19-04-2019 (Important News Clippings)

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19 Apr 2019
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Date:19-04-19

भारत को विकसित देशों में डालने की अमेरिकी अपील

संपादकीय

एक अहम खबर चुनाव के शोरगुल में गुम हो गई। अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में अपील की है कि अब भारत को विकासशील देशों की सूची से निकालकर विकसित देशों की सूची में डाल देना चाहिए। वैसे तो यह खबर अच्छी दिखाई पड़ती है, लेकिन इसके पीछे अमेरिका की मंशा कतई अच्छी नहीं है। उसने चीन को भी विकसित देशों में शामिल करने को कहा है। उसका तर्क है कि इन दोनों ही देशों की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और उनकी सामाजिक स्थिति में भी काफी बदलाव आ गया है। असल में दुनिया में प्रचलित अवधारणा के मुताबिक जिन देशों का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), प्रति व्यक्ति आय बेहतर होती है, औद्योगीकरण हो चुका होता है, जीवन-शिक्षा का स्तर उच्च श्रेणी का होता है, उन्हें विकसित माना जाता है। इसके सिवाय तकनीकी विकास, आय का समान वितरण और औद्योगिक विकास अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार होने पर देश को विकसित माना जाता है। ये भी माना जाता है कि उच्च शिक्षित होने की वजह से विकसित देशों के नागरिक ज्यादा तार्किक होते हैं। सभी पैमानों पर भारत काफी पिछड़ा हुआ है। हमारे देश में बड़ी आबादी अभी भी पेयजल, शौचालय, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं, गरीबी, कुपोषण, प्राथमिक शिक्षा और पक्की सड़कों जैसी आधारभूत जरूरतों के लिए परेशान है। हां, चीन की बात अलग है। भारत की प्रति व्यक्ति आय चीन की प्रति व्यक्ति आय के पांचवें हिस्से के बराबर ही है। एक अनुमान के मुताबिक उसका प्रति व्यक्ति जीडीपी भी 10 हजार डॉलर का स्तर पार कर चुका है। फिर भी चीन चाहता है कि उसे विकासशील देशों में ही रखा जाए, क्योंकि ऐसे देशों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विशेष लाभ मिलते हैं। मसलन, उन्हें डब्ल्यूटीओ के लक्ष्य पाने के लिए अतिरिक्त समय मिलता है। विकासशील देश 10 फीसदी तक खाद्य सब्सिडी दे सकते हैं, जबकि विकसित देश सिर्फ 5 फीसदी। विकासशील देश उत्पादों एवं सेवाओं पर 2023 तक सब्सिडी दे सकते हैं। ऐसी सुविधाओं से ही विकासशील देश ताकत जुटाकर अपनी दुश्वारियों से लड़ते हैं। ये सुविधाएं वक्त से पहले छीनना, इनके विकास पर गैर-जरूरी दुर्भाग्यपूर्ण रोक लगाने जैसा है। भारत को अभी इन सुविधाओं की जरूरत है, यह कहने की जरूरत नहीं है। किंतु ‘अमेरिका फर्स्ट’ के चश्मे से ये बातें नहीं दिखतीं।


Date:19-04-19

मोदी की विदेश नीति क्या खोया क्या पाया ?

आम चुनाव में कुछ ही दिन बचे हैं। ऐसे में मोदी सरकार की विदेश नीति की सफलता और उसकी नाकामी के बारे में विस्तार से जानकारी प्रदान कर रहे हैं

श्याम सरन, (लेखक पूर्व विदेश सचिव और सीपीआर के वरिष्ठ फेलो हैं।)

देश इस समय उन्मत्त चुनावी कवायद में उलझा हुआ है लेकिन विदेश नीति एक ऐसा विषय है जो शायद ही कभी मतदाताओं की कल्पनाशीलता को जगाता हो। पाकिस्तान के साथ रिश्तों की बात अपवाद अवश्य हो सकती है लेकिन अतीत में कभी भी यह साबित नहीं हुआ है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर भी वोट जुटाया जा सकते हैं। यही बात बालाकोट घटना पर भी लागू होती है जहां सत्ताधारी दल ने घटना को गहरे राष्ट्रवादी रंग में रंगने की कोशिश की लेकिन वह बहुत तेजी से फीका पड़ रहा है। पहले कुछ अन्य चुनावों की तरह ही इस बार भी चुनाव प्राथमिक तौर पर घरेलू मुद्दों से ही निर्धारित होंगे। हालांकि विदेश नीति भी चर्चा का विषय है। विदेशी नीति के मुद्दों को लेकर पार्टियों का रुख अलग-अलग हो सकता है। नेतृत्व शैली अलग हो सकती है और अतीत से कुछ अलग रुख देखने को मिल सकता है। परंतु देश के बाहरी रिश्तों में मोदी के पिछले पांच साल के कार्यकाल में कोई व्यापक बदलाव नहीं आया है। आने वाली सरकार चाहे जिस राजनीतिक विचारधारा की हो, उनमें आने वाले समय में भी कोई बदलाव आता नहीं दिखता।

सवाल यह है कि विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी सरकार के प्रदर्शन को किस प्रकार आंका जाए? यहां तीन अलग-अलग विशेषताएं हैं जो दिमाग में आती हैं। पहली बात, मोदी ने व्यक्तिगत कूटनीति के मूल्य में बहुत अधिक यकीन दिखाया है और तमाम मुद्दों को हल करने में उन्होंने नेताओं के बीच व्यक्तिगत संपर्क को तवज्जो दी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ उनके रिश्तों ने भारत और अमेरिका के रिश्तों को मजबूत करने और उन्हें विस्तार देने में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मोदी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे के बीच जो सकारात्मक और सुस्पष्ट रिश्ता है, उसने दोनों देशों के रिश्तों को अप्रत्याशित ऊंचाई प्रदान की है। परंतु यह दलील दी जा सकती है कि मोदी उन अहम कारकों का फायदा उठा रहे थे जो पहले ही अमेरिका और जापान को भारत के करीब ला रहे थे। चीन का उभार भी इसमें एक प्रमुख कारकथा। मोदी को ट्रंप और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ रिश्तों में कोई बहुत अधिक कामयाबी नहीं मिली। मिसाल के तौर पर गत वर्ष जून में वुहान शिखर बैठक में भी चीन ने भारत की वास्तविक चिंताओं को कुछ खास तवज्जो नहीं दी। अगर रिश्तों को सकारात्मक दिशा में ले जाने वाले कुछ कारक पहले से मौजूद हों तो व्यक्तिगत कूटनीति एक अतिरिक्त कारक साबित हो सकती है। परंतु नकारात्मक तत्वों के दौर में इनका प्रभाव कमतर साबित होता है। अगर नेताओं के प्रगाढ़ रिश्तों के बावजूद बाद में उचित फॉलोअप न लिया जाए तो रिश्ते कमजोर साबित होते हैं। हमारे देश में यह कमजोरी निरंतर बनी हुई है।

दूसरा, मोदी ने विदेश नीति में प्रवासी भारतीयों का कदम मजबूत किया है। उन्होंने पिछली सरकारों से ज्यादा पहल की हैं। उन्होंने कई देशों के भारतीय समुदायों तक पहुंच बनाई और अपना घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कद मजबूत किया। इसका फायदा भाजपा को राजनीतिक फंडिंग के रूप में मिला और मोदी की छवि मजबूत हुई परंतु देश के विकास में प्रवासियों के योगदान में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई। इसके उलट चीन के प्रवासी समुदाय ने अपने देश के लिए काफी कुछ किया है। राष्ट्रीय नजरिये से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि समय और ऊर्जा की जो खपत की गई, क्या वह उपयोगी साबित हुई?

तीसरा, मोदी हाल के वर्षों में पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने खुले दिल से विदेशी निवेश का स्वागत किया है। अपनी हर विदेशी यात्रा में उन्होंने विदेशी पूंजी जुटाने की बात कही। उन्हें इसका श्रेय मिलना चाहिए। यह अलग बात है कि भारतीय बाजार में संभावित विदेशी निवेशकों के लिए चुनौती बरकरार है। सच तो यह है कि भारतीय निवेशक अपने ही देश में निवेश के इच्छुक नहीं दिख रहे। यह कोई अच्छा संकेत नहीं है। नियामकीय और कर संबंधी मुद्दे भी हैं। अहम बात यह है कि नीतिगत अनिश्चितता के बीच प्रधानमंत्री के सकारात्मक संदेश के बावजूद ये चिंताएं कम नहीं हो रहीं। आर्थिक कूटनीति इस सरकार की प्राथमिकता रही है लेकिन नतीजे बहुत सकारात्मक नहीं रहे हैं। इससे लगता है कि ढांचागत और संचालन संबंधी मुद्दों को जल्द हल करने की आवश्यकता है।

चौथा, खाड़ी और पश्चिम एशिया में तेजी से बदली जटिल परिस्थितियों का प्रबंधन करने में हमें कामयाबी मिली है। मोदी सरकार एक ओर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात तो दूसरी ओर ईरान के साथ अपने रिश्ते मजबूत करने में लगातार कामयाब रही है। इजरायल के साथ भी हमारे रिश्ते अच्छे हैं। इससे न केवल देश को ऊर्जा सुरक्षा हासिल हुई है बल्कि आतंकवाद के खिलाफ नए सहयोगी भी मिले हैं। उसने ईरान और सीरिया के प्रति नीति बदलने के अमेरिकी दबाव को भी धता बताया। यह पिछली सरकारों का भी लक्ष्य था लेकिन ऐसी कूटनीति पहले देखने को नहीं मिली।

हालांकि मोदी की पाकिस्तान नीति ने देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिचक में डाल दिया। पाकिस्तान को घरेलू राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिश ने विदेश नीति को नुकसान पहुंचाया और समाज में सांप्रदायिक भेदभाव को बढ़ावा दिया। हम पाकिस्तान से इसलिए नहीं निपट पा रहे हैं क्योंकि इसके पीछे घरेलू राजनीतिक कारण हैं। हमारी मानसिकता में पाकिस्तान ने इतना स्थान घेर रखा है कि हम अन्य पड़ोसियों के बारे में नहीं सोच पा रहे हैं। चीन ने हमारे पड़ोस में कहीं अधिक गहरी पकड़ बना ली है। इसके अलावा पाकिस्तान के प्रति बढ़ते शत्रु भाव और तनाव के कारण भारत अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप को लेकर भी संवेदनशील हो गया है। जम्मू और कश्मीर का कुप्रबंधन, सामान्य कश्मीरियों में पाकिस्तान के समर्थन में सहानुभूति की भावना आदि ने पाकिस्तान के साथ रिश्तों को खतरनाक स्तर पर पहुंचा दिया है। अगर हम भारतीय उपमहाद्वीप में यूं ही उलझे रहे तो हमारे मजबूत क्षेत्रीय और वैश्विक कद पर असर होगा। बीते 70 वर्ष से अधिक समय में भारत ने एक जीवंत लोकतंत्र के रूप में जबरदस्त अंतरराष्ट्रीय पूंजी जुटाई है। इसकी मदद से ही विविधतापूर्ण आबादी वाला हमारा देश एकजुट रहा और असहमति और बहस का उत्सव मनाता रहा है। एक और आम चुनाव देश की लोकतांत्रिक पहचान की मजबूती का प्रतीक है लेकिन मौजूदा राजनीतिक बहस इसका परिचय नहीं देती। देश की विशिष्टता को जोखिम उत्पन्न हो रहा है। बहुलतावादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश की पहचान को खतरा है। इस मायने में मोदी सरकार काफी हद तक विफल रही है।


Date:18-04-19

सवालों के घेरे में श्रम सुधार

भारत डोगरा

हाल के समय में अनेक श्रमिक व श्रमिक संगठन अनेक सवालों व समस्याओं से घिरे रहे हैं। जहां एक ओर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को अधिक बेरोजगारी झेलनी पड़ी है, वहां दूसरी ओर संगठित क्षेत्र में भी स्थाई मजदूरों के स्थान पर ठेका मजदूरों का प्रतिशत बढ़ने से इस क्षेत्र में भी परेशानी है। उद्योगों के वार्षिक सव्रेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि उद्योगों में उत्पादकता बढ़ने के बावजूद कामगारों के लाभ में कम वृद्धि हुई है। 1980 के दशक के आरंभिक दौर में मजदूरी का हिस्सा 30 प्रतिशत था व मुनाफे का हिस्सा 20 प्रतिशत था, 1990 के दशक के बाद में यह हिस्से बदल गए।

हाल के समय में नेट मूल्य वृद्धि में मुनाफे का हिस्सा 50 प्रतिशत से ज्यादा हो गया व वर्ष 2007-08 में अपने चरम पर पहुंचते हुए 60 प्रतिशत का आंकड़ा भी पार कर गया। वित्तीय संकट के बाद यह कुछ कम होने पर भी संगठित उद्योग (मैनुफैक्चिरिंग) में यह नेट मृल्य वृद्धि के 50 प्रतिशत से अधिक बना रहा है। इसी समय के दौरान मूल्य वृद्धि में मजदूरी का हिस्सा कम होकर 10 प्रतिशत हो गया व हाल के वर्षो में इसके आसपास ही बना रहा है। इस शताब्दी के आरंभ से रोजगार प्राप्त कर रहे मजदूरों में ठेका मजदूरों का हिस्सा 20 प्रतिशत से कम था, पर एक दशक में यह एक-तिहाई से भी अधिक हो गया। ठेका मजदूरों की कार्य अवधि असुरक्षित होती है, उन्हें कम मजदूरी मिलती है व उन्हें सामाजिक सुरक्षा के लाभ नहीं मिलते हैं। संगठित क्षेत्र में 1980 के दशक में कामगारों की मजदूरी व प्रबंधकों के वेतन एक साथ बढ़ रहे थे, 1990 के दशक के आरंभिक दौर से उनकी दूरी बढ़ने लगी व यह तब से बढ़ती ही रही है। इसके नवीनतम आंकड़े वर्ष 2012 तक उपलब्ध हैं। इस वर्ष तक प्रबंधकों के वेतन 10 गुणा से भी अधिक बढ़ गए पर कामगारों की मजदूरी 4 गुणा से भी कम बढ़ी। भारत के आर्थिक सव्रेक्षण 2017 में स्वीकार किया गया, भारत अपनी बढ़ती हुई श्रम शक्ति की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बहुत कम रोजगार का सृजन कर पाता है, व इस कारण अनेक व्यक्ति कामगार शक्ति से बाहर रह जाते हैं, अनेकों को अर्ध या अल्प रोजगार मिलता है व अनेक को बहुत कम मजदूरी या आय मिलती है। श्रम-सुधारों के नाम पर लगभग 44 श्रम कानूनों को 4 श्रम कोड में एकत्र किया जा रहा है। इन कोड का हाल में श्रमिक मामलों के जानकार ने अध्ययन किया है। उनका निष्कर्ष है कि हालांकि यह श्रम कानूनों को सरलीकृत व सुगठित करने के नाम पर किया जा रहा है, पर इसके बारे में अनेक सवाल उठते रहते हैं कि इससे मजदूरों के अनेक वर्षो के संघर्षो से प्राप्त किए गए अधिकार कम हो सकते हैं व श्रम संगठन/ट्रेड यूनियन पहले से कमजोर पड़ सकते हैं। हालांकि इसके बारे में अभी अंतिम फैसला बाकी है और अभी चार श्रम कोड के प्रारूप ही उपलब्ध हैं, अंतिम कानून नहीं बना है। फिर भी इन कोड के प्रारूप पर जो र्चचा अभी तक हुई है, उसमें श्रमिकों और श्रमिक संगठनों की कई गंभीर शंकाएं सामने आई हैं। हकीकत यह रही है कि जब मजदूर समर्थक कानून मौजूद होते हैं तब भी शक्ति संतुलन देखते हुए मजदूरों के लिए न्याय प्राप्त करना प्राय: बहुत कठिन होता है। तिस पर यदि कानूनों को ही कमजोर कर दिया जाए तो मजदूरों के लिए न्याय प्राप्त करना और कठिन हो जाएगा। एक अन्य समस्या यह खड़ी है कि अनेक श्रम कानूनों का दायरा पहले से कम कर दिया गया है, जिससे बहुत कम मजदूर उसके दायरे में आते हैं।

प्रस्तावित कोड जिस दिशा में जा रहे हैं, उसी तरह के कुछ संशोधन भी श्रम कानूनों में होने लगे हैं। बहुत संघर्ष के बाद संगठित क्षेत्र के कुछ मजदूरों जैसे कि निर्माण मजदूरों व रेहड़ी-पटरी वालों के लिए जो काूनन बनाए गए थे, उनका क्रियान्वयन भी अभी तक ठीक से नहीं हो सका है। इन कानूनों में जो संभावनाएं निहित थीं, उसका बहुत कम लाभ ही इन मेहनतकशों को मिल सका है। इतना ही नहीं, निर्माण मजदूरों के कानून के लिए कुछ नई अनिश्चित स्थितियां भी उत्पन्न हो गई हैं। इसके अतिरिक्त विमुद्रीकरण जैसे फैसलों से भी श्रमिक वर्ग को बहुत क्षति उठानी पड़ी है। इन सब स्थितियों को देखते हुए यह बहुत जरूरी है कि चुनाव बाद जिसकी भी सरकार बने वह श्रमिकों की समस्याओं व सवालों को सुलझाने पर सहानुभूतिपूर्ण रुख अपनाए। जो भी प्रस्तावित श्रम सुधार है, वे वास्तव में मजदूरों की बेहतरी के लिए होने चाहिए। शक्ति संतुलन तो वैसे ही मजदूरों के विरुद्ध है, कम-से-कम कानून का सहारा मजदूरों को मिलना चाहिए।


Date:18-04-19

केंद्र को ‘सुप्रीम’ नोटिस

संपादकीय

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मस्जिदों में मुस्लिम महिलाओं को नमाज पढ़ने की इजाजत के लिए दायर याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी किए जाने के बाद देश भर में इस पर उसी तरह व्यापक बहस की संभावना बन गई है जैसे तीन तलाक के संदर्भ में कायम हुई थी। पुणो निवासी एक दंपति ने अपनी याचिका में लिंग भेद के विरुद्ध संविधान का हवाला देते हुए याचिका दायर किया है। हालांकि कई मुस्लिम नेता सामने आ गए हैं, जो कह रहे हैं कि इस तरह का प्रतिबंध नहीं है, पर व्यवहार में यह साफ दिखता है। याचिका दायर करने वाले जुबैर ने कहा कि चार वर्ष पहले उसने अपने मोहल्ले की मस्जिद में महिलाओं को प्रवेश की इजाजत के लिए आवेदन किया किंतु मस्जिद ने अनुरोध खारिज कर दिया। यही स्थिति देश भर में है। कुछ जगह महिलाएं अगर मस्जिद में जातीं हैं तो उन्हें बिल्कुल अलग रहना पड़ता है। याचिका में कहा गया है कि गरिमा के साथ जीना और समता सबसे अधिक पवित्र मौलिक अधिकार है और किसी भी मुस्लिम महिला के मस्जिद में प्रवेश पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। हालांकि पीठ की इस टिप्पणी से सहमत होना कठिन है कि सबरीमाला मामले में फैसले की वजह से ही इसकी सुनवाई होगी। दो-चार मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी और सभी मस्जिदों में पाबंदी में अंतर है। वस्तुत: इस मामले की अलग से इस आलोक में सुनवाई होनी चाहिए कि क्या इस्लाम में ऐसी कोई पाबंदी है? शीर्ष अदालत फैसला दे चुका है कि मस्जिद इस्लाम का अंग नहीं है और नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद की जरूरत नहीं। बावजूद व्यवहार में अगर मुस्लिम समुदाय मस्जिद को नमाज अदा करने का स्थान मानता है तो यह केवल पुरुषों के लिए कैसे हो सकता है?

याचिकाकर्ताओं की ओर से ही न्यायालय के पूछने पर बताया गया कि मुस्लिम महिलाओं को पवित्र मक्का की मस्जिद में भी प्रवेश की अनुमति है। पीठ ने याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ता से यह सवाल भी किया कि क्या आप संविधान के अनुच्छेद 14 का सहारा लेकर दूसरे व्यक्ति से समानता के व्यवहार का दावा कर सकते हैं? अनुच्छेद 14 व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता का अधिकार देता है। इसके जवाब में कहा गया कि भारत में मस्जिदों को सरकार से लाभ और अनुदान मिलते हैं। इसी आधार पर न्यायालय ने केंद्र को नोटिस जारी किया है। हम मानते हैं कि यह केवल सरकार के स्तर का मामला नहीं है। मुस्लिम समुदाय के अलग-अलग जो शीर्ष संगठन हैं, उनका मत भी जानना चाहिए।


Date:18-04-19

Closing The Gender Gap

Seriousness about Women’s Reservation Bill must show in electoral representation

Angellica Aribam, [The writer is a political activist and former national general secretary of NSUI]

Political parties have once again promised to pass the Women’s Reservation Bill in their manifestos. However, with the release of each party’s candidates’ list, one can’t help but notice the lack of women candidates fielded by the national parties. As of April 3, 2019, the Congress and the Bharatiya Janata Party have given tickets to women on 13.7 per cent and 12 per cent seats respectively. Notably, regional parties outdid these national parties, with Trinamool Congress fielding women in more than 40 per cent seats and the Biju Janata Dal followed close with 33.3 per cent seats for women. This raises the question: If political parties are serious about the Women’s Reservation Bill, then why not begin by giving tickets to more women? As a staunch feminist who has been advocating for more representation of women in politics for years now, I have had multiple variations of this question posed to me in the last few days.

India currently has 11.8 per cent women in Parliament, and the number is even more dismal in the state assemblies. Globally, in the last two decades, more than 100 countries have introduced affirmative action policies for women in politics after the World Conference for Women, held in Beijing in 1995. The exact goal of a gender quota is to ensure more representation of women in parliaments and state legislative bodies. There are three forms of gender quotas which are widely implemented across the world: a) Fixed reserved seats, b) electoral quota on rotational basis, c) voluntary political party quota. The Women’s Reservation Bill comes under the second category where 33 per cent of the seats would be reserved for women on a rotational basis. This would ensure that there are at least 33 per cent women MPs and MLAs in Parliament and legislative assemblies.

On the other hand, the voluntary political party quota model does not usually end up in more representation of women. Countries in Latin America, Africa and Europe which have adopted this policy widely have less than 20 per cent women in their parliaments. This is primarily because political parties generally tend to field women candidates in non-winnable seats, merely to fulfil the quota requirements. Often in these seats, women have no level-playing field. Studies have revealed that women candidates tend to receive less funds from donors when contesting against male candidates. Due to the entrenched patriarchy, women candidates are also considered to be less capable than their male counterparts by the voters. These combined factors result in unfulfillment of the end goal of greater representation for women. Closer home, in the NSUI, the students’ wing of the Indian National Congress, of which I was a national office bearer for five years, there is gender quota for the internal elections for party positions. We often found it difficult to fill all the seats reserved for women. This was not because young women are not interested in politics, but because of the challenges that are associated with contesting an election.

The gender quotas need to be supplemented with capacity building. Political parties have a greater incentive in nurturing women leadership when it becomes an obligation to field women as candidates. This is what happened in Rwanda. In the 1990s, women made up just 18 per cent of the parliament. A constitutional legislation was brought about in 2003 to mandate 30 per cent reservation for women in elected positions. In the elections held in the same year, nearly 50 per cent women made it to the Rwandan parliament. In the subsequent elections of 2008 and 2013, the number of women parliamentarians have jumped from 56 per cent to 64 per cent, making it the highest in the world.

In the light of data from various countries and lived experiences, it becomes imperative that the Women’s Reservation Bill be passed. This Constitutional Amendment would act as an outside intervention to political parties, resulting in striving for gender parity within the system. It should also be mentioned here that India made a turning point in its gender representation at the grass roots level after the 73rd and 74th amendment. The representation at the local bodies grew from a mere 3-4 per cent to 43 per cent. This massive growth would not have been possible if it were just an intra-party reservation for women. Indian democracy is in dire need of an exponential rise in representation of women in legislative bodies. Voluntary political party quotas are mere optics which might not lead to increasing representation at all. Whereas, enacting the Women’s Reservation Bill is the surest way of immediately achieving at least 33 per cent representation. It’s 2019 — if not now, then when?


Date:18-04-19

A crisis of credibility?

While nothing bars the EC from asserting its authority, it still needs institutional safeguards to protect its autonomy

S.Y. Quraishi, [The writer is a former Chief Election Commissioner of India]

The Election Commission of India (EC) is a formidable institution which has led the world in electoral efficiency since its inception. But in the 2019 general election, it has come under the scanner like never before in the wake of incidents involving a breach of the Model Code of Conduct, particularly those by the ruling party. On April 8, in a letter to the President of India, a group of retired bureaucrats and diplomats, in the context of recent incidents, expressed concern over the EC’s “weak kneed conduct” and the institution “suffering from a crisis of credibility today”.

Points of concern

The letter described the Prime Minister’s March 27 announcement, of India’s first anti-satellite (ASAT) test, as a “serious breach of propriety [which] amounts to giving unfair publicity to the party in power”. Questions were also raised over the launch of NaMo TV without licence, and a biopic on the life of the Prime Minister which was scheduled for release on April 11, when elections commenced. The group also requested the EC to “issue directions to withhold the release of all biopics and documentaries on any political personages through any media mechanism until the conclusion of the electoral process”. They asserted that the release of such propaganda amounted to free publicity, and hence should be debited as election expenditure in the name of the candidate in question. The same standards should also apply to other such propaganda, an example being a web series titled “Modi: A Common Man’s Journey”.

Other important issues highlighted in the letter included transfers of top officials, voter verifiable paper audit trail (VVPAT) audits, violations of the MCC by Rajasthan Governor Kalyan Singh (for which the group has requested his removal on account of “grave misdemeanour”) and Uttar Pradesh Chief Minister Yogi Adityanath (in his speech he referred to the armed forces as the army of Narendra Modi), and also corrosion of the political discourse in general. Needless to say, the questions being raised about the credibility of the EC are a cause for worry. It is, however, not the first time that the conduct of the commission has been questioned.

At the core

To my mind, the genesis of the problem lies in the flawed system of appointment of election commissioners, who are appointed unilaterally by the government of the day. This debate can be settled once and for all by depoliticising appointments through a broad-based consultation, as in other countries. In its 255th report, the Law Commission recommended a collegium, consisting of the Prime Minister, the Leader of the Opposition and the Chief Justice of India. Political stalwarts such as L.K. Advani, and former Chief Election Commissioners including B.B. Tandon, N. Gopalaswami and me supported the idea in the past even when in office. But successive ruling dispensations have ducked the issue, not wanting to let go of their power. It is obvious that political and electoral interests take precedence over the national interest.

A public interest litigation was also filed in the Supreme Court in late 2018 calling for a “fair, just and transparent process of selection by constituting a neutral and independent Collegium/selection committee”. The matter has been referred to a constitution bench. It’s not a routine matter. On issues of such vital importance, even the Supreme Court — which I have always described as the guardian angel of democracy — has to act with utmost urgency. If democracy is derailed, its future too would be in jeopardy. Besides the manner of appointment, the system of removal of Election Commissioners also needs correction. Only the Chief Election Commissioner (CEC) is protected from being removed except through impeachment. The other two commissioners having equal voting power in the functioning of the EC can outvote the CEC 10 times a day. The uncertainty of elevation by seniority makes them vulnerable to government pressure. The government can control a defiant CEC through the majority voting power of the two commissioners. One has to remember that the Constitution enabled protection to the CEC as it was a one-man commission initially. This must now be extend to other commissioners, who were added in 1993, as they collectively represent the EC.

Moving forward

The EC’s reputation also suffers when it is unable to tame recalcitrant political parties, especially the ruling party. This is because despite being the registering authority under Section 29A of the Representation of the People Act, 1951, it has no power to de-register them even for the gravest of violations. The EC has been seeking the power to de-register political parties, among many other reforms, which the EC has been wanting.

The reform was first suggested by the CEC in 1998 and reiterated several times. The EC also submitted an affidavit to the Supreme Court last February saying it wanted to be empowered “to de-register a political party, particularly in view of its constitutional mandate”. Elections are the bedrock of democracy and the EC’s credibility is central to democratic legitimacy. Hence, the guardian of elections itself needs urgent institutional safeguards to protect its autonomy. It is time that action is taken to depoliticise constitutional appointments and the EC empowered to de-register parties for electoral misconduct. It is a step needed towards restoring all-important public faith in the institution.

While these reforms may continue to be debated, nothing stops the EC from asserting the ample authority it has under the Constitution and being tough. It’s not their discretion but the constitutional mandate. It did not need a reminder or a nudge from the Supreme Court.