20-04-2022 (Important News Clippings)

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20 Apr 2022
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Date:20-04-22

भारत से व्यापार बहाली चाहता है पाकिस्तान

संपादकीय

पाकिस्तान के सबसे बड़े व सम्मानित उद्योगपति मियां मोहम्मद मंशा ने मांग की है कि भारत के साथ व्यापारिक रिश्ते फिर से बहाल किए जाएं, जिससे आर्थिक लाभ मिलेगा और दोनों देशों के संबंध बेहतर होंगे। उनका मानना है कि अगर सीमा पर तनाव होते हुए भी भारत-चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार बढ़ रहा है तो क्या पाकिस्तान को ऐसा नहीं करना चाहिए? हाल के दौर में भारत की दुनियाभर में व्यापारिक साख बढ़ी है। तमाम पड़ोसी देश भारत से अनाज, स्टील, मछली और कपड़े का आयात कर रहे हैं। यहां तक कि दुनिया को चावल निर्यात करने वाला ताइवान और वियतनाम भी भारत से अनाज खरीद रहे हैं जबकि मिस्र ने भारत से खरीद की इजाजत दे दी है। पुलवामा हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान का मैत्री स्टेटस घटाते हुए टैरिफ दूना कर दिया जिससे पाकिस्तान चीन की ओर मुड़ा। पाकिस्तानी आर्मी चीफ ने भी व्यापार शुरू करने की वकालत की। लेकिन इमरान के कई मंत्री इसके खिलाफ थे। बहरहाल अब इमरान के जाने के बाद और यह मानते हुए कि नए पीएम भारत के साथ संबंध बेहतरी के हिमायती हैं, पाक के तमाम वर्ग व्यापार बहाल करने का दबाव डाल रहे हैं। भारत पाकिस्तान को कपास बेच सकता है और सीमेंट खरीद सकता है। पाकिस्तान का व्यापारी वर्ग चीन की जगह भारत से व्यापार में ज्यादा भरोसा रखता है। यह भारत के भी हित में होगा कि व्यापार के जरिए पाकिस्तान की जनता पर असर डाले ताकि सीमा पर तनाव की पाक सेना की नीति नया राजनीतिक सत्ता वर्ग न माने। पाक सेना को भी यह मालूम है कि इस समय उसके साथ न तो रूस है न अमेरिका। बल्कि भारत अन्य सारे पड़ोसी देशों की मदद करने के साथ और व्यापार बढ़ा रहा है।


Date:20-04-22

श्रीलंका संकट में भारत की विश्वसनीयता साबित

डॉ. वेदप्रताप वैदिक, ( भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष )

श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्ष ने नया मंत्रिमंडल नियुक्त किया है और अपनी सरकार की गलतियों के लिए सार्वजनिक क्षमा-याचना भी की है, लेकिन श्रीलंका की जनता का गुस्सा बरकरार है। राजपक्ष के अपने समर्थक विरोधियों से जा मिले हैं और रोज ही राष्ट्रपति भवन का घेराव हो रहा है। श्रीलंका के शहरों और गांवों में प्रदर्शनकारियों ने पुलिस और फौज का दम फुला दिया है। श्रीलंका का सबसे बड़ा विरोधी दल राष्ट्रपति के विरुद्ध संसद में अविश्वास का प्रस्ताव पेश कर रहा है। यह तब हो रहा है, जब राजपक्ष परिवार के कई सदस्यों को नए मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया है। श्रीलंका की सरकार में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तो गोटबाया परिवार के थे ही, उनके साथ-साथ दो अन्य भाइयों और एक भतीजे को भी मंत्री बना दिया गया था। इन पंच परमेश्वरों से बने गोटबाया परिवार ने श्रीलंका में लगभग तानाशाही राज चला रखा था। अब भी श्रीलंका के दो सर्वोच्च पदों- राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री- पर राजपक्ष-बंधु डटे हुए हैं।

यह राजपक्ष परिवार ही श्रीलंका की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। महिंद राजपक्ष ने अपने पिछले कार्यकाल में तमिल उग्रवाद को जड़ से उखाड़कर महानायक की जो छवि बनाई थी, वह अब धूमिल हो चुकी है। उसके कई कारण हैं। सबसे पहला कारण तो यह है कि थोक मंहगाई श्रीलंका में 20 प्रतिशत हो गई। आम आदमी को आज पेट भर खाना भी नसीब नहीं है। चावल 500 रु., चीनी 300 रु. और दूध पाउडर 1600 रु. किलो बिक रहा है। घरों में गैस और बिजली का टोटा पड़ गया है। सरकार के पास इतनी विदेशी मुद्रा नहीं बची है कि वह विदेशों से गैस, पेट्रोल और डीजल खरीद सके। पेट्रोल और डीजल 300 रु. प्रति लीटर से भी महंगे बिक रहे हैं। सड़कें सुनसान हो गई हैं और दुकानें उजड़ी पड़ी हुई हैं। श्रीलंका की सरकार पर 12 अरब डाॅलर का विदेशी कर्ज चढ़ गया है।

श्रीलंका की इतनी लोकप्रिय और शक्तिशाली सरकार ने अपनी अर्थव्यवस्था को चौपट कैसे कर दिया? इसका सबसे बड़ा कारण राजपक्ष-परिवार का अहंकार है। पंच-परमेश्वरों को जो भी ठीक लगा, उन्होंने जनता पर लाद दिया। न तो उन्होंने देशी-विदेशी विशेषज्ञों की कोई राय ली और न ही किसी मुद्दे पर मंत्रिमंडल में खुलकर बहस होने दी। राजपक्ष सरकार किसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चलती रही। विरोधियों के दृष्टिकोण को यह कहकर रद्द कर दिया गया कि उन्हें शासन-कला का ज्ञान नहीं है। जब गिरती अर्थव्यवस्था को टेका देने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से संपर्क करने का सुझाव आया तो सरकार ने कह दिया कि उसे विदेशी सलाह की जरूरत नहीं। सरकारी भुगतान करने और मंहगाई पर काबू करने के लिए सरकार ने नए नोटों की छपाई तूफानी ढंग से शुरू कर दी। दो साल में मुद्रा की सप्लाई में 42 प्रतिशत वृद्धि हो गई।

सरकार की सबसे बड़ी भूल उसकी खाद नीति के कारण हुई। उसने विदेशी रासायनिक खाद का आयात एकदम बंद कर दिया। श्रीलंका के मुख्य खाद्य चावल की उपज काफी घट गई। पहली बार श्रीलंका को चावल आयात करना पड़ा। उसके सबसे बड़े विदेशी मुद्रा के स्रोतों में से एक चाय का निर्यात है। उसकी पैदावार भी घट गई। श्रीलंका को विदेशी मुद्रा का बड़ा हिस्सा विदेशी पर्यटकों से प्राप्त होता है। लेकिन उसके भी घटने के दो कारण हो गए- कोरोना महामारी और 2019 में चर्च पर आतंकी हमला। श्रीलंका में हर साल दो-ढाई लाख विदेशी पर्यटक आते थे, लेकिन अब उनकी संख्या कुछ हजार तक ही सीमित रह गई है। इसी प्रकार वस्त्र-निर्यात से श्रीलंका औसतन 5 अरब डालर जुटाता था, वह लगभग आधा रह गया था। जबकि उसका विदेशों से आयात का बिल 21 अरब डालर हो गया।

एक तरफ सरकार पर विदेशी कर्ज चढ़ता गया और दूसरी तरफ उसने अपनी आमदनी के स्रोतों को भी सुखाना शुरू कर दिया। उसने अपनी जन-सेवक की छवि को चमकाने के लिए टैक्स में जबरदस्त कटौतियां शुरू कर दीं। आयकर लगभग खत्म कर दिया। सरकार की आमदनी का हाल अब यह हो गया है कि वह अपने कर्मचारियों को उनका वेतन भी ठीक से नहीं दे पाएगी। वह कोशिश कर रही है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और भारत जैसे देश इस आड़े वक्त में उसके काम आएं।

जिस चीन ने श्रीलंका को कई सब्जबाग दिखाए थे, वह अब चुप्पी खींचे बैठा हुआ है। जो राजपक्ष भाई लोग भारत को दरकिनार करके चीन से चिपकने की कोशिश कर रहे थे, उन्हें सख्त सबक मिल रहा है। इस समय भारत ही श्रीलंका को अराजकता की खाई में गिरने से बचाए हुए है। चीन ने हंबनतोता बंदरगाह, सड़कें और भवन-निर्माण के कार्यों के लिए कर्ज देकर श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था को बोझिल बना दिया है। उसे अपने कर्ज-जाल में फंसा लिया है। जबकि भारत श्रीलंका को हजारों टन चावल तथा अन्य खाद्य सामग्री भेज रहा है। उसे ईंधन और अनाज की कमी न पड़े, इसलिए भारत ने जनवरी से अब तक 2.4 अरब डालर की राशि दे दी है। श्रीलंका चाहता है कि उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष 4 अरब डालर की सहायता कर दे लेकिन उसकी प्रक्रिया काफी लंबी है। इस मामले में भारत निश्चय ही उसकी मदद करेगा।

भारत की यह सहायता हमारे सभी पड़ोसी राष्ट्रों के लिए भाईचारे का एक सुगढ़ संदेश है। नेपाल हो, अफगानिस्तान हो, मालदीव हो या श्रीलंका हो, भारत किसी भी देश के साथ भेदभाव नहीं करता। श्रीलंका का राजनीतिक परिदृश्य जो भी बने, उसके इस आर्थिक संकट में भारत ही उसका सबसे विश्वसनीय मित्र सिद्ध होगा।


Date:20-04-22

जीरो कार्बन इमिशन की ओर बढ़ता रेलवे आर्थिक हित में भी

सुधीर कुमार, ( पीएचडी रिसर्च स्कॉलर, बीएचयू )

आम लोग यह पढ़कर जरूर चौंक जाएंगे कि देश में अभी भी 37 फीसदी ट्रेनें डीज़ल इंजिन से चलती हैं। रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने साल भर पहले संसद में यह जानकारी दी थी। अब ताजा खबर है कि डीज़ल लोकोमोटिव्स में सरकार बायो-डीज़ल का इस्तेमाल करेगी। इससे न सिर्फ खर्च बचेगा बल्कि कार्बन उत्सर्जन कम होगा और प्रदूषण भी कम फैलेगा। इस समय दुनियाभर में पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर चर्चा हो रही है। सामूहिक उद्देश्य कार्बन इमिशन कम करना है। इस संदर्भ में भारतीय रेलवे के परिचालन को पर्यावरण-अनुकूल और ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में हो रही कोशिशों को समझने की जरूरत है।

सरकार 2023 के अंत तक रेलवे के शत-प्रतिशत इलेक्ट्रिफिकेशन व 2030 तक पूरी तरह ‘हरित रेलवे’ (शून्य कार्बन उत्सर्जन) में परिवर्तित करने की योजना में जुटी है। हालांकि माल ढुलाई में डीज़ल इंजिन कुछ और समय तक बने रह सकते हैं। लक्ष्य पूरा होते ही भारत दुनिया के सबसे बड़े विद्युत संचालित रेल नेटवर्क में शामिल हो जाएगा। पर्यावरण हितैषी होने के साथ-साथ यह पहल आर्थिक लाभ भी पहुंचाएगी।

देश में रेलवे सार्वजनिक क्षेत्र का सबसे बड़ा उपक्रम होने के साथ-साथ परिवहन के सस्ते साधनों में से भी एक है। 1865 में विख्यात ब्रिटिश पत्रकार एडविन अर्नाल्ड ने लिखा था कि रेलवे भारत में वह कार्य करने में समर्थ होगी जो इतने वर्षों में नहीं किया गया; यह लोगों में एकजुटता का विकास कर भारत को सही मायनों में एक राष्ट्र बना देगी।

भारतीय रेल को पर्यावरण-अनुकूल बनाने के प्रयास बीती सदी के दूसरे दशक से ही किए जा रहे हैं। गौरतलब है कि भारत में पहली इलेक्ट्रिक रेल का परीक्षण 1925 में हुआ था, जबकि 1930 में ‘डेक्कन क्वीन’ के रूप में पहली विद्युतीकृत रेल परिचालन की विधिवत शुरुआत की गई। ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर होकर रेलवे हर साल 17 हजार करोड़ रुपए की धन की बचत करने में सक्षम होगा। गत 27 फरवरी को भारतीय रेलवे का पहला सौर ऊर्जा संयंत्र मध्यप्रदेश के बीना में चालू किया गया। इस सोलर प्लांट से सालाना 2160 टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को रोका जा सकेगा। वहीं रेलवे ने तमिलनाडु, राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात में पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने की भी योजना बनाई है। इसके अलावा रेलवे ने इमारतों-स्टेशनों को एलईडी बल्ब के जरिए प्रकाशित करने की पहल शुरू की है। इन सभी प्रयत्नों के जरिए रेल मंत्रालय ने ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से निपटने की दिशा में बड़ी पहल की है। भारतीय रेलवे का यह प्रयास परिवहन के अन्य साधनों के लिए प्रेरक साबित होगा। अच्छी बात है कि भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों का बाजार भी दिनों-दिन विस्तृत होता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन को लेकर लोगों में बढ़ती संजीदगी, जीवाश्म ईंधन की कीमतों में वृद्धि और सरकार द्वारा दिए जा रहे विभिन्न प्रकार के अनुदानों के चलते देश में इलेक्ट्रिक गाड़ियों की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है। एक आकलन के अनुसार एक साल में सड़कों पर सिर्फ एक इलेक्ट्रिक कार वातावरण में औसतन 1500 किलोग्राम कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कमी ला सकती है। हरित रेलवे से पर्यावरण स्वच्छ होने के साथ देश-दुनिया के साझा लक्ष्य पाए जा सकते हैं।


Date:20-04-22

जलवायु परिवर्तन की चिंता

संपादकीय

जलवायु में तेजी से आ रहे बदलाव तथा उनसे निपटने के लिए उचित रणनीतियों को अपनाने में अक्षमता के बीच ऐसे संस्थाान बनाना आवश्यक लग रहा है, जो भारत में इसके असर पर नजर रखें, इससे होने वाली जटिलताओं के बारे में चेतावनी दें तथा समुचित हल सुझाने का काम करें। इस समय देश इन कामों के लिए काफी हद तक जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) तथा अन्य विदेशी एजेंसियों पर निर्भर है। हालांकि आईपीसीसी की रिपोर्ट अक्सर शोधपरक होती हैं और उनमें क्षेत्रवार तथा देश आधारित अवलोकन भी रहता है लेकिन वे भारत जैसे देश की जरूरतें पूरी नहीं कर पातीं, जहां के पर्यावास में अत्यधिक विविधता है। देश में ऐसी संस्थागत व्यवस्था बनाने में समस्या नहीं आनी चाहिए क्योंकि हमारे पास पहले ही कुशल लोग हैं और कुछ हद तक इसके लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा भी हमारे पास है। आईपीसीसी के लिए काम कर रहे कई वैज्ञानिक जो डेटा संग्रहीत करते हैं, उसका विश्लेषण करते हैं तथा सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो इन सूचनाओं के आधार पर रिपोर्ट लिखते हैं, वे सभी भारतीय हैं। एक स्थानीय संस्था जो भारत केंद्रित जलवायु परिवर्तन संबंधी काम करे, वह यकीनन अधिक उपयोगी साबित होगी।

भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) ने बीते कई दशकों में मॉनसून के प्रदर्शन में आने वाले बदलाव को जिस प्रकार दर्ज किया है उससे भी भरोसा बनता है कि ऐसा किया जा सकता है। गत 14 अप्रैल को जारी अपनी ताजा रिपोर्ट में उसने कहा कि 1901 से 2020 के बीच दक्षिण-पश्चिम मॉनसून से होने वाली बारिश 1921 तक अपेक्षाकृत शुष्क रही और इसके बाद सन 1971 तक बारिश अपेक्षाकृत अच्छी हुई। उसके पश्चात एक बार फिर कम बारिश का दौर शुरू हुआ जो आज तक जारी है। इसके कारण सामान्य बारिश का मानक भी कम करना पड़ा। पुणे स्थित भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान द्वारा तैयार एक अन्य हालिया रिपोर्ट ने भारतीय उपमहाद्वीप के मौसम तथा जलवायु पर मानवीय गतिविधियों के प्रभाव का अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस अध्ययन में हिंद महासागर तथा हिमालय के बीच के क्षेत्र पर खास ध्यान दिया गया है। उक्त घटनाएं तथा पेड़ों से बेमौसम पत्ते झडऩा, जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढऩा, फसलें समय से पहले पकना आदि ऐसी घटनाएं हैं, जिन्हें स्थानीय संस्थान बेहतर ढंग से दर्ज कर सकेंगे।

ऐसा नहीं है कि भारत जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए समुचित नीतियां नहीं बना पाता है बल्कि असल समस्या उनका प्रभावी क्रियान्वयन करने तथा वांछित नतीजे हासिल करने में है। हमने वर्ष 2008 में जलवायु परिवर्तन पर जो राष्ट्रीय कार्य योजना बनायी थी, उसमें भी इस बात को महसूस किया जा सकता है। उस विस्तारित कार्य योजना में अर्थव्यवस्था के कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए आठ उप लक्ष्य तय किए गए थे। 30 से अधिक राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों ने भी जलवायु कार्य योजना पेश की हैं। परंतु इस दिशा में ज्यादा प्रगति नहीं हो सकी क्योंकि संस्थान किफायती और समन्वित क्रियान्वयन नहीं कर सके। दिलचस्प है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर देश के प्रतिनिधित्व तथा नीतियों और कदमों में समन्वय सुनिश्चित करने के लिए जलवायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री के विशेष दूत का पद स्थापित किया गया लेकिन उसे अज्ञात कारणों से समाप्त कर दिया गया। जलवायु परिवर्तन के कारण बनने वाली आपात स्थितियों को लेकर हमें जिस प्रकार अचानक प्रतिक्रिया देनी पड़ी हैं उससे भी ऐसे संस्थानों की जरूरत स्पष्ट रूप से सामने आती है। अचानक दी जाने वाली प्रतिक्रियाएं अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरतीं। यह आवश्यक है कि हम टिकाऊ स्वदेशी संस्थान बनाकर जलवायु परिवर्तन संबंधी चिंताओं को क्षेत्रवार तथा संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए समग्रता में भी हल कर सकें। ऐसा नहीं किया गया तो तमाम अच्छी नीतियों के बावजूद जलवायु परिवर्तन के खिलाफ भारत की लड़ाई कमजोर बनी रहेगी।


Date:20-04-22

उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति पर ध्यान देना आवश्यक

अजय शाह

मौद्रिक नीति के मूल में यह बात है कि मुद्रास्फीति को नियंत्रित किया जाए अथवा विनिमय दर को। पिछले दशकों में एक दलील यह भी थी कि विनिमय दर को स्थिर बनाकर हमने घरेलू कीमतों को स्थिर कर दिया है। मुद्रास्फीति को लक्षित करने का विकल्प कभी नहीं चुना गया क्योंकि कई अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना था, खासतौर पर भारत जैसी महाद्वीपीय अर्थव्यवस्था के लिए ऐसा करना आवश्यक था। अब जबकि अमेरिकी डॉलर और भारतीय रुपये के अविचलित रहते हुए भी वैश्विक स्तर पर मुद्रास्फीति अस्थिर हो चुकी है तो इसका अर्थ यही है कि वैश्विक मुद्रास्फीति अब भारत में भी आ जाएगी। संतुलन अब कम विनिमय दर वाले प्रबंधन की ओर स्थानांतरित हो चुका है।

भारत में मुद्रास्फीति ने 1970 के दशक में गति पकड़ी और तब से वह बार-बार सामने आई है। सन 1990 के दशक के अंत में और 2000 के दशक के आरंभ में देश में मूल्य स्थिरता का दौर था। यही वह समय भी है जब विनिमय दर का जमकर प्रबंधन किया गया। उस समय तक विनिमय दर का निर्धारण काफी हद तक सरकार करती थी न कि बाजार की ताकतें। उस दौर की मूल्य स्थिरता और विनिमय दर प्रबंधन में एक संबंध है।

इस क्षेत्र में जो जुमले अहम हैं, ‘आयात समता मूल्य’ और ‘विनिमय लायक मुद्रास्फीति।’ आयात समता मूल्य के आधार पर कई घरेलू कीमतें निर्धारित की गईं। उदाहरण के लिए इस्पात की कोई भारतीय कीमत नहीं है: लंदन मेटल एक्सचेंज की कीमत को अमेरिकी डॉलर/भारतीय रुपये की विनिमय दर में तब्दील किया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस्पात के साथ विदेशी मुद्रा में क्रय विक्रय प्राय: प्रभावित नहीं होता। यदि भारतीय कीमत बहुत कम होगी तो भारत में इस्पात खरीदकर उसे विदेश ले जाने वाला कारोबारी फायदे में होगा। यदि भारतीय कीमतें बहुत अधिक होंगी तो ऐसा व्यक्ति मुनाफा कमाएगा, जो उसे भारत में आयात करेगा।

जिंस की कीमत उस समय आयात समता मूल्य से नियंत्रित होती है जब वस्तु व्यापार प्राय: केवल व्यवहार्य होता है। समय-समय पर ऐसा क्रय विक्रय होता रहता है। बाकी समय अहम आयात/ निर्यात गतिविधि की आवश्यकता होती है।

भारत में जिन उत्पादों के मामले में पर्याप्त आयात समता मूल्य है, वहां भारतीय कीमतें मौद्रिक नीति से प्रभावित नहीं होतीं : यह कीमत वह होती है जो विनिमय दर को वैश्विक कीमतों से गुणा करने पर हासिल होती है। सभी विकसित देशों ने केंद्रीय बैंकों को मुद्रास्फीति के लक्ष्य की जवाबदेही देकर उस पर विजय हासिल की। ऐसे में सन 1983 से 2021 तक का समय ऐसा था जब वैश्विक मुद्रास्फीति कम थी। अमेरिकी डॉलर में इस्पात कीमतें अपेक्षाकृत कम थीं और जब उसे अमेरिकी डॉलर/रुपये के मूल्य से गुणा किया गया तो हमें इस्पात कीमतों में रुपये में भी मामूली वृद्धि देखने को मिली।

इस अवधि में विनिमय दर प्रबंधन के लिए एक विशेष स्पष्टीकरण था: वह यह कि अमेरिकी डॉलर/रुपये की दर को स्थिर करके हम भारत में विनिमय लायक मुद्रास्फीति का आयात कर सकते हैं। रुपये को अमेरिकी डॉलर के साथ सांकेतिक रूप से संबद्ध करके हम भारत में भी मूल्य स्थिरता लाएंगे। सन 1983 से 2021 तक की अवधि में यह दलील दुरुस्त रही। इसलिए जिस अवधि के लिए रिजर्व बैंक विनिमय दर प्रबंधन कर रहा था उस दौरान विनिमय लायक वस्तुओं की कीमतें स्थिर होने का यह अप्रत्यक्ष लाभ था। सिंगापुर जैसे छोटे देशों में ऐसा ज्यादा हुआ लेकिन भारत जैसे विशालकाय अर्थव्यवस्था वाले देश में कई कीमतें वस्तुओं के क्रय-विक्रय से तय नहीं होतीं और कम विनिमय लायक मुद्रास्फीति कम मूल्यवान होती है।

निश्चित तौर पर मौद्रिक नीति रणनीति बेहतरीन नहीं है। विनिमय दर प्रबंधन अंतत: वृद्धि और स्थिरता को प्रभावित करता है। भारत में मुद्रास्फीति में तेजी 2006 में शुरू हुई और 2013 में मुद्रा का बचाव किया गया। बौद्धिक सहमति में परिवर्तन आया और फरवरी 2015 में मुद्रास्फीति को लक्षित करने का निर्णय लिया गया।

विधिक रूप से मुद्रास्फीति को लक्षित किया जा रहा है लेकिन जमीनी हकीकत इससे अलग है। यह कहना उचित होगा कि 2015 से ही रिजर्व बैंक के लिए मुद्रास्फीति पहले से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गयी। विनिमय दर प्रबंधन का एक लाभ यानी देश में विनिमय लायक वस्तुओं की कीमतों को स्थिर करना, अब बरकरार नहीं है। सन 2021 और 2022 में विकसित देशों के केंद्रीय बैंकों ने मुद्रास्फीति का सही प्रबंधन नहीं किया। उन सभी ने उपभोक्ता मूल्य आधारित मुद्रास्फीति की दर दो फीसदी तय की, जबकि वर्तमान मुद्रास्फीति की बात करें तो अमेरिका में यह 8.5 फीसदी है।

इसकी वजह से भारत में नीति निर्माताओं के सामने मौजूद व्यापार लायक चीजों में बदलाव आया। यदि अमेरिकी डॉलर में व्यापार लायक वस्तुओं की मुद्रास्फीति छह फीसदी है और अमेरिकी डॉलर/ रुपया अपरिवर्तित रहते हैं तो इससे छह फीसदी मुद्रास्फीति भारत आती है।

मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं कि विकसित बाजारों के केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति को दोबारा दो फीसदी पर ले आएंगे। अमेरिकी फेडरल रिजर्व हो या यूरोपीय केंद्रीय बैंक या फिर बैंक ऑफ इंगलैंड- इन सभी ने मुद्रास्फीति को लक्षित करने में पूरी बौद्धिक स्पष्टता बरती। उन्हें केंद्रीय बैंक के लक्ष्यों और समाज को लेकर उनकी भूमिका के बारे में कोई भ्रम या दुविधा नहीं है। परंतु मुद्रास्फीति को फिर कम करने में समय लगेगा। अमेरिका में उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति 2024 के पहले दो फीसदी के लक्ष्य तक आती नहीं दिखती। वर्ष 2022 और 2023 में मुद्रास्फीति असहज करने वाले स्तर पर बनी रहेगी।

विनिमय दर प्रबंधन की राह दिक्कतों से भरी हुई है। इस आलेख का मकसद उन पर बात करना नहीं है। परंतु ऐसे समय में जबकि वैश्विक मुद्रास्फीति नियंत्रण में थी, विनिमय दर प्रबंधन में एक मुक्ति दिलाने वाला गुण था: डॉलर/रुपये को स्थिर करने का अर्थ यह था कि हम कम विनिमय लायक मुद्रास्फीति को भारत ला रहे थे। इस बात को ध्यान में रखते हुए भी विनिमय दर प्रबंधन अच्छा नहीं रहा और 2006 से 2015 के बीच मौद्रिक नीति की विफलता के कारण मुद्रास्फीति को लक्षित करने की नई व्यवस्था लागू हुई।

2022 और 2023 में मुक्ति दिलाने वाला यह गुण अनुपस्थित है। अमेरिकी डॉलर/रुपये को स्थिर बनाने से केवल उच्चस्तरीय विनिमय लायक मुद्रास्फीति ही भारत आएगी। यह बात उसी दलील को मजबूत करती है, जिसके मुताबिक मुद्रास्फीति को रिजर्व बैंक का प्रमुख कार्य माना जाता है न कि विनिमय दर प्रबंधन का। ऐसे में आरबीआई भारत के लिए सबसे अच्छा काम यह कर सकता है कि वह मौजूदा दशक के अंत तक 4 फीसदी की उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति का अनुमान प्रस्तुत कर उस पर कायम रहे। इससे वृहद आर्थिक स्थिरता का माहौल बनेगा जिसके अधीन निजी व्यक्ति भी अपनी योजनाएं बना सकेंगे और निवेश कर सकेंगे।


Date:20-04-22

जुर्म बनाम जमानत

संपादकीय

जमानत जैसे मामलों में कम ही ऐसा होता है कि किसी उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय रद्द कर दे। मगर लखीमपुर खीरी मामले में आशीष मिश्रा की जमानत को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय ने पलट दिया। अदालत को फिर से उस पर सुनवाई करने और आशीष मिश्रा को एक हफ्ते के भीतर आत्मसमर्पण का आदेश दिया। यह इलाहाबाद हाइकोर्ट और उत्तर प्रदेश सरकार दोनों को असहज करने वाला फैसला है। आशीष मिश्रा की जमानत अर्जी इलाहाबाद हाइकोर्ट को वापस लौटाते हुए सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कड़ी टिप्पणी भी दर्ज की है। उन्होंने कहा है कि न्यायालय ने अप्रासंगिक तथ्यों को तो तवज्जो दी, मगर जिन पक्षों पर उसे गंभीरता से ध्यान देना चाहिए था, वह नहीं दिया। पीड़ित पक्ष को नहीं सुना गया और प्राथमिकी को ही आधार बना कर निर्णय सुना दिया गया। गौरतलब है कि आशीष मिश्रा की जमानत स्वीकृत करते हुए इलाहाबाद हाइकोर्ट ने कहा था कि उनसे समाज को कोई खतरा नहीं है और उन पर भरोसा किया जा सकता है कि वे देश छोड़ कर नहीं भागेंगे। उस फैसले पर स्वाभाविक ही चौतरफा प्रतिक्रिया हुई थी। विचित्र यह भी था कि उत्तर प्रदेश सरकार ने उस फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर नहीं की।

चूंकि यह मामला राजनीतिक रसूख वाले लोगों से जुड़ा था, इसलिए पहले ही दिन से आशंका जताई जा रही थी कि इसमें इंसाफ मिलना मुश्किल है। यह आशंका पहले ही दिन से सच भी साबित होती दिखने लगी थी। आशीष मिश्रा की गिरफ्तारी में प्रशासन लगातार ढीला रवैया अख्तियार किए हुए था। जब सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ी फटकार लगाई, तब घटना के करीब एक हफ्ते बाद गिरफ्तारी हो सकी। फिर सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले की जांच के लिए एक समिति गठित करने का आदेश दिया था। उसमें भी पुलिस का रवैया टालमटोल का दिखता रहा। तब फिर सर्वोच्च न्यायालय ने फटकार लगाते हुए कहा था कि प्रत्यक्षदर्शियों के बयान दर्ज किए जाएं। जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि आशीष मिश्रा ने गफलत में नहीं, बल्कि इरादतन प्रदर्शनकारी किसानों पर गाड़ी चढ़ाई थी। उसी के हिसाब से प्राथमिकी में बदलाव करने को भी कहा था। इन सबके बावजूद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उदारवादी रुख अपनाते हुए चार महीने बाद ही जमानत दे दी, तो लोगों की हैरानी स्वाभाविक थी। उस फैसले को पीड़ित पक्ष ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी।

कहा जाता है कि न सिर्फ इंसाफ होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। आशीष मिश्रा के मामले में यह दोनों नहीं दिखा। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने संज्ञान न लिया होता, तो शायद उत्तर प्रदेश पुलिस की व्याख्या के आधार पर यह मामला कब का रफा-दफा भी हो गया होता। अदालतें साक्ष्यों पर निर्भर होती हैं। साक्ष्य पुलिस और जांच एजेंसियों को जुटाने होते हैं। अगर वे सरकारों के प्रभाव में काम करेंगी, तो सही साक्ष्य की उम्मीद धुंधली ही बनी रहेगी। हालांकि आशीष मिश्रा के मामले में गैरजमानती मामला होने के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद थे। मगर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उन पर गौर करना जरूरी नहीं समझा और न पीड़ित पक्ष को सुना। इसी से स्पष्ट था कि उसने अपने कर्तव्य का निर्वाह सही तरीके से नहीं किया। अब सर्वोच्च न्यायालय के ताजा आदेश को नजरअंदाज कर पाना उसके लिए आसान नहीं होगा। सर्वोच्च न्यायालय लगातार इस मामले पर अपनी नजर बनाए हुए है।


Date:20-04-22

अवसंरचना विकास से बदली तस्वीर

शशिकान्त जायसवाल

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने कहा था, ‘अमेरिका की सड़कें इसलिए अच्छी नहीं हैं कि यहां के लोग अमीर हैं, बल्कि अमेरिकी सड़कें अच्छी हैं, इसलिए अमेरिका अमीर है।’उनका यह कथन कई मायनों में किसी भी देश या राज्य की तरक्की के लिए सोलह आने खरा नजर आता है। इस दिशा में उत्तर प्रदेश ने पिछले पांच सालों में ऊंची उड़ान भरी है। कई एक्सप्रेस-वे, गांव की गलियों से लेकर ब्लॉक, तहसील, जिला, प्रदेश मुख्यालय, प्रदेश से जुड़ने वाले दूसरे प्रदेशों और देश की सीमाओं तक जाने वाली सड़कें बनाई जा रही हैं। तेजी से बढ़ती एयर कनेक्टिविटी, मेरठ-गाजियाबाद-दिल्ली रैपिड रेल, 10 शहरों में मेट्रो, ग्रेटर नोएडा में विस्तरीय मल्टी मॉडल लॉजिस्टिक्स हब और मल्टी मॉडल ट्रांसपोर्ट हब उत्तर प्रदेश में र्वल्ड क्लास इंफ्रास्ट्रक्चर डवलप कर रहा है।

पूर्वाचल, गोरखपुर लिंक, बलिया लिंक, बुंदेलखंड, लखनऊ-कानपुर, गंगा, वाराणसी-कोलकाता और गोरखपुर-सिलिगुड़ी एक्सप्रेस-वे उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था को नई रफ्तार देने वाले साबित होंगे। लखनऊ से गाजीपुर तक 341 किमी. लंबे पूर्वाचल एक्सप्रेस-वे पर आवागमन शुरू हो चुका है। 27 किमी. लंबे बलिया लिंक एक्सप्रेस-वे को मंजूरी दी जा चुकी है। इससे लखनऊ, बाराबंकी, अमेठी, अयोध्या, सुल्तानपुर, अंबेडकरनगर, आजमगढ़, मऊ और गाजीपुर आदि जिले के लोग लखनऊ और दिल्ली सहित देश के अन्य राज्यों में अब कम समय में यात्रा कर रहे हैं। गोरखपुर लिंक एक्सप्रेस-वे आजमगढ़ जिले से गोरखपुर तक करीब साढ़े 91 किमी. लंबा बन रहा है। इसका मुख्य कैरिज-वे जल्द खुलने की संभावना है। इसे गोरखपुर जिले के बाईपास से आजमगढ़ जिले तक जोड़ा गया है। इससे गोरखपुर, अंबेडकरनगर, संतकबीरनगर और आजमगढ़ आदि जिले के लोग लाभान्वित होंगे। आसपास के जिलों के सामाजिक-आर्थिक विकास, कृषि, वाणिज्य, पर्यटन और उद्योगों को भी बढ़ावा मिलेगा। दशकों से पिछड़ा बुंदेलखंड अब सीधे दिल्ली से जुड़ने वाला है। डीएनडी फ्लाई-वे नौ किमी., नोएड-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस-वे 24 किमी., यमुना एक्सप्रेस-वे 165 किमी., आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे 135 किमी. और बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे 296 किमी. कुल 630 किमी. की यात्रा दिल्ली से चित्रकूट तक निर्बाध गति से की जा सकेगी। बुंदलेखंड एक्सप्रेस-वे लोगों को दिल्ली सहित अन्य राज्यों से भी जोड़ेगा। इससे चित्रकूट, बांदा, महोबा, हमीरपुर, जालौन, औरैया और इटावा आदि जिलों के लोग लाभान्वित होंगे। बुंदेलखंड का सीधा दिल्ली से जुड़ने का लाभ लोगों को मिलेगा और पिछड़ेपन के दाग से बुंदेलखंड मुक्त हो सकेगा।

गंगा नदी के समानांतर हरिद्वार से वाराणसी तक एक्सप्रेस-वे बनाया जा रहा है। पहले चरण में 36 हजार करोड़ की लागत से मेरठ से प्रयागराज तक बन रहा 596 किमी. लंबा गंगा एक्सप्रेस-वे छह लेन चौड़ा होगा और आठ लेन तक बढ़ाया जा सकेगा। मेरठ-बुलंदशहर राष्ट्रीय राजमार्ग 334 से शुरू होकर हापुड़, बुलंदशहर, अमरोहा, संभल, बदायूं, शाहजहांपुर, हरदोई, उन्नाव, रायबरेली, प्रतापगढ़ होते हुए प्रयागराज बाईपास पर समाप्त होगा। लखनऊ-कानपुर, वाराणसी-कोलकाता और गोरखपुर-सिलिगुड़ी एक्सप्रेस-वे प्रदेश की दशा-दिशा बदलने वाले हैं। राज्य सरकार ने यमुना एक्सप्रेस-वे, लखनऊ आगरा एक्सप्रेस-वे, पूर्वाचल एक्सप्रेस-वे, गोरखपुर लिंक एक्सप्रेस-वे और बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे के किनारे उद्योगों के लिए करीब 67 सौ एकड़ भूमि आरक्षित की है। इससे निवेश भी आएगा और रोजगार सृजन भी होगा। वायु सेवा की बेहतरीन कनेक्टिविटी के नजरिए से उत्तर प्रदेश में तेजी से वायु सेवा का विस्तार हो रहा है। उत्तर प्रदेश में पांच साल पहले तक केवल दो एयरपोर्ट-लखनऊ और काशी- क्रियाशील थे। हालांकि इस बीच एक और कुशीनगर अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट संचालित हो चुका है। एशिया का सबसे बड़ा एयरपोर्ट जेवर और अयोध्या में अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट के निर्माण की प्रक्रिया तेजी से चल रही है। देश के अंदर पांच वर्ष में बेहतरीन वायु सेवा की कनेक्टिविटी के लिए किसी राज्य ने अच्छी प्रगति की है, तो उत्तर प्रदेश है। मर्यादा पुरु षोत्तम श्रीराम हवाई अड्डा अयोध्या अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट क्रियाशील होने पर उत्तर प्रदेश पांच अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट वाला पहला राज्य होगा। प्रदेश में नौ एयरपोर्ट क्रियाशील हैं, और 10 नए एयरपोर्ट के लिए कार्यवाही चल रही है। जब 10 नए एयरपोर्ट क्रियाशील हो जाएंगे, तो 19 एयरपोर्ट वाला उत्तर प्रदेश देश का पहला राज्य होगा। उत्तर प्रदेश में पांच साल पहले तक केवल 25 गंतव्यों के लिए वायु सेवा थी जबकि अब 75 गंतव्यों के लिए के लिए वायु सेवा है।

उत्तर प्रदेश ने शहरों को ट्रैफिक जाम से मुक्ति दिलाने के लिए बड़ी पहल की है। उत्तर प्रदेश के सबसे ज्यादा शहरों में मेट्रो चल रही है। गाजियाबाद, नोएडा और ग्रेटर नोएडा के साथ मेट्रो की सेवाएं लखनऊ में हैं। ‘आईआईटी, कानपुर से मोतीझील’ तक नौ किमी. लंबे एलीवेटेड प्रॉयरिटी कॉरिडोर का संचालन शुरू हो गया है जबकि गोरखपुर में मेट्रो लाइट सेवा के लिए राज्य सरकार से परियोजना की डीपीआर मंजूर कर केंद्र सरकार को भेज दी है। राज्य सरकार ने बजट में विशेष क्षेत्र कार्यक्रम के तहत पूर्वाचल की विशेष योजनाओं के लिए 300 करोड़ और बुंदेलखंड क्षेत्र की विशेष योजनाओं के लिए 210 करोड़ अलग से दिए हैं। मेट्रो से तेज चलने वाली देश की पहली रैपिड रेल का निर्माण मेरठ से नई दिल्ली वाया गाजियाबाद हो रहा है।

मेरठ-गाजियाबाद-दिल्ली रैपिड रेल का प्राथमिक खंड 2023 और परियोजना 2025 तक पूरी होने की संभावना है। ग्रेटर नोएडा जल्द ही विस्तरीय मल्टी मॉडल लॉजिस्टिक्स हब बनने वाला है। 7725 करोड़ के निवेश से बनने वाले मल्टीमॉडल लॉजिस्टिक्स हब और मल्टीमॉडल ट्रांसपोर्ट हब आने वाले समय में यूपी के विकास की नई गाथा लिखेंगे। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पिछले पांच सालों में उत्तर प्रदेश ने इंफ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट के जो कार्य किए हैं, वे नये भारत के नये उत्तर प्रदेश की नींव का पत्थर कहे जा सकते हैं। इंफ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट के यह र्वल्ड प्रोजेक्ट उत्तर प्रदेश को आने वाले दिनों में उन राज्यों की श्रेणी में पहुंचाने वाले हैं, जिन्हें आम तौर पर विकसित कहा जाता है। एक्सप्रेस वे और अन्य सड़कों के माध्यम से उत्तर प्रदेश देश-दुनिया से तो जुड़ेगा ही, बड़े पैमाने पर निवेश भी आकर्षित होंगे और लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार भी मिलेगा।


Date:20-04-22

व्यवस्था के पक्ष में

संपादकीय

राजधानी दिल्ली समेत देश के कई राज्यों में घटी सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं के मद्देनजर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ताजा फैसलों का महत्व समझा जा सकता है। योगी सख्त प्रशासक के रूप में जाने जाते हैं और उनके ताजा निर्देश इस बात की ताईद करते हैं। मुख्यमंत्री ने राज्य की कानून-व्यवस्था की समीक्षा बैठक में स्पष्ट निर्देश दिया कि नए धार्मिक जुलूसों की इजाजत न दी जाए और न ही नए धर्मस्थलों पर लाउडस्पीकर लगाने की। पारंपरिक जुलूसों और शोभायात्राओं के संदर्भ में भी उन्होंने तय मानदंडों का हरसूरत में पालन कराने का निर्देश दिया है। इसमें कोई दोराय नहीं कि आस्था नितांत निजी विषय है और देश का आईन अपने सभी नागरिकों को उपासना की आजादी देता है। लेकिन आस्था जब प्रतिस्पद्र्धा में तब्दील होने लगे, तब वह नियमन के दायरे में भी आ जाती है।

बहुधर्मी भारतीय समाज में पूजा-इबादत की विविधता इसके सांस्कृतिक सौंदर्य का अटूट हिस्सा है और दुनिया इसकी मिसालें भी देती रही है। यह विशेषता एक दशक या दो सदी में हासिल नहीं हुई, समाज ने सहस्राब्दियों में इसको अर्जित किया है। पर इतिहास की तल्ख घटनाओं को कुरेदने की राजनीति से भाईचारे की संस्कृति को चोट पहुंच रही है। यही वजह है कि 21वीं सदी के तीसरे दशक में जब हमारी ऊर्जा विज्ञान व पर्यावरण के जटिल मुद्दों को सुलझाने में खर्च होनी चाहिए थी, हमें सांप्रदायिक-सामुदायिक एकता को बचाने के लिए खर्च करनी पड़ रही है। ऐसा क्यों है?दरअसल, धार्मिक आडंबरों, जिदों के आगे समर्पण और इस या उस समुदाय के प्रति सख्ती-नरमी भरे प्रशासनिक रवैये से इस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है। यकीनन, इसके लिए हमारा समूचा राजनीतिक वर्ग जिम्मेदार है। किसी एक पार्टी या संगठन को इसके लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यदि प्रशासन पर सियासी दबाव न होते, तो ऐसी बहुत सारी समस्याएं सामाजिक विद्वेष की वजह ही नहीं बन पातीं। ऐसे में, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने उचित ही साफ किया है कि अब किसी के साथ कोई रियायत नहीं बरती जाएगी।

किसी भी धार्मिक जुलूस या शोभायात्रा के मार्ग, समय-अवधि या इसमें शिरकत करने वाले श्रद्धालुओं के संख्याबल को लेकर पुलिस की अपनी नियमावली है। यदि इसका ईमानदारी से पालन हो, तो न ट्रैफिक की समस्या हो सकती है और न सामाजिक माहौल बिगड़ सकता है, पर अक्सर इसकी अनदेखी होती है, जैसा कि जहांगीरपुरी विवाद में बताया जा रहा है। मुख्यमंत्री योगी का उत्तर प्रदेश में इसे सख्ती से लागू करने और पारंपरिक जुलूसों व शोभायात्राओं से पहले सभी धर्मों के सम्मानित गुरुओं की बैठकें करने का निर्देश टकराव टालने में अहम साबित होगा। प्रशासन को शोभायात्राओं में घातक हथियारों के प्रदर्शन के मामले में भी कठोर निगरानी करनी चाहिए। इसी तरह, मौजूदा यांत्रिक युग में अब बहुत ऊंची आवाज लगाने की आवश्यकता भी नहीं रह बची है। बेहतर तो यही होता कि सभी धर्मों के धर्माधिकारी सर्वधर्म सभा का आयोजन कर ऐसी मिसालें पेश करते और अपने-अपने समुदाय का मार्गदर्शन करते, मगर जब बदगुमानियां बढ़ने लगी हैं, सांप्रदायिक दुराव शांति-व्यवस्था के लिए खतरा बन गया है, तब राज्य-सत्ता का हस्तक्षेप उसका दायित्व भी है और जरूरत भी। देश को आर्थिक तरक्की के लिए शांत भारत चाहिए। दंगे और तनाव उसकी खुशहाली व प्रतिष्ठा को ग्रहण ही लगाएंगे।


Date:20-04-22

क्या श्रीलंका जैसी बदहाली की दिशा में बढ़ रहा है नेपाल

पुष्परंजन, ( संपादक, ईयू-एशिया न्यूज )

नेपाल राष्ट्र बैंक के गवर्नर स्वत: निलंबित हो जाएं, और निलंबन के विरुद्ध सर्वोच्च अदालत में याचिका दायर हो जाए, ऐसा श्रीलंका में नहीं हुआ था। श्रीलंका में संकट इतना गहरा चुका था कि आम जनता ने राष्ट्रपति भवन को दो-दो बार घेर लिया था। नेपाल में क्या श्रीलंका जैसी परिस्थितियां हैं? मगर, पेट्रोल पंपों पर लंबी लाइनें देखकर कह सकते हैं कि हालात उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। घरती से दूर चारों ओर समंदर से घिरा श्रीलंका, और नेपाल एक भू-परिवेष्ठित राष्ट्र। दोनों की भू-सामरिक परिस्थितियां भिन्न हैं। पौराणिक रूप से एक राम की ससुराल है, दूसरा रावण की राजधानी। ‘राम की ससुराल’ में धन और ऊर्जा की कमी हुई है, और वह निश्चिंत है कि नई दिल्ली संकटमोचक की भूमिका में खड़ा मिलेगा। नरेंद्र मोदी के शासन में नेपाल को अब तक एक अरब 65 करोड़ डॉलर की लाइन ऑफ क्रेडिट दी जा चुकी है।

नेपाल में यह संकट नेता और नौकरशाहों की जंग का नतीजा है? निलंबित गवर्नर महा प्रसाद अधिकारी ने वित्त मंत्री शर्मा द्वारा नियुक्त तीन सदस्यीय कमेटी पर कई सवाल उठाए हैं। तीन सदस्यों में से एक अर्थमंत्री जनार्दन शर्मा के रिश्तेदार हैं। अर्थमंत्री पर निलंबित गवर्नर महा प्रसाद अधिकारी ने यह आरोप लगाया है कि उनका एक खास उद्योगपति काले धन के शोधन के मामले में फंसा था, जिसे दबाने को कहा गया था। उस उद्योगपति से मामले को दबाने के वास्ते एनआरबी बोर्ड के सदस्य सुबोध कर्ण ने 30 हजार डॉलर की मांग की थी। महा प्रसाद अधिकारी ने जैसे ही इस बात का खुलासा किया, उन्हें नाकारा ठहराते हुए कैबिनेट अध्यादेश के जरिये जांच कमेटी बैठा दी गई। अब सर्वोच्च अदालत को तय करना है कि यह निलंबन सही है या गलत।

नेपाली निर्यात में निरंतर गिरावट, बाहर से पैसे के ट्रांसफर में लगातार हो रही कमी, रीयल इस्टेट वालों से कर्ज वसूली न होने व ऊर्जा संकट जैसी तमाम बुराइयों का ठीकरा गवर्नर महा प्रसाद अधिकारी पर फोड़ दिया गया है। प्रचंड और प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा जांच बैठाने के वास्ते दो कारणों से मान गए। पहला, गवर्नर महा प्रसाद अधिकारी पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली द्वारा नियुक्त किए गए थे। और दूसरा, सत्ता पक्ष एक बकरे की तलाश में था, जिसकी बलि देकर नेपाल की ध्वस्त होती अर्थव्यवस्था का सारा दोष उस पर मढ़ा जा सके। इसकी वजह 13 मई, 2022 का निकाय चुनाव है। यह उस आम चुनाव का सेमीफाइनल है, जो इसी साल नवंबर में संभावित है।

बहरहाल, इस समय सबसे बड़ा सवाल नेपाल में ऊर्जा संकट, पेट्रोलियम की कीमतों का दबाव, अनियंत्रित महंगाई को लेकर है। चुनाव सामने है, चुनांचे पेट्रोल-गैस की मनचाही कीमतें बढ़ा नहीं सकते। सरकारी दफ्तरों में तेल खर्च बचाने के वास्ते राशनिंग शुरू है। निर्यात कम करने और आयात बढ़ाने के रास्ते ढूंढ़े जा रहे हैं।

नेपाल का विदेशी मुद्रा भंडार आठ महीने में 12 अरब डॉलर से घटकर 9. 6 अरब डॉलर हो चुका है। वह बस इतना भर है कि छह महीने की खरीदारी हो सकती है। जो एक लाख के लगभग अनिवासी नेपाली बाहर हैं, उन्हें अलग-अलग माध्यमों से समझाया जा रहा है कि नेपाली बैंकों को कम से कम 10 हजार डॉलर भेजें, उन्हें इस पर छह से सात प्रतिशत ब्याज दिया जाएगा। रेमीटेंस (बाहर से भेजा जाने वाला धन) 5.3 अरब डॉलर पर आ चुका है। कोविड ने नेपाली पर्यटन का भट्ठा बैठा दिया है, अर्थव्यवस्था की रही-सही कमर यूक्रेन-रूस युद्ध ने तोड़ दी है। नेपाल में सड़कों की मरम्मत और विद्युत उत्पादन, वितरण के वास्ते अमेरिकी मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन ने 65.9 करोड़ डॉलर भेजे हैं, और विश्व बैंक से उसे 15 करोड़ डॉलर का सॉफ्ट लोन प्राप्त हुआ है। चीनी विदेश मंत्री वांग यी 27 मार्च, 2022 को काठमांडू यात्रा के दौरान नौ द्विपक्षीय समझौते कर गए हैं। चीन, श्रीलंका मॉडल पर नेपाल को कर्ज देना चाह रहा था, मगर नेपाली पक्ष को चीन से अनुदान की अपेक्षा अधिक रहती है या फिर उदार ऋण की, जिसमें ब्याज दर दो प्रतिशत से अधिक न हो।

नेपाल ने पिछले वित्त वर्ष में दो हजार इलेक्ट्रिक बसों और अन्य वाहनों का आयात चीन से किया था। टाटा समेत कई भारतीय कंपनियां भी नेपाल में विद्युत-बैटरी वाहन और ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश के वास्ते दिलचस्पी ले रही हैं। फिलहाल, इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि प्रचुर जल संसाधन के बावजूद नेपाल को बाहर से बिजली खरीदनी पड़ रही है। उसे भूटान, भारत, बांग्लादेश पावरग्रिड के साकार होने का इंतजार है। इतना ही नहीं, नेपाल में भ्रष्टाचार ने अर्थव्यवस्था को खोखला कर दिया है। स्थिर सरकार का न होना, उसके लिए एक मुश्किल बाधा दौड़ की तरह है।