16-11-2019 (Important News Clippings)

Afeias
16 Nov 2019
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Date:16-11-19

Read It Right

Fix learning poverty to tackle actual poverty

TOI Editorials

There is no denying that India has made considerable improvement in education enrolment in recent years, almost reaching the goal of universal access to schooling. But learning outcomes continue to be poor. According to the ASER (Rural) report 2018, only 50.3% of Class V children can read a Class II level text. This shows a high degree of what the World Bank defines as learning poverty – being unable to read and understand a simple age-appropriate text by age 10.

If a child cannot read age-appropriate text his or her learning curve is likely to plateau, as he or she will be unable to move on from identifying words to grasping subject concepts. Put another way, all later schooling becomes a waste. And it is generally agreed that the inflection point is Class III. Countries which have prioritised and invested in foundational learning have produced a better quality of workforce, enabling their economies to take off. Both South Korea and China did this in the 1970s, and the impact on their economies was tremendous.

Therefore, India would do well to shift the focus onto foundational learning. And getting age-appropriate reading right by Class III is a simple, quantifiable metric that can be implemented across the education landscape. As government rolls out a new National Education Policy, it would do well to code in foundational learning and oral reading fluency. Like Swachh Bharat, the government must accord the highest priority to this goal.


Date:16-11-19

वर्जनाओं का जोड़-घटाव महिलाओं के हिस्से ही क्यों ?

संपादकीय

सबरीमाला मंदिर में महिलाएं प्रवेश करें या नहीं यह फैसला अब सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों वाली बेंच करेगी। 10 से 50 साल की उम्र वाली महिलाओं के सबरीमाला मंे प्रवेश पर पाबंदी है। इसी के खिलाफ केस सुप्रीम कोर्ट में है। अभी तक सुनवाई पांच जजों की बेंच कर रही थी। मामला महिलाओं से जुड़ी वर्जनाओं का है। इसलिए सबसे पहले सवाल यही आता है कि क्या वर्जनाओं का जोड़-घटाव और सारा हिसाब-किताब सिर्फ महिलाओं के हिस्से लिखा गया है? क्या संविधान मंदिरों या फिर किसी भी धार्मिक स्थल पर प्रवेश के लिए महिलाओं को समान अधिकार नहीं देता। जब देश का संविधान महिलाओं को किसी धार्मिक अधिकार से वंचित नहीं रखता, तब किसी भी और तरीके से या कानून के आधार पर उसे रोका जाना कहां तक सही है? गुरुवार को हुई सुनवाई में कोर्ट ने सबरीमाला केस के साथ महिलाओं से जुड़े अन्य मामलों का भी जिक्र किया है, जिसमें मस्जिद, दरगाहों में महिलाओं का प्रवेश और अगियारी में किसी गैर पारसी महिला की एंट्री और बोहरा बेटियों के खतने की कुप्रथा भी शामिल है। कोर्ट का कहना है कि एक बड़ी बेंच ही इन सारे मसलों को देख पाएगी। लेकिन क्या जरूरी यह नहीं कि महिलाओं के अधिकार से जुड़े इस मसले को समाज और लोग कोर्ट-कचहरी से हटकर, बड़े दिल और खुले दिमाग के साथ समझें? बराबरी और आधुनिकता की बातें और दावे करने वाले इन कुप्रथाओं का विरोध करें। क्या कारण है कि पुरुषों पर पाबंदी का जिक्र या मसला कभी नहीं सुनने को मिलता है। उन्हें किसी अधिकार के लिए लड़ाई नहीं लड़नी पड़ती। सबरीमाला में प्रवेश की इस लड़ाई में पिछली बार कोर्ट ने महिलाओं के हित में फैसला सुनाया था। जिसके बाद समाज और लोगों से लड़कर कई महिलाओं ने सबरीमाला में घुसने की हिम्मत दिखाई थी। पिछले फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने किसी तरह की रोक नहीं लगाई है यानी अगला फैसला आने तक महिलाएं सबरीमाला जाती रहेंगी। अगले कुछ दिनों में वहां बड़े उत्सव हैं। उस दौरान महिलाएं मंदिर जाने की कोशिश करेंगी। उन्हें रोकने के भरसक प्रयास होंगे। लेकिन, इस खींचतान के बीच नुकसान होगा उस धार्मिक भावना का, जो महिलाओं को देवी कहती या मानती है, लेकिन िकसी अनिवार्य और प्रकृति पर निर्भर शारीरिक प्रक्रिया के चलते उनका मंदिर में घुसना उन्हें नागवार क्यों है ?


Date:16-11-19

मिटानी ही होगी विषमता की खाई

सरकारें, कंपनियां व गैर-लाभकारी संस्थाएं सुधार के लिए प्रतिबद्ध हो मिलकर काम करें तो यकीनन हालात सुधारे जा सकते हैं।

बिल गेट्स , (लेखक बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के को-चेयर हैं)

मेरी पत्नी मेलिंडा और मैं दुनिया भर में गरीबी के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस मुहिम में हमारा पूरा ध्यान स्वास्थ्य और शिक्षा पर है। आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए, क्योंकि किसी भी देश में गरीबी घटाने, अवसरों को बढ़ाने और समृद्धि को लाने में इन दोनों पहलुओं की सबसे अहम भूमिका होती है। दुनिया के अधिकांश हिस्सों में हमें अक्सर स्वास्थ्य और शिक्षा की दयनीय दशा के बारे में पढ़ने-सुनने को मिलता है। अब ताजातरीन आंकड़ों और उनकी पड़ताल करने के नए तौर-तरीकों की मदद से हम इस बात के बारीक विश्लेषण में भी सक्षम हो गए हैं कि गरीबी, बीमारी और अशिक्षा या अल्पशिक्षा दुनिया भर में जिला-दर-जिला और समुदाय-दर-समुदाय को कैसे प्रभावित कर रही है?

अच्छी खबर यह है कि बीते दो दशकों में गरीबी में खासी कमी आई है। यह सकारात्मक प्रभाव मानव समाज को सुकून देने वाला है। दुनिया के तमाम देशों में स्कूली शिक्षा बढ़ रही है। इसके साथ ही प्रत्येक देश में शिशु मृत्युदर भी घटी है। यहां तक कि दुनिया के सबसे गरीब से गरीब देशों में भी शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बेहद महत्वपूर्ण मोर्चों पर 99 प्रतिशत स्थानीय आबादी की स्थिति में सुधार हुआ है।

इन अच्छी खबरों के बीच कुछ बुरी खबरें भी हैं। तमाम आंकड़े इन देशों में निरंतर कायम असमानता यानी विषमता की ओर भी संकेत करते हैं। उच्चतम और निम्नतम के बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है। करीब पचास करोड़ लोग यानी प्रत्येक 15 में से एक व्यक्ति ऐसी जगह पर रहने के लिए मजबूर है, जहां शिक्षा एवं स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधा का अभाव है। हमें स्थिति में भले ही सुधार होता दिख रहा हो,लेकिन सबसे निचले पायदान पर मौजूद तबकों की प्रगति इस रफ्तार से नहीं हो रही कि वे गरिमापूर्ण जीवन जी सकें। इसका अर्थ यह है कि समग्र्र तस्वीर भले ही बेहतर दिख रही हो, लेकिन हाशिये पर मौजूद लोग अभी भी बहुत पीछे छूटे हुए हैं।

ऐसी असमानता हमें हर जगह दिखाई पड़ सकती है। मिसाल के तौर पर भारत को ही लें। भारत में शिशु एवं मातृ मृत्युदर के मामले में व्यापक सुधार के बावजूद कई राज्यों एवं जिलों के आंकड़े अब भी हमें चुनौती पेश करते नजर आते हैं। नीति आयोग का स्वास्थ्य संबंधी हालिया सूचकांक इस विषमता को दर्शाता है। इसके अनुसार केरल, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले राज्य हैं। इसकी तुलना में हम बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे जिन राज्यों में बहुत शिद्दत से काम में जुटे हैं, वहां स्थिति में उतना सुधार नहीं दिखता। इन राज्यों में आज भी बाल व मातृ मृत्युदर ऊंची और शिक्षा का स्तर लचर बना हुआ है।

महिलाओं के लिए तो यह चुनौती और भी बड़ी है। दुनियाभर में लड़कियां और महिलाएं पढ़ाई-लिखाई की तुलना में ऐसे कार्यों पर ज्यादा वक्त खर्च कर रही हैं, जिनका उन्हें कोई मेहनताना नहीं मिलता। वैश्विक कामकाजी आबादी में लैंगिक खाई तकरीबन 24 प्रतिशत है। इसमें महिलाओं की हिस्सेदारी न केवल कम है, बल्कि पक्षपातपूर्ण कानूनों एवं नीतियों, लैंगिक आधार पर होने वाली हिंसा के चलते उनके लिए सफलता की राह तलाशना और मुश्किल हो जाता है। ऐसे में समावेशी विकास और सतत आर्थिक वृद्धि के लिए आवश्यक है कि शिक्षा एवं पोषण में निवेश बढ़ाया जाए। यह उन देशों के लिए तो नितांत अपरिहार्य है, जो इस मोर्चे पर आज भी बहुत पिछड़े हुए हैं। इसका अर्थ है कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं पर ज्यादा ध्यान देना होगा।

यदि उचित नियोजन एवं पर्याप्त वित्तीय संसाधनों के साथ प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को साध लिया गया तो वे जरूरतमंद तबके के सभी लोगों तक पहुंच सकती हैं। इससे लोगों की स्वास्थ्य संबंधी 90 प्रतिशत जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। इसके साथ ही गुणवत्तापरक शिक्षा के दायरे का भी व्यापक रूप से विस्तार करना होगा। 1980 में जहां भारत में 7.4 करोड़ बच्चों ने स्कूलों में दाखिला लिया था, वहीं उनकी संख्या अब बढ़कर 13 करोड़ से अधिक भले ही हो गई हो, लेकिन हमें उस शिक्षा की गुणवत्ता भी परखनी होगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि गुणवत्ता का स्तर भी अलग-अलग है। इसकी राह में आने वाले अवरोधों को दूर करने के लिए प्रयास करने होंगे। उन सामाजिक बंदिशों को तोड़ना होगा, जो बहुत काबिल महिलाओं के लिए भी उनकी काबिलियत, कला और कौशल के उचित उपयोग में अवरोध उत्पन्न् करती हैं। यह सब असंभव नहीं है। आखिरकार दुनिया ने यह देखा है कि हमने शिशु मृत्युदर को घटाने में कैसे सफलता हासिल की और किस तरह शिक्षा के मोर्चे पर स्थिति को बेहतर बनाया जा रहा है।

दुनिया भर में नीतिगत सुधारों के दम पर लैंगिक भेदभाव घटाने में भी मदद मिली है। भारत में डिजिटल गवर्नेंस जैसे माध्यमों में निवेश की कोशिश से खासतौर से महिलाओं को अपनी तकदीर खुद लिखने का जरिया मिला है। सभी भारतीयों को बैंक खाता खुलवाने में मदद, विशेष सरकारी पहचान पत्र और वित्तीय सेवाओं के उपयोग को मोबाइल फोन से जोड़ने जैसी पहल समाज के वंचित वर्गों को भी विकास की मुख्यधारा से जोड़ने का काम कर रही हैं। इनके माध्यम से लोग जीवनोपयोगी बुनियादी ढांचे से जुड़ रहे हैं ।

इन सुधारों को यदि बेहतरीन गरीब-हितैषी डिजिटल सेवाओं और सक्षम कानूनों के साथ जोड़ दिया जाए तो करोड़ों लोगों के जीवन-स्तर में आशातीत सुधार की पर्याप्त संभावनाएं हैं। यही वजह है कि मैं स्वयं को आशावादी कहता हूं। ऐसा इसलिए नहीं कि मुझे लगता है कि दुनिया खुद-ब-खुद बेहतर होती जाएगी। मेलिंडा और मैं कल्पनाजीवी नहीं हैं। असल में हम इस वजह से आशावादी हैं, क्योंकि हमने देखा है कि जब सरकारें, कंपनियां और गैर-लाभकारी संस्थाएं सुधार के लिए प्रतिबद्ध होकर और साथ मिलकर काम करती हैं तो यकीनन हालात सुधरते हैं और लोगों का जीवन-स्तर बेहतर होता है।

आज ऐसी तमाम वजहें मौजूद हैं, जिनसे आशावादी हुआ जा सकता है। वैश्विक रुझान प्रगति के लिए अवसरों की तस्वीर दिखाते हैं। अब यह भारत सहित पूरे विश्व पर निर्भर करता है कि हम कैसे सबके लिए इसे संभव बनाएं, ताकि दुनिया के हर कोने में हर किसी को इस अवसर का लाभ मिल सके।


Date:15-11-19

दुनिया का अगला शक्ति केंद्र बनेगा भारत ?

वैश्विक शक्ति के नए केंद्र के रूप में उभरने के लिए भारत को अपनी क्षमताओं और संसाधनों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करना होगा। इसी से वह चीन के बरक्स खड़ा हो सकता है।

श्याम सरन , (लेखक पूर्व विदेश सचिव एवं सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो हैं)

इतिहासकार विलियम मैकनील ने शक्ति के चरित्र और निष्पक्षता एवं नैतिकता के साथ उसके संबंधों की व्याख्या कुछ इस तरह की है: ‘इसकी संभावना बेहद कम दिखती है कि ताकत को संगठित करने और अमल में लाने के लिए मानव क्षमताओं का हालिया एवं संभावित विस्तार इसके उपयोग को लेकर हिचक का स्थायी भाव रखेगा। संक्षेप में, शक्ति खुद को सशक्त बनाने के लिए शक्ति के कमजोर केंद्र बनाती है या शक्ति के विरोधी केंद्रों को प्रोत्साहित करती है। मानवजाति के संपूर्ण इतिहास में यही तथ्य प्रभावी रहा है।’

यह अंतरराष्ट्रीय संबंधों के यथार्थवादी मत को परिलक्षित करता है जिसमें कोई भी नैतिक आश्रय नगण्य है लेकिन यह मौजूदा भू-राजनीतिक वास्तविकता को बखूबी दर्शाता है। एक अग्रणी ताकत बनने की आकांक्षा रखने वाला भारत भी मौजूदा एवं संभावित शक्ति पर अपना दांव लगा रहा है। यह खुद से अधिक ताकतवर निकाय द्वारा ‘निगल’ लिए जाने की संभावना को नकारता है। लेकिन क्या उसे शक्ति के प्रतिद्वंद्वी केंद्र के तौर पर उभरने के लिए प्रेरित किया जाएगा?

मैकनील ने यह भी बताया है कि एक स्थापित निकाय से एक आकांक्षी निकाय को ताकत का हस्तांतरण किस तरह हो सकता है? वह कहते हैं, ‘कोई भी जनसंख्या धरती पर कहीं भी मौजूद सबसे कारगर एवं ताकतवर साधनों का उपयोग किए बगैर बाकी दुनिया को पीछे नहीं छोड़ सकती है। परिभाषा के मुताबिक ऐसे साधन धन एवं शक्ति के वैश्विक केंद्रों में ही स्थित होते हैं, वे कहीं भी हो सकते हैं। इस तरह वैश्विक नेतृत्व में किसी भी भौगोलिक विस्थापन की प्रस्तावना उच्चतम प्रबल कौशल के पूर्ववर्ती स्थापित केंद्रों से सफलतापूर्वक उधार ली जानी चाहिए।’

इतिहास में इस अवधारणा के कई उदाहरण मौजूद हैं। रोमन साम्राज्य ने शीर्ष तक के अपने सफर में ग्रीक सभ्यता से काफी कुछ उधार लिया था। इसी तरह अरबों ने भी अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए मध्य एशियाई और फारसी समुदायों के उन्नत ज्ञान-विज्ञान का बखूबी इस्तेमाल किया। फारसी समुदाय ने भी गणित, खगोलशास्त्र और चिकित्सा विज्ञान में भारतीय एवं चीनी लोगों से काफी कुछ सीखा था। हाल के दौर में हम अमेरिकी लोगों को एक सशक्त एवं उन्नत अर्थव्यवस्था का निर्माण करते हुए देखते हैं जिन्होंने ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशों में औद्योगिक क्रांति के दौरान विकसित तकनीकों एवं कौशल को अपनाते हुए ऐसा किया। मीजी काल के जापान ने भी यही प्रक्रिया अपनाई थी। लेकिन इसका सबसे नया और जबरदस्त उदाहरण चीन है जो एक महान शक्ति के रूप में उभरकर सामने आया है। सुधारों एवं खुलेपन के चार दशकों में चीन ने उन्नत पश्चिमी ज्ञान एवं तकनीकों को किसी विशाल स्पंज की तरह सोख लिया है। इस दौरान चीन विनम्र रहने के साथ सीखने और उद्यम के भी लिए तैयार रहा है। यही तंग श्याओ फिंग के मशहूर कथन ‘अपनी क्षमताएं छिपाकर रखो और अपने लिए वक्त हासिल करो’ का सही मतलब भी था। ‘भीख मांगो, उधार मांगो और चोरी करो’ की इस रणनीति का मिलाजुला नतीजा यह हुआ है कि चीन एक विश्वसनीय आर्थिक एवं तकनीकी शक्ति के तौर पर उभरकर सामने आया है। मैकनील के शब्दों में, अटलांटिक-पार से प्रशांत-पार की तरफ शक्ति का भौगोलिक विस्थापन जारी है और इसके केंद्र में चीन है जो प्रतिस्पद्र्धी केंद्र है।

शक्ति के इस विस्थापन को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से भी समझा जा सकता है। यह ऐसे प्रक्षेपण-पथ में घटित होता है जो अतिव्याप्त हो रहे तीन चरणों से परिभाषित किया जाता है। पहले चरण में देश शक्ति के अग्रणी केंद्रों से ज्ञान एवं उन्नत तकनीकें उधार लेते हैं और उन्हें अपना लेते हैं। उसके बाद समावेशन का दौर होता है जब उधार की तकनीकों एवं ज्ञान में वे महारत हासिल कर उन्हें अपना बना लेते हैं। तीसरे एवं अंतिम चरण में शक्ति का उभरता केंद्र अधिक स्वायत्त ढंग से नए तरह के ज्ञान एवं तकनीकों को जन्म देने लायक हो जाता है। उस समय शक्ति का भौगोलिक विस्थापन वास्तविक आकार लेने लगता है और एक स्थापित केंद्र या केंद्रों और उदीयमान प्रतिद्वंद्वी के बीच प्रतिस्पद्र्धा काफी मुखर होती है।

सवाल है कि चीन इस समय किस दौर से गुजर रहा है? वह शायद दूसरे दौर से तीसरे दौर की तरफ बढ़ रहा है। इसके उलट भारत अभी पहले चरण से दूसरे चरण की तरफ ही जा रहा है। चीन पहले से ही कृत्रिम मेधा, रोबोटिक्स और क्वांटम कंप्यूटिंग जैसी उच्च तकनीकों में अमेरिका से मुकाबला कर रहा है। वहीं भारत इस दौड़ में अभी बहुत मायने नहीं रखता है। यह सच है कि भारत के पास भी अंतरिक्ष कार्यक्रम जैसे विशेषज्ञता वाले कुछ क्षेत्र हैं जिससे गर्व पैदा होना सही भी है। लेकिन उत्कृष्टता के इन केंद्रों को अभी उत्कृष्टता के महाद्वीप बनना होगा, अन्यथा वे अपने आसपास के मध्यम दर्जे के सागर में ही डूब सकते हैं।

अगर चीन के अनुभव से हमें कोई सबक सीखना है तो वह यही है कि उच्च तकनीकों एवं ज्ञान को हरसंभव जगह से आत्मसात करने के साथ ही विनम्र एवं शालीन बने रहें। खास तौर पर ऐसे युग में जब वृद्धि का प्रमुख चालक तकनीक ही है और भविष्य के सफल समाज ज्ञानपरक समाज ही होंगे।

भू-राजनीतिक कारक शक्ति के ऐसे प्रतिद्वंद्वी केंद्र के रूप में भारत के उभार का समर्थन करते हैं जो बड़ी शक्तियों के साथ प्रतिस्पद्र्धा, सह-अस्तित्व एवं सामंजस्य कायम रख सकता है। धन-दौलत और ताकत के स्थापित केंद्र अब भी अमेरिका, यूरोप और जापान ही हैं, लेकिन उनकी महत्ता थोड़ी कम हुई है। चीन के उदय को वे अपनी पुरानी महत्ता के लिए खतरा पैदा होने के तौर पर देखते हैं। स्थापित शक्तियों की नजर में भारत का भू-राजनीतिक मूल्य ऐसे अकेले देश के रूप में है जो एक भरोसेमंद ताकत बनने के लिए जरूरी क्षमताएं और संसाधन रखता है जिससे वह उभरते वैश्विक व्यवस्था में चीन को दबदबे वाली भूमिका निभाने से रोक सके। भारत का अपनी असीम संभावनाओं को पूरा करना इन शक्तियों के हित में भी है। विवेकपूर्ण उपयोग से भारत को पूंजी और प्रौद्योगिकी का बड़ा आधार बनाया जा सकता है जिससे वह वृद्धि की तीव्र रफ्तार कायम रख सकता है। एक जीवंत एवं बहुलवादी लोकतंत्र के रूप में भारत अपने अधिक ताकतवर साझेदारों के साथ राजनीतिक मूल्य भी साझा करता है और यह एक लाभ की स्थिति है।

भारत के लोगों की सर्वव्यापी मनोदशा एवं गहरी विविधता से निपटने की उनकी क्षमता एक वैश्वीकृत हो रहे विश्व से निपटने के लिए सभ्यता के बेमिसाल साधन हैं। लेकिन इन साधनों का फायदा उठाने के लिए कहीं अधिक विनम्रता एवं सब-कुछ जानने के बजाय सीखने की ललक जरूरी होगी। अतीत के सुनहरे स्तंभों का बार-बार जिक्र करने से मस्तिष्क एक विलक्षण भविष्य के लिए नहीं तैयार होता है।

हम अपने इतिहास के ऐसे दुर्लभ दौर में हैं जब सत्तारूढ़ राजनीतिक व्यवस्था के पास अभूतपूर्व राजनीतिक पूंजी है और एक करिश्माई एवं महत्त्वाकांक्षी नेता उसकी अगुआई करता है। हालांकि ये संसाधन जल्दी नष्ट होने वाले भी हैं लिहाजा मुश्किल चयन के लिए उन्हें संभालना होगा। ये चयन ही एक महान शक्ति की हैसियत हासिल करने का हमारा रास्ता निर्धारित करेगा। जैसा कि लोगों के साथ होता है, राष्ट्रों के समक्ष उत्पन्न होने वाले अवसरों की भी संक्षिप्त जीवन अवधि होती है। वे उस समय तक हमारा इंतजार नहीं करते रहेंगे जब हम खुद को उसके लिए तैयार समझें। दुनिया आगे बढ़ रही है और भारत को या तो इस प्रगति वलय से आगे रहना होगा या फिर सीमित विकल्पों वाले भविष्य से ही संतोष करना होगा।


Date:15-11-19

Open, all the same

With the CJI under the RTI Act, there will be greater transparency by public authorities

EDITORIAL

The adage, “sunlight is the best disinfectant” is often used to delineate the need for disclosure of matters related to public interest through the Right to Information mechanism. The declaration of assets by ministers and legislators, besides electoral candidates, has gone a long way in shedding light on public authorities and provided the citizenry more relevant information about their representatives. Yet, judges of the Supreme Court had hitherto refused to share information on their personal assets, citing the express lack of public interest. The welcome ruling by a five-member Constitution Bench of the Supreme Court that the office of the Chief Justice of India is a “public authority” under the RTI Act, as much as the apex court itself, now enables the disclosure of information such as the judges’ personal assets. The judgment’s majority opinion, written by Justice Sanjiv Khanna, emphasised the need for transparency and accountability and that “disclosure is a facet of public interest”. In concurring opinions, Justice D.Y. Chandrachud asserted that judicial independence was not secured by secrecy while Justice N.V. Ramana argued for the need of a proper calibration of transparency in light of the importance of judicial independence. The Bench unanimously argued that the right to know under the RTI Act was not absolute and this had to be balanced with the right of privacy of judges. But the key takeaway from the judgment is that disclosure of details of serving judges’ personal assets was not a violation of their right to privacy.

The main opinion also argued that information related to issues such as judicial appointments will also be subject to the test of public interest and procedures mandated in the RTI Act that specify that views of third parties (in this case, judges) must be sought. While laying out the importance of the assessment of public interest in any RTI query besides bringing the office of the CJI under the purview of the Act, the decision has gone on to uphold the Delhi High Court verdict in 2010. The RTI Act is a strong weapon that enhances accountability, citizen activism and, consequently, participative democracy, even if its implementation has come under strain in recent years due mainly to the Central government’s apathy and disregard for the nuts and bolts of the Act. Yet, despite this, the Supreme Court judgment paves the way for greater transparency and could now impinge upon issues such as disclosure, under the RTI Act, by other institutions such as registered political parties. This is vital as political party financing is a murky area today, marked by opacity and exacerbated by the issue of electoral bonds, precluding citizens from being fully informed on sources of party incomes.