19-05-2018 (Important News Clippings)
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Date:19-05-18
Crime and the City
How India’s demographic dividend has turned into its demographic demon
Dipankar Gupta, [ He is a sociologist and public intellectual. He is former Professor at Jawaharlal Nehru University’s Centre for the Study of Social Systems, and besides has h ny academic appointments at universities in North America, Europe, UK and India.]
If you are walking in a small town you might wish for an extra pair of eyes, arms and yes, faster legs. Contrary to popular belief most metro cities, which have more than a crore people living in them, have lower crime rates than cities with a much lower population between two and three million. Here Delhi is the exception to the rule, but don’t let that fool you. True, in terms of crimes that fall under IPC Delhi tops all other towns, metros included and there are no sunglasses large enough to hide this shame. Could Delhi’s unique feature arise because of its close proximity to Uttar Pradesh? This state leads all others in practically every kind of crime – from murder, abduction, kidnapping, right down to attacks against women. Mumbai and Kolkata are probably better off as they don’t face UP’s osmotic pressure.
This leads us to an anomaly. One would have normally expected other mega cities like Mumbai and Kolkata, with populations above 18 million and 14 million respectively, to carry a knife between their teeth like Delhi does. Yet, that is not the case. Instead, Delhi’s lead is followed by much smaller towns, with populations of less than three million; places like Kochi, Jaipur, Patna and Indore. In fact, if total crimes are taken into account, which includes those charged under the IPC and SLL (Special and Local Laws), Delhi is at the fourth spot and the top two are Kochi and Nagpur. Delhi slips again to the fifth position when it comes to murder rates, well behind Patna, Nagpur, Lucknow and Jaipur. Patna, once again, leads in the number of kidnapping cases followed by Delhi, but after it, smaller cities like Lucknow, Nagpur, Jaipur and Indore take over – all with a population below three million.
That over 30% of youth between 15 and 29 years of age are idle, that is not in employment, education or training, is certainly a factor that boosts crime. What, however, adds to this fuming churn is the 2011 Census finding that there are 84 million literates and 33 million illiterates who are unemployed, and diploma holders are the highest among them. Here, then, are vagabond youth, with a piece of paper in their hands that can’t land them a job. TeamLease reports that only 18% of those vocationally trained find work, but only 7% of these in formal employment. If small towns, rather than metros (with the exception of Delhi) are where criminal activities are high, one needs to also factor in the kind of urbanisation India is going through. Under equal conditions, a non-tier 1 city applicant has a 24% lower chance of finding work and can expect a salary that is Rs 66,000 less per annum.
The National Sample Survey also shows that the chances of getting a salaried job, that is one with some security, are much higher in larger cities than in smaller ones. But as metropolises like Delhi and Mumbai are showing a declining growth rate and Kolkata and Chennai may well have become stagnant, good jobs are getting harder to land in these places. Under such conditions it is only those with big city networks who have access to these better jobs, and those who don’t must, of necessity, go to smaller towns. In these smaller urban sites, the situation is different; jobs are not only more difficult to find they are mostly informal and ill paid ones.
Consequently towns like Faridabad, Ghaziabad, Meerut, Patna, Pune, Jaipur, Kochi, Nagpur, Indore, and so on are not just getting bigger, but bloodier too. This is because it is the literate unemployed who are largely circling this territory, foraging for work and they have dreams much grander than what the unschooled can imagine. Unmet aspirations are socially more troublesome than empty stomachs! Imagine what the atmosphere must be like when 15,000 graduates, in 2016, applied for the position of sweepers in Amroha, UP. And when even this scaled down ambition fails, crime could easily become the default option. Mahesh Vyas, of CMIE, is right when he says that what we are facing is not a demographic dividend but a “demographic demon”. It is not a coincidence that juvenile criminals – the only category on which the crime bureau provides socioeconomic information – are overwhelmingly kids who have been to high school.
Literate people migrate much more than illiterates do. This should check the prejudice among the metro middle class that big cities are running wild with illiterates from everywhere. This is a deep fried, crunchy opinion, but is completely fact free. In truth, the migration rate among those at the lowest income bracket is much below those who are better placed.
In rural India only 3% of those in the bottom income decile migrate, compared to 17% of those in the top. When it comes to urban male migration alone, the rate at which college graduates enter cities is more than double that of the “not literates”. Connecting the dots, the following picture emerges. Educated migrants move to small towns where well paid jobs are rare and this leads to a kind of social anger that is difficult to control. Once this happens, can crime be far behind? India would have been safer and a small town a good place for a quiet walk if only young, literate migrants travelled light and left their dreams with a caretaker.
Date:19-05-18
मोदी-पुतिन मुलाकात का बदलते हालात में महत्व
अनौपचारिक बैठकों का न तो एजेंडा घोषित किया जाता है और न बाद में कोई घोषणा की जाती है।
संपादकीय
दुनिया के बदलते हालात में भारत-रूस की पुरानी दोस्ती का नवीनीकरण करते रहना जरूरी है और इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोमवार को महज एक दिन की यात्रा पर रूस जा रहे हैं। उनकी यह यात्रा भले एक दिन की हो लेकिन, रूस के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति पुतिन के साथ सूची में उनकी छह घंटे की अनौपचारिक बैठक का विशेष अर्थ है। मोदी ने हाल में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ भी अनौपचारिक मुलाकात की थी। अनौपचारिक बैठकों का न तो एजेंडा घोषित किया जाता है और न बाद में कोई घोषणा की जाती है। इसके बावजूद इन बैठकों का अंतरराष्ट्रीय राजनय में विशेष महत्व है।
यह दरअसल औपचारिक मुलाकातों और संधियों के लिए की जाने वाली तैयारियां हैं। इन दिनों अमेरिका और रूस के बीच बढ़ता टकराव नए शीतयुद्ध की पटकथा लिख रहा है और उसमें रूस की शस्त्र कंपनी पर लगाई गई अमेरिकी पाबंदी भारत को सीधे प्रभावित करती है। अमेरिका से भारत के हथियारों की खरीद में कई सौ गुना बढ़ोतरी होने के बावजूद अभी भी भारत हथियारों का सबसे ज्यादा सौदा रूस से ही करता है। रूसी कंपनी पर लगी अमेरिकी पाबंदी से भारत को छूट दिलाने के लिए भारत ट्रम्प प्रशासन के साथ अमेरिकी कांग्रेस में भी पैरवी कर रहा है।
बदलती अंतरराष्ट्रीय स्थितियों के बारे में दोनों देशों में एक समझदारी विकसित करना जरूरी है। उनमें ईरान के नाभिकीय सौदे से अमेरिका का वाकआउट, भारत द्वारा विकसित किए जा रहा ईरान का चाबहार बंदरगाह, अफगान-पाकिस्तान की नीति, सीरिया समेत पश्चिम एशिया का संकट जैसे कई मसले शामिल हैं। पाकिस्तान और रूस की बढ़ती निकटता भी एक मसला है लेकिन, उस पर चर्चा होगी या नहीं यह स्पष्ट नहीं है।
जब जून में शंघाई सहयोग संगठन के लिए चीन में, जुलाई में ब्रिक्स के लिए दक्षिण अफ्रीका में, अक्तूबर में दिल्ली में और नवंबर में जी-20 के लिए अर्जेंटीना में पुतिन और मोदी मिलने वाले हैं तो इस अनौपचारिक मुलाकात का विशेष अर्थ जरूर है। मोदी की यह यात्रा संवेदनशील अंतरराष्ट्रीय स्थितियों के दौर में हो रही है और दुनिया के मंच पर नई ताकत के तौर पर उभरता भारत उन जटिलताओं को सुलझाने में कोई भूमिका निभाना चाहता है। संभवतः भारत अपने पुराने दोस्त को भरोसा भी देना चाहता है कि उसे अमेरिका और इजरायल तो चाहिए लेकिन, रूस की पुरानी मैत्री छोड़कर नहीं।
Date:19-05-18
सुस्त निर्यात में निवेशकों को लुभाना भारत की जरूरत
घरेलू अर्थव्यवस्था की शाश्वत कमजोरियों और अमेरिका के हाल के संरक्षणवाद के कारण भारत के लिए विदेश में अधिक माल बेचना कठिन हो गया है। लालफीताशाही से भी पिछड़ रही हैं कंपनियां।
संपादकीय
वर्ष 1991 के वसंत के दौरान भारतीय अधिकारियों ने भुगतान संतुलन का संकट टालने की बेचैनी में चुपचाप स्मगलरों से जब्त 20 टान सोना उठाकर स्विट्जरलैंड की यूबीएस बैंक में जमा कर दिया था। उस संकट ने उदारवादी सुधारों की प्रेरणा दी, जिसने भारत को विश्व अर्थव्यवस्था से जोड़ने में मदद की। 2013 आते-आते जीडीपी के प्रतिशत के रूप में भारत का निर्यात चार गुना बढ़कर 25 फीसदी हो गया, जो वैश्विक औसत से बहुत दूर नहीं था। उसके बाद से निर्यात में आई गिरावट ने आंकड़ों को 14 साल में न्यूनतम स्तर पर पहुंचा दिया। आयात में वृद्धि ने चालू खाते के बढ़ते घाटे को पाटने की सरकार की क्षमता पर नहीं, तो कम से कम भारतीय कंपनियों की स्पर्धात्मक क्षमता पर फिर सवाल खड़े कर दिए हैं। अब 1991 के ड्रामा का दोहराव तो नहीं होने वाला। आज भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया को मात देने वाली रफ्तार से बढ़ रही है। इसके केंद्रीय बैंक में इतना विदेशी मुद्रा भंडार है कि वह करीब सालभर के आयात का भुगतान कर सकता है। विदेशी निवेशक सरकार व कॉर्पोरेट ऋण फाइनेंस करने को तैयार हैं। फिर भी अर्थशास्त्री सोच में पड़ गए हैं कि भारत निर्यात क्यों नहीं बढ़ा पा रहा है, जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था आगे बढ़ रही है।
मार्च 2018 तक के 12 महीनों में 303 अरब डॉलर का भारतीय माल विदेश में गया। यह पिछले साल से अधिक है लेकिन, अब भी 2014 में हासिल 310 अरब डॉलर के आंकड़ें से कम है। तब भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार आज की तुलना में 25 फीसदी कम था। इस बीच, आयात बढ़कर 460 अरब डॉलर हो गया, जिसने व्यापार घाटे को 157 अरब डॉलर तक पहुंचा दिया, जो 2016-17 के 109 अरब डॉलर से ज्यादा और पांच साल में अधिकतम है। आईटी अाउटसोर्सिंग जैसी सेवाओं के सरप्लस से कुल व्यापार घाटे को करीब आधा कम करने में मदद मिलती है पर अब वहां भी निर्यात की तुलना में आयात बढ़ रहा है। यह घाटा कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों से और बढ़ रहा है, जिसे भारत बहुत बड़ी मात्रा में आयात करता ( जिसका कुछ हिस्सा रिफाइंड प्रोडक्ट के रूप में बेचा भी जाता है) है। 2016 में तेल की कीमत 30 डॉलर प्रति बैरल थी, जो अब 70 डॉलर तक पहुंच गई है, जिससे भारत के चालू खाते के मौजूदा घाटे का कारण पता चलता है। यह घाटा इस वित्तीय वर्ष में जीडीपी के 2 फीसदी तक पहुंच जाएगा, जो पिछले साल की तुलना में तिगुना होगा। पूरी अर्थव्यवस्था में निर्यातक गत जुलाई में लागू हुए जीएसटी के कमजोर क्रियान्वयन से त्रस्त हैं। निर्यातकों का शायद 100 अरब रुपए का रिफंड बकाया है, जिसे सख्त प्रशासन ने रोक रखा है। यह स्थिति तब हैं जब कई कंपनियां अभी नवंबर 2016 की नोटबंदी से उबर ही रही हैं। नोटबंदी ने स्थानीय सप्लाई चैन ठप कर दी, जिससे विदेशी प्रतिद्वंद्वियों को वे ऑर्डर पूरे करने का मौका मिल गया, जो लड़खड़ाती भारतीय कंपनियों को मिलते और इस तरह उन्होंने भारत में मार्केट शेयर हासिल कर लिया। ये सारी चिंताएं अर्थव्यवस्था की शाश्वत कमजोरियों से अलग है। जकड़ने वाली लालफीताशाही के कारण ज्यादातर भारतीय कंपनियां छोटी ही रह गईं। देश में ऐसी मेगा-फैक्ट्रियां नहीं हैं, जहां हजारों श्रमिक टी-शर्ट या मोबाइल फोन बनाते हो, एशिया के अन्य देशों में ऐसे दृश्य आम हैं।
बड़ी कंपनियों को फलने-फूलने में मददगार श्रम और भूमि-अधिग्रहण संबंधी सुधार लागू करने की बजाय, भारत सरकार अपने उद्योगों को विदेशी स्पर्धा से बचाने में लगी है। हाल के महीनों में इसने मोबाइल फोन से लेकर पतंग तक चकरा देने वाली संख्या में सामानों पर शुल्क लगाए हैं। बेशक इससे आयात पर लगाम लगाने में मदद मिलेगी पर उतनी ही आशंका यह भी होगी कि अन्य सरकारों के व्यापारिक कदम भारत का निर्यात कमजोर कर देंगे। यह भारत का दुर्भाग्य है कि डोनाल्ड ट्रम्प का अमेरिका ट्रेड सरप्लस का इसका सबसे बड़ा स्रोत है। ट्रम्प प्रशासन ने भारत पर कई हमले किए हैं चाहे कथित निर्यात सब्सिडी पर चीख-पुकार हो, भारतीय आईटी पेशेवरों के लिए वीज़ा हासिल करना कठिन बनाना हो या भारत पर कृत्रिम रूप से अपनी मुद्रा को कमजोर करने का आरोप हो। अमेरिका के कई सहयोगियों के विपरीत भारत को आसन्न स्टील शुल्कों से छूट नहीं दी गई है।
इस व्यापारिक संघर्ष के और बढ़ने पर भारत को गंभीर नुकसान होगा। न सिर्फ आयात के भुगतान व आर्थिक वृद्धि के लिए बल्कि बाहर से लिया ऋण चुकाने के लिए भी निर्यात से कमाई हार्ड करेंसी की जरूरत है। यह कर्ज करीब 500 अरब डॉलर (33.5 लाख करोड़ रुपए) तक पहुंच गया है, जो जीडीपी के पांचवें हिस्से के बराबर है। इसमें से 40 फीसदी से अधिक सालभर से भी कम समय में चुकाना है। डीबीएस बैंक के अर्थशास्त्री कहते हैं, ‘यह और गिरते व्यापार ने बाहर से होने वाले फाइनेंस का जोखिम फिर राडार पर ला दिया है।’ निर्यात व आयात का अंतर पाटने के लिए भारत को विदेशी निवेशकों की आवश्यकता है और उन्हें लुभाने के लिए हाल ही में उसने बाहरी लोगों के लिए अल्पावधि के बॉन्ड खरीदना आसान बना दिया है। एक अनुुकूल वैश्विक आर्थिक वातावरण में इन चीजों का ज्यादा महत्व नहीं होता लेकिन, उभरते बाजार के घाटे में निवेश करने की निवेशकों की भूख घटती-बढ़ती रहती है। अमेरिका में 2013 में कड़ी मौद्रिक नीति के दौर में उभरते बाजारों से पैसा तेजी से बाहर चला गया था। ऐसे वैश्विक उतार-चढ़ाव से भारत बच जाता था। किंतु व्यापार के कमजोर रिकॉर्ड का मतलब है अब ऐसे उतार-चढ़ाव के चलते इसका जोखिम बढ़ गया है।
Date:18-05-18
युवाओं की आकांक्षाएं बढ़ीं, उन्हें अच्छे जॉब चाहिए
राजीव कुमार, उपाध्यक्ष नीति आयोग
रोजगार के आंकड़ों पर बहुत बहस छिड़ी हुई है। लोग तीन तरह की बातें करते हैं- आंकड़ों की कमी है, इसपर एकराय नहीं कि चार साल में रोजगार बढ़ा या घटा है, आर्थिक प्रगति बिना रोजगार के हो रही है। मेरे विचार से बिना रोजगार के ग्रोथ की बात पूरी तरह गलत साबित हुई है। सीएमआईई के महेश व्यास ने अपने लेख में माना है कि 2016-17 में औपचारिक क्षेत्र में 15 लाख नौकरियां पैदा हुईं। सुरजीत भल्ला जैसे लोग तो 2016-17 में डेढ़ करोड़ नई नौकरियों की बात कह रहे हैं। पुलक घोष-रमाकांति घोष ने अपने लेख में ईपीएफओ आंकड़ों के सहारे बताया कि 2016-17 के दौरान 70 लाख नए रोजगार पैदा हुए हैं। लेबर ब्यूरो के आंकड़े देखने के बाद यह कहना कि नौकरियां पैदा ही नहीं हुई हैं, तथ्यहीन है।
आंकड़ों की कमी की बात कुछ हद तक सही है। नीति आयोग ने इस दिशा में दो-तीन कदम उठाए हैं। आयोग के सुझाव पर ईपीएफओ और ईएसआई के आंकड़ों को हर महीने जनता के बीच रखा जाएगा। अनौपचारिक क्षेत्र रोजगार में 80% तक योगदान देता है। नीति आयोग में पिछले वर्ष मेरे पूर्ववर्ती अरविंद पनगढ़िया ने टास्कफोर्स का गठन किया था। अब हर तिमाही हाउसहोल्ड सर्वे करके आंकड़ा जुटाए जाएंगे। यह काम सांख्यिकी मंत्रालय को सौंपा गया था। यह काम 2017 में शुरू कर दिया गया है। जमीनी स्तर पर सर्वे जारी है। चार तिमाही का पहला पूर्णतया वैज्ञानिक डेटा दिसंबर 2018 या जनवरी 2019 तक मिल जाएगा। इसके बाद अनौचारिक क्षेत्र में रोजगार के आंकड़ों की स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। अभी छोटी-छोटी इकाइयां खोलने वाले, होटल चलाने वाले, चार्टर्ड एकाउंटेंट, वकील, बस-ट्रक ड्रायवर इन सबके आंकड़े कहीं जमा नहीं हो रहे हैं। नीति आयोग की कोशिश है कि जिन क्षेत्रों में रोजगार की अभी तक गणना नहीं होती थी, उनका हर तिमाही डेटा जारी करे। इससे पता चल पाएगा कि नियोक्ताओं ने असल में कितने रोजगार दिए। सेल्फ एंम्प्लॉयर की भी श्रेणी है। मुद्रा योजना में जो लोन दिया गया उससे लोग कारोबार बढ़ाते हैं। इससे बढ़ने वाले रोजगार की गणना कहीं नहीं होती है।
इसलिए रोजगार नहीं बढ़ने की बात गलत है। जरूरत रोजगार की क्वालिटी बेहतर करने की है। हमारे युवा पढ़-लिख गए हैं। उनकी आकांक्षाएं बड़ी हो गई हैं। उनके लिए अच्छी नौकरियां तेजी से बढ़ानी होंगी। नैसकॉम और इंडस्ट्री बॉडी से भी रोजगार के आंकड़े लेंगे। 2008 से मैन्युफैक्चरिंग के 8 क्षेत्रों के आंकड़े लिए जा रहे हैं। तब इसका मकसद यह जानना था कि वैश्विक मंदी का एक्सपोर्ट पर क्या असर पड़ रहा है। लेकिन इनका सैंपल साइज छोटा है। 11 हजार सैंपल से आंकड़े लिए गए थे। यह रोजगार मापने का सही आधार नहीं हो सकता। जिस अर्थव्यवस्था में 58% हिस्सा सर्विस सेक्टर का हो उसके आंकड़े रोजगार में शामिल नहीं करना गलत ही है।
रोजगार के लिए नई पॉलिसी बनानी पड़ेगी। रिटेल क्षेत्र का आधुनिकीकरण करना पड़ेगा। निर्माण क्षेत्र में तेजी लानी होगी। कृषि में खेती से लेकर एग्रो प्रोसेसिंग, डेयरी व मंडियों का आधुनिकीकरण करना होगा। एक अनुमान के मुताबिक 92 हजार करोड़ का कृषि उत्पादन बर्बाद हो जाता है। यह बर्बादी रुकेगी तो इससे भी हजारों रोजगार पैदा होंगे। एक और बात, इस समय ऑटोमेशन की लहर चल रही है। इसका नौकरियों पर असर होगा लेकिन सरकार तकनीक और रोजगार दोनों को साथ बढ़ाने के प्रयास कर रही है। हम नई तकनीक को स्वीकार न करें ऐसा नहीं हो सकता।
Date:18-05-18
Growing Cities
A fresh look at urban governance is necessary as migration from rural areas picks up pace.
EDITORIAL
Cities are economically vibrant spaces around the world and draw a large number of rural migrants looking for better prospects. This is a sustained trend, particularly in developing countries now, as production, jobs and markets get concentrated. More evidence of this comes from the UN Department of Economic and Social Affairs, which has released its 2018 Revision of the World Urbanization Prospects. Forecasting for the year 2050, the UN agency estimates that the percentage of urban residents in India would be 52.8, compared to 34 today, while Delhi would edge past Tokyo as the world’s most populous city by 2028. India, China and Nigeria are expected to lead other countries and account for 35% of the projected growth in urban population by mid-century. This forecast frames the challenge before developing countries, India in particular. Urbanisation in the country is a complex process, since it is defined not by a constant migration of rural residents but by the flow of workers, mostly men, and the expansion of big cities through the addition of neighbouring towns. Among governments there is a strong policy emphasis on improving facilities in rural areas, indicating a political preference for reduced migration to urban centres, although there is a natural economic magnetism to cities. The imperative before the Centre and State governments is to come up with policies that provide adequate services in the villages, while investing in cities to ensure that their high levels of productivity and efficiency are not compromised.
Even with only a third of the population living in cities, civic anarchy is rampant in the country. Housing deficits have led to the proliferation of slums, lack of enforcement of building norms has left the metros heavily congested, and poor investment in public transport has fuelled unsustainable levels of private vehicle use. Moreover, as recent data released by the World Health Organisation show, 14 Indian cities are among the top 20 worldwide with the worst air quality profiles for fine particulate matter of 2.5 micrometres. Most cities are also unable to collect and dispose of municipal waste scientifically, and simply dump them in the suburbs. Such a dismal scenario can only get worse with higher population concentrations, unless city governments come into their own. Even two-and-a-half decades after municipal laws were reformed, elected Mayors lack the stature and authority to introduce urgently needed reforms. Now is the time to take a fresh look at urban governance. While the Centre’s goal of homes for all by 2022 is laudable, it is unlikely to be realised without a push from the States, and the launch of schemes driven by innovation and low-cost approaches. Augmenting rental housing should be a priority within the plan. Integrating green spaces, open commons and wetlands will make cities cleaner and aesthetically richer.