18-10-2024 (Important News Clippings)
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Date: 18-10-24
India’s SDG focus and its human development issues
Countries that aspire to achieve sustainable development need to take steps to boost human development
Shylajan C.S., ( Director and Professor, ICFAI School of Social Sciences, Hyderabad )
On September 9-10, 2023, New Delhi hosted the G-20 Summit, which resolved to accelerate the full and effective implementation of the UN Agenda 2030 for Sustainable Development. On September 18-19, 2023, an “SDG Summit” was convened at the United Nations headquarters to follow up and review the implementation of the Agenda and the progress of the 17 Sustainable Development Goals (SDGs). A “Summit of the Future” took place on September 22-23, 2024, at the UN headquarters to build upon the SDG Summit 2023 and its commitments by member nations.
In this context, examining India’s progress in human development since 1990, based on the UNDP’s latest Human Development Report (HDR), is valid. As said by Nobel laureate Amartya Sen in his book, Development as Freedom, ‘development is a process of expanding the real freedoms that people enjoy’. In his ‘capability approach’, the basic concern of human development is ‘our capability to lead the kind of lives we have reason to value’. Freedom from hunger and ill-health on the one hand and gender and income equality, and access to quality education on the other hand lead to the achievement of human development, and, consequently, to sustainable development.
Development and the SDGS
The Human Development Index (HDI) developed by the UNDP has three dimensions: long and healthy life (measured by life expectancy at birth); knowledge (expected years of schooling and mean years of schooling), and a decent standard of living (income per capita). All the three dimensions are much related to some of the key SDGS: SDG-3 (good health); SDG-4 (quality education); SDG-5 (gender equality); SDG-8 (decent work) and SDG-10 (reduced inequality). Clearly, countries aspiring to achieve sustainable development need to take appropriate measures to boost human development.
The HDR 2023-24 places India in the ‘medium human development category’ with a human development index (HDI) value of 0.644. India ranks 134 out of 193 countries. The HDI value was stagnant in 2019-20, at 0.638, and fell to 0.633 in 2021. It improved to 0.644 in 2022. In this report, some of India’s neighbouring countries have better HDI ranks – Malaysia (63); Thailand (66); China (75); Sri Lanka (78); Indonesia (112); Bhutan (125), and Bangladesh (129).
The HDR also presents interpolated consistent data which can be used to compare HDI values across years and countries. India saw its HDI value increase by 48.4%, from 0.434 in 1990 to 0.644 in 2022. As for HDI rankings, during 2015-2022, India improved by four ranks, while neighbouring countries such as Bangladesh and Bhutan improved by 12 and 10 ranks, respectively. China improved by 18 ranks. India’s human development initiatives lagged behind during 2015-22. One of the reasons for the slow growth is the COVID-19 pandemic and its impact on dimensions of human development such as education and income.
Gender gaps
The HDR also presents the Gender Development Index (GDI) for 193 countries. It measures disparities in human development by gender. The report contains HDI values estimated separately for women and men, the ratio of which is the GDI value. The closer the ratio is to one, the lesser the gap there is between women and men.
Among the 42 ‘medium human development countries’ to which India belongs, there are only seven with low equality in HDI achievements between women and men. These countries, with absolute deviation from gender parity of more than 10%, are India, Bangladesh, Nepal, Uganda, Morocco, the Syrian Arab Republic, and Kiribati.
India has one of the largest gender gaps in the Labour Force Participation Rate (LFPR) a 47.8 percent points difference between women (28.3%) and men (76.1%). Female labour force participation rate in India is very low when compared to many countries, more so when one compares it with India’s neighbouring countries where in China it is 53.6 %, Bhutan 53.5%, and Bangladesh 39.2%.
In the latest Periodic Labour Force Survey (PLFS)-2022-23, published by the Ministry of Statistics and Program Implementation, around 37% females of working age (15 years and above) were in the labour force in 2022-23; it was 23.3% in 2017-18. However, there is a huge gap in female labour force participation in rural and urban areas. While the female labour force participation rate in rural areas increased from 24.6% in 2017-18 to 41.5% in 2022-23, there is only a marginal increase in urban areas (from 20.4% to 25.4%). This is a matter of concern that requires further research and in-depth study aimed at feasible policy initiatives.
Income inequality
In addition to the gender gap in income, inequality of incomes is also on the rise. India is one of the countries where income shares held by the richest 1% is very high (21.7%) compared to Bangladesh (11.6%), China (15.7%), Bhutan (18.1%), and Nepal (9.7%). Income inequality in India is also higher than the world average of 17.5% and the South Asia average of 19.6%. Most importantly, income inequality is also higher than other regional groups such as East Asia and the Pacific (16.5%) and Europe and Central Asia (15.7%).
India needs to address these gender development issues and increasing inequality in order to achieve the SDGS.
क्या पाकिस्तान के रुख में बदलाव दिख रहा है?
संपादकीय
भले ही शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एससीओ) की बैठक में भारत के आरोपों के बावजूद मेजबान पाकिस्तान संयुक्त बयान जारी करवाने में सफल रहा हो, लेकिन विदेश मंत्री एस. जयशंकर की प्रभावशाली बातों की अनुगूंज दुनिया ने सुनी। पाकिस्तान और चीन पर क्रमशः आतंकवाद को प्रश्रय देने और अन्य देशों की संप्रभुता का सम्मान न करने का आरोप लगाते हुए विदेश मंत्री ने अपनी बात रखी। हालांकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने भी संयत भाव दिखाया। दरअसल शायद भारत और पाकिस्तान दोनों संबंधों पर जमी बर्फ पिघलाना चाहते हैं। तभी तो अचानक पाक पीएम द्वारा दिए गए रात्रि भोज में प्रोटोकॉल बदल कर दोनों देशों के विदेश मंत्रियों को साथ बैठाया गया। इसके बाद संभवतः बात कुछ आगे बढ़ी और पाकिस्तान के गृहमंत्री और पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के चेयरमैन भी बैठक में शरीक हुए। पाकिस्तान फरवरी में हो रही चैंपियंस ट्राफी का मेजबान है, जिसमें भारत के न खेलने से पूरे आयोजन की महत्ता घटेगी। लिहाजा पाकिस्तान की कोशिश होगी कि भारत की टीम भी इसमें शरीक हो। हाल में दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंध भी खत्म हो गए। भले ही बहुत सारे किन्तु परन्तु भारत-पाक मैत्री की बहाली बाधित करें, लेकिन जयशंकर के साथ पाक नेताओं की बैठक फिलहाल सकारात्मक रही।
Date: 18-10-24
असम समझौते पर मुहर
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने नागरिकता कानून की धारा 6ए को वैधानिक करार देकर 1985 में राजीव गांधी सरकार और अखिल असम छात्र संघ के बीच हुए समझौते को लागू करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इस समझौते के तहत नागरिकता कानून में धारा 6ए जोड़कर यह व्यवस्था की गई थी कि 25 मार्च 1971 के पहले बांग्लादेश से आए लोगों को नागरिकता दी जाएगी। इसके पहले यह तिथि 1 जनवरी 1966 थी। नागरिकता कानून की इस धारा की संवैधानिकता को दी गई चुनौती खारिज होने के बाद बांग्लादेश से असम आए वे लोग नागरिकता के लिए आवदेन कर सकेंगे, जो 25 मार्च 1971 के पहले आए थे, लेकिन उनकी पहचान करके वापस भेजा जाएगा, जो इसके बाद आए।यह एक कठिन कार्य है, क्योंकि उनकी संख्या लाखों में है और उनकी पहचान करना भले आसान हो, लेकिन उन्हें वापस भेजना मुश्किल है। ऐसे लोगों को तभी वापस भेजा जा सकता है, जब बांग्लादेश उन्हें लेने को तैयार हो। यह स्पष्ट ही है कि इनमें से बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिंदू, बौद्ध आदि तो वापस जाने के लिए तैयार होने वाले नहीं। उनके वहां लौटने का मतलब है उनकी जान पर बन आना। अब तो इसकी आशंका और भी बढ़ गई है, क्योंकि बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के तख्तापलट के बाद वहां इस्लामी कट्टरता कहीं अधिक बढ़ गई है और अल्पसंख्यकों का जीना दूभर हो गया है। सौभाग्य से इन्हें नागरिकता कानून में किए गए उस संशोधन का सहारा मिलेगा, जिसमें कहा गया है कि 31 दिसंबर 2014 के पहले बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भारत आए अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान की जाएगी।
असम में कुछ लोग 1966 से 1971 के बीच बांग्लादेश से आए लोगों को नागरिकता देने के पक्ष में इसलिए नहीं, क्योंकि इससे राज्य का जनसांख्यिकीय संतुलन बिगड़ने का खतरा है। इस खतरे को निराधार नहीं कहा जा सकता, क्योंकि असम एक छोटा राज्य है और वहां पाकिस्तान बनने के बाद से ही पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश से लोग अवैध तरीके से आने लगे थे। कुछ शरणार्थी के रूप में आए और कुछ घुसपैठिए के रूप में। बांग्लादेश से एक बड़ी संख्या में लोग असम के अलावा अन्य पूर्वोत्तर राज्यों के साथ-साथ बंगाल में भी आ बसे हैं। इनमें से अनेक ने अवैध तरीके से भारतीय पहचान पत्र हासिल कर लिए हैं और मतदाता बन गए हैं। इनमें से जो घुसपैठिए के रूप में हैं, उन्हें वापस भेजा ही जाना चाहिए, क्योंकि वे स्थानीय संस्कृति को बदलने का काम कर रहे हैं और सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ने के साथ देश की सुरक्षा के लिए खतरा भी पैदा कर रहे हैं। यह कहना कठिन है कि बांग्लादेशियों के साथ-साथ म्यांमार के रोहिंग्याओं और कुकी लोगों का भारत आना पूरी तरह थम गया है। यह थमना ही चाहिए। इसके लिए केंद्र सरकार के साथ राज्यों को भी सख्ती दिखानी होगी।
Date: 18-10-24
विकसित भारत के लिए तय करें प्राथमिकताएं
लवीश भंडारी , ( लेखक सीएसईपी रिसर्च फाउंडेशन के प्रमुख हैं )
क्या 2047 तक देश को विकसित बनाना संभव है? वर्ष 2022 में 2,390 अमेरिकी डॉलर प्रति व्यक्ति आय के साथ हम निम्न आय वाले देशों की सूची में नीचे की ओर थे। इस सूची में शामिल देशों में प्रति व्यक्ति आय 1,136 से 13,846 डॉलर तक थी।जाहिर है कि फासला काफी अधिक है और भारत को उच्च आय वाले देशों की सूची तक पहुंचने में समय लगेगा। हाल-फिलहाल ज्यादातर अनुमानों में भारत की दीर्घकालिक वृद्धि दर 6 से 7 फीसदी के बीच रहने की बात कही गई है, जो 2047 तक विकसित भारत का लक्ष्य पाने के लिए काफी नहीं है।ध्यान रहे कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां इस मुश्किल लक्ष्य को हासिल करने में बाधा बनेंगी मगर तकनीकी परिवर्तन आदि के कारण ऐसी मौके भी मिलेंगे, जो ऊंची वृद्धि में मददगार बनेंगे।
ऐसे लक्ष्य का क्या फायदा, जो महत्त्वाकांक्षी न हो? और ऐसी महत्त्वाकांक्षा का क्या फायदा, जिसे हासिल न किया जा सके? इसलिए वृद्धि के वर्तमान स्तर के साथ तो 2047 तक विकसित भारत बनाने का लक्ष्य हासिल होता नहीं दिखता मगर ढाई दशक बहुत लंबा समय होता है।समय के साथ हमारे पास बेहतर मानव संसाधन होगा, बेहतर तकनीक उपलब्ध होंगी, अधिक ज्ञान होगा। इसलिए लक्ष्य को कम करने के बजाय हमें भविष्य में उच्च वृद्धि के लिए तैयार होना चाहिए और उन बिंदुओं को प्राथमिकता देनी चाहिए, जिनमें देर नहीं की जा सकती।
आदर्श तौर पर भारत को बहुत कुछ हासिल करना है और हम जितनी जल्दी शुरुआत करेंगे उतना ही अच्छा है। उनमें राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण, बेहतर मानू पूंजी, भूमि, श्रम एवं पूंजी बाजार से जुड़े सुधार शामिल हैं। ये सभी तथा कुछ अन्य पहलू अहम हैं मगर मेरा सवाल है कि अब सरकार को ऐसा क्या करना है, जिसमें एक साल भी देर नहीं की जा सकती? जाहिर है वे बदलाव, जिन्हें लागू करने में नक्त लगता है। सोच-विचारकर मुझे इस समय दो परिवर्तन सबसे जरूरी लगते हैं।
मेरी सूची में सबसे पहले प्राथमिक शिक्षा है। 2047 में एक औसत श्रमिक की श्रम उत्पादकता आज की तुलना में बहुत अधिक होनी चाहिए। कुछ लोग मानते हैं कि प्राथमिक शिक्षा पर एक रुपया ज्यादा खर्च करने का ज्यादा फायदा नहीं होता क्योंकि राज्य और स्थानीय प्रशासन के स्तर पर कई कमियां हैं। यह मान्यता पूरी तरह गलत नहीं है लेकिन प्राथमिक शिक्षा पर निवेश रोक देना एकदम गलत है। हमें सोचना है कि शिक्षा बेहतर ढंग से कैसे दी जाए मगर हमें शिक्षकों, कक्षाओं, सुविधाओं, शिक्षक प्रशिक्षण आदि पर तत्काल अधिक धन खर्च करने की भी जरूरत है। हमें प्राथमिक शिक्षा में कला, क्राफ्ट, संगीत और दूसरी पठनेतर गतिविधियों को भी बढ़ावा देना होगा। इसके लिए खेल-खेल में शिक्षा देने के तरीके अपनाने होंगे क्योंकि कल का उच्च उत्पादकता वाला कामगर रचनात्मक भी होना चाहिए।डिजिटल तकनीक के बेहतर इस्तेमाल से शिक्षक और विद्यार्थियों की निगरानी, सतत प्रशिक्षण, सुधार, हर बच्चे की प्रगति पर नजर रखना संभव है। प्राथमिक शिक्षा के लिए मिशन की तरह काम करना होगा, जो संभव ही नहीं है, बहुत जरूरी भी है। आज प्राथमिक स्कूलों को सुधारना आईआईटी और विश्वविद्यालय बनाने से भी ज्यादा जरूरी है। अगर बच्चे को प्राथमिक स्कूल में अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा मिली है तो कौशल प्रदान करने जैसी वर्तमान प्राथमिकताएं भी बेहतर ढंग से अमल में लाई जा सकती हैं।प्राइमरी स्कूल में शिक्षा अच्छी नहीं है तो कौशल प्रदान करने के लिए कितना भी धन खर्च कर लें, वांछित नतीजा नहीं मिलेगा। एक पल के लिए मान लेते हैं कि भारत विकसित देश बन जाता है मगर श्रम उत्पादकता में जरूरी सुधार नहीं होता है। तब कैसी अर्थव्यवस्था बनेगी? आज दुनिया में कई देश हैं, जहां असमानता बहुत अधिक है और जो प्रगति को व्यापक स्तर तक नहीं पहुंचा सके। खराब शिक्षा वाला भारत भी वैसा ही होगा। इसलिए भारत के पास प्राथमिक शिक्षा की चुनौतियां हल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है और उसे यह अभी करना होगा।
दूसरी प्राथमिकता है कृषि भंडारण और ढुलाई यानी लॉजिस्टिक्स। पूरे दक्षिण एशिया में मौसम की अतिरंजना के कारण वृहद आर्थिक असंतुलन उत्पन्न हो गया है। आने वाले समय में इसमें इजाफा होगा। भारत में भी खाद्य मुद्रास्फीति को संभालना आसान नहीं है।चीन ने भारत के मुकाबले बहुत तेज दर से वृद्धि की है मगर भारत में खाद्य मुद्रास्फीति वहां की तुलना में अधिक रही है। दोनों देशों में सरकारें कृषि में हस्तक्षेप करती है किंतु अन्य अंतरों के बीच बड़ा अंतर यह है कि चीन अपने यहां खाद्य का प्रबंधन करने में अधिक माहिर है। भारत भी अपनी कृषि उपज को अच्छे ढंग से संभाल सकता है मगर इसके लिए कृषि भंडारण के लिए वेयरहाउस का बड़ा नेटवर्क होना चाहिए, जिसमें शीत भंडारगृह यानी कोल्ड स्टोरेज भी शामिल हों। हम इसमें ढुलाई की बेहतर प्रणाली भी जोड़ सकते हैं मगर भंडारण की व्यापक सुविधा सबसे जरूरी है।
कृषि बाजारों को निजी क्षेत्र के लिए खोलने का विरोध दुर्भाग्य से सफल रहा मगर इसे कृषि में सभी तरह की प्रगति रोक देने वाली यथास्थिति नहीं मान लेना चाहिए। किसान आढ़तियों पर निर्भर हों या न हों, भंडारण सुविधाएं उपलब्ध होने से उन्हें लाभ जरूर होगा। इससे आढ़तियों पर निर्भरता कम होगी, किसान सशक्त होंगे और खाद्य कीमतों में उतार-चढ़ाव भी घटेगा। किसान जितने अधिक प्रगतिशील होंगे, वे भंडारण का व्यापक नेटवर्क होने पर उच्च मूल्य वाले किंतु जल्दी खराब होने वाले खाद्य उत्पादों की ओर उतना ही अधिक बढ़ सकेंगे। इसलिए कोल्ड स्टोरेज की अहमियत बढ़ती जाएगी और उनकी मदद से किसान खाद्यान्न की खेती से दूर जा सकेंगे।
सवाल यह है कि वेयरहाउसिंग और कृषि लॉजिस्टिक्स में अभी निवेश क्यों? हम 10 साल और इंतजार क्यों नहीं कर सकते? पहली बात देश में जिस तरह की खेती हो रही है, उसमें नई तकनीक, उत्पादन और प्रक्रिया के प्रसार में बहुत समय लग जाता है। दूसरी बात जलवायु परिवर्तन का आसन्न संकट है, जिसके कारण हमें मौसम की अतिरंजना से निपटने के लिए तैयार रहना होगा।तीसरी बात, हम खेती की प्रगति में बाधा डाल रही यथास्थिति को खत्म करने के लिए कानून में बदलाव नहीं कर पाए, इसलिए उस काम के लिए तकनीक तथा बुनियादी ढांचे का इस्तेमाल करने का समय आ गया है।
हमने पहले ही कहा है कि कई चुनौतियां आएंगी तो कई अवसर भी आएंगे। नवीकरणीय ऊर्जा तथा भंडारण तकनीक में सुधार के साथ ऊर्जा परिवर्तन सस्ता होता जाएगा और डिजिटल क्रांति कई क्षेत्रों में उत्पादकता और प्रभावशीलता बढ़ा देगी। भविष्य में आने वाले इन अवसरों की सूची बहुत लंबी है। जलवायु परिवर्तन से जुड़े बदलाव भी अपने साथ कई लाभ लाएंगे। उदाहरण के लिए भारत अभी जीवाश्म ईंधन के शुद्ध आयात पर 100 से 150 अरब डॉलर (तेल की ऊपर-नीचे आती कीमतों के हिसाब से) खर्च करता है और यह खर्च निकट भविष्य में बढ़ता जाएगा। लेकिन अगले दशक के मध्य में इलेक्ट्रिक वाहनों का इस्तेमाल बढ़ने के साथ ही इसमें कमी आने लगेगी। इससे होने वाले लाभ का हिसाब अभी नहीं लगाया गया है मगर वह बहुत अधिक हो सकता है।
कुल मिलाकर 2047 तक विकसित भारत बनाने का लक्ष्य भले ही अभी पहुंच से बाहर लग रहा है किंतु भविष्य में अनेक अवसर हैं, जिनके लिए हमें तैयार रहना चाहिए। ऐसा करने के साथ ही हमें सुनिश्चित करना होगा कि प्राथमिक शिक्षा और कृषि भंडारण तथा लॉजिस्टिक्स को तत्काल प्राथमिकता मानकर काम किया जाए। इससे अधिक प्रयास किए गए तो और भी अच्छा होगा।
Date: 18-10-24
नागरिकता से न्याय
संपादकीय
सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकता अधिनियम के अनुच्छेद 6ए की सांविधानिकता को बरकरार रखकर सही फैसला लिया है। वैसे पांच न्यायाधीशों की पीठ इस फैसले पर एकमत नहीं थी और अंतत: फैसला चार-एक से 6ए के पक्ष में आया है। भारतीय नागरिकता देने से संबंधित इस प्रावधान का विशेष महत्व है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से बांग्लादेश से आकर भारत में बसे उन लोगों को नागरिकता मिल जाएगी, जो जनवरी 1966 से 25 मार्च 1971 के बीच भारत आए हैं। अदालत में अनुच्छेद 6ए को एकाधिक याचिकाओं के जरिये चुनौती दी गई थी कि नागरिकता देने की कोई समय-सीमा न रखी जाए, लेकिन न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि असम में प्रवेश और नागरिकता देने के लिए 25 मार्च 1971 की अंतिम तिथि सही है। भारत के प्रधान न्यायाधीश धनंजय वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति एमएम सुंदरेश और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा का बहुमत का फैसला इस बात पर सर्वसम्मत था कि साल 1985 में संसद द्वारा बनाया गया कानून एक विधायी समाधान है, जिसे संसद ने प्रभावी बनाया है। यह असम समझौता असमिया संस्कृति, विरासत, भाषायी और सामाजिक पहचान को सुरक्षित-संरक्षित करने के मकसद से किया गया था।
जिस 6ए को चुनौती दी गई थी, उसकी पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। यह तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार, असम सरकार और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के बीच खोजा गया एक सही सियासी समाधान था। असम में इस कानून के लिए विशेष रूप से छात्रों ने छह साल तक प्रदर्शन किया था, तब जाकर समझौता हुआ था और कानून बनाया गया था। यह कानून न बनता, तो शायद बांग्लादेश की ओर से लोगों का आना कम नहीं होता। वैसे एक पहलू यह भी है कि कानून बनने के बावजूद बांग्लादेश से लोगों का आना रुका नहीं है और इसी आधार पर एक न्यायाधीश बहुमत के फैसले से असहमत हैं। न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला के मुताबिक, सांस्कृतिक-सामाजिक संरक्षण का मकसद पूरी तरह से हल नहीं हुआ है और ऐसे में, अनुच्छेद 6ए को असांविधानिक माना जा सकता है। हालांकि, यह एक बहुत गंभीर सवाल है कि साल 1971 के बाद असम या भारत में आए लोगों को भी अगर स्वीकार कर लिया जाए, तो क्या होगा? ऐसी ढिलाई या उदारता अन्य लोगों को भी भारत आने के लिए उकसाएगी। अत: संस्कृति और आबादी के ढांचे को बचाने के लिए कडे़ कानूनों की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता।
आज लोगों का एक से दूसरे देश में अवैध पलायन और उसके बाद नागरिकता के सवाल पर भारत ही नहीं, हरेक देश का चिंतित होना स्वाभाविक है। सबको अपने हित में कानून बनाने व लागू करने का हक है। यह अच्छी बात है कि हमारी अदालतों को भी चिंता है कि भारतीय राज्य का चरित्र नहीं बदलना चाहिए। बाहर से आने वाली कोई भी संस्कृति स्थानीय बसावट को मुश्किल में डालती है। आजकल स्वयं बांग्लादेश म्यांमार से आई रोहिंग्या आबादी की वजह से बहुत परेशान है और वह अपनी परेशानी संयुक्त राष्ट्र में भी कई बार उठा चुका है। ध्यान देने की बात है कि मुस्लिम राष्ट्र बांग्लादेश में भी मुस्लिम रोहिंग्या को शरण देने में समस्या हो रही है और वह अपनी अर्थव्यवस्था व सामाजिकता के बारे में सोच रहा है। भारत को धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि अपने व्यापक सामाजिक-आर्थिक हित के आधार पर ही सोचना चाहिए और तभी किसी को नागरिकता देनी चाहिए।