18-11-2023 (Important News Clippings)
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Date:18-11-23
गाजा पर सुरक्षा परिषद की पहली सफलता
संपादकीय
गाजा में इजराइली सैन्य कार्रवाई के शिकार बच्चों और माताओं की लाशों पर बिलखती तस्वीरें कठोर से कठोर दिल को द्रवित करती हैं। शायद अमेरिका को भी यह अहसास हो गया। लिहाजा इजराइली हमले पर उसका रुख बदलने से 15 सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् (यूएनएससी) में पहली बार एक प्रस्ताव 12-0 से पारित हो सका। पांच वीटो शक्ति संपन्न देशों में तीन (अमरीका, रूस और इंग्लैंड) ने मतदान में भाग नहीं लिया। इसके पहले के प्रस्ताव अमेरिकी वीटो के कारण पारित नहीं हो सके थे। बहरहाल इस प्रस्ताव को इजराइल ने तत्काल खारिज करते हुए कहा कि इसमें 7 अक्टूबर के हमास के इजराइल पर हमले की निंदा का जिक्र नहीं है। उधर परिषद ने सहमति पाने के लिए मसौदे में ‘कार्रवाई रोकने की मांग’ की जगह ‘कार्रवाई में ठहराव का आह्वान’ जोड़ा। माना जा रहा है कि इसके पीछे अमेरिका और ब्रिटेन का दबाव था। बहरहाल रूस ने मतदान का बहिष्कार इस आधार पर किया कि प्रस्ताव में मानवीय आधार पर युद्ध विराम की बात नहीं है। वैसे तो सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव यूएन के हर सदस्य देश के लिए बाध्यकारी होते हैं लेकिन पहले भी और हाल के दिनों में भी इसकी खुलेआम अवहेलना देखने में आई । येनकेन प्रकारेण परिषद के इस प्रस्ताव के पारित होने से इजराइल पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनेगा।
न्याय पर भरोसा घटाने वाली परिपाटी
सीबीपी श्रीवास्तव, ( लेखक सेंटर फार अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेंस के अध्यक्ष हैं )
यह एक स्थापित तथ्य है कि न्याय चाहे विधि द्वारा स्थापित व्यवस्था से दिया जाए या वह प्राकृतिक हो, उसका उद्देश्य हमेशा अर्थपूर्ण न्याय देना ही होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति या संस्था के साथ अन्याय हो रहा है, उसे दूर किया जाएगा। यही भारत के न्याय तंत्र का मूल तत्व है। ऐसे में अगर न्याय मिलने में विलंब हो रहा हो तो वह निश्चित रूप से अर्थपूर्ण नहीं होगा। हालांकि, विलंबित न्याय के कई कारण हैं, लेकिन तारीख पर तारीख का एक अंतहीन सिलसिला यानी स्थगन की कुसंस्कृति एक ऐसा कारक साबित हो रही है, जिसने भारत के न्यायिक तंत्र में गहरी पैठ जमा ली है। इतनी अधिक कि मुख्य न्यायाधीश को भी बीते दिनों इसे रेखांकित करने पर विवश होना पड़ा। स्थगन की यह कुसंस्कृति वस्तुत: वादियों-प्रतिवादियों के साथ सीधे तौर पर अन्याय का कारण बन रही है। कोई भी वादी अपने मुकदमे की कानूनी बारीकियों से अनभिज्ञ होता है और उसके लिए वह पूरी तरह अपने अधिवक्ता पर निर्भर होता है। वह अपनी क्षमता से कहीं अधिक समय और पैसा खर्च करता है। आंकड़ों के अनुसार, आम तौर पर मामलों के निपटारे में तीन साल और नौ महीने लग जाते हैं। स्थगन की कुसंस्कृति मामलों के लंबित रह जाने के पीछे एक बड़ी हद तक जिम्मेदार है।
नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के अनुसार भारत के विभिन्न न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या लगभग चार करोड़ 42 लाख है। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने हुसैन आरा खातून बनाम बिहार राज्य (1979) मामले में यह कहा था कि ‘त्वरित सुनवाई का अधिकार’ एक मूल अधिकार है, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद-21 द्वारा गारंटीकृत प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार के अर्थ में शामिल है। ऐसी स्थिति में स्थगन की परंपरा त्वरित न्याय की उपलब्धता के मार्ग में बड़ा व्यवधान उत्पन्न करती है। मुख्य न्यायाधीश डीवाइ चंद्रचूड़ ने भी हाल में चिंता व्यक्त करते हुए यह कहा कि पिछले दो-तीन महीनों में अधिवक्ताओं ने 3,688 मामलों में स्थगन की मांग की है। यानी स्थगन भारतीय न्याय तंत्र में विरोधाभास उत्पन्न करने वाला एक प्रमुख कारण बना हुआ है।
स्थगन के विषय पर यदि कानूनों की बात करें तो इनमें कई सुरक्षा उपाय हैं। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XVII में प्रविधान है कि मुकदमे के दौरान एक पक्ष को केवल तीन स्थगन दिए जाएंगे। इसके अलावा, इसमें यह भी प्रविधान है कि स्थगन केवल पर्याप्त कारण के लिए ही दिया जाएगा या फिर तब जब परिस्थितियां किसी पक्ष के नियंत्रण से बाहर हों। यहां विचारणीय यह है कि कानून बनने के बाद भी कार्यान्वयन में कमी है। इसी प्रकार, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 309 में दांडिक मामलों में स्थगन से संबंधित प्रविधान है।
इसके अनुसार, किसी भी जांच या मुकदमे में कार्यवाही तब तक निरंतर चलती रहनी चाहिए, जब तक उपस्थित सभी गवाहों की जांच नहीं हो जाती। हालांकि, यदि अदालत यह निर्धारित करती है कि स्थगन आवश्यक है तो वैध कारण दर्ज किए जाने चाहिए। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 376, 376ए, 376एबी, 376बी, 376सी, 376डी, 376डीए, या धारा 376डीबी के अंतर्गत यौन अपराध जैसे कुछ अपराधों से संबंधित मामलों के लिए, जांच या मुकदमा आरोप पत्र दाखिल करने की तारीख से दो महीने के भीतर पूरा किया जाना चाहिए।
यदि किसी मुकदमे के दौरान अदालत कार्यवाही को स्थगित करना आवश्यक या उचित समझती है, तो उसे ऐसा करने का अधिकार है। देरी की अवधि उचित होने के आधार पर और दर्ज किए गए विशिष्ट कारणों पर विचार करते हुए निर्धारित की जानी चाहिए। यदि स्थगन या स्थगन की इस अवधि के दौरान कोई आरोपित व्यक्ति हिरासत में है, तो उसे वारंट द्वारा रिमांड पर लिया जा सकता है। जैसा कि ऊपर उल्लेख है कि वादी या प्रतिवादी तब तक स्थगन का अनुरोध नहीं कर सकते जब तक कि परिस्थितियां उनके नियंत्रण से बाहर न हों। किसी पक्ष के अधिवक्ता का किसी अन्य न्यायालय में अनुपस्थित रहना स्थगन का कारण नहीं हो सकता। यदि कोई गवाह अदालत में मौजूद है, लेकिन कोई पक्ष या उसका अधिवक्ता उससे पूछताछ करने के लिए तैयार नहीं है, तो न्यायालय के पास गवाह का बयान दर्ज करने के संबंध में उचित निर्णय लेने का अधिकार है। ईश्वर लाल माली राठौड़ बनाम गोपाल (2021) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट रूप से कहा था कि कानून और पेशेवर नैतिकता इस तरह के अभ्यास की अनुमति नहीं देती।
किसी न किसी बहाने बार-बार स्थगन और टालमटोल की रणनीति अपनाना न्याय और मामलों के शीघ्र निपटारे की अवधारणा का अपमान है। जमीनी स्तर पर यह भी देखने में आता है कि जब भी ट्रायल कोर्ट अनावश्यक स्थगन देने से इन्कार करते हैं तो कई बार उन पर सख्त होने का आरोप लगाया जाता है और उन्हें बार यानी वकीलों की नाराजगी का सामना करना पड़ता है। सवाल यह है कि क्या न्यायपालिका में अधिकारियों, जिनसे सभी प्रकार के न्याय की अपेक्षा है, को इस बारे में अपने विवेक से कार्य नहीं करना चाहिए ताकि वादियों के प्रति वे अपने कर्तव्यों का सही अर्थ में पालन कर सकें। यह किसी से छिपा नहीं कि बार-बार तारीखों की मांग न केवल न्याय देने में विलंब करती है, बल्कि यह आम नागरिकों में गलत संदेश देती है और अंतत: न्यायिक तंत्र पर उनका भरोसा भी घटाती है।
एक कुशल एवं प्रभावी न्याय वितरण प्रणाली सुनिश्चित करने एवं नागरिकों का विधि के शासन में विश्वास बनाए रखने के लिए न्यायालयों को अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। हीलाहवाली के रवैये का परित्याग करना होगा। समय पर कार्यवाही संपादित करनी होगी। मुख्य न्यायाधीश ने तारीख पर तारीख का जिस प्रकार संज्ञान लिया है, उसे न्यायिक बिरादरी में एक चेतावनी और मिसाल के रूप में लिया जाना चाहिए। भारतीय संविधान उच्चतम न्यायालय को अंतिम रूप से अर्थपूर्ण न्याय देने के लिए उत्तरदायी भी बनाता है। ऐसी स्थिति में यदि आवश्यक हो तो शीर्ष न्यायालय को अपने स्तर से ही स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करने चाहिए, ताकि स्थगन की यह परिपाटी बेलगाम न हो।
Date:18-11-23
अविकसित की आवाज
संपादकीय
दुनिया अमीर और गरीब के खानों में बंटी हुई है। अमीर देशों का गरीब देशों पर किसी न किसी रूप में या तो दबदबा बना रहता है या फिर वे उन्हें अलग-थलग किए रहते हैं। ऐसे में महाशक्तियों के रूप में चिह्नित देशों को चुनौती देने की कोशिशें होती रहती हैं। वैश्विक दक्षिण देशों की एकजुटता उसी की एक कड़ी है। इन देशों के दूसरे सम्मेलन से एक बार फिर यह उम्मीद जगी है कि वे अमीर कहे जाने वाले देशों के समांतर अपनी एक ताकतवर व्यवस्था कायम कर सकते हैं। जी- 20 सम्मेलन के बाद भारत ने वैश्विक दक्षिण की आवाज नामक इस सम्मेलन की अगुआई की। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने फिर से वैश्विक दक्षिण के देशों को एकजुट होकर नई वैश्विक चुनौतियों का सामना करने की अपील की। पश्चिम एशिया में जिस तरह की उथल-पुथल चल रही है, उसमें वैश्विक दक्षिण के देशों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। वैश्विक दक्षिण के समूह में वे देश शामिल हैं, जो शीतयुद्ध के बाद अलग-थलग पड़ गए थे। वे औद्योगिक क्रांति से दूर रह गए थे और प्रायः पूंजीवादी तथा साम्यवादी देशों से उनका संघर्ष बना हुआ था। इसमें ज्यादातर एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के देश हैं।
वैश्विक उत्तर में वे देश हैं, जिन्होंने औद्योगिक क्रांति के जरिए काफी तरक्की कर ली और अब वे दुनिया के बाजारों में अपनी पैठ बनाए हुए हैं। उनमें अमेरिका, यूरोप, कनाडा, रूस, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देश हैं। आबादी के लिहाज से वैश्विक दक्षिण के देश बड़ी श्रमशक्ति और उपभोक्ता बाजार हैं। अगर वे एकजुट होकर संपन्न देशों पर से अपनी निर्भरता खत्म कर लेते हैं, तो विश्व अर्थव्यवस्था की सूरत काफी कुछ बदल सकती है। ऐसे में भारत इन देशों को एकजुट करके न केवल अपने लिए एक बड़े बाजार का निर्माण करना चाहता है, बल्कि चीन को चुनौती भी देने की कोशिश कर रहा है। वैश्विक दक्षिण के देश विकासशील और अविकसित की श्रेणी में गिने जाते हैं। उनमें आर्थिक असमानता बहुत है। इसका लाभ उठा कर चीन इन देशों में अवसंरचना के विकास के जरिए अपनी पैठ बनाने की कोशिश में लगा हुआ है। ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ परियोजना उसने इसी महत्त्वाकांक्षा से शुरू की थी। भारत अभी विकसित देशों की श्रेणी में तो नहीं गिना जाता, मगर वह विकासशील की श्रेणी में भी नहीं रहा । वह तेजी के बढ़ रही अर्थव्यवस्था है और उसकी चीन से प्रतियोगिता रहती है। इस तरह भारत वैश्विक दक्षिण देशों की एकजुटता के जरिए अपने पड़ोस में बढ़ती चीन की गतिविधियों पर अंकुश लगाने में कामयाब हो सकता है।
इस बार के जी-20 सम्मेलन में भी अध्यक्ष के रूप में भारत ने वैश्विक दक्षिण पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया था। भारत की पहल पर ही अफ्रीकी समूह को भी जी-20 का सदस्य बनाया गया था। इस तरह भारत की पहल पर वैश्विक दक्षिण के देश वैश्विक उत्तर के देशों वाले मंचों पर भी उपस्थिति बनाने लगे हैं। आसियान और ब्रिक्स समूहों में उनकी शिरकत है। ये देश स्वाभाविक रूप से भारत पर भरोसा करते हैं। पिछले कुछ समय से जिस तरह रूस- यूक्रेन युद्ध और इजराइल हमास संघर्ष के चलते वैश्विक स्थितियां प्रभावित हुई हैं। आपूर्ति श्रृंखला बाधित हुई है और आर्थिक मंदी के इस दौर में वैश्विक दक्षिण के देशों के सामने चुनौतियां बढ़ी हैं, उसमें नए विकल्पों की तलाश के लिए भारत की अपील समय की मांग है।
Date:18-11-23
तकनीक पर नकेल जरूरी
सुशील देव
कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा। कंप्यूटर तकनीक की दुरुपयोग के संदर्भ में डीपफेक का खेल आज यही चरितार्थ कर रहा है। यानी किसी का चेहरा किसी में लगाकर, किसी का वीडियो किसी में मिलाकर ऐसा नकली फोटो या वीडियो बना दिया जाता है, जिसको साधारणतया समझना मुश्किल होता है कि वह असली है या नकली। एडवांस्ड टेक्नोलॉजी आज हमें अजब – गजब की दुनिया दिखा रही है। यह हमारी संभावनाओं के द्वार जरूर खोलती हैं, मगर जब तकनीक का गलत इस्तेमाल होने लगे, किसी की निजी हानि होने लगे तो यह वाकई चिंता का सबब है और समाज के लिए घातक ।
फिल्म अभिनेत्री रश्मिका मंदाना के फेक वीडियो ने सारी तकनीकी करतूत की कलई खोलकर रख दी है। इस मुद्दे पर न केवल चर्चा करने बल्कि इसके दुरुपयोग पर अंकुश लगाने का वक्त आ गया है। सनद रहे कि डीप फेक का मतलब यहां घोर नकली होना है। इस तकनीक की हेराफेरी से किसी के चेहरे का फोटो या वीडियो आसानी से तोड़-मरोड़ा जा सकता है। किसी के आवाज की नकल की सकती है। जाहिर है, इससे समाज में खतरे की आशंका बढ़ जाती है। आज सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म या इंटरनेट के माध्यमों पर ऐसी हेरा-फेरी खूब चल रही है। फेक वीडियो की बात करें तो अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का एक नकली वीडियो जारी हुआ था, जिसमें वह बेल्जियम से पेरिस जलवायु समझौते से अपना नाम वापस लेने की बात कर रहे थे। वैसे ही, एक वीडियो में रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन रूस- यूक्रेन युद्ध की समाप्ति की घोषणा कर रहे थे। मार्क जुकरबर्ग एक वीडियो में यह कहते पाए गए कि उनके पास अर्बन लोगों के चुराए हुए डेटा पर पूरा कंट्रोल है। यह सब बिल्कुल नकली था और डीप फेक तकनीक के सहारे तैयार किया गया था। यूके की एक एनर्जी कंपनी के प्रमुख के साथ ऐसा हुआ। उसे उसके जर्मन सीईओ की आवाज में फोन आया और उसने पैसे भेज दिए । महिलाओं को जितना रोजमर्रा की जिंदगी में निशाना बनाया गया है, इस कारण उतना ही वह वर्चुअल वर्ल्ड में भी शिकार हुईं हैं। रश्मिका मंदाना का वायरल वीडियो इसी तकनीक का परिणाम है। हालांकि पुलिस ने प्रभावित तरीके से इस अपराध के खिलाफ एक्शन लेना शुरू कर दिया है। डीप फेक वीडियो को लेकर भारत समेत दुनिया भर में चर्चा हो रही है कि इस वजह से हमारी गोपनीयता और निजता प्रभावित हो रही है। भविष्य में इसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया जा सकता है, जिससे हमें सावधान रहना चाहिए । भारत में पूरे साल किसी न किसी राज्य में चुनाव होता रहता है। जरा सोचिए कि किसी बड़े नेता की आवाज का इस्तेमाल धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने, कट्टर सोच को बढ़ावा देने, दूसरी पार्टी के किसी बड़े नेताओं पर संगीन आरोप लगाने या गलत जानकारी देने में किया गया तो मामला कितना गंभीर हो सकता है। यदि कोई फेक न्यूज बनाकर समाज में अशांति पैदा करने और महिलाओं को बदनाम करने के हथियार के रूप में इसे इस्तेमाल कर रहा है तो कितना दुखद है। इसे हम ‘डिजिटल आतंकवाद’ भी कह सकते हैं। इस पर हम सबको सतर्कता दिखाने की जरूरत है। यदि आपको सोशल मीडिया के किसी प्लेटफार्म पर कोई आपत्तिजनक चीज दिखे तो इस प्लेटफार्म को आप ईमेल के जरिए या पत्र लिखकर डिलीट करने का अनुरोध भेज सकते हैं। यदि 36 घंटे के भीतर उसे डिलीट नहीं किया तो आप उस पर कानूनी कार्रवाई कर सकते हैं।
डीप फेक टेक्नोलॉजी के कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं, जैसे इसके उपयोग से विदेशी भाषा की फिल्में डबिंग कर बेहतर बनाया जा सकता है। जो अभिनेता या शख्सियत हमारे बीच आज नहीं है, उनकी आवाज या फोटो को पुनः प्रदर्शित किया जा सकता है । मास्को में ऐसा हुआ है, वहां सैमसंग आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस लेमिनेट दी फेक तकनीक के उपयोग से मोनालिसा के जीवन को पुनः प्रदर्शित किया गया। इस तकनीक से स्क्लेरोसिस नामक रोग के रोगियों की आवाज को वापस लाया गया, तो कहीं युद्धग्रस्त क्षेत्र के लोगों में सहानुभूति पैदा करने में यह तकनीक सहायक बनीं। मगर चिंता इस बात की है कि इसके दुरुपयोग से समाज में जो घटनाएं घट रही हैं, उन्हें कैसे रोका जाए? हमारी सरकार और हमें इस तकनीक के प्रति जागरूक बनना पड़ेगा और हमें तकनीकी रूप से साक्षर भी होना पड़ेगा। डीप फेक टेक्नोलॉजी क्या है? इसकी पड़ताल जरूरी है। सरकार को सबसे पहले एक कानूनी ढांचा लाना चाहिए, जिससे इस तकनीकी के प्रयोग पर अंकुश लगाया जा सके। चूंकि यह मामला सेलिब्रिटी से जुड़ा था तो ज्यादा उछल गया। किसी आम आदमी का होता तो उसकी कितनी निजी क्षति होती, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। सार्वजनिक जीवन जीने वालों को इसकी चिंता जरूर होनी चाहिए। पत्रकारों और लेखकों को भी ऐसे गंभीर विषय पर अपनी कलम चलानी चाहिए।