
18-04-2025 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Life unknown
The cosmos holds limitless mysteries for the constrained human mind
Editorial
The University of Cambridge issued a press release regarding a paper coauthored by one of its scientists that reported an exoplanet called K2-18b may be habitable, with the misleading headline, Strongest hints yet of biological activity outside the solar system. The paper, published on April 17, 2025, made headlines because astronomers have been interested for some time in this exoplanet’s peculiar surface physiochemistry. The paper is to its credit sedate in its prognostications: the authors have reported detecting the presence of dimethyl sulphide or dimethyl disulphide in K2-18b’s atmosphere; the former is considered a sign of life on the earth and could be on the exoplanet. Independent scientists and the paper’s authors have called for dispassionate efforts to refine the data and reduce uncertainties as well as to double-check the implications. If the history of the search for biomarkers on other planets both within and without the solar system is any guide, there is no guarantee that the findings will not be overturned. The cosmos still harbours too many mysteries for us to not be surprised by new information awaiting discovery. Research of this nature — initiated by curiosity and a pursuit of the unknown — has sometimes been overtaken by hype. Unfortunately, it faces another threat today: funding cuts of the type U.S. President Donald Trump has unleashed in his country.
After downsizing or cancelling grants issued via the National Institutes of Health, Mr. Trump began holding entire universities hostage: drawdown DEI initiatives and rein in student protests or forgo federal funding, he seemed to say. The institutions affected count some of the world’s best in their ranks and the funding withheld, a non-trivial fraction of that spent on certain subjects worldwide. Earlier this month, the White House’s budget proposal for the 2026 fiscal revealed its plans to cut National Oceanic and Atmospheric Administration funding by 27%, nix most spending for science at NASA’s Goddard Space Flight Center, and halve NASA’s earth-science budget. The essential programme is to control the practice and pursuit of science that does not align with Republican state ideology. Curiosity-driven research, such as that concerned with the possibility of extraterrestrial life, both proves universities’ freedom to explore the unknown and fulfils the innate curiosity of humankind. However, the Trump government’s policies leave whatever research freedom that remains very precious yet also more vulnerable to misinformation and ideological capture, and the world itself more short-sighted.
वक्फ कानून पर सुप्रीम कोर्ट के दखल के मायने
संपादकीय
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि वह अगली तारीख (5 मई) तक नए वक्फ कानून के प्रावधानों के तहत वक्फ काउंसिल या वक्फ बोर्ड्स में कोई नियुक्ति नहीं करेगी। लगभग छह दर्जन याचिकाएं एससी में दाखिल हुई थीं, जिनमें नए कानून के प्रावधानों को अनुच्छेद 26 के तहत मिली धार्मिक स्वतंत्रता के खिलाफ बताया गया था। सरकार ने यह भी कहा कि फिलहाल किसी वक्फ प्रॉपर्टी की स्थिति को नहीं बदला जाएगा। नए कानून के प्रावधान में ऐसी संपदा जो ‘वक्फ बाय यूजर’ के रूप में लम्बे समय से है लेकिन जो रजिस्टर्ड नहीं है- उसके प्रबंधक को मूल कागजात दिखाने की बाध्यता होगी और न दिखाने की स्थिति में वह संपदा वक्फ नहीं रहेगी। एससी ने सरकार से पूछा था कि सैकड़ों साल पुरानी किसी मस्जिद के दस्तावेज आज दिखाना कैसे संभव होगा। देश में करीब आठ लाख वक्फ संपत्तियां हैं, जिनमें चार लाख से ज्यादा ‘वक्फ बाय यूजर’ की श्रेणी में हैं। इनमें से अधिकांश का भू-रिकॉर्ड अब उपलब्ध नहीं है। इसके अलावा सबसे बड़ी चिंता मुसलमानों की यह थी कि नए कानून में हिंदुओं को भी बोर्ड्स और काउंसिल में नामित करने का प्रावधान है। कोर्ट ने सरकार से पूछा था कि क्या किसी हिन्दू धार्मिक ट्रस्ट में मुसलमान सदस्य नामित करने की व्यवस्था है? सरकार के पास इसका जवाब नहीं था । अनुच्छेद 26 के आधार पर ही इस कानून को चुनौती दी गई है।
Date: 18-04-25
मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने का समय आ गया है
पलकी शर्मा, ( मैनेजिंग एडिटर )
ट्रम्प ने चीन पर 245% टैरिफ के साथ उस पर लगभग प्रतिबंध लगा दिया है। बीजिंग जवाबी कार्रवाई कर रहा है। 75 से ज्यादा देश किसी सौदे पर दस्तखत करके इस झटके से बचने की उम्मीद कर रहे हैं। रूबल आसमान छू रहा है। वैश्विक व्यापार-व्यवस्था में उथल-पुथल मची हुई है। यूरोप का कहना है कि जिस ‘पश्चिम’ को हम अब तक जानते थे, उसका अब कोई अस्तित्व नहीं है। इस सबके बीच भारत का प्रदर्शन कैसा है? भारत को इस उतार-चढ़ाव और अनिश्चितता से कैसे निपटना चाहिए? क्या वह इस ट्रेड-वॉर को अपने लिए एक अवसर में बदल सकता है?
अच्छी खबर यह है कि भारत शुरुआती झटके से पहले ही उबर चुका है। मुद्रास्फीति घटी है और बाजार फिर से अच्छा प्रदर्शन करने लगे हैं। बुरी खबर यह है कि विकास का पूर्वानुमान गिरा है। इसलिए, झटका तो लगेगा, लेकिन भारत इस झटके को कम करने के लिए बहुत कुछ कर सकता है। शायद वह इससे कुछ लाभ भी कमा सकता है। जेडी वेंस अपने परिवार के साथ अगले सप्ताह भारत आएंगे। ट्रम्प प्रशासन के सत्ता सम्भालने के बाद से नई दिल्ली में कई हाई-प्रोफाइल दौरे और मुलाकातें हुई हैं। उन्होंने ट्रेड-डील सुरक्षित करने के लिए बातचीत के दौर को तेज कर दिया है। भारत की रणनीति ट्रम्प के साथ मिलकर काम करने की है, चीन की तरह उनसे लड़ने की नहीं। इसलिए निवेशक भारत को लेकर ज्यादा उत्साहित हैं।
यह बात भारत के हित में है कि वह चीन या मेक्सिको की तरह निर्यात-संचालित अर्थव्यवस्था नहीं है। इसलिए टैरिफ का जोखिम भारत के लिए इनकी तुलना में कम ही रहने वाला था। साथ ही, भारत इस क्षेत्र में सबसे खराब टैरिफ से भी प्रभावित नहीं हुआ है। चीन की तुलना में- जिस पर 245% टैरिफ है- वियतनाम पर कुल मिलाकर 46% टैरिफ है, बांग्लादेश पर 37% है और भारत पर 26% है। व्यापार-वार्ताएं चाहे जैसी रहें, यह अंतर भारत के पक्ष में काम कर सकता है, विशेष रूप से तीन उच्च-मूल्य वाले उद्योगों- टेक्स्टाइल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और मशीनरी में।
विशेषज्ञों का कहना है कि ट्रम्प के टैरिफ भारत के लिए नए दरवाजे खोल सकते हैं। उदाहरण के लिए, सेमीकंडक्टरों की आपूर्ति में, जिस पर फिलहाल ताइवान का वर्चस्व है। उसे 30% से अधिक टैरिफ का सामना करना पड़ा है। इसलिए यदि आपूर्ति-शृंखलाएं बदलती हैं तो भारत खुद को एक विकल्प के रूप में पेश कर सकता है। यह पैकेजिंग, टेस्टिंग और लो-एंड चिप निर्माण जैसी अपेक्षाकृत सुगम चीजों से शुरू कर सकता है। इसी तरह, मशीनरी और खिलौने जैसे क्षेत्रों में भी अवसर हैं, जिन पर अभी चीन का दबदबा है। कारोबारी टैरिफ से बचने के लिए अपना माल कहीं और बनाने की कोशिश करेंगे।
भारत अमेरिका के साथ रेयर-अर्थ खनिजों जैसे रणनीतिक क्षेत्रों में भी सहयोग करना चाहता है। ये सेमीकंडक्टर, ईवी मोटर, लड़ाकू जेट, मिसाइलें, विंड टर्बाइन और यहां तक कि एलईडी लाइट जैसे कई महत्वपूर्ण उत्पादों में भी प्रमुख तत्व हैं। एक मायने में, ये भविष्य की धातुएं हैं। इनके उत्पादन पर चीन का लगभग एकाधिकार रहा है। वह सभी रेयर-अर्थ उत्पादों का 70% और रेयर-अर्थ मैग्नेट्स का 90% उत्पादित करता है। ये तत्व ईवी निर्माण के लिए महत्वपूर्ण हैं। हाल ही में चीन ने अमेरिका को इनका निर्यात रोक दिया है। इससे अमेरिकी व्यवसाय ठप्प हो सकते हैं।
क्या भारत इसमें कोई भूमिका निभा सकता है? सैद्धांतिक रूप से, हां। क्योंकि चीन और ब्राजील के बाद भारत में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा रेयर-अर्थ भंडार है। वास्तव में, इनमें से अधिकांश धातुएं ‘रेयर’ नहीं हैं। ये पूरी दुनिया में पाई जाती हैं। समस्या उनको एक्स्ट्रैक्ट और प्रोसेस करने की है। भारत और अमेरिका इस पर सहयोग करने की उम्मीद कर रहे हैं। यह बात मोदी की हाल में व्हाइट हाउस यात्रा के दौरान सामने आई। दोनों पक्षों ने अवसरों का पता लगाने पर सहमति व्यक्त की। लेकिन इसमें समय लगेगा।
और आज समय ही सबसे ज्यादा मायने रखता है। यही बात भारत को चीनी कारखानों का विकल्प बनाने पर भी लागू होती है। अधिकांश नीति-निर्माताओं को लगता है कि समय आ गया है। लेकिन केवल टैरिफ ही कंपनियों को प्रभावित नहीं करेंगे। दूसरे फैक्टर्स भी हैं। जैसे, कच्चा माल कितना सस्ता है, सार्वजनिक बुनियादी ढांचा कितना अच्छा है, जमीन हासिल करना और व्यवसाय स्थापित करना कितना आसान है, और आप विवादों को कितनी जल्दी सुलझा सकते हैं? ये फैक्टर्स शायद टैरिफ से भी ज्यादा महत्व रखते हैं।
Date: 18-04-25
राज्यपालों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर 4 बातों को समझें
विराग गुप्ता, ( सुप्रीम कोर्ट के वकील, अनमास्किंग वीआईपी पुस्तक के लेखक )
राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने संसद से पारित हिन्दू कोड बिल को स्वीकृति देने से इंकार कर दिया था। प्रधानमंत्री नेहरू ने कानूनी राय के लिए मामले को अटॉर्नी जनरल सीतलवाड़ के पास भेजा। असहमत होने के बावजूद प्रसाद ने अटॉर्नी जनरल की राय के अनुसार बिल को मंजूरी दे दी। तब, संविधान सभा में कानून मंत्री डॉ. आम्बेडकर ने कहा था कि संविधान की सफलता इसका संचालन करने वाले लोगों के आचरण और विवेकपूर्ण बर्ताव पर निर्भर रहेगी।
लेकिन आज राज्यों और केंद्र की सरकारों के कामकाज में चुनावी समीकरण, धनकुबेरों के संरक्षण और हेडलाइन मैनेजमेंट का वर्चस्व बढ़ रहा है। तमिलनाडु चुनावों के पहले दक्षिणी राज्यों में परिसीमन, भाषा, आरक्षण और जाति सर्वेक्षण के मुद्दों की गूंज है। जबकि बंगाल के चुनावों के पहले वक्फ, रोहिंग्या और एनआरसी के मुद्दों को धार दी जा रही है। दिलचस्प बात यह है कि विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपालों ने जिन बिलों पर अड़ंगेबाजी की है, वे जनकल्याण के बजाय नियुक्तियों पर सियासी आधिपत्य से जुड़े हैं। विधेयकों को राज्यपाल से समयबद्ध मंजूरी के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जुड़े 4 आयामों पर समझ जरूरी है :
1. सरकार : सरकारिया और पुंछी आयोग ने राज्यपाल पद के दुरुपयोग को रोकने के लिए अनेक सुझाव दिए, जिन्हें पिछली सरकारों ने लागू नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से साफ है कि विपक्ष शासित राज्यों में ही राज्यपाल की शक्तियों का दुरुपयोग होता है। पार्टी और सरकार का फर्क तो इंदिरा गांधी के समय से ही खत्म होने लगा था। एकता-अखंडता के लिहाज से ‘एक देश एक कानून’ का नारा अच्छा है। लेकिन डबल इंजन सरकार के बढ़ते चलन से विपक्ष शासित राज्यों में बेचैनी है। केंद्र-राज्य सम्बंधों पर करुणानिधि ने कमेटी बनाई थी। उसी तर्ज पर अब स्टालिन सरकार ने पूर्व जज की अध्यक्षता में कमेटी के गठन का ऐलान किया है। अनेक दशक बाद भी संविधान पर सियासी हितों को वरीयता लोकतंत्र के लिए बेहद चिंताजनक है।
2. राज्यपाल : फैसले से साफ है कि विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपाल, सलाहकार के बजाय बाधा डालने वाली मशीनरी के तौर पर काम कर रहे हैं। फैसले में संविधान और कानून के साथ गृह मंत्रालय के 9 साल पुराने आदेश का जिक्र है। उसके अनुसार निर्वाचित सरकार का सम्मान करते हुए विधानसभा से पारित बिलों को तीन महीने में राज्यपालों को मंजूरी देनी चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 141 के मुताबिक, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले देश के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी होते हैं। इसलिए इस फैसले की व्यवस्था को सबसे पहले अदालतों में लागू करने की जरुरत है, जिससे पीड़ित लोगों को समयबद्ध न्याय मिल सके।
3. अदालत : केंद्र सरकार के अनुसार राष्ट्रपति का पक्ष सुने बगैर यह आदेश गलत है। सुप्रीम कोर्ट में बहस के पहले अनेक कानूनी बिंदु मुद्दे निर्धारित हुए थे, जिन पर राज्यपाल की तरफ से अटाॅर्नी जनरल ने बहस की थी। सिविल प्रोसिजर कोड के अनुसार यदि इस फैसले से राष्ट्रपति प्रभावित हो रहे थे तो सरकार ने कोर्ट में अर्जी क्यों नहीं लगाई? दिलचस्प बात यह है कि वक्फ, राज्यपाल, पूजा-स्थल और एनआरसी जैसे मामलों में राज्यों और केंद्र की सरकारें ‘लग्जरी मुकदमेबाजी’ पर सरकारी खजाने को लुटाने के साथ अदालतों का कीमती वक्त बर्बाद करती हैं। कानून के सामने जब सभी बराबर हैं तो आम जनता से जुड़े सभी मामलों में प्रभावित होने वाले सभी लोगों का पक्ष सुनने के बाद ही अदालतों से फैसला होना चाहिए।
4. संविधान : सरकार की दलील है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को समय सीमा में बांधने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बजाय संविधान में संशोधन का रास्ता होना चाहिए। यह फैसला प्रशासनिक दृष्टि से अच्छा है, लेकिन जजों को भी 4 संवैधानिक सीमाओं का ध्यान रखना चाहिए। पहला- केशवानंद भारती फैसले के अनुसार सुप्रीम कोर्ट को कानून निर्माण या संविधान संशोधन की शक्ति नहीं है। दूसरा- ऐसे मामलों में दो जजों के बजाय संविधान पीठ के 5 जजों के सामने सुनवाई होनी चाहिए। तीसरा- इंटरनेट रिसर्च और लॉ क्लर्क की मदद की वजह से लम्बे फैसले लिखने का चलन बढ़ गया है। यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फिजी के साथ पाकिस्तान के माध्यम से भारत की संवैधानिक व्यवस्था के विश्लेषण का प्रयास अप्रसांगिक होने के साथ गलत भी है। चौथा- सरकार की गलतियों को ठीक करने के लिए जजों को संरक्षक की भूमिका मिली है। लेकिन न्यायपालिका संविधान का अतिक्रमण करने लगी तो यह मर्ज लाइलाज हो सकता है।
गरीबों की भाग्य विधाता बनी मुद्रा योजना
अनिल बलूनी, ( लेखक लोकसभा सदस्य एवं भाजपा के राष्ट्रीय मीडिया प्रमुख हैं )
जनहित, स्वरोजगार और आर्थिक उन्नति को ध्यान में रखकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा शुरू की गई पीएम मुद्रा योजना को इसी माह 10 वर्ष पूरे हुए। पिछले दिनों जब मैं अपने लोकसभा क्षेत्र में था, तब रुद्रप्रयाग में जिलाधिकारी ने मुझे मुद्रा योजना की सफलता की कई ऐसी कहानियां सुनाईं कि किस तरह सुदूर पहाड़ में इस योजना से लोगों के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव आ रहे हैं, रोजगार सृजित हो रहे हैं और पलायन पर अंकुश लग रहा है। सेमलता भरदार, जखोली के रहने वाले सोबत सिंह को रोजगार के लिए घर से बाहर रहना पड़ता था। उन्होंने पीएम मुद्रा योजना से लोन लेकर अचार उत्पाद का व्यवसाय शुरू किया और आज वे चार और लोगों को रोजगार दे रहे हैं। इसके साथ ही अच्छी आय भी अर्जित कर रहे हैं। इसी तरह मवाणा गांव, नगरासू निवासी इंदु देवी ने भी पीएम मुद्रा योजना के माध्यम से गृहिणी से उद्यमी बनने तक का सफर तय किया। मवाणा में उन्होंने फैब्रिकेशन वर्क की एक यूनिट लगाई, जिसमें वे अपने साथ कई और महिलाओं को रोजगार दे रही हैं। बिंदु नामक एक महिला, जो पहले रोज 50 झाड़ू बनाती थी, अब 500 झाड़ू बनाने वाली एक यूनिट चलाती है।
ऐसी ही न जाने कितनी कहानियां हैं, जो पीएम मुद्रा योजना की सफलता की बानगी पेश करती हैं। जब विषम परिस्थितियों वाले दुर्गम पहाड़ों में स्थिति बदल रही है तो यह समझा जा सकता है कि यह योजना कितनी परिवर्तनकारी है। यही इस योजना का उद्देश्य है। प्रधानमंत्री इस योजना के जरिये आम लोगों को सशक्त बनाना चाहते हैं, ताकि वे किसी की मदद पर आश्रित न रहें। जब आप धरातल पर जाते हैं तो पीएम मुद्रा योजना के कारण आए बदलाव की बयार साफ दिखती है। मैंने किशोरावस्था के दौर में देखा है कि लोग किस तरह समय पर इलाज, खेती या किसी काम के लिए धन जुटाने के लिए कितना परेशान रहते थे, क्योंकि बैंकों के दरवाजे तो गरीबों के लिए बंद ही रहा करते थे। अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए गरीबों को उन लोगों पर निर्भर होना पड़ता था, जो मोटे ब्याज पर पैसे उधार देते थे और फिर वे उस जाल में फंसते जाते थे। जब बैंकों से लोन मिलना शुरू हुआ, तब भी लोन लेने के लिए पापड़ बेलने पड़ते थे, गारंटर की तलाश करनी पड़ती थी। दलाल जब लोन दिलाते थे तो मोटा कमीशन भी खा जाते थे। अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है।
मुद्रा योजना में किसी की गारंटी की जरूरत नहीं है। इसके तहत 50 हजार से 20 लाख रुपये तक का लोन लिया जा सकता है और वह भी गारंटी फ्री। इस योजना का असर यह हुआ कि अब हमारा देश जाब-सीकर नहीं, जाब-क्रिएटर तैयार कर रहा है। बीते 10 साल में 53 करोड़ से ज्यादा लोन पास हुए, जिसके तहत लगभग 33 लाख करोड़ रुपये का लोन दिया गया। इसमें लगभग 68 प्रतिशत लाभार्थी महिलाएं हैं और 50 प्रतिशत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के हैं। इस योजना का लाभ फल-फूल, सब्जी बेचने, चाय की दुकान चलाने वाले से लेकर बुनकर और लघु उद्योग चलाने वाले तक उठा रहे हैं। वे अपने सपनों को पूरा कर रहे हैं और दूसरों के लिए रोजगार के अवसर पैदा कर रहे हैं। जो इस योजना का मजाक उड़ाया करते थे, वे भी आज दबी जुबान में ही सही, इसे रोजगार सृजन का एक अभिनव प्रयोग मानते हैं। पीएम मुद्रा योजना की वजह से धरातल पर जो सकारात्मक बदलाव आया है, उसे आंकड़ों में मापना मुश्किल है। देश के कोने-कोने में चाहे वह गांव हो या शहर, मुद्रा योजना का फायदा उठाकर लोगों को तरक्की करते देखा जा सकता है।
मुद्रा योजना महिला सशक्तीकरण का भी एक प्रमुख माध्यम बनी है। महिलाएं अब उद्यमी बनने का सपना जी रही हैं। मुद्रा योजना को मातृशक्ति ने हाथोंहाथ लिया है। इससे एक तो महिलाओं में कुछ करने का जज्बा बढ़ा और दूसरे, वे आर्थिक गतिविधियों में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने में सक्षम हुईं। मुद्रा लोन में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने वाले राज्यों ने उनके नेतृत्व वाले एमएसएमई के माध्यम से काफी रोजगार सृजन हुए। मुद्रा योजना से उन्होंने अपना व्यवसाय बढ़ाया है और अन्य महिलाओं को रोजगार दिया है। यह एक बड़ा बदलाव है।
मुद्रा योजना से छोटे शहरों और गांवों तक कारोबार बढ़ा है। ‘आउटकम्स आफ मोदीनामिक्स 2014-24″’ नामक रिपोर्ट के अनुसार 2014 से हर साल कम से कम 5.14 करोड़ नए रोजगार शुरू हुए, जिसमें अकेले मुद्रा योजना ने 2014 से प्रति वर्ष औसतन 2.52 करोड़ स्थायी रोजगार जोड़े। जम्मू-कश्मीर, जो आतंकवाद और अलगाववाद से पीड़ित रहता था और जहां युवाओं को आतंकी आका गुमराह किया करते थे, वहां भी 20 लाख से अधिक मुद्रा लोन दिए गए हैं। इससे वहां के युवा भी अलगाववाद को नकारकर मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं। इस योजना से सीमांत गांव भी आबाद हो रहे हैं और पलायन भी घटा है। मुद्रा योजना का और अधिक खासतौर से गांवों-कस्बों तक प्रचार-प्रसार की दरकार है, क्योंकि इससे ग्रामीण उद्योगों को एक नई दिशा दी जा सकती है और ग्राम्य स्तर पर ही रोजगार सृजित किए जा सकते हैं। रोजगार सृजन की दूरदर्शी मुद्रा योजना न केवल क्रांतिकारी सिद्ध हो रही है, बल्कि गांव-गरीब के जीवन स्तर को भी ऊपर उठा रही है।
लूटने वाले लोगों पर लगाम लगाता नया वक्फ कानून
मुख्तार अब्बास नकवी, ( भाजपा नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री )
वक्फ संशोधन कानून के सांविधानिक समावेशी सुधार पर पाकिस्तान से लेकर ‘परिवारिस्तान’ (कांग्रेस, सपा, राजद, तृणमूल, द्रमुक आदि) तक का सांप्रदायिक वार इस बात का प्रमाण है कि ‘लश्कर-ए-लूट’ की छूट पर सर्जिकल स्ट्राइक से लूट-लोलुप लॉबी लामबंद हो गई है। वर्तमान वक्फ सिस्टम में सुधार मुसलमानों के समावेशी सशक्तीकरण की एक और पहल है। यह सुधार धार्मिक आस्था-स्थल के संरक्षण व प्रशासनिक व्यवस्था के संवर्द्धन की गारंटी है। इससे न धर्म को नुकसान है, न धार्मिक स्थल को। देश में लगातार सुधार हो रहे हैं। हर समावेशी, सांविधानिक सुधार पर सांप्रदायिक प्रहार वाले ‘साजिशी सिंडिकेट’ के सांप्रदायिक संक्रमण से हमें सावधान रहना होगा। इस दौर में हर सामाजिक, सांस्कृतिक, प्रशासनिक, आर्थिक सुधार को हिंदू-मुस्लिम का रंग देने का रिवाज बन गया है। बहकावे की राजनीति इस कदर फैली हुई है कि आसानी से मुसलमान बहकावे में आ रहे हैं। क्या यह सब सिर्फ इसलिए कि इस्लामपरस्त लोग मासूम हैं या इसके पीछे की वजह कुछ और ही है?
अक्सर देखा जाता है कि किसी भी ऐसे मुद्दे पर, जिसका आम मुस्लिम लोगों से कोई लेना-देना नहीं है, उस पर भी वे भड़का दिए जाते हैं। भले ही ये मुद्दे धार्मिक मान्यताओं पर कोई प्रहार न कर रहे हों। वक्फ संशोधन कानून मुल्क का है, किसी मजहब का नहीं। इसलिए अब वक्त आ गया है कि देश, कौम और खुद की तरक्की चाहने वाले मुस्लिम आगे आएं और लगातार फैलाए जा रहे भय-भ्रम पर रोक लगाएं। आजादी के समय से सियासी पार्टियों और उनके नेताओं द्वारा अपने राजनीतिक हितों के लिए देश के मुसलमानों को हमेशा उकसाया गया और उनमें असुरक्षा के भाव पैदा किए गए। आम तौर पर इससे किसी भी नागरिक को कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कौन क्या करता है, कैसे रहता है, लेकिन जैसे ही देशहित के मुद्दे पर बात होती है, तो चुनिंदा लोग भ्रम की राजनीति करने लगते हैं और लोगों को बहकाते हैं कि उनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।
आजादी के बाद के वर्षों में अपने राजनीतिक हितों के लिए पैदा की गई असुरक्षा ही अभी तक देश में दंगों और झगड़ों की वजह रही है। मेरा खुद का अनुभव रहा है कि आम मुसलमान वक्फ के मुतवल्लियों से ज्यादा परेशान है। मुतवल्ली संपत्तियों को वक्फ के काम, जैसे यतीमखाने, मदरसे, स्कूल, अस्पताल के लिए वक्फ की आय का इस्तेमाल न करके उसे अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए खुर्द-बुर्द कर रहे हैं, जिसके कारण आम मुसलमान को सबसे ज्यादा नुकसान है। गरीब मुसलमान इस बात की शिकायत भी करता है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती। ऐसे में, यदि वक्फ की संपत्तियों के रख-रखाव के लिए पूरी व्यवस्था में पारदर्शिता लाने के लिए सरकार ने कोई कानून बनाया है, तो उसे मुसलमानों पर हमला कैसे कहा जा सकता है? ऐसा तो वही कह सकते हैं, जिन्हें वक्फ के बुरे प्रबंधन से लाभ हो रहा है। ऐसे चंद लोग ही मुस्लिम समुदाय का शोषण कर रहे थे।
अब देश और कौम के लिए सोचने वाले मुसलमानों को यह तय करना है कि वे वक्फ को आदरणीय पैगंबर और कुरान शरीफ में दिए गए सिद्धांतों के अनुसार कौम के भले के लिए चलने वाली संस्था के रूप में देखना चाहते हैं या इसे लूट-खसोट का अड्डा बनाकर कुछ लोगों के हाथ में रहने देना चाहते हैं? यह भी देखें कि जो बड़े वक्फ बेवाओं, यतीमों और गरीबों की मदद के लिए बनाए गए, उनका जमीन पर क्या हाल है, मुतवल्लियों द्वारा कितने बेच दिए गए और पैसा किसी रसूख वाले की जेब में तो नहीं गया? क्या वजह है कि कौम की भलाई की सोच वाले मुसलमानों ने नए वक्फ बनाने छोड़ दिए? यदि वक्फ पारदर्शिता और नियम से नहीं चले, तो पसमांदा मुसलमानों के बच्चे परवरिश और पढ़ाई के लिए दर-दर भटकते रहेंगे। इसलिए सभी अच्छी सोच वाले मुसलमानों को आगे आकर बोलना चाहिए और किसी के लिए नहीं, तो कौम के गरीबों के लिए, यतीमों के लिए, बच्चों के बेहतर भवष्यि के लिए। सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास के आधार पर चल रही सरकार का इस ऐतिहासिक कदम के लिए समर्थन करना चाहिए।