16-04-2022 (Important News Clippings)
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भारत जैसे बड़े देश में एक टाइम-जोन की तुक नहीं
शशि थरूर, ( पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद )
मेरे सहयोगी और असम के नागांव से कांग्रेस सांसद प्रद्युत बोर्डोलोई ने हाल ही में लोकसभा में पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए भिन्न टाइम-जोन की मांग की। उनका तर्क अकाट्य था। उन्होंने कहा, पूर्वोत्तर में सूर्य शेष भारत से पहले उगता है, इसके परिणामस्वरूप वहां के लोग राजस्थान या गुजरात के लोगों की तुलना में पहले जाग जाते हैं। जब तक भारतीय मानक समय के अनुसार काम के घंटे शुरू होते हैं, तब तक असम में पहले ही दिन के कई घंटे बीत चुके होते हैं। अध्ययन बताते हैं कि व्यक्ति सुबह जागने के बाद पहले छह घंटों में सर्वाधिक प्रोडक्टिव होता है। लेकिन इंडियन स्टैंडर्ड टाइम के अनुसार काम के घंटे शुरू नहीं होने के कारण पूर्वोत्तर का बहुत उत्पादक-समय जाया हो जाता है।
वर्ष 1974 में एक टीनएजर-छात्र के रूप में मैंने एक बार की गर्मियां जोरहट के निकट अपने एक सहपाठी के चाय-बागान पर बिताई थीं। वहां मुझे अपनी घड़ी को टी-टाइम पर रीसेट करना पड़ा था। यह समय बागान में काम करने वालों ने मेरी घड़ी में दो घंटा जोड़कर तय किया था। मेरे दोस्त के पिता का कहना था कि जहां सुबह 4 बजे सूर्य उग जाता हो और अपराह्न 3.30 बजे ढल जाता हो, वहां दिल्ली वाला समय कैसे काम कर सकता है? मेरे राष्ट्रवादी विचार तब तक इतने परिपक्व हो चुके थे कि मैं इससे आहत नहीं हुआ। मैंने नहीं सोचा कि आईएसटी से भिन्न टाइम-जोन की मांग करना भारतीयता का उल्लंघन होगा।
इसके कुछ समय बाद जब मैं ग्रैजुएशन की पढ़ाई के लिए अमेरिका गया तो मैंने पाया कि वहां के लोग चार भिन्न टाइम-जोन को लेकर सहज हैं, जबकि अलास्का और हवाई के टाइम-जोन तो अमेरिकन मेनलैंड से भी भिन्न थे। अमेरिका में वो लोग गर्मियों के दौरान डे-लाइट-सेविंग्स-टाइम का उपयोग करते हैं, जिसमें सभी अपनी घड़ियों को एक घंटा आगे सेट कर लेते हैं, ताकि स्प्रिंगटाइम के दौरान लम्बे दिनों का लाभ ले सकें। पतझड़ (अमेरिका में इस ऋतु को फॉल कहा जाता है) के दिनों में वे इन्हें फिर से पूर्ववत कर लेते हैं। इसे वहां पर ‘स्प्रिंग फॉरवर्ड, फॉल बैक’ कहा जाता है।
शुरू में मुझे लगा कि एक पूरा देश इसका अभ्यस्त कैसे हो सकता है, क्योंकि मैं तो यही सोचते हुए बड़ा हुआ था कि नेशनल क्लॉक में बदलाव नहीं किया जा सकता। लेकिन धीरे-धीरे मुझे हर बार गर्मियों और पतझड़ में और घरेलू उड़ानों के बाद घड़ी का समय बदलने की आदत हो गई। मैंने पाया कि ऐसा केवल अमेरिका में नहीं था। पूरी दुनिया में ही समय का निर्धारण लोगों की सुविधा को ध्यान में रखकर किया जाता है। कोई भी पहले से निर्धारित समय का पालन करने के लिए बाध्य नहीं होता। जिन जगहों पर सूर्य पहले उगता है और गर्मियों के दौरान देरी से अस्त होता है, वहां समय बदलने से आप दिन की रोशनी का ज्यादा उपयोग कर सकते हैं। इससे ऊर्जा की खपत भी कम होती है, क्योंकि तब कामकाजी समय के दौरान बत्तियां जलाने की नौबत नहीं आती है।
जब मैं जेनेवा में संयुक्त राष्ट्र के लिए काम कर रहा था, तब स्विट्जरलैंड में एक बहस छिड़ गई थी। दूध और पनीर का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाले इस देश के प्रभावशाली किसान समुदाय ने यह कहते हुए अपनी घड़ियों का समय बदलने से इनकार कर दिया था कि अगर साल के पांच महीने उनकी गायों को सामान्य से एक घंटा पहले दुहा जाएगा तो वे इससे भ्रम में पड़ेंगी। अंतत: सरकार को डेयरी फार्मर्स की इस जिद को दरकिनार करना पड़ा और स्विस लोगों ने भी हर साल गर्मियों में डे-टाइम-सेविंग्स-टाइम की प्रणाली को अपनाया।
ऐसा भारत में क्यों नहीं किया जा सकता? हमारा टाइम-जोन तो जैसलमेर से जोरहट तक फैला हुआ है, जबकि नियम यह है कि देशांतर में हर 15 डिग्री के बदलाव पर नया टाइम-जोन होता है। भारत तो 30 डिग्री देशांतर में व्याप्त है। आखिर इसमें क्या तुक है कि लक्षद्वीप के लोग लखनऊ के टाइम पर जागें या असम और अंडमान के लोग आगरा के हिसाब से घड़ी मिलाएं? इसका जीवनशैली से जुड़ी आदतों और ऊर्जा संरक्षण पर नकारात्मक असर पड़ता है। जब पूरे देश के लिए एक टाइम-जोन तय किया गया था तब हमें नई-नई आजादी मिली थी और हम राष्ट्रीय एकता के लिए सतर्क थे। लेकिन आज ऐसी कोई बात नहीं है और हमें अपनी एकता दिखाने के लिए क्रोनोमेट्रिकल एकरूपता की जरूरत नहीं है। वास्तव में इंडियन फिजिकल लेबोरेटरी के द्वारा पहले ही यह सुझाव दिया जा चुका है कि भारत में अनेक टाइम जोन होने चाहिए।
संकटग्रस्त पड़ोसी देशों का सहारा बना भारत
श्रीराम चौलिया, ( लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं )
क्या यह महज एक दुर्योग ही है कि पाकिस्तान, श्रीलंका, अफगानिस्तान और म्यांमार फिलहाल राजनीतिक एवं आर्थिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे हैं? अगर हम पिछले कुछ वर्षो का जायजा लें तो मालदीव और नेपाल भी कई बार राजनीतिक और आर्थिक अनिश्चितता के शिकार रहे हैं। भारत के इन सभी पड़ोसी देशों को नाजुक देश कहना ज्यादा उचित होगा। अमेरिकी विचार मंच ‘फंड फार पीस’ द्वारा संकलित कमजोर देशों की क्रमसूची के अनुसार 179 देशों में अफगानिस्तान नौवें, म्यांमार 23वें, पाकिस्तान 29वें, नेपाल 51वें और श्रीलंका 55वें स्थान पर हैं। भारत इन सभी देशों के मुकाबले 66वें नंबर पर आता है यानी कि अधिकांश पड़ोसियों की तुलना में हमारा देश स्थिर और व्यवस्थित है। यह निर्विवाद तथ्य है कि भारत अस्थिर और संकटग्रस्त देशों के रेगिस्तान के बीच एक नखलिस्तान यानी मरुउद्यान जैसा है।
जरा स्वतंत्रता के बाद भारत और पाकिस्तान के हालात का जायजा लें। खासकर इस प्रश्न पर कि भारत क्यों एक स्थिर लोकतंत्र और बेहतर शासित देश बना, जबकि पाकिस्तान सैन्य तानाशाही और सामाजिक एवं आर्थिक अस्थिरता के दुष्चक्र मे फंसा रहा? दरअसल भारत के विभाजन की मांग और एक नए राष्ट्र पाकिस्तान को केवल इस्लाम के आधार पर खड़ा करना बुनियादी भूल थी। पाकिस्तान में राष्ट्र निर्माण नहीं हो सका, क्योंकि उसका अस्तित्व ही कृत्रिम और अस्वाभाविक था। 1971 में बंगालियों के संहार और बांग्लादेश की मुक्ति ने सिद्ध किया कि पाकिस्तान मूलत: अलाभकारी सृजन था। यदि कोई राज्य मौलिक रूप से नाजायज है तो वह खुद को एकजुट रखने में असमर्थ होगा। ऐसे देश में कानून-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए निरंकुश प्रवृत्तियों और शक्तियों की जरूरत पड़ने लगती है। पाकिस्तानी फौज यही जताती रही है कि उसके वर्चस्व के बगैर मुल्क टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। पाकिस्तानी फौज ने शुरुआत से ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राज किया है।
म्यांमार में भी सेना ने अपने आपको राजनीति में सर्वोच्च अधिष्ठान बना लिया। वहां की फौज का दावा है कि म्यांमार में सामाजिक विविधता और जातीय अलगाववाद की समस्याओं को कड़ाई से ही निपटाया जा सकता है। दरअसल सैन्य शासन हमेशा ही राष्ट्रों को बर्बाद करता है और उनकी रगों में विष घोलता है। पाकिस्तान की आज जो दुर्दशा है, उसका जिम्मेदार वहां का फौजी अधिष्ठान ही है। वहां इमरान खान समेत पिछले 22 प्रधानमंत्रियों में से किसी एक ने भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अब तक 22 बार कर्ज देकर पाकिस्तान को वित्तीय संकट से बचाया है।
अस्थिर देशों में संकट सर्वव्यापक होते हैं। इनमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और संवैधानिक तत्व शामिल रहते हैं। जब भी ऐसे देशों में सत्ताधारी खतरे में पड़ते हैं, तब वे संविधान के साथ खिलवाड़ करने से भी परहेज नहीं करते, क्योंकि वहां लोकतांत्रिक संस्थानों को पवित्र नहीं माना जाता। श्रीलंका में राजपक्षे परिवार ने प्रचंड संसदीय बहुमत का दुरुपयोग करके 2020 में विवादित संवैधानिक संशोधन करा दिए, जिससे राष्ट्रपति राजपक्षे को इतनी अधिक शक्तियां हासिल हो गईं कि वहां लोकतांत्रिक ‘नियंत्रण और संतुलन’ तार-तार हो गया। निरंकुश राजपक्षे परिवार ने आर्थिक कुशासन और तुगलकी नीतियों से एक अपेक्षाकृत समृद्ध देश के साथ इतना बड़ा धोखा किया कि खाद्यान्न, ईंधन और बिजली की किल्लत ने आज पूरे श्रीलंका को अस्तव्यस्त कर दिया है।
श्रीलंका, पाकिस्तान, म्यांमार और अफगानिस्तान की वर्तमान दयनीय स्थिति न सिर्फ उनके उच्च वर्ग और नेताओं की नाकामी के कारण है, बल्कि बाहरी ताकतों के कुचक्र का भी नतीजा है। जो राज्य नाजुक होते हैं, वे बुरी नजर वाली बड़ी शक्तियों की कठपुतली बनने की दृष्टि से जोखिम की स्थिति में होते हैं। अस्थिर देशों की आंतरिक वैधता क्षीण होती है। ऐसे में उनके शासकों को बाहर की बड़ी ताकतों के सामने हाथ फैलाने पड़ते हैं। इस प्रकार वे अपने देश की संप्रभुता को गिरवी रख देते हैं। श्रीलंका और पाकिस्तान, दोनों देश चीन के मोहताज रहे हैं।
कर्ज के बोझ तले इन देशों को चीन ने उपनिवेश समझकर शोषण किया और उनकी बदौलत दक्षिण एशिया में भारत के विरुद्ध मोर्चा खड़ा करने की योजना बनाई। चीन ने इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर इन देशों में कर्ज का जाल बिछाया, लेकिन आज जब ये देश वित्तीय संकट में हैं, तब उनकी मदद करने के उत्तरदायित्व से उसने चालाकी से हाथ पीछे खींच लिए। तालिबान शासित अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था पूर्णत: ध्वस्त हो चुकी है। उसे कथित ‘मित्र देश’ चीन की तरफ से कोई ठोस वित्तीय सहायता नहीं मिली, ताकि उसका गुजारा चल सके। चीन के ये सभी ‘घनिष्ठ मित्र’ अंतत: अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दरवाजे पर दुहाई दे रहे हैं। एक और विडंबना देखिए कि जिन्होंने भारत की निष्कपट मदद ठुकराकर चीन का साथ दिया था, आज वे भारत के संकटमोचक अवतार की जय-जयकार करने को मजबूर हैं। नेपाल और मालदीव को भी चीन पर निर्भरता महंगी पड़ी। हालांकि इन देशों की आम जनता ने संघर्ष करके चीन के पिछलग्गू नेताओं को बीते कुछ समय में हटा दिया, लेकिन अगर तिकड़मबाजी से नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन सत्ता में बने रहते तो आज इन देशों की स्थिति श्रीलंका और पाकिस्तान से भी बदतर होती। मौजूदा संकट को देखते हुए दक्षिण और दक्षिणपूर्व एशिया में लड़खड़ाते हुए अस्थिर देशों को यह एक बड़ी सीख लेनी चाहिए कि चीन जैसे ‘उपकारी’ का हाथ थामने से सत्यानाश सुनिश्चित है। अब जब वे संकट में घिरे हैं, तब उन्हें आभास हो जाना चाहिए कि भारत एक सच्चा साथी है, जो बिना भेदभाव के उदार मन से उनकी यथासंभव मदद करने को तत्पर है।
संकट अस्थिर राष्ट्रों को नए सिरे से खुद को संभालने के खास मौके भी प्रदान करता है। इस कठिन कार्य में भारत के आदर्श पथ का अध्ययन और भारत की सामाजिक एकता और मजबूत व्यवस्थाओं का अनुसरण इन देशों के लिए लाभदायी होगा। अस्थिर पड़ोसी देशों के लोकतांत्रिक सशक्तीकरण के लिए भारत तैयार भी है।
Date:16-04-22
संकटग्रस्त दुनिया में भारत
टी. एन. नाइनन
भारतीय अर्थव्यवस्था कितनी भी संकटग्रस्त हो लेकिन वह किसी भी अन्य अर्थव्यवस्था से बेहतर नजर आ रही है। कीमतों से शुरुआत करते हैं। अमेरिका में उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति 8.5 फीसदी पर है जो 40 वर्षों का उच्चतम स्तर है। यूरो क्षेत्र की बात करें तो वहां यह 7.5 फीसदी है। ये वो अर्थव्यवस्थाएं हैं जहां औसत मुद्रास्फीति दो फीसदी से कम रहा करती थीं। भारत में हम बढ़ती पेट्रोल और डीजल कीमतों को लेकर शोक मना सकते हैं और खानेपीने की कुछ चीजों की महंगाई को लेकर भी। उदाहरण के लिए नीबू की कीमतें कुछ थोक बाजारों में 300 से 350 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गई हैं। स्वाभाविक बात है कि रिजर्व बैंक की आलोचना बढ़ी है कि उसने शुरुआत में ही मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने पर जोर नहीं दिया और अब वह तय दायरे से बाहर हो चुकी है। इसके बावजूद भारत में उपभोक्ता मूल्य महंगाई 7 फीसदी से कम ही है। यदि ब्रिक्स देशों से तुलना की जाए तो ब्राजील में यह 11.3 फीसदी और रूस में 16.7 फीसदी है। केवल चीन ने ही मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखा है और वहां यह महज 1.5 फीसदी है (सभी आंकड़े द इकनॉमिस्ट द्वारा जुटाए गए हैं)।
आर्थिक वृद्धि की तुलना की जाए तो तस्वीर और भी बेहतर नजर आती है। 2022 के अनुमानों की बात करें तो भारत 7.2 फीसदी के साथ शीर्ष पर है। बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में 5.5 फीसदी के साथ चीन ही थोड़ा करीब नजर आता है जबकि अमेरिका और यूरो क्षेत्र स्वाभाविक तौर पर क्रमश: 3 और 3.3 फीसदी के साथ काफी पीछे हैं। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में धीमी वृद्धि की प्रवृत्ति होती है। ब्राजील में ठहराव है और रूस सकल घरेलू उत्पाद में 10.1 फीसदी की गिरावट के अनुमान के साथ गहरे संकट की ओर बढ़ रहा है। जापान में मुद्रास्फीति कम है और वहां वृद्धि में धीमी गति से इजाफा हो रहा है।
भारत के लिए तुलनात्मक अच्छी खबर यहीं नहीं खत्म होती। आरबीआई को चुनौती दे रही मुद्रास्फीति से निपटना आसान हो सकता है क्योंकि भारत में आवश्यक किफायत की आवश्यकता विकसित देशों की तुलना में कम है। तस्वीर के दो अन्य सकारात्मक तत्त्व हैं कर संग्रह (हाल के वर्षों का उच्चतम कर-जीडीपी अनुपात हासिल करना) और निर्यात के मोर्चे पर असाधारण प्रदर्शन करना। देश का विश्वास मजबूत है। रुपया सर्वाधिक मजबूत मुद्राओं में से एक है। बीते 12 महीनों में डॉलर की तुलना में उसमें केवल 1.4 फीसदी गिरावट आई है। युआन के अलावा डॉलर के अलावा जो मुद्राएं मजबूत हुईं वे हैं ब्राजील, इंडोनेशिया और मैक्सिको की मुद्राएं। ये तीनों देश डॉलर निर्यातक हैं। परंतु विपरीत हालात के समक्ष अच्छी खबर भला कितने दिन टिकेगी? तेल कीमतें ऊंची बनी रहती हैं तो रुपया गिर सकता है। इससे भी अहम बात यह है कि अमेरिका के लिए अनुमानित तीन फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर भी आशावादी साबित हो सकती है। ब्याज प्रतिफल कर्व को देखते हुए बाजार पर्यवेक्षकों का कहना है कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ रही है। अहम सवाल यह है कि अमेरिकी मौद्रिक प्राधिकार ब्याज दरों में इजाफे की मदद से बिना मंदी को आने दिए मुद्रास्फीति पर नियंत्रण कर सकता है क्योंकि यदि मंदी आई तो सभी अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित होंगी। यदि वैश्विक व्यापार धीमा हुआ तो भारत का निर्यात भी गति खो देगा।
उसके बगैर भी तुलनात्मक आंकड़े भारत के लिए कोई खास अच्छी खबर भले न लाएं, दुनिया के लिए बुरी खबर लाते हैं। एक तिमाही पहले की तुलना में भारत की वृद्धि के सभी अनुमान कम हुए हैं जबकि मुद्रास्फीति के हालात लगातार बिगड़े हैं। मासिक उत्पादन के आंकड़े कमजोर रहे जबकि सर्वे बताते हैं कि कारोबारी मिजाज में गिरावट आई है। निश्चित रूप से आरबीआई का अनुमान है कि 2022-23 की दूसरी छमाही में वृद्धि दर 4.1 फीसदी से अधिक नहीं रहेगी। उसके बाद तेजी आ सकती है।
सरकार इस परिदृश्य में सुधार के लिए कुछ खास नहीं कर सकती क्योंकि उसकी वित्तीय स्थिति खुद तंग है। महामारी के कारण बार-बार उथलपुथल मची और उसके बाद यूक्रेन युद्ध ने दबाव डाला। चीन ने कोविड को लेकर बहुत कड़ाई बरती और उसे अब अपना सबसे बड़ा शहर शांघाई बंद करना पड़ा है। यह सोचना गलत है कि इस बात का उसकी अर्थव्यवस्था तथा शेष विश्व पर असर नहीं होगा। इस बीच दुनिया के अन्य हिस्सों में भी कोविड लहर फैलती दिख रही है जबकि यूक्रेन युद्ध लंबा खिंच रहा है तथा उसमें और तेजी आ सकती है। ऐसे में यह अच्छी बात है कि भारत के आंकड़े अपेक्षाकृत बेहतर हैं लेकिन बहुत उत्साहित होने की बात नहीं है। दुनिया अभी भी संकटों से जूझ रही है।
Date:16-04-22
अमेरिका को आईना
संपादकीय
मानवाधिकारों के उल्लंघन के मुद्दे पर अमेरिका को उसी की भाषा में दो टूक जवाब देते हुए भारत ने यह कड़ा संदेश दे दिया है कि इस तरह की बातों से वह डराने-धमकाने की कोशिश न करे। भारत ने साफ कह दिया कि वह भी अमेरिका में हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाओं पर वैसे ही नजर रख रहा है जैसे अमेरिका दूसरे देशों पर रखता है और इस मुद्दे को वह वक्त आने पर उठाने से चूकेगा नहीं। ऐसा संभवत: पहली बार हुआ है जब मानवाधिकारों के मुद्दे पर भारत ने अमेरिका को इतने कठोर शब्दों में चेताया है। गौरतलब है कि हाल में विदेश और रक्षा मंत्रियों के दोहरे प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री ने भारत में मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा उठाया था। साझा संवाददाता सम्मेलन में अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने कहा कि भारत में सरकार और पुलिस जिस तरह से नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन कर रही है, उस पर अमेरिका की नजर है। हालांकि अमेरिका ने ऐसा कोई पहली बार नहीं किया। मानवाधिकारों के नाम पर वह दुनिया के दूसरे देशों को धमकाता रहता है और अपने हितों के लिए उन पर दबाव बनाने के लिए इस मुद्दे को हथियार की तरह इस्तेमाल करता रहता है।
आखिर अमेरिका ने भारत के समक्ष मानवाधिकारों का मुद्दा अभी ही क्यों उठाया? जबकि दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रियों के बीच वार्ता संबंधों को और मजबूत बनाने के मकसद से की गई थी। हालांकि दोहरे प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता पहले से चल रही है और वार्ता का यह दौर भी उसी कड़ी में था। लेकिन इस वक्त वैश्विक हालात तनाव भरे हैं। रूस को घेरने के लिए वह जिस तरह की कूटनीति में लगा है, उसे देखते हुए तो यही लगता है कि वह इस तरह की धमकियां देकर भारत को अपने खेमे में लाने के लिए दबाव बना रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध के मसले पर भारत की तटस्थता की नीति से अमेरिका नाराज है। भारत को अपने साथ खड़ा करने के उसके अब तक के सारे कूटनीतिक प्रयास असफल रहे हैं। इसलिए अब उसे लग रहा है कि वह मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में भारत को बदनाम करे। यह जगजाहिर है कि भारत ही नहीं, चीन, म्यांमा सहित दूसरे देशों के खिलाफ भी वह ऐसे मुद्दों को इस्तेमाल करता रहता है।
सवाल यह है कि मानवाधिकारों का झंडा उठाए रहने वाले खुद अमेरिका में मानवाधिकारों की हालत कैसी है? क्या अमेरिका में मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं हो रहा? अगर निष्पक्षता से देखा जाए तो मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में अमेरिका दुनिया के कई देशों के मुकाबले ज्यादा दागदार निकलेगा। अमेरिका में रह रहे अश्वेत समुदाय को आज भी वहां श्वेत समुदाय पहले जैसी नफरत से ही देखता है। आखिर क्यों पुलिस अश्वेत नागरिकों की सरेआम हत्या कर देती है? हाल में मिशिगन में पुलिस ने फिर एक अश्वेत को जमीन पर पटक कर उसके सिर में गोली मार दी। अश्वेत समुदाय के प्रति घृणा और हिंसा को लेकर अमेरिका में होते रहे विरोध प्रदर्शन इस तथ्य की तस्दीक करने के लिए काफी हैं कि वहां मानवाधिकारों की असलियत क्या है। सत्ता में कुछ शीर्ष पदों पर अश्वेतों को बैठा कर अमेरिका अपने कृत्यों से बच नहीं सकता। अमेरिका की जेलों के खौफनाक किस्से सामने आते ही रहे हैं। ग्वांतानामो जेल में कैदियों के साथ जो होता रहा, क्या वह मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं था? अमेरिका को इस मुद्दे पर आईना दिखा कर भारत ने जो किया, उचित ही है।
Date:16-04-22
हिंसा के परिसर
संपादकीय
विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्राप्त है। ऐसा इसलिए किया गया ताकि शैक्षणिक परिसर बौद्धिक विकास के केंद्र बने रहें। वहां नए विचारों, उत्कृष्ट मस्तिष्क के विकास को अवसर मिलता रहे। वहां से निकली प्रतिभाएं देश की तरक्की में काम आती हैं। अगर इन परिसरों में वैचारिक संकुचन का वातावरण होगा, सत्ता का हस्तक्षेप बना रहेगा, तो प्रतिभाओं का विकास बाधित होगा। नए अनुसंधान और शोध प्रभावित होंगे। इस तरह प्रगतिशील और उर्वर समाज का निर्माण संभव नहीं होगा। मगर पिछले कुछ सालों में जैसे इस तकाजे को भुला दिया गया है और शैक्षणिक परिसर राजनीतिक दलों की जोर आजमाईश के अखाड़े बनते गए हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इन दिनों जिस तरह का माहौल बना हुआ है, वह इसका ताजा उदाहरण है। दरअसल, पिछले कुछ समय से वहां वामपंथी और दक्षिणपंथी माने जाने वाले विद्यार्थी संगठनों के बीच वैचारिक संघर्ष बना रहता है। उसी का नतीजा रामनवमी के दिन देखने को मिला जब दोनों गुट मांसाहार पकाने और रामनवमी की पूजा में विघ्न डालने के आरोपों के साथ परस्पर भिड़ गए। उसमें दोनों तरफ से करीब साठ छात्र घायल बताए जा रहे हैं। इस घटना के बाद विश्वविद्यालय की कुलपति ने कहा कि बाहरी छात्र आकर परिसर में उपद्रव फैलाते हैं।
कुलपति के बयान के दो दिन बाद ही विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार के आसपास के इलाकों में भगवा ध्वज और धमकी भरे पोस्टर चिपका दिए गए। इससे एक बार फिर यह साफ हो गया कि बाहरी तत्त्व जेएनयू को बदनाम करने की ताक में रहते हैं। इसके पहले भी साबरमती छात्रावास में बाहर से आए कुछ उपद्रवी तत्त्वों ने मारपीट की थी, जिसे लेकर लंबे समय तक माहौल तनावपूर्ण बना रहा। ऐसे में सवाल है कि जब जेएनयू प्रशासन को पता है कि बाहरी तत्त्व परिसर में आकर उपद्रव फैलाने का प्रयास करते हैं, तो फिर उन पर रोक लगाने में दिक्कत कहां आ रही है। जेएनयू परिसर की बनावट ऐसी है कि वहां कोई भी बेरोक-टोक घुस नहीं सकता। वहां आने-जाने वाले हर बाहरी वाहन की जांच होती है, उसे कहां, किससे मिलने, किस काम से जाना है, उसका ब्योरा दर्ज किया जाता है। इसके बावजूद वहां बाहरी लोग घुस कर मारपीट कर बाहर निकलने में कामयाब हो गए, तो कहीं न कहीं यह जेएनयू के सुरक्षा इंतजाम की खामी है। हां, परिसर में जाने वाली बसों में सफर करने वालों की जांच नहीं की जाती, इसलिए उनके जरिए उपद्रवियों के घुसपैठ करने की आशंका हो सकती है। मगर उन बसों पर नजर रखना भी कोई मुश्किल काम नहीं माना जा सकता।
बावजूद इन सबके, चिंताजनक बात यह है कि जेएनयू परिसर का माहौल खराब करने की कोशिशें जिस भी तरह हो रही हैं, उन्हें अगर रोका नहीं गया तो एक उत्कृष्ट संस्थान को नष्ट होते देर नहीं लगेगी। विद्यार्थी संगठनों के बीच वैचारिक टकराव हर जगह होते हैं, मगर उन्हें बाहर से संचालित किया जाएगा, तो परिसर की न तो गरिमा बचेगी और न विद्यार्थियों में वे मूल्य और मेधा, जिनके विकास की उनसे अपेक्षा रहती है। अच्छी बात है कि पुलिस ने जेएनयू के आसपास लगे भड़काऊ और आपत्तिजनक पोस्टर तथा झंडे हटा दिए, पर इतने भर से उस परिसर का माहौल सुधरने का भरोसा नहीं पैदा होता। संस्थाएं वहां पैदा होने वाली प्रतिभाओं के बल पर ख्याति अर्जित करती हैं, उपद्रवी तत्त्वों के माध्यम से नहीं। इस बात से जेएनयू प्रशासन भी अनजान नहीं।
न्याय पर बोझ
संपादकीय
त्वरित न्याय ही वास्तविक न्याय होता है और त्वरित न्याय के लिए पूरे संसाधन और पर्याप्त न्यायाधीश भी होने चाहिए। अत: अपने देश के प्रधान न्यायाधीश का यह इशारा स्वाभाविक और स्वागतयोग्य है कि न्यायपालिका पर बहुत बोझ है और पर्याप्त संख्या में अदालतें होंगी, तो ही न्याय संभव है। बीते वर्ष से ही देश की सर्वोच्च अदालत में सुनवाइयों के दौरान ट्रिब्यूनल में रिक्त पदों का मुद्दा उठता रहा है। शीर्ष अदालत की नाराजगी भी सामने आती रही है। यह अपने आप में गंभीर बात है कि देश के प्रधान न्यायाधीश न्यायपालिका में कमी को लेकर एकाधिक बार अपनी राय रख चुके हैं। प्रधान न्यायाधीश ने शुक्रवार को तेलंगाना स्टेट ज्युडिशियल कॉन्फ्रेंस 2022 को संबोधित करते हुए कहा कि ‘न्यायपालिका का बुनियादी ढांचा और रिक्त पदों पर भर्तियां चिंता का मुख्य विषय हैं। न्याय तक पहुंच तभी संभव है, जब हमें पर्याप्त संख्या में अदालतें मिलेंगी।’
यह अपने आप में बेहद संवेदनशील विषय है कि न्यायपालिका में नियुक्तियों में देरी हो रही है। सरकार को देखना चाहिए कि बाधा कहां है? अदालतों ने पहले भी न्यायपालिका के विस्तार का पक्ष लिया है, लेकिन प्रशासन बहुत सजग नहीं दिखता। भारतीय न्यायपालिका पर जो बोझ है, वैसा दुनिया की किसी न्यायपालिका पर नहीं है। अभी भी मामलों को न्याय तक पहुंचने में तीस-चालीस साल भी लग जा रहे हैं। पुराने मुकदमों का निपटारा जल्दी नहीं हो रहा है और नए मुकदमे बढ़ते जा रहे हैं। यह बात अलग है कि कई मुकदमे प्रशासन की कमियों की वजह से हैं। खासकर गैर-फौजदारी मामलों में बहुत कमी आ सकती है, लेकिन प्रशासन का काम करने का तरीका निचले स्तर पर अपेक्षित गति से सुधर नहीं रहा। अदालतों के कागजी कामकाज का विस्तार भी लगातार हो रहा है, अत: न्याय में देरी ज्यादातर मामलों में एक सच्चाई है। न्याय में देरी से कुछ लोगों को फायदा होता है, लेकिन कुल मिलाकर शासन-प्रशासन की छवि खराब होती है। आम लोगों की नजर में न्याय या अन्याय अंतत: सरकार की जिम्मेदारी है। फिर भी कोई भी राजनीतिक दल त्वरित न्याय को लेकर चिंतित नहीं दिखता। किसी के भी घोषणापत्र में त्वरित न्याय सुनिश्चित करने की कोई रूपरेखा नहीं होती है। ऐसे में, हमारे न्यायाधीशों की शिकायत जायज है। क्या हमारी राजनीतिक पार्टियां लोगों को त्वरित न्याय का वादा नहीं कर सकती हैं? क्या यह लोकहित का मामला नहीं है?
आज न्यायपालिका का विस्तार जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उसमें समय के साथ आंतरिक सुधार। एक अनुमान के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय में साल भर में 200 दिन भी सुनवाई नहीं होती है। उच्च न्यायालयों में करीब 210 दिन और निचली अदालतों में करीब 245 दिन ही काम होता है। सर्वोच्च न्यायालय में करीब 73,000 मामले और भारत की सभी अदालतों में लगभग 4.40 करोड़ मामले लंबित हैं। मुकदमों की संख्या में हर साल बढ़ोतरी हो रही है। नीति आयोग के एक रणनीति पत्र के मुताबिक, अदालतों को तमाम दर्ज मामले सुलझाने में अभी के हिसाब से करीब 324 साल से अधिक समय लग जाएगा। हजारों मामले तीस-तीस साल से लंबित हैं। अत: न्यायपालिका के बोझ को हल्का करने और उसे त्वरित न्याय की दिशा में प्रेरित करने के भगीरथ प्रयासों की जरूरत है। त्वरित न्याय समाज में सुख-शांति और कानून के राज के लिए भी जरूरी है।
Date:16-04-22
जीवन मूल्य और नैतिकता के बिना नई शिक्षा अधूरी
नंदितेश निलय
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सभी विश्वविद्यालयों को एक बहुत उपयोगी सलाह दी है। इन सभी उच्च शिक्षा संस्थानों को स्नातक स्तर पर मानव मूल्यों और व्यावसायिक नैतिकता पर फाउंडेशन कोर्स शुरू करने के लिए कहा गया है। इसके अलावा स्नातकोत्तर स्तर पर एक अग्रिम पाठ्यक्रम शुरू करने, मानवीय मूल्यों पर असाइनमेंट और कार्य देने, प्रत्येक विश्वविद्यालय को एक ‘मूल्य अधिकारी’ नियुक्त करने की सलाह भी दी गई है। इतना ही नहीं, उच्च शिक्षण संस्थानों में मानवीय मूल्यों और पेशेवर नैतिकता को लेकर ‘वैल्यू ऑडिट’ की भी चर्चा हुई है।
जीवन मूल्य आधारित शिक्षा नई शिक्षा नीति 2020 का भी अभिन्न अंग बन गई है। आज शिक्षा को पहले की तुलना में कहीं ज्यादा मूल्य आधारित बनाना जरूरी हो गया है। आज समाज में सत्य, प्रेम और करुणा के सार्वभौमिक मानवीय मूल्य जरूरी होते जा रहे हैं। सही दिशा में अगर काम हुआ, तो न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के भारतीय सांविधानिक मूल्य भी तमाम स्तर पर पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनेंगे। अपने देश को महापुरुषों द्वारा पोषित मूल भावों के अनुरूप रखने के लिए भी मानवाधिकार की चिंता और विश्व कल्याण की भावना सृजित करना जरूरी है।
ध्यान रहे, कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने मूल्य शिक्षा के लिए राष्ट्रीय संसाधन केंद्र की स्थापना की थी। एनसीईआरटी की ओर से एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई, स्कूलों में मूल्यों के लिए शिक्षा – एक ढांचा। इग्नू ने भी एक पुस्तक ‘प्रभावी कक्षा प्रक्रियाएं’ निकाली, जिसमें आत्मविकास पर जोर दिया गया था। सीबीएसई की भी जीवन कौशल शिक्षा पर एक किताब है, जो पढ़ाई जा रही है।
वैसे शिक्षा के माध्यम से मूल्य का ज्ञान कराने का प्रयास दुनिया में हर जगह होता है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में नैतिकता और जीवन मूल्यों को लेकर पाठ्यक्रम खासा लोकप्रिय है। यूनेस्को की ओर से भी इस दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं और उनकी एक किताब : लर्निंग- द वे ऑफ पीस- ए टीचर्स गाइड टु पीस एजुकेशन भी जीवन मूल्यों पर आधारित शिक्षा को बढ़ावा दे रही है। यहां सवाल यह भी उठेगा कि जीवन मूल्यों को तो हमने संस्कार में ही पढ़ना-लिखना सीखा था, तो फिर इसकी पढ़ाई औपचारिक रूप से हिंदुस्तान से लेकर अन्य देशों में क्यों शुरू हुई? अगर हम ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट 2021 को देखें, तो पाएंगे कि भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक (सीपीआई) में 180 देशों के बीच भारत की रैंक 85 में एक स्थान का सुधार हुआ है। ईमानदारी में हम बहुत पीछे हैं। बेईमानी हर जगह संकट पैदा करने लगी है। नतीजा यह कि अब कॉरपोरेट दुनिया में भी बिजनेस एथिक्स और जीवन मूल्यों का प्रशिक्षण अनिवार्य होने लगा है। टाटा, इन्फोसिस, विप्रो, मारुति सुजुकी आदि कंपनियों ने कॉम्पिटेंसी ड्रिवन ट्रेनिंग के साथ-साथ एथिक्स और जीवन मूल्यों के प्रशिक्षण को बहुत तरजीह दी है। सामाजिक रूप से जिम्मेदार व्यवहार समाज, परिवार और राष्ट्र के लिए वरदान होता है। ऐसी स्थिति में हमें नई शिक्षा नीति में विशेष रूप से दर्ज पांच सार्वभौमिक मूल्यों, सत्य, शांति, अहिंसा, प्रेम, धार्मिक आचरण को भी ध्यान में रखना चाहिए। यूपीएससी ने जब सिविल सर्विसेज परीक्षा के लिए एथिक्स पेपर की शुरुआत की थी, तब बहुतों को हैरानी हुई थी। सवाल यह भी उठे थे कि क्या एथिक्स और वैल्यूज पढ़ने-पढ़ाने के विषय हैं? ग्रीक दार्शनिक प्लेटो और अरस्तू ने भी यह प्रश्न उठाया था और माना था कि एक नागरिक व राज्य के स्वास्थ्य के लिए जीवन मूल्यों व नैतिकता को शिक्षण-प्रशिक्षण का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाना चाहिए।
पिछली पीढ़ियों ने नैतिकता और जीवन मूल्यों के बलबूते काफी कुछ निर्माण किया है, आजादी मिली, गरीबी और निरक्षरता में भी बहुत कमी आई, लेकिन क्या पिज्जा, बर्गर, ओटीटी, एलेक्सा, फेसबुक और ट्विटर की पीढ़ी उन मूल्यों को महसूस करती है? क्या वह नैतिकता और समावेशी जीवन मूल्यों की उपयोगिता समझने में सक्षम है? क्या एक बड़ी संख्या समाज में उन लोगों की नहीं हो गई है, जो जीवन मूल्यों व नैतिकता को व्यावहारिक नहीं मानते हैं?
खैर, दौर कोई भी हो, मानवतावादी विचार प्रासंगिक होने चाहिए। संस्कृति का विचार उस शांति और समृद्धि के ईद-गिर्द होना चाहिए, जिसे अशोक ने प्रचारित किया और विवेकानंद ने भी। भारतीय दर्शन और संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं में, वसुधैव कुटुम्बकम के साथ-साथ सर्वे भवन्तु सुखिन: जैसे संदेश भी शामिल हैं, यह हमें कतई भूलना नहीं चाहिए। महामारी के वक्त दुनिया को साझा जीवन मूल्यों ने ही बचाया है। दुनिया सामरिक शक्ति से नहीं, बल्कि जीवन मूल्यों से बचेगी।