18-12-2024 (Important News Clippings)

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18 Dec 2024
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 Date: 18-12-24

How to Fix India’s Wage Problem

In next 30 yrs, create more lucrative jobs

ET Editorial

At the recent 2024 ET Awards jury meeting, jury chairman Mukesh Ambani said he believed that ‘India doesn’t have a jobs problem, it has a wage problem’. We agree. And it needs fixing. It requires a layered approach, as opposed to merely creating new jobs. Of course, a large volume of low-skilled jobs is part of the solution to the median salary level. But this has to be accompanied by investment in infra and innovation that generates more lu-crative employment. The pace of urbanisation, which has a bearing on high-skilled job creation, is a contributing factor, as is the degree of formalisation of the economy. All of these must coalesce to correct the situation of lower rural wages despite higher labour force participation relative to urban clusters.

Infra and urbanisation reinforce each other while contributing to formalisation of economic processes. Innovation is exogenous to these complementary forces. Yet, it, too, has its own clustering effects. Consider a labour-intensive manufacturing base in the hinterland feeding export markets through world-class logistics chains to its coastal cities that are research hubs in areas such as AI and energy transition. It would be a picture of what India could be in the next three decades. And it would have addressed in large measure the wage problem. But this picture will not be complete unless people are brought to jobs, instead of the other way round.

Cities like Mumbai and Bengaluru have acquired their standards of living by creating jobs for a broad range of workforce skills. The employment opportunity they offer is tiny in relation to the labour supply. Scaling their wage achievements to the national level would require investment in workforce skilling that allows high-income employment to disperse. The ratio of tertiary job-seekers in the workforce has to climb significantly for more urban clusters to be able to sustain wages above the median level. The funnel can be broadened by paying attention to education outcomes at the primary level, which has the biggest falloff.


 Date: 18-12-24

टेक्नोलॉजी और शोध में निवेश बढ़ाने की जरूरत

संपादकीय

एक हफ्ते पहले गूगल ने ‘विलो’ नामक नई क्वांटम चिप लाकर टेक्नोलॉजी की दुनिया में नई क्रांति का आगाज किया। इलोन मस्क जैसे दिग्गज भी इससे अचंभित हैं। जिस काम को सबसे तेज सुपरकंप्यूटर भी अरबों वर्षों में कर सकता था, उसे क्वांटम कंप्यूटिंग से पांच मिनट से भी कम में किया जा सकेगा। चीन ने इस टेक्नोलॉजी के लिए दो साल पहले 15 अरब डॉलर खर्च करने की घोषणा की थी, जबकि अमेरिका ने तीन अरब और यूरोपियन यूनियन ने आठ अरब डॉलर खर्च करने का ऐलान किया है। इधर भारत ने भी वर्ष 2023-24 से अगले पांच वर्ष के लिए इस 800 करोड़ डॉलर के बजट वाले क्वांटम मिशन की घोषणा की है। भारत को इस नई टेक्नोलॉजी पर पकड़ के लिए काफी मेहनत करनी होगी । न भूलें कि पड़ोसी चीन की जीडीपी हमसे छह गुना ज्यादा है और वह इसका तीन प्रतिशत शोध में लगाता है, जबकि भारत मात्र 0.6 प्रतिशत खर्च करता है। फिर आज की हालत में परम्परागत तकनीकी ज्ञान में भारत काफी पीछे है। युवाओं के बीच स्किल गैप कम करना देश की सबसे बड़ी जरूरत है। फिलहाल इस क्षेत्र में जो लीड करेगा वही दुनिया पर शासन भी करेगा। एआई और क्वांटम कंप्यूटिंग जैसे चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों के लिए भारत को युवाओं की फौज तैयार करना होगी।


Date: 18-12-24

समग्र चर्चा जरूरी

संपादकीय

केंद्र सरकार ने मंगलवार को संसद में 129 वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया ताकि लोक सभा और राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकें। एक अलग विधेयक भी पेश किया गया ताकि विधानसभा वाले केंद्र शासित प्रदेशों में भी एकसाथ चुनाव कराए जा सकें। उम्मीद के मुताबिक ही कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने प्रस्तावित संशोधनों का विरोध किया। मोटे तौर पर ऐसा इस आधार पर किया गया कि ये विधेयक संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करते हैं और ऐसा करना सदन की विधायी क्षमता के बाहर है। विपक्ष ने कुछ अन्य आपत्तियां भी उठाईं। मिसाल के तौर पर विधेयक में भारत निर्वाचन आयोग को अतिरिक्त शक्तियां देने की बात शामिल है जिसका विरोध किया गया। चूंकि संविधान संशोधनों के लिए संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। ऐसे में सभी प्रस्तावित प्रावधानों पर विस्तार से चर्चा की उम्मीद की जाती है। विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया है।

एक साथ चुनाव कराने का विचार नया नहीं है। आजादी के बाद कई सालों तक एक साथ चुनाव होते थे। यह चक्र उस समय बाधित हुआ जब राज्यों की विधान सभाओं को समय से पहले भंग किया गया। इसकी शुरुआत 1960 के दशक के आरंभ में हुई और इसकी वजहें राजनीतिक थीं। विधि आयोग समेत कई संस्थाओं ने भी एक साथ चुनाव की पुरानी व्यवस्था को अपनाने का सुझाव दिया है। अभी हाल ही में पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली एक उच्चस्तरीय समिति ने सर्वसम्मति से इस विचार को बढ़ावा देते हुए आगे की राह की अनुशंसा की। उसे प्रस्तुत विधेयक में देखा जा सकता है।

सैद्धांतिक तौर पर यह बात समझी जा सकती है कि लोक सभा और विधान सभा के चुनाव एक साथ कराना समझदारी भरा हो सकता है। चुनावों में राजनीतिक दलों और सरकार द्वारा खर्च किए जाने वाले धन के अलावा भी एक व्यापक नीतिगत पहलू है जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। एक बार चुनाव होने और सरकार बन जाने के बाद केंद्र और राज्य स्तर पर राजनीतिक दल शासन और नीतिगत मुद्दों पर वापस लौट सकते हैं। चुनाव की प्रतिस्पर्धी प्रवृत्ति को देखते हुए सभी राजनीतिक दलों का आचरण अक्सर राज्यों के चुनावों पर निर्भर करता है। कोविंद समिति द्वारा प्रस्तुत तकनीकी विश्लेषण बताता है कि वृद्धि, मुद्रास्फीति, निवेश और सार्वजनिक व्यय आदि पर भी एक साथ चुनाव का सकारात्मक असर होगा।

परंतु एक साथ चुनाव के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों पर चर्चा करने की जरूरत है। संविधान में प्रस्तावित संशोधनों के अनचाहे असर पर भी विचार करना जरूरी है। उदाहरण के लिए विधेयक में प्रस्ताव किया गया है कि लोक सभा की पहली बैठक के बाद पांच साल के समय को सदन का पूर्ण कार्यकाल माना जाएगा। अगर सदन पूरी अवधि के पहले भंग होता है तो भंग होने और पहली बैठक से पांच साल तक के समय को शेष अवधि कहा जाएगा। नए सदन का गठन पांच साल पूरा होने के बाद होगा।

सैद्धांतिक तौर पर देखें तो अगर पहली बैठक के चार साल बाद सदन भंग होता है तो नया सदन केवल एक साल के लिए गठित होगा। चूंकि चुनावी प्रक्रिया में समय लगता है इसलिए सदन का वास्तविक कार्यकाल एक साल से भी कम होगा। ऐसे निष्कर्ष राजनीतिक दलों के चयन को भी प्रभावित कर सकते हैं। एक संभावना यह भी है कि विपक्ष शायद सदन का एक खास अवधि का कार्यकाल पूरा होने के बाद अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाए। इसके परिणामस्वरूप सरकार विश्वास गंवाने के बाद भी सत्ता में बनी रह सकती है। ऐसा ही राज्यों में भी हो सकता है। इसके अलावा पांच साल के भीतर लोक सभा या विधान सभा के दो या अधिक चुनाव होने की संभावना एक साथ चुनावों के आर्थिक तर्क को भी कमजोर करती है। संसदीय समिति के अलावा संसद को भी इन सभी संभावनाओं पर चर्चा करनी होगी।


 Date: 18-12-24

भारत में तस्करी की बढ़ती चुनौतियां

देवेंद्रराज सुथार

भारत में तस्करी आज एक बड़ी समस्या बन गई है, जो सिर्फ कानून व्यवस्था पर ही नहीं, बल्कि देश की आर्थिक स्थिति, समाज और पर्यावरण पर भी असर डाल रही है। तस्करी का प्रभाव केवल कुछ क्षेत्रों तक सीमित नहीं रहता। यह पूरे देश की सुरक्षा, स्वास्थ्य, समाज और पर्यावरण को प्रभावित करता है। राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआइ) की ओर से जारी रपट ‘भारत में तस्करी 2023-24’ में तस्करी की बढ़ती घटनाओं के बारे में चेतावनी दी गई है और इसके समाधान के लिए प्रभावी कदम उठाने की जरूरत बताई गई है। भारत में तस्करी के मुख्य स्रोतों और मार्गों में बदलाव आ रहे हैं।

तस्करी की विभिन्न प्रवृत्तियां भारत में विविध रूपों में दिखती हैं। वर्ष 2023-24 की रपट में कई प्रमुख प्रवृत्तियां उजागर हुई हैं। इनमें कोकीन और अन्य मादक पदार्थों की तस्करी, सोने की तस्करी, वन्यजीवों की तस्करी और ‘सिंथेटिक ड्रग्स’ का बढ़ता कारोबार शामिल हैं। इसके अलावा म्यांमार, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों के साथ भारत की सीमाओं का भी इस्तेमाल तस्करी के लिए किया जा रहा है। वर्ष 2023-24 में कोकीन की तस्करी के सैंतालीस मामले सामने आए। यह संख्या पिछले वर्ष के इक्कीस मामलों से कहीं अधिक है।

इसका मुख्य कारण यह है कि दक्षिण अमेरिका और अफ्रीकी देशों से सीधे हवाई मार्गों और समुद्री मार्गों के माध्यम से भारत में मादक पदार्थ पहुंच जाता है। तस्कर इन नशीले पदार्थों को हवाई मार्गों या समुद्र के रास्ते भारत में भेजते हैं। इसके अलावा ‘ब्लैक कोकीन’ नामक एक नया प्रकार भी सामने आया है, जो अन्य सामान्य कोकीन से अलग है। इसकी ऐसे रासायनिक पदार्थों से ढक कर तस्करी की जाती है जो इसे सामान्य रूप से पकड़े जाने से बचाता है, जैसे चारकोल या आक्साइड। इस प्रकार की तस्करी को रोकने के लिए नए तकनीकी उपायों की आवश्यकता है।

भारत में सोने की तस्करी विशेष रूप से बढ़ी है, क्योंकि देश में इस पर उच्च आयात शुल्क लगाया जाता है। इससे अवैध तस्करी को बढ़ावा मिलता है। वर्ष 2023-24 की रपट में यह पाया गया है कि सोने की तस्करी पश्चिम एशिया से विशेष रूप से संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब से की जा रही है। सोने की तस्करी के लिए ‘म्यूल्स’ (सामान ले जाने वाले व्यक्ति) का उपयोग किया जाता है, जिनमें विदेशी नागरिक या कभी-कभी हवाई अड्डों के कर्मचारी भी शामिल होते हैं। इसके अलावा भारत में वन्यजीवों की तस्करी भी एक गंभीर मुद्दा बन चुकी है।

हाथी दांत, तेंदुओं की खाल और अन्य संरक्षित प्रजातियों की तस्करी की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। इनकी तस्करी से जैव विविधता पर संकट बढ़ रहा है और पर्यावरणीय असंतुलन भी पैदा हो रहा है। विशेष रूप से हाथी दांत की तस्करी दक्षिण-पूर्व एशिया में उच्च मांग के कारण बढ़ी है। इसके अलावा, तारे वाले कछुए (जो अपनी औषधीय और सजावटी उपयोगिता के लिए प्रसिद्ध हैं) की अवैध रूप से तस्करी कर विदेश में भेजा जा रहा है। इसी तरह भारत में म्यांमा, लाओस और थाईलैंड जैसे देशों से ‘सिंथेटिक ड्रग्स’ और हेरोइन की तस्करी की घटनाएं बढ़ी हैं। ये पदार्थ मुख्य रूप से उत्तर-पूर्वी राज्यों से भारत में प्रवेश करते हैं।

भारत में तस्करी के लिए मुख्य रूप से तीन प्रमुख मार्गों का उपयोग किया जाता है, पहला हवाई मार्ग, दूसरा समुद्री और तीसरा सड़क मार्ग। ऐसी खबरें आती रही हैं कि हवाई मार्ग तस्करों के लिए सुविधाजनक बन चुका है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय हवाई यातायात में वृद्धि हुई है। तस्कर मादक पदार्थों को सूटकेस, पार्सल से या निगल कर भारत भेजने का प्रयास करते हैं। हवाईअड्डों पर सुरक्षा उपायों को चकमा देकर यह पदार्थ विदेशों से बड़ी आसानी से भारत में लाए जाते हैं। यहां विशाल तटीय क्षेत्रों के कारण समुद्री मार्गों का उपयोग भी तस्करी के लिए बढ़ा है।

तस्कर समुद्री कंटेनरों और मछली पकड़ने वाली नौकाओं में मादक पदार्थों को छिपा कर भारत में लाते हैं। इसके अलावा, तस्करी के लिए समुद्री मार्गों का इस्तेमाल बहुत सस्ता होता है, जो इसे एक प्रभावी विकल्प बनाता है। भारत की जमीनी सीमाएं (विशेष रूप से बांग्लादेश, पाकिस्तान और म्यांमा से) तस्करों के लिए प्रमुख प्रवेश बिंदु बन चुकी हैं। इन सीमाओं के पास भौगोलिक परिस्थितियां और निगरानी की कमी तस्करी को बढ़ावा देती हैं।

तस्करी के दुष्प्रभाव समाज और देश पर गहरे रूप से पड़ते हैं। मादक पदार्थों, सोने, कीमती रत्नों और वन्यजीव उत्पादों की तस्करी से राजस्व में भारी कमी होती है। जब ये वस्तुएं अवैध रूप से आयात या निर्यात होती हैं, तो सरकार को उनका कर और शुल्क नहीं मिल पाता, जिससे देश की आर्थिक वृद्धि बाधित होती है। दूसरी ओर, मादक पदार्थों की तस्करी विशेष रूप से चिंता का विषय है, क्योंकि यह युवा पीढ़ी को नशे की लत में डाल देती है। नशे के कारण युवाओं में अपराध की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं, जो न केवल उनके व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करती हैं, बल्कि समाज में असंतुलन का कारण भी बनती हैं। युवा जब नशे की लत में फंस जाते हैं, तो न केवल उनका स्वास्थ्य प्रभावित होता है, बल्कि उनकी मानसिक स्थिति और सोचने की क्षमता भी कमजोर पड़ जाती है। नतीजा यह कि अपराध बढ़ता है। समाज में असुरक्षा की भावना पनपती है।

इसके अलावा सोने और अन्य कीमती धातुओं की तस्करी से भी राजस्व की हानि होती है। तस्करी के जरिए ये वस्तुएं अवैध रूप से आयात होती हैं, जिससे भारतीय बाजार में इनकी आपूर्ति बढ़ जाती है, जबकि सरकार इनसे मिलने वाले शुल्क और करों से वंचित रह जाती है। इससे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वन्यजीवों की तस्करी भी एक गंभीर समस्या है, जिससे जैव विविधता पर बुरा असर पड़ता है। अवैध शिकार और वन्यजीव उत्पादों की तस्करी से कई दुर्लभ प्रजातियां समाप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं।

भारत में तस्करी को प्रभावी ढंग से रोकने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। सबसे पहले सीमा सुरक्षा को मजबूत करना आवश्यक है। इसके लिए नई तकनीकों का उपयोग जैसे ड्रोन, कैमरा निगरानी और सेंसर-आधारित सुरक्षा उपायों को लागू करना चाहिए, ताकि तस्करी की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखी जा सके। इसके साथ ही जन जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है, ताकि लोग तस्करी के दुष्प्रभावों को समझ सकें और इस अवैध व्यापार का हिस्सा बनने से बचें। इसके अलावा कानून प्रवर्तन एजंसियों को सशक्त बनाना भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

एजंसियों को आवश्यक संसाधन और नई तकनीकों से प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, जिससे वे तस्करी के मामलों में त्वरित और प्रभावी कार्रवाई कर सकें। इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय सहयोग की दिशा में भी काम करना होगा। तस्करी के मामलों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुफिया जानकारी का आदान-प्रदान और सहयोग बढ़ा कर तस्करी के संजाल को तोड़ा जा सकता है। इस प्रकार तस्करी की रोकथाम के लिए एक समग्र और समन्वित प्रयास की आवश्यकता है, जिसमें सरकार, सुरक्षा एजंसियां और समाज सभी का सहयोग आवश्यक है।

तस्करी के दुष्प्रभाव समाज और देश पर गहरे रूप से पड़ते हैं। मादक पदार्थों, सोने, कीमती रत्नों और वन्यजीव उत्पादों की तस्करी से राजस्व में भारी कमी होती है। जब ये वस्तुएं अवैध रूप से आयात या निर्यात होती हैं, तो सरकार को उनका कर और शुल्क नहीं मिल पाता, जिससे देश की आर्थिक वृद्धि बाधित होती है। दूसरी ओर, मादक पदार्थों की तस्करी विशेष रूप से चिंता का विषय है, क्योंकि यह युवा पीढ़ी को नशे की लत में डाल देती है। नशे के कारण युवाओं में अपराध की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं, जो न केवल उनके व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करती हैं, बल्कि समाज में असंतुलन का कारण भी बनती हैं।


 Date: 18-12-24

तलाक का भार

संपादकीय

अतुल सुभाष की खुदकुशी के साथ एक युवा दांपत्य जीवन की जैसी गिरहें खुलकर सामने आई, उनसे वैवाहिक जीवन को लेकर एक देशव्यापी बहस छिड़ गई थी। मगर इस पर जारी सामाजिक विमर्श अभी शांत भी नहीं पड़ा था कि हरियाणा में करनाल से आई एक खबर ने न सिर्फ सबको चौंका दिया, बल्कि विवाह संस्था से जुड़ी बहस को एक नया रुख दे दिया है। करनाल की एक 73 साल की बुजुर्ग महिला ने लंबी कानूनी लड़ाई लड़कर न सिर्फ तलाक लिया, बल्कि मुआवजे के तौर पर किसान पति से तीन करोड़ रुपये भी हासिल किए। जैसे कि ब्योरे हैं, 70 वर्षीय किसान पति को मुआवजा राशि जुटाने के लिए अपने खेत बेचने पड़े हैं और अब वे 44 साल के दांपत्य जीवन से आजाद हो गए हैं। हालांकि, दोनों 2008 से ही अलग-अलग रह रहे थे, मगर तीन संतानों की उपस्थिति भी उनके बीच पुल का काम न कर सकी। यह खबर इसलिए अधिक हैरान करती है, क्योंकि ‘ग्रे डाइवोर्स’ यानी वरिष्ठ दंपतियों में तलाक की मांग महानगरों की सीमा लांघकर अब छोटे शहरों-कस्बों तक पहुंचने लगी है।

अभी बहुत ज्यादा दिन नहीं बीते, जब देश के एक प्रसिद्ध संगीतकार के 29 साल के वैवाहिक जीवन से अलग होने की खबर सामने आई और लोग इस सूचना पर थोड़े चौंक भी गए, क्योंकि वह बेहद शांत व गंभीर शख्सीयत के मालिक माने जाते हैं। वैसे, सेलिब्रिटीज की शादी और तलाक की खबरें अब सामाजिक आलोड़न नहीं पैदा करतीं,क्योंकि जन धारणाओं में उनकी एक अलग दुनिया है, जो बेहद आत्मकेंद्रित, आजाद मिजाज और आत्मनिर्भर है, मगर यदि गांवों-कस्बों के पारंपरिक समाज के बुजुर्गों में तलाक की ललक बढ़ने लगी, तो यह भारतीय परिवार और विवाह संस्था के लिए जरूर चिंता की बात होनी चाहिए। भारतीय परिवार संस्था के मूल में यह मान्यता रही है कि वक्त बीतने के साथ पति-पत्नी की आपसी समझ बढ़ती जाती है और संतान की परवरिश व उनकी जिम्मेदारियों के निबाह में उनके रिश्ते एक ऐसे अटूट बंधन में तब्दील हो जाते हैं कि उम्र के आखिरी दिनों में वे एक-दूसरे के सबसे अच्छे दोस्त साबित होते हैं। यही नहीं, संबंधों के निर्वाह के मामले में वे युवा पीढ़ियों के मार्गदर्शक बनते रहे हैं। ऐसे में, उम्र के चौथेपन में यदि वे ही विच्छेद की ओर बढ़ने लगे, तो परिवार का क्या होगा ?

पच्चीस वर्ष से अधिक समय तक वैवाहिक जीवन में रहने के बाद संबंध विच्छेद की घटनाएं पश्चिमी संस्कृति में आम बात रही हैं। हाल ही में प्यू रिसर्च ने अपने एक अध्ययन में बताया था कि अमेरिका में पिछले दो दशकों में जितने भी तलाक हुए, उनमें से 40 फीसदी मामलों में दंपति 50 वर्ष से अधिक उम्र के थे। भारत में आधिकारिक आंकड़े भले उपलब्ध न हों, मगर परिवार कानून से जुड़े वकीलों की मानें, तो पिछले पांच वर्षों में ‘ग्रे डाइवोर्स’ के मामलों में लगभग 40 फीसदी की वृद्धि हुई है और इनमें से भी करीब 75 प्रतिशत मामलों में महिलाएं इसकी पहल करती हैं। साफ है, बढ़ती महत्वाकांक्षाएं सिर्फ युवा दंपतियों के रिश्ते में ही दरार नहीं डाल रहीं, बल्कि अधेड़ उम्र के जोड़ों के बीच भी एक-दूसरे से शिकायतें बढ़ा रही हैं। ऐसे में, सामाजिक संस्थाओं व सरकारी निकायों को उम्रदराज लोगों को काउंसिलिंग की सुविधा मुहैया करानी चाहिए। जब वृद्धाश्रमों वाले समाज की तुलना में मजबूत परिवार संस्था वाले समाज की अहमियत पश्चिम समझने लगा है, तो फिर हम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारें?


 Date: 18-12-24

फिर एक साथ चुनाव की कवायद

राजकुमार सिंह, ( वरिष्ठ पत्रकार )

यह संयोग ही है कि जब संसद में संविधान पर चर्चा के दौरान पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा कर रहे थे, तभी 129वां संविधान संशोधन बिल को लोकसभा में पेश किया गया। वह संविधान संशोधन विधेयक एक देश-एक चुनाव संबंधी है। बेशक, मोदी सरकार की यह मंशा पुरानी है, लेकिन ऐसा नहीं है कि सब कुछ आनन-फानन में हो रहा है। 18वीं लोकसभा के चुनाव से पहले ही 2 सितंबर, 2023 को मोदी सरकार ने इस बाबत पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय समिति गठित की थी। समिति ने 15 मार्च, 2024 को 18,624 पृष्ठों की अपनी विस्तृत रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को सौंपी थी, जिसे 18 सितंबर को कैबिनेट ने मंजूर कर लिया। स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन और उसके बाद गृह मंत्री अमित शाह की टिप्पणियों से अनुमान लगाया जाने लगा था कि संसद के शीतकालीन सत्र में यह विधेयक आ सकता है।

इसलिए यह अचानक नहीं हो रहा हो, सच यह भी है कि इस मुद्दे पर देश में गहरा राजनीतिक विभाजन है। मोदी सरकार के एक देश-एक चुनाव के इरादे पर विरोध के स्वर उठते रहे हैं। जब कोविंद समिति बनाई गई थी, तब राजनीतिक विरोध ज्यादा मुखर हुआ। कोविंद समिति द्वारा विचार-विमर्श की प्रक्रिया में भी राजनीतिक विभाजन साफ नजर आया। भाजपा और उसके मित्र दलों ने इसका समर्थन किया, जबकि कांग्रेस समेत ज्यादातर विपक्षी दलों, खासकर क्षेत्रीय दलों ने तीखा विरोध 17 दिसंबर को लोकसभा में 129वां संविधान संशोधन विधेयक पेश करने के लिए हुए मतदान में भी यही समर्थन और विरोध सामने आया। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला और कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल की टिप्पणियों से स्पष्ट है, अब संयुक्त संसदीय समिति बनाकर इस बिल के सभी पहलुओं पर और विस्तार से गौर किया जाएगा।

बहरहाल, यह विडंबना ही है कि पिछले कुछ दशकों में हमारे राजनीतिक दल और नेता किसी भी मुद्दे पर गुण-दोष के आधार चर्चा करने के बजाय अपनी पूर्व निर्धारित सोच के बंधक ज्यादा नजर आते हैं। एक देश-एक चुनाव के दोनों पहलू हैं। सत्ता पक्ष का सबसे बड़ा तर्क यह है कि इससे चुनावी खर्च में भारी कमी आएगी और बार-बार होने वाले चुनावों के समय लागू होने वाली आदर्श आचार संहिता से विकास कार्यों के बाधित होने की समस्या से भी बचा जा सकेगा। साथ ही चुनाव संपन्न करवाने के लिए सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों की तैनाती से उनके मूल काम पर पड़ने वाले असर से भी बचा जा सकेगा।

दूसरी ओर, विरोध में विपक्ष के तर्क है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराना न सिर्फ व्यावहारिक दृष्टिकोण से चुनौतीपूर्ण है, बल्कि इससे देश के संघीय ढांचे पर असर पड़ सकता है। राज्यों की स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित हो सकती है। वह भी कि लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों और नेतृत्व के चेहरे पर लड़े जाते हैं, जबकि विधानसभा चुनाव राज्य के मुद्दों और नेतृत्व के चेहरे पर। ऐसे में, क्या राष्ट्रीय मुद्दों के शोर में राज्यों के मुद्दे और नेतृत्व गौण नहीं हो जाएंगे ? निकाय चुनाव में तो मुद्दों और नेतृत्व का और भी स्थानीयकरण हो जाता है।

जाहिर है, किसी भी पक्ष के तर्कों को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। वैसे एक देश-एक चुनाव का अर्थ यह हरगिज नहीं है कि एक ही दिन सारे चुनाव हो जाएंगे। कोविंद समिति के सुझावों के मुताबिक, पहले चरण में लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव हो और फिर 100 दिनों के अंदर दूसरे चरण में निकाय चुनाव एक साथ कराए जाएंगे, यानी चुनाव प्रक्रिया कुछ महीने तक तो चलेगी ही और उस दौरान आदर्श आचार संहिता भी लागू रहेगी। फिर भी, हर दो-चार महीने के बाद कहीं न कहीं चुनाव होने की जटिलता से बचा जा सकेगा। यह समझाने के लिए भी किसी बड़े गणितज्ञ की जरूरत नहीं कि इससे चुनाव खर्च काफी कम हो जाएगा। जहां तक सवाल संघवाद पर खतरे और राज्यों की स्वतंत्र निर्णय संबंधी क्षमता प्रभावित होने का है, तो विरोध कर रहे राजनीतिक दल और नेता भुला देना चाहते हैं कि 1967 तक भारत में लोकसभा

और विधानसभा चुनाव साथ ही होते रहे। उसके बाद ही यह प्रक्रिया भंग हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लोकसभा चुनाव निर्धारित समय से पहले कराने के फैसले ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभाई। कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देने के लिए गैर- कांग्रेसी दलों में 1963 से ही शुरू हो गई तालमेल की कवायद का परिणाम यह निकला कि 1967 में कुछ राज्यों में संयुक्त विधायक दल सरकारें बनीं। राजनीतिक जोड़-तोड़ के चलते वे अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई और उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब, पश्चिम बंगाल एवं नगालैंड में मध्यावधि चुनाव अवश्यंभावी हो गए। कमोबेश उसी समय कांग्रेस में सत्ता संघर्ष चल रहा था। पंडित जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद प्रधानमंत्री बनी इंदिरा गांधी दोहरी चुनौतियों से रूबरू थीं। एक ओर कांग्रेस का जनाधार सिकुड़ने लगा था, तो दूसरी ओर कांग्रेस के स्थापित क्षत्रप उन्हें खुलकर काम नहीं करने दे रहे थे। अंततः 1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया और कांग्रेसजनों का बड़ा हिस्सा इंदिरा गांधी के साथ आया। संसद में सीपीआई, द्रमुक और कुछ अन्य दलों के समर्थन से वह सत्ता में भी बनी रहीं।

जब पूर्व राजघरानों के प्रिवी पर्स बंद करने का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया, तो इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग करके अपनी लोक-लुभावन नीतियों पर जनमत संग्रह के लिए समय-पूर्व चुनाव का दांव चला। इंदिरा गांधी ने वह पूरा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों और अपनी करिश्माई छवि पर केंद्रित रखा। उनका दांव सफल रहा। विपक्षी गठबंधन को मात देकर इंदिरा गांधी 352 सीटें जीतने में सफल रहीं, पर देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराने की प्रक्रिया पर विराम लग गया आपातकाल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को बेदखल करके केंद्रीय सत्ता में आई जनता पार्टी सरकार के पतन के बाद लोकसभा के भी मध्यावधि चुनाव भी अवश्यंभावी हो गए।

बहरहाल, साल 2014 में अकेले दम बहुमत के साथ केंद्रीय सत्ता में आने और फिर देश के कई राज्यों में भी अकेले दम या गठबंधन सहयोगियों के साथ सुविधाजनक बहुमत की सरकारें चलाते हुए भाजपा को लगता है कि एक साथ चुनाव की प्रक्रिया में वापस लौटा जा सकता है, पर उसके लिए दो-तिहाई बहुमत जुटाना आसान नहीं होगा।