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19-01-2023 (Important News Clippings)
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Check, do not cross
Government should work towards systemic reform, and not attack the judiciary
Editorial
The answers to some of the issues raised by the Government are quite simple, and has been repeatedly pointed out by the Court, as well as the political opposition. It can address the need for a more transparent and independent process by making a fresh legislative effort to establish a neutral mechanism that does not impinge on the independence of the judiciary. Until such an exercise to amend the Constitution achieves fruition, it has to abide by the law of the land, that is, the present system of appointments through the Collegium. It is difficult to avoid the impression that the Government’s tactics are bordering on veiled warnings: deliberately delaying action on recommendations; ignoring reiterated names even after multiple reconsiderations; and carrying on a campaign to delegitimise the institution. It is surprising that it seeks to rein in a judiciary that has been quite accommodative of the Government’s concerns on the judicial side in recent years. The only conclusion is that the current regime wants absolute control over who gets to be a judge in this country. A system of checks and balances that prevents any one branch gaining the upper hand is essential for democratic functioning.
बढ़ती गरीब-अमीर खाई मिटाना प्राथमिकता बने
संपादकीय
ऑक्सफैम की ताजा रिपोर्ट का शीर्षक है ‘सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट, भारत की कहानी’। रिपोर्ट बताती है आर्थिक नीति में आमूलचूल परिवर्तन नहीं किया गया तो चमकते इंडिया के नीचे एक कराहता भारत बना रहेगा। समाजशास्त्री मानते हैं कि समाज के एक बड़े हिस्से का जीवन जीने की जरूरी शर्तों से लंबे समय तक वंचित रहना खतरनाक हो सकता है। लिहाजा आर्थिक नीतियां ऐसी बनें, जिनसे गरीब को भी आगे बढ़ने का पूरा अवसर मिले। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि देश के ऊपरी एक प्रतिशत वर्ग के पास देश की 40% दौलत है जबकि नीचे के 50% के पास मात्र 3% । रिपोर्ट में चौंकाने वाला तथ्य यह है कि देश के गरीब, अमीरों के मुकाबले सरकार को ज्यादा टैक्स देते हैं क्योंकि अमीरों की तुलना में आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं पर गरीब ज्यादा खर्च करते हैं। उदाहरण के लिए नीचे का 50% वर्ग खाने के सामान, गैर-खाने के आइटम्स और दोनों को मिलाकर भी टैक्स का 64% देता है। मध्यम वर्ग जो 40% है कुल टैक्स का औसतन 31% देता है, जबकि ऊपर का धनाढ्य केवल 3-4 प्रतिशत देता है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर भारत के दस अमीरों पर केवल दो प्रतिशत टैक्स लगा दिया जाए तो देश के सभी बच्चों के कुपोषण को अगले तीन साल के लिए दूर किया जा सकता है। अमीरों को भी स्वेच्छा से अभावग्रस्त लोगों के लिए आगे आना होगा।
अमीरों पर लगे ज्यादा टैक्स
राहुल लाल
भारत में असमानता को कम करने के लिए संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों में विशिष्ट प्रावधान किए गए हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 38 (1) एवं अनुच्छेद 39 (1) असमानता को दूर करने के लिए सरकारों को स्पष्ट निर्देश प्रदान करता है। इसके बावजूद भारत में हाल के वर्षों में जिस तरह आर्थिक असमानता में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है, वह चिंताजनक है। सरकार को अपनी कर प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है। हाल के समय में कॉरपोरेट टैक्स में कमी की गई, वहीं दूध-दही जैसी आवश्यक खाद्य वस्तुओं के जीएसटी में वृद्धि की गई। कॉरपोरेट टैक्स में कमी करते हुए सरकार ने कहा था कि इससे नये निवेश को आकर्षित करने में मदद मिलेगी।
लेकिन कंपनियों ने कॉरपोरेट टैक्स में छूट का लाभ तो लिया पर निवेश में कमी अभी चिंता का विषय बनी हुई है। 64 फीसदी जीएसटी 50 फीसदी गरीब दे रहे हैं, जबकि अमीर केवल 10% | स्पष्ट है कि अप्रत्यक्ष करों के संदर्भ में सरकार को अत्यंत संवेदनशील होने की जरूरत है। प्रगतिशील कर प्रणाली मूलतः आय आधारित होती है। प्रत्यक्ष कर में तो इसका पालन हो जाता है परंतु अप्रत्यक्ष कर की चपेट में देश का निर्धनतम व्यक्ति भी आ जाता है। इसलिए सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह जीवनोपयोगी वस्तुओं को जीएसटी के दायरे से बाहर रखे।
रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अरबपतियों की संपत्ति पर दो फीसदी टैक्स लगाया जाए तो तीन साल तक कुपोषण के शिकार बच्चों के लिए सभी जरूरतों को पूरा किया जा सकता है। भारत के 10 सबसे अमीरों पर एक बार 5% कर लगाया जाए तो 1.37 लाख करोड़ रुपये मिलेंगे। यह स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के बजट से 1.5 गुना अधिक है। स्पष्ट है कि अमीरी-गरीबी के खाई को समाप्त करने के लिए सरकार को कॉरपोरेट टैक्स छूट पर पुनर्विचार करना चाहिए और अतिरिक्त प्रगतिशील संपत्ति कर अरबपत्तियों पर लगाना चाहिए। धन के पुनर्वितरण को अधिक न्याय संगत बनाने के लिए वर्तमान नवउदारवादी मॉडल को ‘नॉर्डिक आर्थिक मॉडल’ से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। नॉर्डिक आर्थिक मॉडल में सभी के लिए प्रभावी कल्याण, भ्रष्टाचार मुक्त शासन, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा का मौलिक अधिकार और अमीरों के लिए उच्च कर दर इत्यादि शामिल हैं। आवश्यक है कि जहां विकास दर तीव्र हो, वहीं रोजगारोन्मुखी भी हो। देश बेरोजगारी और महंगाई की समस्याओं से जूझ रहा है। जब सामान्य लोगों की क्रय क्षमता कम हो तो महंगाई लोगों के जीवन स्तर को कम कर देती है। इससे अमीरी-गरीबी के खाई बढ़ती है। आर्थिक विषमता के खात्मे के लिए वंचितों के राजनीतिक सशक्तीकरण की भी आवश्यकता है। राजनीतिक सक्षमता वाले लोग बेहतर शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा की मांग करके इन्हें प्राप्त कर सकेंगे। भारत में अधिकांश रोजगार असंगठित क्षेत्र में है, और वह क्षेत्र नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन से अब तक उभर नहीं पाया है। इसलिए आर्थिक समानता के लिए इस क्षेत्र पर जोर देना आवश्यक है।
दुनिया भर के आर्थिक विशेषज्ञों में इस बात पर सहमति बढ़ रही है कि आर्थिक विकास समावेशी नहीं है, और उसमें टिकाऊ विकास के तीन जरूरी पहलू आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण शामिल नहीं हैं, तो वह गरीबी कम करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। इन्हीं चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में 10वें लक्ष्य का उद्देश्य बढ़ती असमानता को कम करना रखा गया है। वर्तमान में आर्थिक असमानता से उबरने का सबसे बेहतर उपाय यही होगा कि वंचित वर्ग को अच्छी शिक्षा, रोजगार उपलब्ध कराते हुए सुदूरवर्ती गांवों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ा जाए। इसके लिए कल्याणकारी योजनाओं पर ज्यादा खर्च करने की जरूरत है। अभी भी भारत में स्वास्थ्य पर कुल जीडीपी का केवल 1 से 1.5 फीसदी खर्च होता है जबकि यह कम से कम जीडीपी का 6% होना चाहिए। इसी तरह शिक्षा पर भी भारत में जीडीपी का 3% खर्च किया जाता है, जबकि नई शिक्षा नीति में सरकार ने स्वयं माना है कि शिक्षा क्षेत्र में कम से कम जीडीपी का 5% खर्च होना चाहिए। भारत में क्षमता है कि वह नागरिकों को एक अधिकारयुक्त जीवन देने के साथ समाज में व्याप्त असमानता को दूर कर सकता है।