20-05-2024 (Important News Clippings)
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Date: 20-05-24
Talking peace
India must push for a more inclusive peace effort against the Ukraine war.
Editorial
Two years after Russia’s invasion of Ukraine, Switzerland has stepped in to organise a peace conference, making a special effort to broaden global consensus on the war by enlisting those who have not joined the western coalition thus far. As a close partner of Russia, a member of the BRICS and SCO groupings, a leader in the Global South, and an aspirant to world leadership, India is, no doubt, at the top of the list. And the Swiss Foreign Secretary Alexandre Fasel’s visit to Delhi this week, following closely those of two Swiss Ministers, and the Ukrainian Foreign Minister Dmytro Kuleba over the past few months, is evidence that the invitation to India at the head of state/head of government level is a priority. Of the 160 or so countries that invitations for the conference have gone to — it is to be held in the resort town of Bürgenstock on June 15-16 — about 50 have confirmed their attendance, mostly from the European Union, NATO alliance, G-7 countries and U.S. allies such as Japan, South Korea and Australia. Russia has not been invited, and Mr. Fasel made it clear that their diplomacy was hoping to bring over ‘BICS’ leaders (BRICS minus Russia) so they could convey the outcomes to Moscow, with a view to inviting Russia to a future round of talks. With Brazilian President Lula indicating that he would not attend, and South Africa’s citing its general elections on May 29 to formally decline the invitation, all eyes are on whether Chinese President Xi Jinping, and Prime Minister Narendra Modi, if he is re-elected, or official nominees would attend.
Convincing the rest of the world to attend a platform that appears stilted towards Ukraine remains a tall order for the organisers. While Switzerland prides itself on its “neutrality”, it has already chosen sides in the current conflict by imposing sanctions on Russia. Another venue may have appeared more impartial. The agenda for the conference is to build a framework for or road map to peace, and to discuss issues such as ensuring food security and freedom of navigation, nuclear safety and humanitarian issues. It seems unlikely that much headway can be made on any of these issues without both parties to the conflict at the table. It is also hard to foresee what else can be achieved as long as Russia and Ukraine believe they can make or consolidate more gains on the battlefield — a real negotiation begins when either one or both sides believe they have exhausted military options. If the aim of the conference then is, as Russian President Vladimir Putin says, to “pressure” Russia into announcing a ceasefire or ceding territory it has won, then it is hardly likely to succeed, given the UN General Assembly’s failure to bring such pressure through multiple resolutions. New Delhi, that has thus far refused to join any statement that is overtly critical of Russia, and has not diluted ties with Moscow, may thus find it easier to hedge its bets, and only show its hand once a truly balanced and more inclusive peace effort gets under way.
चुनावी विमर्श से गायब जरूरी मुद्दे
हृदयनारायण दीक्षित, ( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं )
संसदीय चुनाव में पांचवें चरण का मतदान है। लोकतंत्र में मतदान का अधिकार नागरिकों को अवसर देता है कि सरकार कैसी हो और उन पर कौन शासन करे? यह सत्ता के दावेदारों की विचारधारा, रीति, नीति और दृष्टिकोण को भी जांचने और इच्छानुसार मतदान का अवसर भी होता है। मतदान केवल अधिकार नहीं, उत्तरदायित्व भी है। मतदान से नागरिकों की राजनीतिक इच्छा प्रकट होती है। मतदाताओं के पक्ष को समझा जाता है। चुनाव में मतदाता के सामने भिन्न-भिन्न विचार वाले दल आश्वासन देते हैं। मतदाता उपलब्ध विचारों और वादों में अपने सपनों वाली सरकार बनाने के लिए वोट देते हैं। मताधिकार मूल्यवान है।
चुनाव राष्ट्रीय विमर्श का अवसर होते हैं। बहस और विमर्श, वाद-विवाद और संवाद भारत की प्राचीन परंपरा है। संप्रति पूरा देश सभा या संसद जैसा है। यहां प्रत्येक मतदाता अपनी इच्छा वाले देश और समाज के लिए सजग है। राष्ट्रीय चिंता के सभी विषयों पर राष्ट्रीय विमर्श की आवश्यकता है, लेकिन वर्तमान चुनाव में बुनियादी सवालों पर राष्ट्रीय विमर्श का अभाव है। राष्ट्र सर्वोपरिता, राष्ट्रीय एकता और अखंडता, संविधान के प्रति निष्ठा एवं भारत की विश्व प्रतिष्ठा जैसे विषय आधारभूत हैं। यह विषय किसी न किसी रूप में हमेशा राष्ट्रीय विमर्श में रहते हैं, लेकिन वर्तमान चुनाव में पृष्ठभूमि में चले गए हैं। हम भारत के लोग संस्कृति के कारण दुनिया के प्राचीनतम राष्ट्र हैं। यहां विविधता और बहुलता सतह पर है, लेकिन इन सबको एक सूत्र में बांधे रखने वाली सांस्कृतिक एकता चुनावी विमर्श में नहीं है। राष्ट्र से भिन्न कोई भी अस्मिता अलगाववाद की प्रेरक होती है। राजनीतिक दल एक दूसरे पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाया करते हैं, मगर सांप्रदायिकता की परिभाषा नदारद है। चुनावी विमर्श में सांप्रदायिकता के निराकार और साकार खतरे पर विमर्श होना चाहिए था।
सेक्युलर विदेशी विचार है। राजनीति में बहुधा इसका दुरुपयोग होता है। व्यावहारिक अर्थ में यह अल्पसंख्यकवाद का पर्याय है। छद्म सेक्युलरवाद भी विमर्श में नहीं है। राष्ट्र के समग्र विकास में प्रशासनिक सेवाओं की मुख्य भूमिका है। प्रशासनिक अमला सरकारी नीतियों का क्रियान्वयन करता है। प्रशासनिक सुधारों पर अनेक आयोग बन चुके हैं, लेकिन प्रशासन की गुणवत्ता प्रश्नवाचक रहती है। इसी तरह अर्थनीति सबसे महत्वपूर्ण विषय है। यह राष्ट्रीय समृद्धि की संवाहक होती है। महाभारत में नारद ने युधिष्ठिर से पूछा, ‘क्या आप अर्थ चिंतन करते हैं-चिंतयसि अर्थम्?’ अर्थनीति पर सतत राष्ट्रीय विमर्श अनिवार्य है।
राष्ट्र का आत्मविश्वास होता है राष्ट्रीय विमर्श। भूमंडलीय ताप में वृद्धि अंतरराष्ट्रीय समस्या है तो भारत भी उससे अछूता नहीं रह सकता। इसके बावजूद भूमंडलीय ताप चुनावी विमर्श से बाहर है। जल और जीवन पर्यायवाची हैं। जल प्रदूषण स्वास्थ्य का बड़ा शत्रु है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश के 400 से अधिक जिलों का जल गंभीर रूप से प्रदूषित हो चुका है। भूजल में शीशा, आर्सेनिक, फ्लोराइड और क्रोमियम जैसे जानलेवा रसायन पाए गए हैं। हर साल लगभग ढाई करोड़ लोग जल प्रदूषण जनित बीमारियों के शिकार होते हैं। बच्चे दिव्यांग होते हैं। औद्योगिक इकाइयों का विषैला पानी और कचरा भूगर्भ जल में मिलते हैं। बोतलबंद पानी और भी खतरनाक है। जल में उपस्थित रसायन बोतल की प्लास्टिक से रासायनिक क्रिया करते हैं और जल दूषित हो जाता है। वायु प्रदूषण से भारत भी पीड़ित है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी धूल भरी वायु लोगों के श्वसन तंत्र पर आक्रामक रहती है। ऐसे चिंताजनक मुद्दे भी चुनावी विमर्श में नहीं हैं।
कृषि भारत की आजीविका है और किसानों के लिए व्यवसाय भी है। ऋषि और कृषि भारतीय श्रम साधना के शीर्ष पर रहे हैं। चिकित्सा महत्वपूर्ण विषय है। जन स्वास्थ्य और आनंद साथ-साथ रहते हैं। राष्ट्रीय पौरुष का संबंध जनस्वास्थ्य से है। स्वस्थ जीवन के लिए उत्तम परिस्थितियां पाना मौलिक अधिकार है। बीमार लोग राष्ट्रीय उत्पादन में भागीदार नहीं हो सकते। उत्पादन की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्र का सक्रिय मानव संसाधन है। अन्य योजनाएं टाली जा सकती हैं, लेकिन चिकित्सा और स्वास्थ्य नहीं। निजी अस्पताल अपेक्षाकृत महंगे हैं। राष्ट्रीय संवेदना का अभाव है। गरीबों को पांच लाख तक की चिकित्सा उपलब्ध कराने में ‘आयुष्मान भारत’ योजना की प्रशंसा होती है। इस दिशा में काफी काम हुआ है, लेकिन जन स्वास्थ्य और कृषि भी राष्ट्रीय विमर्श में नहीं हैं।
प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल होने पर युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति दिखाई पड़ी है। यह राष्ट्रीय चिंता का विषय है। ऐसे विषय सरकार के अलावा सामाजिक उत्तरदायित्व से संबंधित हैं। भारतीय इतिहास का विरूपण पिछले 10-15 वर्षों से चर्चा का विषय है। इस इतिहास में वास्तविक तथ्य नहीं हैं। दुर्भाग्य से यह चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है। समान नागरिक संहिता संविधान का नीति निदेशक तत्व है। पिछले कई वर्षों से यह राष्ट्रीय चर्चा का विषय है, लेकिन चुनावी विमर्श का मुद्दा नहीं है।
सारा काम सरकारें ही नहीं कर सकतीं। सामाजिक दायित्वबोध भी जरूरी है। सड़क, पानी और बिजली आदि के सवालों पर अनेक गांवों में मतदान के बहिष्कार के समाचार भी सुनाई दिए हैं। इसलिए महत्वपूर्ण मुद्दों पर विमर्श जरूरी है। संवैधानिक लोकतंत्र में अनेक संस्थाएं हैं। भारतीय लोकतंत्र अति प्राचीन है। जब भारत में लोकतंत्र फल-फूल रहा था तब प्लेटो जैसे विद्वान लोकतांत्रिक मूल्यों पर चिंतन कर रहे थे। प्लेटो ने लिखा है कि जनतंत्र समान और असमान को समान भाव से एक तरह की समानता प्रदान करता है।’ प्लेटो के अनुसार जनतंत्र में अव्यवस्था है। भारतीय लोकतंत्र के लिए भी अव्यवस्था की बात कही जा सकती है। इसके लिए भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर राष्ट्रीय विमर्श जरूरी है। संविधान निर्माताओं ने उद्देशिका में ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के साथ प्रतिबद्धता व्यक्त की है। व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता अखंडता सुनिश्चित करने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प व्यक्त किया है। चुनाव इन सब पर चर्चा और विमर्श का महत्वपूर्ण अवसर है।
Date: 20-05-24
दूषित जल का गहराता संक
पंकज चतुर्वेदी, ( लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं )
पिछले दिनों दिल्ली से सटे गाजियाबाद की एक हाउसिंग सोसायटी में दूषित पानी के कारण सात सौ से अधिक लोगों को डायरिया हो गया। दूषित पानी से नहाने के चलते त्वचा रोग के मरीज तो लगभग हर घर में हैं। गाजियाबाद-नोएडा में यह हाल करीब हर ऊंची इमारतों वाली सोसायटी का है। यहां अधिकांश में जल आपूर्ति भूमिगत जल से है और पीने के पानी का आश्रय या तो बोतलबंद पानी या फिर खुद के आरओ हैं। आज देश के अन्य हिस्सों में भी कमोबेश यही स्थिति है। देश के अलग-अलग हिस्से अब नल से बदबूदार पानी आने या फिर हैंडपंपों से गंदे पानी की शिकायतों से परेशान हैं। पानी धरती के लिए प्राण है, लेकिन यदि जल दूषित हो जाए तो यह प्राण हर भी सकता है। पांच साल पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सात जिलों में पीने के पानी से कैंसर से मौत का मसला जब गर्माया तो एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) में प्रस्तुत रिपोर्ट ने इसका कारण हैंडपंपों का दूषित पानी पाया गया। जबकि 2016 में ही एनजीटी ने नदी किनारे के हजारों हैंडपंप बंद कर गांवों में पानी की वैकल्पिक व्यवस्था के आदेश दिए थे। हालांकि, कुछ हैंडपंप बंद हुए, कुछ पर लाल निशान लगाने की औपचारिकता हुई, मगर साफ पानी का विकल्प न मिलने से मजबूर ग्रामीण वही जहर पी रहे हैं। तमाम सरकारी योजनाओं पर अरबों रुपये खर्च भी हुए, लेकिन आज भी करीब 3.77 करोड़ लोग हर साल दूषित पानी के इस्तेमाल से बीमार पड़ते हैं। अनुमान है कि पीने के पानी के कारण बीमार होने वालों से 7.3 करोड़ कार्य दिवस बर्बाद होते हैं। इससे आर्थिकी को करीब 39 अरब रुपये का नुकसान होता है।
हर घर जल की केंद्र की योजना इस बात में तो सफल रही है कि गांव-गांव में हर घर तक पाइप बिछ गए, लेकिन आज भी इन पाइपों में आने वाला 75 प्रतिशत पानी भूजल है। गौरतलब है कि ग्रामीण भारत की 85 प्रतिशत आबादी अपनी पानी की जरूरतों के लिए भूजल पर निर्भर है। एक तो भूजल का स्तर लगातार गहराई में जा रहा है। दूसरा भूजल एक ऐसा संसाधन है, जो यदि दूषित हो जाए तो उसका निदान बहुत कठिन होता है। यह बात संसद में बताई गई है कि देश में करीब 6.6 करोड़ लोग अत्यधिक फ्लोराइड युक्त पानी के घातक नतीजों से जूझ रहे हैं। उन्हें दांत खराब होने, हाथ-पैरे टेढ़े होने जैसे रोग झेलने पड़ रहे हैं। जबकि करीब एक करोड़ लोग अत्यधिक आर्सेनिक वाले पानी के शिकार हैं। कई जगहों पर पानी में आयरन की ज्यादा मात्रा भी बड़ी परेशानी का सबब है। नेशनल सैंपल सर्वे आफिस (एनएसएसओ) की 76वीं रिपोर्ट बताती है कि देश में 82 करोड़ लोगों को उनकी जरूरतों के मुताबिक पानी नहीं मिल पा रहा है। महज 21.4 प्रतिशत लोगों को ही घर तक सुरक्षित जल उपलब्ध है। सबसे दुखद है कि नदी-तालाब जैसे भूतल जल का 70 प्रतिशत हिस्सा बुरी तरह प्रदूषित है। सरकारें इस बात को स्वीकार कर रही हैं कि 78 प्रतिशत ग्रामीण और 59 प्रतिशत शहरी घरों तक स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है। यह भी विडंबना है कि हर घर तक पानी पहुंचाने की परियोजनाओं पर 89,956 करोड़ रुपये से अधिक खर्च होने के बावजूद सरकार इस लक्ष्य को प्राप्त करने में विफल रही है। आज भी लगभग 19,000 गांव ऐसे हैं, जहां पीने के साफ पानी का कोई नियमित साधन नहीं है।
पूरी दुनिया में खासकर विकासशील देशों में जलजनित रोग एक बड़ी चुनौती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और यूनिसेफ का अनुमान है कि अकेले भारत में हर रोज 3,000 से अधिक लोग दूषित पानी से उपजने वाली बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। गंदा पानी पीने से दस्त और आंत में सूजन, पेट में दर्द और ऐंठन, टायफाइड, हैजा, हेपेटाइटिस जैसे रोग अनजाने में शरीर में घर बना लेते हैं। ये भयावह आंकड़े सरकार के ही हैं कि भारत में एक बड़ी संख्या में बच्चे हर साल गंदे पानी से उपजी बीमारियों के चलते मर जाते हैं। देश के 158 जिलों के कई हिस्सों में भूजल खारा हो चुका है और उनमें प्रदूषण का स्तर सरकारी सुरक्षा मानकों को पार कर गया है। हमारे देश में ग्रामीण इलाकों में रहने वाले तकरीबन 6.3 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी तक मयस्सर नहीं है। इसके कारण बीमारियों के साथ-साथ कुपोषण के मामले भी बढ़ रहे हैं। पर्यावरण मंत्रालय और केंद्रीय एजेंसी ‘एकीकृत प्रबंधन सूचना प्रणाली’ (आइएमआइएस) द्वारा 2018 में पानी की गुणवत्ता पर कराए गए एक सर्वे के मुताबिक राजस्थान में सबसे ज्यादा 19,657 बस्तियां और यहां रहने वाले 77.70 लाख लोग दूषित पानी पीने से प्रभावित हैं। आइएमआइएस के मुताबिक पूरे देश में 70,736 बस्तियां फ्लोराइड, आर्सेनिक, लौह तत्व और नाइट्रेट सहित अन्य लवण एवं भारी धातुओं के मिश्रण वाले दूषित जल से प्रभावित हैं। इस पानी की चपेट में 47.41 करोड़ आबादी आ गई है।
देश में पेयजल से इस जहर के प्रभाव को शून्य करने के लिए जरूरी है कि पानी के लिए भूजल पर निर्भरता कम हो और नदी-तालाब आदि सतही जल में गंदगी मिलने से रोका जाए। वैसे तो भूजल के अंधाधुंध इस्तेमाल को रोकने और भूजल को दूषित करने वालों पर अंकुश के लिए कानून बनाए गए हैं, लेकिन ये कागजों से बाहर नहीं आ पाए हैं। नदी-तालाब को जहरीला बनाने में तो किसी ने भी कसर छोड़ी नहीं है। आज समाज को 20 रुपये का एक लीटर पानी पीना मंजूर है, परंतु पीढ़ियों से सेवा कर रहे पारंपरिक जल-संसाधनों को सहेजना नहीं। यह अंदेशा सभी को है कि आने वाले दशकों में पानी को लेकर सरकार और समाज को बेहद मशक्कत करनी होगी। वह दिन नहीं देखना पड़े इसके लिए जरूरी है कि सभी एकजुट होकर पानी और इसके स्रोतों को बचाने में जुट जाएं।
Date: 20-05-24
लोकतंत्र की रोटी है मतदान
आमिर खान
मतदाताओं को जागरूक करने के लिए कई संस्थाएं और संगठन सक्रिय हैं। उनका मकसद होता है कि ज्यादा-से-ज्यादा मतदाता वोट देने के लिए मतदान केंद्रों तक पहुंचें। इन अभियानों में लोकतंत्र और मतदान के रिश्तों को लेकर नई भाषा और मुहावरे भी विकसित हो रहे हैं। दिल्ली के दक्षिण पूर्व जिले में मतदाताओं के बीच चलने वाले पार्क टोली के अभियान में व्यक्तियों की सेहत से जुड़ी भाषा और मान्यताओं का इस्तेमाल किया जा रहा है। पार्क टोली का मानना है कि नागरिक अपनी सेहत को लेकर जागरूक हुए हैं। इस क्षेत्र में भी मतदाता बड़ी तादाद में पाकरे और उन स्थानों पर सुबह-शाम जाते हैं, जहां हरियाली और स्वच्छ वातावरण होता है। टोली बता रही है कि व्यक्ति का स्वास्थ्य लोकतंत्र के स्वास्थ्य से जुड़ा है।
जैसे कोई व्यक्ति भूखे नहीं रह सकता है। उसे जितना मिलता है, और भूख के समय जो खाने के लिए हासिल हो सकता है, उसे वह खाता है। वैज्ञानिक तथ्य है कि भूखे रहने से शरीर कमजोर और बीमार हो सकता है। इसी तरह हर मतदाता अच्छे से अच्छा प्रतिनिधि चुनने की कोशिश में अपने मताधिकार का इस्तेमाल करता है, लेकिन वोट का इस्तेमाल नहीं करना तो लोकतंत्र को भूखा रखने जैसा है। टोली बताती हैं कि मताधिकार लोकतंत्र के लिए रोटी जैसा है, और मतदान करना हर मतदाता की जिम्मेदारी है। चुनाव में लोग हिस्सा लेते हैं तो पूरे देश के लिए उन नीतियों और कार्यक्रमों के प्रति समर्थन जाहिर करते हैं, जो राजनीतिक पार्टयिां अपने चुनावी घोषणापत्र में दर्ज करती हैं। चुनाव गणतंत्र में स्वायत्तता के विचार को सुनिश्चित करता है। राज्यों के चुनाव अपनी विविधता की संस्कृति को मजबूत करते हैं। स्थानीय निकाय के चुनाव बुनियादी सुविधाओं के लिए लोगों की राय जाहिर करने के माध्यम होते हैं। इस तरह हर चुनाव की भी अपनी जरूरत है, जो मतदान के जरिए ही पूरी की सकती है।
1947 में भारत को जो आजादी हासिल हुई, उसका अर्थ ही है कि देश के लोग अपनी सरकार बना सकें। उन्हें अधिकार मिला कि वे अपना मत दें, लेकिन इस अधिकार के साथ मतदाताओं को इस तरह से जिम्मेदार भी बनाया गया है कि उनका वोट केवल उनका वोट नहीं है। उनके वोट में आबादी के बड़े हिस्से का वोट भी शामिल है। जो लोग वोट देने जाते हैं, वे केवल अपना वोट नहीं देते हैं, बल्कि उनके वोट में वे वोट भी शामिल होते हैं, जो वोट नहीं दे सकते। बच्चे, लाचार, कमजोर लोग भी होते हैं। एक वोट में परिवार और कॉलोनी के कई लोगों का वोट होता है। लेकिन जब कोई वोट के अधिकार का इस्तेमाल नहीं करता है तो एक साथ कई लोगों को सरकार बनाने में वोट के अधिकार से वंचित कर देता है। 2019 के लोक सभा चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि 89.6 करोड़ मतदाता थे। इनमें से 60 करोड़ 37 लाख मतदाताओं ने ही वोट दिया। कम लोग वोट देते हैं, तो इससे लोकतंत्र और संविधान के प्रति नागरिकों की जिम्मेदारी के भाव कमजोर होते हैं। पार्क टोली दिल्ली के दक्षिण पूर्व जिले में अपने अभियान में मतदाताओं के बीच फैली एक और प्रवृत्ति की तरफ ध्यान खींचती हैं। मतदाता समझता है कि वह एक उम्मीदवार को वोट देने जाता है। इस तरह की सोच लोकतंत्र के विचारों को कमजोर करती है। मतदाता अपने प्रतिनिधि का चुनाव करने के लिए मताधिकार का इस्तेमाल करता है। जिस उम्मीदवार को सर्वाधिक वोट मिलते है, वह सदन में प्रतिनिधित्व करने का अधिकारी होता है।
जिस उम्मीदवार को कम वोट भले वह सामाजिक प्रतिनिधि होता है। यह लोकतंत्र के लिए बेहतर से बेहतर प्रतिनिधित्व के लिए प्रतिस्पर्धा की कड़ी को मजबूत करता है जो लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए जरूरी है। सोचना उचित नहीं है कि मताधिकार का इस्तेमाल सबसे ज्यादा वोट पाने वाले किसी उम्मीदवार के लिए ही हो सकता है। वोट का महत्त्व इसमें भी है कि सभी व्यस्क नागरिकों को यह अधिकार मिला है। वे चाहें अमीर हों या गरीब। स्त्री हों या पुरु ष या अन्य जेंडर के हों। ग्रामीण हों या शहरी। शिक्षण संस्थानों से डिग्री प्राप्त हों या नहीं। अंग्रेजों ने संपत्ति वालों को ही वोट का अधिकार दिया था। पार्क टोली का अभियान मतदाताओं के बीच नई तरह की जागरूकता विकसित कर रहा है। इस अभियान में पत्रकारिता का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे छात्र खासी तादाद में हिस्सा ले रहे हैं। वैसे मतदान बढ़ाने के लिए केंद्रीय चुनाव आयोग की महती भूमिका रही है। खासकर, देश के प्रमुख शख्सियतों को ब्रांड एंबेस्डर बनाकर आयोग ने नि:संदेह जनता को जागरूक करने में कोर-कसर नहीं छोड़ी है। इस तरह के अभियान कुछ हफ्तों के अंतराल पर जरूर होने चाहिए। क्योंकि यह सर्वविदित है कि देश में कहीं-न-कहीं चुनाव होते ही रहते हैं।