22-05-2018 (Important News Clippings)

Afeias
22 May 2018
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Date:22-05-18

Save Water To Save Ourselves

Act on four fronts to secure depleting water stock: Policy, infrastructure, behaviour, data

Amitabh Kant and Parameswaran Iyer, [Amitabh Kant is CEO, Niti Aayog. Parameswaran Iyer is Secretary, Union ministry of drinking water and sanitation]

In a recent Mann ki Baat address, Prime Minister Narendra Modi reminded us about this dry season and the need to take conservation measures. This is a good opportunity to take stock of India’s big water challenges. Critical groundwater resources – accounting for 40% of our water – are being depleted at rapid rates. Droughts are becoming more frequent, causing distress to rain-dependent farmers. If nothing changes, and fast, things will get much worse: estimates indicate that water demand will exceed supply by a factor of two by 2030, driving economic losses of 6% of GDP by 2050. The challenges need to be addressed at four levels – policy, infrastructure, behaviour and data.

First, on the policy front, our legal framework ties water rights to land rights, reinforcing the perception that water is free and leading to overuse. Placing water on the State List has deepened zero sum thinking among states. Second, our water storage infrastructure is inadequate. We only capture 8% of our annual rainfall. Leaky transportation networks cause further losses of almost 40% of piped water in urban areas. And, we recycle less than 15% of used water. At the policy level we need an integrated legal framework for surface and groundwater governance to be established, which puts all water rights in the national trust, ie the government retains ultimate ownership and control of water, not the individual. The legal framework should make the Union government a co-equal partner with the states in agenda setting, allocation, raising and disbursing funds and monitoring our water resources.

As many experts have suggested, this would mean moving water from State to Concurrent List. Further, scarce central funds should be released based on the performance of states in service delivery, and on a competitive basis like the recent results-based financing system under the National Rural Drinking Water Programme in the ministry of water and sanitation. Niti Aayog’s creation of a Composite Water Management Index to competitively measure the performance of states is also an important step.

Serious consideration should be paid to the idea of creating a consolidated and streamlined ministry of water. A National Water Council responsible for coordination and oversight should be set up that resembles the GST Council. These institutions should emphasise an integrated approach in which technical experts, engineers, economists and ecologists come together with representatives from basin-state governments and end users to have a say on water issues.

Water is very much a local issue and the subsidiarity principle of managing it at the lowest appropriate level needs to be adopted. Best practices of decentralised planning for water conservation such as in Hiware Bazaar, Maharashtra and the Swajal model of community-based drinking water in Uttarakhand need to be emulated and scaled up across the country. The focus on improved efficiency at the decentralised level also needs to be maintained for the agriculture sector, which consumes 80% of our water.

States like Gujarat are leading on this by bringing micro-irrigation to over six lakh farmers, 50% of whom are small and medium ones. The Andhra Pradesh government is also prioritising water efficiency in agriculture, by earmarking Rs 11,000 crore to bring 40 lakh acres of land under micro irrigation over the next five years. There is also critical need for a comprehensive water pricing and regulatory regime that reflects the true economic and social cost of water while allowing for drinking water to be priced at an affordable rate. Extensive evidence-based research has shown that there is willingness to pay for improved services by the user, but unwillingness to charge. The latter needs to change.

Infrastructure development for water conservation, ground water recharge and storage is another key priority. Decentralised water infrastructure development approaches should be encouraged wherever possible by involving user communities. A good example is seen in Dewas district in Madhya Pradesh. Here, through government support to farming communities for building ponds as alternative storage and supply sources, the district has achieved a 6-40 feet rise in the water table, even while increasing irrigated area by 120-190%. Another area of infrastructure focus is developing a well-spread and functioning network of treatment plants and piping infrastructure treatment of municipal waste water in order to recycle it for agriculture and even drinking purposes. Israel, for example, meets 50% of its irrigation needs through treated municipal waste water.

Raising awareness and changing perceptions on water will require investments in behaviour change communication initiatives to internal and external stakeholders. To that effect, the ‘National Campaign for Water Conservation’ to be carried out under the ministry of drinking water and sanitation could borrow from the effective behaviour change communication initiatives of the Swachh Bharat Mission. Recent innovations in data and analytics (eg use of smart chips and remote sensors in pipes and canals to uncover leakages, plan maintenance and repairs) should be leveraged. It is critical to establish a Central Data Platform to monitor and coordinate data on surface and groundwater usage. Challenges and crises afford the best opportunities for transformative reforms. We must seize the moment in the water sector.


Date:22-05-18

गलत सुझाव

संपादकीय

जानकारी के मुताबिक प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने हर वर्ष सिविल सेवा परीक्षा के जरिये चुनकर आने वाले प्रत्याशियों को सेवाओं और कैडर के आवंटन की नीति में बदलाव करने का सुझाव दिया है। प्रस्ताव यह है कि उनके कैडर और सेवाओं का आवंटन तभी किया जाएगा जब वे मसूरी स्थित लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी में तीन महीने का फाउंडेशन कोर्स पूरा करेंगे। नौकरशाही की देखरेख करने वाले कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने संबंधित मंत्रालयों से कहा है कि वे इस प्रस्ताव की व्यवहार्यता का आकलन करें। प्रस्ताव में इस बात पर जोर दिया गया है कि परीक्षा के अंकों और फाउंडेशन पाठ्यक्रम के अंकों को जोड़कर निर्णय लिया जाए। इसे लेकर लोगों में परस्पर अलग-अलग मत सामने आएंगे। परंतु जब वास्तविक तंत्र की परीक्षा होती है तो ऐसा कोई मत काम आएगा इसकी संभावना नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि 15 सप्ताह में किसी तरह की विशेषज्ञता हासिल होने की उम्मीद न के बराबर है। हाल के वर्षों में परीक्षा को साक्षात्कार पर तरजीह दी गई है। इसकी एक वजह यह भी है कि भर्तियों में किसी तरह के पूर्वग्रह को समाप्त किया जा सके।

यह व्यवस्था कारगर रही है और इसमें बदलाव नहीं किया जाना चाहिए। अगर चयन प्रक्रिया में ऐसे पूर्वग्रहों और कतिपय प्रोत्साहनों को वापस लाया गया तो यह पुरातनपंथी कदम होगा। मसूरी के प्रशिक्षण कार्यक्रम को इतनी तरजीह देना कि इसी के आधार पर यह तय हो कि कौन आईएएस बनेगा और कौन नहीं, अपने आप में गलत है। यह मुसीबत को न्योता देने जैसा है। इससे नौकरशाही के आने वाले बैचों में विभाजनकारी भावना और अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा पैदा होगी। जबकि फाउंडेशन पाठ्यक्रम कैडर में एकजुटता की भावना पैदा करने के लिए किया जाता है। सबसे अहम बात यह है कि यह युवा प्रत्याशियों को इस बात के लिए प्रेरित करेगा कि वे सही सबक सीखने के बजाय परिसर में मौजूद अपने वरिष्ठïों और अपने प्रशिक्षकों को खुश और प्रभावित करने की कोशिश करें। सत्ता पर सवाल खड़े करना और ज्ञान हासिल करना दोनों ऐसी बातें हैं जिनका प्रशिक्षण अखिल भारतीय सेवाओं में आने वाले अधिकारियों को दिया ही जाना चाहिए। भले ही वे अपने करियर में आगे चलकर इनका पालन करें अथवा नहीं। बहरहाल, नया प्रस्ताव इनके लिए भी जोखिम भरा है। नौकरशाहों को अपना बाकी का जीवन अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने में बिताना होता है। ऐेसे में कम से कम उनकी सेवाओं और कैडर के चयन के लिए इस तरह का आधार नहीं तैयार किया जाना चाहिए।

यह दुर्भाग्य की बात है कि मौजूदा सरकार के अब तक के कार्यकाल में प्रशासनिक सेवा सुधार के नाम पर केवल यही एक सुधार प्रस्तावित है। वह भी एक ऐसा प्रस्ताव जो एक ऐसी नौकरशाही तैयार करेगी जो ठीक से प्रशिक्षित भी नहीं होगी और अपने मालिकान के अनुगमन का भाव रखेगी। यकीनन ऐसा इरादतन नहीं किया गया होगा। कहने का यह तात्पर्य बिल्कुल नहीं है कि सिविल सेवाओं में सुधार नहीं किया जा सकता है। सामान्य जानकारी वाली सेवा के बदले विषय विशेषज्ञों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। वे मौजूदा दौर की प्रशासनिक और नीतिगत समस्याओं की जटिलताओं से कहीं बेहतर तरीके से निपट सकेंगे। अधिकारियों को विषय और विशेषज्ञता के आधार पर तैयार किया जाना चाहिए। इन तमाम सुधारों पर पर्याप्त अध्ययन हो चुका है और दशकों पहले इनकी अनुशंसा की जा चुकी है। अब इन पर कार्रवाई करने का वक्त आ गया है। परंतु आधी अधूरी तैयारी के साथ प्रस्तुत सुधार एक प्रतिबद्घ नौकरशाही ही तैयार करेंगे। ऐसे विचार को नकारा ही जाना चाहिए।


Date:22-05-18

अमेरिका और चीन में सीमा शुल्क की जंग

यह धारणा गलत है कि अमेरिका और चीन का सीमा शुल्क वैश्विक अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाएगा। 

पार्थसारथि शोम

चीन के साथ अमेरिका के व्यापार घाटे का आकार बहुत बड़ा है और अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप को लगता है कि यह कम होना चाहिए। अतीत में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने भी ऐसी ही वजहों से इस्पात शुल्क में इजाफा कर दिया था। हालांकि एक साल बाद उसे हटा दिया गया था। बहरहाल अप्रैल और मई में मौजूदा अमेरिकी प्रशासन ने बहुत सख्त कदम उठाए। आर्थिक मामलों के उसके सबसे बड़े अधिकारियों, वित्त मंत्री, वाणिज्य मंत्री, व्हाइट हाउस के व्यापार सलाहकार, आर्थिक सलाहकार और अमेरिकी कारोबारी प्रतिनिधि तथा उनके अधीनस्थों ने एकदम स्पष्टï अंदाज में ट्रंप के इरादे सामने किए।

साफ कहा गया कि इसका इरादा चीन को अपनी आर्थिक व्यवस्था न बदलने देने के लिए मनाना था। यह काफी हद तक सन 1900 के दशक की याद दिलाने वाला था। यह बॉक्सर विद्रोह के दौर की बात है जब पश्चिम की आठ ताकतें और जापान विद्रोह को कुचलकर चीन की व्यवस्था में खुलापन लाए। उसके भी पहले चीन के चाय निर्यात पर प्रतिबंध को याद करें जब ब्रिटिशों को ब्रह्मïपुत्र के किनारे जंगली इलाके में चाय की खेती की तलाश करनी पड़ी और उन्होंने भारत में चाय उद्योग कायम किया। यह तो हुई काफी पुरानी बात लेकिन यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि तमाम बदलते दौर में भी चीन ने हमेशा अपनी अर्थव्यवस्था को बंद ही रखा। उसने केवल तभी खुलापन अपनाया जब उसे इससे फायदा मिला या उसे ऐसा करने के लिए मजबूर किया गया। अब जबकि चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है तब इसका निराकरण करना शेष विश्व का दायित्व है।

कारोबारी अखबारों के पन्ने ट्रंप द्वारा की गई शुल्क वृद्घि के वैश्विक व्यापार पर पडऩे वाले नकारात्मक प्रभाव की खबरों से भरे हुए हैं। कहा जा रहा है कि इससे आपूर्ति शृंखला में रोजगार की हानि होगी। यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिका चीन से बहुत कम इस्पात आयात करता है इसलिए वह बेअसर रहेगा और चीन के जीडीपी पर भी इसका बहुत अधिक असर नहीं होगा। इन बातों के बावजूद यह सच है कि चीन अपनी वस्तुओं को कृत्रिम तरीके से बनाई गई विनिमय दर पर डंप करता रहेगा। अमेरिका और चीन के बीच शुल्क दरों के इजाफे की जो जंग छिड़ी है उसे देखते हुए भारत को राहत महसूस करनी चाहिए। अमेरिका के इस कदम से चीन को उसके अस्वीकार्य अंतरराष्ट्रीय कारोबारी व्यवहार के लिए चेतावनी भी मिली है। दुर्भाग्य की बात यह है कि अमेरिका पूरी तरह सही दिशा में नहीं है। शुल्क वृद्घि के लिए जिन जिंसों का चयन किया गया है वह अमेरिकी ग्राहकों के हित की रक्षा की दृष्टिï से सही नहीं है। चीन ने बदले की कार्रवाई में जो बढ़ोतरी की है वह चीन के उपभोक्ताओं को सीधे तौर पर प्रभावित करेगी। इससे पता चलता है कि लोकतांत्रिक देशों में जहां मतदाताओं को प्रसन्न रखना होता है वहां किस तरह की दिक्कतें आती हैं। जबकि तानाशाही वाले देश इन दिक्कतों से मुक्त रहते हैं। चाहे जो भी हो अमेरिकी प्रशासन के लिए उन उपभोक्ता वस्तुओं पर शुल्क लगाना अपेक्षाकृत पारदर्शी होता जिनका चीन से बड़ी मात्रा में आयात किया जाता है। स्टील और एल्युमीनियम जैसे उत्पादों का बमुश्किल 10 फीसदी हिस्सा ही अमेरिका चीन से आयात करता है। सरकार को जनता को यह स्पष्टï करना चाहिए था कि देश के आर्थिक और व्यापारिक असंतुलन को ठीक करने के लिए यह उचित कदम होगा, उसके बाद ही ऐसा करना चाहिए था।

अमेरिका के इस कदम के पीछे एक दूसरा और अहम कारण भी है। इससे उसका यह दावा पुष्टï होता है कि चीन अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने साथ संयुक्त उद्यम स्थापित करने के लिए प्रेरित करता है जिसके बाद चीन को स्वत: उन कंपनियों की बौद्घिक संपदा पर अधिकार मिल जाता है। चीन का कहना है कि अमेेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां खुद उसकी शर्तों को स्वेच्छा से स्वीकार करती हैं। यह बात अपनी जगह पर ठीक है। चीन के साथ संयुक्त उद्यम स्थापित करने की कई वजह हैं। आधुनिक विशिष्टï आर्थिक क्षेत्र, भ्रष्टïाचार का कम होना, स्पष्टï कर नीतियों के मामले में भारत चीन से कोसों दूर है। चीन के पास एक अन्य लाभ यह है कि वहां का राष्ट्रपति एकतरफा निर्णय ले सकता है। जबकि लोकतांत्रिक देशों में यह सारा काम संसद के माध्यम से ही हो सकता है। जाहिर है चीन पर यह दबाव बनाए रखना आवश्यक है कि वह अंतरराष्ट्रीय व्यवहार का पालन करे। अमेरिका इस दूसरे लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ा है। उसने मांग की है कि चीन को उसके उच्च तकनीकी क्षेत्र को सरकाी सहायता बंद करनी चाहिए। उसने चीन की कुछ उच्च तकनीकी कंपनियों के साथ कारोबार पर रोक लगाई है और चीन की कंपनियों को अमेरिकी कंपनियों के अधिग्रहण में बोली लगाने से रोका है। भविष्य में ऐसे और भी कदम देखने को मिल सकते हैं। हो सकता है अमेरिकी ट्रेजरी चीन से आने वाले निवेश पर रोक लगाए या अमेरिका के बाहर जाने वाले निवेश पर अंकुश लगाए ताकि अमेरिकी बौद्घिक संपदा बाहर न जाए।

भारत की बात करें तो यह बात शायद सब न जानते हों कि सन 1980 के दशक में जब चीन सामाजिक आर्थिक संकेतकों पर भारत से पीछे था तब भारत नियमित रूप से शिक्षा और प्रशिक्षण के क्षेत्र में चीन से जानकारी साझा करता था। अब जबकि चीन इन संकेतकों पर भारत से तीन गुना आगे निकल चुका है तो लगता नहीं कि वह ऐसी कोई जानकारी भारत के साथ साझा करता होगा। जापान जरूर कई सहयोगी परियोजनाओं के साथ सामने आया है। उधर चीन ने तिब्बत की दक्षिणी सीमा पर पाकिस्तान तक पहुंच बनाने के लिए जोरशोर से राजमार्ग निर्माण किया है। निकट भविष्य में इसके कम होने की भी कोई संभावना नहीं है। यह ख्वाब ही देखा जा सकता है कि एक दिन भारत इस स्थिति में होगा कि उसकी तुलना चीन से की जा सकेगी। वह तेजी से निर्णय ले सकेगा, उच्च श्रम उत्पादकता हासिल कर सकेगा, सड़कें बना सकेगा, भ्रष्टïाचारमुक्त प्रशासनिक क्षमता विकसित कर सकेगा और विशेष आर्थिक क्षेत्रों का आधुनिकीकरण कर सकेगा तथा शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में एक तय मानक हासिल कर सकेगा। आज तो भारत चीन के साथ भारी व्यापार घाटे का शिकार है। वह उसे कच्चा माल और अनिर्मित वस्तुएं भेजता है जबकि वह चीन से तमाम निर्मित वस्तुओं का आयात करता है। मौजूदा परिस्थितियों की बात करें तो अमेरिका के ट्रंप प्रशासन ने अपनी घरेलू चुनौतियों के बावजूद जो कुछ किया है उसका लाभ उठाने में भारत को भी कतई पीछे नहीं रहना चाहिए।


Date:22-05-18

अब तो थमे रुपए की फिसलन

हमारे मुद्रा बाजार में डॉलर की आपूर्ति कम हो गई है, साथ ही तेल की मांग बढ़ने से भी हमारा रुपया फिसल रहा है।

डॉ. भरत झुनझुनवाला , (लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री व आईआईएम, बेंगलुरु के पूर्व प्राध्यापक हैं)

पिछले दो साल से रुपए का मूल्य लगभग 64 रुपए प्रति डॉलर पर स्थिर रहा है, लेकिन पिछले दो महीनों में यह फिसलकर 68 के स्तर पर पहुंच गया है। यानी डॉलर के सामने रुपया कमजोर हो गया है। जैसे एक डॉलर के बदले पहले यदि 64 पेंसिल मिलती थीं, तो अब 68 मिलने लगी हैं। इसका अर्थ हुआ कि पेंसिल का मूल्य कम हो गया है। विश्लेषकों का मानना है कि आने वाले समय में रुपए का मूल्य गिरकर 70 या इससे भी नीचे जा सकता है। रुपए का मूल्य बाजार में तय होता है। जिस प्रकार मंडी में आलू के दाम मांग और आपूर्ति से तय होते हैं, उसी प्रकार विदेशी मुद्रा बाजार में कुछ लोग डॉलर बेचते हैं और कुछ खरीदते हैं। जब डॉलर की आपूर्ति ज्यादा होती है तो डॉलर के दाम कम और रुपए के दाम ज्यादा हो जाते हैं। इसके विपरीत जब डॉलर की मांग ज्यादा होती है और आपूर्ति कम होती है तो डॉलर के दाम बढ़ते हैं और उसी के अनुरूप रुपए के दाम गिरते हैं। फिलहाल ऐसा ही हो रहा है। ऐसे में यक्ष प्रश्न यही है कि इस समय डॉलर की मांग ज्यादा और आपूर्ति कम क्यों हो रही है?

डॉलर की मांग बढ़ने का इस समय प्रमुख कारण तेल के बढ़ते मूल्य दिखता है। अप्रैल 2018 में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का दाम 70 डॉलर प्रति बैरल था जो वर्तमान में उठकर 80 डॉलर प्रति बैरल हो गया है। साथ ही साथ रुपया 64 रुपए प्रति डॉलर से गिरकर 68 रुपए प्रति डॉलर हो गया है। दोनों घटनाक्रम समांतर चल रहे हैं। तेल के दाम बढ़ने से भारत की तेल कंपनियों को तेल की खरीद के लिए डॉलर की खरीद ज्यादा करनी पड़ती है, इसलिए डॉलर की मांग ज्यादा है, डॉलर का दाम बढ़ रहा है और रुपए का दाम घट रहा है। तेल के बढ़ते दामों का तो हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन यदि हम ज्यादा मात्रा में डॉलर कमा लें, यानी साथ में डॉलर की आपूर्ति भी बढ़ जाए तो रुपए का दाम स्थिर हो जाएगा। चूंकि तेल कंपनियों को तेल खरीदने के लिए ज्यादा डॉलर चाहिए, इसलिए यदि भारतीय निर्यातक ज्यादा मात्रा में माल का निर्यात करके अधिक डॉलर अर्जित कर लें तो डॉलर की आपूर्ति बढ़ जाएगी और मांग एवं आपूर्ति का संतुलन पूर्ववत बना रहेगा। यूं समझिए कि मंडी में यदि आपूर्तिकर्ता और खरीददार दोनों ही साथ-साथ बढ़ जाएं तो माल के दाम नहीं बढ़ते हैं। इस समय तेल की खरीद के लिए डॉलर की मांग की काट यही हो सकती है कि हम डॉलर की आपूर्ति को बढ़ाएं।

डॉलर की आपूर्ति हमें मुख्यत: दो मदों से मिलती है। एक रास्ता हमारे निर्यात हैं। हमारे उद्यमी ऑटो पार्ट्स अथवा गलीचे जैसी वस्तुओं का निर्यात करके डॉलर अर्जित करते हैं। वे इस डॉलर को भारतीय मुद्रा बाजार में बेचते हैं। यदि हम अपने निर्यात बढ़ा सकते तो बढ़े हुए तेल के दाम को अदा कर सकते थे, लेकिन इस समय हमारे निर्यात भी दबाव में हैं। यानी एक तरफ तेल के लिए डॉलर की मांग ज्यादा है और दूसरी तरफ निर्यात दबाव में आने से डॉलर की आपूर्ति कम हो रही है। यह आश्चर्यजनक है कि इस समय निर्यात दबाव में है, जबकि एनडीए सरकार के पिछले चार वर्षों में हाईवे और बिजली की आपूर्ति जैसे बुनियादी ढांचे में काफी सुधार हुआ है। इन सुधारों के चलते हमारे उद्योगों की उत्पादन लागत कम हुई है और उनके लिए व्यापार करना सरल हुआ है। इसलिए विश्व बाजार में हमारी प्रतिस्पर्धा शक्ति बढ़ी है। इस स्थिति में तो हमें अधिक मात्रा में डॉलर अर्जित करने थे, किंतु यहां दबाव में दिखता निर्यात हैरान करता है।

अंतरराष्ट्रीय बैंक बीएनपी पारिबास के माइकल सैंड ने भारत के निर्यात दबाव में होने के तीन कारण बताए हैं। पहला कारण शिक्षित एवं कुशल कर्मियों की अनुपलब्धता है। हमारी शिक्षा व्यवस्था मुख्यत: सरकारी विश्वविद्यालयों द्वारा संचालित हो रही है, जहां पर काम सरकारी नौकरियों के लिए सर्टिफिकेट छापकर देने मात्र का रह गया है। अर्थव्यवस्था में सक्षम कर्मियों का नितांत अभाव है। लगभग एक वर्ष पहले विश्व बैंक ने ईज ऑफ डूइंग बिजनेस की रैंक में भारत को 30 देशों से आगे कर दिया था, लेकिन गहराई से पड़ताल करने पर पता लगा कि ईज ऑफ डूइंग बिजनेस की रैंक में यह सुधार मुख्यत: भारत में दीवालिया कानून के लागू होने के आधार पर हुआ था, जिसमें दीवालिया कंपनियों को दी गई रकम को बैंकों द्वारा वसूल करना आसान हो गया था। रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि बिजली कनेक्शन लेना अथवा न्यायालय से किसी वाद का निपटारा होने में परिस्थिति यथावत एवं बदतर है। ईज ऑफ डूइंग बिजनेस के इन अहम पहलुओं मे कोई सुधार नहीं हुआ था। बीएनपी पारिबास के अधिकारी कह रहे हैं कि भारत में ईज ऑफ डूइंग बिजनेस अभी भी कमजोर है और उत्पादन लागत के ऊंचा होने का यह दूसरा कारण है। तीसरा कारण यह है कि भारत में श्रम की उत्पादकता चीन की तुलना में कम है। गाजियाबाद में बाइक और कार के लिए केबल बनाने वाली एक कंपनी के प्रमुख अधिकारी ने बताया कि भारत और चीन के कर्मियों का वेतन बराबर है। लगभग उसी प्रकार की मशीनों पर वे उत्पादन करते हैं, लेकिन चीन के कर्मी दोगुना उत्पादन करते हैं। इसलिए उत्पादन लागत में श्रम का हिस्सा भारत में चीन की तुलना में दोगुना है और इस कारण भारत में उत्पादन लागत ज्यादा आती है। इस परिप्रेक्ष्य में यदि निर्यात को बढ़ाना है तो हमें शिक्षा, ईज ऑफ डूइंग बिजनेस और श्रम की उत्पादकता बढ़ाने के लिए मौलिक कदम उठाने होंगे।

डॉलर की आपूर्ति का दूसरा स्रोत विदेशी निवेश है। यहां भी परिस्थिति विपरीत हो गई है। अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आने के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था में तेजी के संकेत मिल रहे हैं। दुनियाभर के निवेशक अमेरिका में निवेश को सुरक्षित मानते हैं, इसलिए पूंजी का बहाव एक बार फिर विकाशसील देशों से वापस अमेरिका की तरफ हो गया है। प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि 2017 में जनवरी से अप्रैल के बीच चार माह में भारत को 14 अरब डॉलर का विदेशी निवेश शेयरों और बांड बाजार में मिला था। वर्ष 2018 की इसी अवधि में यह घटकर मात्र 0.3 अरब डॉलर रह गया है। साफ है कि विदेशी निवेश से पहले हमें जो रकम मिल रही थी, वह अब मिलनी बंद हो गई है। इस प्रकार डॉलर की आपूर्ति के दोनों स्रोत, निर्यात और विदेशी निवेश, संकट में पड़ गए हैं। हमारे मुद्रा बाजार में डॉलर की आपूर्ति कम हो गई है और साथ ही तेल की मांग बढ़ने से भी हमारा रुपया फिसल रहा है।

हम तेल के दामों में हो रही वृद्धि अथवा विश्व पूंजी के अमेरिका की तरफ हो रहे बहाव को नहीं रोक सकते। यह हमारी सरकार के अधिकार के बाहर की बातें हैं, लेकिन अपनी अर्थव्यवस्था में उत्पादन की लागत को कम करना हमारी सरकार के नियंत्रण में है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि शिक्षा, ईज ऑफ डूइंग बिजनेस और श्रम की उत्पादकता बढ़ाने के लिए ठोस कदम उठाए, अन्यथा रुपए की फिसलन और ज्यादा बढ़ती जाएगी।


Date:21-05-18

कई मायने हैं इस मुलाकात के

शशांक, पूर्व विदेश सचिव

आज रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात होने वाली है। यह बैठक रूसी शहर सोची में होगी, जिस पर सभी की निगाहें स्वाभाविक तौर पर लगी हुई हैं। प्रधानमंत्री मोदी की यह यात्रा सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि व्लादिमीर पुतिन ने हाल ही में चौथी बार राष्ट्रपति पद की शपथ लेकर खुद को दुनिया का एक ताकतवर नेता साबित किया है। बल्कि यह इसलिए भी अहम है कि जर्मनी की चांसलर एंजला मर्केल तीन दिन पहले ही पुतिन से मिलकर वापस लौटी हैं और आज से तीसरे दिन फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों मॉस्को में होंगे। कहने की जरूरत नहीं कि ये सभी देश ईरान के साथ परमाणु करार से अमेरिका के पीछे हटने से बैखलाए हुए हैं।

प्रधानमंत्री मोदी एक अनौपचारिक मुलाकात के लिए रूस में हैं। कोई भी यह सवाल कर सकता है कि जब मोदी और पुतिन की मुलाकात पहले से शंघाई सहयोग संगठन (चीन) की बैठक और फिर ब्रिक्स समिट में तय है, तो फिर अचानक यह मुलाकात क्यों जरूरी हो गई? शंघाई सहयोग संगठन की बैठक अगले महीने हो रही है और ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का संगठन) की बैठक जुलाई में दक्षिण अफ्रीका में प्रस्तावित है। मगर मेरा मानना है कि दोनों शीर्ष नेताओं की यह अनौपचारिक बैठक कई वजहों से जरूरी थी। असल में, इन दिनों क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय हालात तेजी से बदल रहे हैं। औपचारिक बैठकों में एजेंडा पहले से तय होता है और विचार-विमर्श के लिए ज्यादा समय भी नहीं मिलता, इसलिए एक अनौपचारिक मुलाकात में कुछ खास मसलों पर पहले से एकमत होना कोई गलत कदम नहीं है।इन मसलों में सबसे महत्वपूर्ण ईरान के साथ परमाणु करार से अमेरिका का पीछे हटना हो सकता है। इस पर विमर्श इसलिए जरूरी है, क्योंकि अमेरिकी राजनयिक कह रहे हैं कि परमाणु समझौते के बाद जिन-जिन देशों ने ईरान से जिस भी तरह के संबंध बनाए हैं, वे सब उससे वे रिश्ते तोड़ लें। हालांकि औपचारिक रूप से सिर्फ परमाणु रिश्ते खत्म करने की बात कही जा रही है, पर राजनयिकों के बयान के कई गूढ़ अर्थ निकल रहे हैं।

अच्छी बात है कि ईरान के साथ हमारा कोई परमाणु रिश्ता नहीं है। हम उससे मूलत: तेल का आयात करते हैं। प्रतिबंध के दौर में यह कम था, मगर जब से बंदिशें हटाई गई थीं, हम पहले से ज्यादा कच्चा तेल वहां से मंगाने लगे थे। इसके अलावा, हम उसके चाबहार बंदरगाह को भी विकसित कर रहे हैं। ऐसे में, अमेरिकी फैसले का दुष्प्रभाव हम पर न पड़े और पहले से ही अस्थिर पश्चिम एशिया की अस्थिरता और ज्यादा न बढ़े, इसके लिए हमारी पूर्व-तैयारी जरूरी है। रूस इसमें हमारी मदद कर सकता है। वह उस पी-5 प्लस वन यानी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांचों स्थाई देश और जर्मनी में से एक है, जिसने 2015 में ईरान के साथ साझी व्यापक कार्ययोजना (बोलचाल में परमाणु समझौते) पर दस्तख्त किए थे। नई परिस्थिति में ऊर्जा-जरूरत हम रूस से पूरी कर सकते हैं। ईरान को लेकर बन रहे वैश्विक समीकरण के लिए भी रूस से एकमत होना जरूरी है।

दूसरा मसला उत्तर कोरिया का हो सकता है। इन दिनों उसके परमाणु कार्यक्रम को बांधने की कोशिशें जोरों पर हैं। मगर बीच-बीच में अमेरिका और उत्तर कोरिया, दोनों पक्षों से तनातनी की खबरें भी आई हैं। ऐसी खबरें शांति प्रक्रिया को बेपटरी करती हुई दिख रही हैं। चीन के बाद भारत ही वह देश है, जिसका दोनों कोरियाई मुल्कों के साथ अच्छे व्यापारिक रिश्ते हैं। इस लिहाज से देखें, तो अमेरिका व उत्तर कोरिया में बनती बात यदि बिगड़ती है, तो उसका नुकसान भारत को भी हो सकता है।

एक मसला खुद रूस से जुड़ा है। अमेरिकी चुनाव में कथित दखल देने और यूक्रेन व सीरिया की गतिविधियों का हवाला देकर अमेरिकी प्रशासन रूस पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी में जुटा हुआ है। इसके अलावा, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का एक फैसला यह भी कहता है कि यदि कोई देश रूस के साथ रक्षा व खुफिया क्षेत्र में कारोबार करता है, तो उस पर अमेरिका प्रतिबंध लगा सकता है। रूस के साथ हमारा रक्षा व परमाणु ऊर्जा संबंध जगजाहिर है। यह ‘टाइम टेस्टेड’ है, यानी मुसीबत के समय इस रिश्ते ने हमें मजबूती दी है। जैसे, आजाद भारत जब-जब जंग में धकेला गया, रूस हमारे साथ खड़ा रहा। आज भी हमारी रक्षा-जरूरतों का करीब 62 फीसदी हिस्सा रूस पूरा करता है। ऐसी सूरत में, अमेरिकी प्रतिबंध की जद में हम भी हैं। रूस के बहाने लगने वाली बंदिशें हमें ज्यादा नुकसान पहुंचा सकती हैं।

कुछ लोग तर्क देते हैं कि हमें अमेरिका की अधिक जरूरत है। उसके साथ हम ‘स्ट्रैटीजिक पार्टनरशिप’ की बात कर रहे हैं। इसे 21वीं सदी की उल्लेखनीय दोस्ती भी बता रहे हैं। मगर मेरा मानना है कि ये तमाम कवायदें अमेरिकी प्रतिबंध लागू होते ही निरर्थक हो जाएंगी। रही बात अमेरिका के करीब जाने की, तो जिस तरह के हमारे संंबंध रूस के साथ हैं, अमेरिका के साथ उस ऊंचाई तक पहुंचना फिलहाल संभव नहीं दिख रहा। इसके लिए हमें वाशिंगटन के साथ तमाम तरह के समझौते करने होंगे, जिसमें जाहिर तौर पर लंबा वक्त लगेगा। फिर रूस एक जांचा-परखा दोस्त है, जिसे खोना हमारे हित में नहीं होगा।

इसी दोस्त की हैसियत से मोदी-पुतिन मुलाकात में पाकिस्तान-रूस दोस्ती पर भी चर्चा हो सकती है। पिछले कुछ महीनों में मास्को और इस्लामाबाद की नजदीकियां बढ़ी हैं, जिसमें चीन मध्यस्थ की भूमिका में रहा है। इस दोस्ती का सीमित रहना ही हमारे हित में है। संभवत: नए बाजार ढूंढ़ने के लिए मास्को ऐसा कर रहा है। ऐसे में, रूस को यह बताना लाजिमी है कि वह पाकिस्तान के साथ संबंध बढ़ाए, पर इसका ख्याल भी रखे कि भारत की सुरक्षा के साथ कोई समझौता न हो। साफ है कि मोदी और पुतिन की मुलाकात प्रासंगिक है। इसके तात्कालिक नतीजे हमें नहीं ढूंढ़ने चाहिए, क्योंकि यह दूरगामी असर डालने वाली हो सकती है। महत्वपूर्ण मित्र देशों व पड़ोसियों के साथ संबंध सुधरना मौजूदा वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है। सरकार इसी दिशा में आगे बढ़ती दिख रही है।


Date:21-05-18

Making sense of the Wuhan reset

The ‘informal summit’ must be seen in the context of Beijing preparing for a pole position in the global sweepstakes

M.K. Narayanan , [M.K. Narayanan is a former National Security Adviser and a former Governor of West Bengal]

On the cards was a possible reset of ties between India and China in the wake of the ‘informal summit’ in Wuhan (April 27-28) between Prime Minister Narendra Modi and Chinese President Xi Jinping. The outcome is uncertain, however. The choice by China of Wuhan, a city situated in the middle reaches of the Yangtze, though was not accidental. Wuhan is symbolic of China’s resilience and economic might today. It was possibly chosen by Mr. Xi to showcase China’s progress since Mr. Modi (as Chief Minister of Gujarat) had last paid a visit to the region. As Mr. Xi proceeds towards his next goal, ‘Made in China 2025’, he may also have wanted to demonstrate the wide gulf that seems to separate his programme from Mr. Modi’s own struggles to make a success of India’s ‘Make in India’ programme. The visit to the museum and the boat ride on the lake, in turn, were possibly intended to demonstrate the extent of China’s soft power.

Trust-building exercise

An ‘informal summit’ is different from a regular summit. India clearly viewed this ‘informal summit’ as a trust-building exercise, hoping to quietly sort out problems that existed between the two countries, including the vexed border issue. Absence of any formal joint communiqué that is sacrosanct for any summit also enables each side to spell out its own impressions of any outcomes. India has already used this to project that India and China are on the same page in dealing with global problems. It cannot be certain though that China sees the world through this same prism.

Mr. Modi used the occasion to convey his ideas on what was needed to be achieved, viz. a shared vision, a shared thought process, a shared resolve, a strong relationship and better communication, between the two countries. He further emphasised the importance of a global leadership role for both nations — two major powers linked by history across more than two millennia. He provided his vision of the Five Principles defining the relationship: Soch (thought), Sampark (contact), Sahyog (cooperation), Sankalp (determination) and Sapne (dreams).

Enumerating the main takeaways, in the absence of a joint communiqué, is not easy. One outcome was to have more such summits, alongside an agreement between the leaders for provision of greater ‘strategic communications’ at the highest level. Another was the opportunity it provided to give ‘strategic guidance’ to the respective militaries to build trust and understanding for ‘prudent management of differences with mutual sensitivity’. A third was the agreement between India and China to work together jointly on an economic project in Afghanistan, with details to be worked out through diplomatic channels.

Both sides also reiterated the need to cooperate on counter-terrorism, and to strengthen the dialogue mechanism to deal with contentious issues and concerns. Both have agreed on the importance of maintaining peace and tranquillity in all areas of the India-China border. The claim by the Indian side that the two countries today have ‘wider and overlapping regional and global interests’ meriting sharper ‘strategic communications’ is, however, subject to interpretation.

On the border issue, the summit appears to have reinforced the validity of the April 2005 Document on ‘Political Parameters and Guiding Principles for the Settlement of the Boundary Question’, which was signed in the presence of then Prime Minister Manmohan Singh and the then Chinese Premier Wen Jiabao. This document happens to be one of the very few that implicitly acknowledges India’s claims to certain ‘disputed’ areas in the Arunachal sector of the India-China border. Ever since signing on to the ‘Political Parameters and Guiding Principles’ in 2005, China has been trying to reinterpret the contents of the document. If the informal summit, as claimed by the Indian side, has endorsed adherence to the letter and spirit of the 2005 Agreement, it marks an important milestone in the settlement of the border issue.

The wisdom of holding an informal summit when other, and possibly better, avenues of diplomacy are available is debatable. India’s preference for an informal summit so as to be able to discuss contentious issues with China away from media glare and publicity — and the many trappings of diplomacy — is understandable. China’s acquiescence in this form of diplomacy is less understood. At best, China could have hoped to extract some concessions from India as the price for agreeing to an informal summit, viz. putting curbs on the Dalai Lama’s activities in India or backing away from the U.S. policy of containment of China in Asia.

A pivotal moment

China is today at a pivotal moment in its history, having embarked on preparations for a pole position in the global sweepstakes. The U.S. and the West are not ready to openly confront China, despite U.S. President Donald Trump’s rhetoric. China currently has a vital role to play in the maintenance of peace in the Korean Peninsula, and in ensuring that the forthcoming Trump-Kim Jong-un talks are not jeopardised. The China-Russia equation today is much stronger than previously. China may be feared in East and South Asia, but no country here has the capacity to challenge China. It has established new equations in West Asia, including with Iran. In the South Asian neighbourhood, China is positioning itself as an alternative to India.

One must, hence, look for reasons elsewhere as to why China is adopting a less than belligerent attitude towards India. It appears that China is positioning itself for bigger things and to play bigger roles. This period is thus a defining one for China. Behind the rubric of a looming trade war between the U.S. and China — which is, without doubt, one of China’s major concerns — is China’s unstated struggle to redefine the rules governing economic and power relations worldwide. At a time when the U.S. is busy lining up the vast majority of Western democracies to checkmate China’s advance, the latter is equally anxious to build support in its favour in Asia and elsewhere to counter the U.S.

The India-China reset talks must, therefore, be seen in this wider perspective and context. It cannot be seen in isolation. At about the same time, on the India-China reset talks, Chinese Prime Minister Li Keqiang was in Tokyo to meet his Japanese counterpart Shinzo Abe as part of a major two-stage initiative. The Li-Abe meeting has reportedly helped remove many of the cobwebs in China-Japan trade and strategic relations. Leaders of China, Japan and South Korea also met in Japan at about the same time to devise measures that were needed to move ahead with the Regional Comprehensive Economic Partnership (India is a part of the RCEP, but a reinvigorated RCEP, alongside a China-Japan reset does not augur well for India).

No Concessions

It should not, therefore, be surprising that in spite of China’s acquiescence in an informal summit, the report card from Wuhan does not add up to much in real terms. No manifest concessions appear to have been made by China. The Doklam issue (which was not discussed at the summit) remains unresolved, with China still in the driving seat. There are no indications that China has softened its attitude vis-à-vis India’s position in Arunachal Pradesh, or that it will refrain from accusing India of further transgressions here. China’s penetration of India’s neighbourhood is set to continue, with special emphasis on countries such as Nepal and the Maldives. China again has not conceded anything with reference to the China-Pakistan Economic Corridor. India may believe that it has demonstrated good faith by putting certain curbs on the Dalai Lama’s activities, but this is hardly likely to satisfy China’s concerns about his role.

Meanwhile, India should be concerned about Beijing’s defence budget for 2018. This is being increased by 8.1% over that of the previous year, and is in keeping with the decision of the Chinese 19th Party Congress (October 2017) to build a world class military. Mr. Li is on record that China would now focus on building strong naval and air defences, bolstered by the infusion of high technology. This can only further encourage China to expand its activities in the Indian Ocean region.