16-04-2018 (Important News Clippings)

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16 Apr 2018
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Date:16-04-18

न्यायिक सुधार का अधूरा एजेंडा, निचली अदालत के ढांचे को सुधारने की पहल जरूरी

संजय गुप्त,  (दैनिक जागरण के प्रधान संपादक)

इस वर्ष जनवरी माह में जब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके अपनी संस्था के आंतरिक प्रशासन की समस्याओं को सामने रखते हुए लोकतंत्र को खतरे में बताया था तब यह स्पष्ट हुआ था कि शीर्ष अदालत में सब कुछ ठीक नहीं है। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस ने सारे देश का ध्यान इसलिए खींचा था, क्योंकि चारों न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश पर यह आरोप भी लगाया था कि वह संवेदनशील मुकदमों को पसंदीदा बेंच में भेज रहे हैं। ऐसे आरोपों ने जनता को इसलिए अवाक किया, क्योंकि वह इस संस्था को निष्पक्ष संस्था के तौर पर देखने के साथ ही यह मानकर भी चलती है कि जब कहीं से न्याय नहीं मिलेगा तो सुप्रीम कोर्ट सहारा बनेगा। उक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद ये संकेत दिए गए कि सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीश आपस में मिल-बैठकर समस्या हल कर लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और सुप्रीम कोर्ट में उठापटक कायम रही। इस उठापटक के जारी रहने से यही जाहिर हो रहा कि वरिष्ठ न्यायाधीशों की चिंता केवल सुप्रीम कोर्ट की कथित आंतरिक समस्याओं तक ही सीमित है और उनके एजेंडे पर ऐसा कुछ नहीं कि सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक की व्यवस्था सुधरे। अब तो ऐसा भी लगता है कि वरिष्ठ न्यायाधीशों की चिंता को सुप्रीम कोर्ट के चुनिंदा वकीलों ने भी अपने अहं की लड़ाई का हिस्सा बना लिया है। इसका संकेत इससे मिलता है कि न्यायिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की बात कोई नहीं कर रहा।

पिछले दिनों न्यायाधीश चेलमेश्वर ने एक साक्षात्कार में कहा कि अगर दीपक मिश्र के बाद रंजन गोगोई को मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया जाता तो वे आशंकाएं सच साबित होंगी जो उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में जताई थीं। इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाया जाना समस्या का हल नहीं। ज्ञात हो कि उन दिनों कुछ राजनीतिक दल और खासकर कांग्रेस जस्टिस दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग लाने की कवायद कर रही थी। न्यायाधीश चेलमेश्वर के इस साक्षात्कार के बाद उनके साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले एक अन्य न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों को एक चिट्ठी लिखकर कोलेजियम की सिफारिश पर केंद्र सरकार की चुप्पी पर सवाल उठाए। उनका आग्रह था कि इस मामले में सरकार से सवाल पूछना चाहिए।

कोलेजियम ने फरवरी में न्यायाधीश केएम जोसेफ और इंदु मल्होत्रा को सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त करने की सिफारिश की थी, लेकिन केंद्र सरकार ने न तो यह बताया कि कोलेजियम की सिफारिश मानने में देर क्यों हो रही है और न ही सिफारिश पर अपनी कोई आपत्ति प्रकट की। कोई स्पष्टीकरण न आने के चलते यह माना गया कि केंद्र सरकार केएम जोसेफ को इसलिए सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त नहीं करना चाहती, क्योंकि उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार को बर्खास्त करने संबंधी फैसले को उन्होंने ही खारिज किया था। समस्या केवल यह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश सवाल पर सवाल कर रहे हैं, बल्कि यह भी है कि कुछ वकील मुकदमों के आवंटन की व्यवस्था को लेकर अपनी मुहिम छेड़े हुए हैं। वे मुकदमा आवंटन की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के लिए याचिकाएं भी दायर कर रहे हैं। बीते दिनों एक ऐसी ही याचिका का निपटारा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह तय करने का अधिकार मुख्य न्यायाधीश को ही है कि कौन सा मामला किस बेंच को सौंपा जाएगा, लेकिन इसके बाद इसी आशय की एक और याचिका दायर कर दी गई। इसके पहले न्यायाधीश चेलमेश्वर ने ऐसी याचिका सुनने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि वह नहीं चाहते कि उनके फैसले को पलट दिया जाए। ऐसा कहकर उन्होंने एक बार फिर दीपक मिश्र को निशाने पर लिया। यह रवैया इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की ओर से यह स्पष्ट किया जा चुका है कि मुकदमों के आवंटन में न्यायाधीशों की वरिष्ठता कोई आधार ही नहीं। इस फैसले के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के तो सभी जज अनुभवी होते हैं, चाहे वे हाईकोर्ट से आए हों या फिर बार से।

सुप्रीम कोर्ट के जो न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश पर निशाना साध रहे हैं वे यह नहीं स्पष्ट कर रहे हैं कि किस तरह मुकदमों के आवंटन में मनमानी हो रही है? एक ओर वे से आंतरिक मामला बता रहे हैं और दूसरी ओर उसे सार्वजनिक भी कर रहे हैं। उनकी ओर इसे यह भी साफ नहीं किया जा रहा कि संवेदनशील मामलों से उनका क्या आशय है? वे यह भी माहौल बना रहे हैं कि मुख्य न्यायाधीश केंद्र सरकार के नजदीक हैं और फैसले केंद्र सरकार के मन मुताबिक दिए जा रहे हैं। विपक्ष इस माहौल का लाभ उठाने में लगा हुआ है। मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने की पहल से तो यही साबित होता है। क्या यह विचित्र नहीं कि विपक्षी नेताओं ने महाभियोग लाने की बातें तो कीं, लेकिन यह नहीं बताया कि किस आरोप में?

यह कोई पहली बार नहीं जब सुप्रीम कोर्ट के जजों के बीच के मतभेद सामने आए हों। सुप्रीम कोर्ट में तमाम मसले ऐसे होते हैं जिनमें नैतिकता का सवाल होता है। इसे लेकर न्यायाधीशों के बीच मतभेद होते ही हैं और कई बार फैसला बहुमत के जरिये होता है। ऐसा होना स्वाभाविक है, लेकिन यह स्वाभाविक नहीं कि न्यायाधीशों के बीच के मतभेद हद से ज्यादा बढ़ जाएं। सुप्रीम कोर्ट में विवाद को देखते हुए केंद्र सरकार को न्यायिक व्यवस्था में सुधार के साथ जजों की नियुक्ति प्रणाली में बदलाव की पहल करनी चाहिए। वैसे भी कोलेजियम के जरिये न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रणाली दोषपूर्ण साबित हो चुकी है। ऐसा शायद ही कोई लोकतांत्रिक देश होगा जहां जजों की नियुक्ति खुद जज ही करते हों। कोलेजियम प्रणाली के विकल्प के रूप में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को प्रस्तुत किया गया था, लेकिन उसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया और मेमोरेंडम आफ प्रोसिजर का मामला भी अभी अधर में है।

आवश्यक केवल यह नहीं कि केंद्र सरकार न्यायिक नियुक्ति आयोग को नए सिरे से बनाने की पहल करे, बल्कि यह भी है कि निचली अदालतों में मुकदमों के बढ़ते बोझ को कम करने का कोई उपाय निकाले, क्योंकि इससे बड़ी विडंबना कोई और नहीं कि आम लोगों को समय पर न्याय न मिले। यह समय पर न्याय न मिल पाने का ही दुष्परिणाम है कि सामाजिक असंतोष के साथ-साथ उत्पीड़न-शोषण और भ्रष्टाचार के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं। अगर निचले स्तर पर न्याय आसानी से और समय पर उपलब्ध हो तो उसका सीधा लाभ समाज में बढ़ती खाई को पाटने के रूप में मिलेगा। चूंकि सुप्रीम कोर्ट में जारी उठापटक का समाधान केवल उच्चतर न्यायिक प्रणाली को ही राहत देगा इसलिए निचली अदालतों के न्यायिक ढांचे को सुधारने की पहल कहीं ज्यादा जरूरी है। ध्यान रहे कि निचली अदालतों में जहां करीब पौने तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं वहीं न्यायाधीशों के लगभग पांच हजार पद रिक्त हैं। इसके अतिरिक्त निचली अदालतों की संख्या बढ़ाने की भी जरूरत है। हैरत की बात है कि इस जरूरत की पूर्ति हो, इसके लिए मुश्किल से ही कोई जनहित याचिका लगती है और दूसरी और सुप्रीम कोर्ट की कथित समस्याओं को लेकर याचिकाओं का अंबार लगा है। अब जब यह स्पष्ट है कि निचली अदालतों के समाधान को लेकर न तो उच्च न्यायालय सक्रियता दिखा रहे हैं और न ही राज्य सरकारें तब फिर केंद्र सरकार को इस दिशा में आगे बढ़ना ही चाहिए।


Date:16-04-18

संघ हिन्दू हित को परिभाषित नहीं करता

राजकिशोर

धर्म राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कल्पना डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने 1925 में की थी। कहते हैं, हेडगेवार को हिन्दू समाज और संस्कृति से बहुत लगाव था। तब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बजाय हिन्दू स्वयंसेवक संघ की स्थापना क्यों नहीं की? ‘डॉ. हेडगेवार: परिचय एवं व्यक्तित्व’ में, जिसकी भूमिका संघ के पांचवे सरसंघचालक कुप्प. सी. सुदशर्न ने लिखी है, चन्द्रशेखर परमानंद भिशीकर बताते हैं : ‘संघ की स्थापना’ इन तीन शब्दों में डॉक्टर जी के चिंतन का सार समाया हुआ था। संघ यानी हिन्दुओं की संगठित शक्ति। स्पष्ट है कि भारत में हिन्दू ही राष्ट्र है। उसके राष्ट्र में वे लोग शामिल नहीं हैं, जो हिन्दू नहीं हैं।

दो बातें बिल्कुल साफ हैं। एक, संघ की स्थापना का उद्देश्य हिन्दुओं को मजबूत बनाना था ताकि वे हिन्दू हितों की रक्षा कर सकें। लेकिन ‘हिन्दू हित’ क्या हैं, इसकी परिभाषा संघ ने कभी नहीं की। दूसरी, अंग्रेजों का सफलतापूर्वक सामना करना, लेकिन व्यवहार में यह गौण ही नहीं, उपेक्षित रहा। संघ ने अंग्रेजी सत्ता से कभी संघर्ष नहीं किया। राजनीति से अपने को दूर रखा। केवल हिन्दुओं को संगठित करने पर जोर दिया।

यह अभी तक अपरिभाषित है कि हिन्दू समाज ‘संगठित’ होकर करेगा क्या? जाहिर है, यह सांगठनिक मजबूती दूसरे धर्मो और विचारधाराओं से टकराने के लिए है। हिन्दू समाज में धार्मिंक सुधार किए जाएं, यह इसमें शामिल नहीं है। संघ ने कोशिश की होती तो अस्पृश्यता, जाति व्यवस्था, स्त्री की अधीनस्थता, दहेज आदि मामलों में काफी प्रगति हो सकती थी। संघ पर तीन बार प्रतिबंध लगा। पहला, पंजाब राज्य ने 24 जनवरी, 1947 को लगाया था, पर चार दिनों के बाद 28 जनवरी, 1947 को इसे हटा भी लिया गया। दूसरी बार प्रतिबंध महात्मा गांधी की हत्या के बाद 4 फरवरी, 1948 को लगाया गया। महात्मा गांधी की हत्या में संभवत: संघ का सीधा हाथ नहीं था, पर जिस वातावरण में यह कुकृत्य हुआ, उसके निर्माण में संघ और हिन्दू महासभा का पूरा हाथ था। इन संगठनों को लगता था कि गांधी जी अनावश्यक रूप से मुसलमानों को तुष्ट करने में लगे हुए हैं। विभाजन के बाद पाकिस्तान के भारत पर 55 करोड़ रुपये बाकी थे। जब पाकिस्तान ने कश्मीर में उपद्रव करना शुरू किया, तब भारत ने इसका भुगतान रोक दिया। उस समय देश भर में पाकिस्तान-विरोधी वातावरण बना हुआ था। ऐसे वातावरण में गांधी जी ने सरकार को बाध्य किया कि बकाया चुकाए। इसके कुछ दिनों के बाद नाथूराम गोडसे ने गांधी जी की हत्या कर दी। स्पष्ट था कि इसके पीछे प्रचंड सांप्रदायिक भावना थी। परिणामस्वरूप नेहरू सरकार ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। गोलवलकर गिरफ्तार कर लिए गए। गांधी जी की हत्या पर संघ के लोग बहुत प्रसन्न हुए थे। उन्होंने मिठाई भी बांटी थी।

रिहा होने के बाद गोलवलकर ने पहले प्रधानमंत्री नेहरू से, फिर गृह मंत्री पटेल से संघ पर से प्रतिबंध हटाने के लिए मुलाकात की। पटेल ने इसके लिए शर्त रखी कि संघ अपना लिखित संविधान बनाए, भारतीय संविधान और राष्ट्रीय ध्वज को मान्यता दे, संघ प्रमुख के अधिकार तय किए जाएं, आंतरिक चुनाव हों और हिंसा तथा गोपनीयता का परित्याग किया जाए। संघ ने एक संविधान बनाया जरूर पर उसमें इन सभी शतरे का पालन नहीं किया गया। बहरहाल, 11 जुलाई, 1949 को संघ पर से प्रतिबंध हटा लिया गया। संघ पर तीसरा प्रतिबंध इमरजेंसी के समय लगा, जब संघ के लोग जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में हिस्सा ले रहे थे। इमरजेंसी हटने के बाद भारतीय जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हो गया और प्रतिबंध हटा लिया गया। लेकिन जनसंघ के सदस्य संघ की सदस्यता छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। इस दोहरी सदस्यता के सवाल पर तथा आंतरिक कलह के कारण जनता पार्टी टूट गई और जनसंघ के धड़े ने भारतीय जनता पार्टी बना ली। ध्यान देने की बात है कि यहां भी हिन्दू जनता पार्टी नहीं कहा गया क्योंकि भाजपा के लोगों की मान्यता थी कि हिन्दू होना ही भारतीय होना है। इस तरह हिन्दू, राष्ट्रीय और भारतीय, तीनों शब्द पर्यायवाची बना दिए गए।

संघ ने हिन्दू समाज में धार्मिंक और सामाजिक सुधार का सूत्रपात न कर उसकी जड़ता, रूढ़िवादिता और दलित-विरोधिता को बनाए रखने में हिस्सा लिया है। संघ का दृष्टिकोण पूर्णत: अवैज्ञानिक है। वह वैज्ञानिक तथ्य नहीं मानता और पौराणिक मानसिकता से ग्रस्त रहता है। हिन्दू समाज को आगे नहीं, बल्कि महाराणा प्रताप और शिवाजी की दुनिया में ले जाना चाहता है। आर्थिक समता और सामाजिक न्याय में उसे विश्वास नहीं है। पूंजीवाद का समर्थक और समाजवाद का विरोधी है। भारतीय जनता पार्टी की स्थापना करते समय अटल बिहारी वाजपेयी, जो संघ के प्रचारक रह चुके हैं, ने पार्टी का लक्ष्य गांधीवादी समाजवाद बताया था, लेकिन पार्टी में न गांधी के दशर्न हुए, न समाजवाद के। आज संघ सांप्रदायिकता, जातिवाद, दलित और स्त्री विरोध तथा पूंजीवाद का सबसे बड़ा समर्थक संगठन है। यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि बार-बार आलोचना सुनने के बाद भी उसमें अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने की क्षमता दिखाई नहीं देती। यह उसकी बौद्धिक जड़ता का स्पष्ट प्रमाण है।


Date:15-04-18

North India deserves credit for the demographic dividend

Swaminathan S Anklesaria Aiyar is consulting editor of The Economic Times. He has frequently been a consultant to the World Bank and Asian Development Bank.

Once, India had a supposed problem called the population explosion. Today, in a dramatic reversal, India gets congratulations for garnering a huge demographic dividend. The working age (15-65 years) proportion of its population is growing fast and will keep growing for decades, boosting GDP growth, while other countries suffer from falling workforces and ageing populations that crimp growth. India will add maybe 200 million to its workforce in the next three or four decades while China suffers a declining workforce. The supposed population curse has suddenly become a global advantage.

This change has not been absorbed fully into popular or political thinking. The southern states have long been leaders in family planning, while northern states have long had the highest fertility and population growth rates. Between 2001 and 2011, population growth was 25.1% in Bihar against just 4.9% in Kerala.The south has long been congratulated for its fertility success, and the north slated for its failure. But, with the change in perceptions, the north can demand recognition for contributing the most to India’s demographic dividend. Many countries now offer large incentives (grants and free childcare) to induce parents to have large families. North Indians do the job free of charge.

Today, the southern states are outraged that the terms of reference of the 15th Finance Commission mandate the use of 2011 population data in its complex formula for sharing central tax revenues between different states. Earlier Finance Commissions used the state-wise population shares of the 1971 census, to avoid penalising states with good family planning and hence falling population share. This benefited the south at the expense of the north.

Now the 15th Finance Commission has been told to use the state-wise population shares of 2011, ending the reward for falling fertility. Some angry southern politicians want the south to secede from India. However, as a matter of basic equity, every citizen is entitled to a slice of tax revenue, and to that extent, using the latest population share (and not the 1971 share) is equitable. Moreover, the demographic dividend means rising population is now a blessing, not a curse. That constitutes a case for rewarding, not penalising the north.

Readers will ask, how did the population explosion morph into the demographic dividend? When a poor country improves health and nutrition, its death rate plummets, while its birth rate falls only gradually. Hence its population suddenly shoots up, and can look threatening. The ratio of dependents (children and aged) to workers rises, straining breadwinners.

In the next phase, rising incomes and education induce family planning. The birth rate falls. As kids of the preceding baby boom reach working age (15 to 65 years), the proportion of workers to dependents rises sharply. This is the demographic dividend — more workers for a given population. It is often buttressed by more women getting educated and joining the workforce, further increasing the demographic dividend. Some studies estimate that almost half the growth boom in Asian miracle economies was due to their demographic dividend. India has now joined the happy band.

However, in the next phase, the aged start living much longer, even as the birth rate falls below replacement levels. The rise in aged dependents can far exceed the fall in child dependents, so the ratio of total dependents to workers rises. This strains not only household budgets but also national budgets, which provide large sums for pensions and healthcare costs for the aged. This is one reason for reduced economic performance in Japan and Europe.

India’s southern states led the lowering of birth rates and initiated the demographic dividend, and were rewarded with rapid GDP growth. But the birth rate in Kerala and Tamil Nadu has already fallen below replacement levels. Their populations are ageing fast and will soon begin shrinking, portending serious problems. Fortunately, north India will provide an expanding population and workforce for decades. Bihar may keep this up until 2100. The demographic dividend launched by the south is now being carried forward by the north. Caveat: to maximise the dividend, India must improve worker skills and female labour participation.

The Finance Commission should incentivise good performance by giving some weightage to efforts by states in fiscal effort, quick justice, environmental protection, education and health. That will benefit the high-performance states of the south and west, and alleviate their grievance about the use of 2011 population figures. But they must adjust to the fact that what was once called poor performance in fertility by the northern states can, ironically, now be called high performance in creating future workers.