04-10-2016 (Important News Clippings)

Afeias
04 Oct 2016
A+ A-

paper mashup copyTo Download Click Here

TOI-LogoDate: 04-10-16

Defying SC

Partisan political sentiment cannot be a guide to resolving water disputes

The messy dispute between Karnataka and Tamil Nadu over sharing of Cauvery river water became messier still when the Centre changed its position and questioned the Supreme Court’s jurisdiction to direct it to form a Cauvery Management Board. The Supreme Court is supposed to be the final arbiter of legal disputes, but it has seen the Karnataka government find excuses to repeatedly defy its orders. All governments involved must think about the long-term implications of such stonewalling.

In a federal set up, disputes over sharing water from rivers which flow across state boundaries are not unusual. A combination of population growth, poor water management and policy failures have led to water stress. Given this context, it is important that states allow an arbiter such as Supreme Court to carry out its functions without impediments. If partisan considerations are allowed to overwhelm legitimate dispute redressal mechanisms, consequences will be dire. It is not just Karnataka and Tamil Nadu which are locked in a long standing river water dispute, there remain unresolved problems between Punjab and Haryana. If Karnataka is allowed to defy the Supreme Court’s orders, that opens a Pandora’s box as upper riparian states can deny water to lower riparian states.

It is unfortunate that in Karnataka, India’s largest national political parties – Congress and BJP – have succumbed to parochialism. National parties are expected to bring a semblance of sanity to regional disputes on account of their broader horizons. But these parties have abjectly surrendered to populist sentiments. As we have seen repeatedly, once political parties give in to these sentiments mobs take control of the streets and governments get paralysed. Events of the last month have both undermined India’s federal structure and imposed an economic cost on Karnataka. It is important for all political parties in Karnataka to defuse the situation.Given the current impasse, it is important that Prime Minister Narendra Modi use his good offices to help warring states reach a consensus. India has to change its water and agricultural policies to promote water conservation. But in the interim it is the duty of the Centre to bridge the gap between states, not exacerbate them. India’s critical reforms such as the transition to Goods and Services Tax depend on cooperative federalism. Modi should take the lead here.


Dainik Bhaskar LogoDate: 04-10-16

अब इकोनॉमिक स्ट्राइक से सबक सिखाएं

दशकों से पड़ोसी देश द्वारा पैदा किए व पाले आतंकियों के हमलों तथा पठानकोट और उड़ी की घटनाओं से भारतीय जनता की आहत चेतना पर सेना के शौर्य व सर्जिकल स्ट्राइक ने मलहम लगाने का काम किया है। किंतु आतंक फैक्ट्री में तब्दील 18 करोड़ की आबादी के देश के लिए 30-40 शागिर्द गंवाना कोई स्थायी नुकसान नहीं है। ऐसे में पाक फिर कोई नापाक हरकत करे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि सर्जिकल स्ट्राइक की रणनीति और उसका क्रियान्वयन बहुत उम्दा साबित हुआ।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके सामरिक और राजनीतिक पहलुओं को बड़ी सतर्कता से संभाला। उन्होंने सेना नायकों को अागे किया। सफल ऑपरेशन के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस भी सेना नायकों ने ली। सार्क सम्मेलन में शामिल नहीं होने का फैसला, सिंधु जल समझौते को समीक्षा के मुहाने पर खड़ा करना और यह कहना कि खून अौर पानी साथ-साथ नहीं बह सकते, भारत की परिवर्तित रणनीति का अहम परिचय है। सवाल है कि एेसे सैन्य सर्जिकल स्ट्राइक कितनी बार होंगे? जरूरत है कि पाक पर आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक किया जाए, जो उसके आर्थिक ताने-बाने को तहस-नहस कर दे। अत: आर्थिक नाकेबंदी, प्रौद्योगिकी उन्नयन जैसे गैर-सैन्य समाधानों के बारे में सोचना होगा।वर्ष 1971 का युद्ध और बांग्लादेश के निर्माण के साथ साफ हो गया कि मुस्लिम राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान बनाने का सिद्धांत सही नहीं था। भारत के सद्‌भावना प्रयास सांप को दूध पिलाने जैसे साबित हुए।अमेरिका जैसे देशों ने यह बात जल्दी समझ ली थी कि पाकिस्तानी सत्ता की चाबी नेताओं के हाथ में नहीं, बल्कि सेना के हाथ में है और उन्होंने प्रधानमंत्री शरीफ के बदले सेना प्रमुख शरीफ को ज्यादा तवज्जो दी। इसके विपरीत भारत गलत पते पर दस्तक देता रहा। 1971 में भारत ने युद्ध के मैदान में जो कुछ जीता था, वह समझौते की टेबल पर हार गया। अब यह मानने में देर नहीं करनी चाहिए कि पाकिस्तान की अस्थिरता और उसका खंड-खंड होना ही भारत के हित में है।
 दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है, जो भारत के साथ व्यापारिक रिश्तों के लिए प्रयास नहीं कर रहा हो। इतना ही नहीं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों में मानवता और नैतिकता को लेकर जागी चेतना भी सुखद संयोग है। भारत का सकल घेरलू उत्पाद पाकिस्तान से 9 गुना अधिक है और भारत के साथ व्यापार का आकर्षण दुनिया में बढ़ रहा है। ऐसे में पाकिस्तान के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी बहुत कारगर हो सकती है। इसके लिए भारत को दक्षिण एशियाई देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापारिक समझौते और रिश्तों को अधिक मजबूत बनाने चाहिए तथा सार्क को अप्रासंगिक बनाकर पाकिस्तान को अलग-थलग कर देना चाहिए। अथवा एक जोरदार अभियान छेड़कर समुचित लॉबींग और सीधी कार्रवाई करते हुए पाकिस्तान को सार्क से बेदखल करवा देना चाहिए। यह सिर्फ भारत के हित में ही नहीं, दुनिया के हित में है। 1996 से पाकिस्तान को एमएफएन (सर्वाधिक अनुकूल देश) का एकतरफा दर्जा प्राप्त है, उसे वापस लेना चाहिए। भारत बहुराष्ट्रीय कंपनियों को इस बात के लिए सहमत कर सकता है कि वे दुनिया को आतंक का निर्यात करने वाले देश से आर्थिक संबंध न रखें, जो नफरत का व्यापार कर रहा हो और जो इंसानी खून का प्यासा हो। आर्थिक शक्ति कैसे बाहुबलियों को झुका देती है, इसका छोटा-सा उदाहरण बीसीसीआई है। उसने पैसों की खनक से पाक क्रिकेट बोर्ड को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था।
अपने अखंड स्वरूप में पाकिस्तान की राजनीति अौर स्टेट पॉलिसी आतंक की संरक्षक है। पाकिस्तानी हुकूमत को आम जनता के सुख-दुख से कोई सरोकार नहीं है, बल्कि वह तो आतंकी गुटों के रहमो-करम पर निर्भर है। पाकिस्तानी जनता में अपनी पहचान का संकट लगातार गहरा रहा है, जिसके कारण उनकी विविधता अंतर्कलह में बदल गई है। शिया-सुन्नी, देवबंदी-अन्य पंथी, पंजाबी-सिंधी, फौज बनाम सत्ता प्रतिष्ठान से लेकर अच्छे और बुरे अातंकवाद तक गहरी लकीरें खिंच गई हैं, जो पाकिस्तान सरकार के लिए भी सिरदर्द बन गई हैं। यदि पाकिस्तानी जनता के इस भावनात्मक विखंडन को सही ढंग से खेला जाए तो पाकिस्तान को खंड-खंड करना आसान होगा अौर भारत के लिए यह शानदार अवसर भी है कि पाकिस्तान के ताबूत में विखंडन की कीलें ठोंक दें।
पाकिस्तान में संघ प्रशासित जनजातीय क्षेत्र और खैबर-पख्तूनख्वा के लोग 2,430 किलोमीटर की डूरंड रेखा से सहमत नहीं है । इलाके की एक बड़ी आबादी पाकिस्तान की बजाय अफगानिस्तान में शामिल होना पसंद करती है। सिंध और बलूचिस्तान के लोग पाकिस्तान से अलग होना चाहते हैं, प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले की प्राचीर से अपने उद्‌बोधन में बलूचिस्तान की दुखती रग पर हाथ रखकर यह दिखा दिया। ऐसी नवाचारी साहसिक राजनीतिक पहल भारत की संभावनाओं के लिए नए दरवाजे खोलती है। इस तरह विखंडन के बाद पाकिस्तान सिर्फ अपने हिस्से के वर्तमान पंजाब की सीमाओं में सिमट जाएगा।
पाकिस्तान को अस्थिर करने वालेे विचारों को वे लोग नकार सकते हैं, जिन्हें आशंका है कि परमाणु बटन आतंकी समूहों के हाथों में पड़ सकता है। हालांकि, यह बहस का मुद्‌दा है कि परमाणु हथियारों से लैस आतंकी ज्यादा खतरनाक हैं या आतंकी राज्य? परमाणु बटन की चिंता तो अमेरिका पर छोड़ देनी चाहिए। एफबीआई ने अगर ओसामा बिन लादेन के सिर पर साढ़े चार करोड़ डॉलर का इनाम रखा तो भारत मसूद अजहर, हाफीज सईद, जकी उर रहमान लखवी और दाऊद इब्राहिम के सिर पर 150 करोड़ का इनाम क्यों नहीं रख सकता? पुरस्कार की राशि आतंकियों को पकड़वाने के लिए पाकिस्तानी जनता को काफी प्रेरित कर सकती है। पाकिस्तान को लेकर भारत की निष्क्रियता का ठीकरा राजनीतिज्ञों पर फोड़ा जाता रहा है, लेकिन सर्जिकल स्टाइक ने एक बार फिर भारत के नए राजनीतिक नेतृत्व और सैन्य सक्षमता के प्रति उत्साह अौर उम्मीद का संचार किया है। अब अागे की राह सतर्कता भरी तो होगी ही, लेकिन इसमें पाकिस्तान को हमेशा के लिए ठीक करने के अवसर भी हैं और चुनौती भी। इसके लिए अार्थिक नाकेबंदी और प्रौद्योगिकी को भी रणनीति का अहम हिस्सा बनाना होगा।
अमन सिंह (ये लेखक के अपने विचार है)
वरिष्ठ आईएएस अधिकारी और प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़

ie-logoDate: 03-10-16

Bill in bad faith

Religious belief cannot be the basis of preference or discrimination in matters of Indian citizenship.

The protests in Assam against the Citizenship (Amendment) Bill, 2016 point to the contentious nature of the proposed amendments. The bill was introduced in Parliament earlier this year, but opposition from the Congress and Left parties forced the government to refer it to a parliamentary panel, which had sought the views and suggestions of the public. The objections from the All Assam Students’ Union and various ethnic groups in Assam are premised on the fear that the amended bill could further increase migration into Assam. This fear is rooted in the politics that spawned the Assam agitation in the 1980s and led to the signing of the Assam Accord. While the fears of Assamese ethnic nationalists, even if exaggerated, arise from specific local concerns, the bill is most problematic, perhaps for another reason: It moves away from the vision of the founding fathers who refused to see the Indian state primarily as a Hindu nation.

At the core of the bill is the proposal to amend the Citizenship Act, 1955 so that members of minority communities – Hindu, Sikh, Buddhist, Jain and Parsi – from Pakistan, Afghanistan and Bangladesh could acquire Indian citizenship faster than at present. Now it takes 12 years of residency for any non-citizen to acquire Indian citizenship by naturalisation. The amendment proposes that a person from any of the aforesaid countries could acquire citizenship (by naturalisation) within seven years even if the applicant does not have the required documents. However, and here lies the problem, this provision is not extended to Muslims from these countries. The move to relax the conditions for acquiring Indian citizenship is unexceptionable, but surely the enabling criterion cannot be based on the applicant’s religion.

The intent of the amendment arguably draws from the BJP’s poll manifesto that declares India a “natural home for persecuted Hindus” who “shall be welcome to seek refuge”. Of course, India has accommodated scores of refugees – people targeted for their faith, political beliefs and so on — from its neighbourhood and should continue to do so. But in so doing, governments in the past have not made a religious distinction or discriminated against people of a particular faith. In fact, the refugee influx from Bangladesh in 1971 included a large number of Muslims, and over the years, many Afghans, who are Muslims, have taken refuge in India due to the political turmoil in their country. The Constitution, drawing from the syncretic and accommodating spirit of the Indic civilisation, imagines the Indian nation as a secular state with no special preference for any faith. The citizenship bill should be reworked according to the idea of India in its largest and most capacious version.


logoDate: 03-10-16

संकट में सार्क

भारत के सुर में सुर मिलाते हुए भूटान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश ने भी सम्मेलन में हिस्सेदारी करने में असमर्थता जता दी।

flags-e1455175473545आखिरकार पाकिस्तान को सार्क के अगले सम्मेलन को स्थगित करने की घोषणा करनी पड़ी। इसके सिवा कोई चारा भी नहीं रह गया था। सम्मेलन स्थल इस्लामाबाद होने के कारण पाकिस्तान मेजबान था। पर यह मेजबानी ही सम्मेलन की सबसे बड़ी बाधा बन गई। उड़ी में हुए आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान को लगातार घेरने की कोशिश में भारत ने जहां कई और कूटनीतिक कदम उठाए, वहीं सार्क के इस्लामाबाद सम्मेलन से अलग रहने का फैसला भी सुना दिया, यह कहते हुए कि परस्पर सहयोग बढ़ाने की बातचीत आतंक-मुक्त माहौल में ही हो सकती है। यों अकेले भारत का बहिष्कार ही सम्मेलन पर सवालिया निशान लगाने के लिए काफी था, क्योंकि सार्क में सर्वसम्मति से निर्णय लेने की परिपाटी रही है। पर भारत के सुर में सुर मिलाते हुए भूटान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश ने भी सम्मेलन में हिस्सेदारी करने में असमर्थता जता दी।

बाद में श्रीलंका ने भी सम्मेलन में हिस्सा न लेने का एलान कर दिया। यह सब पाकिस्तान के लिए तो झटका है ही, सार्क के लिए भी झटका है। लिहाजा सार्क का भविष्य क्या होगा, इस पर अटकलें लगाई जाने लगी हैं। यों यह पहला मौका नहीं है जब सार्क का शिखर सम्मेलन स्थगित हुआ हो। इससे पहले भी सम्मेलन टले हैं। पाकिस्तान ने कहा है कि वह सार्क के अध्यक्ष यानी नेपाल से बात करके सम्मेलन की अगली तारीखों की घोषणा करेगा। लेकिन उन तारीखों पर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस्लामाबाद जाने को तैयार नहीं हुए तो? खैर, आगे जो हो, भारत और पाकिस्तान की आपसी तनातनी सार्क की सबसे बड़ी समस्या रही है; पहले भी कई सम्मेलनों पर इसका असर पड़ा है। सार्क की यह समस्या अब एक संकट का रूप लेती दिख रही है। अगर भारत इससे बहुत चिंतित नहीं दिख रहा, तो पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने की उसकी मौजूदा रणनीति के अलावा कुछ और भी वजहें हो सकती हैं।

सार्क के बहुत सारे फैसले मूर्त रूप नहीं ले पाए हैं। मसलन, सार्क का दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार समझौता यानी साफ्टा 2004 में ही हो गया था, पर सार्क के भीतर आपसी व्यापार अब भी इन देशों के जीडीपी के एक फीसद से ज्यादा नहीं है। दूसरी ओर, भारत ने भूटान, नेपाल और श्रीलंका के साथ अलग से मुक्त व्यापार समझौते कर रखे हैं। फिर, ये तीनों देश और बांग्लादेश एक अन्य क्षेत्रीय समूह ‘बिम्सटेक’ में भी हैं। बिम्सटेक में इनके अलावा भारत भी है और म्यांमा तथा थाईलैंड भी।लिहाजा, भारत को लग रहा होगा कि बिम्सटेक और आसियान के जरिए तथा द्विपक्षीय समझौतों के सहारे, सार्क के बिना भी क्षेत्रीय सहयोग के तकाजे को आगे बढ़ाया जा सकता है। बिम्सटेक दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच पुल का काम भी कर सकता है। लेकिन सार्क को इतिहास की चीज बना देने के लिए क्या बाकी सदस्य देश भी राजी होंगे? विडंबना यह है कि जनवरी 2004 में इस्लामाबाद में हुआ शिखर सम्मेलन ही आतंकवाद के खिलाफ सार्क की सबसे बड़ी पहलकदमी बना था, जब पाकिस्तान समेत सभी सदस्य देशों ने दो टूक घोषणा की थी कि वे आतंकवाद के खिलाफ अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देंगे, और आज आतंकवाद के कारण ही सार्क का सम्मेलन इस्लामाबाद में नहीं हो पा रहा है। अगर पिछले बारह बरसों में पाकिस्तान ने अपनी वचनबद्धता और सार्क के घोषणापत्र का पालन किया होता, तो यह नौबत न आती।


Date: 03-10-16

f66f87f5-3e48-4738-822d-7ba97431c93f


RastriyaSaharalogoDate: 03-10-16

चीन का दबाव

पकिस्तानी आतंकवाद के मसले पर भारतीय कार्रवाई के विरुद्ध में चीन की यह प्रत्याशित प्रतिक्रियाएं हैं। इसलिए कि पाक मामले में चीन एक ‘‘सदाबहार मित्र’ के संदर्भ में हमेशा से रहा है। 1971 के बाद से उसकी स्थिति एक संभावित हस्तक्षेप की मानी जाती रही है। दरअसल, उरी हमले के प्रतिरोध-प्रतिशोध में जब कार्रवाई की संभावनाओं को खंगालते हुए सिंधु जल समझौते की समीक्षा की बात की जा रही थी, तभी चीन को लेकर एक शर्तिया अंदेशा था। सर्जिकल ऑपरेशन के बाद तो चीन का जैसे सब्र छलक गया। उसने भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए दो काम किये हैं। जैश-ए-मोहम्मद के कुख्यात सरगना अजहर मसूद को आतंकवादी घोषित करने पर लगाये अपने वीटो की मियाद तीन महीने तक बढ़ा दिये हैं। यह उसने तब किया है, जब भारत समेत पूरी दुनिया, खुद चीन भी, दशकों से, आतंकवाद से हलकान रही है। ताजा हुए उरी हमले की वह निंदा भी कर चुका है। अब वह अजहर के मसले पर भारत को दिये आश्वासन से भी मुकर गया है। दूसरा, झटका चीन ने ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी का जल प्रवाह रोक दिया है। ऐसा करके उसने भारत को सिंधु नदी की पुनर्समीक्षा करने के दुष्परिणामों के बारे में एक तरह से आगाह किया है। हालांकि उसका दावा है, और मामलों की तरह, कि ऐसा नहीं किया गया है। लेकिन जैसी भारी-भरकम परियोजनाओं-740 मिलियन डॉलर की लागत वाली 42 मेगावाट की पनबिजली बनाने, 295 क्यूबिक मीटर का जलाशय और 30,000 हेक्टेयर खेतों को सींचने-पर काम कर रहा है, उसको देखते हुए जल प्रवाह तो अपने आप बाधित होना है। इससे भारत ही नहीं बांग्लादेश को भी नुकसान उठाना पड़ेगा। हालांकि भारत चीन की 2014 में शुरू हुई इस बहुआयामी परियोजना पर विरोध जताता आ रहा है, पर वह बेअसर रहा है। भारत के विरोध का अंतरराष्ट्रीय नियम-कानून आधार है, जो नदियों के वैज्ञानिक व समुचित उपयोग की जरूरत को रेखांकित करते हुए उन देशों के बीच बेहतर समझदारी बनाने पर जोर देता है, जिनसे होकर यह नदियां गुजरती हैं। निश्चित रूप से चीन भी नियंतण्र नियमन से बंधा हुआ है। दक्षिण चीन सागर में कार्रवाई की बाध्यता से बचने और करवट ले रही भारत की वैदेशिक नीति के अपेक्षित प्रभाव से बलूचिस्तान में ग्वादर परियोजना को बचाने की चाल कामयाब नहीं होने दिया जाना चाहिए। यह बात कब से कही जा रही है कि भारत को अपनी रक्षा-सुरक्षा और वैदेशिक नीति चीन-केंद्रित बनानी चाहिए।


Date: 03-10-16

टकराव के रास्ते

भरतीय क्रि केट कंट्रोल बोर्ड की विशेष साधारण सभा बैठक में जिस तरह से लोढ़ा समिति की कई सिफारिशों को मानने से इनकार किया गया है, उससे लगता है कि उसने इस मामले में टकराने का मूड बना लिया है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछली सुनवाई में बीसीसीआई को जिस तरह से फटकारा था, उससे लग रहा था कि बीसीसीआई के सारे विकल्प खत्म हो गए हैं और उनके लिए लोढ़ा समिति के सुधारों को अपनाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। बैठक में एक राज्य एक मत, 70 साल से ज्यादा के पदाधिकारियों की नियुक्ति नहीं करना। एक बार पद संभालने के बाद पद से तीन साल तक दूरी रखने और एपेक्स काउंसिल के गठन संबंधी सिफारिशों को नकार दिया है। साथ ही नौ प्रमुख सिफारिशों को स्वीकार भी लिया गया है। असल में बीसीसीआई के इस फैसले के पीछे सोच यह है कि यदि सिफारिशों को मान लिया जाता है तो भी हाथ में कुछ नहीं रहना है। इसलिए बेहतर यही है कि लड़ते हुए जाए। बीसीसीआई इस बैठक के फैसलों के संबंध में एक विस्तृत रिपोर्ट छह अक्टूबर तक सुप्रीम कोर्ट और लोढ़ा समिति को सौंप देगा। बीसीसीआई के महासचिव ने कहा कि लोढ़ा समिति की सिफारिशों को स्वीकार करने के लिए विशेष साधारण सभा बुला दी, इससे ज्यादा हम क्या कर सकते हैं। अब सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट बीसीसीआई के कई प्रमुख सिफारिशें नहीं मानने पर अपने कहे मुताबिक सख्त कदम उठाएगा या फिर कावेरी नदी जल विवाद में कर्नाटक सरकार द्वारा बार-बार फैसला नहीं मानने पर भी कोई कार्रवाई नहीं किए जाने जैसा व्यवहार रहेगा। यह विचारणीय है कि शीर्ष अदालतों के हाल में कुछ फैसलों को क्यों नहीं क्रियान्वित किया जा सका है। बहुत संभव है कि लोढ़ा समिति की सिफारिशें नहीं मानने पर बीसीसीआई के खिलाफ अदालत की अवमानना का केस चल सकता है। यह काम मौजूदा पदाधिकारियों के रहते ही किया जा सकता है क्योंकि बीसीसीआई को प्रशासकों के हवाले करने के बाद अदालत की अवमानना करने वाले तो पहले ही जा चुके होंगे। हां, इस घटनाक्रम के संस्था में जिस आमूल-चूल बदलाव की उम्मीद की जा रही थी, लगता है कि यह स्थिति कुछ समय के लिए टलती नजर आने लगी है।


Date: 03-10-16

स्थायी इलाज नहीं है यह

यह  काला धन घोषणा योजना 2016 सुपर-सफल मानी जा सकती है। करीब 65, 250 करोड़ रु पये की घोषणा इसके तहत हुई यानी कुल मिलाकर सरकार को करीब 29,362 करोड़ रु पये कर-दंड वगैरह के तौर पर मिल जायेंगे। कुल मिलाकर 65,250 करोड़ रुपये आर्थिक व्यवस्था में आधिकारिक तौर पर आ जाएंगे। एक हफ्ते पहले तक ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही थी कि 2016 की काला धन घोषणा योजना खास कारगर नहीं होगी। पर योजना के आखिरी दिनों में (30 सितम्बर आखिरी तारीख थी) इस योजना ने पिकअप किया और जो परिणाम सामने आए, उसने साबित किया कि यह अब तक की सबसे सफल काला धन घोषणा योजना है। 1997 में आयी काला धन घोषणा के तहत कुल 33,000 करोड़ रु पये घोषित किये गये थे, पर उस वक्त बतौर कर आदि उससे करीब 9,760 करोड़ रु पये जुटाये जा सके थे, क्योंकि उस समय व्यक्तियों से कुल 30 प्रतिशत और कंपनियों से कुल 35 प्रतिशत वसूले गए थे। 2016 की स्कीम में कुल कर वगैरह की वसूली 29,362 करोड़ रु पये संभावित है, क्योंकि इस बार कर आदि की वसूली रेट 45 फीसद रही है। इस स्कीम की कामयाबी यों भी समझी जा सकती है कि पूरे ढाई साल में यह सरकार सारी धर-पकड़ के बावजूद कुल 56,378 करोड़ रुपये की अघोषित आय बरामद कर पायी थी, उससे ज्यादा रकम तो इस स्कीम में आ गयी। इस बार 64,275 लोगों ने इस स्कीम के तहत अपनी रकम घोषित की है। यानी प्रति घोषणाकर्ता-व्यक्ति करीब करीब एक करोड़ रुपये की घोषणा हुई है। यह औसत भी 1997 के औसत के मुकाबले बहुत बेहतर है। 1997 में प्रति घोषणाकर्ता व्यक्ति करीब 7 लाख रुपये की रकम बैठी थी।यह स्कीम तो सफल मानी जा सकती है, पर मूल मसला वहीं का वहीं खड़ा है कि अर्थव्यवस्था ऐसी कैसी बने कि अघोषित आय, काली आय का पैदा होना बंद हो जाए। वरना फिर वही होगा कि कुछ सालों बाद फिर किसी ना किसी रूप में ऐसी ही कोई काला धन घोषणा स्कीम लानी पड़ेगी, जो नैतिक तौर पर ठीक नहीं होगी। काला धन घोषणा स्कीम कभी भी नैतिक तौर पर ठीक नहीं मानी जा सकती। एक ईमानदार अपनी कमाई पर कर देता है, कोई बेईमान कर नहीं देता और उसे प्लाट-मकान में लगा देता है, तो वह बेईमान व्यक्ति कुछ समय बाद बहुत संपन्न हो जाएगा और फिर बाद में कभी किसी काला धन स्कीम का फायदा उठाकर अपनी काली कमाई को सफेद कर लेगा। यह एक तरह से ईमानदार करदाताओं के साथ अन्याय है। यह ठीक है कि कालाधन स्कीम में घोषणाकर्ताओं को पेनल्टी भी देनी पड़ती है। पर पेनल्टी से कोई भी गलत काम जायज नहीं हो जाता है। इसलिए इस तरह की कालाधन स्कीमों को हद से हद एक कामचलाऊ हल ही माना जा सकता है। दीर्घकाल में अर्थव्यवस्था को ऐसा बनाना होगा, जिसमें काला धन पैदा होने के आसार खत्म ना भी हों, तो न्यूनतम हो जाएं।काले धन का पैदा होना तब मुश्किल किया जा सकता है, जब कानून बहुत ठोस तरीके से काम करता हुआ दिखे। बहुत कम भ्रष्टाचारियों को ठोस सजा हो पाती है। भ्रष्टाचार करने की लागत बहुत कम है और प्राप्तियां बहुत ज्यादा हैं। स्मगलिंग, नशे के कारोबार तो काला धन पैदा करने के बड़े स्रेत हैं, पर भारत के कई सरकारी दफ्तरों में काला धन नियमित तौर पर पैदा होता है । तमाम राज्यों में जमीन की रजिस्ट्री करानेवाले दफ्तरों में जाइए तो पता लग जाएगा कि कालाधन कहां से आ रहा है और कहां जा रहा है। दो करोड़ की प्रापर्टी की रजिस्ट्री एक करोड़ रु पये में करायी जा रही है, भले ही सौदा दो करोड़ में हुआ हो। एक करोड़ रु पये नकद दिया जाना है और रजिस्ट्री के दफ्तर में ऊपर से लेकर नीचे तक सब सुविधा शुल्क में तरबतर हैं। नकद लेन-देन काली अर्थव्यवस्था का आधार है। काले धन की कमर तोड़ने के लिए जरूरी है कि अर्थव्यवस्था में नकद आधारित लेन-देन न्यूनतम हों।ऑनलाइन शापिंग की धरपकड़ आसान है, क्योंकि उसके रिकार्ड होते हैं। ऑफलाइन शापिंग की धर-पकड़ मुश्किल है। जमीन और सोने के सौदों में अघोषित आय का बड़ा हिस्सा जाता है। अगर किसी विधि से सोने की खरीद को पूरे तौर पर दस्तावेजित कर दिया जाए तो अघोषित आय को बड़ी हद तक सामने लाया जा सकता है। सोने की नान-कैश खरीद यानी ऑनलाइन भुगतान के जरिए या क्रेडिट डेबिट कार्ड के जरिये होनेवाली खरीद को अधिकाधिक किया जा सके, तो रिकार्ड दुरु स्त मौजूद रहेंगे। सोने की खरीद को पूरा कैश रहित नहीं बनाया जा सकता, पर इसमें कैश की संलग्नता न्यूनतम करके काले धन, अघोषित धन के एक हिस्से को पैदा होने से रोका जा सकता है। ऑनलाइन भुगतान तकनीकी तौर पर अब असंभव नहीं है, जब आटो रिक्शेवालों से लेकर पानवाले तक पेटीएम के जरिए भुगतान लेने की घोषणा कर रहे हैं, यानी वे कैशरहित सौदे कर रहे हैं, तो साफ होता है कि तकनीक तो अब ऐसी सुलभ है कि छोटे या बड़े भुगतान भी कैशरहित हो सकते हैं। कैशरहित भुगतानों को छूट, कैशबैक देकर इन्हें प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।हार्वर्ड विविद्यालय के प्रोफेसर कैनेथ रोगौफ की हाल में एक किताब आयी है-कर्स आफ कैश जिसका हिंदी में आशय है नकद का अभिशाप। इसमें उन्होंने साबित किया है कि नकदी आधारित अर्थव्यवस्था कालेधन की जननी है। उदाहरण के लिए अगर अर्थव्यवस्था से बड़े नोट ही हटा दिए जाएं सिर्फ छोटे नोट ही चलने दिए जाएं तो ही बड़ी हद तक अर्थव्यवस्था को सुधारा जा सकता है। रोगौफ कहते हैं कि कैश से क्राइम आता है क्योंकि यह बेनामी होता है। बड़ी घूस देने के लिए अगर छोटे नोटों का प्रयोग हो तो घूसखोरी कम हो जाएगी। भारत में जैसे देश में जो अपने को सॉफ्टवेयर पॉवर कहता है, जहां एक अरब से ज्यादा आधार कार्ड हैं, जहां पानवाले भी पेटीएम के जरिए भुगतान ले रहे हैं, देर-सबेर कम कैश की अर्थव्यवस्था के बारे में सोचना होगा। तब धर-पकड़ आसान हो जाएगी। वरना तो कुछ सालों बाद फिर काला धन घोषणा स्कीम आएगी, जो कभी भी स्थायी हल के तौर पर चिह्नित नहीं की जा सकती।

आलोक पुराणिक


Subscribe Our Newsletter