18-10-2022 (Important News Clippings)
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Date:18-10-22
Dr Hindi, Dr English
Language shouldn’t constrain students from accessing higher education
TOI Editorials
The unveiling of MBBS Hindi textbooks is a positive development for students for whom this language was the medium of instruction in school. Students schooled in their mother tongue have a disadvantage in higher education where English is usually the medium of instruction and examination. Flexible language policies can greatly benefit such students, which is why this reform should be extended to other languages and disciplines too. But it’s important to ensure that local language books maintain the quality standards of the source books. The corpus of local language texts must also expand so that a student who opts to study in the local language isn’t left behind the rest.
Much is being made on social media of the new Hindi textbooks having transliterations of terms like anatomy, physiology etc rather than pure Hindi translations. That is misguided criticism. Transliteration can be helpful in disciplines like medicine, where the larger body of knowledge is in the English language. Of course language flexibility in higher education should include students having room to improve their English skills too. This will open up more opportunities for them in the global knowledge economy.
Remember how, under the Left government, Bengal paid a heavy price for curbing English to promote the local language. India’s workforce, from IT to nursing, is prized everywhere because of familiarity with English. Parents, across classes, angle for English education for their wards for this reason. India is also witnessing great internal migration, and migrant children should not be put at risk by rigid approaches on language. GoI’s recent foundational learning survey actually found children displaying more proficiency in English than their mother tongues. Let all languages flourish. Let parents and students be able to choose what’s best for them.
Date:18-10-22
Gone girls
A zero tolerance approach to violence against women is the only acceptable course
Editorial
Reported violence against women is the proverbial tip of the iceberg; it conceals more than it reveals. But what it reveals can sometimes shock the collective conscience of a nation, especially a heinous crime that plays out in broad daylight as an assault on a young woman. Last week’s incident of violence in Chennai, where college student Sathyapriya was decapitated as a young man pursuing her romantically pushed her in the path of an oncoming train did no less tug at the heartstrings of the public. The incidents of violence against women in train stations in Chennai are following a nearly copycat pattern after Swathi, a young techie was murdered in 2016, in broad daylight by a man, who was again stalking her, in a railway station. In 2021, Swetha, a young college goer was murdered near a suburban train station by a man in a ‘troubled relationship’ with her. In each of these cases, the inability of the stalker to accept the fact that his overtures were turned down by the girl directly led to the violence. Earlier this month, an eight-year-old girl in Delhi was kidnapped, sexually assaulted and murdered. In September, the bodies of two teenaged girls were found in Lakhimpur Kheri in Uttar Pradesh. Police said they had been strangled with a scarf and hung from a tree after they were raped. Only a few cases hit the headlines or make an impact on social media. Many more go unreported, the massive unseen underbelly of the iceberg.
In the chequered history of handling the many forms of violence against women in India, the horrific Nirbhaya rape of 2012 is a definitive milestone. It rocked the nation with such force that lawmakers rushed to strengthen laws, and put in place systems and infrastructure that were meant to ensure such dreadful incidents are never repeated. However, according to National Crime Records Bureau statistics, a whopping 4,28,278 lakh crimes against women happened in 2021. These included rape, rape and murder, dowry harassment, kidnapping, forced marriage, trafficking, and online harassment. At this juncture, a decade later, it is pertinent to ask if the Government has rolled out all the strategies conceived of and fuelled by the Nirbhaya Fund. Speedy process of trial and resolution resulting in conviction of the accused is a casualty in courts that are flooded with pending cases. The Sustainable Development Goals underline the importance of building safe, resilient and inclusive cities from a gender lens. No slackening on the part of authorities is acceptable when it comes to dealing with violence against women; zero tolerance alone is acceptable.
न्याय फास्ट ट्रैक गति से होना चाहिए
संपादकीय
डीयू के प्रोफेसर नक्सली गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में यूएपीए एक्ट के तहत आठ वर्षों से जेल में हैं। सेशंस कोर्ट ने आरोपी प्रोफेसर को उम्र कैद की सजा दी और यनिवर्सिटी ने नौकरी से निकाल दिया। प्रोफेसर की अपील पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन्हें रिहा करने का आदेश यह कहते हुए दिया कि जिस संगीन दफा में उन्हें बंद किया गया और सजा हुई, उसी कानून के प्रक्रियात्मक प्रावधानों की अनदेखी हुई। हाईकोर्ट ने फैसले में पुलिस और निचले कोर्ट की कई गलतियों को उजागर किया। इस कानून की धारा 45(1) के अनुसार कोई भी कोर्ट तब तक ऐसे मामलों का संज्ञान नहीं ले सकता, जब तक आरोपों पर सरकार द्वारा नियुक्त एक ‘स्वतंत्र जांच’ की रिपोर्ट न आ जाए। दूसरे, हाईकोर्ट ने कहा कि सेशंस कोर्ट ने लगाए आरोप का संज्ञान भी ले लिया, चार्जेस भी फ्रेम कर दिए और एक गवाह की गवाही भी सुन ली, जबकि उस समय तक इन आरोपों की मंजरी तक नहीं मिली थी। फैसले के तुरंत बाद महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट पहुंचकर दलील दी कि प्रक्रियात्मक चूक लाइलाज नहीं है, लिहाजा हाईकोर्ट का सजा रद्द करना गलत है। सुप्रीम कोर्ट ने उसकी बात मान ली। तर्क था कि हाईकोर्ट ने बगैर केस की मेरिट देखे महज प्रक्रियात्मक दोष के आधार पर फैसला दिया। यह अलग बात है कि हाईकोर्ट ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के ही संविधान पीठ के बहुचर्चित बैजनाथ प्रसाद केस का हवाला दिया था। इस फैसले में स्पष्ट रूप से कहा गया कि ‘उपयुक्त अनुशंसा’ की प्रक्रिया पूरी किए बिना किसी भी मामले का संज्ञान लिया गया तो समूचा ट्रायल ही गलत माना जाएगा। बहरहाल न्याय फास्ट ट्रैक गति से होना चाहिए।
जानलेवा पराली
संपादकीय
पंजाब में धान की खरीद में तेजी आने के साथ ही पराली जलाने के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं। सरकार की ओर से किसानों को जागरूक करने का असर नाममात्र दिख रहा है। पराली को आग लगाने से प्रदूषण तो बढ़ ही रहा है, सड़क दुर्घटनाओं में लोगों की जान भी जा रही है। शनिवार जालंधर के मीरपुर सैदां में एक किसान द्वारा पराली जलाने की घटना दो लोगों की मौत का कारण बन गईं। धुएं के कारण दृश्यता बहुत कम हो गई और मोटरसाइकिल और स्कूटी की भिड़ंत में बुजुर्ग और युवक की मौत हो गई। हैरानी की बात यह भी है कि पराली जलाने वाले किसान के खिलाफ शिकायत करने के बाद पुलिस ने केस दर्ज करने में चौबीस घंटे लगा दिए। इससे ऐसा लगता है कि प्रदेश सरकार और पुलिस प्रशासन को इस बात का डर कि कार्रवाई करने से कहीं किसान संगठन नाराज न हो जाएं। यह स्थिति ठीक नहीं है। समस्या को नजरअंदाज करने से स्थिति और बिगड़ सकती है। ऐसा भी नहीं है कि पहली बार पराली के धुएं के कारण प्रदेश में दुर्घटना हुई है। दो वर्ष पहले बठिंडा में मानसा रोड पर भाई बख्तौर गांव के निकट हुई सड़क दुर्घटना में पुलिस कांस्टेबल सहित पांच लोगों की मौत हो गई थी। इसी तरह बरनाला में पराली जलाने से फैले धुएं के कारण इनोवा और टाटा-407 के बीच हुई टक्कर में चार लोगों ने दम तोड़ दिया था। इस तरह की घटनाओं के लिए जिम्मेदार व्यक्ति पर तो कार्रवाई होनी ही चाहिए। समझदारी तो इसी में है कि पराली को आग न लगाई जाए। पराली के निस्तारण के लिए सरकार मशीनरी उपलब्ध करवा रही है। कुछ किसान बिना जलाए पराली को ठिकाने लगा भी रहे हैं। बात है इच्छाशक्ति की। यह इच्छाशक्ति सरकार, पुलिस प्रशासन और किसान, सभी को दिखानी होगी।
Date:18-10-22
आभासी दुनिया का नशा
हेमंत कुमार पारीक
समाज की मौजूदा दिशा और दशा क्या है, इसे एक छोटी कहानी से समझ सकते हैं। एक अध्यापक हैं, जिन्हें सिर्फ कहानी का एक उदाहरण माना जा सकता है, मगर जो किसी को भी अपने आसपास दिख सकते हैं। खैर, उनके परिवार में पति, पत्नी और दो बच्चे हैं। बच्चे पढ़-लिख कर विदेश में नौकरी कर रहे हैं। अब दोनों अकेले हैं। नियमित दिनचर्या है उनकी। पत्नी पढ़ी-लिखी हैं पीएचडी तक। वे घर संभालती हैं। उनके सही मार्गदर्शन में कुशाग्र बुद्धि बच्चे आगे निकल गए। अध्यापक महोदय की दिनचर्या यथावत है, लेकिन उन्हें एकाकीपन खल रहा है। उम्र के उस पड़ाव पर हैं, जहां उन्हें बच्चों की जरूरत महसूस होती है। वे सेवानिवृत्त होने के बाद अभी भी व्यस्त रहते हैं। उनकी पत्नी अभी भी घर-गृहस्थी में लगी रहती हैं। कुल मिला कर एक आदर्श परिवार है। कुछ समय पहले एक दिन सुबह-सुबह की बैठकी में चायपान होने के बाद वे अचानक फूट पड़े। उन्होंने पहले इस बात को लेकर आश्वस्त होना चाहा कि क्या वे अजीज मित्र होने के नाते अपने दिल की बात कह सकते हैं। फिर खुद को संभालते हुए बोले कि यह स्थिति किसी के साथ भी हो सकती है।
दरअसल, पिछले कुछ महीनों से जीवनसाथी के व्यवहार और किसी बात पर उनकी प्रतिक्रिया में उन्होंने तेज बदलाव दर्ज किया था। बिना किसी मजबूत कारण के गुस्सा हो जाना और झगड़े की मुद्रा में आ जाना उनके व्यवहार में घुल गया था। कुछ समय पहले तक उनकी अच्छी-खासी मित्रमंडली थी। वे उनसे मिलती-जुलती थीं और आपसी मेलजोल के कार्यक्रमों में सक्रिय हिस्सेदारी और संचालन भी करती थीं। मगर जब पूर्णबंदी लगी, तब से वे सबसे कट गईं। उनका सहारा अकेला उनका स्मार्टफोन हो गया। इस क्रम में धीरे-धीरे हुआ यह कि दूसरे तमाम काम अस्त-व्यस्त होने लगे, मगर मोबाइल में उनका ध्यान जरूरत से ज्यादा केंद्रित रहने लगा। हालांकि मोबाइल की यह लत अब किसी एक व्यक्ति की समस्या नहीं रह गई है और एक जटिल मनोवैज्ञानिक चुनौती हो चुकी है।
समुद्र मंथन की एक कथा है। समुद्र में से जहर और अमृत दोनों निकले थे। स्मार्टफोन भी ऐसा ही समुद्र है। इसमें हलाहल भी है और अमृत भी। यह अमृत की तरह उपयोगी है और विष की तरह घातक भी। लेकिन आसानी या सुविधा का मामला कुछ ऐसा है कि लोग बुराई पहले ग्रहण करते हैं। अध्यापक महोदय को फिक्र थी कि मोबाइल से ध्यान कैसे हटेगा… आज बच्चे-बच्चे के हाथ में है। एक नशे की तरह है। जिसे सिर्फ बटन दबाना आता है वह भी इसका मुरीद हो गया है। बेशक कतारें खत्म हो गई हैं तो आदमी इसमें सिमट गया है। आजकल तो ऐसी भी घटनाएं सुनी जाती हैं कि मोबाइल पति और पत्नी या फिर बच्चों तक के बीच झगड़े की वजह बन गया है।
कई बार तो लगता है कि अफीम और चाय की तरह यह भी एक नशा है। आज स्थिति यह है कि दुनिया की एक अच्छी-खासी आबादी को इंटरनेट की लत लग चुकी है। इस लत के शिकार लोगों का अनुपात दुनिया में मादक पदार्थ लेने वाली जनसंख्या से ज्यादा है। इंटरनेट का नशा सिर चढ़ कर बोल रहा है। यह धीरे-धीरे दुनिया के लिए भविष्य में आने वाली सार्वभौमिक समस्या के रूप में उभर रहा है। हालांकि भौगोलिक परिदृश्य भिन्नता लिए हुए है। स्मार्टफोन, सेलफोन ने कैमरे, कैलेंडर, अलार्म घड़ी, नोटपैड, किताबों और ‘म्यूजिक सिस्टम’, गणितीय योग्यता, शब्दकोश, लिखने की आदत, घर से बाहर गली-मोहल्लों या मैदानों में खेले जाने वाले खेल खेलने के क्रियाकलापों को स्थानापन्न कर दिया है। यों अभी बहुत सारे परिवारों का जीवन स्थानापन्न होने से बचे हैं। वर्तमान में दुनियाभर में इंटरनेट के उपभोक्ताओं की संख्या में तेजी से लगातार बढ़ोतरी हो रही है और अब यह पांचवी पीढ़ी के तकनीक की ओर बढ़ चला है। सवाल है कि इनकी उपयोगिता मानवीय संवेदना से लैस जीवन को बेहतर करने में कितनी होगी! या कि यह सब मनुष्य की संवेदनाओं की कीमत पर संभव होगा?
कहने का मतलब ‘इंटरनेट नशे की लत’ की समस्या के मूल में सोशल मीडिया है। इससे होने वाली विषमता, सोशल मीडिया और वीडियो गेम की लत। इन सबके संयुक्त प्रभाव से मानसिक और शारीरिक दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। नतीजतन, अवसाद, बेचैनी जैसी मानसिक बीमारी और दूसरी शारीरिक बीमारियां, जैसे कि यादाश्त का कम होना, गर्दन और रीढ़ की कमजोरी और बीमारी, अंगुलियों में जकड़न, रचनात्मकता की योग्यता में तेजी से कमी और हड्डी से संबंधित रोग आदि संपूर्ण समाज को प्रभावित करने वाले हैं। जिस तरह वास्तविकता को नकारने के लिए नशे का सेवन करते हुए लोग और एक आभासी दुनिया में चले जाते हैं। मगर वास्तविकता आज नहीं तो कल सामने खड़ी होगी। देखा जा रहा है कि कम उम्र के युवाओं की आंखों पर भी ज्यादा पावर वाले चश्मे लग रहे। दिन रात कंप्यूटर पर काम करने वाले युवा शरीर की बीमारियों से ग्रस्त होकर फिजियोथेरेपी के लिए अस्पताल जा रहे हैं। सवाल है कि हम किस दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं!
हिंदी में पढ़ाई
संपादकीय
नई शिक्षा नीति के तहत देश ने पेशेवर शिक्षा भी हिंदी माध्यम से देने की ओर कदम बढ़ा दिए हैं। अब तक चिकित्सा शास्त्र की पढ़ाई सिर्फ अंग्रेजी में ही होती थी और उसकी किताबें अंग्रेजी में ही उपलब्ध हुआ करती थीं, लेकिन अब चिकित्सा के तीन विषयों की तीन किताबों का हिंदी में आना सुखद और ऐतिहासिक प्रगति है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मध्य प्रदेश सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना के तहत एमबीबीएस छात्रों के लिए हिंदी पाठ्य-पुस्तकों का अनावरण किया है। अपनी तरह के इस पहले कदम के तहत, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के हिस्से के रूप में तीन विषयों, जैव रसायन, शरीर रचना विज्ञान और चिकित्सा शरीर क्रिया विज्ञान की हिंदी पाठ्य-पुस्तकों का विमोचन किया गया है। लगे हाथ, उन्होंने यह भी घोषणा की है कि इंजीनियरिंग, पॉलिटेक्निक और कानून की शिक्षा भी जल्द ही हिंदी में दी जाएगी। जाहिर है, हिंदी में ऐसी पहल को किसी हिंदीभाषी क्षेत्र के राज्य को ही अंजाम देना था और इसमें मध्य प्रदेश ने बाजी मार ली है।
पेशेवर या व्यावसायिक शिक्षा मातृभाषा या हिंदी में देने की चर्चा पुरानी है। संविधान निर्माताओं ने यही सोचा था कि आजादी मिलने के बाद के दो दशक में हिंदी समृद्ध हो जाएगी और अंग्रेजी अनिवार्य नहीं रह जाएगी। लेकिन यह सच है, हमारी सरकारों ने भाषा संबंधी बाधाओं से जूझने का जोखिम नहीं उठाया और अंग्रेजी स्वाभाविक ही सशक्त होती चली गई। हिंदी क्षेत्र में डॉक्टरी भले ही मातृभाषा में होती है, लेकिन पढ़ाई तो अंग्रेजी में ही होती आई है। जब अस्पतालों में डॉक्टर-मरीज संवाद हिंदी में होता है, तो डॉक्टरों का आपसी परामर्श या चिकित्सा कार्य अंग्रेजी में क्यों हो? इलाज भी अगर हिंदी में होगा, तो शायद ज्यादातर मरीजों को समझने में सुविधा होगी। अभी तो अनेक डॉक्टरों के हाथ से लिखी पर्ची को पढ़ना-समझना भी आसान नहीं है। हालांकि, हिंदी में पढ़ाई से एक खतरा यह है कि विदेश में नौकरी नहीं मिलेगी। शायद सरकार नीति के तहत ही ऐसा चाहती है कि देश के योग्य पेशेवर देश की सेवा में ही अपनी प्रतिभा का उपयोग करें। वैसे अगर भाषा को माध्यम बनाकर ब्रेन ड्रेन को रोकने का सपना देखा जा रहा है, तो इसमें बहुत सफलता नहीं मिलेगी। ब्रेन ड्रेन रोकने के दूसरे बेहतर तरीके हो सकते हैं। देश में अगर कार्य संस्कृति व वेतन-भत्ते को सुधार लिया जाए, तो बहुत सारे युवा या डॉक्टर, इंजीनियर ऐसे भी होंगे, जो विदेश से लौट आएंगे।
खैर, पेशेवर शिक्षा को हिंदी भाषा में प्रदान करने के मामले में हम पिछड़ गए हैं, लेकिन इसके लिए अभी कतई दुखी होने या अफसोस करने की जरूरत नहीं है। भारत अनेक भाषाओं का देश है और यहां हिंदी को किसी भी भाषा पर थोपा नहीं जा सकता, यह भारत की उदारता के विरुद्ध होगा। जो देश छोटे थे या जिन देशों ने तानाशाही की, वहां स्थानीय भाषा में पूरी शिक्षा संभव हो गई। वास्तव में, पेशेवर शिक्षा में पूरा जोर गुणवत्ता पर होना चाहिए। अगर हम अपने हर शिक्षण संस्थान में गुणवत्तापूर्ण डॉक्टर, इंजीनियर, वकील पैदा करने लगेंगे, तब जरूरी बदलाव लाने में हम सफल होंगे। गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए चलना होगा। फिलहाल, यह खुशी की बात है कि 10 हिंदीभाषी और गैर-हिंदीभाषी राज्यों ने इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों की पुस्तकों का क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद शुरू कर दिया है। कुल मिलाकर, आने वाले समय में भारत में दस से ज्यादा भाषाओं में पेशेवर पढ़ाई की आजादी होगी और होनी भी चाहिए।
Date:18-10-22
कट्टरता से जन्मा देश खतरनाक
विभूति नारायण राय, ( पूर्व आईपीएस अधिकारी )
इन दिनों पाकिस्तान में हंगामा बरपा है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने डेमोक्रेटिक पार्टी की चुनावी तैयारियों से जुड़े समूह के सामने बोलते हुए पाकिस्तान को दुनिया के सबसे खतरनाक मुल्कों में से एक करार दे दिया। यह एक ऐसे समय हुआ, जब पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी और पीडीएम गठबंधन की शहबाज शरीफ सरकार अपनी विदेश नीति की सफलता की डींगे हांकते थक नहीं रहे थे। वर्षों बाद यह भी हुआ कि किसी पाकिस्तानी जनरल को अमेरिका के सुरक्षा तंत्र में इतना महत्व मिला। हालिया यात्रा के दौरान जनरल बाजवा को अमेरिकी रक्षा सचिव ने तो समय दिया ही, रक्षा मुख्यालय पेंटागन में भी उनको अप्रत्याशित प्रोटोकॉल दिया गया।
चंद महीनों में अमेरिकी रुख में इतना बड़ा बदलाव कैसे हो गया? अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जो गंभीर अध्येता अमेरिकी नीतियों पर नजर रखते हैं, वे जानते हैं कि ये किसी फौरी उत्तेजना की निर्मिति नहीं हैं, उन्हें अमेरिकी हितों को ध्यान में रखते हुए बहुत से विचार समूहों ( थिंक टैंक) से प्राप्त इनपुट के आधार पर विकसित किया जाता है, इसलिए न तो पाकिस्तानी उल्लास के पक्ष में कोई तर्क बनता है और न ही जो बाइडन के बयान से कोई सरलीकृत निष्कर्ष निकाले जाने चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति ने यूं ही पाकिस्तान को सबसे खतरनाक मुल्कों की श्रेणी में नहीं रखा है। सात घोषित और दो अघोषित परमाणु हथियार संपन्न देशों में पाकिस्तान अकेला है, जहां से अलग-अलग मौकों पर परमाणु तकनीक अनधिकृत स्रोतों को बेची गई है। तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को अमेरिकी अधिकारियों द्वारा दस्तावेजी सबूत दिखाने के बाद पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम के जनक अब्दुल कादिर को आजीवन अपने घर में नजरबंद कर दिया गया था। आज यह खुले रहस्य की तरह है कि उत्तरी कोरिया और ईरान के परमाणु कार्यक्रम विकास के जिन चरणों में हैं, उन्हें वहां तक पहुंचाने में पाकिस्तान के सैन्य और असैन्य अधिकारियों को मिली रिश्वतों का भी बड़ा हाथ है। खुद प्रधानमंत्री रही बेनजीर भुट्टो ने भी एक इंटरव्यू में इसे माना था कि उनके सरकारी जहाज का भी इस काम में इस्तेमाल हुआ था।
पूर्व गृह मंत्री शेख रशीद जैसे पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है कि उनके पास टैक्टिकल बम हैं। टैक्टिकल बम वे छोटे बम होते हैं, जिन्हें बिना महंगे तामझाम के दो-तीन पैदल सैनिक चला सकते हैं। सही अर्थों में तो एक ही सैनिक काफी है, जो अपने कंधे पर रखे किसी लॉन्चर से यह बम फेंक सकता है। इसे उपयोग में लाने के लिए कमांड और कंट्रोल का वर्तमान तंत्र काफी हद तक अपर्याप्त सिद्ध होगा। छोटा बम एक सीमित इलाके में कुछ लाख लोगों को तो मारेगा ही, एक बड़े परमाणु युद्ध की संभावना भी पैदा करेगा।
अमेरिका के लिए दूसरा और ज्यादा बड़ा दु:स्वप्न पाकिस्तानी परमाणु जखीरे का किसी आतंकी संगठन के हाथ पड़ जाने की आशंका है। एक कमजोर नींव पर खड़े पाकिस्तानी राज्य में इसका खतरा हमेशा बरकरार रहता है। कई बार ऐसा हुआ कि देश के किसी विशाल भूभाग पर इस्लामी अतिवादियों का कब्जा हो गया और एक स्थिति तो ऐसी भी आई, जब वे इस्लामाबाद से सिर्फ साठ मील दूर रह गए थे। दुर्भाग्य से मुख्यधारा के लगभग हर राजनीतिक दल ने मौका पड़ने पर सशस्त्र जेहाद में विश्वास रखने वाले संगठनों से हाथ मिलाया है। इस समय लोकप्रियता के शिखर पर बैठे इमरान तो एक जमाने में कहे ही जाते थे तालिबान खान। फौज एक प्रोजेक्ट के तौर पर उन्हें सत्ता में लाई थी और उसके हाथ खींच लेते ही वे तख्त से उतार दिए गए। पर विपक्ष में बैठे इमरान ज्यादा खतरनाक हो गए हैं। अमेरिका मुखालिफ आख्यान तो पाकिस्तान में हमेशा बिकता आया है, उन दिनों भी जब वह पूरी तरह से अमेरिकी मदद पर निर्भर था, सार्वजनिक विमर्श का टोन ऐसा ही होता था, पर इस बार तो इमरान ने इस नैरेटिव को फौज विरोधी भी बना दिया है। इन दिनों पाकिस्तानी सोशल मीडिया सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा और उनके समर्थक खुफिया इदारों के अफसरों के खिलाफ गुस्से से भरा हुआ है। सत्ताच्युत होने के बाद होने वाले सारे उपचुनावों को इकतरफा मुकाबलों में जीतकर इमरान ने साबित कर दिया है कि पाकिस्तान में अमेरिका विरोधी के साथ ही फौज विरोधी बयान भी बिक सकता है और यह भी अमेरिका के लिए चिंता का एक कारण है। इसमें कोई शक नहीं है कि पाक फौज भारत और अफगानिस्तान के अभियानों मे अतिवादी मुस्लिम संगठनों का इस्तेमाल करने के लिए उन्हें पालती पोसती रही है, पर यह भी सच है कि जब भी किसी जेहादी संगठन ने राज्य सत्ता पर कब्जा करने का प्रयास किया उसके खिलाफ प्रतिरोध की मजबूत दीवाल सेना ही बनी है और उसने इसकी कीमत भी अपने हजारों अफसरों और जवानों की कुर्बानियों के रूप में चुकाई है। पाक और अमेरिकी सैन्य अधिकारियों के बीच सरकारी रिश्तों में आने वाले उतार-चढ़ाव के बावजूद स्वतंत्र संबंध बने रहे हैं।
इस समय पाकिस्तान का लगभग चौथाई हिस्सा बाढ़ के चलते तकलीफ झेल रहा है और कोढ़ में खाज की तरह उसकी अर्थव्यवस्था कदर चरमराई हुई है। देश के भ्रष्ट राजनेता और नौकरशाह बाहर से आ रही राहत सामग्री भी लूटने में गुरेज नहीं कर रहे हैं। प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ को विदेशी दानदाताओं के समक्ष आश्वासन देना पड़ा है कि वे सहायता के लिए प्राप्त सामग्री के इस्तेमाल का ऑडिट किसी तीसरे पक्ष से कराने के लिए तैयार हैं । अमेरिका अच्छी तरह से जानता है कि परमाणु हथियारों से संपन्न देश के दीवालिया हो जाने में क्या खतरे छिपे हैं? इसलिए वह दुनिया को आगाह करने के बावजूद पाकिस्तान को पूरी तरह से अलग-थलग छोड़ भी नहीं पा रहा है।
यह कहना अनुचित न होगा कि पाकिस्तान का वर्तमान संकट उसके जन्म से जुड़ी विसंगतियों की देन है। 1947 में यह दुनिया का धर्म पर आधारित पहला लोकतांत्रिक गणराज्य बना और यह बहुत अस्वाभाविक नहीं था कि पहले दिन से उसे उदारता, सहिष्णुता या समानता जैसे गुण नहीं मिले, जो किसी लोकतंत्र के लिए जरूरी होते हैं। उनके बरक्स भारत को प्रारंभिक 17 वर्षों तक जवाहर लाल नेहरु का नेतृत्व मिला, जिसने लोकतंत्र को मजबूत किया। आधा समय फौजी हुकूमतों के अधीन समय काटने वाले पाकिस्तान के हर शासक ने वैधता हासिल करने के लिए चरमपंथियों को प्रोत्साहित किया और आज का संकट उसी का नतीजा है।
Date:18-10-22
सुरक्षित डिजिटल बैंकिंग का हम सभी को इंतजार
ब्रजेश कुमार तिवारी, ( प्रोफेसर, जेएनयू )
बैंकिंग प्रणाली किसी भी अर्थव्यवस्था की जीवन-रेखा होती है, और बैंक जनता के पैसे के ट्रस्टी होते हैं। यही वजह है कि बीते कुछ वर्षों से बैंकिंग क्षेत्र में लगातार संरचनात्मक बदलाव किए जा रहे हैं। बीते रविवार को शुरू डिजिटल बैंकिंग यूनिट (डीबीयू) इसी की ताजा कड़ी है। आजादी के 75 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में 75 जिलों में 75 डीबीयू की शुरुआत प्रधानमंत्री ने की है। इसकी घोषणा गत बजट में की गई थी।
भारत में डिजिटल बैंकिंग ने 1990 के दशक के अंत में आकार लेना शुरू किया, जब भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंकिंग क्षेत्र के डिजिटलीकरण की संभावना का मूल्यांकन करने के लिए एक समिति (1988 में) गठित की। वर्ष 2003 में कोर बैंकिंग समाधानों ने ‘कहीं भी और कभी भी बैंकिंग’ की अनुमति दी। इसके बाद 2016 में लॉन्च किए गए ‘यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस’ (यूपीआई) सिस्टम ने बैंकों को आसानी से फंड ट्रांसफर करने में सक्षम बना दिया। डीबीयू आम नागरिकों के जीवन को आसान बनाने की दिशा में एक अन्य बड़ा कदम है। डिजिटल बैंकिंग का मूल अर्थ है, सभी बैंकिंग परिचालनों को डिजिटलीकृत करना, बैंकों की भौतिक उपस्थिति को ऑनलाइन उपस्थिति में बदलना और उपभोक्ता की शाखा में जाने की आवश्यकता को समाप्त करना। नव-स्थापित होने वाले 75 डीबीयू सभी राज्यों व केंद्रशासित क्षेत्रों को कवर करेंगे।
आने वाला समय डिजिटल प्लेटफॉर्म का ही है, जिसे कोविड महामारी ने हमें बहुत कुछ पहले ही सीखा दिया है। आज ऑनलाइन बैंकिंग, ऑनलाइन लेन-देन, ऑनलाइन शिक्षा व ऑनलाइन जॉब हमारे जीवन का हिस्सा बन चुके हैं। डेलॉयट रिसर्च एजेंसी के एक अध्ययन के अनुसार, देश में अभी 110 करोड़ लोग मोबाइल फोन का उपयोग कर रहे हैं, जिनमें से 72 करोड़ लोगों के हाथों में स्मार्टफोन है। इनकी संख्या 2026 तक 100 करोड़ पार कर जाने की उम्मीद है। केंद्र सरकार की योजना ‘भारतनेट’ कार्यक्रम के तहत 2025 तक सभी गांवों को फाइबर नेट से जोड़ने की भी है। इससे आने वाले समय में डिजिटल अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। इतना ही नहीं, 35 करोड़ से अधिक डाकघर जमा खातों को कोर बैंकिंग प्रणाली से जोड़ा जा रहा है, जिससे खाताधारक अपने खाते को ऑनलाइन एक्सेस कर सकेंगे। यह ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों और वरिष्ठ नागरिकों के लिए सहायक होगा, साथ ही वित्तीय समावेशन को भी बढ़ावा देगा। यह ग्रामीण भारत में डिजिटल अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा प्रयास है।
सरकार ने सस्ती मुद्रा प्रबंधन प्रणाली के लिए 2022-23 से रिजर्व बैंक द्वारा जारी किए जाने वाले ब्लॉकचेन और अन्य तकनीकों का उपयोग करते हुए डिजिटल रुपया पेश करने का प्रस्ताव रखा है। ऐसा करके भारत खुद की केंद्रीय बैंक डिजिटल मुद्रा (सीबीडीसी) जारी करने वाले देशों में शामिल हो जाएगा। देश में बड़ी संख्या में मोबाइल ग्राहक होने के कारण वित्तीय सेवाओं के वितरण में इस तकनीक का व्यापक उपयोग हो सकता है। हालांकि, डिजिटल बैंकिंग जैसी सेवा पर विचार करते समय हमें सुरक्षा पर भी जोर देना होगा, क्योंकि डिजिटल बैंकिंग को व्यापक बनाने के लिए भुगतान प्रणालियों को सुरक्षित बनाना अनिवार्य है। केंद्रीय बैंक धोखाधड़ी की घटनाओं को रोकने के लिए बेशक गंभीर प्रयास कर रहा है, लेकिन इसमें उसे पूरी तरह सफलता नहीं मिल सकी है। ‘अ बुकलेट ऑन मोडस ऑपरेंडी ऑफ फाइनेंशियल फ्रॉड’ के आंकड़ों के अनुसार, पिछले तीन वर्षों में कुल 473 करोड़ रुपये का ऑनलाइन फ्रॉड लोगों के साथ हुआ है।
ऑनलाइन फ्रॉड के चलते अभी महज चार करोड़ लोग ही मोबाइल बैंकिंग करते हैं। निकट भविष्य में डिजिटल बैंकिंग अर्थव्यवस्था का नेतृत्व करेगी और फिनटेक भारतीय बैंकिंग व भुगतान प्रणाली के लिए आगे का रास्ता है। जाहिर है, इसे सुगम और सुरक्षित बनाने की दरकार है। हमारे देश में करीब 6.5 लाख गांव हैं, जिनमें देश की करीब 65 फीसदी आबादी बसती है। आज भी विभिन्न कारणों से एक बड़ी ग्रामीण आबादी औपचारिक ऋण के दायरे से बाहर है। ऐसे लोगों के लिए डिजिटल बैंक काफी अहम साबित होंगे।