20-06-2024 (Important News Clippings)

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20 Jun 2024
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Date:20-06-24

प्राथमिकताओं में खामी का असर नीतियों पर भी दिखेगा

संपादकीय

गलती हुई नहीं कि सरकार डिफेंसिव ‘वो बनाम हम’ मोड में आ जाती है। सिलीगुड़ी ट्रेन हादसे के दो दिन बाद ही प्रेस नोट में बताया गया कि दस साल पहले रेलवे सुरक्षा पर जितना खर्च होता था उससे ढाई गुना ज्यादा आज हो रहा है। लेकिन यह नहीं बताया गया कि हाल की सारी दुर्घटनाओं में मानवीय नहीं, यांत्रिक गलतियां क्यों हैं। कहां गया बालासोर दुर्घटना के बाद का वादा कि नई ‘कवच’ सुरक्षा प्रणाली के बाद ट्रेनें गलत पटरी आने पर स्वयं रुक जाएंगी? अगर ताजा दुर्घटना के बाद आरोप हो कि लोको पायलट चार रातों से सोए नहीं थे या रेलवे में लाखों पद वर्षों से खाली हों और रेलवे बोर्ड को अब 5,696 की जगह 18,799 सह – लोको पायलटों की भर्ती के आदेश देने पड़े हों तो समस्या प्राथमिकता की है। रेलवे भारत की इकोनॉमी की रीढ़ है, लेकिन सीएजी की हालिया रिपोर्ट बताती है कि सरकारी दावों के विपरीत न तो मेल और एक्सप्रेस ट्रेनों, न ही माल गाड़ियों की स्पीड बढ़ी है। विकास सीढ़ी-दर-सीढ़ी हो तो दीर्घकालिक रहता है लेकिन अगर नीचे की बुनियाद कमजोर हो तो आलीशान छत भी ढह जाती हैं। 75 साल के स्व- शासन के बाद भी जरूरत अगर 80 करोड़ जनता को पांच किलो मुफ्त अनाज देने की हो, न कि रोजगार की, तो प्राथमिकताओं में कुछ तो गलत है।


Date:20-06-24

हद पार करता कनाडा

संपादकीय

कनाडा की संसद ने खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की मौत की पहली बरसी पर जिस तरह उसे श्रद्धांजलि दी, वह आतंकवाद का बेशर्मी से किया जाने वाला महिमामंडन है। एक आतंकी के प्रति आंसू बहाकर केवल खालिस्तानी आतंकियों के प्रति ही नरमी का परिचय नहीं दिया गया, बल्कि यह भी स्पष्ट किया गया कि कनाडा सरकार संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए भारत से संबंध बिगाड़ने पर तुली हुई है। कनाडा सरकार की इस हरकत से यह भी साफ है कि चंद दिनों पहले वहां के प्रधानमंत्री जस्टिन टूडो ने इटली में भारतीय प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद दोनों देशों के संबंधों में सुधार को लेकर जो कुछ कहा था, वह छलावा था और वह खालिस्तानी आतंकियों-अतिवादियों के प्रभाव में आकर अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक मर्यादा भी भूल चुके हैं। कनाडा की संसद ने जिस हरदीप सिंह निज्जर को याद किया, वह वही है, जिसे भारत ने आतंकी घोषित किया था और जो फर्जी दस्तावेजों के साथ कनाडा जाने में सफल रहा था। खालिस्तानी अतिवादियों की गुटीय लड़ाई में उसकी हत्या कर दी गई थी, लेकिन कनाडा सरकार ने बिना किसी प्रमाण इसका दोष कथित भारतीय एजेंट पर मढ़ा। माना कि जस्टिन टूडी की अल्पमत सरकार खालिस्तानी चरमपंथी जगमीत सिंह के नेतृत्व वाले दल के समर्थन से सत्ता में टिकी है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह भारत में अलगाववाद और आतंकवाद की पैरवी करने वाले तत्वों की जी हुजूरी करने लगे। वह यही कर रहे हैं। ऐसा करके वह भारत से संबंध खराब करने के साथ ही कनाडा की छवि और आतंरिक सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा कर रहे हैं।

यह किसी से छिन नहीं कि कनाडा में सक्रिय खालिस्तानी किस तरह नशीले पदार्थों की तस्करी में लिप्त हैं और उनके इशारे पर पंजाब में टारगेट किलिंग होती रहती है। जस्टिन टूडो इससे अनजान नहीं हो सकते कि खालिस्तानी आतंकियों ने किस तरह एअर इंडिया के विमान कनिष्क को बम से उड़ा दिया था, जिसमें तीन सौ से अधिक लोग मारे गए थे। इनमें से अधिकांश भारतीय मूल के कनाडाई नागरिक थे फिर भी कनाडा सरकार ने इस भयावह आतंकी घटना की ढंग से जांच नहीं की थी और इसी कारण केवल एक खालिस्तानी आतंकी को मामूली सजा हुई थी। यह अच्छा हुआ कि वैंकूवर स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास 23 जून को कनिष्क विमान हादसे की बरसी पर एक आयोजन करने जा रहा है। और भी अच्छा होगा कि नई लोकसभा में भी इस घटना का स्मरण कर कनाडा सरकार को शर्मसार किया जाए। कनाडा सरकार के प्रति सख्ती का परिचय देना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि कनाडा में खालिस्तानी अतिवादी खुलेआम भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने में लगे हुए हैं। वे कनाडा में रह रहे भारतीय नागरिकों, उनके धार्मिक स्थलों और भारत के राजनयिकों की सुरक्षा के लिए ‘खतरा बन गए हैं।


Date:20-06-24

दलबदलुओं के लिए कठिन होती राह

डॉ. जगदीप सिंह, ( लेखक राजनीतिशास्त्री हैं )

लोकसभा चुनाव के परिणामों ने दल बदलने वाले नेताओं के सामने मुश्किल खड़ी कर दी है। खासतौर पर हार का स्वाद चखने वाले ऐसे नेता अब अपने भविष्य को लेकर मंथन करने के क्रम में हैं। एक तो दल बदलने से लाभ नहीं मिला, वहीं अब पुरानी पार्टी में लौटने की गुंजाइश भी समाप्त है। वैसे अब ऐसे नेताओं के जीतने की संभावना भी कम होती जा रही है। इस बार लोकसभा चुनाव से ठीक पहले दलबदल करने वाले नेताओं को जनता ने समर्थन नहीं दिया। चुनाव से पहले हर नेता भाजपा के टिकट को जीत की गारंटी मान रहा था। यही कारण रहा कि बड़ी संख्या में दूसरे दलों के नेता भाजपा में शामिल हुए, मगर टिकट पाने वाले ऐसे 25 में 20 नेता लोकसभा चुनाव हार गए।

भाजपा का टिकट नहीं मिलने पर कांग्रेस में शामिल होने वाले नेताओं का हाल भी कुछ अलग नहीं रहा। कांग्रेस का टिकट पाने वाले छह में से पांच नेता चुनाव हार गए। दल बदलना नेताओं के लिए नई बात नहीं है। नेता कई कारणों मसलन-टिकट न मिलने, दूसरी पार्टी में जीत की संभावना अधिक दिखने आदि से पार्टी बदलते हैं। इस वजह से देश में कई बार राजनीतिक अस्थिरता का दौर देखा गया है। सरकारें प्रशासन पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय खुद का अस्तित्व बचाने पर ज्यादा जोर देती रही हैं। पिछली सदी के सातवें दशक में ‘आया राम-गया राम’ का जुमला विधायकों के लगातार दलीय निष्ठा बदलने की पृष्ठभूमि में ही बना था।

भारतीय राजनीति में दलबदल का इतिहास काफी पुराना है। पहले और चौथे लोकसभा चुनाव के बीच दो दशक की अवधि में दलबदल के 542 मामले सामने आए थे। दलबदलू नेताओं के लिए सबसे अच्छा 1977 का आम चुनाव रहा था। आपातकाल के ठीक बाद हुए इस चुनाव में इंदिरा गांधी से मुकाबले के लिए कई राजनीतिक ताकतों ने हाथ मिलाया। तब चुनाव में उतरे 2,439 उम्मीदवारों में से 6.6 प्रतिशत यानी कुल 161 दलबदलू थे। इनकी सफलता दर 68.9 प्रतिशत थी, जो अब तक का उच्चतम स्तर है।

1980 के लोकसभा चुनाव में कुल 4,629 उम्मीदवारों में से 377 यानी 8.1 प्रतिशत दलबदलू थे। इनमें से 20.69 प्रतिशत सफल हुए। 1984 का साल कांग्रेस में आने वाले दलबदलुओं के लिए अच्छा साबित हुआ। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की लहर चल रही थी। तब कांग्रेस ने 32 दलबदलू उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें 26 को जीत मिली। 1984 में भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ा। तब पार्टी से 62 दलबदलू उम्मीदवार लड़े थे, लेकिन किसी को भी जीत नहीं मिली।

अगर 2004 के लोकसभा चुनावों की बात करें तो कुल उम्मीदवारों में दलबदलू उम्मीदवारों का हिस्सा 3.9 प्रतिशत था और उनकी सफलता दर 26.2 प्रतिशत थी। 2014 में भाजपा के टिकट पर लड़ने वाले दलबदलू उम्मीदवारों की सफलता दर 66.7 प्रतिशत थी, वहीं कांग्रेस के लिए यह आंकड़ा 5.3 प्रतिशत था। 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 8,000 से अधिक उम्मीदवारों में अलग-अलग दलों के 195 दलबदलू उम्मीदवार मैदान में थे। इनमें से केवल 29 को ही जीत मिली। तब भाजपा के कुल उम्मीदवारों में 5.3 प्रतिशत दलबदलू थे, जिनमें से 56.5 प्रतिशत को जीत मिली। कांग्रेस के कुल उम्मीदवारों में 9.5 प्रतिशत दलबदलू थे, जिनमें से जीत सिर्फ पांच प्रतिशत को मिली। इस प्रकार 2019 के आम चुनावों में दलबदलू नेताओं की सफलता दर 15 प्रतिशत से कम रही, जबकि 1960 के दौर में औसतन लगभग 30 प्रतिशत दलबदलू नेता चुनाव जीत रहे थे।

ऐसा नहीं है कि इसे रोकने के लिए उपाय नहीं किए गए हैं। देश में एक मजबूत दलबदल विरोधी कानून है, जो नेताओं को दलीय निष्ठा बदलने से रोकता है। हालांकि यह कानून उस स्थिति में प्रभावी नहीं रह जाता, जब किसी दल से दो तिहाई जनप्रतिनिधि टूटकर किसी अन्य दल में शामिल होते हैं। ऐसी स्थिति में राजनीतिक दल के सदस्य सांसदी या विधायकी से अयोग्य होने से बच जाते हैं। कानून में कमी यह है कि अयोग्यता से राहत दलबदल के पीछे के कारण के बजाय सदस्यों की संख्या पर आधारित है।

इसका अंतरदलीय लोकतंत्र पर प्रभाव पड़ता है और दल से जुड़े सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है। लोकतंत्र में संवाद का अत्यंत महत्व है। जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन ही लोकतंत्र है। लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होती है, उसकी अनुमति से शासन होता है, उसकी प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है, परंतु यह कानून जनता का नहीं, बल्कि दलों के शासन की व्यवस्था अर्थात ‘पार्टी राज’ को बढ़ावा देता है।

दुनिया के कई परिपक्व लोकतंत्रों में दलबदल विरोधी कानून जैसी कोई व्यवस्था नहीं है। उदाहरण के लिए इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि देशों में यदि जनप्रतिनिधि अपने दलों के विपरीत मत रखते हैं या पार्टी लाइन से अलग जाकर वोट करते हैं, तो भी वे उसी पार्टी में बने रहते हैं, परंतु भारत में कोई नेता पार्टी लाइन से अलग, किंतु महत्वपूर्ण विचार रखे तो भी उसे नहीं सुना जाता। इन सभी कारणों से भारतीय राजनीति में दलबदल एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा है।

लोकतंत्र में जनता मतदान द्वारा किसी विशेष व्यक्ति को संसद या विधानसभा के लिए अपने प्रतिनिधि के रूप में चुनती है, लेकिन जब वह धन और पद के लालच में किसी अन्य दल में चला जाता है तो उसके विश्वास को ही तोड़ता है। आज की परिस्थितियों को देखते हुए दलविहीन लोकतंत्र ही भारत के लिए बेहतर है। ऐसा लोकतंत्र जिसका आदर्श समाज हो तथा जिसमें विरोधी और प्रतियोगिता-प्रतिस्पर्धा का स्थान व्यापक लोक कल्याण से प्रेरित सहयोग एवं सर्वोदय की भावना ने लिया हो।


Date:20-06-24

आतंक का सम्मान

संपादकीय

यह समझना मुश्किल है कि कनाडा आखिर भारत के साथ कैसे रिश्ते रखना चाहता है। इटली में आयोजित जी-7 के शिखर सम्मेलन में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन टूडो भारतीय प्रधानमंत्री से मिले तो कहा कि भारत के साथ कनाडा का कई मामलों में बेहतर तालमेल है और नई सरकार के साथ बातचीत आगे बढ़ाने का अवसर दिखाई दे रहा है। मगर वहां से लौटते ही उनका रुख बदल गया। खालिस्तानी अलगाववादी हरदीप सिंह निन्जर की हत्या की बरसी पर वहां की संसद में एक मिनट का मौन रखा गया। पिछले वर्ष कनाडा में निज्जर की हत्या कर दी गई थी तब कनाडा सरकार ने आरोप लगाया था कि उसकी हत्या में भारतीय अधिकारी शामिल थे। हालांकि वह अभी तक इसका कोई सबूत नहीं पेश कर सका है। उसके बाद से कई जगहों पर खालिस्तानी अलगाववादियों ने भारत के खिलाफ उकसाने वाली गतिविधियां चलाई, भारत की तरफ से उन पर सख्त कदम उठाने की अपील की गई, मगर कनाडा सरकार उन पर चुप्पी साधे रही। अब निज्जर की बरसी पर संसद में मौन रखने का प्रकरण एक तरह से भारत को उकसाने का नया प्रयास है।

यह हैरानी की बात है कि निम्जर आखिर कनाडा सरकार को इतना प्रिय क्यों हो गया। आमतौर पर किसी देश की संसद में राष्ट्र के किसी सम्मानित व्यक्ति, किसी हादसे, जनसंहार या बुद्ध में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि दी जाती है। ऐसा नहीं माना जा सकता कि निज्जर की गतिविधियों को लेकर कनाडा सरकार अनजान हो। भारत ने उसे आतंकवादियों की सूची में डाल रखा था। आतंकवाद के खिलाफ भारत की कटिबद्धता भी कनाडा से छिपी नहीं है। फिर भी कनाडा सरकार निज्जर की हत्या को इतना तूल दे रही है, तो इससे यही जाहिर होता है कि न तो वह आतंकवाद पर अंकुश लगाने को लेकर गंभीर है और न भारत के साथ अपने रिश्ते बेहतर बनाने को लेकर अगर टूडो सरकार भारत के साथ बातचीत आगे बढ़ाने की इच्छुक होती, तो निज्जर को इतना महत्त्व न देती कि संसद में उसे श्रद्धांजलि दी जाती। यह तो स्पष्ट है कि इस तरह निज्जर को महत्त्व देकर टूडो वहां रह रहे सिख समुदाय का जनाधार अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं, इसका कुछ लाभ शायद इस चुनाव में उनकी पार्टी को मिल भी जाए, मगर इससे भारत के साथ जो रिश्ते खराब हो रहे हैं, उसकी भरपाई आसान नहीं होगी। अलग खालिस्तान की मांग को लेकर चलाई जा रही हिंसक मुहिम से कनाडा सरकार अनजान नहीं है और न वह इस बात से बेखबर है कि किसी भी देश में चलाई जाने वाली कोई भी अलगाववादी गतिविधि दहशतगर्दी के दायरे में आती है। पंजाब के लोग खुद अलग राज्य का मुरा नहीं उठाते, मगर कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया आदि देशों में जाकर बस गए और वहां की नागरिकता ले चुके कुछ लोग इसे लेकर उपद्रव करते देखे जाते हैं, तो उन पर अंकुश लगाने में मदद करने के बजाय अगर वहां की सरकारे उन्हें प्रश्रय देती हैं, तो इसे किसी भी रूप में स्वस्थ कूटनीति नहीं कहा जा सकता। इससे आतंकवादियों का मनोबल बढ़ता है और आखिरकार इसका खमियाजा किसी एक देश को नहीं, सारी दुनिया को भुगतना पड़ता है कनाडा सरकार के जवाच में भारत ने कनिष्क विमान हादसे की बरसी मनाने का फैसला किया है। ऐसे तनातनी वाले वातावरण से आखिरकार नुकसान कनाडा को ही अधिक होगा।


Date:20-06-24

शीर्ष अदालत का सख्त रुख

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नीट- यूजी 2024 परीक्षा के आयोजन में किसी की तरफ से 0.001 प्रतिशत लापरवाही भी हुई हो, तब भी उससे पूरी तरह से निपटा जाना चाहिए। जस्टिस विक्रम नाथ और एसवीएन भट्टी की अवकाशकालीन पीठ मंगलवार को पांच मई को हुई परीक्षा में छात्रों को कृपांक दिए जाने समेत अन्य शिकायतों से संबंधित दो अलग-अलग याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। इन याचिकाओं पर अन्य लंबित याचिकाओं के साथ अब 3 जुलाई को सुनवाई होगी। याचिकाओं में परीक्षा में अनियमितता बरते जाने की सीबीआई जांच और नीट यूजी परीक्षा नये सिरे कराने की मांग वाली याचिकाएं भी शामिल हैं। अदालत ने एनटीए और केंद्र सरकार से याचिकाओं पर दो हफ्ते के भीतर अपने जवाब दाखिल करने को कहा है। लोक सभा चुनाव परिणाम आने की गहमागहमी के बीच ही नीट-यूजी 2024 परीक्षा के परिणाम भी घोषित किए गए थे। पीक्ष अनेक परीक्षार्थियों के टॉपर्स होने और खासी संख्या में परीक्षार्थियों को कृपांक दिए जाने की जानकारी होने के बाद लगा कि दाल में कुछ काला है। बाद के घटनाक्रम में कुछ गिरफ्तारियाँ हुई और पटना से लेकर गोधरा तक कई परीक्षा केंद्रों पर व्यापक स्तर पर अनियमितताएं बरती जाने की बातें सामने आने लगीं। परीक्षा में धांधली के संकेत मिलने लगे और परीक्षार्थियों के परिजनों के साथ ही अनेक संगठनों और राजनीतिक दलों ने विरोध प्रदर्शन करने शुरू कर दिए। कुछ परीक्षार्थियों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। मेडिकल की पढ़ाई पर अभिभावक खासा खर्च करते हैं। अभ्यर्थी छात्र सामाजिक जीवन से कटकर मेडिकल पाठयक्रम प्रवेश परीक्षा की तैयारी में रात-दिन एक कर देते हैं। दरअसल, अभ्यर्थियों की संख्या को देखते हुए मेडिकल कॉलेजों में सीटें पर्याप्त नहीं हैं। जरूरी है कि सरकार सीटें बढ़ाने के लिए ढांचागत आधार को मजबूत करे। एनटीए के वजूद में आने से पहले सीबीएसई और राज्य शिक्षा बोर्ड पीएमटी की परीक्षा आयोजित करते थे जिसके आधार पर प्रवेश आसानी से मिल जाता था। लेकिन इस बीच अभ्यर्थियों की संख्या बढ़ने और एनटीए जैसे निकाय को मेडिकल के अलावा अन्य तमाम परीक्षाओं का आयोजन करने की जिम्मेदारी सौंप दी गई। इतने बोझ से एनटीए का ढांचा कमजोर दिखलाई पड़ने लगा है, उसके सामने मैनपावर की समस्या भी है। बहरहाल, जरूरी हो गया है कि छात्रों के साथ न्याय हो और इसके लिए रि नीट यूजी के अलावा कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ता।


Date:20-06-24

पुनरोद्धार नालंदा

संपादकीय

नालंदा विश्वविद्यालय के नए परिसर का उ‌द्घाटन सुखद और अविस्मरणीय है। परिसर के उद्घाटन के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उचित ही कहा कि नालंदा विश्वविद्यालय भारत की शैक्षणिक विरासत और जीवंत सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रतीक है। इसमें कोई शक नहीं कि यह विश्वविद्यालय एक राष्ट्रीय गौरव है और इसे बहुत लगाव और गुणवत्ता के साथ विकसित करना चाहिए जो पवित्रता और गरिमा लगभग 800 साल पहले नालंदा विश्वविद्यालय को प्राप्त थी, उसकी बहाली अगर आधुनिक नालंदा विश्वविद्यालय अपने नए परिसर में कर सके, तो यह पूरे मानव समाज की बड़ी सेवा होगी। वैसे, नालंदा विश्वविद्यालय की परिसर के साथ स्थापना का कार्य पहले भी किया जा सकता था, पर इसे नष्ट करने की जो त्रासद स्मृतियां हैं, वह नए दौर में भी बार-बार यह में आ खड़ी हो जाती थीं। हम ऐसे देश के वासी हैं, जहां किसी का दिल दुखाने वाली बात सोचना भी अमानवीयता है, तभी तो उस आक्रांता के नाम पर आज भी एक रेलवे स्टेशन है, जिसे भारतीय संस्कृति से भयंकर घृणा थी। अब भारत की नई पीढ़ी अगर शांतिपूर्वक सुधार या बदलाव की ओर बड़ी है, तो उसका स्वागत करना चाहिए। “वास्तव में इस विश्वविद्यालय के पुनर्जीवन की कल्पना भारत और पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन (ईएएस) देशों के बीच एक संयुक्त सहयोग के रूप में की गई थी। उद्घाटन समारोह में 17 देशों के दूतावास प्रमुखों की मौजूदगी सहज ही प्रमाण है कि प्राचीन विश्वविद्यालय की स्मृति दुनिया के एक बड़े क्षेत्र में लोगों के ज्ञान संस्कार में शामिल है। करीब 1,600 साल पहले स्थापित मूल नालंदा विश्वविद्यालय को दुनिया के पहले आवासीय विश्वविद्यालयों में से एक माना जाता है। उस पुरानी भव्यता, प्राचीनता और गुणवत्ता के साथ नालंदा विश्वविद्यालय की वापसी तो कतई संभव नहीं, पर जो भी विश्वविद्यालय स्थापित वा विकसित हो रहा है, उस पर अनेक देशों के गुणी लोगों की निगाह रहेगी। ध्यान रहे, भारत के अलावा 17 देशों ने नालंदा विश्वविद्यालय को समर्थन देने के लिए समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए थे। यह भी ध्यान रहे कि गैर-सनातन व विविध धर्म वाले देशों की सरकारें भी नालंदा विश्वविद्यालय का पुनर्जीवन देखना चाहती हैं। मतलब यह आधुनिक नालंदा विश्वविद्यालय ज्ञान के विस्तृत पटल पर तमाम वैमनस्य भुलाकर आगे बढ़ने की जरूरत और बढ़ती समझ का भी प्रमाण है। वह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि मेलजोल के अभाव और कट्टरता की वजह से ही प्राचीन नालंदा का विनाश हुआ था। भारतीय समाज में जब कट्टरता घटी और समझ बढ़ी, तभी नालंदा के पुनर्जीवन का विचार अवतरित हुआ।

अब वह स्वर्णिम इतिहास में दर्ज है कि नालंदा के प्राचीन खंडहरों के पास ही नया परिसर स्थापित हुआ, जिसका निर्माण साल 2017 में शुरू हुआ था। वैसे, साल 2007 में, जब केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार थी, तभी फिलीपींस में आयोजित दूसरे पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना का फैसला लिया गया था। मनमोहन सिंह सरकार ने ही साल 2010 में नालंदा विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया। साल 2014 में 14 छात्रों के साथ पढ़ाई-लिखाई का क्रम भी शुरू हुआ। इस सुखद सपने को नरेंद्र मोदी सरकार ने स्वतंत्र परिसर देकर जिस तरह आगे बढ़ाया है, उसकी प्रशंसा होनी ही चाहिए। अच्छे कामों और अच्छी परंपराओं को बल मिलता रहे दीप से दीप जलाने और आगे बढ़ते जाने का यही सही तरीका है।