18-07-2019 (Important News Clippings)

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18 Jul 2019
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Date:18-07-19

Victory for India, Respite for Jadhav

ET Editorials

The ruling by the International Court of Justice (ICJ) in the Kulbhushan Jadhav case is a substantial victory for India. In a 15:1 ruling, the court said that Pakistan is obligated to grant Jadhav consular access and directed Islamabad to stay his execution so as to carry out effective review and reconsideration of Jadhav’s conviction by a Pakistani military court. True, the court did not grant India’s plea for Jadhav’s release and safe passage to India. This will be used by Islamabad to claim success. That cannot hide the fact that India was able to demonstrate that Islamabad had violated Article 36 of the Vienna Convention, by not notifying India of Indian citizen Kulbhushan Jadhav’s arrest and denying him consular access.

What Wednesday’s ruling by the ICJ guarantees is that should Pakistan decide to retry Jadhav, the former naval officer will be properly represented by Indian counsel. It also sets the stage for diplomatic engagement to secure Jadhav’s safe passage to India. Having secured this victory, New Delhi must now chart the future course of its relations with Pakistan. This would mean diplomatic engagement between the two countries, which would appear to have resumed, given that Pakistan has reopened its air space for flights to and from India. New Delhi must maintain its diplomatic efforts to isolate Pakistan on terror and terror financing, apart from securing Jadhav’s release. Jadhav’s release could well be the opportunity to open up the channels for dialogue.

Given the history and the demands of domestic politics, particularly in Pakistan, the two countries are unlikely to present a picture of neighbourly cooperation. But as India moves ahead on the path of economic growth, ensuring a modicum of peace in the region is in its interest. Pakistan’s economic troubles make it all the more susceptible to good sense.


Date:18-07-19

राह नहीं दिखाता कर्नाटक मामले में कोर्ट का फैसला

संपादकीय

कर्नाटक संकट को लेकर सुप्रीम कोर्ट की तीन-सदस्यीय बेंच का फैसला न तो कोई राह दिखाता है न ही समस्या का निदान करता है बल्कि इस फैसले से दलबदल विरोधी कानून दन्त-विहीन हो गया है और लोलुप जन-प्रतिनिधियों को मनमानी करने की छूट मिलेगी। एक तरफ विधायकों को इस्तीफे के बाद विधानसभा में विश्वास मत के वक्त उपस्थित न रहने की छूट, और वह भी पार्टी द्वारा ‘तीन-लाइन का व्हिप’ जारी होने के बावजूद, दल-बदल को और बढ़ावा देगा और दूसरी ओर अदालत द्वारा यह कहना कि स्पीकर को यह कोर्ट कोई निर्देश नहीं दे सकता, अपने आप में विरोधाभासी हैं। ऐसे दर्जनों उदहारण दिए जा सकते हैं जब इसी कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 का हवाला देते हुए फैसले दिए। धन-पद लोलुपता के तांडव के कारण दलबदल विरोधी कानून 1986 में लाया गया और फिर उसे और सख्त बनाते हुए 2003 में संशोधन किया गया। आमतौर पर कोई विधायक या सांसद दसियों साल पार्टी में रहने के बाद टिकट पाकर चुनाव जीतता है। अचानक सत्ता सुख उसके हिसाब से न मिलने पर या मिलने की प्रत्याशा में वह इस्तीफा दे देता है यह कहते हुए कि नेतृत्व में दोष है या विचारधारा गलत है। अगले दिन वह मंत्री पद की शपथ लेता है या नई पार्टी से छह महीने में चुनाव जीतता है। क्या संवैधानिक संस्थाओं खासकर सुप्रीम कोर्ट की यह जिम्मेदारी नहीं है कि इन विधायकों को सदन में उपस्थिति होने या न होने या दल से इस्तीफा देने या न देने के मौलिक अधिकार की आड़ में छिपने न दें? इस फैसले के बाद कुमारस्वामी सरकार का गिरना तय है। हां, स्पीकर इसकी काट में इस्तीफे को ‘तीन-लाइन के व्हिप’ का उल्लंघन मानते हुए इसे दलबदल कानून का उल्लंघन करार दे और तब विधानसभा में बहुमत (सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले विधायकों के आधे से एक अधिक) के लिए अपेक्षित समर्थन कम हो जाएगा और सरकार बच जाएगी, लेकिन ऐसा करके स्पीकर भी क्या पद की गरिमा बचा पाएंगे? फिलहाल सरकार को चार वोटों की कमी है और सदस्यता खोने का डर 15 में से कम से कम चार विधायकों को उसके समर्थन में आने से रोक सकता है। लेकिन अगर विधायक अपनी योजना में सफल रहे और कुमारस्वामी सरकार गिर गई तो आने वाले दिनों में हर उस राज्य में, जहां ऐसी संभावना बन सकती है, यह खेल चलता रहेगा। फिर क्यों न दलबदल विरोधी कानून दफ़न कर दिया जाए ?


Date:18-07-19

पाक पर कानूनी जीत

कुलभूषण जाधव मामले में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले ने पाकिस्तान पर दबाव बनाने का जो अवसर भारत को दिया है उसका पूरा लाभ उठाया जाना चाहिए।

संपादकीय

पाकिस्तान में जासूसी के आरोप में बंदी भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव के मामले में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फैसला भारत को एक बड़ी राहत देने वाला है। यह न्यायालय बहुमत से इस नतीजे पर पहुंचा कि एक तो कुलभूषण जाधव को राजनयिक मदद मिलनी चाहिए और दूसरे, पाकिस्तान को उन्हें सुनाई गई सजा की समीक्षा करनी चाहिए। इस मामले में भारत का पक्ष सही था, यह इससे साबित होता है कि केवल एक को छोड़कर शेष सभी न्यायाधीश इस पर एकमत रहे कि पाकिस्तान ने कुलभूषण जाधव की गिरफ्तारी के बारे में भारत सरकार को समय पर सूचना न देकर वियना संधि का उल्लंघन किया। यह उल्लेखनीय है कि बहुमत से दिए गए इस फैसले में चीन के भी जज शामिल थे। इस पर हैरानी नहीं कि जो एकलौते जज फैसले से सहमत नहीं हुए वह पाकिस्तान के थे।

कुलभूषण जाधव पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फैसला भारत की कूटनीतिक और साथ ही कानूनी जीत है। कुलभूषण को बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय जाया जाए या नहीं, इस हिचक को तोड़ते हुए मोदी सरकार ने जिस कूटनीतिक साहस का परिचय दिया उसे और बल दिया वकील हरीश साल्वे की दलीलों ने। उनकी ही दलीलों को सुनकर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने पाकिस्तान को यह आदेश दिया था कि वह कुलभूषण को सुनाई गई फांसी की सजा पर अमल न करे। इसी आदेश के बाद पाकिस्तान कुलभूषण के परिजनों को अपने यहां आने की इजाजत देने के लिए बाध्य हुआ था, लेकिन इसके बावजूद अंतिम फैसला उसके पक्ष में नहीं आया।

इस पर आश्चर्य नहीं कि कुलभूषण की फांसी की सजा पर रोक के अंतरिम फैसले के बाद पाकिस्तान ने जिस तरह यह प्रदर्शित किया था कि उसका पक्ष मजबूत है उसी तरह वह ताजा फैसले को भी अपने हक में बताने की कोशिश कर रहा है। स्पष्ट है कि वह सार्वजनिक तौर पर यह स्वीकार करने से कतरा रहा है कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने कुलभूषण को राजनयिक मदद उपलब्ध कराने के साथ ही यह रेखांकित किया है कि उन्हें दी गई फांसी की सजा की प्रभावी ढंग से समीक्षा करने के साथ ही उस पर नए सिरे से विचार किया जाए।

नि:संदेह इसका अर्थ यही है कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने पाकिस्तान की सैन्य अदालत के उस फैसले को संदेहास्पद पाया जिसके तहत कुलभूषण को आतंकवाद फैलाने का दोषी करार देकर फांसी की सजा सुना दी गई थी। यह सही है कि अतीत में कुछ समर्थ देशों ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसलों की अनदेखी की है, लेकिन पाकिस्तान की न तो इतनी हैसियत है और न ही हिम्मत कि वह ऐसा कुछ करने की सोच सके। पाकिस्तान आंतरिक संकट से दो-चार होने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय दबाव का सामना कर रहा है। इसी दबाव के चलते उसने आतंकी सरगना हाफिज सईद की एक और बार गिरफ्तारी का दिखावा किया है। भारत को इस दिखावे को उसकी चालबाजी के रूप में ही देखना होगा। इसी के साथ यह भी जतन करना होगा कि कुलभूषण जाधव को पाकिस्तान के चंगुल से कैसे छुड़ाया जाए? अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले ने पाकिस्तान पर दबाव बनाने का जो अवसर दिया है, उसका पूरा लाभ उठाया जाना चाहिए।


Date:17-07-19

एनआईए की बढ़ेगी ताकत

संपादकीय

लोकसभा में राष्ट्रीय अन्वेषण अधिकरण संशोधन विधेयक, 2019 या एनआईए संशोधन विधेयक का पारित होना काफी महत्त्वपूर्ण है। आतंकवाद के विरु द्ध लड़ाई में एनआईए की शक्ति का विस्तार आवश्यक था। अगर यह विधेयक राज्य सभा में पारित हो जाता है तो एनआईए को भारत से बाहर किसी अनुसूचित अपराध के संबंध में मामले का पंजीकरण करने और जांच करने का अधिकार मिल जाएगा। साथ ही, एनआईए को मानव तस्करी और साइबर अपराध की जांच और कानूनी कार्रवाई का भी अधिकार मिल जाएगा। वस्तुत: आतकवाद हो या मानव तस्करी या साइबर अपराध; यह किसी देश की सीमा तक सीमित नहीं है। विधेयक पर र्चचा के दौरान गृह मंत्री अमित शाह ने कहा भी श्रीलंका में हमारे लोग मारे गए, बांग्लादेश में मारे गए लेकिन एनआईए को अधिकार न होने के कारण वह बाहर जांच नहीं कर सकती। इसी तरह मानव तस्करी का भयावह जाल पूरी दुनिया में बिछ गया है, और भारी संख्या में बच्चे-बच्चियों को इसका शिकार बनाया जा रहा है। एनआईए को अधिकार मिल जाने के कारण यह देशव्यापी और सीमा पार के इसके जाल की छानबीन कर अपराधियों को अदालत के कठघरे मे खड़ा करने में सफल हो सकेगी। जिनने लोक सभा में इस विधेयक का विरोध किया या इसमें अनावश्यक संशोधन प्रस्ताव लाए उनके पीछे केवल राजनीतिक मंशा थी। हमारे यहां दुर्भागय से आतंकवाद एवं अपराध को भी राजनीतिक नजरिए से देखकर पार्टयिां रणनीति बनाती हैं। इसी कारण वाजपेयी सरकार के समय पोटा का विरोध हुआ और संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाकर उसे पारित कराना पड़ा। यूपीए सरकार ने आते ही उसे खत्म कर दिया। किंतु जब आतंकवाद ने देश को लगातार लहूलुहान किया तो उन्हें गैर-कानूनी गतिविधियां निरोध कानून को परिवर्तित कर पोटा जैसा बनाना पड़ा। बाद में एनआईए का भी गठन करने को मजबूर होना पड़ा। इस पर राजनीति न होती तो न जाने कितनी आतंकवादी घटनाएं रु कतीं और कितने आतंकवादियों या उनकी मदद करने वालों को सजा मिल चुकी होती। हम उम्मीद करेंगे कि राज्य सभा में विपक्षी पार्टयिां इसे न अटकाएं। वर्तमान सरकार आतंकवाद के खिलाफ शून्य सहिष्णुता की नीति घोषित कर चुकी है, इसलिए हम यह भी चाहेंगे कि एनआईए संशोधन विधेयक के कानून बनने के साथ कुछ परिवर्तन और प्रगति दिखाई दे।


Date:17-07-19

सुरक्षा और सवाल

संपादकीय

देश में सड़क हादसों का ग्राफ जिस तेजी से ऊपर जा रहा है वह इस हकीकत को बताने के लिए काफी है कि सड़क सुरक्षा के प्रति हमारी सरकारें कितनी लापरवाह हैं। पिछले महीने हिमाचल प्रदेश और जम्मू में हुए बस हादसों में बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे। दोनों हादसों में एक समानता यह थी कि इन बसों में निर्धारित क्षमता से तीन गुना ज्यादा लोग सवार थे। दिल्ली-आगरा के बीच यमुना एक्सप्रेस-वे तो मौत के हाइवे में तब्दील हो चुका है। हाल में इस एक्सप्रेस-वे पर एक बस हादसे में उनतीस लोगों की मौत हो गई थी। बस के ड्राइवर को झपकी आ जाने की वजह से यह दुर्घटना हुई थी। ऐसे हादसे देशभर में रोजाना हो रहे हैं और सैकड़ों लोग मारे जा रहे हैं। ज्यादातर हादसे वाहन चालकों की लापरवाही और चूक से होते हैं। सवाल है कि इस समस्या से निपटा कैसे जाए?

भारत में सड़क सुरक्षा और परिवहन संबंधी कायदे-कानून वर्षों पुराने चले आ रहे हैं। इससे भी गंभीर बात यह है कि लोग इन नियम-कायदों को भी ताक पर रख कर चल रहे हैं। कानून का कोई भय नहीं रह गया है। इसलिए जब तक कानूनों का पुराना ढांचा बदला नहीं जाएगा और नए कानून सख्ती से लागू नहीं किए जाएंगे, तब तक न सड़क हादसों में कमी आएगी और न लोगों को मरने से बचाया जा सकेगा। सोमवार को लोकसभा में पेश ‘मोटर वाहन संशोधन विधेयक 2019’ में पहली बार कड़े प्रावधान किए गए हैं, ताकि वाहन, सड़क और चालक तीनों को सुरक्षित बनाने के उपाय किए जा सकें। खास बात यह है कि इस विधेयक में ड्राइविंग लाइसेंस संबंधी नियमों को और सख्त बनाने का प्रावधान है। सड़क परिवहन मंत्री ने खुद माना है कि देश में तीस फीसद से ज्यादा ड्राइविंग लाइसेंस फर्जी हैं। हकीकत में यह आंकड़ा इससे भी ज्यादा ही निकलेगा। संशोधित विधेयक में अंतरराष्ट्रीय मानकों को लागू करते हुए यह व्यवस्था की गई है कि अगर कोई वाहन तकनीकी या यांत्रिक रूप से खराब निकलता है तो संबंधित निर्माता कंपनी को उसे वापस मंगाना होगा। नए वाहनों की जांच प्रणाली को बदल कर और दुरुस्त किया जाएगा। टायर कंपनियों पर भी नकेल कसने की बात है। अगर गाड़ी या टायर की खराबी की वजह से कोई हादसा होता है तो संबंधित कंपनियां जिम्मेदार होंगी। इसी तरह राजमार्ग बनाने वाली कंपनियों पर भी शिकंजा कसा गया है।

फर्जी लाइसेंस बनने का कारोबार जिस पैमाने पर होता है, वह आरटीओ दफ्तरों के भीतर पैठे भ्रष्टाचार की पोल खोलने के लिए काफी है। नए कानून में जिस तरह भारी-भरकम जुर्माने और सजा का प्रावधान है, उससे लोगों में कुछ भय जरूर पैदा होगा। लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि कानून पर ईमानदारी से अमल सुनिश्चित कराने वाले तंत्र का कायाकल्प हो वरना कानून धरा रह जाता है। गंभीर बात तो यह है कि सड़क सुरक्षा जैसे अहम मसले पर केंद्र और राज्यों के बीच सहमति का अभाव है जिसकी वजह से नए मोटर वाहन विधेयक का काम आगे नहीं सरक पा रहा है। राज्यों का कहना है कि यह कानून उनके अधिकारों को छीनने वाला है। पिछली बार भी लोकसभा में यह विधेयक पास हो गया था लेकिन राज्यसभा में अटक गया। हालांकि केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री ने तो साफ कहा है कि जो राज्य इसे लागू नहीं करना चाहे वह नहीं करे। सवाल है कि अगर अधिकारों को लेकर ही गतिरोध बना रहेगा तो सड़क सुरक्षा पर कैसे सख्त कानून बन पाएंगे और लागू हो पाएंगे ?


Date:17-07-19

पुरानी लकीर पर चलने से नहीं होगा उग्रवाद का अंत

रघु रमन, विशेषज्ञ, आंतरिक सुरक्षा

अक्सर कहा जाता है कि जनरल आखिरी जंग को जीते हैं। यह सोच नई चुनौतियों के लिहाज से रणनीति बनाने की बजाय फौजी अफसरों द्वारा अपनी ऊर्जा पिछले युद्धों के विश्लेषण में खर्चने की तस्वीर खींचती है। यह बात इस कहावत से भी जाहिर होती है कि बड़ी सेनाओं वाले राष्ट्र छोटे युद्ध हार जाते हैं, जैसे अमेरिकी सेना। उसने यूरोप को नाजी-कब्जे से मुक्त करा दिया, लेकिन आज अफगानिस्तान में वह असहाय दिख रही है। पूर्व सोवियत संघ दर्जन भर से अधिक देशों पर अपनी पकड़ बनाए हुए था, पर अफगान सरदारों से पार न पा सका। हमारी फौज ने 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए, पर दो दशकों से वह कश्मीर में आतंकियों से जूझ रही है।

आखिर बडे़ राष्ट्र छोटे युद्धों में बेबस क्यों हो जाते हैं? इसके तीन कारण हैं। पहला, वे यह स्वीकार नहीं करते कि वे जंग हार रहे हैं या ‘पिछले युद्ध’ की रणनीति अगली जंग के लिए कारगर नहीं है। अब वह जमाना नहीं रहा कि युद्ध होने पर देश अपनी-अपनी सेनाएं एक-दूसरे के सामने खड़ी कर दें। बावजूद इसके अब भी सेनाएं बड़ी लड़ाइयों की तर्ज पर खुद को तैयार करती हैं। कश्मीर में तो बिल्कुल अलग छापामार युद्ध चल रहा है। इसीलिए ‘न युद्ध, न शांति’ वाली तनावपूर्ण, नाजुक स्थिति ही जीत मान ली जाती है। सामरिक दृष्टि से यह कहा भी जा सकता है। घाटी में हमारे जूनियर ऑफिसरों ने फील्ड ऑपरेशन में उल्लेखनीय साहस और जिम्मेदारी का परिचय दिया है। सेना ने ट्रेनिंग से बिल्कुल अलग तरह के ऑपरेशंस के लिए खुद को तैयार किया है। जैसे, उन्हें हजारों वर्ग किलोमीटर की युद्धभूमि के लिहाज से ‘स्ट्राइक फॉर्मेशन’ की ट्रेनिंग दी जाती है, मगर घाटी में वे लोगों की आबादी के बीच ऐसे इलाकों में अपनी कार्रवाई करते हैं, जिनकी लंबाई 135 किलोमीटर से ज्यादा नहीं। फिर भी हमारा शत्रु अपना मामूली नुकसान करके भारी मात्रा में हमारे संसाधनों को नष्ट करने में सफल हो जाता है।

दूसरी वजह यह है कि कश्मीर में अपनाई जा रही पुरानी ‘काउंटर-इनसर्जेंसी’ (क्वाइन) यानी आतंकवाद विरोधी हमारी रणनीति में कई खामियां हैं। इस रणनीति में माना गया है कि दहशतगर्द स्थानीय आबादी में घुल-मिल जाने की क्षमता रखते हैं और दुश्मन को खत्म करने का कोई भी प्रयास आम नागरिकों को बराबर नुकसान पहुंचाता है। इसलिए पूरी रणनीति गुप्त सूचनाओं पर आधारित होती है, जिसके तहत पूरे गांव को घेर लिया जाता है और फिर हर संदिग्ध घर या व्यक्ति की तलाशी ली जाती है। जबकि घेरेबंदी व खोजबीन वाली रणनीति समस्या को सिर्फ जटिल बनाती है और दुश्मन को खत्म करने की बजाय उसे कई तरह से मदद पहुंचाती है।

तीसरा कारण यह है कि ज्यादातर आतंकवाद विरोधी रणनीतियां इसलिए कारगर नहीं हो पातीं, क्योंकि वे अलग दौर के लिए बनाई गई हैं। इसको 1960 के दशक में बाहरी उपनिवेशों को नियंत्रित करने के लिए फ्रेंच कर्नल डेविड गॉलूला ने तैयार किया था। इसका सौम्य और कठोर पक्ष, दोनों है। सौम्य इस मामले में कि यह अलगाववादियों को अलग करना चाहता है, लेकिन कल्याणकारी प्रयासों से लोगों का दिल भी जीतना चाहता है। जबकि इसका कठोर पक्ष इसमें आधुनिक लोकतंत्र का शामिल न होना है। चीन और रूस जैसे देश अपेक्षाकृत सख्त रुख अपनाते हुए विवादित क्षेत्रों पर नियंत्रण रखते हैं, जबकि ब्रिटेन व अमेरिका जैसे देश लोगों के दिल-दिमाग को जीतना चाहते हैं, हालांकि इसमें सफलता मिलने का कोई तयशुदा वक्त नहीं होता। हमारी आतंकवाद विरोधी रणनीति में दुर्भाग्यवश सैन्य कार्रवाई पर ध्यान दिया जाता है, जबकि उसमें अनिवार्य रूप से राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक कार्रवाई भी शामिल होनी चाहिए।

हम अब भी अपने सैनिकों को स्थानीय भाषा, बोली और संस्कृति में प्रशिक्षित नहीं कर रहे हैं। सैन्य साजो सामान की खरीद प्रक्रिया भी बड़े युद्धों को ध्यान में रखकर की जाती है, जबकि अग्रिम मोर्चे के हमारे जवान युद्ध के बुनियादी सामान से वंचित हैं। हम अब भी पुरानी लकीर पर चल रहे हैं, जबकि हमारा शत्रु अपने अभियानों में कहीं अधिक आगे है, जैसे वह सोशल मीडिया का इस्तेमाल जनमानस को भड़काने में करता है। लिहाजा, यह समझना होगा कि जीत के लिए नई रणनीति बनाने की बजाय पुराना युद्ध लड़ना इस समस्या को निरंतर बनाए ही रखेगा।


Date:17-07-19

Rethinking KUSUM

If designed better and implemented effectively, the scheme could radically transform the irrigation economy

Tauseef Shahidi & Abhishek Jain , [ Tauseef Shahidi was a Research Analyst and Abhishek Jain is a Senior Programme Lead at the Council on Energy, Environment and Water]

Earlier this year, the Cabinet approved the Kisan Urja Suraksha evam Utthaan Mahabhiyan (KUSUM). With a Budget allocation of ₹34,000 crore, and a similar contribution expected from the States, KUSUM aims to provide energy sufficiency and sustainable irrigation access to farmers. At present, despite burgeoning farm power subsidies, nearly 30 million farmers, especially marginal landholders, use expensive diesel for their irrigation needs as they have no access to electricity. More than half of India’s net sown-area remains unirrigated. KUSUM could radically transform the irrigation economy if the government chooses an approach of equity by design and prudence over populism.

Equity by design

First, KUSUM should aim to reduce the existing disparity among States with regard to solar pumps deployment and irrigation access. Chhattisgarh and Rajasthan together account for about half of the two lakh solar pumps currently deployed in the country. This is surprising given the low irrigation demand in the former and poor groundwater situation in the latter. On the other hand, States such as Bihar, Uttar Pradesh and West Bengal, where penetration of diesel pumps is among the highest, have not managed to deploy any significant number of solar pumps. This disparity highlights poor State budget allocation towards solar pumps and the lack of initiative by State nodal agencies. To encourage more equitable deployment of 17.5 lakh off-grid pumps by 2022, the Centre should incentivise States through targetlinked financial assistance, and create avenues for peer learning.

Second, KUSUM must also address inequity within a State. For instance, 90% of Bihar’s farmers are small and marginal. Yet, they have received only 50% of government subsidies on solar pumps. On the other hand, in Chhattisgarh, about 95% of beneficiaries are from socially disadvantaged groups due to the mandate of the State. Learning from these contrasting examples, a share of central financial assistance under KUSUM should be appropriated for farmers with small landholdings and belonging to socially disadvantaged groups.

Third, instead of a one-size-fits-all approach, KUSUM should provide greater financial assistance to smaller farmers. KUSUM proposes a 60% subsidy for the pumps, borne equally by the Centre and the States, and the remaining 40% will be the farmer’s contribution — 10% as down payment and 30% through loans. This unilateral financing approach will exacerbate the inter-farmer disparity given the inequity in access to credit and repayment capacity between small and large farmers. A higher capital subsidy support to small and marginal farmers and long-term loans with interest subsidies for large and medium farmers would be a more economical and equitable alternative.

Prudence over populism

Fourth, solarising existing grid-connected pumps, as proposed under the scheme, needs a complete rethink. Existing grid-connected farmers, who have enjoyed power subsidies for decades, would receive the same financial support as that received by an off-grid farmer. In addition, they would earn regular income from the DISCOM on feeding surplus electricity, furthering the inequitable distribution of taxpayers’ resources. Instead, the scheme should only provide Central government subsidy of up to 30% for solarisation, and use the proposed State support to incentivise DISCOMs to procure energy from the farmers.

Also, solarising grid-connected pumps must include replacement of the pump. Poor efficiency levels of the existing pumps would mean unnecessary oversizing of the solar panels and lesser available energy to feed into the grid. Moreover, instead of feeding surplus energy to the grid, solar pump capacity could be used to power post-harvesting processes, which complement the seasonal irrigation load and can enhance farm incomes through local value addition. Further, the injection of solar power by farmers would require the entire agriculture electricity line (feeder) to be energised throughout the daytime, including for those not having solarised pumps. This would aggravate DISCOMs’ losses on such feeders. Instead, an effective alternative is to solarise the entire feeder through a reverse-bidding approach, and provide water-conservation-linked incentives to farmers as direct benefit transfer.

KUSUM should not woo a certain section of farmers with short-sighted objectives. If designed better and implemented effectively, it holds the potential to catapult the Indian irrigation economy from an era mired in perpetual subsidy, unreliable supply, and inequitable distribution of resources to a regime of affordable, reliable, and equitable access to energy and water.