपाय आजमाने का वक्त

जम्मू-कश्मीर में आतंकी हिंसा रोकने के लिए मोदी सरकार को कुछ ऐसा करना होगा, जो पहले किसी ने न किया हो।

सी. उदयभास्कर , (लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ एवं सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैं)

जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने भले ही बीती 15 जून को यह कहा हो कि राज्य में आतंकी गतिविधियां कम हुई हैं और हालात में ‘काफी सुधार हुआ है, लेकिन हकीकत इससे उलट दिखती है। कुछ हालिया घटनाएं संकेत करती हैं कि वहां पर हिंसा फिर से सिर उठा रही है। 17 जून को हिंसक वारदात में सेना के एक मेजर शहीद हो गए। इसके कुछ दिन पहले अनंतनाग में सीआरपीएफ के पांच जवान शहीद हुए और कई घायल हो गए थे। राष्ट्रीय राइफल्स के मेजर केतन शर्मा और सीआरपीएफ के जवानों ने देश की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर करके सुरक्षाकर्मियों की उस सूची में जगह बना ली, जिनका जीवन उस छद्म युद्ध की भेंट चढ़ गया, जिसका हमारा देश जनवरी 1990 से ही सामना कर रहा है। जम्मू-कश्मीर इस जंग का अखाड़ा बना हुआ है।

इन आतंकी हमलों की भर्त्सना करते हुए राज्यपाल मलिक ने 20 जून को कहा, ‘जब भी सुरक्षा बलों द्वारा शांतिपूर्ण चुनाव कराने या आतंकियों का लगातार सफाया करने जैसे सफल अभियान चलाए जाते हैं, तब सीमा पार बैठे आतंकियों के आका उन्हें फिदायीन हमले करने का हुक्म देते हैं और अनंतनाग जिले में हुआ हमला फिदायीन हमला ही था। उन्होंने यह भी कहा कि आतंकी और उनके आकाओं को यह पता होना चाहिए कि आतंक के इस उन्माद को खत्म करने का हमारा संकल्प दृढ़ है।

कश्मीर में आतंकी हमलों के बीच एक अजीबोगरीब घटना भी सामने आई। 16 जून को दावा किया गया कि पाकिस्तान ने भारत और अमेरिका के साथ एक सूचना साझा की, जिसमें पुलवामा में आईईडी से लैस वाहन से धमाके की आशंका व्यक्त की गई थी। हालांकि भारतीय खुफिया एजेंसियों ने स्पष्ट किया कि यह जानकारी पाकिस्तान स्थित भारतीय उच्चायोग में अज्ञात व्यक्ति द्वारा एक कॉल के जरिए दी गई थी। यह किसी विश्वसनीय स्रोत द्वारा दी गई आधिकारिक जानकारी नहीं थी। जम्मू-कश्मीर में यह छद्म युद्ध तमाम अनमोल जिंदगियों को लील रहा है। इस साल के आंकड़े तो और चिंताजनक हैं। जनवरी से लेकर अब तक 62 सुरक्षाकर्मियों को आतंकी हिंसा के चलते अपनी जान गंवानी पड़ी। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में इसमें नौ का इजाफा और हो चुका है, जिससे यह आंकड़ा 71 तक पहुंच गया है। तमाम आम नागरिक भी इसकी तपिश झेल रहे हैं। इससे निपटने के लिए राज्यपाल मलिक ने जो हल सुझाया, वह काफी महंगा साबित हो रहा है।

याद दिला दें कि जम्मू-कश्मीर में 20 जून, 2018 को राज्यपाल शासन लगा जब पीडीपी-भाजपा का असहज गठबंधन टूट गया। छह महीनों के राज्यपाल शासन की अवधि के बाद यह राष्ट्रपति शासन में तब्दील हो गया। एक साल बीत गया, लेकिन राज्य में चुनाव के कोई संकेत नहीं दिख रहे। स्थानीय राजनीतिक प्रक्रिया जस की तस शिथिल पड़ी हुई है। ऐसे में मौजूदा व्यवस्था कायम रहने के ही आसार हैं।

अक्टूबर, 1947 से ही कश्मीर मुद्दा किसी पहेली की तरह उलझा हुआ है। भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय रिश्तों में यह लगातार विवाद का विषय बना हुआ है। 1950 के दशक में नेहरू-अयूब खान से लेकर मोदी-इमरान खान के दौर में इस मोर्चे पर कुछ नहीं बदला। कश्मीर मुद्दा कई परतों में उलझा हुआ है। इसे भौगोलिक स्थिति, भू-राजनीतिक विशेषता और जनसांख्यिकी मिश्रण जैसे पहलुओं पर देखा जाता है। यहां पर याद रहे कि यह भारतीय संघ में सम्मिलित हुआ इकलौता मुस्लिम बहुल राज्य था, जिसमें भारत और पाकिस्तानी दोनों पहचानें समाहित हैं। अक्टूबर 1947 में विलय की संधि के तहत जहां इसे विशेष दर्जा हासिल है, वहीं भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 के अंतर्गत इसे विशिष्ट स्वायत्तता भी मिली हुई है।

जम्मू-कश्मीर की जनसांख्यिकी अगर राज्य की राजनीति को दिशा देती है तो दिल्ली-श्रीनगर के समीकरण राजनीतिक दिशा के मुख्य निर्धारक बनते हैं। पाकिस्तान बाहुबल से राज्य को हड़पने की कोशिशें करता रहा है। आमने-सामने के दो युद्धों में नाकाम होने के बाद उसने रणनीति बदलते हुए 1990 से राज्य में घुसपैठ और आतंकवाद का रास्ता पकड़कर छद्म युद्ध शुरू कर दिया। 1999 की कारगिल जंग भी इसमें शामिल है। फरवरी 2019 में हुआ पुलवामा हमला तनातनी की हालिया मिसाल है। इसके बाद भारत ने बालाकोट में हवाई हमला किया। यह एक नया पड़ाव है। मोदी की दूसरी बार जबर्दस्त जीत ने एक ऐसे मजबूत भारत की छवि बनाई है, जिसकी कमान एक बहुत सशक्त एवं दृढ़ नेता के हाथ में है। चुनाव प्रचार के दौरान अपनी रैलियों में मोदी ने अपने बयानों से यही धारणा बनाई कि किसी भी तरह का आतंकी हमला होने पर भारत चुप होकर बैठने वाला नहीं। ऐसे में इस्लामाबाद में भारतीय मिशन को किया गया अज्ञात कॉल शायद पाकिस्तान की नई एहतियाती नीति का हिस्सा हो। कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तानी पहलू से निपटना जटिल होगा और इसमें काफी समय भी लगेगा, क्योंकि चीन, अमेरिका, रूस, ईरान, अफगानिस्तान और जिहादी धड़ों जैसी बाहरी ताकतें भी इसमें जुड़ी हैं।

जम्मू-कश्मीर के घरेलू हालात में दिल्ली एक अहम फैक्टरहै और मोदी के पास भी 2014 की तुलना में ज्यादा राजनीतिक ताकत है। मोदी सरकार के लिए तात्कालिक चुनौती यही होगी कि वह एक जुलाई से शुरू होने जा रही अमरनाथ यात्रा को अभेद्य सुरक्षा उपलब्ध कराकर शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न् कराए। अतीत में भी आतंकी इस सालाना धार्मिक आयोजन को निशाना बनाते रहे हैं। जुलाई 2017 में आतंकियों ने आठ श्रद्धालुओं की हत्या कर दी थी और उससे पहले 2000, 2001 और 2002 में और भी बड़े आतंकी हमले हुए थे। अमरनाथ यात्रा कश्मीर के बहुलतावाद एवं धार्मिक सौहार्द का प्रतीक रही है। स्थानीय मुस्लिम हिंदुओं के इस बड़े आयोजन को सुरक्षित रूप से संपन्न् कराते रहे हैं। यह अफसोसनाक है कि कश्मीर की युवा आबादी सिर्फ बीते ढाई दशकों के बुरे अनुभवों और भेदभाव से ही वाकिफ है। पिछले साल तो स्थानीय सामाजिक-सियासी परिवेश और भी शुष्क हो गया था।

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने दम पर भाजपा को जबर्दस्त जनादेश दिलाया है। उनकी राजनीतिक विरासत के लिहाज से यह एक अहम मोड़ है। क्या वह वाजपेयी की राह पर चल सकते हैं, जिसमें पहले तो स्थानीय कश्मीरी भावनाओं पर मरहम लगाया जाए और फिर उनमें आशंका और अलगाव के भाव को खत्म किया जाए? वह विधानसभा चुनावों का एलान करके शिथिल पड़ी घरेलू राजनीतिक प्रक्रिया को प्रोत्साहन देंगे या फिर सुरक्षा बलों के दम पर सख्त रवैया अपनाएंगे और केवल आतंकवाद के दमन पर ही पूरा ध्यान केंद्रित करेंगे? बाद वाले उपाय पर ध्यान देने से उन सौम्य और स्मार्ट कदमों की अनदेखी हो जाएगी, जिनकी कश्मीर को सख्त जरूरत है।

साल की पहली छमाही में 71 सैनिकों की शहादत इस कड़वी हकीकत का प्रमाण है कि भारतीय सैनिकों को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। राजनीतिक दूरदर्शिता यही सुनिश्चित करने में निहित है कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान तिरंगे में लिपटे सैनिकों के ताबूत सरकार की पहचान न बनने पाएं।


Date:22-06-19

फिर वही बेजा विरोध

तत्काल तीन तलाक संबंधी विधेयक का विरोध कर रहे राजनीतिक दल यह साधारण सी बात समझने को तैयार नहीं कि कुछ कुरीतियां ऐसी होती हैं जिन्हें रोकने के लिए कानून का सहारा लेना ही पड़ता है।

संपादकीय

तत्काल तीन तलाक की बुराई को रोकने के लिए लोकसभा में पेश मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक का कांग्रेस, जद-यू समेत कुछ अन्य दलों की ओर से विरोध किए जाने पर हैरानी नहीं। इन दलों ने पहले से ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वे इस मसले पर विरोध की राह पर ही चलना पसंद करेंगे। तत्काल तीन तलाक से संबंधित विधेयक का विरोध करने वाले दल यह तर्क दे रहे हैं कि आखिर एक सामाजिक बुराई को रोकने के लिए कानून का सहारा क्यों लिया जा रहा है? यह इसलिए एक खोखला तर्क है कि अतीत में भारत ही नहीं, अन्य अनेक देश भी सामाजिक कुरीतियों पर रोक लगाने के लिए कानून का सहारा ले चुके हैं। क्या दहेज और बाल विवाह पर कानून नहीं बनाए गए?

पता नहीं क्यों तत्काल तीन तलाक संबंधी विधेयक का विरोध कर रहे राजनीतिक दल यह साधारण सी बात समझने को तैयार नहीं कि कुछ कुरीतियां ऐसी होती हैं जिन्हें रोकने के लिए कानून का सहारा लेना ही पड़ता है। इन राजनीतिक दलों को इस तथ्य से परिचित होना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से तत्काल तीन तलाक को अवैध ठहरा दिए जाने के बाद भी इस तरह से तलाक देने का सिलसिला कायम है। क्या लोकसभा में मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक पेश करते हुए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद की ओर से दी गई यह जानकारी चौंकाने वाली नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक झटके में तलाक देने के 229 मामले सामने आ चुके हैं? क्या यह अदालत की अवमानना के साथ विधि के शासन को चुनौती नहीं?

चिंताजनक केवल यह नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले की परवाह नहीं की जा रही है, बल्कि यह भी है कि तत्काल तीन तलाक को दंडनीय अपराध ठहराने वाले अध्यादेश के बाद भी इसी तरह से तलाक देने का काम किया गया। एक आंकड़े के अनुसार उक्त अध्यादेश के बाद एक झटके में तलाक देने के 31 मामले सामने आ चुके हैं। स्पष्ट है कि ऐसे आंकड़ों के बाद यह दलील भी बहुत दमदार नहीं रह जाती कि आननफानन तलाक देकर पत्नी को छोड़ देने के मामलों में कमी आ रही है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कई मुस्लिम संगठन ऐसे हैं जो तत्काल तीन तलाक को कुरान सम्मत न मानते हुए भी यह चाह रहे थे कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार इस मामले में दखल न दे। शायद यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी यकायक तलाक देने के मामले थमे नहीं। जब समाज किसी सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध न दिखे तब फिर सरकार के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं कि वह दंडात्मक उपायों का सहारा ले। मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक लाकर सरकार ने यही किया है। क्या इस विधेयक का विरोध कर रहे दल ऐसा कोई उपाय सुझा सकते हैं जिससे दंडात्मक प्रावधानों वाले कानून के बगैर इस सामाजिक बुराई को रोका जा सके? बेहतर हो कि वे यह समझें उनकी ओर से वही गलती की जा रही है जो शाहबानो मामले में राजीव गांधी सरकार ने की थी।


Date:22-06-19

जनांकीय लाभांश और हम

टी. एन. नाइनन

अपनी विकास यात्रा के दौरान दुनिया के हर देश की जन्म दर और मृत्यु दर में गिरावट आती है। चूंकि इन दोनों दरों में गिरावट की गति अलग-अलग होती है और मृत्यु दर, जन्म दर के पहले घटती है। ऐसे में हालात के स्थिर होने के पहले एक समय ऐसा भी आता है जब आबादी में बहुत तेजी से बढ़ोतरी होती है। आबादी में विभिन्न उम्र के लोगों की तादाद भी इसी हिसाब से बदलती है। कामगार उम्र (15 वर्ष से 65 वर्ष) के लोगों की तादाद बढ़ती है, उच्चतम स्तर पर पहुंचती है और फिर उसमें गिरावट आती है।

अगर आबादी का बड़ा प्रतिशत कामगार उम्र का होता है तो अर्थव्यवस्था में आय, बचत और उत्पादकता बढ़ती है। इसके अलावा भी अन्य कई लाभ होते हैं। जो देश बदलाव के इस दौर का सफलतापूर्वक इस्तेमाल करते हैं उन्हें आर्थिक तेजी का लाभ मिलता है। पूर्वी एशिया के देशों ने बीती सदी के उत्तराद्र्ध में जो तेज वृद्धि हासिल की उसका 25 फीसदी से लेकर 40 फीसदी तक हिस्सा इसी जनांकीय लाभ से हासिल हुआ।

जनांकीय बदलाव का आकलन निर्भरता अनुपात के आधार पर किया जाता है। यानी श्रम शक्ति से बाहर के लोगों (युवा एवं बुजुर्ग) के कामगार उम्र के लोगों के प्रतिशत के रूप में। सन 1980 में भारत में यह अनुपात करीब 75 फीसदी था जो कि सन 1960 के बराबर ही था। इस अवधि को धीमी, तथाकथित हिंदू वृद्धि दर कहा गया। इसके बाद आर्थिक वृद्धि दर में इजाफा होने लगा और उस अनुपात या प्रतिशत में गिरावट आने लगी। निर्भरता अनुपात में सन 1990 के मध्य से एक बार फिर गिरावट आने लगी और एक दशक में यह 70 फीसदी से घटकर 60 फीसदी रह गया। बाद के दशक में इसमें और गिरावट आई और यह 50 फीसदी रह गया। यह केवल संयोग नहीं हो सकता कि यही वे वर्ष थे जब भारत की आर्थिक वृद्धि में सबसे तेज इजाफा हुआ।

कुछ अनुमान बताते हैं कि देश का निर्भरता अनुपात अगले दो दशक तक स्थिर रहेगा और उसके बाद ही इसमें इजाफा शुरू होगा। यह दायरा चीन समेत तमाम पूर्वी एशियाई देशों के दायरों से अलग है। ये देश अपने निर्भरता अनुपात को कम करने में सफल रहे और बदलाव के पहले वे इसे 40 फीसदी या उससे कम पर ले आए। भारत ऐसा प्रबंधन नहीं कर पाएगा क्योंकि हमारी जन्म दर तेजी से नहीं घट रही। यह स्वास्थ्य एवं पोषण नीति की विफलता है। इसके कारण हमें 8 से 10 फीसदी की वह वृद्धि दर हासिल करने में समस्या आ सकती है जो कुछ पूर्वी एशियाई देशों ने हासिल की है।

यह सवाल पूछना होगा कि क्या भारत संभावित जनांकीय लाभांश का कुछ हिस्सा गंवाने वाला है? अगर ऐसा होता है तो इसकी दो वजह होंगी: जनांकीय लाभांश का पूरा लाभ तभी उठाया जा सकता है जबकि कामगार उम्र के लोग वाकई काम कर रहे हों। दूसरा, क्या काम करने वालों के पास उचित शिक्षा और कौशल है, जो कार्यस्थल पर उन्हें अधिक उत्पादक बनाता है। हम सभी जानते हैं कि हमारा देश इन मानकों पर पीछे रहा है। सरकार द्वारा हाल ही में जारी एक रोजगार सर्वेक्षण से पता चला है कि श्रमिक उम्र के लोगों में से केवल आधे ही काम कर रहे हैं। 2004-05 में यह आंकड़ा 64 फीसदी था। जहां तक शिक्षा और कौशल की बात है, प्रथम का शिक्षा सर्वेक्षण तथा कौशल विकास कार्यक्रमों की धीमी प्रगति अपनी दुखद कथा आप कहती है।

बहरहाल, अगर देश का निर्भरता अनुपात आने वाले दो दशक तक 50 फीसदी से कम के दायरे में बना रहता है तो हमारे पास अभी भी यह अवसर है कि हम स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मोर्चे पर हाथ लगी नाकामी को दूर कर सकें और जनांकीय लाभांश का फायदा उठा सकें। दिक्कत यह है कि दक्षिण भारत के प्रांत, पश्चिम बंगाल और एक-दो अन्य राज्य जनांकीय बदलाव की गति में उत्तर भारत के राज्यों से आगे हैं। वहां यह अवसर पहले ही समाप्त हो चुका है या अगले पांच वर्ष में समाप्त हो जाएगा। कुछ राज्यों में यह अवसर एक दशक तक और रहेगा और बिहार जैसे राज्यों में जनांकीय बदलाव का यह सिलसिला लंबा चलेगा।

यही वे राज्य हैं जहां स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थिति सबसे खराब है। ऐसे में यह सवाल बरकरार है कि वे इसका कितना फायदा उठा पाएंगे। याद रहे कि जनांकीय लाभांश किसी देश के लिए एक खास अवधि में केवल एक बार ही उपलब्ध होता है क्योंकि आबादी में यह बदलाव भी एक ही बार होता है। हमारे पास वक्त की कमी है।


Date:22-06-19

बुनियादी ढांचे में प्रगति के वास्ते कार्यसूची

नए भारत के निर्माण के लिए बुनियादी ढांचागत क्षेत्र की अनेक समस्याओं को दूर करना होगा।

विनायक चटर्जी ,  (लेखक फीडबैक इन्फ्रा के चेयरमैन हैं।)

बुनियादी ढांचा क्षेत्र में बहुत सी समस्याओं को दूर करना होगा। नई सरकार की प्राथमिकताओं में ये 10 विशेष पहल शामिल होनी चाहिए।

सरकारी संपत्तियों की बिक्री : सरकारी खर्च की बुनियादी ढांचा निवेश और अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देने में प्रमुख भूमिका बनी रहेगी। इस उद्देश्य के लिए उपलब्ध राजकोषीय गुंजाइश बहुत कम है। इस गुंजाइश को केंद्र और राज्यों के स्तर पर चल रही सरकारी कंपनियों में फंसे पैसे को मुक्त कर बढ़ाया जाना चाहिए। यह पहले से प्रमाणित है कि विदेशी संस्थागत निवेशक लंबी अवधि में प्रतिफल देने वाली इन परिसंपत्तियों में निवेश के इच्छुक हैं। हालांकि इससे प्राप्त होने वाली रकम को भारत की संचित निधि में नहीं मिलाया जाना चाहिए, बल्कि इस राशि को एक अलग राष्ट्रीय बुनियादी ढांचा विकास कोष में डाला जाना चाहिए।

पीपीपी प्लग ऐंड प्ले मॉडल को बहाल करना : भाजपा ने अपने घोषणापत्र में वर्ष 2024 तक बुनियादी ढांचे पर 1 लाख करोड़ रुपये के निवेश का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है, जिसे केवल सरकारी खर्च से हासिल नहीं किया जा सकेगा। तत्काल निजी निवेश लाया जाना चाहिए और इसमें प्लग ऐंड प्ले से बेहतर तरीका अन्य कोई नहीं हो सकता। इस मॉडल में सरकार के 100 फीसदी स्वामित्व वाली एसपीवी (विशेष उद्देश्य इकाई ) बनाई जाती है, जो जमीन अधिग्रहण समेत सभी मंजूरियां, लाइसेंस और स्वीकृतियां लेती है। इसके बाद इस एसपीवी के लिए निजी डेवलपर बोली लगाते हैं। यह जोखिम को बांटने का संभवतया सबसे उपयुक्त तरीका है और इसमें सरकार को सबसे ऊंची बोलियां मिलती हैं। इसके अलावा पीपीपी को उबारने पर केलकर समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों पर काम किया जाना चाहिए।

नल से जल : यह भाजपा के घोषणापत्र में आम आदमी के लिए सबसे अधिक लुभावना वादा है। नल से जल के तहत देश के प्रत्येक घर को 2024 तक पाइपलाइन से जलापूर्ति सुनिश्चित की जाएगी। इसे पूरी तरह लागू करने से करोड़ों लोगों, विशेष रूप से महिलाओं के जीवन में बड़ा बदलाव आएगा। इसे सौभाग्य योजना को तेजी से लागू करने के बाद शुरू किया जा रहा है, इसलिए योजना को लेकर लोगों की बड़ी उम्मीदें हैं। सौभाग्य योजना के तहत सभी परिवारों को बिजली कनेक्शन दिए गए हैं। नल से जल योजना से 2024 के चुनावों में तगड़ा चुनावी लाभ मिल सकता है।

राष्ट्रीय बिजली खरीद एवं वितरण कंपनी : उदय के नतीजों के बाद राष्ट्रीय बिजली खरीद एवं वितरण कंपनी (एनपीपीडीसी) की स्थापना और ज्यादा तर्कसंगत नजर आने लगी है। भारत को एक एनपीपीडीसी की जरूरत इसलिए है क्योंकि यह न केवल मुश्किल दौर से गुजर रहीं डिस्कॉम की प्रभावी विकल्प होगी बल्कि बिजली खरीद एवं शुल्कों के लिए एक राष्ट्रीय कीमत तय करने में भी मददगार होगी। एनपीपीडीसी इस स्थिति में होनी चाहिए कि वह खस्ताहाल बिजली उत्पादक कंपनियों को नियमित खरीद की गारंटी दे सके, समय पर भुगतान कर सके और बिखरे हुए बिजली क्षेत्र में खरीद और बिक्री को एक मंच मुहैया करा सके।

नदियों को जोडऩा : पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने 14 अगस्त, 2002 को राष्ट्र को अपने संबोधन में इस विचार का समर्थन किया था और इस पर अमल करने का आग्रह किया था। इससे बाढ़ और सूखे का समाधान मिलेगा। नदियों को जोडऩे से 3.4 करोड़ हेक्टेयर जमीन की सिंचाई की जा सकेगी, ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में पेयजल मुहैया कराया जा सकेगा, 34,000 मेगावॉट जल विद्युत का उत्पादन किया जा सकेगा, देश के भीतर जलमार्ग विकसित होंगे और बड़े स्तर पर रोजगार का सृजन होगा। सरकार ने वर्ष 2003 में उच्चस्तरीय कार्यदल गठित किया था, जिसने 9 सितंबर, 2003 को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। इसमें अनुमान जताया गया था कि नदियों को जोडऩे की लागत 5.6 लाख करोड़ रुपये आने का अनुमान है। संभव है कि अब यह लागत बढ़कर 10 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गई हो।

वर्ष 2024 तक बुलेट ट्रेन चलाने के काम को पूरा करना : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन का 12 सितंबर, 2017 को शिलान्यास किया था। भारत किसी चीज के अनुभव के बाद काम करता है। उदाहरण के लिए दिल्ली मेट्रो और दिल्ली/मुंबई हवाई अड्डे। इस परियोजना के समय पर पूरा होने से रेल यात्रा को लेकर धारणा बिल्कुल बदल जाएगी, भले ही यह रफ्तार, सेवा, आराम या सुरक्षा हो। देश भर में नई पीढ़ी के बीच रेल यात्रा की मांग बढ़ेगी।

तटीय आर्थिक जोन (सीईजेड) को लागू करना : यह अरविंद पानगडिय़ा का एक शानदार सुझाव था, जो उन्होंने नीति आयोग का प्रमुख रहते हुए दिया था। प्रस्तावित सीईजेड में परिधान, फुटवियर, इलेक्ट्रॉनिक्स, हल्की इंजीनियरिंग, चमड़े जैसे श्रम बहुल एवं निर्यात आधारित उद्योगों को लक्षित किया जाएगा। जहाजरानी मंत्रालय ने सागरमाला कार्यक्रम की राष्ट्रीय दृष्टिकोण योजना के तहत तटीय क्षेत्रों में 14 सीईजेड की पहचान की है। केंद्र में मददगार सरकार होने से ये सीईजेड भारत की निर्यात प्रतिस्पर्धी क्षमता में सुधार ला सकते हैं।

यूएमटीए (एकीकृत महानगरीय परिवहन प्राधिकरण) : भारतीय शहरों को परिवहन से संबंंधित फैसलों में रोजाना आवाजाही करने वाले लोगों को केंद्र में रखना चाहिए। यूएमटीए अनिवार्य और तात्कालिक पूर्व शर्त है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अगस्त 2017 में नई मेट्रो रेल नीति को मंजूरी दी थी। इसके तहत अगर कोई शहर अपनी मेट्रो रेल परियोजना के लिए केंद्र की सहायता लेना चाहता है तो उसकी राज्य सरकार को यूएमटीए की स्थापना एवं परिचालन को लेकर प्रतिबद्धता जतानी होगी। यूएमटीए के विभिन्न विकल्पों को प्रभावी तरीके से जोड़ देने की संभावना है।

बुनियादी ढांचे के लिए एक डीएफआई की दरकार : सरकारी स्वामित्व वाली इंडिया इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनैंस कंपनी लिमिटेड को इस क्षेत्र के लिए डीएफआई (विकास वित्त संस्थान) का दर्जा दिया जाना चाहिए। वाणिज्यिक बैंकों और एनबीएफसी ने परियोजनाओं को लंबी अवधि का कर्ज देने से दूरी बना ली है और बॉन्ड, इनविट, रीट और डेट फंड जैसी बाजार की वैकल्पिक योजनाएं अभी पूर्ण परिपक्वता के स्तर पर नहीं पहुंची हैं। इसलिए निजी घरेलू बाजार में निजी ऋण उपलब्ध नहीं है और लंबी अïवधि के विकास उद्देश्य अनिश्चित स्थिति में हैं।

म्युनिसिपल बॉन्ड : दुनियाभर में म्युनिसिपल बॉन्डों का चलन है और ये शहरी बुनियादी ढांचे एवं सुविधाओं के लिए धन जुटाने का प्रमुख स्रोत हैं। अमेरिका इस समय म्युनिसिपल बॉन्ड बाजार का आकार 3.8 लाख करोड़ डॉलर से अधिक है। जनगृह की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में शहरी निकाय महज 19.1 करोड़ डॉलर जुटा पाए हैं। नगर निकायों की अकाउंटिंग, रेटिंग, स्वायत्तता और नागरिक संस्थानों को बढ़ावा देना होगा जैसा कि संविधान के ऐतिहासिक 74वें संविधान संशोधन में कहा गया है। ऐसा करने के बाद ही म्युनिसिपल बॉन्डों के जरिये पर्याप्त राशि जुटाई जा सकेगी और हम असली स्मार्ट शहर हासिल कर सकेंगे।


Date:22-06-19

एक साथ चुनाव

संपादकीय

एक देश एक चुनाव के विचार को अभी सभी दलों का समर्थन नहीं मिलने वाला, यह पहले से ज्ञात था। इसलिए प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में बनी असहमति एवं कई दलों द्वारा शामिल न होने पर किसी को अचरज नहीं हुआ होगा। किंतु दूसरी ओर, 21 दलों के उसमें भाग लेने के महत्त्व को भी नहीं नकारा जा सकता। लोक सभा की सदस्य संख्या के अनुसार देखें तो 400 से ज्यादा सदस्यों वाली पार्टयिों ने उसमें शिरकत की। विरोधियों द्वारा ऐसी ठोस बातें नहीं उठाई गई जिनको जनता के बीच बहुत ज्यादा महत्त्व मिले। बार-बार चुनाव से देश मुक्ति चाहता है। देश के बहुमत की सोच है कि एक निश्चित समय के अंदर लोक सभा और विधानसभाओं के चुनाव हो जाएं और उसके बाद सरकारें अपने काम में लगें। हर कुछ अंतराल पर चुनाव का मतलब देश सतत राजनीति में तल्लीन रहती है। इसका अंत होना चाहिए।

जाहिर है प्रधानमंत्री की इस पर एक राय बनाने की कोशिश स्वागतयोग्य है। हां, कोशिश का अर्थ इसका तत्काल साकार होना नहीं है। जिस तरह सभी विधानसभाओं के कार्यकाल में काफी अंतर आ गया है, उन सबका चुनाव एक साथ कैसे कराया जाए यह बड़ा प्रश्न है। कम्युनिस्ट पार्टयिों ने बैठक में यही प्रश्न उठाया कि इसको करेंगे कैसे? इसका कोई रेडिमेड जवाब नहीं हो सकता था। प्रधानमंत्री ने इसके लिए एक समिति बनाने का ऐलान किया है, जो समय सीमा के अंदर अपनी रिपोर्ट देगी। उस रिपोर्ट पर विचार करने के लिए सभी दलों की बैठक होगी। ऐसी बैठक का बहिष्कार करने वालों का समर्थन नहीं किया जा सकता। आपका जो भी मत है, उसे बैठक में जाकर रखने में क्या हर्ज था? प्रधानमंत्री किसी मुद्दे पर विचार-विमर्श के लिए बैठक बुलाते हैं, तो उसका बहिष्कार करने का मतलब तब होता जब किसी दल को अपनी बात रखने का मौका नहीं मिलता। चुनाव सुधार एक बड़ा प्रश्न है। इस पहल को चुनाव सुधार की कोशिश के तौर पर भी देखा जा सकता है। सभी दलों को बैठक में जाकर अपना मत रखना चाहिए था। इससे भागना बेमानी है। जो आशंकाएं हैं, उनको उठाना, उन पर सरकार से स्पष्टीकरण मांगना और सुझाव देना परिपक्व रवैया होता। वैसे भी जिन दलों ने खुलकर एक साथ चुनाव का समर्थन कर दिया है, उनके अंदर वही आशंकाएं क्यों नहीं हैं? बीजद और वाईएसआर कांग्रेस के लिए क्या संघवाद कोई मायने नहीं रखता? वास्तव में विरोध राजनीतिक ज्यादा है।


 

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