18-07-2024 (Important News Clippings)

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18 Jul 2024
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Date: 18-07-24

In search of jobs

Technology must be harnessed for easing burden and for efficiency

Editorial

Employment generation will remain a major challenge before the Narendra Modi government in its third term, and the upcoming Union Budget is expected to take note of it. There are no easy ways out, given the swelling numbers of young job seekers, and the changing nature of the economy that requires fewer workers, thanks to rapid technological advancement. Recent studies have highlighted the seriousness of the challenge. The Annual Survey of Unincorporated Sector Enterprises (ASUSE) notes that just 21% of the total establishments used the Internet for entrepreneurial activities. The survey, quite similar to a previous report of the International Labour Organisation (ILO), says the unincorporated non-agricultural economy employed about 11 crore workers during October 2022 to September 2023 in comparison to about 9.8 crore workers during 2021-22. The ILO’s India Employment Report had also warned that the share of manufacturing employment was stagnant, at around 12%-14% and the slow transition of jobs from agriculture to non agriculture reversed due to the COVID-19 pandemic. A Citigroup report too said the current rate of job creation will not be sufficient to meet future demand. The ASUSE had also noted that ‘Other Services’ contributed the maximum share (36.45%) to the total employment followed by ‘trading’ (35.61%) and ‘manufacturing’ (27.94%). Various Periodic Labour Force Surveys had also noted that 45.76% of the total workforce was engaged in agriculture and allied sectors during 2022-23.

While the government cannot magically change the situation, it can initiate thoughts about solutions. The Swadeshi Jagran Manch has demanded that the Centre impose a robot tax and incentivise job creation in the Budget. The trade unions have asked the Centre to convene the long-pending Indian Labour Conference. Union Labour Minister Mansukh Mandaviya’s decision to reach out to trade unions is a positive development, but he must have stronger prescriptions than the Labour Codes to stop job losses and generate more jobs. Technological innovations should be to reduce the workload of people, and not to create hurdles for their livelihood. To industrialise agriculture production, the government should consider more public and cooperative investment to create more jobs and ease the load on farmers. It has to bring on board the private and public sectors, labour unions, States and political parties to design a growth model with job creation at its centre. Recent global experiences suggest that economic growth without employment growth can cause social and political upheavals. This is not a problem that can be explained away, and an honest account of the problem will be a good starting point for mitigative measures.


Date: 18-07-24

कृषि विस्तार ढांचे में बदलाव की जरूरत है

संपादकीय

देश की प्रमुख कृषि शोध संस्था ‘आईसीएआर’ ने अपना स्थापना दिवस मनाते हुए 56 फसलों की 323 नई किस्मों के बीज जारी किए। इनमें से 289 बीज पर्यावरण-रोधी और 27 बायो-फोर्टिफाइड (संरक्षित) होंगे। ये बीज अनाज, तिलहन, दलहन, चारा, गन्ने की फसलों के हैं, जो तापमान या आर्द्रता -जनित मौसमी बदलावों से उत्पादन नुकसान से बचाएंगे। संस्था का दावा है कि इसने पिछले नौ वर्षों में 2593 किस्म के नए बीज जारी किए हैं, यानी हर कार्य दिवस पर एक। किसी भी देश की कृषि के लिए यह आंकड़ा गर्व की बात है, फिर क्यों प्रति हेक्टेयर उत्पादन में भारत अन्य देशों से पीछे है ? वहीं लागत भी ज्यादा है, जिसके कारण वैश्विक निर्यात बाजार में अक्सर हमारा रेट ज्यादा होता है। बहरहाल बजट के मात्र 0.20 फीसदी धन के बावजूद इन वैज्ञानिकों के शोध प्रशंसा योग्य हैं। सवाल यह है कि इतने परिश्रम के बाद विकसित ये नए बीज आखिर किसानों तक अपेक्षित समय में क्यों नहीं पहुंच पाते? क्या भारत में कृषि-विस्तार ढांचा अपनी उपादेयता खो चुका है यानी ब्लॉक इकाइयां अपना काम नहीं कर रही हैं ? जाहिर है आठ दशक पुराना कृषि विस्तार ढांचा लगभग चरमरा गया है और अगर कृषि में क्रांति लानी है तो इसे किसी नए ढांचे से विस्थापित करना होगा। किसान आज भी नई किस्मों के बीज बोने में संकोच करता है क्योंकि ब्लॉक आज भी शोध और किसानों के बीच भरोसेमंद कड़ी नहीं बन सका है।


Date: 18-07-24

जलवायु परिवर्तन- जीवन और मौत का सवाल?

सुनीता नारायण, ( लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट से संबद्ध हैं )

हम यह जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन का असर मौसम पर भी पड़ता है जिससे लोगों की जिंदगी और आजीविका के साधन दोनों ही प्रभावित होते हैं। लेकिन हम इस बात पर पर्याप्त चर्चा नहीं करते हैं कि मौसम के ये चरम स्तर लोगों के स्वास्थ्य को किस तरह प्रभावित करते हैं। इस निराशाजनक दौर में जब तापमान सहन की क्षमता से ऊपर चला गया, तब हमें पता चला कि गर्मी भी जानलेवा हो सकती है। हमें यह भी मालूम हुआ कि न्यूनतम तापमान में वृद्धि यानी रात की गर्मी भी मौत का कारण बन सकती है। यह निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण है कि हम बदलते जलवायु संकट और हमारे स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव के बीच की कड़ियों को जोड़कर देखें।

इस साल दुनिया भर में झुलसाने वाली गर्मी पड़ी और इस भीषण गर्मी के कारण लोगों की जान भी गई। दिल्ली में जून महीने के आखिर तक यह अनुमान था कि अधिक गर्मी से करीब 270 लोगों की मौत हो गई। लेकिन मैं इस संख्या को सावधानी से देखती हूं। दरअसल हमें यह मालूम नहीं कि कितने लोगों की मौत सिर्फ गर्मी की वजह से हुई क्योंकि जिन लोगों को हृदय या गुर्दे की बीमारियों जैसी स्वास्थ्य समस्याएं हैं उनकी मुश्किलें गर्मी के कारण और बढ़ जाती है। संभव है कि इस गर्मी के मौसम में कई लोग केवल भीषण गर्मी का शिकार हो गए हों, लेकिन डॉक्टरों ने इसके लिए पहले से मौजूद स्वास्थ्य समस्याओं को ही इस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार ठहराया।

हम जानते हैं कि गर्मी के कारण वैसे लोग अधिक जोखिम की स्थिति का सामना करते हैं जिनकी काम की परिस्थितियां ही कुछ ऐसी होती हैं जिसके कारण उन्हें धूप में रहना पड़ता है जैसे कि निर्माण कार्य से जुड़े कामगार या फिर किसान। इसके अलावा गरीब तबके के लोगों को भी इसी तरह के जोखिम से जूझना पड़ता है क्योंकि उनके पास बिजली की सुविधा नहीं होती है और वे खुद को ठंडा रखने के लिए विभिन्न उपकरणों का इस्तेमाल भी नहीं कर सकते हैं। लेकिन उनकी मौत की वजहों में गर्मी नहीं गिनी जाती है और यह मान लिया जाता है कि वे गरीब या बूढ़े हैं और उनकी मौत किसी ‘अज्ञात कारणों’ की वजह से हुई है। इसके अलावा भीषण गर्मी का शिकार होने जैसी स्थिति को कोई अधिसूचित बीमारी में नहीं गिना जाता है जिसका अर्थ यह भी है कि आगे किसी भी कार्रवाई के लिए गर्मी से जुड़ी परेशानी की बात दर्ज किए जाने या इससे जुड़ी सूचना मुहैया करने की जरूरत नहीं पड़ती है।

इसलिए हमें यह अवश्य स्वीकार करना चाहिए कि हाल की भयानक गर्मी के कारण स्वास्थ्य क्षेत्र पर पड़ने वाले बोझ और इसके कारण हुई मौतों के बारे में हमें बहुत कम जानकारी है।

हालांकि शोध अब भयानक गर्मी के विभिन्न आयामों की ओर इशारा कर रहे हैं। पहला, यह समझा जा रहा है कि रात के वक्त गर्मी बढ़ने से अधिक तादाद में मौत होती है। एक ब्रितानी मेडिकल जर्नल, ‘दि लैंसेट’ के 2022 के एक शोध पत्र में यह पाया गया कि ठंडी रातों वाले तापमान की तुलना में गर्म रात वाले दिनों में मृत्यु का जोखिम 50 फीसदी से अधिक हो सकता है। इस शोध पत्र के लेखकों का कहना है कि गर्मी के कारण लोगों की नींद भी प्रभावित होती है और इसके चलते शरीर को आराम करने का मौका नहीं मिलता जिसके परिणामस्वरूप स्वास्थ्य से जुड़े तनाव की स्थिति बढ़ती जाती है।

दूसरा, हम यह जानते हैं कि वाष्पीकरण हमारे शरीर को ठंडा करने का एक तरीका है लेकिन यह तब प्रभावी नहीं होता है जब आर्द्रता 75 प्रतिशत से अधिक बढ़ जाती है और इसे वेट बल्ब घटना कहते हैं। इसलिए न केवल तापमान बल्कि अत्यधिक गर्मी और अत्यधिक सर्दी की स्थिति को समझने की सख्त जरूरत है।

चिंता की बात यह है कि हम इन सभी तीन जानलेवा कारकों में बढ़ोतरी का रुझान देख रहे हैं खासतौर पर शहरी केंद्रों में। यहां तापमान मानवीय सहनशीलता के स्तर से ऊपर बढ़ रहा है और इसके साथ ही आर्द्रता और रात के वक्त गर्मी भी बढ़ रही है। सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट में मेरे एक सहयोगी की एक ताजा रिपोर्ट में भारत के प्रमुख शहरों में गर्मी के रुझान पर नजर रखी गई और यह पाया गया कि देश के औसत तापमान के विपरीत शहरों की वायु के तापमान में बढ़ोतरी हो रही है। हैदराबाद, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में अधिक आर्द्रता वाली गर्मी देखी जा रही है और पिछले से पिछले दशक 2001-10 की तुलना में 2014-23 के दशक के मुकाबले 5-10 फीसदी की बढ़ोतरी देखी जा रही है। केवल बेंगलूरु में गर्मी के आर्द्रता के स्तर में कोई बढ़ोतरी नहीं देखी गई और इस पर और जांच की आवश्यकता है।

रिपोर्ट में यह पाया गया कि सभी जलवायु क्षेत्रों के शहरों में रात में ठंड नहीं होती है। इसमें यह बताया गया कि 2001-10 के दशक में गर्मी के मौसम में रात का तापमान दिन के शीर्ष स्तर के तापमान से 6.2 डिग्री सेल्सियस -13.2 डिग्री सेल्सियस (विभिन्न शहरों में) तक कम हो गया।

लेकिन पिछली 10 गर्मियों के सीजन में, दिन और रात के तापमान (अधिकतम और न्यूनतम) के बीच का यह अंतर कम हो रहा है। हैदराबाद में 13 प्रतिशत की गिरावट आई है, दिल्ली में 9 प्रतिशत और बेंगलूरु में यह 15 प्रतिशत तक है। कोलकाता में पहले से ही दिन और रात के तापमान के बीच का अंतर कम था और अब उच्च आर्द्रता स्तर के कारण इसकी स्थिति और भी खराब हो गई है।

हम जानते हैं कि यह सब हमारी दुनिया के दोहरे झटके का हिस्सा है। एक तरफ, ग्रह गर्म हो रहा है और इस साल ने पिछले सभी उच्च तापमान के रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। इससे भी खराब बात यह है कि अनियमित बारिश, भीषण गर्मी और हवा के रुख में बदलाव से मौसम में भी परिवर्तन देखा जा रहा है। इससे गर्मी और अधिक तनावपूर्ण और घातक हो जाती है। दूसरी ओर, हमारे शहरों में स्थानीय स्तर पर औसत तापमान में नाटकीय बदलाव देखने को मिल रहा है हरियाली वाली जगहों का स्थान कंक्रीट निर्माण के लेने से गर्मी का प्रभाव और बढ़ जाता है। साथ ही यातायात और शीतलन के लिए ऊर्जा के उपयोग से हवा में गर्मी और बढ़ जाती है।

इस दौर ने हमें गर्मी से जुड़े दबाव-तनाव के बारे में नए सबक सिखाए हैं। तथ्य यह है कि जलवायु परिवर्तन में मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव के साथ ही हमें ऐसी कई बातों से हैरान करने की क्षमता है। अब भी इस विज्ञान को समझना बाकी है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव निश्चित रूप से हमारे शरीर और हमारे स्वास्थ्य पर ज्यादा पड़ेगा। यही कारण है कि ग्रह की जैसी स्थिति होगी उसका सीधा संबंध मानव स्वास्थ्य से जुड़ा होगा। अब समय आ गया है कि हम यह समझें कि जलवायु परिवर्तन अस्तित्व से जुड़ा संकट क्यों है और यह वास्तव में जीवन और मौत के सवाल से भी जुड़ा है।


Date: 18-07-24

विषमता की बुनियाद

संपादकीय

महंगाई का सीधा असर आम उपभोक्ता के घरेलू खर्चों पर पड़ता है। इसलिए यह हैरानी का विषय नहीं कि थोक और खुदरा महंगाई की बढ़ी दरों के साथ ही उपभोक्ता व्यय के आंकड़े भी बढ़े हुए आए हैं। सरकार द्वारा जारी 2022-2023 की घरेलू खर्च रपट के मुताबिक देश के करीब आधे लोगों को तीन वक्त का भोजन नहीं मिल पाता। गांवों और शहरों में रहने वाले लोगों के बीच यह अंतर बहुत मामूली है। करीब आधी आबादी नाश्ता, दोपहर और रात का भोजन नियमित नहीं कर पाती। इसकी वजह केवल बढ़ी हुई महंगाई नहीं, बल्कि आय में बढ़ती विषमता है। देश के शीर्ष पांच फीसद अमीर और पांच फीसद सबसे अमीर लोगों के घरेलू खर्च में करीब बीस गुना का अंतर है। पांच फीसद सबसे गरीब ग्रामीण लोगों का औसत घरेलू खर्च 1373 रुपए और पांच फीसद शीर्ष शहरी अमीरों का घरेलू खर्च 20824 रुपए है। इसे लेकर स्वाभाविक ही विपक्ष को सरकार पर निशाना साधने का मौका मिल गया है। कांग्रेस ने पिछले दस वर्षों में बढ़ी हुई आय संबंधी विषमता का आंकड़ा पेश करते हुए सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना की है।

घरेलू खर्च में बढ़ोतरी और गरीब तथा अमीर के उपभोग व्यय में भारी अंतर आर्थिक विसंगतियों को रेखांकित करता है। महंगाई और घरेलू खर्च बढ़ने से लोगों को तब परेशानी नहीं होती, जब उसी अनुपात में उनकी आमदनी बढ़ी हो। मगर पिछले पांच-सात सालों में लोगों की क्रयशक्ति बुरी तरह प्रभावित हुई है। कोरोना काल के बाद लाखों लोगों की नौकरियां और रोजगार छिन गए, इससे उन्हें घर का खर्च चलाना मुश्किल है। तिस पर बढ़ती महंगाई मुसीबतों का पहाड़ बन कर टूटती है। दूसरी तरफ, अमीर लोगों का घरेलू खर्च बढ़ रहा है। यानी उनकी आमदनी भी बढ़ रही है। इससे बाजार में भी विसंगतियां पैदा होती हैं। केवल अमीर लोगों के बल पर कोई बाजार नहीं टिक पाता। अमीरों की आमदनी बढ़ने से ऐशो-आराम की वस्तुओं की बिक्री जरूर बढ़ जाती है, मगर आम उपभोक्ता के बल पर खड़े खुदरा बाजार को निरंतर संघर्ष करते रहना पड़ता है। पिछले कुछ वर्षों में सृजित कुल संपत्ति का करीब चालीस फीसद हिस्सा देश के केवल एक फीसद लोगों के पास गया है। देश की सत्तर करोड़ आबादी की कुल संपत्ति के बराबर हिस्सा कुल इक्कीस अमीरों के पास है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अर्थव्यवस्था में बढ़ते एकाधिकार की वजह से महंगाई बढ़ रही है। मगर सरकार इस विसंगति को दूर करने को लेकर गंभीर नजर नहीं आती।

विचित्र है कि एक तरफ तो देश को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में रेखांकित किया जाता है। कुछ वर्षों में देश के दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने का दावा किया जा रहा है। इसके विकसित देशों की श्रेणी में शुमार होने की उम्मीद जताई जा रही है। मगर इसके बरक्स दूसरी तस्वीर यह है कि देश की आधी आबादी तीन वक्त का भोजन नहीं जुटा पाती। सरकार खुद इसे अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में रेखांकित करती है कि वह अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज उपलब्ध करा रही है। जब तक लोगों की क्रयशक्ति नहीं बढ़ती और आय की असमानता दूर नहीं होती, तब तक संतुलित आर्थिक विकास की उम्मीद करना मुश्किल बना रहता है। इसके लिए नए रोजगार सृजित करने और वेतन-भत्तों के मामले में व्यावहारिक नीति बनाने की जरूरत होती है, जिसका अभाव लंबे समय से देखा जा रहा है।


Date: 18-07-24

आतंकवाद के विरुद्ध

संपादकीय

जम्मू संभाग के डोडा जिले के जंगलों में आतंकवादियों के साथ सुरक्षा बलों की भीषण मुठभेड़ ने एक बार फिर सुरक्षा ढांचे की कमियों को उजागर कर दिया है। इस पूरे इलाके ने हाल के वर्षों तक लंबे समय तक शांति देखी है। 2021 के बाद से पूंछ जिले से लेकर पीर पंजाल तक के क्षेत्र में सुरक्षा बलों और नागरिकों पर आतंकवादियों ने लक्ष्य करके हमले किए हैं। डोडा, रियासी, कटुआ, पूंछ और राजौरी जिलों में आतंकी हमलों ने सुरक्षा बलों और केंद्रशासित प्रदेश के पुलिस के जवानों को भारी दबाव में ला दिया है। पिछले दो-ढाई महीनों से कुछ ज्यादा समय से आतंकी हमलों में तेजी देखने को मिली है। सोमवार की रात को डोडा जिले के जंगलों में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में सेना के एक कैप्टन सहित चार सैनिक शहीद हो गए। अभी पिछले सप्ताह कठुआ जिले के माचेड़ी वन क्षेत्र में सेना के गश्ती दल पर आतंकवादियों द्वारा घात लगाकर किए गए हमले में पांच सैनिक शहीद हो गए थे और कई घायल हुए थे। जम्मू संभाग में आतंकी हमलों की तीव्रता का पता इस बात से चलता है कि पिछले ढाई महीने में सेना और आतंकवादियों के बीच मुठभेड़ में 12 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए और 20 नागरिक मारे गए जबकि 5 आतंकी ढेर हुए। स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि हाल के दिनों में आतंकवादियों कश्मीर घाटी की बजाय जम्मू संभाग के जंगलों में अपना कैंप बनाया है। यहां घने वन क्षेत्रों में वारदात करके छिपना आसान है। सीमा पार से घुसपैठ करके आने वाले आतंकवादियों के लिए यहां की पहाड़ियां मददगार साबित हो रही हैं। यह इलाका छिपने के लिए मुफीद साबित हो रहा है। यही वजह है कि सेना और सुरक्षा बलों को इनके आतंक के विरुद्ध लड़ाई में संघर्ष करना पड़ रहा है। इस क्षेत्र में लगातार होने वाले आतंकी हमले खुफिया मोर्चे पर चूक की ओर इशारा करते हैं। विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय में कमी दिखाई दे रही है जिसका आतंकवादी फायदा उठा रहे हैं। यह सही समय है जब सरकार आतंक के विरुद्ध लड़ाई के सुरक्षा तंत्र की समीक्षा करे। राजनीतिक और आर्थिक मोर्चे पर अस्थिर पाकिस्तान अपनी पुरानी कश्मीर नीति से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है। लोक सभा चुनावों में कश्मीर की जनता ने भारी उत्साह से मतदान किया है। पाकिस्तान को यह फूटी आंख नहीं सुहा रहा है। इसलिए वह आसन्न विधानसभा चुनावों में व्यवधान पैदा करने के लिए आतंकवाद को नये सिरे से हवा दे रहा है। लेकिन उसके मंसूबे पूरे नहीं होंगे।


Date: 18-07-24

फैसले का इंतजार हो

संपादकीय

मध्य प्रदेश के धार स्थित भोजशाला में 98 दिनों चले सर्वे की रिपोर्ट भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने मध्यप्रदेश हाई खंडपीठ में पेश की। सर्वे में सत्रह सौ से अधिक पुरावशेष मिले हैं। दीवारों व खंभों के अतिरिक्त खुदाई के दौरान मिलीं 37 देवी-देवताओं की मूर्तियां भी हैं। हिन्दू मानते हैं कि भोजशाला वाग्देवी सरस्वती का मंदिर है। मुसलमान इसे कमाल मौलाना मस्जिद बताते हैं। राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद की ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम और ग्रांउड पेनेट्रेटिंग रडार जांच में शिव, कृष्ण, ब्रह्मा की मूर्तियों के साथ सोने-चांदी के सिक्के भी मिले हैं। यहां के खंभों पर शेर, हाथी, घोड़ा, कुत्ता, बंदर, कछुआ, हंस आदि पक्षियों की मूर्तियां भी उकेरी गई हैं। आधिकारिक रूप से बताया जाता है कि ग्यारहवीं शताब्दी में यहां परमार वंश के राजा भोज का राज था। उनके द्वारा स्थापित इस विश्वविद्यालय को भोजशाला के नाम से जाना गया। ऐतिहासिक रूप से 1305 ईस्वीं में इसे अलाउद्दीन खिलजी ने नष्ट कर दिया। 1401 में इसके एक हिस्से में दिलावर खान गौरी ने मस्जिद का निर्माण करा दिया। यह स्थान फिलवक्त केंद्र सरकार के अधीन है, जिसका संरक्षण पुरातत्व विभाग करता है। अदालत के आदेश के बाद 2003 से इस विवादित स्थल पर प्रति मंगलवार हिन्दुओं को पूजा की इजाजत है तथा शुक्रवार को मुसलमान नमाज अदा कर सकते हैं। कार्बन डेटिंग तकनीक से हुए सर्वेक्षण की रपट दो हज़ार पन्नों की बताई जा रही है। 1902-03 के 121 वर्ष बाद यह सर्वे अदालत के आदेशानुसार हो रहा है। दोनों समुदायों के अपने- अपने तर्क रहे हैं जिन्हें तथ्यहीन कहा जा रहा था, बल्कि सुनी-सुनाई बातें और विवाद पीढ़ियों से चले आ रहे हैं बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि विवाद पर सबसे बड़ी अदालत के निर्णय के बाद से आम लोगों में विभिन्न विवादित पूजा स्थलों के निपटारे को लेकर खासा उत्साह बना हुआ है। चूंकि बहुसंख्य धार्मिक विश्वास वाले देशवासियों के बड़े वर्ग को उम्मीद है कि विवादित स्थलों पर पुनः विधि-विधान से पूजा-पाठ की जा सकेगी। अंततः तो अदालत का निर्णय सर्वोपरि होगा, जिसकी यह शुरुआत भर मानी जा सकती है। कोशिश होनी चाहिए कि देश की धार्मिक सहिष्णुता की छवि बरकरार रखते हुए सभी समुदायों की भावनाओं का सम्मान करते हुए ही अंतिम निर्णय हो ।


Date: 18-07-24

जड़ से खात्मा जरुरी

डॉ. मनीष कु. चौधरी

जम्मू -कश्मीर में बढ़ती आतंकवादी घटनाओं ने एक बार फिर सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्न उठाया है। का जो इलाका शांत था, वह फिर से अशांत होकर आतंकवादी घटनाओं के निशाने पर है। केंद्र सरकार की लगातार कोशिश रही है कि जम्मू-कश्मीर में शांति बहाल हो और आम जन मुख्यधारा से जुड़े। केंद्र सरकार के प्रतिनिधि एवं जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा भी निरंतर प्रयासरत हैं। उनकी कार्यशैली बिना शोर किए अपने लक्ष्य तक पहुंचने में विश्वास करती है। 2021 के बाद पुंछ, राजौरी और जम्मू के साथ-साथ पीर पंजाल रेंज के दक्षिण क्षेत्रों में आतंकवादी गतिविधियों में काफी बढ़ोतरी हुई। है। यह बेहद चिंताजनक है। जम्मू क्षेत्र में 2022 और 2023 में सुरक्षा बलों पर कई हमले हुए। यह वर्ष इस अर्थ में और भी दुखद रहा है। दर्जनों जवान शहीद हुए हैं। इन आतंकवादी घटनाओं के पीछे कई संगठन और एजेंसियां सक्रिय हैं। इनके पाव में पाकिस्तान और चीन को देखा जा सकता है। जम्मू के क्षेत्रों में आतंकवाद की पैठ सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। घाटी को आतंकवादी गतिविधियों का केंद्र माना जाता है। जम्मू तुलनात्मक रूप से शांत माना जाता रहा है। इसी का फायदा आतंकवादी संगठनों ने उठाया है। जब जम्मू में आतंकवाद धीरे-धीरे अपनी जड़ें जमा रहा था, तब हमारी सुरक्षा एजेंसियों को इसकी भनक तक नहीं लगी। उनका सारा ध्यान घाटी पर केंद्रित था। दरअसल, आतंकवादी जम्मू में हमला करके संदेश देना चाहते हैं कि उनकी गिरफ्त में पूरा केंद्रशासित प्रदेश है। आतंकवादियों के लिए क्षेत्र महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि आतंकित करना लक्ष्य है। इसलिए पहले शांत इलाकों में अपनी जड़ें मजबूत कीं, फिर आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया। जम्मू- कश्मीर आतंकवाद की समस्या को खत्म करने और देश की संप्रभुता की सुरक्षा के लिए सरकार ने विवादास्पद अनुच्छेद 370 हटाया। सरकार का फैसला एक हद तक सही और जरूरी भी था। लेकिन जम्मू-कश्मीर का आवाम सरकार की योजनाओं और नीतियों पर अपना विश्वास नहीं दिखला पाया। इन समस्याओं की जड़ें काफी गहरी हैं। जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का इतिहास बहुत पराना है। इसकी शुरुआत 1990 के दशक से होती है। तब से ब्लेकर अब तक जम्मू-कश्मीर की धरती नापाक इरादों से रक्तरंजित होती रही है।

केंद्र में नई सरकार के गठन के बाद जम्मू- -कश्मीर में आतंकी घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई। है। इनके निशाने पर आम जन है। आखिर, क्या है जम्मू को आतंक के निशाने पर लाने का मकसद पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद की जब कश्मीर में कमर तोड़ दी गई तब वह नये ठिकाने जम्मू में बनाने लगा। प्रश्न उठता है कि आखिर, जम्मू ही क्यों? इसका उत्तर बहुत सरल है कि जम्मू भौगोलिक रूप से जंगलों से घिरा है, जहां आतंकवादियों को आसानी से निशाना नहीं बनाया जा सकता। दूसरी बात यह भी है कि इसके बहाने वे संपूर्ण जम्मू-कश्मीर में आतंक दिखलाना चाहते हैं। दहशत – हिंसा पैदा करना इनकी प्राथमिकता है। नई सरकार के शपथ ग्रहण के दिन तीर्थयात्रियों पर हमलों ने इनके मंसूबों को बतला दिया था। कश्मीर को छोड़ जम्मू को नया निशाना बनाने के पीछे कारण यह भी है कि केंद्र सरकार ने कश्मीर में सेना और विभिन्न एजेंसियों द्वारा आतंकवादी ढांचों पर इस तरह से शिकंजा कसा कि वे लगभग नेस्तनाबूद हो गए। उनके सभी नेटवर्क खत्म कर दिए गए जबकि पाकिस्तान की पहली पसंद कश्मीर ही रहा है। वहां अशांति और उबाल पैदा करना पाकिस्तान का पुराना शगल है। सुरक्षा एजेंसियां इस तथ्य से इंकार नहीं करतीं कि आतंकवाद को पुनर्जीवित करने में पाकिस्तान और चीन की मिलीभगत हो सकती है। चीन का लक्ष्य संभवतः लद्दाख से सैनिकों को हटाने के लिए दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा हो । यह बात भी तय है कि आतंकवाद का कोई सैन्य समाधान नहीं हो सकता। सुरक्षा बलों की भूमिका स्थिति सामान्य करना है, ताकि कानून व्यवस्था की स्थिति नियंत्रित की जा सके।

कश्मीर समस्या का स्थायी निदान तभी मिल सकता है जब समस्या के वाह्य और आंतरिक, दोनों कारणों को संतुलित किया जाए। इस दिशा में भारत ने सदैव सकारात्मक पहल की है। जम्मू-कश्मीर में आगामी चुनाव के मद्देनजर आतंकी घटनाएं और भी चिंतनीय हैं। स्थायी लोकतांत्रिक सरकार के गठन का औचित्य सुरक्षा, सहयोग, अवसर और समुन्नत जनसुविधाओं की निर्मिति पर आधारित होता है। आतंकवादियों के अशांति और हिंसा फैलाने के कुत्सित प्रयासों से निपटने के लिए भारत को उन्नत टेक्नोलॉजी का प्रभावी प्रयोग करने वाली आतंकरोधी रणनीति तैयार करनी होगी। सुरक्षा बलों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है आतंकवाद का बदलता चेहरा, रणनीति और ढांचा । स्थानीय नागरिकों को विश्वास में लिए बगैर जम्मू- कश्मीर में शांति बहाल लगभग असंभव कश्मीर के लोगों की भावनाओं को समझे बिना किसी निर्णायक फैसले तक नहीं पंहुचा जा सकता। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा था कि इंसानियत और जम्हूरियत के दायरे में रहते हुए हम सब कुछ जम्मू-कश्मीर के लिए करने को तैयार हैं। अनुच्छेद 370 हटने के बाद नये निवेशों और रोजगार उपलब्धता ने युवाओं में बेहतर भविष्य की संकल्पना को ठोस आधार दिया है। जम्मू-कश्मीर में सकारात्मक परिवर्तन की पहल केंद्र सरकार की प्राथमिकता है।

कश्मीरी लोगों के दिल-दिमाग को जीतने, उनकी पीड़ा और उपेक्षा की भावनाओं को सहानुभूति प्रदान करना एवं उनकी चोटिल और कलंकित गरिमा को पुनस्थापित करने के लिए राजनीतिक एवं सामाजिक अभियान की जरूरत है। जम्मू- कश्मीर के लोगों को इस सत्य को स्वीकार करने की जरूरत है कि उनका सुरक्षित और गरिमापूर्ण भविष्य भारत के साथ है। आतंकवाद से निपटने के लिए हमें नियंत्रण और सशक्तिकरण, दोनों के साथ बढ़ना होगा। व्यापक ब्लूप्रिंट के आधार पर ही जम्मू-कश्मीर की समस्याओं से निपटा जा सकता है। पुनस्थापित लोगों को मुख्यधारा में लाकर उनमें आत्मविश्वास बढ़ाया जा सकता है। जम्मू- कश्मीर को लेकर बातें बहुत हुई हैं, अब समय निर्णायक और ठोस कदम उठाने का है। सेना के मनोबल को बढ़ाने का है। एक तरफ से कूटनीतिक प्रहार और दूसरी तरफ सेना द्वारा कार्रवाई। इस बार पाकिस्तान के नापाक मंसूबों को ठोस और दूरगामी उत्तर देना समय की जरूरत है।


Date: 18-07-24

स्थानीय को आरक्षण

संपादकीय

कर्नाटक में निजी क्षेत्र में स्थानीय लोगों को आरक्षण देने की कवायद पर जहां खुशी का इजहार किया जा रहा है, वहीं इसके विरोधी भी कम नहीं हैं। राज्य के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने तो एक्स पर आधिकारिक रूप से एक संदेश भी पोस्ट कर दिया था। संदेश बहुत स्पष्ट था कि कर्नाटक में सी और डी ग्रेड की तमाम निजी नौकरियों में स्थानीय लोगों को 100 फीसदी आरक्षण मिलेगा। यह खबर जंगल में आग की तरह फैली और मुख्यमंत्री ने अपनी पोस्ट हटा ली। अब कर्नाटक सरकार की ओर से जो आधिकारिक बयान जारी हुआ है, उसके अनुसार, राज्य में निजी कंपनियों की नौकरी में स्थानीय लोगों को आरक्षण दिया जाएगा। यह आरक्षण गैर-प्रबंधन भूमिकाओं के लिए 70 प्रतिशत और प्रबंधन स्तर के पदों के लिए 50 प्रतिशत है। दरअसल, कर्नाटक तेजी से उभरता हुआ राज्य है और बड़ी संख्या में यहां आईटी कंपनियां सक्रिय हैं, जिनमें बड़ी संख्या में अन्य राज्यों के लोग काम कर रहे हैं। जब इन तमाम कंपनियों में आरक्षण लागू हो जाएगा, तब जाहिर है, कर्नाटक के बाहर से आए लोगों के लिए वहां रोजगार के अवसर कम हो जाएंगे।

कर्नाटक का यह फैसला स्थानीय रूप से भले ही वहां की राजनीति को पसंद आए, पर यदि अपेक्षाकृत रूप से विकसित हर राज्य ऐसे ही आरक्षण का सहारा लेने लगे, तो उन राज्यों का क्या होगा, जो पिछड़े हुए हैं और जहां जरूरत के हिसाब से बहुत कम रोजगार उपलब्ध है? मुख्यमंत्री ने यह भी घोषणा की थी कि ‘हमारी सरकार की आकांक्षा है कि कन्नड़ भूमि में किसी भी कन्नड़ को नौकरी से वंचित नहीं किया जाना चाहिए, ताकि वे शांतिपूर्ण जीवन जी सकें। हमारी सरकार कन्नड़ समर्थक है।’ वास्तव में कर्नाटक राज्य अपने इस मकसद को पूरा करने के लिए कानून बनाने जा रहा है और इस विधेयक की समीक्षा अवश्य होनी चाहिए। स्थानीय लोगों को खुश करने के लिए अगर यह आदर्श विधेयक है, तो क्यों न हरेक राज्य इस लागू करें? हालांकि, इसमें उन राज्यों को बहुत नुकसान होगा, जहां निजी नौकरियां कम हैं। सरकारी स्तर पर तो समय-समय पर कुछ राज्य स्थानीय लोगों को खुश करने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन निजी क्षेत्र के सहारे स्थानीय लोगों को खुश करने की यह कोशिश काबिल-ए-गौर है। विरोध के बावजूद, लगभग तय है कि यह रोजगार संबंधी विधेयक गुरुवार को कर्नाटक विधानसभा में पेश कर दिया जाएगा।

दरअसल, यह मामला केवल स्थानीय राजनीति से नहीं, बल्कि भाषा की राजनीति से भी जुड़ा है। कर्नाटक सरकार यह कोशिश कर रही है कि राज्य में नौकरी के लिए कन्नड़ ज्ञान को अनिवार्य बना दिया जाए। वैसे, राज्य के ही कई उद्यमियों ने इस कदम पर आपत्ति जताते हुए इसे भेदभावपूर्ण करार दिया है और आशंका जताई जा रही है कि इससे तकनीकी उद्योग को नुकसान हो सकता है। इस फैसले को फासीवादी और असांविधानिक भी कहा जा रहा है। एक आशंका यह भी है कि निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी सरकारी अधिकारियों का दखल बढ़ जाएगा। इससे सेवाओं की गुणवत्ता और कर्नाटक की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा। वैसे, सरकार रोजगार के अभाव में ही यह कदम उठा रही है। दरअसल, आज न सिर्फ कर्नाटक, बल्कि देश के तमाम राज्यों में बडे़ पैमाने पर रोजगार सृजन की जरूरत है और यह प्रस्तावित विधेयक इसी ओर इशारा कर रहा है।


Date: 18-07-24

तकनीकी आजादी की ओर बढ़े भारत

भाविश अग्रवाल, ( सीईओ, ओला कैब्स )

पिछले दस साल में भारत की जीडीपी लगभग दोगुनी होकर 3.5 ट्रिलियन डॉलर की हो गई है। हम दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में एक हैं। हमारा लक्ष्य है,  2047 तक भारत विकसित देश बने। अगर हम अपनी आर्थिक विकास दर को आठ प्रतिशत से बढ़ाकर 12 प्रतिशत कर लें, तो भारत 50 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन सकता है। दुनिया भर में तकनीक तेजी से विकसित हो रही है, खासकर एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस या कृत्रिम बुद्धिमत्ता) और नई ऊर्जा के क्षेत्र में। हमारे समकक्ष देश, जैसे चीन, नई तकनीक में भारी निवेश कर रहे हैं, पारंपरिक उद्योगों में बदलाव ला रहे हैं और नए क्षेत्रों को बढ़ावा दे रहे हैं।

भारत के विकास और प्रतिस्पद्र्धा में आगे रहने के लिए हमें एआई और नई ऊर्जा जैसी तकनीक को प्राथमिकता देनी होगी। इससे हमारी पूरी अर्थव्यवस्था में बड़ा बदलाव आ सकता है। ध्यान रहे, साल 1947 में हमने अपनी राजनीतिक आजादी पाई थी और साल 2047 में हमें अपनी तकनीकी आजादी हासिल करनी है। हमें तकनीकी उन्नति के लिए अपनी खुद की रणनीति बनानी होगी। अपने देश में तकनीक का यह उपयोग सिर्फ आर्थिक विकास के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव के लिए भी होना चाहिए।

भारत की अर्थव्यवस्था काफी हद तक डिजिटल हो चुकी है, लेकिन कंप्यूटिंग में हमारी भागीदारी अभी भी बहुत कम है। आईटी सेवाओं में हमारी बड़ी सफलता के बावजूद 30 ट्रिलियन डॉलर की ग्लोबल टेक्नोलॉजी इंडस्ट्री में भारत का हिस्सा सिर्फएक प्रतिशत है। यहां निवेश की बड़ी जरूरत है। भारत अभी भी अनोखी ताकतों से लैस है। विश्व के सबसे बडे़ डेवलपर समुदाय में से एक भारत में है। वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक सिलिकॉन डिजाइनर, विशाल मात्रा में उत्पन्न डाटा,और दुनिया का सबसे बड़ा आईटी उद्योग हमें एआई में अग्रणी बनाने की स्थिति में लाते हैं। हम एआई महाशक्ति में बदल सकते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे चीन ने वैश्विक विनिर्माण के क्षेत्र में क्रांति ला दी। एआई के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए भारत को डाटा, कंप्यूटिंग और एल्गोरिदम में विशेषज्ञता का लाभ उठाना चाहिए।

भारत दुनिया का 20 प्रतिशत डाटा बनाता है, लेकिन हमारा 80 प्रतिशत डाटा विदेश में स्टोर किया जाता है, एआई में प्रोसेस किया जाता है और फिर डॉलर में भुगतान करके वापस आयात किया जाता है। यह डाटा कॉलोनाइजेशन ईस्ट इंडिया कंपनी के तौर-तरीकों की याद दिलाता है, जहां भारत के कच्चे माल का दोहन करके, उन्हें प्रसंस्कृत उत्पाद के रूप में महंगे दामों पर भारतीयों को बेचा जाता था। आज, हमारे डिजिटल कच्चे माल, यानी डाटा का इसी तरह से लाभ उठाया जा रहा है। हमें अपने डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर का उपयोग करके गोपनीयता-संरक्षित डाटासेट बनाना चाहिए। हम अपनी डीपीआई की सफलता (जैसे, यूआईडीएआई, यूपीआई, ओएनडीसी) पर आधारित होकर एक नई, दुनिया की सबसे बड़ी ओपन-सोर्स आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस बना सकते हैं, जो भारत के सिद्धांतों पर आधारित हो।

बेशक, साल 2030 तक 50 गीगावाट डाटा सेंटर की क्षमता पाने के लिए 200 अरब डॉलर के निवेश की जरूरत होगी। यह हासिल करने योग्य लक्ष्य है। भारत सिलिकॉन डेवलपमेंट और डिजाइन टैलेंट के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा केंद्र है। फिर भी, हमारे पास भारत में डिजाइन किए गए चिप्स की कमी है। हमें इंडस्ट्री लीडिंग चिप डिजाइन प्रोजेक्ट्स और रिसर्च-लिंक्ड प्रोत्साहन योजनाओं के माध्यम से सरकारी प्रोत्साहन की जरूरत है, ताकि रोजगार बढ़े, भारत में काम करने के लिए विश्व स्तरीय प्रतिभाओं और बेहतरीन वैज्ञानिकों को आकर्षित किया जा सके।

पर्याप्त रोजगार वाले विकसित भारत के लिए नई ऊर्जा आपूर्ति शृंखला और तकनीक का भी विकास होना चाहिए। वैश्विक ऊर्जा परिदृश्य बदल रहा है। भारत को इस बदलाव में सबसे आगे रहना चाहिए। नई ऊर्जा का पूरा इकोसिस्टम तीन स्तंभों पर टिका है : रिन्यूएबल एनर्जी जेनरेशन, बैटरी स्टोरेज और इलेक्ट्रिक वाहन। रिन्यूएबल एनर्जी का मतलब अक्षय ऊर्जा में भारत की ताकत बढ़नी चाहिए। भारत की अक्षय ऊर्जा क्षमता 2014 में 72 गीगावाट से बढ़कर 2023 में 175 गीगावाट से ज्यादा हो गई है। सोलर एनर्जी क्षमता 3.8 गीगावाट से बढ़कर 88 गीगावाट से ज्यादा हो गई है। वैसे, हम इस मोर्चे पर पीछे हैं। हमें 2030 तक 500 गीगावाट के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं पर ध्यान देना चाहिए।

अक्षय ऊर्जा को प्रभावी बनाने के लिए हमें इसे मजबूत बैटरी स्टोरेज से जोड़ना होगा। अभी हमारी बैटरी स्टोरेज क्षमता सिर्फ दो गीगावाट है, जबकि चीन की 1,700 गीगावाट है। अपने अक्षय ऊर्जा ग्रिड को पावर देने और 100 प्रतिशत इलेक्ट्रिक वाहन के लक्ष्य को पाने के लिए 1,000 गीगावाट क्षमता का लक्ष्य रखना होगा। इलेक्ट्रिक वाहनों की बात करें, तो भारत में अभी प्रति 1,000 लोगों पर 200 से भी कम इलेक्ट्रिक वाहन हैं। चीन के तीन करोड़ की तुलना में भारत में हर साल सिर्फ बीस लाख ईवी बेचे जाते हैं। भारत को साल 2030 तक पांच करोड़ इलेक्ट्रिक वाहन बनाने वाला दुनिया का सबसे बड़ा ईवी बाजार बनने का लक्ष्य रखना चाहिए। यह बदलाव पर्यावरण को स्वच्छ बनाएगा, परिवहन लागत को कम करेगा।

वर्तमान में, सौर ऊर्जा उत्पादन, लिथियम सेल उत्पादन और ईवी उत्पादन जैसे न्यू एनर्जी इकोसिस्टम का 90 प्रतिशत हिस्सा चीन में है। अपनी खुद की तकनीक और आपूर्ति शृंखला बनाकर हम अपनी अर्थव्यवस्था को अधिक ऊर्जा-कुशल बना सकते हैं और देश में लाखों नौकरियां पैदा कर सकते हैं।

भविष्य की तकनीकों में महारत हासिल करना ही भारत के लिए ग्लोबल लीडरशिप का रास्ता है। हमें पीछे नहीं रहना है, बल्कि समकक्षों को पीछे छोड़कर एआई और नई ऊर्जा के क्षेत्र में लीडर बनना है। यह भारत को दुनिया में तकनीकी रूप से सबसे उन्नत अर्थव्यवस्था में बदलने का मौका है। सबसे बड़ी बात कि इससे देश में करोड़ों नई नौकरियां पैदा होंगी। इस लक्ष्य को पाने के लिए हमें समाज के सभी तबकों के एकजुट प्रयास की जरूरत है। जिस तरह हर भारतीय ने स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका निभाई थी, उसी तरह अब हमारे तकनीकी भविष्य के निर्माण में हर नागरिक की भूमिका है। यह साहसिक कदम उठाने और बड़े सपने देखने का समय है। हमें तत्काल काम शुरू करना होगा, ताकि हम उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकें।