19-04-2025 (Important News Clippings)

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19 Apr 2025
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Date: 19-04-25

ट्रम्प और हार्वर्ड के बीच वैचारिक स्वतंत्रता की जंग

संपादकीय

ट्रम्प ने विरोधी आवाजों को दबाने के अभियान में ‘आईवी लीग’ के प्रमुख शिक्षा संस्थानों के खिलाफ फंडिंग रोकने की प्रक्रिया शुरू की। डर के मारे कोलंबिया यूनिवर्सिटी सहित कई संस्थान सरकार के आदेशों के आगे नतमस्तक हो गए, लेकिन हार्वर्ड ने 2.3 अरब डॉलर के फंड को नकार दिया है। वैसे तो संस्थान के पास ट्रस्ट की निधि के रूप में 50 अरब डॉलर का फंड है, लेकिन वह विभिन्न उद्देश्यों के लिए है। अमेरिका ही नहीं, दुनिया में भी बौद्धिक सम्पदा के निर्माण में इस संस्थान का योगदान अप्रतिम रहा है। आईवी लीग के निजी रिसर्च – आधारित संस्थानों ने अमेरिका को 16 राष्ट्रपति (ट्रम्प को छोड़कर) दिए हैं। जेडी वेंस भी लीग के ही स्कूल से रियायती दर पर पढ़े हैं। फिर भी उन्होंने इन विश्वविद्यालयों को देश का दुश्मन बताया। ट्रम्प ने कहा था कि क्या यह उचित नहीं होगा कि हार्वर्ड का फंड रोक दिया जाए। ट्रम्प का आरोप है कि विरोधी विचारधाराओं को इन संस्थानों में प्रश्रय मिल रहा है, जिसके चलते छात्र/संकाय फिलिस्तीन का समर्थन करते पाए जाते हैं। हार्वर्ड का कहना है शिक्षण संस्थान सत्ता से आदेशित नहीं हो सकते और उन्हें वैचारिक उन्मुक्तता का माहौल देना होता है। ट्रम्प न भूलें कि दुनिया भर की शिक्षण संस्थाओं में सबसे ज्यादा नोबेल (161) हार्वर्ड के स्कॉलर्स को ही मिले हैं।


Date: 19-04-25

दोषपूर्ण न्याय

संपादकीय

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट का ताजा संस्करण अधिकांश भारतीयों के समक्ष मौजूद एक परेशान करने वाले तथ्य को सामने लाता है। वह यह कि न्याय देने की व्यवस्था ज्यादातर मामलों में नागरिकों को न्याय नहीं दिला पाती। टाटा ट्रस्ट और सामाजिक नागरिक संगठनों के एक समूह द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में राज्यों को 24 मानकों के आधार पर रैकिंग दी गई है ये मानक न्याय व्यवस्था के चार स्तंभों पुलिस, न्यायपालिका, जेल और विधिक सहायता से संबंधित हैं।

अनुमान के मुताबिक ही वह प्रदर्शन में अंतर को दिखाता है। दक्षिण भारत के राज्य चारों स्तंभों पर बेहतरीन प्रदर्शन कर रहे हैं कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु बड़े और मझोले आकार के राज्यों में शीर्ष पर हैं जबकि पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड और राजस्थान तालिका में सबसे निचले स्तर पर हैं। राज्यों की रैंकिंग से यह संकेत निकलता है कि उच्च अंक पाने वाले राज्य किफायत, संसाधन और यहां तक कि सामाजिक समता हासिल करने के मामले में आदर्श हैं। वास्तव में कोई राज्य यह दावा नहीं कर सकता है कि उसके यहां पूर्ण व्यवस्थित और सुचारु न्याय व्यवस्था है। उदाहरण के लिए कर्नाटक सबसे ऊंची रैकिंग वाला राज्य है और उसे 10 में से 6.78 अंक मिले। वह औसत से कुछ ही बेहतर प्रदर्शन है।

यकीनन पूर्वनिर्धारित मानकों के आधार पर आकलन न्याय आपूर्ति की पूरी सचाई सामने नहीं लाता है। परंतु रिपोर्ट आंशिक रूप से यह अवश्य बताती है कि आखिर क्यों न्याय देने की पूरी व्यवस्था इस कदर शिथिल है। समस्या का एक बड़ा हिस्सा है न्याय व्यवस्था के हर स्तर पर कमी उदाहरण के लिए पुलिस बलों में 23 फीसदी पद रिक्त हैं और देश के फोरेंसिक क्षेत्र में 50 फीसदी पद रिक्त हैं। यह स्थिति तब है जब 2020 से 2024 के बीच देश में फॉरेंसिक लैब की संख्या बढ़कर 94 से 110 हो गई है। यह समस्या खासी गंभीर है क्योंकि 30,000 से अधिक मामलों में फोरेंसिक विश्लेषण लंबित है।

अकेले उत्तर प्रदेश में 11,000 से अधिक मामले लंबित है। रिपोर्ट दिखाती है कि जेलों में क्षमता से अधिक यानी करीब 131 फीसदी कैदी बंद हैं। इनमें से 76 फीसदी कैदी विचाराधीन हैं। ऐसा तब है जब सर्वोच्च न्यायालय कई बार राज्यों को निर्देश दे चुका है कि वे एक खास अवधि से ज्यादा समय से जेल में बंद अंडरट्रायल कैदियों को रिहा करें जेलों में कर्मचारियों की संख्या भी काफी कम है। देश भर की जेलों में 30 फीसदी पद रिक्त हैं। न्यायपालिका की स्थिति भी इससे ज्यादा बेहतर नहीं है। रिपोर्ट बताती है कि हर 10 लाख की आबादी पर 15 न्यायाधीश है जबकि विधि आयोग के मुताबिक इतनी आबादी पर 500 न्यायाधीश होने चाहिए। विधिक सहायता के बारे में रिपोर्ट कहती है कि पैरालीगल वॉलॉटियर्स की संख्या में तेजी से कमी आई है। इससे संकेत मिलता है कि गरीब और वंचित वर्ग के भारतीयों की न्याय तक पहुंच बहुत सीमित है।

न्याय व्यवस्था संविधान में निहित सामाजिक और लैंगिक समता के उद्देश्यों पर भी भलीभांति खरी नहीं उतरती है। राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो सरकार की ओर से 33 फीसदी की अनुशंसा के बावजूद वरिष्ठ पदों पर केवल 8 फीसदी महिला अधिकारी हैं। कोई भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश पुलिस बलों में महिलाओं के लिए तय कोटे को पूरा नहीं करता। न्यायपालिका में निचले स्तर पर 38 फीसदी महिलाएं हैं जबकि उच्च न्यायालयों में 14 फीसदी महिलाएं हैं। राज्यों की बात करें तो केवल कर्नाटक की न्यायपालिका ही जातीय आरक्षण को पूरा करती है। इसके साथ ही खराब गुणवत्ता वाला प्रशिक्षण हालात को और गंभीर बनाता है। अधीनस्थ स्तर पर कानून और संविधान को लेकर पर्याप्त समझ का अभाव है। दमन और नियंत्रण की औपनिवेशिक विरासत में आबद्ध भारत को अभी भी ऐसी न्याय व्यवस्था को अपनाना है जो संवैधानिक स्वतंत्रता को बरकरार रखने के लिए लोगों की सेवा करने के उद्देश्य से संचालित हो। यह एक बड़ी चुनौती है जिसे दूर करना उतना ही आवश्यक है जितना कि संसाधनों की कमी से निपटना ।


Date: 19-04-25

पक्षपाती रवैया खत्म हो

संपादकीय

वक्फ संशोधन कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दरम्यान सरकार ने आश्वासन दिया कि सेंटर वक्फ काउंसिल और वक्फ बोर्ड में किसी गैर-मुस्लिम की नियुक्ति नहीं की जाएगी। मौजूदा वक्फ संपत्तियों पर किसी तरह की कार्रवाई न करने तथा वक्फ संशोधन कानून, 2025 के कुछ प्रावधानों पर फिलहाल अमल न करने की बात भी की। अदालत ने सरकार को जवाब देने के लिए सात दिन का वक्त दिया है। अगले आदेश तक वक्फ, जिसमें वक्फ बाय यूजर भी शामिल है, में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता । न ही संबंधित कलेक्टर इनमें कोई बदलाव करेगा। 1995 के अधिनियम के तहत जिन वक्फ संपत्तियों का पंजीकरण हुआ है, उनको अगली सुनवाई तक गैर-अनूसूचित न करने का स्पष्ट निर्देश भी दिया गया है। अदालत में वक्फ कानून की वैधता को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि जैन, सिख व अन्य अल्पसंख्यकों के धर्म पर ऐसे कानून लागू नहीं होते। जैसा कि नये कानून के अनुसार वही शख्स अपनी संपत्ति दान कर सकता है, जो कम से कम पांच साल से मुसलमान हो यानी इस्लाम अपना चुका हो। दान की जाने वाली संपत्ति का मालिकाना हक भी रखता हो । शीर्ष अदालत ने सरकार से तल्ख सवाल किया कि क्या वह हिन्दुओं के धार्मिक ट्रस्टों में मुसलमान या गैर-हिन्दुओं को शामिल करने जा रही है? इस कानून के पारित होने के बाद हुई हिंसा की भी निंदा की। हरियाणा, महाराष्ट्र, मप्र, असम, छत्तीसगढ़ व राजस्थान जैसे भाजपा शासित राज्यों में अलग-अलग याचिकाएं दायर की गई हैं। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के अनुसार वक्फ के पास देश भर में 8.7 लाख संपत्तियां हैं जिनकी अनुमानित कीमत 1.2 लाख करोड़ रुपये है। कोई भी चल/अचल संपत्ति वक्फ होती है, जिसे अल्लाह के नाम पर मुसलमान धार्मिक या परोपकार के मकसद से दान करता है। अल्लाह ही हमेशा उसका मालिक होता है। इस तरह का चलन मंदिरों से लेकर अन्य धर्मों में भी है। मंदिरों के पास बगैर कागजात वाली संपत्ति कम नहीं हैं। इसलिए सरकार को कानून बनाते हुए सभी धार्मिक स्थलों के अधिकार क्षेत्र वाली चल/अचल संपत्ति पर यह कानून लागू करना चाहिए था । पूर्वाग्रहों से भरे पक्षपात करने वाली मोदी सरकार को इससे बचना चाहिए था । वक्फ की आड़ में संप्रदाय विशेष को लेकर टिप्पणियां या नया कानून बनाने की जल्दबाजी देश की अखंडता पर प्रहार कर सकती है।


Date: 19-04-25

राजनीति नहीं सशक्तिकरण

हर्ष रंजन

वर्ष 2014 में पदभार ग्रहण करने के बाद से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने समावेश, सम्मान और सभी के लिए विकास के मंत्र के साथ शासन को गति दी है। अल्पसंख्यक कल्याण के प्रति उनके प्रशासन की नीतियां इस दर्शन को केवल शब्दों में ही नहीं, बल्कि परिवर्तनकारी कार्यों में भी रेखांकित करती हैं। लेकिन मोदी सरकार भारत के अल्पसंख्यक समुदायों विशेष रूप से मुसलमानों को सशक्त बनाने के लिए अथक प्रयास करती है तो कुछ निहित स्वार्थी तत्व जनता को गुमराह करने और बहुत जरूरी सुधारों में बाधा डालने का प्रयास करते हैं। हाल के वर्षों में सरकार ने समाज के सभी वर्गों के उत्थान के लिए कई ऐतिहासिक पहल और योजनाएं शुरू की हैं, जिनमें बाल विकास, महिला सशक्तिकरण, वृद्धावस्था सुरक्षा, वित्तीय समावेशन, अंतिम व्यक्ति तक परिवहन व संचार संपर्क, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास जैसे क्षेत्रों के लिए विशेष केंद्रित प्रयास शामिल हैं। पोषण अभियान, पीएम आवास योजना, समग्र शिक्षा अभियान, पीएम मुद्रा योजना और जल जीवन मिशन जैसे कार्यक्रम इस समावेशी मॉडल के उदाहरण हैं, जो सार्वभौमिक और न्यायसंगत व्यवस्था के माध्यम से अल्पसंख्यकों सहित उन लोगों को समग्र सहायता प्रदान करते हैं, जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।

वक्फ अधिनियम में सुधार के लिए सरकार का हालिया कदम भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जो लंबे समय से लंबित था। मुस्लिम समुदाय के कल्याण के उद्देश्य के लिए बनाई गई वक्फ संपत्तियों में दशकों से जवाबदेही की कमी और अपारदर्शी प्रबंधन मौजूद है। नये संशोधन नियामक निरीक्षण, निष्पक्षता और पारदर्शिता लाकर इसे ठीक करने का प्रयास करते हैं। दुर्भाग्य से, इसने उन लोगों के सुनियोजित विरोध को जन्म दिया है, जो कभी यथास्थिति से लाभान्वित होते थे। उनकी बेचैनी समझी जा सकती है; लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि विपक्ष किस तरह सांप्रदायिक बयानबाजी में उलझा रहता है और सरकार द्वारा जनता के हित में किए जा रहे ठोस प्रयासों को आसानी से नजरअंदाज कर देता है।

सरकार की गहरी प्रतिबद्धता को समझने के लिए 2025 की आगामी हज यात्रा के लिए सरकार के व्यावहारिक दृष्टिकोण को देखना ही काफी है। प्रधानमंत्री मोदी के दूरदर्शी नेतृत्व और केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्री किरेन रिजिजू के समर्पित प्रयासों के तहत सऊदी अरब में भारतीय तीर्थयात्रियों के लिए सम्मानजनक और निर्बाध व्यवस्था सुनिश्चित की जा रही है। कुछ ही सप्ताह पहले रिजिजू ने भारतीय तीर्थयात्रियों के लिए सम्मानजनक व्यवस्थाओं का व्यक्तिगत रूप से निरीक्षण करने और इसे सुनिश्चित करने के लिए सऊदी अरब का दौरा किया था।

यह दिखावा नहीं है। यह ऐसी सरकार का स्पष्ट प्रतिबिंब है, जो दिखावे से ज्यादा गरिमा को महत्त्व देती है। बहुत कम पिछली सरकारों ने ऐसे आध्यात्मिक महत्त्व के मामले में भारतीय मुसलमानों के लिए इस स्तर की भागीदारी और देखभाल का प्रदर्शन किया है। इतना ही नहीं, पारदर्शिता, निष्पक्षता और समान अवसर को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने हज 2023 से 500 सीटों के विवेकाधीन हज कोटे को समाप्त कर दिया है। यह कोटा, जो पहले मंत्रियों, राजनयिकों और नौकरशाहों सहित वीआईपी के लिए आरक्षित था, अक्सर पवित्र तीर्थयात्रा प्रक्रिया में विशेषाधिकार और पक्षपात की प्रतीक थी। इसे समाप्त करके, सरकार ने कड़ा संदेश दिया हैः आम मुसलमानों का कल्याण और अधिकार मायने रखते हैं। यह सुधार केवल प्रशासनिक नहीं है। यह दृष्टिकोण में बदलाव है, संरक्षण की राजनीति से जनता के सशक्तिकरण की ओर कदम है। इसके अलावा, अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय, भारतीय हज समिति के माध्यम से मुख्य कोटे के तहत चालू वर्ष में 122,518 तीर्थयात्रियों की व्यवस्था का प्रबंधन कर रहा है। सऊदी दिशा-निर्देशों के अनुसार सभी आवश्यक तैयारियां पूरी कर ली गई हैं।

लोकतंत्र में रचनात्मक आलोचना बहुत जरूरी है। लेकिन राजनीतिक प्रभाव खोने के डर से सरकार के संतृप्ति आधारित, समावेशी विकास दृष्टिकोण को तथ्यों के आधार पर पेश करने की बजाय गलत तरीके से पेश करना, उन समुदायों के लिए नुकसानदेह है, जिनका प्रतिनिधित्व करने का दावा आलोचक करते हैं। समय आ गया है कि चर्चा को राजनीतिक दिखावे से अलग करके जन कल्याण की ओर मोड़ दिया जाए। हमें भ्रामक आख्यानों को वास्तविक प्रगति पर हावी नहीं होने देना चाहिए। वक्फ सुधार कोई हमला नहीं है, बल्कि उन्नयन है। पंद्रह सूत्री कार्यक्रम का पुनर्मूल्यांकन उपेक्षा के बारे में नहीं है, बल्कि तरीकों के सुधार से संबंधित है। सरकार की बजटीय प्राथमिकताएं विकसित भारत तथा विकसित, समावेशी और दूरदर्शी भारत के दृष्टिकोण के प्रति स्पष्ट और निरंतर प्रतिबद्धता को दर्शाती हैं।

नया वक्फ अधिनियम किसी के राजनीतिक या व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं बनाया गया है; इसका उद्देश्य आम मुसलमानों के व्यापक हितों की सेवा करना है। फिर भी, कुछ चुनिंदा समूह गलत धारणा फैला रहे हैं कि इस अधिनियम का उद्देश्य मुस्लिम संपत्तियों को जब्त करना है। ये समूह तथ्यों और आंकड़ों से कतराते हैं। वे वक्फ संपत्ति की आय में लगातार गिरावट को संबोधित करने में विफल रहे हैं, या स्वीकार करना नहीं चाहते कि वक्फ संपत्ति का क्षेत्रफल 2013 के 17 लाख एकड़ से बढ़ कर आज 39 लाख एकड़ हो गया है।

भारत का मुस्लिम समुदाय ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। एक रास्ता अपारदर्शी नेतृत्व और पुरानी व्यवस्था की ओर ले जाता है। दूसरा रास्ता उनके कल्याण के लिए पारदर्शी तरीके से काम करने वाली सरकार के साथ हाथ मिला कर आगे बढ़ने का है। ईमानदारी के संकेत हमारे चारों ओर हैं, नीति में, कार्य प्रदर्शन में और सभी तक पहुंच में अब विकल्प समुदाय के पास है जुड़ना, बढ़ना तथा विश्वास, सच्चाई और परिवर्तन के साथ अपने भविष्य को नया आकार देना ।


Date: 19-04-25

इंसाफ और सियासत

संपादकीय

सर्वोच्च न्यायालय में जब बड़े मामले लंबित हों, तो विभिन्न दिशाओं से दबाव पड़ना स्वाभाविक ही है। लोकतंत्र में अनेक अवसर ऐसे आते हैं, जब उसके प्रमुख स्तंभों के बीच कुछ खींचतान की स्थिति बन जाती है। गौर करने की बात है कि तमिलनाडु के राज्यपाल संबंधी मामले में शीर्ष न्यायालय का फैसला चर्चा में है। ऐसे में, देश के उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ पर ध्यान जाना अचरज की बात नहीं है। उप राष्ट्रपति ने शीर्ष न्यायालय पर निशाना साधते हुए कहा था कि वह ‘सुपर संसद’ नहीं बन सकता और भारत के राष्ट्रपति को निर्देश देना शुरू नहीं कर सकता। आम तौर पर उप-राष्ट्रपति को ऐसे मामलों में बोलते नहीं देखा गया है, अतः इसका महत्व ज्यादा बढ़ जाता है। उप राष्ट्रपति ने एक कार्यक्रम के दौरान अपने उद्बोधन में यह भी कहा कि कुछ न्यायाधीश कानून बना रहे हैं, कार्यकारी की तरह काम कर रहे हैं। वास्तव में, यह टिप्पणी विचारणीय है और इसके निहितार्थ व्यापक हैं। ऐसा लगता है कि ताजा शिकायत केवल तमिलनाडु से संबंधित नहीं है, बल्कि वक्फ बोर्ड संबंधी कानून का भी असर होता लगता है।

किसी भी लोकतंत्र में ऐसे तनाव का होना विचार-विमर्श को तेज कर देता है और इससे व्यवस्था में संतुलन की स्थिति बनती है। न्यायपालिका और विधायिका के बीच खींचतान का यह कोई पहला अवसर नहीं है। जब विधायिका और कार्यपालिका को न्यायालय के किसी फैसले से तकलीफ होती है, तब ऐसे उद्गार सामने आते हैं। बहरहाल, उप-राष्ट्रपति के उद्बोधन का जवाब वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने दिया है। वैसे, यह भी कोई सराहनीय बात नहीं है। सिब्बल को अनेक मामलों में सरकार के खिलाफ पैरोकारी करते देखा जाता है और वह संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अपने अधिकार का उपयोग करते हैं। इसी अधिकार से उन्होंने परोक्ष रूप से सर्वोच्च न्यायालय का पक्ष लिया है और उप-राष्ट्रपति की टिप्पणी की निंदा करते हुए कहा है कि उप- राष्ट्रपति को पता होना चाहिए कि राज्यपाल व राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सहायता व सलाह पर ही काम करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि राज्यपाल द्वारा विधेयकों को रोकना वास्तव में विधायिका की सर्वोच्चता में दखलंदाजी है। निस्संदेह, कुछ राजभवनों से राजनीति का सिलसिला पुराना है और ऐसे विवादों को मिल-जुलकर समझदारी से सुलझाना चाहिए। वैसे भी ऐसे विवाद ज्यादा टिकते नहीं हैं। राज्यपाल किसी भी पारित विधेयक को एक समय तक ही अपने पास रोक पाता है। यह बात राज्यपालों को भी पता है कि अगर वह किसी विधेयक को जरूरत से ज्यादा रोकेंगे, तो अप्रिय विवाद से उनकी छवि खराब होगी। जिन-जिन राज्यपालों ने राज्य सरकार के काम में ज्यादा हस्तक्षेप करने की कोशिश की है, वे बदनाम भी बहुत हुए हैं। अतः उस राह पर न जाना बेहतर है।

बेशक, अपने देश में अनेक ऐसे बड़े वकील हैं, जिन्हें लगता है कि न्यायपालिकाको प्रभावित कर सकते हैं। राजनीतिक पृष्ठभूमि भी ऐसे वकीलों को कुछ ज्यादा ही मजबूती देने लगती है। इंसाफ की कोशिश और सियासत के बीच दूरियां मिटने लगती हैं। सही इंसाफ के लिए सियासत को परे रखना जरूरी होता है। तमिलनाडु के राज्यपाल का मामला हो या वक्फ बोर्ड कानून का, दोनों ही मोर्चों पर न्यायालय पर सबकी निगाहें हैं। सियासत से प्रभावित हुए बिना शुद्ध संविधान की पृष्ठभूमि में हुआ फैसला ही ऐसे विवादों का पटाक्षेप कर सकेगा। देश के आम नागरिकों के लिए सियासत से ज्यादा इंसाफ जरूरी है।