19-02-2025 (Important News Clippings)

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19 Feb 2025
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Date: 19-02-25

Export Diversity is Key to a Big Push

Raise investment in domestic manufacturing

ET Editorial

India’s goods exports slid for the third consecutive month. Blame it on lower petro prices. But non-oil exports are upa decent 14.5% to $32.9 bn. Export diversification is one rea- son for good tidings. High value-added electronic exports are pushing the frontier outwards, while traditional lea- ders such as engineering goods and pharmaceuticals are displaying good momentum. Soft prices of oil cuts both ways by reducing export as well as import value, although the impact is higher on the former. The energy market has turned nervous over threats of US tariffs affecting merchandise trade overall. Rise of the dollar is mirroring this sentiment. India’s energy imports are sensitive to the rupee’s slide, which may not provide adequate protection to exports if the US were to impose reciprocal tariffs.

Further diversification would be required to sustain the recent momentum of India’s manufacturing exports. Trade fragmentation would disadvantage exports by creating oversupply in India’s export markets and could also spill over into dumping at home. Scope to reduce import tariffs is limited in this scenario. New Delhi will need a strategic response to Washington’s efforts to balance bilateral trade. Committing to tariff cuts on, say, autos would ease entry of Chinese cars along with those made in the US. Energy and arms imports provide an opportunity to address US concerns, while retaining a degree of protection India is comfortable with.

Another area of focus is to raise investment in domestic manufacturing through export incentives. This is not as controversial in a global trading order obsessed with import duties. This aids the secular diversification of product categories and export markets. PLIS across a broader portfolio of industries must be fine-tuned to replicate the success of electronic exports. All of this must be accomplished while global merchandise trade finds a new equilibrium. India must be both strategic and swift with its policy intervention over manufacturing exports. It has some leeway, but not much, due to slower de-globalisation of trade in services.


Date: 19-02-25

Eroding federalism

Central funding for States in education should be delinked from the NEP

Editorial

By withholding Tamil Nadu’s central share of Samagra Shiksha funds for rejecting the National Education Policy (NEP 2020), the Union Government is flexing its mus cles to coerce States into submission. This move also undermines the intent of the Samagra Shiksha scheme (2018-19), which consolidated the Sarva Shiksha Abhiyan, Rashtriya Madhyamik Shiksha Abhiyan, and Teacher Education programmes. The scheme was designed to ensure equitable access to quality education for all schoolchildren. Since last year, Tamil Nadu has repeatedly flagged the non-disbursal of 2,152 crore, warning that the funding shortfall has se- verely strained its school education infrastructure, affecting nearly 40 lakh students and 32,000 staff members. Union Education Minister Dharmendra Pradhan has explicitly blamed the State for the impasse, declaring that the funds will be released only if Tamil Nadu implements the NEP in “letter and spirit”. Adding fuel to the fire, he has insisted that the State adopt the three language formula, mandating Tamil, English, and a regional language in schools. This stance disregards Tamil Nadu’s long-standing opposition to the trilingual system, dating back to 1937, and its firm commitment to a two-language policy of Tamil and English since 1968. Going a step further, Mr. Pradhan has accused Tamil Nadu’s leadership of being divisive and politically motivated. He even suggested that the State needs to “come to terms with the Indian Constitution” and adhere to the “rule of law, implying, quite unwarrantedly, that the State was not being run in line with the statute.

Unsurprisingly, the response in Tamil Nadu has been swift and sharp, especially on the language issue, which remains non-negotiable for most political parties in the State. Chief Minister M.K. Stalin has rightly questioned which constitutional provision mandates the three-language policy and warned that such blatant coercion will not be tolerated. While the NEP claims it does not “impose Hindi”, successive Union Governments have, until now, respected Tamil Nadu’s autonomy over its language policy. Policies governing subjects in the Concurrent List of the Constitution require flexibility and dialogue to ensure successful implementation across diverse regions. A rigid, one-size-fits-all approach risks un- dermining cooperative federalism and fostering resentment among States, which are equal stake- holders in central schemes. A more pragmatic approach would be to delink Samagra Shiksha and the Pradhan Mantri Schools for Rising India (PM SHRI) scheme from the NEP and instead tie funding to generic performance indicators. At the same time, Tamil Nadu would do well to finalise and roll out its long-pending State Education Policy as a viable alternative to the NEP, ensuring academic continuity and stability for its students.


Date: 19-02-25

वैश्विक एआई बैठक में अमेरिका, यूके अलग हुए

संपादकीय

पेरिस में संपन्न दो-दिवसीय एआई एक्शन समिट के बाद बने घोषणा-पत्र पर अमेरिका और ब्रिटेन ने दस्तखत नहीं किए। पीएम मोदी ने खुली, पारदर्शी, नैतिक, सुरक्षित और विश्वसनीय वैश्विक व्यवस्था की वकालत की, जिसे बैठक में शामिल 100 में से 60 देशों ने सहर्ष स्वीकार किया। इनमें चीन, कनाडा और फ्रांस भी थे। दरअसल ओपन और इंक्लूसिव एआई को लेकर अमेरिका को यह डर था कि उसका वर्चस्व खत्म हो जाएगा। दो दिन पहले ओपन एआई के सीईओ सैम ऑल्टमैन भारत में बाजार तैयार करने आए थे, जबकि पीएम और भारत के तकनीकी आन्त्रप्रेन्योर भी चाहते हैं। कि देश अपना एआई तैयार करे। चीन ने डीपसीक एआई दुनिया के बाजार में लाकर अमेरिकी वर्चस्व खत्म कर दिया है। भारत को अपने भावी एआई कार्यक्रमों के लिए बिजली की भारी जरूरत होगी। एआई और छोटे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के विकास के लिए फ्रांस से समझौता इसीलिए हुआ है। उधर दुनिया के कई देश संयुक्त प्रयास में, जिनमें भारत के वैज्ञानिक और संसाधन भी हैं, फ्रांस में परमाणु ऊर्जा के लिए एक सर्वथा नई ड्यूटेरियम एटॉमिक फ्यूजन तकनीकी से ऊर्जा पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। मोदी पहले शासनाध्यक्ष हैं, जिन्हें फ्रांस ने सोमवार को यह संयंत्र और शोध की प्रकिया दिखाई। यह अलग बात है कि चीन ने फ्यूजन की प्रक्रिया को 17 सेकंड तक जारी रख कर इस दिशा में भारी सफलता पाई है। अगर रिएक्टर में यह शोध कामयाब रहा तो स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र में आशातीत क्रांति होगी।


Date: 19-02-25

बढ़ानी होगी सरकारी खर्च की गुणवत्ता

आदित्य सिन्हा, ( लेखक लोक नीति विश्लेषक हैं )

अमेरिका पर दुनिया भर के तमाम मामलों में दखलंदाजी के आरोप लगते रहे हैं। बीते दिनें बांग्लादेश में हुए तख्तापलट के पीछे भी अमेरिकी हस्तक्षेप की बातें सामने आई। भारत में भी चुनावों एवं मतदान प्रक्रिया को प्रभावित करने के मामले में बड़ी रकम दांव पर लगाने की बात सामने आई है। अपने ऐसे अभियानों को सफल बनाने से लिए अमेरिका को बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है। यह रकम मुख्य रूप से सरकारी खजाने से आती है। इसलिए कोई हैरानी की बात नहीं कि इस सरकारी फिजूलखर्ची पर रोक लगाने के पक्ष में वहां तमाम आवाजें बुलंद हो रही हैं। इसी सिलसिले में ट्रंप प्रशासन एलन मस्क की अगुआई में डिपार्टमेंट आफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी (डीओजीई) यानी सरकारी दक्षता विभाग के जरिये बड़ी उम्मीदें लगाए हुए हैं। इसमें अनावश्यक नौकरशाही के आकार को घटाने से लेकर फिजूलखर्च रोकने के उपाय तलाशे जाएंगे। डीओजीई की इस पहल ने दुनिया भर में सरकारी मशीनरी के दायरे और उसकी प्रासंगिकता को लेकर नए सिरे से सवाल खड़े कर दिए हैं।

भारत भी ऐसे सवालों से अछूता नहीं हैं, लेकिन अगर इस पर गहराई से विचार करें तो क्या भारत में सरकारी खर्च को घटाया जाना आवश्यक है? इसका जवाब है नहीं। आंकड़े स्वयं इसकी पुष्टि करते हैं। अगर वर्ष 2022 के दौरान भारत में सरकारी खर्च का आंकड़ा देखें तो यह जीडीपी का 28.62 प्रतिशत रहा। यह चीन (33.4 प्रतिशत), ब्राजील (46.38 प्रतिशत), अमेरिका ( 36.2 प्रतिशत) और फ्रांस (58.32 प्रतिशत) जैसे देशों की तुलना में काफी कम है। ऐसे में आवश्यकता सरकारी खर्च को घटाने की नहीं, बल्कि उसे प्रभावी रूप से खर्च करने की है। पूंजीगत व्यय में सड़क और राजमार्गों को ही लें तो उन पर किया जाने वाला खर्च बहुत गुणात्मक प्रभाव वाला होता है। इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि सड़कों पर किया जाने वाला एक रुपये का खर्च समग्र अर्थव्यवस्था में ढाई रुपये के बराबर लाभ दिलाने वाला होता है। इससे कनेक्टिविटी की स्थिति सुधरती है। परिवहन लागत घटती है और उत्पादकता में वृद्धि होती है। हालांकि यह गुणात्मक प्रभाव पूरी तरह इसी पर निर्भर करता है कि उसे कितनी ईमानदारी एवं पारदर्शिता के साथ खर्च किया जाता है, क्योंकि यदि उसमें हीलाहवाली की जाती है तो फिर उसके अपेक्षित लाभ प्राप्त होने से रहे। हालांकि पिछले एक दशक में सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि बुनियादी ढांचे में न केवल मात्रात्मक, बल्कि गुणात्मक रूप से भी सुधार हो । इसके बावजूद, यह पूरी प्रक्रिया अभी प्रगति में ही है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि केंद्रीय और राज्य स्तर पर लोक निर्माण के सभी कार्य गुणवत्ता से परिपूर्ण हों।

डीओजीई को लेकर भारत के दृष्टिकोण से यह पहलू अधिक महत्वपूर्ण है कि नियामकीय स्तर पर सुगमता कैसे स्थापित की जाए ये नियामकीय बाधाएं ही आर्थिक वृद्धि में अवरोध बनती हैं। भारत के मामले में तो यह कोई दबी छिपी बात नहीं है। हालांकि पिछले एक दशक में सरकार ने नियामकीय बाधाओं को दूर करते हुए उन्हें सुसंगत बनाने के हरसंभव प्रयास किए हैं। इससे कारोबारी सुगमता बढ़ी है, जो ईंज आफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग में भारत की ऊंची छलांग में भी झलकती है। फिर भी इस दिशा में बहुत किया जाना अभी शेष है। इन्हीं प्रयासों को और विस्तार देते हुए सरकार ने जन विश्वास अधिनियम, 2023 पारित कराया हैं। इस कानून के जरिये कई पुरातन प्रविधानों को आपराधिक दायरे से मुक्त किया गया है। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए सरकार इस विधेयक के नए स्वरूप को आगे बढ़ाने की तैयारी कर रही हैं, जिसका लक्ष्य नियमन के पहलुओं को तार्किक बनाते हुए व्यापक कारोबार हितैषी परिवेश तैयार करना है। एक फरवरी को पेश हुए केंद्रीय बजट में नियामकीय तालमेल बेहतर बनाने के लिए एक उच्चस्तरीय समिति के गठन की घोषणा भी हुई है। इससे आर्थिक वृद्धि को गति मिलेगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ मुलाकात में नियामकीय सुगमता एवं आर्थिक सुधारों के प्रति भारत की प्रतिबद्धताओं को पुनः रेखांकित भी किया। अब सभी की नजरें उच्चस्तरीय समिति पर टिकी हैं। इस समिति को आखिर क्या करना चाहिए? वैसे तो अभी तक न तो इस समिति का औपचारिक खाका सामने रखा गया है और न ही उसके स्वरूप एवं सदस्यों के विषय में कुछ बताया गया हैं। ऐसे में, उसके लिए कुछ बिंदुओं को सामने रखना उपयोगी होगा कि उसे किन पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

समिति को किस्तों में सुधार के बजाय निरंतर रूप से साहसिक सुधारों की दिशा में आगे बढ़ना होगा। सबसे पहले तो उसे नियामकीय मोर्चे पर कायम विसंगतियों एवं विरोधाभास को दूर करना होगा। ऐसे कानून बनाने होंगे जो उद्यमों के अनुकूल हों। दांडिक प्रविधानों को सीमित करना होगा। संसदीय गतिरोधों का तोड़ निकालकर प्रक्रियाओं को गति देने वाले तौर-तरीके तलाशने होंगे। पुराने कानूनों को अनिश्चितकाल तक कायम रखने के बजाय सनसेट क्लाज का सहारा उपयोगी होगा। नियामकीय ढांचे की निरंतर समीक्षा और उसमें सुधार के सतत प्रयास भी आवश्यक होंगे। श्रम सुधारों के लिए भी कोई रूपरेखा तैयार करनी होगी अनुपालन बोझ घटाने के उपाय भी तलाशने होंगे।

विधायी परिवर्तनों से इतर उच्चस्तरीय समिति को नियामकीय संस्थाओं की मनमानी और अप्रत्याशितता को भी नियंत्रित करना होगा। उसे नियामकीय अधिसूचनाओं के लिए एक नियत शेड्यूल बनाना होगा और उद्यमों को अप्रत्याशित एवं एकाएक किए जाने वाले परिवर्तनों की तपिश से बचाना होगा। निरीक्षण भी जोखिम आधारित ढांचे के आधार पर ही किया जाए तो बेहतर रहेगा। स्व-नियमन और थर्ड पार्टी आडिट से पारदर्शिता को बढ़ावा देने के साथ उत्पीड़न एवं अक्षमताओं के लिए गुंजाइश खत्म करनी होगी। इस प्रकार के समन्वित प्रयासों से हमारे उद्यम लालफीताशाही के भंवर में फंसने के बजाय कारोबारी वृद्धि और नवाचार पर अपनी ऊर्जा एवं संसाधन लगाने में सक्षम हो सकेंगे।


Date: 19-02-25

पारदर्शिता का प्रश्न

संपादकीय

मुख्य निर्वाचन आयुक्त के चयन को लेकर जैसे कि कपास लगाए जा रहे थे, आखिरकार वही हुआ विपक्ष मांग करता रहा कि इस पद पर नियुक्ति के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय की सुनवाई तक बैठक को टाल दिया जाना चाहिए। मगर सरकार ने उस मांग को अस्वीकार करते हुए राजीव कुमार की सेवानिवृत्ति से एक दिन पहले ही बैठक बुला ली और नए मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति कर दी गई। अब इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का जो भी फैसला आएगा, उसका बहुत मतलब नहीं रह जाएगा। नए मुख्य निर्वाचन आयुक्त को पदोन्नत किया गया है। मगर विपक्ष इसे उचित नहीं मान रहा। दरअसल, पिछले कुछ समय से जिस तरह निर्वाचन आयोग के कामकाज और उसकी कर्तव्यनिष्ठा को लेकर सवाल उठते रहे हैं, उसमें नए निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति को लेकर सरकार की हड़बड़ी संदेह की गुंजाइश पैदा करती है। संवैधानिक पदों पर नियुक्ति में पारदर्शिता की अपेक्षा स्वाभाविक है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति में निष्पक्षता की मांग इसलिए उठती रही है कि इसी संस्था से लोकतंत्र की रक्षा का भरोसा बनता है। पिछले कुछ वर्षों में निर्वाचन आयुक्तों के सरकार की मंशा के अनुरूप काम करने, मतदाता सूची और मतदान मशीनों में गड़बड़ी कराने, मतदान संबंधी ब्योरों में तालमेल न होने आदि के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। इसीलिए मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति में निष्पक्ष व्यवस्था की गुहार लगाते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया था।

हालांकि यह पहली बार नहीं है, जब भारत निर्वाचन आयोग के कामकाज के तरीके पर सवाल उठ रहे हैं। पहले भी सरकार पर अपनी पसंद के व्यक्ति को इस पद की जिम्मेदारी सौपने का आरोप लगा है प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति इस पद पर नियुक्ति करते थे। मगर जब निर्वाचन आयोग के कामकाज में पारदर्शिता धुंधली होने लगी तो इस नियुक्ति प्रक्रिया को अदालत में चुनौती दी गई थी। तब सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और प्रधान न्यायाधीश की तीन सदस्यों वाली समिति इस पद पर नियुक्ति करेगी। मगर सरकार ने उस व्यवस्था को पलट कर कानून बना दिया कि तीन सदस्यों में एक सदस्य प्रधान न्यायाधीश की जगह एक केंद्रीय मंत्री होगा। इसी पर स्थगन की याचिका दायर की गई है, जिस पर सुनवाई होनी है। अगर सरकार सचमुच इस पद की निष्पक्षता को लेकर गंभीर होती, इस संस्था की स्वायत्तता को मूल्यवान समझती तो शायद इतने विवादों के बावजूद इस पद पर नियुक्ति की ऐसी जल्दबाजी न दिखाती।

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संवैधानिक संकल्प है। यह तभी संभव हो सकता है, जब निर्वाचन आयुक्त स्वायत्त और निष्पक्ष ढंग से काम कर सके। अगर उसका झुकाव किसी दल विशेष या सत्तपक्ष की तरफ होगा, तो इसका असर चुनाव नतीजों पर नजर आएगा। स्वायत्तता के साथ-साथ यह मांग भी लगातार उठती रही है कि निर्वाचन आयोग को एक नखत विहीन संस्था के बजाय अधिकार संपन्न संस्था बनाया जाना चाहिए, जो आचार संहिता के उल्लंघन आदि के मामले में कठोर कार्रवाई कर सके। मगर ऐसा कोई चुनाव नहीं गुजरता जब निर्वाचन आयोग पर गंभीर आरोप नहीं लगते। सबसे अधिक तो मतदान मशीनों को लेकर सवाल उठते हैं। मगर इस शंका के निवारण के लिए कोई भरोसेमंद तरीका नहीं निकाला गया। ऐसे में मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति में परस्पर सहमति की अपेक्षा स्वाभाविक है।


Date: 19-02-25

कृत्रिम बुद्धिमत्ता क्षेत्र की नई चुनौतियां

अभिषेक कुमार सिंह

प्रौद्योगिकी का एक अलिखित नियम यह है कि वह जिस जगह सबसे कम लागत और सर्वश्रेष्ठ दक्षता के साथ तैयार होती है, पूरी दुनिया अपनाने के लिए उसी तरफ दौड़ पड़ती है। जैसे एक दौर था जब दुनिया में आइटी प्रतिभाओं की बात होती थी, तो हर कोई भारतीय मेधा का सम्मान करता था। यह रुतबा आज तक कायम है। इसी का असर है कि अमेरिकी सत्ता पर दोबारा काबिज डोनाल्ड ट्रंप ने रोजगार में आप्रवासियों के योगदान में कटौती करने के इरादे से एच1-बी वीजा में तब्दीली के संकेत दिए, तो अमेरिकी कंपनियां ही विरोध करने लगीं। इसलिए कि आइटी तकनीक और इंजीनियरिंग के मामले में आज भी अमेरिका-यूरोप में भारतीयों की तूती बोलती है। एच1-बी वीजा पर पाबंदियां लगती हैं, तो अमेरिकी कंपनियां मेहनती भारतीय युवाओं से वंचित हो सकती हैं।

कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआइ) के क्षेत्र में दिखाई दे रही है। नवंबर 2022 में जबसे अमेरिकी कंपनी ‘ओपनएआइ’ ने ‘चैटजीपीटी’ के नाम से नया ‘टूल’ विकसित किया, तो माना जाने लगा कि दुनिया के किसी और देश को इसका मुकाबला करने या इसकी बराबरी करने मैं ही कई दशक लग सकते हैं, लेकिन यह मिथक करीब सवा दो साल में ही टूट गया। एक चीनी कंपनी ने डीपसीक आर-1 बना कर न सिर्फ चैटजीपीटी के सामने नई चुनौती पेश कर दी, बल्कि लागत और इस्तेमाल की बेहद कीमत के आधार पर यह साबित कर दिया कि कोई जरूरी नहीं कि विज्ञान-तकनीक के सारे आविष्कार अब अमेरिकी या यूरोपीय जमीन पर हों। इसमें चीन और भारत जैसे देश भी नया करिश्मा कर सकते हैं।

कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में नया ढांचा बनाने के लिए देश के बजट में प्रावधान किए गए हैं, उससे लगता है कि भारत में भी इसकी रफ्तार बढ़ेगी। वित्तमंत्री ने देश में एआइ की शिक्षा पर खास ध्यान देने की योजना के तहत ‘एआइ सेंटर आफ एक्सीलेंस’ का प्रस्ताव दिया है। इसके लिए आबंटित 500 करोड़ रुपए, 2023-24 के बजट में आबंटित 255 करोड़ रुपए से करीब दोगुना है। यह कदम देश को एआइ शिक्षा में अग्रणी शक्ति बनाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पहल माना जा सकता है। लेकिन चर्चा चीनी एआइ डीपसीक आर-1 की है। इसने चैटजीपीटी को इस मामले में पछाड़ दिया है कि यह उससे दहाई लागत में तैयार हुआ है और उपयोग के लिए तकरीबन मुफ्त उपलब्ध है।

चीन ने हाल के वर्षों में नई पीढ़ी की प्रौद्योगिकी से संबंधित वैज्ञानिक और इंजीनियर तैयार करने में जो तेजी दिखाई है, उससे इस देश के आगे निकल जाने की संभावना बन रही है। यह आकलन अब ‘डीपसीक आर-1’ और चीनी कारोबारी जैकमा की कंपनी अलीबाबा की ओर से तैयार किए गए ‘एआइ चैटबाट क्वेन 2.5 मैक्स’ के साथ बिल्कुल सही साबित हो गया है। यही नहीं, इसी अध्ययन में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में भारत के प्रयासों को भी रेखांकित किया गया था। इसमें लिखा गया था कि चीन की तरह ही भारत में भी अब एआइ से जुड़े शोधकर्ताओं को अच्छा माहौल मिल रहा है और वे देश में ही रह कर तकनीक प्रौद्योगिकी की इस नई जमीन पर नई इबारत लिखने की कोशिश कर रहे हैं।

एक बड़ा प्रश्न है कि आखिर यह जरूरी क्यों है कि भारत-चीन जैसे देश कृत्रिम बुद्धिमत्ता से लेकर अंतरिक्ष के उन अभियानों पर अधिक संसाधन खर्च करें, जिनमें अमेरिका-यूरोप या कहें कि पश्चिमी देश काफी तरक्की कर चुके हैं। खुले वैश्विक कारोबार का कायदा तो यह कहता है कि अगर कोई चीज दुनिया के किसी बाजार में सहजता से उपलब्ध है, तो उसे पैदा करने में संसाधन और ऊर्जा झोंकने की कोई जरूरत नहीं है, बल्कि बाजार में उपलब्ध सामान को अपनी जरूरत के हिसाब से खरीद लेना चाहिए। दाल, अनाज, कपड़ों, दवाओं से लेकर तमाम चीजों को लेकर यही नियम अपनाया जाता है, लेकिन तकनीक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत-चीन की सक्रियता और तेजी का आखिर कोई तो मतलब होगा। यह बेवजह तो नहीं होगा कि ये दोनों मुल्क अंतरिक्ष में चांद-मंगल की दौड़ लगा रहे हैं, तो जमीन पर एआइ से लेकर सेमीकंडक्टर की फैक्टरी बनने पर आमादा हैं।

जिस तरह भारत-चीन की सरकारों ने इधर अंतरिक्ष अभियानों के संचालन और सेमीकंडक्टर के उत्पादन और फिर कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में नवाचारों को प्रश्रय दिया है, उससे तस्वीर बदलने लगी है। इसी का एक नतीजा डीपसीक आर-1 के रूप में निकला है, जिसने अमेरिकी प्रौद्योगिकी कंपनियों की नींद उड़ा दी है। अभी तक माना जा रहा था कि अमेरिकी कंपनियों- ओपनएआइ, गूगल और फेसबुक आदि ने चैटजीपीटी, जेमिनी, को-पायलट और मेटा एआइ के रूप में जो ‘एआइ टूल’ बनाए हैं, उन्हें कोई उल्लेखनीय चुनौती दुनिया के किसी कोने से नहीं मिलेगी, लेकिन डीपसीक आर-1 ने भरोसा जगा दिया है कि इस क्षेत्र में अमेरिकी-यूरोपीय कंपनियों के एकछत्र साम्राज्य में सेंध लगाई जा सकती है और एक विकासशील देश भी अपने मामूली संसाधनों के बल पर समान या ज्यादा क्षमता हासिल कर सकता है।

डीपसीक कैसे गरीब और विकासशील देशों के मामले में एक मिसाल बन सकता है, इसकी गवाही अमेरिका में इसके पहुंचने की खबरों के साथ ही देखने को मिली है। जब पता चला कि डीपसीक लागत और उपयोग में चैटजीपीटी से कई गुना सस्ता और मुफ्त है, तो अमेरिकी शेयर बाजारों में हड़कंप मच गया। इसकी असल वजह यही है कि अमेरिकी कंपनियों को अब एआइ में अपना एकाधिकार खत्म होता दिख रहा है। इससे यह भी साबित हुआ कि तकनीक के आविष्कार और उसे आजमाने की जो लागत तथा कीमत अमेरिकी कंपनियां बताती रही हैं, वे बढ़ा-चढ़ा कर बताई गई हैं। बताया गया कि ओपनएआइ ने चैटजीपीटी को जिस लागत में बनाया था, डीपसीक के निर्माण की लागत उससे दस गुना कम आई है। इससे साबित हुआ है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाले वही काम सस्ते में या फिर मुफ्त में हो सकते हैं, जिनके लिए अमेरिकी कंपनियां दस गुना ज्यादा पैसा लेती रही हैं। हालांकि डीपसीक एक चीनी आविष्कार है और टिकटाक और पबजी से लेकर चीनी उपकरणों के जरिए जिस तरह डेटा चोरी के आरोप चीनी कंपनियों पर लगते रहे हैं, उन्हें देखते हुए डीपसीक को लेकर सतर्कता बरतने की जरूरत बनती है।

भारत को इस संबंध में सावधानी बरतने के साथ-साथ यह कोशिश भी करनी होगी कि ऐसे तकनीकी और प्रौद्योगिकी आधारित आविष्कारों के भारतीय संस्करण जितनी जल्दी हो सकें, तैयार किए जाएं, ताकि उपभोक्ताओं की निजी जानकारियां देश से बाहर जाने से रुक सकें। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि ग्राहकों की निजी जानकारियों की चोरी से दुनिया भर से साइबर जालसाजी की जाती रही है। एआइ से बराबरी करने में अभी कोई देरी इससे जुड़े ढांचे को लेकर हो सकती है।


Date: 19-02-25

साझेदारी हुई मजबूत

अवधेश कुमार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिका पत्रा पर संपूर्ण विश्व की दृष्टि थी दूसरे कार्यकाल में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसाइली प्रधानमंत्री जापानी प्रधानमंत्री और जॉर्डन के के बाद प्रधानमंत्री मोदी को आमंत्रित किया था। मोदी ऐसे पौधे वैश्विक नेता है जिनकी ट्रंप और उनके प्रशासन के साथ विस्तृत बातचीत हुई, समझौते हुए तथा इससे भविष्य के संबंधों का संकेत मिला | टैरिफ यानी सीमा शुल्क को लेकर ट्रंप का रवैया पहले जैसा ही कठोर है।

उन्होंने घोषणा किया हुआ है कि रेसिप्रोकल टैरिफ यानी जो देश उनकी सामग्रियों पर जितना शुल्क लगाता है उतना ही लगाएंगे। उन्होंने अमेरिका के पुराने मित्र और साझेदारों जापान तथा यूरोपीय संघ को भी नहीं बक्शा है। वह केवल भारत को अलग से रियायत देंगे यह मानकर नहीं चलना चाहिए। भारत का नाम लेते हुए उन्होंने कहा था कि वहां शुल्क इतना ज्यादा है कि व्यापार करना कठिन है। संयुक्त पत्रकार वार्ती में भी उन्होंने कहा कि हम 45 अरब डॉलर के भारत से व्यापार घाटे को कम करने की ओर बढ़ रहे है। उन्होंने कहा, हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के अनुचित और बहुत कड़े टैरिफ को घटाने की घोषणा की है, जो भारतीय बाजार में अमेरिकी पहुंच को कम करते हैं। और मैं कहना चाहूंगा कि यह बहुत बड़ी समस्या है। ट्रंप पहले कार्यक्रम में भी इस पर कठोर रहे हैं। लेकिन भारत के विरुद्ध शुल्क वाली दंडात्मक कार्रवाई नहीं की ।

भारत को द्विपक्षीय व्यापार में सर्वाधिक लाभ अमेरिका के साथ है और वे शुल्क बढ़ाते हैं तो भारतीय सामग्रियों के लिए अमेरिकी बाजार में स्थान बनाना कठिन होगा। हमारा निर्यात घट सकता है और यह अर्थव्यवस्था की दृष्टि से चिंताजनक होगा। किंतु अब केवल अमेरिका नहीं संपूर्ण विश्व को उसके साथ संबंधों के पुनर्संयोजन की आवश्यकता उत्पन्न हो गई है। सत्ता संभालने के साथ ही ट्रंप लगातार आक्रामक होकर अपनी दृष्टि से अमेरिकी हित के संदर्भ में कदम उठा रहे हैं और उनसे अन्य देशों को परेशानी हुई है। हम यह मानकर नहीं चलें कि प्रधानमंत्री मोदी के दौरे से भारत और विश्व की दृष्टि से सकारात्मक उपलब्धियां नहीं हुई है। ट्रंप ने व्हाइट हाउस में जिस तरीके से मोदी का स्वागत किया वैसा पूर्व के तीन नेताओं का नहीं हुआ। ट्रंप ने कहा भी कि मुझे आपकी कमी यहां महसूस हो रही थी। जहां तक प्रतिक्रियात्मक शुक्ल का प्रश्न है तो ऐसा लगता नहीं कि अमेरिकी प्रशासन ने अभी तक उसका सही आकलन और रूपरेखा निर्धारित किया है। माना जा सकता है कि हमारे पास अपने हितों को सुरक्षित रखने का रास्ता खत्म नहीं हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त प्रेस वार्ता मुक्त व्यापार समझौते पर जल्दी पहुंचने की बात की और इसी वर्ष पूरा होने का संकेत दिया। वर्तमान में भारत और अमेरिका के बीच व्यापार 129.2 अरब डॉलर है, 2030 तक इसे 500 अरब डॉलर तक ले जाने का संकल्प मोदी ने व्यक्त किया। ट्रंप ने भारत का नंबर एक तेल और गैस आपूर्तिकर्ता देश बनने पर मोदी के साथ बातचीत की चर्चा की। इस तरह भारत ने रास्ता निकाला है।

संभवतः उन्हें बताया है कि आप शुल्क लगाकर अपना नुकसान पहुंचाएंगे क्योंकि हम बड़े खरीदार हैं। जैसा प्रधानमंत्री मोदी ने कहा भी कि साझा उत्पादन तकनीक आदि के मामले में हम रक्षा साझेदार हैं और सबसे बड़ी बात कि गैस और तेल हम आपसे खरीदेंगे। इसमें समस्या भी नहीं है। कहीं से हमको लेना है तो सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार और लाभ वाले ऐसे देश से, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक समस्याओं से निपटने में सहयोग कर सकता है उससे खरीदने मे समस्या नहीं है। हमारी ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित होगी तथा हाइड्रोकार्बन खरीद में विविधता बढ़ेगा, कुछ देशों पर निर्भरता में कमी आएगी। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे नये उभर रहे क्षेत्र में सहयोग द्विपक्षीय एवं वैश्विक व्यवस्था की दृष्टि से हमारे लिए लाभकारी है। एक महत्त्वपूर्ण बात भारत मध्य पूर्व यूरोपीय आर्थिक गलियारा पर अमेरिका की हरी झंडी है। यह हमारे लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इससे ईरान स्थित चाबाहार बंदरगाह सुरक्षित हो सकता है। अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध लगाया हुआ है, लेकिन चाबहार उन्होंने विदेश मंत्री मार्क रुबियो पर छोड़ दिया है। यह मार्ग चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव का प्रत्युत्तर है। इससे हमारे दूरगामी व्यापारिक एवं सामरिक हित सधने वाले हैं। बोस्टन ओर लॉस एंजेलिस में दो नये दूतावास खोलने की घोषणा महत्त्वपूर्ण है। इससे पता चलता है कि अमेरिका में भारत की राजनयिक, आर्थिक और दोनों देशों के नागरिकों के बीच अंतसंवाद का काफी विस्तार हुआ है।

प्रधानमंत्री मोदी ने प्रमुख अधिकारियों और नेताओं से भी मुलाकात की जिनमें अमेरिकी खुफिया सेवाओं की निदेशक तुलसी गवार्ड, अमेरिकी सुरक्षा सलाहकार माइकल वाल्ट्ज एवं डिपार्टमेंट आफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी के प्रमुख एलन मस्क शामिल है। इन सबका असर सुरक्षा एवं अन्य मामलों में आने वाले समय में धीरे- धीरे दिखाई देगा। रूस-यूक्रेन के बीच तनाव घटाने पर ट्रंप सक्रिय हैं और इसमें हमारा भी हित है क्योंकि रूस पर लगे प्रतिबंधों से समस्याएं बढ़ी हुई हैं। हिन्द-प्रशांत में हिन्द महासागर पहल की घोषणा महत्त्वपूर्ण है। ट्रंप स्वतंत्र एवं मुक्त हिन्द प्रशासन क्षेत्र की बात करते हुए कहते रहे हैं कि भारत क्षेत्र की महाशक्ति है और भारत की साझेदारी को हमेशा महत्त्व दिया है। भारत की सुरक्षा की दृष्टि से इस यात्रा की दो महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां है। संयुक्त वक्तव्य में सीमा पार आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान का स्पष्ट नाम लिया गया है। तथा 2008 के मुंबई हमले के अपराधियों को सजा देने की भी मांग है।

प्रधानमंत्री की यात्रा की पूरी तैयारी कर कर जाते हैं और इसमें उनकी भाषा और शब्दचयन भी शामिल है। उन्होंने संयुक्त पत्रकार वार्ता में ट्रंप की ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ यानी ‘मागा’ की चर्चा करते हुए कहा कि मैं इस नाते उनका प्रशंसक हूं। उसी तरह भारत को 2047 तक विकसित बनाने के लिए मैं भी ‘मेक इंडिया ग्रेट अगेन’ पर काम कर रहा हूं। इस यात्रा के बाद आर्थिक, सामरिक एवं रणनीतिक संबंध व साझेदारी पर बनी व्यापक सहमति से पता चलता है कि भविष्य की दृष्टि से दोनों नेताओं ने संबंधों को सही दिशा और आकार देने की पहल की है और इसके अच्छे परिणाम आएंगे।


Date: 19-02-25

अश्लीलता के खिलाफ

संपादकीय

यूट्यूबर- पॉडकास्टर रणवीर इलाहाबादिया को गिरफ्तारी से अंतरिम राहत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो टिप्पणियां की हैं, उनके गहरे निहितार्थ हैं। शीर्ष अदालत ने रणवीर से पूछा कि ‘इंडियाज गॉट लेटेंट के कार्यक्रम में आपने जो कुछ कहा, ‘इस देश में यदि वह अश्लीलता नहीं है तो फिर अश्लीलता के मानक क्या हैं?” न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने उचित ही कहा कि रणवीर और उनके साथियों ने जैसी विकृत मानसिकता का प्रदर्शन किया और जो शब्द उन्होंने चुने, उनसे माता-पिता, बहनें बेटियां व भाई शर्मिंदा होंगे। हालांकि, बतौर नागरिक उनके अधिकारों का संरक्षण करते हुए अदालत ने उन्हें वैधानिक उत्पीड़न से बचाने के लिए इस मामले में अतिरिक्त एफआईआर दर्ज करने पर रोक लगा दी और राज्य प्रशासन को उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के आदेश भी दिए। गौरतलब है कि इस कार्यक्रम के प्रसारण के चंद घंटों के भीतर हुई भारी फजीहत के बाद रणवीर को न सिर्फ सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पड़ी थी, बल्कि यूट्यूब से इस श्रृंखला के सारे एपिसोड हटाने पड़े थे। मगर जगह-जगह रणवीर और उनके साथियों के खिलाफ दर्ज मुकदमों ने अश्लील सामग्री के मुद्दे को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में ला दिया है।

स्वस्थ प्रहसन भारतीय लोक का हमेशा से हिस्सा रहा है और समाज- निर्धारित मर्यादाओं से पोषित इस कला के प्रति आज भी कम आकर्षण नहीं है। इस विधा के कलाकारों की जहानत उनकी बारीक उपहास व्यंग्य क्षमता से तय होती रही। कामसूत्र के रचयिता तो दार्शनिक तक कहे गए। ऐसा भी नहीं कि वाचिक अश्लीलता हमारे समाज में थी ही नहीं और रणवीर व समय रैना ने पहली बार उसका विस्फोट किया है, सच तो यह कि यहां की गालियों के समाजशास्त्र पर गंभीर अध्ययन तक हो चुके हैं। मगर वास्तविकता यही है। कि भद्र लोक ने हमेशा इस प्रवृत्ति का बहिष्कार किया। अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार की हिफाजत करते हुए लगातार मानवीय संबंधों की गरिमा और सार्वजनिक- सामाजिक शुचिता की पैरोकारी की गई। इस कसौटी पर आरोपी वूट्यूबर के आचरण निकृष्टतम थे, इसमें तो कोई दोराय नहीं हो सकती।

दरअसल, सोशल मीडिया के जरिये जल्दी से जल्दी लोकप्रिय होने और धन कमाने की लिप्सा ने एक ऐसा वर्ग तैयार कर दिया है, जो सामाजिक मूल्यों के संरक्षण की अपनी जिम्मेदारी से बिल्कुल गाफिल है उसे लगता है, उसकी आजादी असीम है। ऐसे में बहुत जरूरी हो गया है कि सोशल मीडिया के कंटेंट की निगरानी के तंत्र को अधिक सक्रिय और प्रभावी बनाया जाए। जिस तेजी से सूचना प्रौद्योगिकी का विस्तार हो रहा है, उसे देखते हुए ऐसी अश्लील सामग्रियों की रोकथाम और ज्यादा जरूरी है, क्योंकि इनसे परिवार मूल्य को नुकसान पहुंच सकता है। मगर वह काम आसान नहीं है, क्योंकि अश्लील सामग्रियों के प्रकाशन प्रसारण पर रोक लगाते हुए तंत्र को अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति भी संवेदनशील रहना होगा, क्योंकि यह हमारी सांविधानिक- लोकतांत्रिक व्यवस्था की बुनियादी शर्त है। फिर तंत्र को उन लोगों से भी उसी सख्ती से निपटना चाहिए, जो रणवीरों को जान से मारने की धमकी देते हैं या उनके परिजनों की निजता का उल्लंघन करते हैं। यह प्रकरण उन युवाओं के लिए सबक होना चाहिए, जो सोशल मीडिया में करिवर तलाश रहे हैं। उन्हें समझना होगा, अश्लील कंटेंट की सनसनी उन्हें क्षणिक सफलता तो दिला देगी, मगर अंततः वे कानून के कठघरे में खड़े होंगे और उनके कलंक को उनका पूरा परिवार ढो रहा होगा।


 

Date: 19-02-25

चुनाव आयुक्तों के चयन से जुड़ी चिंताएं

राज कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार

नव नियुक्त मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार पदभार संभालने से पहले ही सवालों में घिर गए हैं। नियुक्ति- प्रक्रिया से जुड़े ये सवाल उनकी निष्पक्षता और स्वतंत्रता को संदेहास्पद बनाने वाले हैं। ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति नए कानून के मुताबिक 17 फरवरी को हुई। हरियाणा के मुख्य सचिव विवेक जोशी भी नए चुनाव आयुक्त नियुक्त किए गए हैं। बड़ा सवाल तो विपक्ष यही उठा रहा है कि जब नियुक्ति से जुड़े नए कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय में 19 फरवरी को सुनवाई है, तब इस नियुक्ति की जल्दबाजी क्यों? 17 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके नामित कैबिनेट मंत्री अमित शाह के साथ बैठक में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी इसी तर्क के साथ अपनी असहमति की टिप्पणी देकर निकल भी गए थे। फिर भी, ज्ञानेश कुमार को नया मुख्य चुनाव आयुक्त बनाने की अधिसूचना जारी कर दी गई।

एक संयोग यह भी है कि चुनाव आयुक्त के रूप में भी ज्ञानेश कुमार और सुखबीर सिंह संधू की नियुक्ति 14 मार्च, 2024 को अचानक कर दी गई थी। निवर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार के साथ चुनाव आयुक्त रहे अनूप चंद्र पांडेय 14 फरवरी को रिटायर हो चुके थे, तो लोकसभा चुनाव की घोषणा से पहले 9 मार्च को दूसरे चुनाव आयुक्त अरुण गोयल ने अचानक इस्तीफा दे दिया। तब सवाल पूछा जा रहा था कि क्या अकेले राजीव कुमार लोकसभा चुनाव करा सकेंगे ?

याद नहीं पड़ता कि टीएन शेषन के बाद किसी चुनाव आयुक्त या मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल निर्विवाद गुजरा हो। एक अनुशासित नौकरशाह की छवि वाले शेषन अपनी सख्ती से तमाम राजनीतिक दलों के लिए आतंक-सा बन गए थे। बेशक, देश भर में शेषन की साख और जनता के बीच भी सम्मान, उसके बाद चुनाव आयोग के लिए बेहद कठिन कसौटी बन गए हैं। यह स्वाभाविक तो है, पर सवाल भी पैदा करता है कि चुनाव आयोग की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर सवाल और संदेह हमेशा विपक्ष की ओर से ही उठते हैं, जबकि सत्ता पक्ष को वह आदर्श संस्था नजर आता है। आज कांग्रेस चुनाव आयोग की साख को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित नजर आती है, लेकिन राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में ही चुनाव आयोग को एक से तीन सदस्यीय बना दिया गया था, ताकि अंकुश और संतुलन की गुंजाइश बनी रहे।

दरअसल, चुनाव आयोग में चुनाव आयुक्तों की संख्या को लेकर संविधान मौन है। संविधान का अनुच्छेद 324 (2) कहता है कि चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त हो सकते हैं, जिनकी संख्या राष्ट्रपति पर निर्भर करेगी। इसलिए, आजादी के बाद देश में सिर्फ मुख्य चुनाव आयुक्त ही रहे। नौवीं लोकसभा के चुनाव से पहले 16 अक्तूबर, 1989 को राजीव गांधी सरकार ने दो और चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिए, जिससे आयोग बहु- सदस्यीय संस्था बन गया। तब विपक्ष ने आरोप लगाया था कि मुख्य चुनाव आयुक्त आरवीएस पेरीशास्त्री पर अंकुश लगाने के लिए ऐसा किया गया।

सांविधानिक संस्था चुनाव आयोग से सत्ता का खिलवाड़ आगे भी जारी रहा। केंद्र में सत्ता परिवर्तन के साथ व्यवस्था फिर बदली 2 जनवरी, 1990 को विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने चुनाव आयोग को ने फिर एक सदस्यीय बना दिया। फिर जब 1991 पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस की केंद्रीय सत्ता में वापसी हुई, तो 1 अक्तूबर, 1993 को मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ दो चुनाव आयुक्त नियुक्त कर चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बना दिया गया। शायद बहु- सदस्यीय चुनाव आयोग बाद की सरकारों को भी उचित लगा, इसलिए यह व्यवस्था जारी है।

ज्ञानेश कुमार को मुख्य चुनाव आयुक्त बनाए जाने पर सर्वोच्च न्यायालय में लंबित सुनवाई के अलावा, सरकार से उनकी निकटता के चलते भी सवाल उठाए जा रहे हैं। चुनाव आयुक्त सुखबीर सिंह संधू पर भी उत्तराखंड कैडर के चलते सवाल उठाए जाते रहे हैं, तो अब नियुक्त दूसरे चुनाव आयुक्त विवेक जोशी को भी सरकार का विश्वस्त माना जाता है। वैसे, एक दिलचस्प आकलन यह भी है कि साल 2029 में होने वाले अगले लोकसभा चुनाव के समय विवेक जोशी मुख्य चुनाव आयुक्त होंगे, क्योंकि ज्ञानेश कुमार 27 जनवरी, 2029 को सेवानिवृत्त हो जाएंगे।

ठीक इसी तरह की गणना को लेकर सवाल भारतीय जनता पार्टी ने तब उठाए थे, जब 2005 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने नवीन चावला को चुनाव आयुक्त नियुक्त किया था। चावला के मुख्य चुनाव आयुक्त काल में ही साल 2009 के आम चुनाव हुए। उन पर, खासकर पत्नी रुपिका की कांग्रेस से निकटता को लेकर सवाल उठाए गए थे और अतीत में झांकें, तो शेषन की सेवानिवृत्ति के बाद 1996 से 2001 तक मुख्य चुनाव आयुक्त रहे मनोहर सिंह गिल को कांग्रेस ने न सिर्फ राज्यसभा सदस्य, बल्कि मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री भी बनाया। जाहिर है, चुनाव आयोग सरीखी सांविधानिक संस्था में अपने अनुकूल व्यक्तियों की नियुक्ति में संकोच किसी भी सत्तारूढ़ दल ने कभी नहीं किया, पर जब वही दल विपक्ष की भूमिका में आता है, तो उसे आयोग की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता की चिंता सताने लगती है।

इस सांविधानिक संस्था में नियुक्ति की बाबत सात दशक तक किसी कानून का न होना भी सवाल खड़े करता है। कानून न होने के चलते सत्तारूढ़ दल पसंदीदा नौकरशाहों को चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त बनाते रहे, जिनका आचरण अक्सर सवालों व संदेह के दायरे में रहा, इसीलिए यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक गया। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 2 मार्च, 2023 को दिए फैसले में कहा कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति तब तक प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और प्रधान न्यायाधीश का पैनल करेगा, जब तक कि इस बाबत संसद कोई कानून नहीं बना लेती। संसद ने वह काम 21 दिसंबर, 2023 को कर दिया। संसद द्वारा बनाए गए कानून में नियुक्ति पैनल से प्रधान न्यायाधीश को बाहर करते हुए प्रधानमंत्री द्वारा नामित कैबिनेट मंत्री को शामिल किया गया है। विपक्ष समेत कुछ संगठनों की मुख्य आपत्ति यही है कि पैनल में सत्ता पक्ष के बहुमत से फिर नियुक्ति प्रक्रिया संदेहास्पद हो गई है।

बहरहाल, इस पूरे घटनाक्रम में सबके अपने-अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन साझा चिंता चुनाव आयोग की विश्वसनीयता की होनी चाहिए, जिसके बिना चुनाव- प्रक्रिया पर सवाल और संदेह से नहीं बचा जा सकता।


Date: 19-02-25

बदल जाएगा कॉलेज शिक्षकों की नियुक्ति का कायदा

सुखदेव थोराट पूर्व अध्यक्ष, युजीसी

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के प्रावधानों को अमल में लाने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने तेजी से नए नियम बनाने शुरू कर दिए हैं। उसने नियमों को जल्दी लागू करने के लिए एक अभिनव तरीका खोजा है- जटिल मुद्दों पर भी ऑनलाइन फीडबैक मंगाना । तेजी से बनाए गए नियमों की श्रृंखला में नवीनतम है- विश्वविद्यालयों/कॉलेजों में शिक्षकों की नियुक्ति व पदोन्नति के लिए न्यूनतम योग्यता व पात्रता शर्तों का मसौदा राज्य सरकारों द्वारा कुछ प्रावधानों को दूरगामी परिणाम वाला माना जाता है, जिसमें कुलपति की नियुक्ति भी शामिल है। हालांकि, एक विवादास्पद मुद्दा 15 साल से चल रही स्कोर-आधारित शैक्षणिक प्रदर्शन संकेतक प्रणाली (एपीआई) को खत्म करने का कदम है। एपीआई को खत्म करने का कदम शिक्षकों के मूल्यांकन, पदोन्नति और सीधी भर्ती प्रक्रियाओं को व्यक्तिपरकता की ओर ले जाता है।

अभी लागू एपीआई प्रणाली का क्या अर्थ है ? एपीआई प्रणाली गुणवत्ता मूल्यांकन समिति के लिए आवश्यक योग्यता, शिक्षण अनुभव, शोध कार्य और अन्य शैक्षणिक योगदान को निर्धारित करती है। इसकी परिकल्पना 2010 में यूजीसी के अध्यक्ष के रूप में मेरे कार्यकाल के दौरान की गई थी। हालांकि, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने कृषि संकाय के लिए इसका उपयोग काफी पहले शुरू कर दिया था। इसे क्यों शुरू किया गया था ?

दरअसल, यूजीसी ने शिक्षा मंत्रालय के साथ मिलकर भारतीय प्रशासनिक सेवा के समान ही विश्वविद्यालय / कॉलेज शिक्षकों के लिए वेतनमान तय करने का प्रयास किया था। काफी मान-मनौव्वल के बाद मंत्रालय इस शर्त पर राजी हुआ कि आईएएस अधिकारियों की तरह शिक्षकों का भी नियमित मूल्यांकन किया जाना चाहिए। यूजीसी ने इस पर सहमति जताई और एपीआई प्रणाली विकसित की गई। इस प्रणाली के तहत, सहायक प्रोफेसर के वेतनमान में बढ़ोतरी औरएसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर के पद पर पदोन्नति के लिए संकाय सदस्य को शिक्षण, शोध व अन्य शैक्षणिक उपलब्धियों के आधार पर न्यूनतम एपीआई स्कोर हासिल करना जरूरी था। साक्षात्कार में केवल डोमेन ज्ञान का आकलन किया जाएगा। दूसरा कारण यह था कि अकादमिक प्रदर्शन को मापने से व्यक्तिपरकता खत्म होगी और वस्तुनिष्ठता व पारदर्शिता आएगी। इससे पक्षपात, भेदभाव, भाई-भतीजावाद, पूर्वाग्रह और यहां तक कि भ्रष्टाचार की आशंका कम या खत्म हो जाएगी। इसने शिक्षण समुदाय को अनुसंधान, शिक्षण में सुधार, ओरिएंटेशन कोर्स सहित अन्य शैक्षणिक गतिविधियों के माध्यम से पदोन्नति के लिए शर्तों को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित किया है।

अब नई व्यवस्था में वस्तुनिष्ठ नियुक्ति, पदोन्नति के बजाय विवेकाधीन पदोन्नति की ओर हम बढ़ेंगे। कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में नियुक्ति और पदोन्नति संबंधी फैसलों को पूरी तरह से चयन समिति के हवाले कर दिया जाएगा। इतिहास देखें, तो गुणवत्ता सुनिश्चित करने व उत्कृष्टता को बढ़ावा देने के लिए विवेक का शायद ही कभी सही उपयोग किया गया है। ऐसे में, वैचारिक मतभेद की स्थिति में पक्षपात और भेदभाव की आशंका रहेगी। यूजीसी ने चयन समिति को शक्तिशाली बना दिया है।

नई प्रणाली या ताजा नियमन ने नौ नई योग्यताएं पेश की हैं। ये हैं- अभिनव शिक्षण योगदान, अनुसंधान या शिक्षण प्रयोगशाला विकास, परामर्श/प्रायोजित अनुसंधान निधि, भारतीय भाषाओं में शिक्षण योगदान, भारतीय ज्ञान प्रणालियों में शिक्षण और अनुसंधान, छात्र इंटर्नशिप / परियोजना पर्यवेक्षण, डिजिटल सामग्री निर्माण, सामुदायिक जुड़ाव व सेवा और स्टार्टअप इन योग्यताओं को अच्छी तरह से परिभाषित करने की जरूरत है। ध्यान रहे, शिक्षण या अनुसंधान पर सीमित प्रभाव वाली ये योग्यताएं संभावित रूप से शिक्षण व अनुसंधान के मौलिक कर्तव्यों से हमारा ध्यान भटका सकती हैं।

अब चयन समिति सर्वव्यापी है यह तय करना चयन समिति के विवेक पर छोड़ दिया गया है कि शोध प्रकाशन यथोचित पत्रिका में हुआ है या नहीं। जाहिर है, विश्वविद्यालयों में नियुक्ति और पदोन्नति के समय अब ज्यादा सचेत रहना होगा, ताकि एपीआई स्कोर के अभाव में पूर्वाग्रह और भेदभाव की गुंजाइश न बढ़ जाए।