18-07-2016 (Important News Clippings)
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Date: 18-07-16
Skill India needs concerted attention
The pace of rolling out the Skill India Mission launched by Prime Minister Narendra Modi last July needs to pick up. The government set a target of skilling 400 million persons by 2022, so far it has only skilled 10 million people. At this pace, the 2022 target appears to be a far cry. Worse still is the low rate of training to job transition.
The mission comprises four initiatives and the Pradhan Mantri Kaushal Vikas Yojana (PMKVY) is the flagship. In its first phase, the government trained some 1.97 million people against a target of 2.4 million, and the skilling to placement ratio is low. The government has stepped in to improve accountability of the scheme through a quarterly review of outcomes and direct payment systems. The Rs 12,000-crore package approved by the Cabinet for providing skill training and certifying 10 million persons over the next four years, which marks the second phase of the programme, seeks to address the gaps. In the new version of the scheme, the government will also focus on training people to work overseas, including Europe and Central Asia. But increased funding and training options alone will not help. The true test of the initiative is ensuring a smooth transition to jobs. This will require measures to incentivise employers to offer apprentice schemes that ensure skill training programmes are in sync with industry’s requirements.
India faces a severe shortage of trained workers—2.3 per cent of India’s work force has formal skill training compared to 68 per cent in the UK, 75 per cent in Germany, 52 per cent in USA, 80 per cent in Japan and 96 per cent in South Korea. Success of the Make-in-India manufacturing push depends, among other things, on availability of the requisite skilled manpower. Industry councils must become more proactive, as well, in skilling potential recruits.
This piece appeared as an editorial opinion in the print edition of The Economic Times.
Date: 18-07-16
Arunachal lesson: Return of popular government is a timely reminder to strengthen cooperative federalism
The swearing in of Pema Khandu as the 9th chief minister of Arunachal Pradesh brings an end to months of political instability in the north-eastern state bordering China. More importantly, it has foregrounded misuse of special powers by the Centre, igniting debate on quashing political appointments in gubernatorial positions. Supreme Court’s landmark July 13 ruling on Arunachal not only reiterated the sanctity of the floor test, but also makes it crystal clear that the governor cannot be seen to have such powers and functions as would assign to him a dominating position over the state executive and legislature.
Though belatedly, Congress ceded to the demand of its MLAs for replacing sitting Arunachal chief minister, Nabam Tuki, with another candidate that enjoyed the confidence of a majority within the legislature party. The elevation of 36-year-old Pema Khandu to the top job exemplifies that political leaderships cannot take decisions sitting in New Delhi without incorporating the mood among elected representatives. In a bid to steer clear, BJP insists that Congress itself has been responsible for the entire crisis. They have termed developments in Itanagar culminating in Khandu getting support of 44 of the total 60 MLAs in the assembly, as Congress’s internal matter.
With the Centre’s reversals in Uttarakhand and Arunachal over use of Article 356, rumblings have already begun. Bihar chief minister Nitish Kumar made a pitch for the abolition of the governor’s post at the Inter-State Council meeting on Saturday. Other chief ministers too criticised the Centre for over-centralisation of power, advocating greater autonomy to states. Incidentally, the council meeting, aimed at providing better coordination between states and Centre, was held after a gap of 10 years. The time has come for the Modi government to demonstrate that it really wishes to promote cooperative federalism by consigning Article 356 to history.
Date: 18-07-16
आतंक की काली छाया
फ्रांस के नीस शहर में आतंकी हमले के बाद विश्व को और अधिक गंभीर खतरे में देख रहे हैं पुष्पेश पंत
फ्रांस पर एक बार फिर कहर बरपा और जैसी आशंका थी, यह कहर एक ऐसे आतंकी ने बरपाया जिसका या तो कोई सीधा संबंध इस्लामिक स्टेट से था या फिर जो इस खूंखार आतंकी संगठन से प्रेरित था। फ्रांस के नीस शहर में हुए आतंकी हमले में जान गंवाने वालों की गिनती 80 पार कर चुकी है। करीब 50 से अधिक गंभीर रूप से घायल हैं। यह हमला उस वक्त हुआ जब बहुत सारे लोग सपरिवार फ्रांसीसी क्रांति की एक बड़ी घटना बास्तीय के पतन का जश्न मना रहे थे और आतिशबाजी का आनंद उठाने समुद्र तट के पास जमा थे। इस आतंकी हमले को अंजाम दिया ट्यूनिसियाई मूल के फ्रांसीसी नागरिक मोहम्मद बूहलल ने। उसने अपने ट्रक से लोगों को बेरहमी से रौंद डाला। तत्काल इसका पता नहीं कि हत्यारे ने ऐसा क्यों किया, लेकिन पुलिस उसके कृत्य को आतंकी घटना ही मान रही है। बीते आठ माह में यह फ्रांस पर दूसरा बड़ा हमला है। इसके पहले नवंबर में पेरिस में 130 लोगों ने अपनी जान गवाई थीं। 1ऐसा जान पड़ता है कि दुनिया का कोई भी देश जिहादी हमले का निशाना कभी भी बन सकता है। आत्मघाती हमलावर विस्फोटकों या आटोमेटिक राइफलों अथवा अकेले खूंखार भेड़िये की तरह ट्रक से मासूमों को कुचलने का काम कर रहे हैं। वे विमान चालक के तौर पर हवाई जहाज को जानबूझकर क्रैश कराकर सुर्खियों में छाने की भी कोशिश में हैं। नीस पर हमले के बाद फ्रांस के राष्ट्रपति ओलांद ने दोटूक कहा कि फ्रांस के राष्ट्रीय दिवस पर यह हमला उन आतंकियों ने किया जो स्वतंत्रता को खुद स्वीकार नहीं करते और न ही दूसरों को निरापद स्वाधीन जीवन बिताने देना चाहते हैं। फ्रांस में आपातकाल की स्थिति पिछले साल से ही जारी थी और इस महीने उसकी अवधि समाप्त होने वाली थी। ओलांद ने इसे अगले तीन महीने के लिए बढ़ा दिया है। उन्होंने फ्रांस के संवेदनशील स्थलों में 7 हजार और हथियारबंद टुकड़िया तैनात की हैं। सरहद की चौकीदारी के लिए भी रिजर्व सैनिक बुलाए जा रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने नीस पर हमले की निंदा की तो राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार ट्रम्प ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस स्थगित कर कहा कि हम सभी को एकजुट होकर यह सोचना पड़ेगा कि कैसे हम इस जंग में दहशतगर्दो को निर्णायक शिकस्त दे सकते हैं? ब्रसेल्स, ओरलैंडों, इस्तांबुल, ढाका और फ्रांस पर हुए हमलों के बाद ऐसी लीपापोती संभव नहीं कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। यह जरूरी है कि सभी कट्टरपंथियों की बिना भेदभाव भर्त्सना की जाए और उनके साथ एक जैसा बर्ताव किया जाए। अब यह बात बिल्कुल साफ हो चुकी है कि जानलेवा महामारी की तरह जिस कट्टरपंथ का शिकार दुनियाभर के निदरेष लोग हो रहे हैं उसके संक्रमण के लिए सारे धर्म समान रूप से जिम्मेदार नहीं। सऊदी अरब से जिस आक्रामक और असहिष्णु इस्लामी कट्टरपंथ का निर्यात बरसों से होता रहा है वही बेरहम और बर्बर दहशतगर्दी के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है-चाहे इसे वहाबी इस्लाम का नाम दें या सलाफी इस्लाम का। 1बगदादी नामक शख्स ने जब नई खिलाफत की स्थापना की घोषणा की थी तो उसकी प्रेरणा के पीछे सऊदी अरब का वहाबी विषवमन ही था। विडंबना यह है कि आज सऊदी शाही परिवार को बगदादी खुद अपना प्रतिद्वंद्वी लगने लगा है। जब तक अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन का सफाया नहीं किया था तब तक बगदादी की हस्ती नजर ही नहीं आती थी। यह याद दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि अलकायदा की जहरीली बेल भी सऊदी अरब ने ही बोई थी। ईराक हो या सीरिया, मिस्न हो या लीबिया, सूडान हो या अल्जीरिया अथवा यमन, लगभग पूरे मध्यपूर्व में आतंक और रक्तपात के लिए यही कट्टरपंथी इस्लामी तबका जिम्मेदार है। बहस को भटकाने-उलझाने के लिए यह तर्क दिया जा सकता है कि क्रूसेड जैसे धर्मयुद्ध का एलान तो 9/11 के बाद पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने भी किया था, लेकिन इसे भुलाया नहीं जा सकता कि वह एक भीषण हमले के बाद वाली प्रतिक्रिया थी जिसमें प्रतिशोध का स्वर मुखर हुआ था। यह तर्क भी चालबाजी ही है कि ‘आहत मुसलमान’ उस अन्याय के प्रतिकार के लिए हथियार उठाकर आतंकी बनने को मजबूर हुए हैं जिसे अमेरिका के सरकारी आंतकवाद ने शुरू किया। कुछ शातिर विश्लेषक यह पेंच डालने का प्रयास करते हैं कि इस्लामी जगत तो सदियों से शिया-सुन्नी की हिंसक रस्साकशी में फंसा है और उसी का लावा बहकर सबको झुलसाता रहता है। 1इस सबके साथ ही इसकी अनदेखा करना भी बेईमानी है कि जिस किसी मुस्लिम बहुल आबादी वाले देश में पंथनिरपेक्ष सरकार शासन कर रही थी या जिसका संस्कार उदार, मानवीय और सहनशील था और जहां के नौजवानों का नजरिया तरक्की पसंद और वैज्ञानिक सोच का समर्थक था उसे ध्वस्त-पस्त करने में अमेरिका ने कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसा उसने अपने सामरिक हितों की रक्षा के लिए अदूरदर्शी तरीके से किया। प्रारंभिक दौर में उसने सऊदी अरब का इस्तेमाल मोहरे के तौर पर किया। समय के साथ यह प्यादा मोहरा ही फर्जी बन बैठा और टेढ़ी चालें चलने लगा। 1आज कश्मीर घाटी में हम जो कुछ ङोल रहे हैं उसके लिए यही नादान नुस्खा आंखमूंदकर अपनाना जिम्मेदार है कि वहां तो मुसलमानों के साथ पुलिस और सुरक्षा बल ज्यादतियां करते रहे हैं और ‘इंसानियत’ के आधर पर किसी भी सीमा को पार कर ‘मानवीय समझौते’ की जरूरत है। जो दृश्य हम देख रहे हैं उसमें ज्यादतियों का शिकार पुलिसकर्मी और अन्य सुरक्षा बलों के सदस्य दीख रहे हैं, जो असाधरण संयम से काम लेते हुए लगातार पत्थरबाजी से बमुश्किल अपनी जान बचाकर रणछोड़ वाली मुद्रा में बहादुरी दिखा रहे हैं। कश्मीर में अलगाववादी कट्टरपंथी दहशतगर्दो के कथित मानवाधिकारों के उल्लंघन की चिंता करने वाली जमात शांति और सुव्यवस्था बनाए रखने के दौरान शहीद या घायल होने वाले जवानों अथवा उनके परिवार के प्रति हमदर्दी मुखर करने में पीछे ही रहती है। 1आज जब देश में इस्लामिक स्टेट की दस्तक तेज होती जा रही है तब संकट यह है कि उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों के चुनावों और उसके बाद लोकसभा चुनावों की तैयारी में अल्पसंख्यक वोट बैंक भुनाने के चक्कर में हर दल कहीं न कहीं इस तबके के तुष्टीकरण को प्राथमिकता देगा। एक बार फिर वही बेमतलब तोतारटंत सुनने को मिलेगी कि हमें किसी भी धर्म को आतंकवाद के साथ जोड़ने की जल्दी नहीं करनी चाहिए। अगर सत्य कहने में कंजूसी की जाएगी तो खतरे की जड़ बने वहाबी-सलाफी इस्लाम को ही बल मिलेगा। यह भी ध्यान रहे कि लगातार चुनावी तुष्टीकरण बहुसंख्यकों को असंतोष और आक्रोश से भरता है और इस मानसिकता को बढ़ावा देता है कि उन्हें न्याय नहीं मिल रहा। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि कश्मीर में मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं और यदि वह आर्थिक अभाव और सामाजिक विषमता का शिकार है तो इसके लिए उनके सहोदर एवं समानधर्मा खुदगर्ज कुनबापरस्त नेता जिम्मेदार हैं।
(लेखक जेएनयू में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर रहे हैं)
Date: 18-07-16
जहां प्रसन्नता है विकास का अनूठा पैमाना
ड्रेगन’ आज धरती का सबसे प्रसन्न और संतुष्ट देश माना जाता है। किंतु खुशी, प्रसन्नता है क्या? विकिपीडिया कहता है, ‘प्रसन्नता अच्छा लगने की मानसिक या भावनात्मक अवस्था है, जिसे संतुष्टी से लेकर तीव्र उल्लास तक की कई सकारात्मक या खुशनुमा भावनाओं से परिभाषित किया जाता है।’ बात यह है कि कोई परिभाषा बच्चे के चेहरे की मुस्कान की जगह नहीं ले सकती, नि:संदेह खुशी परिभाषा के परे है। आकार में छोटे से राष्ट्र ने पूरी दुनिया को ‘वैश्विक प्रसन्नता’ से परिचित करा दिया। सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता (ग्रॉस नेशनल हैपीनेस, जीएनएच) की अवधारणा 1972 में भूटान के चौथे राजा जेश्मे सिंग्ये वांगचुक ने गढ़ी थी। यह सही है कि सदियों से भूटान की संस्कृति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वाले भौतिक विकास की बजाय जीवन की गहरी समझ पर आधारित रही है।
फ्रांस में जन्मे भारत में बसे पत्रकार, इतिहासकार और तिब्बत विशेषज्ञ