22-05-2019 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date:22-05-19
गहराते ट्रेड वॉर से उपजी चुनौतियां
अमेरिका-चीन के मध्य खींचतान में भारत ऐसी नीति अपनाए, जिससे उसके हित सुरक्षित रहें और उसकी तकनीकी क्षमताएं सुदृढ़ हों।
हर्ष वी. पंत , (लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्राध्यापक हैं)
व्यापारिक मोर्चे पर अमेरिका व चीन के मध्य तनातनी लगातार बढ़ती जा रही है। इसी कड़ी में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल में चीन की दिग्गज तकनीकी कंपनी हुआवे पर प्रतिबंध लगा दिया। ट्रंप के इस आदेश के बाद हुआवे के लिए अमेरिकी बाजार में परिचालन संभव नहीं होगा। ट्रंप की सख्ती के पीछे यह वजह बताई जा रही है कि चीन अपनी इस दिग्गज कंपनी के माध्यम से व्यापक स्तर पर जासूसी कराने के अलावा महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे तक अपनी पहुंच बना सकता है। अमेरिकी वाणिज्य विभाग ने हुआवे टेक्नोलॉजीज कंपनी और 70 अन्य कंपनियों को ब्लैक-लिस्ट कर दिया। इसके चलते चीनी कंपनी अमेरिकी सरकार की पूर्व मंजूरी के बिना अमेरिकी कंपनियों से किसी तरह की तकनीकी या कलपुर्जों की खरीदफरोख्त नहीं कर पाएगी। इसके साथ ही ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश जारी करके अमेरिकी कंपनियों को हिदायत दी कि वे ऐसी कंपनियों से दूरसंचार उपकरण न खरीदें, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जोखिम पैदा कर सकती हैं। गूगल और क्वालकॉम जैसी अमेरिकी कंपनियां हुआवे के साथ तकनीकी साझेदारी न करने की तैयारी कर रही हैैं। हालांकि अमेरिका ने हुआवे को कुछ मामलों में 90 दिन की रियायत दी है, लेकिन लगता नहीं कि इससे कुछ खास फर्क पड़ेगा। अमेरिका और चीन के बीच पहले से ही व्यापार युद्ध छिड़ा हुआ है। यह ताजा प्रकरण व्यापार युद्ध की उस आग में और घी डालने का ही काम करेगा। इस ट्रेड वॉर में तकनीक भी लड़ाई का एक प्रमुख अखाड़ा है तो यह प्रकरण न केवल द्विपक्षीय रिश्तों की प्रकृति, बल्कि निकट भविष्य में वैश्विक राजनीति एवं आर्थिकी पर भी अपना असर डालेगा।
स्वाभाविक रूप से हुआवे ने इसकी निंदा करते हुए कहा कि अमेरिकी सरकार उसके व्यापार को खत्म करने का प्रयास कर रही है। कंपनी ने कहा है कि उसके व्यापार में बाधा डालने से अमेरिका अपने देश में अगली पीढ़ी के उन्न्त मोबाइल नेटवर्क को विकसित करने में पीछे रह जाएगा। बीजिंग के अनुसार अमेरिका ने कुछ चुनिंदा चीनी कंपनियों को निशाना बनाने के लिए सरकारी नियम-कानूनों का सहारा लिया है, ताकि उनके सामान्य एवं कानूनी कारोबार पर प्रहार किया जा सके और चीन सरकार अपनी कंपनियों के वैधानिक अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए किसी भी कोशिश से पीछे नहीं हटेगी। हुआवे कुछ अर्थों में चीनी राष्ट्रवाद के प्रतीकों में से एक मानी जाती है। इसे ‘चीन के उभार की एक अहम कड़ी के रूप में भी देखा जाता है। ऐसे में इस कंपनी पर किया गया कोई भी हमला चीन खुद पर एक हमला मानता है। इसके अलावा अमेरिका ने हुआवे की मुख्य वित्तीय अधिकारी मेंग वानझू के खिलाफ आरोप तय करने को लेकर अपने पत्ते भी अब तक नहीं खोले हैं, जिन्हें बीते दिसंबर में कनाडा से गिरफ्तार किया गया था।
अमेरिका और चीन के बीच यह संघर्ष केवल द्विपक्षीय स्तर पर ही नहीं रह गया है। वाशिंगटन अपने सहयोगी देशों पर भी दबाव डाल रहा है कि वे चीनी कंपनी को अपने मोबाइल नेटवर्क के काम से दूर रखें। कुछ देशों पर इसका असर भी हो रहा है। खासतौर से पश्चिम के देश हुआवे को लेकर उठते सवालों को नजरअंदाज नहीं कर रहे हैं। हाल में डच खुफिया सेवा भी जासूसी के मामले में हुआवे की जांच कर रही है। उसे संदेह है कि चीनी सरकार हुआवे के माध्यम से ग्र्राहकों के डाटा में सेंधमारी कर रही है। यह सब कुछ एक ऐसे समय में हो रहा है, जब डच सरकार को नीदरलैंड में नए 5जी नेटवर्क के लिए हुआवे की भागीदारी पर विचार करना है। ब्रिटेन में भी दूरसंचार सेवा प्रदाता बीटी न गत वर्ष पुष्टि की थी कि वह अपने 4जी नेटवर्क के प्रमुख इलाकों से हुआवे के उपकरण हटा रही है। खुफिया एजेंसी एमआई6 द्वारा जताई चिंताओं के बाद कंपनी ने यह कदम उठाया था। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और जापान पहले ही हुआवे के 5जी उपकरणों पर प्रतिबंध लगा चुके हैं। यूरोप के अधिकांश देश भी चीन की इस तकनीकी दिग्गज के साथ अपने संबंधों की नए सिरे से समीक्षा में जुटे हैं।
कुल मिलाकर दांव बहुत ऊंचे लगे हैं, क्योंकि यह चीन और अमेरिका के बीच व्यापार और वैश्विक प्रभुत्व को लेकर चल रही खींचतान का हिस्सा है। कुछ हफ्ते पूर्व अमेरिका और चीन के बीच चल रहे ट्रेड वॉर का कुछ समाधान निकलता दिख रहा था, लेकिन अब उसमें नए सिरे से तल्खी आ गई है। इसमें अमेरिका ने दबाव बढ़ाते हुए हाल ही में चीन के 200 अरब डॉलर के चीनी आयात पर शुल्क 10 प्रतिशत से बढाकर 25 प्रतिशत कर दिया। चीन ने भी पलटवार करते हुए अमेरिका के 60 अरब डॉलर के उत्पादों पर आयात शुल्क की दरें बढा दीं। इस साल की शुरुआत में ही दूरसंचार उपकरणों के मोर्चे पर हुआवे की बादशाहत कायम होते देख ट्रंप प्रशासन ने कुछ कदम उठाए थे जिनसे अमेरिका में नए वायरलेस नेटवर्क का जाल बिछाने के काम को गति दी जाए। इसमें आह्वान किया गया कि 5जी की होड़ अमेरिका को हर हाल में जीतनी चाहिए। मगर यह अभी तक स्पष्ट नहीं कि हुआवे के वर्चस्व की काट के लिए कोई कारगर और समन्वित रणनीति बनाई भी गई या नहीं, क्योंकि अमेरिका में हुआवे की टक्कर का कोई भी 5जी नेटवर्क आपूर्तिकर्ता नहीं है। इस मामले में चीन के प्रयास बहुत सधे हुए हैं और वह दशकों से तकनीकी मोर्चे पर छलांग को राष्ट्रीय प्राथमिकता के तौर पर लेता आया है। तकनीकी क्रांति के अगले चरण में खेल का पांसा पलटने की क्षमता वाली अपनी भूमिका को देखते हुए 5जी वैश्विक तकनीकी जगत का नेतृत्व करने की चीनी आकांक्षाओं की धुरी बनती हुई दिख रही है। हुआवे के इतिहास और चीनी कानूनों के चलते पश्चिमी देशों की राजधानियों में इस चीनी दिग्गज के उभार को लेकर घबराहट का भाव बढ़ा है। असल में चीन के कानून ऐसे हैं जिसमें अगर सरकार को कोई खुफिया जानकारी चाहिए तो इसमें घरेलू कंपनी को उसकी मदद करनी होती है।
भारत में भी अगले महीने से 5जी का बहुप्रतीक्षित ट्रायल शुरू होना है। हुआवे के खिलाफ पश्चिमी देशों द्वारा खड़ी की गई चुनौतियों को देखते हुए इसे लेकर अभी भी कुछ हिचक स्वाभाविक है। परीक्षण के लिए अभी तक किसी भी सेवा प्रदाता ने हुआवे को साझेदार नहीं बनाया है। इस मामले में अभी फैसला किया जाना शेष है। शायद वह पहले दौर के परीक्षणों का हिस्सा न भी बने, लेकिन यह मामला अभी विचाराधीन है। राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक समृद्धि हमेशा एक कड़ी से जुड़ी होती हैं, लेकिन व्यापार एवं तकनीकी टकराव में अमेरिका और चीन जैसे देशों में जो रणनीतिक प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी है, उसमें भारत जैसे देशों के लिए रणनीतिक गुंजाइश लगातार सिकुड़ती जाएगी। ऐसे में नई दिल्ली को दीर्घावधिक दृष्टिकोण से ऐसी नीति अपनानी होगी जिससे न केवल फौरी हित सुरक्षित रहें, बल्कि उसकी स्वयं की तकनीकी क्षमताओं को भी बल मिले।
Date:22-05-19
राष्ट्रपति के पास है स्वविवेक का अधिकार
एनके सिंह, (लेखक राजनीतिक विश्लेषक एंव वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
मतदान समाप्त होते ही एक्जिट पोल के नतीजे आ गए, जो यह कह रहे हैं कि मोदी सरकार की वापसी होने जा रही है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि चुनाव परिणाम वैसे ही आएं जैसे विभिन्न एक्जिट पोल दिखा रहे हैं। असली नतीजे एक्जिट पोल से इतर भी हो सकते हैं। चुनाव परिणाम आने के पहले ही विभिन्न विपक्षी दलों के नेता सक्रिय हो गए हैं। साफ है कि उन्होंने अपनी उमीद नहीं छोड़ी है। कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद का कहना है कि अगर संप्रग को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो कांग्रेस प्रधानमंत्री पद की कुर्बानी देकर समान विचार वाले दलों के गठबंधन को समर्थन देगी। चंद्रबाबू नायडू की विभिन्न दलों के नेताओं से मेल-मुलाकात के बीच सोनिया गांधी तमाम विपक्षी दलों की बैठक बुलाने जा रही हैं।
चुनाव नतीजों को लेकर अनिश्चितता के चलते राजनीतिक विश्लेषकों की नजर राष्ट्रपति भवन की ओर भी जा रही है। चुनाव नतीजों के बाद चार स्थितियां बन सकती हैं- (1)कोई दल अकेले ही पूर्ण बहुमत यानी 273 सीटें हासिल कर ले। (2)चुनाव पूर्व गठबंधन बहुमत हासिल कर ले। इन दोनों स्थितियों में राष्ट्रपति दल या दल समूह को बुलाने को बाध्य होंगे, लेकिन अगर किसी भी दल या चुनाव पूर्व गठबंधन वाले समूह को बहुमत नहीं मिलता तो राष्ट्रपति को अपने विवेक का इस्तेमाल करना पड़ेगा। चूंकि ऐसे फैसलों में उनके पास मंत्रिमंडल की सलाह मौजूद नहीं लिहाजा उनका विवेक अपेक्षित होता है। इसी के साथ यह भी अपेक्षित होता है कि वह एक स्थाई सरकार दें। दुर्भाग्य से 70 साल के बाद भी सुप्रीम कोर्ट के लगभग एक दर्जन फैसले और दो प्रमुख आयोगों के गठन के बावजूद यह स्पष्ट रूप से व्याख्यायित नहीं है कि त्रिशंकु लोकसभा या विधानसभा की स्थिति में किस क्रम से दल या दल-समूह को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना होगा। यही वजह है कि कई बार राज्यपाल मनमानी करते रहे हैं। एसआर बोमई मामले में नौ-सदस्यीय संविधान पीठ का फैसला(1994) इस मुद्दे को छूकर आगे बढ़ गया। जस्टिस सरकारिया आयोग (1988) और जस्टिस पंछी आयोग (2010) ने भी अपना मत बहुत स्पष्ट नहीं किया। इसलिए स्थिति सुलझने की जगह उलझती गई। पंछी आयोग ने तो यहां तक कहा कि अगर संविधान संशोधन के जरिये संसद के चुनाव के बाद लोकसभा या विधानसभाओं में ऐसी स्थितियों के लिए जिसमें दल दावे-दर-दावे कर रहे हों, स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए तो भ्रम बढ़ता जाएगा। चूंकि केंद्र-राज्य संबंध के लिए बना सरकारिया आयोग स्थिति स्पष्ट नहीं कर सका इसलिए बोमई केस में संविधान पीठ को इस मामले को पूरी तरह अपने संज्ञान में लेना चाहिए था, लेकिन वह भी यह कहने तक सीमित रही कि सबसे बड़ी पार्टी या दल समूह को बुलाना चाहिए। लिहाजा फैसले का यह अंश मात्र मंतव्य ही रहा, न कि बाध्यता। सरकारिया आयोग ने ऐसे मामलों के लिए एक व्यवस्था तो दी, लेकिन वह भी अस्पष्ट ही साबित हुई। अगर किसी दल या दल समूह को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो आयोग के क्रम के अनुसार ऐसे दल या दलों को बुलाना चाहिए- (1) दलों का ऐसा गठबंधन जो चुनावपूर्व बना हो और सबसे अधिक संख्याबल वाला हो (2) सबसे बड़ी पार्टी जो अन्य दलों, निर्दलीय सदस्यों का समर्थन लेकर बहुमत पाने का दावा कर रही हो (3) चुनाव बाद बने गठबंधन को जिसमें सभी दल सरकार में शामिल होने को तैयार हों। (4) चुनाव पूर्व बना ऐसा गठबंधन जिसमें कुछ दल या सदस्य सरकार में शामिल होने के तैयार हों और कुछ बाहर से समर्थन करने को। उपरोत क्रम से यह नहीं पता चलता कि बड़े दल/या दल-समूह को कैसे बुलाना संभव होगा जब तक उसे सदन का विश्वास नहीं हासिल हो यानी बहुमत न हो। दूसरा विरोधाभास यह है कि अगर दूसरे क्रम में सबसे बड़ी पार्टी मात्र दावा कर रही है जबकि क्रम तीन के तहत चुनाव बाद गठबंधन को स्पष्ट बहुमत दिखाई दे रहा है तो राष्ट्रपति या राज्यपाल कैसे दूसरे क्रम को वरीयता दे सकता है? पंछी आयोग ने भी इस द्वंद्व को लगभग यथावत छोड़ दिया। उसने यह क्रम तय किया- (1)चुनावपूर्व गठबंधन को जिसकी संख्या सबसे ज्यादा हो (2) सबसे बड़ी पार्टी को अगर वह बहुमत का दावा कर रही हो। (3) चुनाव बाद गठबंधन को, अगर सभी दल या सदस्य सरकार बनाने में शामिल हों। (4) चुनावबाद का गठबंधन जिसमें कुछ सदस्य सरकार में शामिल हों और कुछ बाहर से समर्थन करें। यहां भी बहुमत और पूर्ण बहुमत पर आयोग अस्पष्ट है और चूंकि अकेली सबसे बड़ी पार्टी को क्रम दो में रखा गया है लिहाजा क्रम 2 और 3 में व्यावहारिक रूप से अस्पष्टता बनी रही। चूंकि त्रिशंकु विधायिका की स्थिति में राष्ट्रपति /राज्यपाल की भूमिका के बारे में सुप्रीम कोर्ट के अन्य तमाम फैसले भी स्पष्ट मत नहीं दे सके। लिहाजा राष्ट्रपति को कोई दिशा नहीं मिल पाती और राज्यपाल आम तौर पर केंद्र सरकार के इशारे पर फैसले लेते हैं। राष्ट्रपति के सामने भी यह समस्या आ सकती है कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी और चुनावपूर्व गठबंधन वाला राजग सबसे बड़ा गठबंधन हो, लेकिन अगर स्पष्ट बहुमत न मिले या यूं कहें कि अन्य कोई भी दल या सदस्य समर्थन देकर स्पष्ट बहुमत सुनिश्चित न करे तो राष्ट्रपति की भूमिका या होगी? खासकर उस स्थिति में जब शेष सभी दल एक गठबंधन बनाकर सरकार बनाने का दावा करते हुए राष्ट्रपति से मिलें। अगर यह स्थिति बनती है कि किसी भी दल या दल समूह को स्पष्ट बहुमत न मिले तो राष्ट्रपति के लिए परस्पर विरोधाभासी फैसले ही सहारा बनेंगे और उनका विवेक सर्वोपरि होगा।
बोमई फैसले के प्रकाश में यह विवेक इस आधार पर प्रयुत होना चाहिए कि एक मजबूत सरकार बने। संविधान निर्माताओं को यह अंदेशा नहीं था कि भारतीय राजनीति इतने टुकड़ों में बंट जाएगी कि आयाराम- गयाराम की कुसंस्कृति और धनबल-छलबल का प्रभाव जनादेश को लील जाएगा, पर इन स्थितियों से निपटने की कहीं न कहीं इच्छा जरूर थी। चूंकि बोमई केस में त्रिशंकु सदन को लेकर राष्ट्रपति या राज्यपाल की भूमिका को लेकर कोई स्पष्ट गाइडलाइंस नहीं बनाई गई इसलिए देखना यह है त्रिशंकु सदन की स्थिति बनती है तो या होता है? जो भी हो, जनादेश के हरण की नौबत नहीं बनने देनी चाहिए।
Date:22-05-19
हुआवेई पर सवाल
संपादकीय
अमेरिका सरकार ने अपने देश से संचालित कंपनियों के हुआवेई (तथा कई अन्य चीनी कंपनियों) के साथ कारोबार करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसका वैश्विक दूरसंचार बाजार तथा मोबाइल हैंडसेट बाजार पर दूरगामी असर होगा। यह प्रतिबंध भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से भी दिक्कतदेह निहितार्थ समेटे हुए है। निजी क्षेत्र की यह चीनी बहुराष्ट्रीय कंपनी दुनिया की सबसे बड़ी दूरसंचार नेटवर्क उपकरण प्रदाता और दूसरी सबसे बड़ी हैंडसेट निर्माता कंपनी भी है। वर्ष 2018 में कंपनी का राजस्व 10,500 करोड़ डॉलर से अधिक था। इस प्रतिबंध में 90 दिन की अस्थायी छूट दी गई है ताकि अमेरिका में नेटवर्क बाधित न हो। परंतु गूगल जो ऐंड्रॉयड ऑपरेटिंग सिस्टम और गूगल प्ले स्टोर चलाती है, वह पहले ही हुआवेई से रिश्ते समाप्त कर चुकी है। इसी तरह अन्य अमेरिकी कंपनियों मसलन इंटेल, क्वालकॉम, सिस्को आदि ने भी उससे नाता तोड़ लिया है। ये कंपनियां चीन की कंपनियों को कलपुर्जे मुहैया कराती हैं। वैश्विक स्मार्ट फोन बाजार में ऐंड्रॉयड का हिस्सा 90 प्रतिशत है। भारत में इसकी हिस्सेदारी इससे भी अधिक है। वर्ष 2018 में हुआवेई ने हुआवेई और ऑनर ब्रांड समेत कुल 20 करोड़ से अधिक मोबाइल बेचे। ये सारे फोन ऐंड्रॉयड हैं। अगर हुआवेई कोई वैकल्पिक ऑपरेटिंग सिस्टम नहीं बनाती और उपभोक्ताओं को उसका इस्तेमाल करने के लिए मना नहीं लेती तो उसे बहुत नुकसान होगा।
ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हुआवेई दुनिया में दूरसंचार नेटवर्क उपकरण की आपूर्ति करने वाली सबसे बड़ी कंपनी है। इंटेल, क्वालकॉम, सिस्को तथा अन्य अमेरिकी कंपनियों के कारोबारी रिश्ते खत्म करने के कारण हुआवेई की आपूर्ति शृंखला पर बुरा असर होगा। एक बार उसकी इन्वेंटरी समाप्त होने के बाद मौजूदा नेटवर्क में सुधार कार्य और रखरखाव मुश्किल हो जाएगा। नई बुनियादी संरचना कायम करना और कठिन होगा क्योंकि हुआवेई को प्रमुख घटकों के लिए वैकल्पिक स्रोत तलाश करने होंगे। ये घटक बौद्धिक संपदा अधिकार के तहत संरक्षित हैं। देश में तथा अन्य स्थानों पर जो नीति निर्माता 5जी सेवा के लिए हुआवेई की आपूर्ति पर निर्भर हैं, उन्हें भी भविष्य की दिक्कतों पर विचार करना चाहिए। अन्य नेटवर्क उपकरण आपूर्तिकर्ता मसलन एरिक्सन और नोकिया छोटे और महंगे हैं। वे हुआवेई का मुकाबला नहीं कर सकते।
प्रतिबंध के लिए जो वजह बताई गई है वह और अधिक बेचैन करने वाली है। अमेरिकी सुरक्षा प्रतिष्ठान का मानना है कि हुआवेई के चीन की सेना के साथ गहरे ताल्लुकात हैं। आरोप है कि हुआवेई के उपकरण नेटवर्क की संवेदनशील जानकारी चीन की एजेंसियों तक पहुंचा सकते हैं। चिंता यह भी है कि चीन के साथ विवाद की स्थिति में नेटवर्क को जानबूझकर बाधित किया जा सकता है। छह अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियों ने सार्वजनिक वक्तव्य जारी करके अमेरिकी नागरिकों से हुआवेई तथा जेडटीई जैसे चीनी ब्रांड के फोन इस्तेमाल न करने को कहा है। असुरक्षित नेटवर्क ढांचे को लेकर भी अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियां बार-बार चिंता जताती रही हैं। दूसरी सोच यह भी है कि अमेरिका हुआवेई का इस्तेमाल चीन के साथ चल रही व्यापारिक जंग में लाभ लेने के लिए कर रहा है। इसकी पुष्टि कर पाना मुश्किल है। चीन के साथ भारत के रिश्ते बहुत सुदृढ़ नहीं हैं। ऐसे में यह प्रतिबंध और इसके लिए दी गई वजहें इस बात के लिए पर्याप्त हैं कि नीति निर्माता 5जी वेंडर के रूप में हुआवेई के दर्जे की समीक्षा करें। नीति निर्माताओं और उपभोक्ताओं को यह यकीन दिलाया जाना चाहिए कि देश की 5जी सेवाएं समय पर शुरू होंगी। 5जी नेटवर्क के भविष्य की सुरक्षा को लेकर कोई समझौता नहीं होना चाहिए। हुआवेई से कहा जाना चाहिए कि वह इन चिंताओं को दूर करे।
Date:22-05-19
भारतीय राज्य के स्वरूप में सुधार को देनी होगी तवज्जो
टीसीए श्रीनिवास-राघवन
इस महीने के अंत तक देश में नई सरकार बन चुकी होगी। सरकार चाहे जिस सियासी गठजोड़ की बने, उसे तीन बुनियादी मुद्दों का सामना करना होगा। इसकी वजह यह है कि नई सरकार की अवधि पूरी होने तक 21वीं सदी का करीब चौथाई काल पूरा हो चुका होगा। पहला मुद्दा 21वीं सदी में भारतीय राज्य के स्वरूप एवं आकार से जुड़ा हुआ है। सवाल है कि यह कितना अधिक प्रतिरोधी होगा या एक व्यवहार्य इकाई के रूप में अस्तित्व बनाए रखने के लिए उसे ऐसा करना होगा? दूसरा मुद्दा भारतीय अर्थव्यवस्था के स्वरूप एवं ढांचे का है। यह भारतीय राज्य से कितना आजाद होगा? हम देखेंगे कि यह मसला पहले सवाल से गहराई से जुड़ा हुआ है।
तीसरा सवाल समग्र राजनीतिक परिपाटी से जुड़ा है। ‘अलग-अलग लटकाने से बेहतर समूह में लटकना होता है’ सिद्धांत का अनुसरण करें तो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभर रहे क्षेत्रीय एवं छोटे दलों को रोकने के लिए क्या दोनों राष्ट्रीय दल एक साथ आएंगे? ऐसा नहीं है कि ऐसा होने की संभावना बहुत कम है, लिहाजा हम अपनी बात सियासी दलों से ही शुरू करते हैं। मौजूदा चुनाव में भाजपा लोकसभा की कुल 543 सीटों में 437 पर चुनाव लड़ रही है जबकि कांग्रेस ने 423 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। इसका मतलब है कि ये दोनों राष्ट्रीय दल खुद ही मान रहे हैं कि करीब 120-125 सीटों पर उनका खास राजनीतिक दखल नहीं है। लेकिन सच तो यह है कि यह आंकड़ा करीब 220 सीटों का है। वर्ष 2004 के आम चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों को मिलकर केवल 282 सीटें मिली थीं। वर्ष 2009 के चुनाव में भाजपा एवं कांग्रेस ने मिलकर 322 सीटें जीती थीं जबकि 2014 में यह आंकड़ा बढ़कर 326 हो गया था और बाकी सीटें अन्य दलों के खाते में गई थीं। दोनों राष्ट्रीय दलों की सीटें कमोबेश इसी दायरे में रही हैं।
सवाल है कि क्या भाजपा-विरोधी एवं कांग्रेस-विरोधी रुझान में तेजी आई है? अगर ऐसा है तो भाजपा और कांग्रेस को एक साथ आने की जरूरत पड़ सकती है। अगले दशक में यह सबसे बड़ी राजनीतिक परिघटना हो सकती है। लेकिन इस संभावना को आकार देने के लिए जरूरी होगा कि भाजपा हिंदुत्व से पीछे हटे। उसी तरह कांग्रेस को भी गांधी परिवार के नेतृत्व को अलविदा कहना होगा।
अर्थव्यवस्था
लेकिन केवल राजनीतिक दलों के पुनर्संयोजन से ही देश को कोई मदद नहीं मिलेगी। अर्थव्यवस्था को भी काफी मजबूती से बढऩा होगा। हाल ही में हार्वर्ड में शिक्षित एक भारतीय अर्थशास्त्री ने यह सवाल उठाया कि लोकतंत्र का पूर्ण अभाव होने के बावजूद चीन ने आर्थिक रूप से इतना अच्छा प्रदर्शन कैसे किया है जबकि अपनी तमाम लोकतांत्रिक उपलब्धियों के बावजूद भारत का प्रदर्शन खराब रहा है। उन्होंने चीन के सशक्त राज्य और भारत के कमजोर राज्य को इसका जिम्मेदार बताया है। हमें इस बात की जानकारी 1967 से ही है। उस समय नोबेल पुरस्कार विजेता गुन्नार मिर्डल ने विनम्रतापूर्वक कहा था कि भारत एक ‘नरम’ राज्य है। उसके बाद से हम इसे नियतिवादी तरीके से हल्के में लेते रहे हैं। लेकिन अब यह सवाल पूछने का वक्त आ गया है कि राज्य को अपने आर्थिक साध्य हासिल करने के लिए खुद को किस हद तक बाध्यकारी शक्तियों से लैस करना होगा? इतना साफ है कि मौजूदा स्तर नाकाफी है।
जो भी हो, राज्य की बाध्यकारी शक्तियों में खासी कटौती की गई है जिसका नतीजा यह हुआ है कि उत्पादन के सभी घटक या तो बहुत महंगे या अनुपलब्ध या दोनों हो चुके हैं। इन घटकों को सस्ता बनाने के लिए हमें इस पर चर्चा करने की जरूरत है कि क्या भारतीय राज्य को भी दुनिया के पश्चिमी गोलाद्र्ध समेत कई देशों की तरह अधिक बाध्यकारी बनाना होगा? संरचनात्मक, संवैधानिक एवं राजनीतिक विपक्ष को ध्यान में रखें तो एक संतुलन बनाए रखना बेहद मुश्किल चुनौती बनने जा रहा है। इसे अंजाम देने का एक तरीका यह होगा कि संविधान से समवर्ती सूची को हटाकर राज्यों को अधिक स्वायत्तता दे दी जाए। इसके अलावा केंद्रीय सूची से भी कई विषयों को राज्य सूची में लाना होगा। राज्यों को एक तय रकम केंद्र को देनी चाहिए और हर पांच साल पर उस राशि का संशोधन होना चाहिए। ऐसा करना आसान नहीं होगा लेकिन 21वीं सदी तो अभी शुरू ही हुई है। अगला दशक बेहद बुनियादी किस्म की इन समस्याओं के समाधान तलाशने में लगाया जाना चाहिए।
भारतीय राज्य
कई देशों ने यह महसूस किया है कि राज्य के ढांचे में सुधार करना सबसे कठिन काम है क्योंकि स्वतंत्रता के सिद्धांत का आशय है कि सुधार की सर्वाधिक जरूरत वाले संस्थान खुद ही अपना सुधार कर सकते हैं। संसद, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच विवाद का यह बहुत पुराना बिंदु रहा है। स्वतंत्रता की इस आत्मघाती व्याख्या को दूर करने के लिए जरूरी है कि राज्य के बाकी दो अंग तीसरे अंग का सुधार करें। इसके बगैर कोई भी सुधार संभव नहीं हो पाएगा। यही कारण है कि अगली सरकार को यह तरीका ईजाद करना होगा जिससे तीन में से कोई भी दो अंग तीसरे अंग के सुधारों का मसौदा पेश कर सकें। इन सुधारों को अमल में लाना अनिवार्य करना होगा। अगर इसके लिए संविधान में संशोधन भी करने की जरूरत पड़े तो सरकार को उसके लिए काम करना चाहिए। आखिर संविधान में अब तक 100 से अधिक संशोधन किए जा चुके हैं।
Date:21-05-19
युद्ध के मुहाने
संपादकीय
मध्य-पूर्व में जो हालात बन रहे हैं, उनकी आशंका तभी पैदा हो गई थी जब पिछले साल अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के साथ अंतरराष्ट्रीय परमाणु करार को भंग कर दिया था। उसके बाद अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की थी और फिर लगातार दोनों देशों के बीच संबंध खराब होते गए। हालांकि अब भी यह उम्मीद की जा रही थी कि कूटनीतिक स्तर पर पहलकदमी होगी और बातचीत के जरिए सीधे टकराव की स्थिति को टाला जा सकेगा। लेकिन अब अमेरिका ने जैसा रुख जाहिर किया है, उससे शायद तनाव बढ़े ही। डोनाल्ड ट्रंप ने साफ लहजे में कहा कि अगर ईरान अमेरिकी हितों पर हमला करता है तो उसे नष्ट कर दिया जाएगा। यों ईरान ने इस पर सीमित प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि हम जंग नहीं चाहते हैं, लेकिन साथ ही चेतावनी दी कि किसी को इस बात का भ्रम नहीं होना चाहिए कि अमेरिका इस क्षेत्र में ईरान का सामना कर सकता है। दूसरी ओर, संयुक्त अरब अमीरात के तट पर तेल के चार टैंकरों पर कथित तौर पर हमले का दावा यमन के बागियों ने किया था, जिनके बारे में माना जाता है कि उन्हें ईरान का समर्थन हासिल है। इसके बाद सऊदी अरब की ओर से भी यही कहा गया है कि उनका देश युद्ध नहीं चाहता, लेकिन वह ईरान के खिलाफ अपनी रक्षा कराने से हिचकिचाएगा नहीं।
यों अमेरिका और ईरान के संबंध पहले भी सहज नहीं रहे थे, लेकिन अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के बाद दोनों देशों के बीच दुश्मनी की धार और तीखी हो गई है। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि अमेरिका ने आइआरजीसी यानी ईरान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स को विदेशी आतंकी संगठन तक घोषित कर दिया है जबकि आइआरजीसी ईरानी सेना के एक अहम हिस्से के रूप में काम करता है। यों अमेरिका की ओर से लगाए गए चौतरफा प्रतिबंधों के बाद से ही ईरान की अर्थव्यवस्था काफी बुरे दौर से गुजर रही है। न केवल खुद अमेरिका ने अपने स्तर पर कई तरह की पाबंदियां लगाई हैं, बल्कि वह दुनिया के किसी भी देश को ईरान से व्यापार नहीं करने दे रहा है। अमेरिका की इसी दबाव की नीति के बाद भारत को भी ईरान से अपने लिए तेल आयात बंद करना पड़ा। ईरान के मसले पर अमेरिका और यूरोप में मतभेद खुल कर सामने आए, क्योंकि यूरोपीय संघ ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते को बचाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन ट्रंप ने साफतौर पर इससे इनकार कर दिया।
जाहिर है, अगर सभी पक्ष इस तरह के रुख पर अड़े रहे तो तनाव में बढ़ोतरी होगी और कोई एक घटना भी न केवल अमेरिका और ईरान, बल्कि समूचे मध्य-पूर्व को युद्ध की आग में झोंक दे सकती है। युद्ध जैसे हालात मध्य-पूर्व के लिए कोई नई बात नहीं हैं और इस क्षेत्र ने लंबी अवधि तक चलने वाले त्रासद युद्धों को भी देखा है। तो फिलहाल अमेरिका और ईरान के बीच तनाव के जैसे हालात बन रहे हैं, वे अगर युद्ध की ओर बढ़ जाएं तो हैरानी की बात नहीं होगी। लेकिन विशेषज्ञों का साफ मानना है कि डोनाल्ड ट्रंप अपनी मौजूदा शत्रुतापूर्ण नीतियों के साथ और ईरान को बातचीत में शामिल किए बिना इस इलाके में शांति कायम नहीं कर सकते। जैसा कि अमूमन हर युद्ध के असर के तौर पर देखा गया है, अगर अमेरिका और ईरान में प्रत्यक्ष जंग छिड़ जाती है तो एक बार फिर दुनिया को इसके त्रासद अंजाम की गवाह बनना पड़ेगा!
Date:21-05-19
जलवायु की चिंता
द वाशिंगटन टाइम्स, अमेरिका
मशहूर लेखक मार्क ट्वेन ने कहा था, हर कोई मौसम के बारे में शिकायत करता है, लेकिन इसके लिए कोई कुछ नहीं करता। हालांकि यह बात खुशनुमा दिनों में तो शायद सही कही जा सकती थी, लेकिन अब नहीं, जब हम सोचते हैं कि इंसान किसी भी चीज को बदल सकता है। आज दुनिया के लिए जलवायु परिवर्तन अनिवार्य विषय सूची में शामिल है। इस विषय पर जो भी किया जाता है, वह काफी महत्व रखता है, क्योंकि अगर सुधार न हुआ, तो पूरे ग्रह को मौसम बदलने की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। जब तक अनिश्चितताओं का समाधान नहीं हो जाता, तब तक समकालीन अध्ययन में मौसम कला कम और विज्ञान ज्यादा है। अमेरिका युद्ध स्तर पर मौसम की जांच करे। इस जांच के लिए वह न कला से प्रभावित हो, न विज्ञान से, वह केवल डर से संचालित हो। इन दिनों संयुक्त राष्ट्र का एक पैनल जलवायु जांच विधियों में व्याप्त अशुद्धियां घटाने के प्रयास में लगा है।
संयुक्त राष्ट्र के विशेष कार्यबल ने जापान के क्योटो में 49वीं वार्षिक बैठक की है, जिसका उद्देश्य ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन आकलन की विधियों को दुरुस्त करना था। अभी तमाम देशों के बीच उत्सर्जन का सही आकलन बहुत मुश्किल है। आकलन विधि में कोई गलती रह जाए, तो पूरी दुनिया में गलत आकलन का सिलसिला चल पड़ता है। ग्रीन हाउस गैस का बढ़ना और उच्च तापमाान के बीच संबंध सीधा नहीं है, इससे दुनिया में संदेह उत्पन्न होता है। हो सकता है, चूंकि हम औद्योगिक गतिविधि चक्र को वापस पलटने में विफल हैं, इसलिए जलवायु जनित प्रलय की भविष्यवाणी जरूरत से ज्यादा की जाती है। एक नए अध्ययन ने इस पर संदेह बढ़ा दिया है कि कार्बन डाइऑक्साइड और वैश्विक तापमान सामंजस्य के साथ घटते या बढ़ते हैं। ग्रीन हाउस गैस के स्तर को मापने के बाद सहजता से कोई जलवायु अनुमान लगाना स्पष्ट रूप से ज्यादा जटिल है। जब तक हम जलवायु को प्रभावित करने वाले तमाम कारकों को ध्यान में नहीं रखेंगे, तब तक तापमान आकलन के प्रयासों में दोष रहेगा और अविश्वसनीय आकलन जारी रहेंगे।
Date:21-05-19
Bag A Bargain
India can benefit from the US-China tariff war if it plays its cards well
Dharmakirti Joshi & Pankhuri Tandon, [ Joshi is chief economist and Tandon is junior economist, CRISIL Ltd.]
A year into the US-China tariff war, its implications for India are still unfolding. The glass, as it were, could be seen as half empty, or half-full. What we know is India is losing its surplus with the US. It is gaining exports, and hence, narrowing its deficit with China. What we are yet to find out is if India can take the space vacated by the warring partners.
Here are some points to consider. No doubt, the simmering tensions between the world’s two largest economies has wrought a knock-on effect, taking down global growth, disrupting trading arrangements and production systems and, above all, injecting uncertainty into the already fragile global environment and weakening investor sentiment. India hasn’t escaped unhurt. Its exports slowed to 5.5 per cent in the second half of fiscal 2019, compared with 12.7 per cent in the first half. Overall growth for the fiscal printed at 8.6 per cent on-year, lower than 10 per cent in the previous year. These overall figures, however, hide some crucial details, which tell us not all is lost. Specifically, India’s exports with US and China have seen sharp reversals.
India’s trade surplus with the US had increased significantly since fiscal 2012. However, this surplus started to shrink in fiscal 2019, as export growth slowed to 9.5 per cent from 13.4 per cent in fiscal 2018, while import growth rose sharply to 32.6 per cent from 19.3 per cent. Protectionist measures by the US were beginning to tell on India’s exports. Key items hit by US tariffs last year were iron, steel, and aluminum. The impact, though, was not significant, as these account for less than 1 per cent of India’s total exports.
The opposite was the case with China. India’s trade deficit with China has risen rapidly over the past decade. However, this deficit narrowed in fiscal 2019, as exports to China galloped 25.6 per cent, while imports declined by 7.9 per cent. In fact, the top exported commodities to China in fiscal 2019 — petroleum products, cotton, chemicals and plastic products — were products on which China imposed import tariffs on the US last year. A word of caution here, though. Declining imports from China were accompanied by a rise in same products from Hong Kong. Such instances have signalled that the current trade war could lead to trade diversion rather than trade destruction. Until now, the tariff actions by US and China have been one-on-one, making imports from each other expensive. What that has done, quite unintentionally, is also to improve relative competitiveness of other economies exporting the same products.
If this trade war continues over a longer horizon, it could even result in shift of production bases and restructuring of global supply chains. Chinese firms are already moving production to their plants in other countries. India also figures in the list of such probables.
But such opportunities for growing exports have come and passed earlier too. Even before the trade war, low-end manufacturing (readymade garments, leather garments and footwear) had started moving out from China, as labour costs rose and it moved to more sophisticated manufacturing. However, India fell behind countries like Vietnam and Bangladesh in capturing export share in these sectors because of higher costs and lower incentives.
That brings us to a more fundamental issue. What hinders India from becoming an export powerhouse? First, it lags in competitiveness. At 58, India still ranks below China (28) in World Economic Forum’s Global Competitiveness Rankings for 2018. In World Bank’s Logistics Performance Index 2018, it ranks 44, below China (26) and Vietnam (39). Land and labour reforms are still pending, hindering largescale investments in export sectors. Two, India remains a tightly regulated market. Under the World Bank’s Doing Business rankings, India ranks 77, compared with China at 46 and Vietnam at 69. Three, India’s slow progress in drafting trade agreements impacts its ability to participate in global value chains, affecting export growth.
India must proactively address these concerns. Reaping every opportunity that presents itself has become more crucial now, given that the global environment is in for even more challenging times.
Date:21-05-19
A polity for our times
Coalitions allow a diversity of voices to be heard, keep fundamentalism at bay
Kapil Sibal, [ The writer, a senior Congress leader, is a former Union minister.]
Democracy in India is evolving. It has not yet matured. It is buffeted by elements, which are inconsistent with what it stands for. A fair electoral process is just the first step in realising democratic values. It occasionally throws up a culture of power, which threatens the fundamentals of our constitutional imperatives.
An absolute majority in favour of a political party has the tendency to threaten democratic values. We are essentially a “mai-baap” (feudal) country and easily accept the trappings of patronage. A hierarchical societal structure caters to this. For thousands of years, we have not been able to empower Dalits and the marginalised vis-a-vis the dominant Brahminical culture. Absolute majorities tend to exploit this cultural milieu.
This dominance also seeks a supplicant bureaucratic culture through patronage. After Independence, the elite ICS cadre was not subjected to the pressures of politics. With the expansion of education and rising aspirations within caste-ridden communities, the nature of bureaucracy was being transformed with the political empowerment of caste based agglomerations. After Mandal, such pressures became far more urgent and telling. Those in the bureaucracy belonging to a particular caste and community would cater to their respective interests and depend on political patronage in doing so. There was an element of quid pro quo since political patronage was used to advance the prospects of interest groups for electoral success. Mayawati would largely cater to the interests of Dalits and the Samajwadi Party to the interests of Yadavs. The present dispensation in Uttar Pradesh caters to the Hindutva agenda, again for electoral gain and seeks the obedience of the bureaucracy for that purpose. The ones in the bureaucracy, who are ready to oblige are noticed and empowered. They willingly offer obedience even if, in the process, constitutional values are jettisoned — survival within the system becomes an end in itself. The dominance of an absolute majority, therefore, weakens constitutional values. In the long-term, liberal constitutional values are sacrificed at the altar of vested interests and political expediency.
In the past 70 years, political structures have responded to the needs of a highly complex societal structure. The creamy layer of the backward communities do not cater to the needs of its most backward. This is also true of the creamy layer within the Dalits. Brahminical structures are inherently antithetical to the backward communities and Dalits since they consider merit as the only yardstick for equal treatment. Therefore, the debate on reservation for the backward classes, Scheduled Castes and Scheduled Tribes rages on. The dominant political structure may pay lip-service to reservation for electoral gain, but would welcome outcomes in which the dominant class seeks admissions to educational institutions and public employment on the basis of merit alone.
Of late, our constitutional values have also been diminished by a majoritarian state which has captured institutions for serving majoritarian purposes. In a highly complex socio-political milieu, there is no policy prescription which can cater to the needs of all sections of the community. A healthcare policy prescription does not have the capacity to deal with the complexity of our healthcare needs. Policy prescriptions in education cannot cater, in one stroke, to the demands of higher education and the imperatives of basic quality education at the secondary and senior secondary levels. Part of the problem, of course, is the absence of both infrastructure and adequate human resource. Willy-nilly, the political class enjoying absolute majority looks to cater to the interests of those who, in turn, will advance the political interests of the establishment.
The Hindu majority represented by a Hindutva culture will have the political strength to foist upon a highly complex social structure, its vision. All institutions serve the ends of this majoritarian mindset.
The majority, therefore, is the zamindar of political power. It seeks obedience and uses brute force against those who dare to dissent. Its representatives are rent-seekers, who demand their share as “zamindari” from both industry and trade. Patronage is distributed to serve political objectives.
I believe India, as a nation, is a coalition. It is a coalition of shared values, of interests that may be in competition, but they must still be served. It is a coalition of different mindsets with different cultural values. It is a coalition where languages identify culture, yet the commonly-valued identification is that of being an Indian. It is this coalition that has to be represented, if democracy is to survive in the political structure that seeks to take India forward.
It is my belief that coalition politics helps different interest groups to be heard. It allows policies to evolve, seeking to serve multifarious needs. We have to evolve from an illiberal mindset based on patronage to one which is tolerant and inclusive. Coalition politics alone can cater to this constitutional value. That alone will keep fundamentalism of any form at arm’s length. The coalition of minds and of politics must go hand in hand. They have served us well in the past. Their future depends on what happens on May 23.